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२४४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
चार-चार भावनायें प्राप्त होती हैं । आचार्य उमास्वाति १६० ने भी बारह भावनाओं का वर्णन किया है। बारह भावनायें निम्नानुसार हैं
(१) अनित्य (२) अशरण ( ३ ) संसार ( ४ ) एकत्व (५) अन्यत्व (६) अशुचि (७) आस्रव (८) संवर (९) निर्जरा (१०) लोकस्वरूप (११) बोधिदुर्लभ और (१२) धर्मं । इनसे साधक को सदैव अपनी आत्मा को भावित करते रहना चाहिए । इन अनुप्रेक्षाओं के बार-बार चिन्तन से मोह से निवृत्ति होती है और सत्य की प्राप्ति होती है। इन्हें वैराग्य की जननी भी कहा गया है । सूत्रकृतांग में कहा गया है
भावणा जोग सुद्धप्पा जले नावावआहिया । णावाव तीरसपन्ना सव्वदुक्खा तिउट्टई ॥ ११
जिसकी आत्मा, भावना योग से शुद्ध है वह जल में नौका के समान है । वह तट को प्राप्त कर सब सब दुःखों से मुक्त हो जाता है ।
बारह अनुप्रेक्षाओं के निरन्तर अभ्यास से साधक को अपनी धर्म साधना में दृढ़ता एवं स्थिरता प्राप्त होती है। इनसे जीवन विराट् और समग्र बनता है । वास्तव में जिन आध्यात्मिक गुणों के लिये साधना-पथ स्वीकार किया गया है, उनके विकास में ये भावनायें बड़ी उपयोगी हैं । इनके अभ्यास से शारीरिक एवं सांसारिक आसक्ति मिटती है और आत्म विकास होता है ।
दशविध मुनि धर्म :
धर्म के दश लक्षण कहे गये हैं । धर्मं मुनि को अमर बनाते हैं तथा आत्मा पर लगे हुए कर्म - मल को दूर करते हैं । इन धर्मों के द्वारा कषायों को जीतकर उनके विरोधी गुणों का अभ्यास किया जाता है । यही कारण है कि इन दशविध धर्मों का पालन करना श्रमण साधना के लिये परमावश्यक माना गया है। गृहस्थों को भी इनका यथाशक्य पालन करना चाहिये । वे दश धर्मं इस प्रकार हैं
(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (९) आकिंचन्य और (१०) ब्रह्मचर्यं ।
इन दशविध धर्मों के अन्तर्गत सामान्यतया चार कषाय और पाँच पापों के अभाव का समावेश हो जाता है । मात्र यही नहीं, किन्तु इन धर्मों की विशिष्टता यह है कि उनमें कषायों एवं पापों के अभाव के साथ ही उनके उपशामक विधेयात्मक क्षमादि गुणों को अपनाने पर भी विशेष बल दिया गया है ।
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