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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : १३७ चाहने वाले श्रमण तपस्वो को मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में राग-द्वेष नहीं करना चाहिए । ११२ मुनि को उनमें अनासक्त रहना चाहिए ।११3 समयसार,११४ व्यवहारभाष्य,१५ दशवैकालिक,१६ गीता११० तथा बौद्ध वाङ्मय में भी इस विचार का दर्शन होता है ।
मनो-निग्रह-आचारांग में एक स्थान पर कहा गया है कि तू मन का निग्रह कर, यही मुक्ति का उपाय है।१९ मन ही समस्त भोगेच्छाओं तथा तत्सम्बन्धी संकल्प-विकल्पों का जनक है। ऐतरेय आरण्यक में भी मन को ही इच्छाओं का सजक कहा गया है ।१२° उत्तराध्ययन में कहा है कि यह मन दुष्ट एवं भयंकर अश्व के समान है, जो चारों ओर दौड़ता रहता है ।२१ अतः आरम्भादि में प्रवृत्त होने वाले मन का निग्रह करना चाहिए और आत्म-दमन करने वाला ही दोनों लोक में सुखी होता है ।१२२ मज्झिमनिकाय एवं धम्मपद में भी यही कहा है कि यह चित्त अत्यन्त चंचल है। इस पर नियंत्रण किये बिना कुमार्ग से इसकी रक्षा करना अत्यन्त कठिन है। इसकी वृत्तियों को कठिनता से रोका जा सकता है। अतः जैसे इषुकार अपने बाण को सीधा करता है, वैसे ही बुद्धिमान पुरुष इसे सोधा करे ।१२3 पण्डितजन बढ़ई की भाँति आत्मा ( मन) को सीधा करते हैं । १२४ चित्त बड़ी कठिनाई से निग्रहीत होता है, वह अत्यन्त शीघ्रगामी एवं इच्छानुसार भागने वाला है, अतः उसका दमन करना उत्तम है, दमित किया गया चित्त ही सुखकारी होता है । १२५ ज्ञानार्णव,१२६ योग-शास्त्र १२७ आदि ग्रन्थों में तथा अथर्ववेद,१२८ यजुर्वेद,१२९ श्वेताश्वरोपनिषद्,१३° गोता'3१ आदि ग्रन्थों में भी इन्हीं विचारों की पुष्टि की गई है। आचारांग के अनुसार मनोनिग्रह से तात्पर्य एवं दमन के दुष्परिणाम :
आचारांग में इच्छाओं, आशाओं, काम-वासनाओं या आत्मा ( मन ) के अभिनिग्रह का प्रयोजन दमन नहीं है। 'अभिनिग्रह' शब्द का व्याकरण-सम्मत अर्थ यह है कि 'अभि' उपसर्ग समीपता का बोधक है
और 'नि' उपसर्गक ग्रह धातू पकड़ने के अर्थ को व्यक्त कर रहा है। इस प्रकार अभिनिग्रह का अर्थ हुआ-समीप जाकर पकड़ लेना । जो साधक मन के भीतर जाकर या उसके निकट पहुँच कर उसे जान लेता है, पकड़ लेता है, वह सभी दुःखों से रहित हो जाता है। मन का ज्ञाता मन का स्वामी होता है। वस्तुतः आचारांग में निरोध या दमन का तात्पर्य मानसिक शुद्धि है, चित्त को आसक्ति-रहित बनाना है। अतः
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