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सप्तम अध्याय
पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन अहिंसा को सार्वभौमिकता या प्राथमिकता :
सम्पूर्ण भारतीय धर्म-दर्शनों में पाँच व्रतों, यमों अथवा शीलों को मानव जीवन अथवा चारित्र का आधार माना गया है। ये चारित्र के मूलभूत अंग हैं । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह न केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए, अपितु समग्र मानव-जीवन के लिए अनिवार्य हैं, क्योंकि इनके बिना समाज का संतुलन नहीं रह सकता। इन पाँच व्रतों में अहिंसा प्रथम स्थानीय है। ___अध्यात्मवादी प्रायः सभी भारतीय धर्म-दर्शनों ने एक स्वर से अहिंसा को परमधर्म कहा है और उसको वरीयता को स्वीकार किया है। अहिंसा भारतीय संस्कृति ही नहीं मानवीय सभ्यता का प्राणभूत तत्त्व है । अहिंसा किसी व्यक्ति, जाति, वर्ग देश या काल से बँधी हुई नहीं है । अतः उसे सार्वभौम धर्म ( महाव्रत) कहा गया है । आचारांग में कहा है 'एस धम्में सुद्धे निच्चे सासए' अर्थात् अहिंसा सार्वभौम है। योग-दर्शन' में भी कहा गया है कि 'जाति देशकाल-समयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमाः महाव्रतम्' अर्थात् अहिंसा का आचरण किसी जाति-विशेष, देश विशेष, अवस्था-विशेष या काल-विशेष तक ही सीमित नहीं है, अपितु समग्र मानव जाति को सभी परिस्थितियों और सभी कालों में इसका पालन ( आचरण ) करना चाहिए। __ सभी धर्मशास्त्र अहिंसा के महत्त्व के सम्बन्ध में एक मत हैं, भले ही अहिंसा की व्याख्या को लेकर उन सबमें एकरूपता न हो। यह भी सत्य है कि अहिंसा की सार्वभौम स्वीकृति तो हुई, किन्तु अहिंसकआचरण का विकास सब धर्मों में समान रूप से नहीं हुआ है, यह स्वाभाविक भी है। आचारांग में अहिंसा को भावना :
आचार ग में हिंसा और अहिंसा के जिस व्यापक स्वरूप का निरूपण हआ है, वह अत्यन्त सूक्ष्म एवं गम्भीर है। उसमें षट्कायिक जीवों की हिंसा के निषेध के रूप में अहिंसा की अवधारणा का चरम विकास
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