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२१२: आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन ऐसा मार्ग दोषयुक्त होता है तथा जिस मार्ग में धान्य, शकट, रथ या सेना का पड़ाव हो अथवा सैनिक लोग घूम रहे हों तो उस रास्ते से मुनि विहार न करे । क्योंकि उस मार्ग से जाने पर वे लोग साधु को गुप्तचर समझ कर विविध प्रकार से कष्ट दे सकते हैं। अन्य मार्ग न हो तो उस मार्ग से जाने पर यदि सैनिक लोग साधु को पकड़ कर कष्ट दें, भुजाओं को पकड़कर खींचे, तब भी उसे प्रसन्न व रुष्ट नहीं होना चाहिए अपितु ऐसे विकट समय में समभावपूर्वक कष्टों को सहना चाहिए ।२१
विहार करते हुए यदि मार्ग में खेत की क्यारियाँ, गुफाएँ, महल, पर्वत के ऊपर बने हुए घर, तलघर, व्यन्तर के स्थान, लोहकारशाला, नदी के समीपस्थ निम्न प्रदेश, अटवी के विषम स्थान, कूप-तालाब, झीलें, नदियाँ, गहरे जलाशय आदि तथा ऐसे ही अन्य प्रकार के स्थान आ जाएं तो उन्हें अंगुली के निर्देश द्वारा या शरीर को ऊँचा-नीचा करके नहीं देखना चाहिए क्योंकि इससे राग-भाव बढ़ता है, कौतूहल बढ़ता है, मन सांसारिकता की ओर झुकता है। गुरु के साथ चलने की विधि :
गुरु के हाथ, पैर आदि से अपने हाथ, पैर आदि का स्पर्श करते हुए न चले, किसी तरह की आशातना करते हुए न चले। यदि मार्ग में कोई व्यक्ति मिल जाए और पूछे कि आप कौन हैं, कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं तो गुरु के रहते हुए उसे बीच में नहीं बोलना चाहिए। उसे तो ईर्या समिति का पालन करते हुए उनके साथ विहार-चर्या में प्रवृत्त रहना चाहिए ।२२ विहार-मार्ग में निर्भीकता : ___ विहार करते हुए मार्ग में मुनि को मदोन्मत्त बैल, शेर, चीता, साँप आदि हिंसक जन्तुओं का साक्षात्कार हो जाए तो उन्हें देखकर भयभीत नहीं होना चाहिये और न इधर-उधर उन्मार्ग पर जाना चाहिये, न वृक्ष पर चढ़ना चाहिये, न विस्तृत एवं गहरे जल में प्रवेश करना चाहिये और न किसी सेना या अन्य साथियों का आश्रय ही ढंढ़ना चाहिये अपितु निर्द्वन्द्व भाव से समाधिपूर्वक अपने मार्ग पर चलते रहना चाहिये । यह भी कहा है कि यदि रास्ते में चोर एकत्र होकर आ जाएँ तो साधु उनसे भयभीत न हो तथा उनसे भयभीत होकर मार्ग छोड़कर इधर-उधर न जाय । समाधिपूर्वक विहार-चर्या में प्रवृत्त रहे । कोई भी किसी तरह का कष्ट दे तो भी मुनि मन-वचन और काया से उनसे प्रतिशोध लेने की
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