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पंचमहावतों का नैतिक दर्शन : १७९ त्रसकाय की हिंसा-प्रमादी एवं विषयाभिलाषी व्यक्ति जीवनाकांक्षा आदि कारणों से प्रेरित होकर जीव-हिंसा करते हैं। इनके अतिरिक्त त्रसकाय की हिंसा के जो विविध हेतु वर्णित हैं, उनसे प्रेरित होकर भी त्रसकाय की हिंसा करते हैं, दूसरों से करवाते और करने वालों का समर्थन भी करते हैं । त्रसकाय जीवों की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्राणियों की भी हिंसा करते हैं।५३ ।
इस प्रकार मनुष्य का जीवन सांसारिक कामनाओं से आवेष्टित होता है और वह उनकी सम्पूर्ति के लिए दिन-रात हिंसा के विभिन्न कार्यों में लगा रखता है। वह क्रोधादि कषाय तथा हास्यादि के वशीभूत होकर प्रयोजन या निष्प्रयोजन ही त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। सूत्रकृतांग५४, प्रश्नव्याकरण५५, दशवैकालिक सूत्र, प्रवचनसार५७, मूलाचार आदि परवर्ती जैनसाहित्य में भी षट्कायिक जीवों की हिंसा और उनके विभिन्न कारणों की चर्चाएं मिलती हैं। हिंसा के प्रकार:
आचारांग के अनुसार अहिंसा एक पूर्ण आध्यात्मिक आदर्श तथा धर्म का सार या उत्स है । वह शाश्वत धर्म है । अन्तर्बाह्य रूप से उसकी पूर्ण उपलब्धि जीवन के आध्यात्मिक स्तर पर ही सम्भव है । भौतिक स्तर पर उसका पूर्णरूप से पालन कर पाना बड़ा कठिन है । आचारांग में अहिंसा का आदर्श उन लोगों के लिए प्रस्तुत किया गया है जो सांसारिक एवं गार्हस्थ्य जीवन के दायित्वों से मुक्त हो चुके हैं, सामान्य मानवीय प्रकृति से बहुत ऊपर उठ गये हैं तथा देह के प्रति उनमें ममत्व भाव नहीं रह गया है। वस्तुतः व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिकता या व्यावहारिक जीवन के स्तर से ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे वह अहिंसक जीवन की दिशा में आगे बढ़ता जाता है। सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन में रहते हुए अहिंसा का पूर्णतया पालन कर पाना अशक्य है। इसी बात को दृष्टि में रखते हुए परवर्ती जैनाचार्यों ने हिंसा के चार प्रकार प्रतिपादित किये हैं-(१) संकल्पी हिंसा (२) आरम्भी हिंसा (३) उद्योगी हिंसा और (४) विरोधी हिंसा । उन्होंने गृहस्थ को संकल्पी त्रस हिंसा से बचने का निर्देश दिया है, क्योंकि गहस्थ जीवन के उद्योगी, आरम्भी और विरोधी हिंसा से बचना सम्भव नहीं था। वैसे, आचारांग में उक्त चारों प्रकारों में से आरम्भो ५९ और 'संकल्पी'0' ऐसे दो भेदों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। शेष दो के सम्बन्ध में कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है।
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