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श्रमणाचार : २११ मैं स्वयं ही जल में प्रविष्ट हो जाऊँगा। फिर भी यदि लोग या नाविक उसे पकड़ कर फेंक दें तो भिक्षु को हर्ष या शोक नहीं करना चाहिए। न उनके घात-विघात की बात सोचनी चाहिए और न उनसे किसी तरह का प्रतिशोध लेने की भावना हो रखनी चाहिये। वह राग-द्वेष के द्वन्द्व से परे होकर समाधिपूर्वक जल में प्रवेश कर जाए । तदनन्तर अपकायिक जीवों की रक्षा की भावना से नदी में बहता हुआ अपने हाथ पैर या शरीर का परस्पर स्पर्श न करे और न अपने कान, नाक, आँख आदि में भरते हुए पानी को ही निकाले। शान्ति से बहता हुआ नदी के तट पर पहुँच कर बाहर निकल जाए और तब तक वहाँ स्थिर होकर खड़ा रहे जब तक कि उसका शरीर व उपधि सूख जाए। उनके सूख जाने पर वहाँ से यतनापूर्वक अन्यत्र विहार करे। यही अहिंसक साधु की साधना का उज्ज्वल स्वरूप है।१७
कैसे गमन न करे: ___ मुनि रास्ते में दूसरे लोगों से वार्तालाप करते हुए विहार या गमन न करे। ईर्यासमिति पूर्वक विहार करे अन्यथा मार्ग में बातचीत करने पर जीव रक्षा नहीं हो सकेगी।
विहार करते हुए यदि रास्ते में जंघा प्रमाणवाली नदी आ जाए और उसके अतिरिक्त जाने का अन्य उपाय न हो तो उसे पार करने के लिए मुनि पहले समूचे शरीर का प्रतिलेखन करे । तदन्तर विवेकपूर्वक एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखता हुआ नदी पार करे । जल में चलते हुए मुनि को हाथ-पैर-शरीर आदि का परस्पर स्पर्श भी नहीं करना चाहिए। उसके बाद जब पूरा शरीर सूख जाए तब शरीर का प्रमार्जन कर यतनापूर्वक गमन करना चाहिए ।१९ __नदी पार करने के बाद मुनि विहार करते हुए मिट्टी, कीचड़ आदि से सने हुए अपने पैरों को हरी वनस्पति, घास आदि से साफ न करे अथवा हरे पत्तों को एकत्र कर उनसे मसल कर मिट्टी को न उतारे और न हरी वनस्पति को कुचलता हुआ चले। 'हरियाली पर चलने से मेरे
र स्वतःही साफ हो जाएँगे' इस भावना से हरियाली का स्पर्श न करे। ऐसा करने से पाप बन्ध होता है। अतः उसे हरियाली से रहित मार्ग को देखकर यतनापूर्वक गमन करना चाहिए ।२०
यदि अन्य मार्ग हो तो मुनि को खाई, कोट, तोरण अर्गला, गड्ढे, गुफाएँ आदि ऐसे विषम रास्ते से भी विहार नहीं करना चाहिए। क्योंकि
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