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श्रमणाचार : २३५
कालाति क्रम दोष :
धर्मशालादि स्थानों में मासकल्प एवं चातुर्मास कल्प कर चुकने के बाद बिना किसी कारण पुनः-पुनः उन स्थानों में निवास करने से कालातिक्रम दोष लगता है । १२६ उपस्थान क्रिया दोष :
किसी क्षेत्र में, धर्मशालादि स्थानों में मासकल्प और वर्षावास कर लेने के बाद अन्य क्षेत्रों में दुगुना या तिगुना समय व्यतीत किए बिना ही पुनः उन्हीं स्थानों में आकर निवास करने से उपस्थान क्रिया दोष लगता है ।२७ अभिक्रान्तक्रियायुक्त ठहरने योग्य स्थान :
साधु के आचार-व्यवहार से सर्वथा अनभिज्ञ श्रद्धालु गृहस्थों ने अन्य मतावलम्बी शाक्यादि भिक्षुओं, ब्राह्मण, अतिथि, भिखारी लोगों के उद्देश्य से तथा अपने व्यवसाय या परिवार के उद्देश्य से जहाँ-तहाँ धर्मशाला, कारखाने आदि अनेक स्थान बनवाये हैं और यदि उन स्थानों में शाक्यादि लोग ठहर चुके हैं या ठहरने योग्य स्थान गृहस्थ ने अपने काम में ले लिया है तो अभिक्रान्तक्रिया से युक्त स्थानों में भिक्षु ठहर सकता है । १२० ठहरने योग्य स्थानों का वर्णन विविक्त शयनासन नामक तप में किया गया है। अनभिक्रान्तक्रिया का दोष : __उक्त ठहरने योग्य स्थानों को अभी तक किसी ने उपयोग में नहीं लिया है, वे खाली ही पड़े हैं तो वहाँ ठहरने से भिक्षु को अनभिक्रान्त क्रिया का दोष लगता है,१२९ अर्थात् ऐसे स्थान में मुनि को नहीं ठहरना चाहिए। वयं किया :
बहुत से श्रद्धालु सद्गृहस्थ, दास-दासी आदि श्रमणाचार से परिचित होते हैं और उनकी मर्यादा जानते हैं, अतः वे परस्पर बातचीत करते हैं कि इन्हें आधार्मिक दोष से युक्त उपाश्रय में रहना कल्प्य नहीं है। अतः अपने लिए बनाए हुए विशाल मकानों, स्थानों को इन्हें दे दें और अपने लिए दूसरे नए मकान बनवा लेंगे। इस तरह की बातचीत को सुनकर साधु उन स्थानों में नहीं ठहरे अर्थात् ऐसे स्थानों में ठहरने से उसे वर्ण्य क्रिया का दोष लगता है। 30 ।
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