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पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १८९
व्रत के मूल में भी अहिंसा की भावना निहित है । अन्य चारो महाव्रतों को इसी अहिंसा धर्म की पुष्टि के लिए स्वीकार किया गया है । मूलधर्म तो अहिंसा ही है । शेष सब उसी का विस्तार है । मिथ्याभाषण करने से हिंसा होती है, चोरी करने से हिमा होती है, मैथुन सेवन से हिंसा होती है और संग्रह वृत्ति से भी हिंसा होती है । इसीलिए इन सबका परित्याग आवश्यक माना गया है । आचारांग में श्रमण - जीवन के समग्र आचार और व्यवहार के मूल में सर्वत्र अहिंसा की भावना झलकती है । अतः अहिमा को प्राथमिकता को स्वीकार करने में तनिक भी सन्देह नहीं रह जाता ।
दशवेकालिक चूर्ण में भी इसी बात की पुष्टि की गई है कि अहिंसा की विशद व्याप्ति में अन्य चारों महाव्रतों का समावेश हो जाता है । जहाँ अहिंसा है, वहाँ पाँचों महात्रत हैं । १०२ हारिभद्रीयाष्टक में भी सत्यादि चारों व्रतों के पालन का प्रयोजन अहिंसा की सुरक्षा के लिए ही विवेचित है | 103 यदि अहिंसा धान्य है तो सत्य आदि उसकी रक्षा करने वाले बाड़े हैं । १०४ हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि अहिंसा यदि पानी है तो अस्तेय आदि उसकी रक्षा करने वाली पाल है । १०५
सत्य,
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इस प्रकार अहिंसा आर्हत् प्रवचन का उत्स है । आचारांग में कहा है -- एस मग्गे आरिएहि पवेइए जहेत्थ कुसले गोवल पिज्जसि अर्थात् आर्यों द्वारा प्रतिपादित यह अहिंसा मार्ग सर्वश्रेष्ठ है । अतः कुशल व्यक्ति हिसात्मक कार्य में भूलकर के भी लिप्त न हो । वस्तुतः इस विराट् विश्व में यह अहिसा ही भगवती है । १०१ प्रश्नव्याकरणसूत्र में अन्य अनेक विभिन्न उपमाओं के द्वारा उसकी महत्ता को खूब बखाना गया है | १०८ आचार्य समन्तभद्र ने भी अहिंसा की महत्ता को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाते हुए उसे परमब्रह्म कहा है ।१०१ गाँधीजी के शब्दों में "अहिंसा एक स्वयम्भू शक्ति है ।"
निष्कर्ष यह कि आचारांग में प्रतिपादित अहिंसा विश्व कल्याण का अमोघ उपाय है तथा प्राणि- जगत् की रक्षक अलौकिक शक्ति है । सत्य महाव्रत :
आध्यात्मिक जीवन-निर्माण के लिए किए जाने वाले व्रत विधान में अहिंसा का सर्वप्रथम स्थान है । चाहे गृहस्थ हो या मुनि पहले अहिंसा व्रत की साधना की प्रतिज्ञा लेते हैं । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि
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