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२४० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन निर्जीव भूमि में विवेक पूर्वक प्रतिष्ठापन अर्थात् व्युत्सर्जन परिष्ठापनिका समिति है। उच्चार-प्रस्त्रवण-निहार : __ आचारांग में कहा गया है कि आहार के साथ निहार तो निश्चित है । स्वाध्याय भूमि में अवस्थित साधु को मलमूत्रादि की बाधा हो जाए तो मलादि का कहाँ और कैसे प्रतिष्ठापन करना चाहिए, आचारांग में इसे उच्चार-प्रस्रवण कहा गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि मुनि को व्युत्सर्ग योग्य घणित पदार्थों को ऐसे स्थान पर त्यागना चाहिए जिससे न तो किसी जीव की हिंसा हो और न उससे किसी व्यक्ति को अप्रीति उत्पन्न हो। यहाँ भी अहिंसा की भावना हो दृष्टिगोचर होती है। इस समूचे अध्ययन सामग्री को हम तीन भागों में बाँटकर विचार कर सकते हैं: स्थण्डिल भूमि की सदोषता एवं निर्दोषता :
अण्डादि जीवजन्तुओं से युक्त भूमि पर मल-मूत्र का परित्याग न करे किन्तु निर्जीव, निर्दोष स्थान पर त्याग करे । ___ स्थण्डिल भूमि की सदोषता एवं निर्दोषता सम्बन्धी सारा वर्णन शय्यैषणा की भाँति ही जानना चाहिए । १५० किन स्थानों पर व्युत्सर्ग न करे : ___ सार्वजनिक उपयोगी स्थानों में मलमूत्रादि विसर्जन का विषेध करते हुए निर्देश दिया गया है कि-चावल, गेहूँ, मूग, उड़द, यव, ज्वार आदि के खेत में, कपित्थ वनस्पति विशेष के खेत में, तथा मूली, गाजर आदि के खेतों में मलोत्सर्ग न करे।
कूड़े-कचरे के ढेर, फटी एवं कटी हुई भूमि, खम्भे एवं कीलें गड़ी भूमि, गहरे गड्ढे, गुफाएँ, किले की दीवाल आदि तथा जहाँ कीचड़ एवं इक्षु आदि के डण्डे पड़े हों, सम-विषम भूमि हो, वहाँ भी मल-मूत्रादि का त्याग न करे क्योंकि वहाँ जोव-हिंसा को सम्भावना है। ___ जहाँ चूल्हे हों, गाय, भैंस, बैल, घोड़ा, कुक्कुट, बन्दर, हाथी, चिड़िया, तोतर, कबूतर आदि के निवास स्थान हों अथवा जहाँ पर इनके लिये कोई क्रियाएँ की जाती हों वहाँ भो मल-मूत्र का प्रतिष्ठापन नहीं करना चाहिये । इसके अतिरिक्त फाँसी देने के स्थान, गिद्ध-पक्षी के सामने गिरकर मरने के स्थान, वृक्ष एवं पर्वत पर चढ़कर वहाँ से गिरकर मरने के स्थान, विष-भक्षण एवं अग्नि में जलकर मरने के स्थान पर भी प्रतिष्ठापन नहीं करना चाहिये ।
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