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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : १३१ भांति चारों ओर से 'आलीनगुप्त' होकर अर्थात् मन-वाणी एवं काया या इन्द्रियों को समेट कर संयम-साधना में विचरण करना चाहिये । ४ इसी बात की संपुष्टि सूत्रकृतांग'५, दशवैकालिक ६, अध्यात्मसार एवं गीता में भी हुई है। कहा गया है कि जिस प्रकार कछुवा खतरे के समय अपने अंग-प्रत्यंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार साधक को भी जहाँ संयम विराधना का भय हो, विषयों की ओर अभिमख होती हई अपनी इन्द्रियों को अध्यात्म-ज्ञान के द्वारा समेट लेना चाहिये । इन्द्रियों का विषयाकर्षण बड़ा प्रबल होता है मनुस्मृति६९ में मनु कहते हैं कि यह इन्द्रिय समूह (विषय-वासना ) इतना बलवान है कि विद्वान भी इनके भलावे में आकर इनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं । इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होने वाले साधु का नैतिक-पतन हो जाता है । आचारांग में कहा गया है कि मनोज्ञअमनोज्ञ शब्दों में मूच्छित और आसक्त होने वाला निर्ग्रन्थ विनाश को प्राप्त होता हुआ शान्तिभेद, शान्ति-विभंग और केवली-भाषित धर्म से पतित या भ्रष्ट हो जाता है। इसी तरह अन्य प्रिय-अप्रिय इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेष करता हुआ साधु शान्तिभेदक एवं धर्म से च्युत हो जाता
यही बात उत्तराध्ययन १, ज्ञानार्णव७२, प्रशमरतिप्रकरण 3 एवं योगशास्त्र में भी रूपक के माध्यम से कही गयी है। आचारांग में ज्ञानी पुरुष को भी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने का निर्देश है। ज्ञानी मुनि संयम के प्रति कदापि प्रमाद न करे। वह आत्मगुप्त होकर अर्थात् इन्द्रिय और मन को नियंत्रित रखकर संयम-यात्रा के निर्वाह हेतु परिमित आहार ग्रहण करे । जो अपनी इन्द्रियों के अधीन नहीं हुआ है, वस्तुतः वही वीरपुरुष है।७५ संयमी साधक ही मोक्ष प्राप्त करता है। असंयम ही जीव का सबसे बड़ा शत्रु है । यह तो सत्य है कि संयमित-नियमित जीवन में ही आध्यात्मिक शक्तियाँ प्रस्फुटित होती हैं, अनियंत्रित एवं असंयमी जीवन में नहीं। यही कारण है कि आचारांग में सूत्रकार ने कहा हैसर्दी-गर्मी, रति-अरति, भूख-प्यास, दंस-मसक, वात-आतप आदि परीषह उपसर्ग एवं मान-अपमान आदि को समभावपूर्वक सहन करो । यह मात्र उपदेश नहीं है अपितु प्रयोग-सिद्ध अनुभव है। इससे आत्मबल दृढ़ होता है, अन्तर्द्वन्द्व मिटता है और चित्त की एकाग्रता बढ़ती है, संयम सधता है। इस बात को दृष्टिगत रखकर पुनः कहा गया है-हे वीर पुरुष ! बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थियों को जानकर आज ही उनका प्रत्याख्यान कर दे
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