________________
श्रमणाचार : २१९
धान्य, अग्नि द्वारा पक्व एवं अर्धपक्वधान्य, चूर्ण एवं कणयुक्त, एक बार भुना हुआ आहारादि ग्रहण न करे, किन्तु शाली आदि धान्य और उनका चूर्ण निर्दोष हो, दो-तीन बार भुन लिया गया हो तो ऐसा निर्दोष एवं एषणीय आहार मुनि ग्रहण कर सकता है ।५६
वनस्पति-पत्र, पुष्प एवं फल की अग्राह्यता:
पिप्पली, मिरच आदि विभिन्न प्रकार के चूर्ण, आम्रफल, अम्बाडगफल, ताड़फल, लताफल, सुरभिफल आदि पीपलवृक्ष के पत्ते, वटवृक्ष के पत्ते, पिप्परी वृक्ष के पत्ते, नन्दीवृक्ष के पत्ते आदि, तथा आम्रवृक्ष का कोमल फल, कपित्थ का सुकोमल फल, अनार का सुकोमल फल, बिल्व का सुकोमल फल, इसी तरह न्यग्रोध फल का चूर्ण, उदुम्बर फल का चूर्ण, वटवृक्ष के फल का चूर्ण, अश्वत्थ (पीपल ) का चूर्ण तथा इसी प्रकार अन्य चूर्ण जो कि कच्चा और शस्त्र परिणत नहीं हुआ है, ऐसा आहार अग्राह्य है ।५७
इसी तरह इक्षुखण्ड, कसेरू, सिंघाड़ा, उत्पल (कमल), कमल की डंडी, कमल का मूल, कमल का केसर आदि तथा अग्रबीज, मूलबीज, स्कन्ध बीज, पर्वबोज, अग्रजात, मूलजात, पर्वजात और नारियल, खजूर व ताड़ का मध्य भाग, इक्ष, साछिद्र इक्षु तथा जिसका वर्ण बदल गया हो, त्वचा फट गई हो, श्याल आदि द्वारा मक्षित फल, आस्तिक नाम वृक्ष विशेष का फल, तिन्दुक, बिल्व और श्रीपर्णी आदि के फल जो कि कुम्भी (गर्त ) में रखकर धुएँ आदि से पकाए गए हों, तथा शल्यादि के कण, कमिश्रित रोटी, चावल, चावल का आटा, तिल, तिल-पर्पटिका और भी इसी तरह के अन्य पदार्थ व वनस्पति जो कि सचित है, अपक्व है तथा शस्त्र परिणत नहीं हुआ है ऐसा आहार भी अग्राह्य है ।५८ यही बात औषधि पर भी लागू होती है। उक्त दोनों से रहित औषधि ग्राह्य है ।५९ भिक्षा हेतु गमन :
भिक्षा हेतु मुनि अन्य मत के साधुओं, पार्श्वस्थ साधुओं एवं गृहस्थ याचकों के साथ किसी के घर में प्रवेश न करे और उनके साथ निकले भी नहीं। इसी तरह शौच-स्वाध्याय एवं विहार में भी इनके साथ न जावे । अर्थात् मुनि को संयम-साधना की शुद्धि के लिए स्वतंत्र रूप से
जाना चाहिए। Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only