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श्रमणाचार : २२३ द्रोणमुख, नैगम, आश्रम, सन्निवेश और राजधानी में होने वाली संखडि ( भोजन समारोह ) में न जाये ।
यदि साधु संखडि (सामूहिक भोजन) का आहार करता है तो वह औद्देशिक, मिश्रित, खरीदा हआ, उधार माँग कर लाया हुआ, छीना हुआ, दूसरे की आज्ञा बिना लिया हुआ खाता है । तात्पर्य यह कि संखडि में जाने से शुद्ध और निर्दोष आहार मिल नहीं सकता।७५
सद्गृहस्थ साधु-साध्वी के संखडि में आने की सम्भावना से या उसे पता लग जाय कि साधु-साध्वी आहार के लिए इस ओर आ रहे हैं तो वह उनके लिए दरवाजे को छोटा-बड़ा बनवायेगा, शय्या (स्थान) सम-विषम करवाएगा। स्थान वायुरहित या वायुयुक्त बनवायेगा । उपाश्रय के बाहर-भीतर रही हई हरियाली का छेदन-भेदन करेगा या शय्या को व्यवस्थित बनाने हेतु हरियाली जड़ से उखाड़ फेंकेगा उक्त दोषों को ध्यान में रख कर पूर्व (विवाहोत्सवादि ) और पश्चात् ( मृतकादि ) संखडि में नहीं जाना चाहिए।७६ ___संखडि में जाने से पारस्परिक कलह होने की भी सम्भाना रहती है, क्योंकि वहाँ अन्य मतावलम्बी भिक्ष भी एकत्र होते हैं। संखडि दो प्रकार की मानी गई है-आकीर्ण और अवम । परिव्राजक, चरक आदि भिक्षुओं से परिव्याप्त आकीर्ण संखडि कहलाती है और जहाँ भोजन कम बना हो और भिक्षुगण अधिक आ गये हों वह अवम संखडि है। ___ ऐसे स्थान पर जाने पर एक दूसरे के शरीरादि के स्पर्श से, पात्र आदि के स्पर्श से, कलह हो सकता है, अतः साधु को वहाँ नहीं जाना चाहिए ७७ संखडि भोजन से हानियाँ :
साधु-साध्वी शुद्ध-सात्त्विक और नीरस भोजी होते हैं और संखडि के सरस, स्वादिष्ट आहार अधिक ग्रहण करने से एवं दूध आदि पेय पदार्थ पीने से वमन हो सकता है या सम्यक् प्रकार से पाचन नहीं होने से शरीर में विसूचिका, ज्वर-शूलादि रोग उत्पन्न हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त गहपति व उनकी पत्नियों, परिव्राजक एवं परिव्राजिकाओं के सहवास से मदिरा-पान की परिस्थिति में ब्रह्मचर्य का व्रत भी भंग हो सकता है (जो आध्यात्मिक पतन की दृष्टि से एक भयंकर दोष है) इसलिये ज्ञानियों ने संखडि को प्रतिक्षण आस्रव-द्वार कहा है। इस तरह संखडि संयम-घातक है । शारीरिक मानसिक व आध्यात्मिक साधना को
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