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१५८ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन पूर्ण है। उसके बिना विकास सम्भव नहीं है। श्रद्धाविहीन साधना का किञ्चित मात्र भी मूल्य नहीं। आचारांगकार का कथन है कि साधक का यह नैतिक कर्तव्य एवं दायित्व है 'जाए सद्धाए णिक्खंतो, तमेव अणुपालिया विजहितु विसोत्तियं'3९ जिस श्रद्धापूर्वक साधक ने अभिनिष्क्रमण किया है, साधना के क्षेत्र में प्रवेश किया है, अन्त तक उसी श्रद्धा को बनाए रखे, लक्ष्य के प्रति किसी तरह की शंका न रखे और न चैतसिक चंचलता के प्रवाह में बहे । मात्र इतना ही नहीं अपितु यह भी कहा गया है कि 'चिच्चा सव्वं विसोत्तियं फासे फासे समियदंसणे।४० सम्यग्दर्शन सम्पन्न मुनि सब प्रकार की चैतसिक चंचलता या शंकाओं को छोड़कर ( साधना में आने वाले ) स्पर्शी-कष्टों को समभावपूर्वक सहन करे।
उपर्युक्त सूत्रों में विसोत्तिय' शब्द दुष्ट-चिन्तन, शंका, दुर्ध्यान, विमार्गगमन आदि अर्थों में प्रयुक्त हआ है। उपसर्गों या कष्टों के आने पर कभी-कभी साधक के मन में दुर्ध्यान आ जाता है, दुश्चिन्तन होने लगता है अथवा उसका चित्त चंचल और क्षुब्ध होकर असंयम की ओर भागने लगता है। मन में अनेक प्रकार की कुशंकाएँ (कुविकल्प) उत्पन्न होने लगती हैं। जैसे-मैं ये परीषह सह रहा हूँ, उनका सुफल मिलेगा या नहीं ? इतने कठोर तप-संयम या महाव्रत रूप चारित्र का शुभफल मिलेगा अथवा नहीं? आगमोक्त प्रवचन सत्य है या नहीं? इत्यादि इस तरह की कुशंकाएँ साधक के चित्त को अस्थिर, भ्रान्त, अस्वस्थ एवं असमाधियुक्त बना देती हैं। ये विस्रोतसिकाएँ (शंकाएँ ) मोहनीय कर्म के उदय से होती हैं।
शंका जीवन की महान दुर्बलता है। यह विवेक और विश्वास को नष्ट करती है, सम्यग्दर्शन को नष्ट करती है। इसके रहते जीवन का सम्यग्रूपेण विकास नहीं हो पाता। शंका ही एक ऐसा तत्त्व है जो हमारे संकल्प में दृढ़ता नहीं आने देता। संकल्प की दृढ़ता के बिना लक्ष्यप्रति या उद्देश्य-प्राप्ति के लिए अपेक्षित आन्तरिक बल प्राप्त नहीं होता और आन्तरिक बल के अभाव में सिद्धि नहीं हो सकती। अतः यह अनिवार्य है कि साधक को अपनी साधना एवं साध्य के प्रति पूर्ण विश्वास ( श्रद्धा ) होना चाहिए। साथ ही अपने अन्तःकरण में किसी भी प्रकार की शंका को प्रश्रय नहीं देना चाहिए । जब तक जिनोक्त सत्यतत्त्वों या साधना के प्रति शंका बनी रहेगी तब तक व्यक्ति अध्यात्म साधना के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता । इसीलिए आचारांग में साधक को समस्त
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