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२१० : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन
इसी तरह राजा से रहित राज्य, गणराज्य, अल्पवयस्कराज्य, द्विराज्य एवं अशांतियुक्त राज्यों की ओर भी मुनि विहार न करे ।१४ मार्ग में नदी पड़ने पर:
विहार करते हुए यदि मार्ग में नदी पड़ जाय तो नौका के बिना पार न कर सकने की स्थिति में भिक्षु नौका का उपयोग कर सकता है। इस विषय में कुछ निर्देश इस प्रकार हैं
(१) जो साधु के निमित्त मूल्य से खरीदी गई हो, (२) उधार ली गई हो, (३) परस्पर अदला-बदली की गई हो, (४) यदि साधु के उद्देश्य से नाविक नौका को जल से स्थल में, और स्थल से जल में लाता हो अथवा जल से परिपूर्ण नौका को खाली करके या कीचड़ में फंसी हुई नौका को बाहर निकाल कर लाता हो तो ऐसी नौका में मुनि न बैठे । (५) अधोगामिनी और उर्ध्वगामिनी नौका पर सवार होकर नदी पार न करे । केवल तिर्यग्गामिनी नौका से नदी पार करे। (६) नौका में आरूढ़ हो जाने के बाद यदि नाविक साधु को नौका खींचने, बाँधने, चलाने अथवा छत्रादि को ग्रहण करने या बालक को पानी पिलाने आदि का कोई भी कार्य करने के लिये कहे तो ऐसे कार्यों को नाविक के आदेशानुसार नहीं करना चाहिए किन्तु उस समय मौन वृत्ति धारण कर आत्म-चिन्तन में संलग्न रहना चाहिए। (७) नौका में छिद्र द्वारा जल भरता हुआ देखकर भी किसी से नहीं कहना चाहिए। ऐसी स्थिति में शरीर उपकरणादि के प्रति निर्ममत्व रखना चाहिए, अनासक्त, प्रशस्तलेश्यायुक्त तथा आत्माराधना में समाहित होकर विचरण करना चाहिये। इस तरह ईर्यासमिति का पालन करते हुए श्रमण-आचार का पालन करना चाहिए।१५ ___ मुनि को एकान्त में जाकर भाण्डोपकरण का प्रतिलेखन करना चाहिए, तत्पश्चात् सारे शरीर की प्रतिलेखना व प्रमार्जना करना चाहिए और सागारी भक्त-पान का प्रत्याख्यान ( त्याग ) करता हुआ एक पैर जल में और एक पैर स्थल पर रखकर विवेकपूर्वक नौका पर चढ़ना चाहिए। तथा नौका पर चढ़ते हुए नौका के आगे-पीछे या मध्य में नहीं बैठना चाहिए । अंगुली द्वारा उद्देश्य ( स्पर्श ) कर तथा अंगुली ऊँची करके जल को नहीं देखना चाहिए "
नाविक के आदेशानुसार कार्य न करने पर लोग मुनि को पकड़कर नदी में फेंकने लगें तो मुनि उनसे कहे कि आप जबरदस्ती मत फेंकिये ।
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