________________
नैतिकता के तत्त्वमीमांसीय आघार : ३५ आत्मा स्वकृत पाप से अपने को मलिन बना लेता है, और अपने स्वयं के द्वारा नहीं किए गए पाप से शुद्ध रहता है। शुद्धि-अशुद्धि स्वयं पर निर्भर है। अन्य कोई भी व्यक्ति किसी को शुद्ध नहीं कर सकता। गीता में भी यही कहा गया है कि आत्मा हो आत्मा का मित्र है और वही उसका शत्रु है । अतः उसे चाहिए कि वह स्वयं से स्वयं का उद्धार करे। किन्तु उसका पतन न करे।९० महाभारत में भी कहा है कि स्वतंत्र आत्मा स्वतंत्रता के द्वारा स्वतंत्रता (मुक्ति ) को प्राप्त कर सकता है।
निष्कर्ष यह है कि जीव स्वभावत : शुद्ध एवं स्वतंत्र है और अपनी अज्ञानता के कारण वैभाविक पुरुषार्थ के द्वारा उसने स्वयं अपने बन्धन का निर्माण कर लिया है। किन्तु स्वाभाविक पुरुषार्थ से हो उन वासनाओं के बन्धनों को तोड़कर वह मुक्त हो सकता है अर्थात् कर्म-परम्परा का उच्छेद कर पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है। कर्म बन्धन और दुःख का हेतु :
दुःखों से छुटकारा पाना आत्मा का स्वभाव है। वह उसके लिए सतत प्रयत्नशील भी है। भारतीय दर्शनों का प्रमुख प्रत्यय 'बन्धन से मुक्ति' रहा है । सम्पूर्ण साधना बन्धन से मुक्ति के लिए है । आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति के लिए है। सामान्यतया इस संसार में परिभ्रमण करना अर्थात् बार-बार मरण ही बन्धन है, यही दुःख है। उत्तराध्ययन में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग दुःख है, मृत्यु दुःख है और तो क्या यह सारा संसार ही दुःखमय है ।१२ आचाराङ्ग का कथन है कि अज्ञानी जीव इस दुःख से मेरे संसार (आवर्त) में भटक रहा है । 3 मनुष्य दुःखों से निवृत्ति तो चाहता है परन्तु उनके मूलभूत कारणों या स्रोतों को खोजकर उन्हें दूर करने का प्रयास नहीं करता। सबका अनुभव भी यही है। बन्धन ( दुःख ) है तो निश्चित ही उसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। आत्मा का बन्धन भी कारण के बिना नहीं हो सकता।
यह सही है कि आचाराङ्ग में जैन दर्शन सम्मत कर्म-सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं होता, किन्तु 'कर्म-रज' है, जीव कर्म से आबद्ध है, कर्म के कारण संसार में परिभ्रमण करता है, कर्म-शरीर को 'धुन डालो', आदि कुछ ऐसे उल्लेख हैं, जो कर्म सिद्धान्त के मूल आधार कहे जा सकते हैं। इन्हीं आधारों पर आचाराङ्ग की दृष्टि में बन्धन और उसके कारणों पर विचार करना यहां अभीष्ट है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org