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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : १४३ बौद्ध परम्परा १५१ में भी दमन की अवधारणा को अनुचित माना गया है ।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि आचारांगकार को कोरे इच्छानिरोध या इन्द्रिय - निग्रह का मार्ग स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि इस मार्ग से की जाने वाली साधना की निरर्थकता एवं दुष्परिणामों को उसमें प्रतिपादित किया गया है । इच्छाओं, विषय-वासनाओं का बलात् दमन नहीं करना चाहिए । दमन आखिर दमन है । उससे व्यक्ति की पाशविक वृत्तियों का नियंत्रण तो हो जाता है, किन्तु उन विषयेच्छाओं का मूलतः उन्मूलन नहीं होता । आचारांग की शब्दावली में वह 'उपशम' की साधना है और आध्यात्मिक पूर्णता या विकास की दृष्टि से वह सम्यक् रूप से उचित नहीं है । उपशम से वे विषय-वासनाएँ मूलतः समाप्त या क्षय नहीं होती हैं, अपितु समय पाकर पुनः त उद्भूत हो जाती हैं और नैतिक जीवन में अनेक विकार उत्पन्न करती हैं। शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य को विपरीत रूप से प्रभावित करती हैं । उन पर विजय पाने का, निरोध करने का सर्वोत्तम तरीका यही है कि ज्ञान-विवेक, वैराग्य के प्रकाश में उनका ऊर्ध्वकरण, उदात्तीकरण शोधन या क्षय किया जाय । हमें यहाँ तक स्मरण रखना चाहिए आचारांग में ज्ञान - विवेक, वैराग्य समता एवं अनासक्ति के साथ ही इन्द्रिय निग्रह तथा देह-दमन को भी आवश्यक बतलाया गया है । आचारांग 'इह आणाकंखी अणि हे, १५२ 'तम्हा अविमणे सयाजए, १५३/ 'आगय पण्णाणाणं परिण्णाए १५४ 'पलिछिदिय बहिरंग मच्चिएहि १५५ 'अइअच्च सव्वतो अमोयरियाए ५६ 'कसाए पयणुए तितिक्खाए १५७ आदि अनेक सूत्रों के द्वारा सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कर्मक्षय या पूर्ण आध्यात्मिक प्रगति के लिए अन्तर्बाह्य दोनों प्रकार की साधना आवश्यक है ।
आचारांग की तरह अष्टपाहुड, १५८ पंचाध्यायी, १५९ नुप्रेक्षा, ५० दौलतरामजी कृत छहढाला" तथा घम्मपद विषय - विरक्ति और इन्द्रिय-निग्रह अर्थात् मनोजय कषाय-जय ) और इन्द्रिय-जय दोनों की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है । मानसिक शुद्धीकरण की मनोवैज्ञानिक विधि :
उक्त विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि आचारांग की साधना मुख्यतः आन्तरिक शुद्धिकरण की साधना है । वह जीवन को भीतर से शुद्ध करने पर बल देती है । अन्तर्मन में जो विषय विकार छिपे हैं, उन्हें बाहर निकालना है । आचारांग हमें मानसिक-शोधन की प्रेरणा देता है
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कार्तिकेया
८१३२ में भी
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