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श्रमणाचार : २२१ ( श्याल जैसा जंगली जीव ) और सर्प आदि जानवर बैठे या खड़े हों तो अन्य मार्ग के होने पर साधु-साध्वी उस मार्ग से भिक्षा हेतु न जावे । जिस मार्ग में रस की आशा से कुक्कुट, सूअर आदि पशु-पक्षी तथा अग्रपिण्ड भोजन की कामना से कौवे आदि एकत्र होकर बैठे या खड़े हों तो अन्य मार्ग के होते हुए इन सबको लाँघकर मुनि को उस मार्ग से नहीं जाना चाहिए।
इसी प्रकार साधु-साध्वी को विषम मार्ग से भी भिक्षा के लिये नहीं जाना चाहिये, यथा-खेत की क्यारियाँ, खाई, कोट, तोरण, अर्गला, अर्गला-पाश पड़ता हो, भले हो वह मार्ग सीधा ही क्यों न जाता हो। इसी भाँति जिस मार्ग में गड्ढे, स्थाणु, काँटे, उतार-चढ़ाव, ऊँची-नीची जमीन और फटी हुई या कटी हुई भूमि हो उस रास्ते से भी भिक्षा हेतु नहीं जाना चाहिए। इसे आचारांग में कर्मबन्ध का कारण बताया गया है । ७
उक्त विषम मार्ग से जाने से संयम व आत्म-विराधना होने की सम्भावना है । यथा-उक्त मार्ग से जाने से सम्भव है मुनि के शरीर में कम्पन होने पर या पैर आदि के फिसल जाने पर वह गिर जाए और तब उसका समूचा शरीर मलमूत्र, श्लेष्म, वमन, पित्त शुक्र या रुधिर से लिप्त हो जाए तब लिप्त शरीर को साफ करने के लिये मुनि सचित्त मिट्टो, पत्थर, शिलाखण्ड, जीव-जन्तु से युक्त काष्ठ का प्रयोग कर सकता है। अतः ऐसी स्थिति में उक्त सचित्त वस्तुओं से अपने शरीर को बारबार नहीं पोंछना चाहिए और न हो मलना चाहिये बल्कि एकान्त में जाकर अचित्त वस्तुओं से अपने शरीर को साफ करे और धूप में सुखाकर शुद्ध कर ले। किसे लांघकर न जाये और कहां खड़ा न रहे : ___ यदि किसी गहस्थ के द्वार पर शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, ग्राम-याचक ( भिखारी), अतिथिगण पहले से ही खड़े हों तो मुनि उन्हें लांघकर गृहस्थ के घर में न जाये और न आहारादि की याचना करे । गृहस्थ के घर भिक्षा हेतु जाने पर यदि पता चले कि शाक्यादि भिक्षु पहले से ही भीतर हैं या वहाँ भीड़ लगी है तो मुनि उनके सम्मुख खड़ा न रहे अर्थात् वे जिस द्वार से निकलने वाले हों वहाँ खड़ा न रहे अपितु एकान्त स्थान में ठहर जाए जहाँ किसी की दृष्टि न पड़े।
गृहस्थ का द्वार कण्टक या दरवाजे से बन्द होने पर उस घर के
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