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नैतिकता के तत्त्वमीमांसीय आधार : २९
इस आदर्श दिशा की ओर क्रमिक रूप से प्रगति होती है । आत्मा की क्षमता एवं शक्तियाँ अनन्त हैं । वे अल्पकालिक एक जन्म में पूर्णतया विकसित नहीं हो पातीं। इन शक्तियों के पूर्णतः प्रकटन या विकास के लिए आत्मा की अनश्वरता या निलता को स्वीकार करना आवश्यक है ।
आत्मा के दो रूप हैं - परिणामी ( परिवर्तनशील ) और नित्य ( शाश्वत ) । आत्मा का परिवर्तनशील रूप जन्म-मरण से सम्बद्ध है जबकि दूसरा नित्य या अमर पक्ष मुक्ति से । आचारांग में आत्मा की अमरता के विषय में कहा गया है कि आत्मा न छेदा जाता, न भेदा जाता, न जलाया जाता और न मारा जाता है अर्थात् वह अछेद्य है, अभेद्य है, अदाह्य है और अहन्य है । ४५ जो आत्मदर्शी है, वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है । ४६
श्रीमद्भगवद्गीता का भी यही स्वर है कि 'शस्त्र उसे छेद नहीं सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकता । जैनागम स्थानांग" और भगवती सूत्र ४९ में भी आत्मा की नित्यता, अक्षयता, ध्रुवता आदि का वर्णन है । छान्दोग्योपनिषद् ५० एवं बृहदारण्यकोपनिषद् में भी ये भाव मिलते हैं । ५१
पुनर्जन्म - सिद्धान्त:
मृत्यु के उपरान्त आत्मा की क्या स्थिति होगो ? उसका अस्तित्व बना रहेगा या मिट जायेगा ? यह जिज्ञासा हमें पुनर्जन्म की अवधारणा की ओर ले जाती है जो कि भारतीय अध्यात्मवादी दर्शन का अत्यन्त मौलिक सिद्धान्त है ।
अध्यात्मवादी विचारक आत्मा को नित्य शाश्वत एवं अमर मानते हैं । इसीलिए उन्होंने पुनर्जन्म के सिद्धान्त की स्थापना की और उसे कर्म-सिद्धांत के आधार पर व्याख्यायित किया । कर्मवाद और पुनर्जन्म का सिद्धान्त परस्पराश्रित है । कर्म सिद्धान्त को स्वीकार करने पर ही तद्जनित शुभाशुभ फल को भोगने के लिए पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वोकार करना पड़ता है । इस प्रकार पुनर्जन्मवाद कर्म-सिद्धांत से फलित होता है । कर्म सिद्धांत कहता है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है । फिर भी इतना तो निश्चित है कि सभी कृतकर्मों का फल इसी जीवन में नहीं मिल पाता है । अतः शुभाशुभ कृत कर्मों का फल भोगने के लिए दूसरे जन्म की आवश्यकता
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