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२०६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
मूलभूत दोष पाँच हैं जो शेष समस्त पापों, दोषों या बुराइयों के जनक है । वे पाप पाँच हैं - हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ( संग्रह ) | आत्मा को इन पाँच पापों से सर्वथा मुक्त करना ही श्रमण साधना का प्रमुख लक्ष्य है । इस लक्ष्य की पूर्ति व्रतों से ही सम्भव है । पात्र भेद की अपेक्षा से इनको दो भागों में बाँटा गया है - अणुव्रत और महाव्रत । अणुव्रत का अर्थ है जो गृहस्थ के लिए है और महाव्रत का अर्थ है संपूर्ण व्रत जो श्रमण-धर्मं के लिए है । पाँच महाव्रतों का पालन साधु जीवन की प्रथम शर्त है । प्रव्रजित होने वाला श्रमण सर्वप्रथम इन पाँच महाव्रतों (नैतिक नियमों ) को अंगीकार करता है । ये श्रमण आचार के आधारभूत स्तम्भ हैं ।
पांच महाव्रत ( पांच नैतिक नियम ) :
आचारांग में पाँच महाव्रत एवं उनकी पच्चीस भावनाओं की विशद् चर्चा है | इस सम्बन्ध में पाँचवें अध्याय में विवेचन किया जा चुका है, अतः यहाँ विस्तार में न जाकर उनका नाम निर्देशन कर देना ही पर्याप्त है ।
(१) जीवन पर्यन्त के लिए सर्व प्राणातिपात विरमण ( अहिंसामहाव्रत ) ।
(२) जीवन पर्यन्त के लिए सर्व मृषावाद - विरमण ( सत्यमहाव्रत ) (३) जीवन पर्यन्त के लिए सर्व अदत्तादानविरमण ( अस्तेय महाव्रत ) (४) जीवन पर्यन्त के लिए सर्व मैथुन विरमण ( ब्रह्मचर्य महाव्रत ) (५) जीवनपर्यन्त के लिए सर्व परिग्रह विरमण (अपरिग्रह महाव्रत ) । ' पच्चीस भावनायें :
आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की तृतीय चूला में उक्त पाँच महव्रतों की स्थिरता तथा विशुद्धि के लिए पच्चीस भावनाएँ बताई गई हैं । प्रत्येक महाव्रत की पांच-पाँच भावनाएँ हैं, जो निम्नानुसार हैं
(१) गमनागमन सम्बन्धी सावधानी
(२) मन की अपापकता
(३) वाणी की अपापकता
(४) आदान-निक्षेप सम्बन्धी सावधानी (५) आलोकित पान भोजन
ये पाँच भावनाएँ अहिंसा महाव्रत को सुदृढ़ करती हैं ।
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