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श्रमणाचार : २४१
बगीचों में, प्याऊ में, देवकूलों में, सार्वजनिक स्थानों में भी मलमूत्र का त्याग करना नहीं चाहिये अन्यथा किसी के मन में क्रोध आ जाने से अनिष्ट की सम्भावना रहती है ! इसी तरह देवालयों, सरोवरों, नदियों व तीर्थ स्थानों अर्थात् जहाँ पर लोग एकत्र होकर स्नान आदि करते हों, नदी के तटवर्ती कीचड़ के स्थानों पर, जल के प्रवाह रूप पूज्य स्थानों, बगीचों को जल देने वाली नालियों में भी मलमूत्र का त्याग नहीं करना चाहिये । जहाँ मृतक जलाये जाते हों, मृतक स्तूप हो, मृतक मंदिर हो, वहाँ मलोत्सर्ग न करे। इसी तरह बीजक, सण, धातकी, केतकी, आम्र, अशोक, नाग एवं पुन्नाग वृक्षों के वन में तथा इसी भाँति पत्रपुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पति के वन में भी मलमूत्र का त्याग नहीं करना चाहिये। ___ राजमार्ग नगर के बड़े द्वार, त्रिपथ, चतुष्पथ आदि विशेष स्थानों पर भी मलोत्सर्ग नहीं करना चाहिये ।१५१ ___इस प्रकार साधु-साध्वी अपनी संयम-साधना या जीव की रक्षा के साथ ही गाँव, नगर, बाग-बगीचे आदि की स्वच्छता समाप्त न हो तथा उनके आचरण से किसी के मन में अरुचि या घृणा भाव पैदा न हो इन बातों को भी दृष्टिगत रखकर मलमूत्रादि का त्याग करने का विधान है। मलमूत्र के उत्सर्ग के योग्य स्थान :
साधु-साध्वी बगीचे या उपाश्रय के एकान्त स्थान में जायें जहाँ कोई व्यक्ति न देखता हो, और न कोई आता जाता हो, तथा जहाँ पर द्वीन्द्रियादि जीव-जन्तु मकड़ी आदि के जाले भी न हों, ऐसी अचित्त (निर्जीव) भूमि में मलमूत्र का विसर्जन करना चाहिये । तत्पचात् साधुसाध्वी उस पात्र को लेकर एकान्त स्थान में जायें, जहाँ पर किसी का आवागमन न हो, तथा जहाँ किसी जीव की विराधना न होती हो और जो जल आदि सचित्त पदार्थों से रहित हो उस बगीचे की अचित्त भूमि में, अग्नि से दग्ध भूमि में और भी इसी तरह की निर्दोष भूमि में मलमूत्र का परिष्ठापन करना चाहिए।१५२ ___साधु-साध्वी को अपने महाव्रतों की रक्षार्थ समितियों के परिपालन में सदैव तत्पर रहना चाहिये। तीन गुप्ति :
'गुप् रक्षणे अर्थ वाली धातु से 'क्तिन्' प्रत्यय होकर' 'गुप्ति' शब्द
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