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२२८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन सन्तुलित रखना अनिवार्य है। गीता में भी योगी के लिये युक्त आहार का विधान है। आहार सात्विक एवं उचित मात्रा में ही लेना चाहिए। अतः आचारांग में साधना की दृष्टि से आहार-बुद्धि को आवश्यक माना गया है, क्योंकि अशुद्ध एवं मात्रा से अधिक आहार करने से मन एवं नाड़ी संस्थान शुद्ध नहीं रहता। अतः नाड़ी-संस्थान एवं मन की निर्मलता बनी रहे और साधक अहिंसा पालन की दिशा में क्रमशः उत्तरोत्तर आगे बढ़ सके, इन्हीं तथ्यों को लक्ष्य में रखते हुए आहार-सम्बन्धी विधिनिषेध रूप अनेक आचार-मर्यादाओं पर काफी गहराई से विचार किया गया है।
वस्त्र:
आचारांग में श्रमण-श्रमणियों के लिए वस्त्र-विधान भी विशद रूप में वर्णित है। पूर्ण अहिंसा के साधक श्रमण-श्रमणी को वस्त्र विषयक उद्गमादि दोषों से बचना अनिवार्य है । उसे निर्दोष वस्त्र की गवेषणा करनी चाहिए ताकि किसी तरह का दोष न लगे । इन्हीं बातों को दुष्टिगत रखकर आचारांग में वस्त्र सम्बन्धी अनेक नियम प्रतिपादित हैं :ग्राह्य वस्त्र:
(१) ( जंगिय ) ऊन का वस्त्र, (२) ( मंगिय ) विकलेन्द्रिय जीवों की रोम से बनाया गया वस्त्र, (३) ( सणिय ) सन तथा वल्कल से बना हुआ वस्त्र, (४) ( पोतग) ताड़ आदि के पत्तों से बना हुआ वस्त्र, (५) (खोमिय) कपास से बना वस्त्र (६) (तुलकड ) आक आदि की रूई से बना हुआ वस्त्र श्रमणों के लिए ग्राह्य है। वस्त्र का परिणाम : ___ आचारांग में कहा है कि जो साधु तरुण, बलवान, निरोग और दृढ़ शरीर वाला है, उसे एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दूसरा नहीं। परन्तु साध्वी को चार वस्त्र (चादर ) धारण करना चाहिए, जिनमें से एक चादर दो हाथ चौड़ी हो, दो चादर तीन हाथ चौड़ी हो और एक चादर चार हाथ चौड़ी हो । स्पष्ट है कि वृद्ध एवं रोगी साधु एक से अधिक वस्त्र भी आवश्यकतानुसार धारण कर सकता है। आचारांग में एक से तीन वस्त्र रखने तक को मर्यादा निरूपित है ।९९ सामर्थ्य होने पर मुनि अचेलक भी रह सकता है । १०० इस तरह आचारांग में सवस्त्रता और निर्वस्त्रता दोनों विधान उपलब्ध होते हैं।
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