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पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १८७ है, वही परमयोगी है। यह समता की साधना ही अहिंसा है । आचारांग अहिंसा को बाहरी दबाव, भय, आतंक अथवा प्रलोभन के आधार पर नहीं, अपितु न्याय के आधार पर स्थापित करता है ।
अहिसा के यथार्थ बोध से अनभिज्ञ व्यक्ति उसे भय एवं प्रलोभन के आधार पर अधिष्ठित करना चाहते हैं। वे यह मानते हैं कि किसी का प्राणघात मत करो, किसी को मारो मत, अन्यथा तुम्हें भी मरना पड़ेगा। इसी मृत्यु के भय ने उनके मन में अहिंसा की भावना पैदा कर दी। मकेन्जी ने भी अहिंसा का आधार भय को बताया है। परन्तु अहिंसा को भय पर अधिष्ठित करने से जिसके प्रति भय होगा उसी की हिंसा से व्यक्ति विरत हो सकेगा। आचारांग का स्पष्ट अभिमत है कि भय एवं वेर पर आधारित अहिंसा स्थायी नहीं हो सकती। समता या तुल्यता का बोध ही अहिंसा का स्थायी आधार है। यही कारण है कि सूत्रकार मानव-जगत् के प्रति ही नहीं, अपितु पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति जगत् के जीवों तक के प्रति भी पूर्ण अहिंसक होने की बात कहता है । आचारांग तो इससे आगे बढ़कर अद्वैतानुभूति के आधार पर अहिंसा को प्रतिष्ठित करता है । वह कहता है कि 'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है' । हिंसा तभी असम्भव हो सकती है जब 'पर' का भाव हो न हो । सूत्रकार ने तो अहिंसा को और अधिक सबल आधार देने के प्रयास में यहाँ तक कह दिया है कि 'जो लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव में स्वयं की आत्मा का अपलाप करता है और जो स्वयं की आत्मा का अपलाप करता है, वह लोक का अपलाप करता है' ।९८ यहाँ सूत्रकार ने अपने और पराये के सीमित घेरे को तोड़ डाला है। यही आत्मतुल्यता का सिद्धान्त है । स्वरूपतः सभी आत्माएँ समान हैं। अतः हमें किसी भी आत्मा के अस्तित्व का अपलाप नहीं करना चाहिए। इस तरह सूत्रकार ने स्वरूप को दृष्टि से आत्मैक्य को सिद्ध करके स्पष्ट कर दिया है कि किसी एक आत्मा के जीवित रहने के अधिकार को अमान्य करने का तात्पर्य यह है कि समस्त जीवों के जीवन जीने के अधिकार का निषेध करना । इसी आत्मैक्यवाद को संपुष्ट करते हुए पुनः सूत्रकार कहता है कि जिसे तू हन्तव्य मानता है, वह तू ही है, अर्थात् वह दसरा तेरे समान ही चैतन्य प्राणी है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है वह तू ही है। जिसे तू दास बनाना चाहता है, वह तू ही है । जिसे तू प्राणों से वियुक्त करना चाहता
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