Book Title: Acharang Sutram Shrutskandh 01
Author(s): Kulchandrasuri
Publisher: Porwad Jain Aradhana Bhavan Sangh

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Page 14
________________ विरूपरूपैः . शस्त्रैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं समारभमाणा अनेकरुपान् प्राणान् - प्राणिनो विहिंसन्तीति ।।१५।। एवं शाक्यादीनां पार्थिवजन्तुवैरिणामयतित्वं प्रतिपाय साम्प्रतं सुखाभिलाषितया कृत- . कारितानुमतिभिर्मनोवाकायलक्षणां प्रवृत्तिं दर्शयितुमाह :__तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्य परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिधायहेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ अण्णेहि वा पुढविसत्थं समारंभावेइ अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणाई ॥१६॥ ___ तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवंदन-मानन-पूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःख-प्रतिघातहेतुं च स स्वयमेव पृथिवीशस्त्रं समारभते अन्यैर्वा पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीत इति ।१६।। तदेवं प्रकृतमतेर्वववति तदर्शयितुमाह - तं से अहियाए तं से अबोहीए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए इहमेगिसिं णातं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे,. एस खलु णरए, इच्चत्थं गड्ढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेण पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ, से बेमि, अप्पेगे अंधमन्भे अप्पेगे अंधमच्छे अप्पेगे पायमल्भे अप्पेगे पायमच्छे अप्पेगे गुप्फमब्भे (२) अप्पेगे जंघमन्भे (२) अप्पेगे जाणुमन्भे (२) अप्पेगे ऊरुमन्भे (२) अप्पेगे कडिमब्भे (२) अप्पेगे णाभिमन्भे (२) अप्पेगे उदरमन्भे (२) अप्पेगे पासमन्भे (२) अप्पेगे पिट्ठिमब्भे (२) अप्पेगे उरमन्भे (२) अप्पेगे हिययमन्भे (२) अप्पेगे थणमन्भे (२) अप्पेगे खंधमन्भे अप्पेगे बाहुमन्भे (२) अप्पेगे हत्थमन्भे (२) अप्पेगे अंगुलिमन्भे (२) अप्पेगे णहमव्मे (२) अप्पेगे गीवमन्भे (२) अप्पेगे हणुमन्भे (२) अप्पेगे हो?मन्भे (२) अप्पेगे दंतमन्भे (२) अप्पेगे जीभमन्भे (२) अप्पेगे तालुमन्भे (२) अप्पेगे गलमन्भे (२) अप्पेगे गंडमन्भे (२) अप्पेगे कण्णमन्भे अप्पेगे णासमन्भे (२) अप्पेगे अच्छिमन्भे (२) अप्पेगे भमुहमन्भे (२) अप्पेगे णिडालमन्भे (२) अप्पेगे सीसमन्भे (२) अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए, इत्थं सत्थं समारंभमाणस्स इच्छेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति ॥१७॥ श्र श्री आचारसूत्रम् (अवरणमनिका) * ५

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