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भूमिका इसी कारण विधिपक्ष के नाम से भी जानी जाती है। विधि पक्ष का अर्थ है-आगम विधि के अनुसार आचार-पालन का पक्षधर।
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जो गच्छ या परम्पराएँ क्रियोद्धार द्वारा आगमिक आचार के पालन के लिए कटिबद्ध हुई थीं उनमें भी कालान्तर में शिथिलाचार का प्रवेश होता रहा और वे पुन: पुन: यति परम्परा के आचार में ढलती रही हैं। आर्यरक्षितसूरि ने यति परम्परा के विरोध में जिस विधिपक्ष की स्थापना की थी वह पुन: यति परम्परा से आक्रान्त हो गया और उसमें उत्तरमध्य युग में अनेक शाखा-प्रशाखाएँ बन गईं। अंचलगच्छ की मुख्य शाखाएँ निम्न हैं- (१) कीर्तिशाखा, (२) पालिताना शाखा, (३) गोरक्ष शाखा, (४) लाभ शाखा, (५) सागर शाखा और (६) चन्द्र शाखा। इनमें भी चन्द्र शाखा की दो आचार्य परम्परा दृष्टिगत होती है। इनमें अधिकांश तो यति परम्परा की ही पोषक थी। यही कारण था कि उत्तरमध्य युग में धर्ममूर्तिसूरि (सं० १६१४) और वर्तमान युग में गौतमसागरसूरि जी (संवत् १९४६) द्वारा पुन: क्रियोद्धार कर अंचलगच्छ में संवेगी मुनियों की परम्परा को पुनर्जीवित करना पड़ा। वर्तमान में अंचलगच्छ (अचलगच्छ) में जो मुनिगण एवं साध्वियाँ हैं, वे गौतमसागरसूरि की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही हैं। इस गच्छ में अन्तिम श्रीपूज्य (यति) आचार्य जिनेन्द्रसागरसूरि थे। ईस्वी सन् १९४७ में उनके स्वर्गवास के पश्चात् इस गच्छ की श्रीपूज्य परम्परा समाप्त हो गई। यद्यपि यह श्रीपूज्यों या यतियों की परम्परा आचार की अपेक्षा शिथिलाचारी थी, फिर भी इस वर्ग ने श्रावकवर्ग को जैनधर्म से जोड़े रखने तथा साहित्य और चिकित्सा के क्षेत्र में जो अवदान दिया है, उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता।
यदि हम अंचलगच्छ के साहित्यिक अवदान पर विचार करें तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि जैन विद्या के क्षेत्र में इस गच्छ अनुयायियों द्वारा निर्मित मन्दिरों एवं उनमें स्थापित प्रतिमाओं सम्बन्धी अभिलेखों और ग्रन्थ प्रशस्तियों की विस्तृत चर्चा श्री पार्श्व एवं आचार्य कलाप्रभसागर जी ने की है। डॉ० शिवप्रसाद जी ने भी अपनी इस कृति में इन सभी सूचनाओं को समाहित किया है। अत: यहाँ उनकी चर्चा करना अनावश्यक प्रतीत होता है।
जहाँ तक वर्तमान श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ के गच्छों का प्रश्न है उनमें खरतरगच्छ, तपागच्छ, अंचलगच्छ (अचलगच्छ) और पार्श्वचन्द्रगच्छ ही आज अस्तित्व में हैं, शेष गच्छ और उनकी विविध शाखाएँ आज इतिहास के पन्नों में ही संरक्षित हैं। उनमें भी प्रमुख तो तपागच्छ ही है, क्योंकि उसके साधु-साध्वियों की संख्या खरतरगच्छ और अंचलगच्छ की अपेक्षा कई गुना अधिक है, फिर भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन समाज में अपने प्रभुत्व की दृष्टि से खरतरगच्छ और अंचलगच्छ भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जहाँ तपागच्छ मुख्यत: गुजरात, मुम्बई और सौराष्ट्र में अधिक प्रभावशाली है, वहाँ खरतरगच्छ राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर-पूर्वी भारत में अधिक प्रभावी
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