Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 07
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1168
________________ सेढी 1144- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेण भावादिति, इयं च द्वित्रियचतुर्वक्रोपेताऽपि क्षेत्रविशेषाश्रितेति भेदेनोक्ता, | ('अणसण' शब्दे प्रथमभागे 303 पृष्ठे दर्शितमेतत्।) स्थापना चयेम्-ला दुहओखह' तिनाड्या वामपादिर्नाडी प्रविश्य | सेढिसय न० (श्रेणिशत) ऋज्वायतादिश्रेणिप्रधाने शते, भ०३४ श० तयैव गत्वाऽस्या एव दक्षिणपादिौ ययोत्पद्यते सा द्विधा खा, नाडि- 1 उ०। बहिर्भूतयोमिदक्षिणपार्श्वलक्षणयोर्द्वयोराकाशयोस्तया स्पृष्टत्वादितिः / सेण पुं० (श्येन) पक्षिविशेष, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१3०। प्रव०ानगरानस्थापना चेयम्- 'चकवाल' त्ति चक्रवालंमण्डलं, ततश्च यया गरीवास्तव्यस्य वस्तुश्रेष्ठितः स्वनामख्याते पुत्रे, ध०२ अधि० / मण्डलेन परिभ्रम्य परमाण्वादिरुत्पद्यते सा चक्रवाला, सा चैवम्-० काञ्चीनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध०र०। काचा 'अद्धचक्क-वाल' ति चक्रवालार्द्धरूपा, सा चैवम्-। अनन्तरं श्रेणय श्येनश्रेष्ठिकथा चेयम्उक्ताः, अथ ता एवाधिकृत्य परमाण्वादिगतिप्रज्ञापनायाह-'परमाणु इह अस्थिपुरी कंची-कंचणचिंचइयचेइहरकलिया। तत्थ य सेणो सिट्टी, कुवलयमाला पिया तस्स॥१॥ पोग्गलाणं भंते !' इत्यादि, 'अणुसेंढि' ति अनुकूलापूर्वादिदिगभिमुखा ताणं च तिन्नि पुत्ता, सिट्ठिगिहे मासखमणपारणए। श्रेणियंत्र तदनुश्रेणि, तद्यथा भवत्येवं गतिः प्रवर्तते, 'विसेटिं' ति विरुद्धा भिक्खत्थमणुपविट्ठो, कयादि साहू चउन्नाणो॥२॥ विदिगाश्रिता श्रेणी यत्र तद्विश्रेणि, इदमपि क्रियाविशेषणम् / भ० 25 गहिउंसत्तुगथालं, सिट्ठी उट्टेइझत्ति से दाउं। श० 3 उ०। आ० म० / जं०। रा०! श्रेणयो भवनपतीनां परिमाणाव संसत्ता सुहमजिएहि, ममन कप्पंति भणइ मुणी॥३॥ धारणाय द्रष्टव्याः। पं० सं०२ द्वार / जं०1०। आ० मा सम्प्रति को पचओ त्ति वुत्तं-मि सिट्ठिणा दसए मुणी तस्स। श्रेणिनिरूपणायाह-'तद्दीहेग-पएसा सेढि' तिस एव धनीकृतलोकः तव्वन्नजिए उवर-तफुभदावणउवाएण॥ 4 // सप्तरजुप्रमाणो दीर्घ दैर्ध्य यस्याः सा तद्दीर्घा एकप्रदेशेति वीप्साप्रधान तोतइयदिवसदहिय-मि ढोइए दंसए तहेव जिए। त्वान्निर्देशस्य एकैकाकाशप्रदेशा शूचिः श्रेणिरित्युच्यते / एतेन च यत्र अह सिट्ठी से ढोएइ, मोयगाणं भरियथालं // 5 // कुत्राप्यविशेषितायाः श्रेणेः, सामान्येन ग्रहणं तत्र सर्वत्रास्य घनीकृत- विसमोयगा इमे, मुणि-कहिए स भणइ कह, मुणी आहे। लोकस्य संबन्धिनीयमेव सप्तरज्जुप्रमाणा एकप्रदेशिकी श्रेणियाह्या। कर्म० जा इह लग्गइ सा मर-इ मच्छिया, पिच्छ, नणु सिट्टी // 6 // 5 कर्म०। क्र० प्र०। पं० सं०। अनन्तरे निर्णीतप्रमाणाङ्गुलेन यद्योजनं तो सो विम्हियहियओ, जंपइ विसदायगं कहसु मज्झ। तेन योजनेनासंख्येययोजनकोटीकोट्यः संवर्तितसमचतुर-स्रीकृत- पच्चाह साहुपवरो, जा कम्मयरी मया कल्ले॥७॥ लोकस्यैका श्रेणिः / अनु०। ('किइकम्मइ' शब्दे तृतीयभागे 510 पृष्ठे किं तीइ कयमिमं, इय पुढे साहू भणेइ जह तुमए। संयमश्रेणयः।) सकुडुबेण वि अमुगे, अवराहे तज्जिया सा उ।।८।। अथ श्रेणिप्ररूपणामाह तो तीए तुम्ह कए, विसजुत्ता मोयगा इमे विहिया! अविभागपलिच्छेया, ठाणंतरकंडए य छट्ठाणा। तह अत्तणो निमित्तं, विसरहिया मोयगा दुन्नि / / 6 // हिट्ठा पञ्जवसाणे, वड्डी अप्पावहुं जीवा।।३३।। तो अइछुहाइयाए, संभंतमणाइ मोयगा तीए। अविभागपरिच्छेदप्ररूपणा स्थानान्तरप्ररूपणा कण्डकप्ररूपणा षड् विससंजुत्ताभुत्ता, पंचत्तं तक्खणा पत्ता / / 10 // स्थानप्ररूपणा अधःप्ररूपणा पर्यवसानप्ररूपणा वृद्धिप्ररूपणा अल्प विसमविसवज्जियं इह, थाले पुण मोयगाण दुगमेव। सेसा सव्दे सविसा, तो मज्झ इमे न कप्पंति॥११॥ बहुत्वप्ररूपणा जीवप्ररूपणा चामूनि प्रतिद्वाराणि / जइ कहवि इमे तुमए, सकुडुवेणावि भक्खिया हुंता। तद्यथा तोपावंतो मरणं, तमसरणो धम्मपरिमुक्को // 12 // आलावगणणविरहिय-मविरहियं फासणा परूवणया। तत्तो सेणो पुच्छइ, धम्म पत्तो मुणी उसट्ठाणं / गणणपयसेठिअक्खर-भागेअप्पाबहुं समया / / 834 / / भिक्खगएहिं धम्मो, न कहिज्जइ इय भणेऊण / / 13 / / आलापकप्ररूपणा गणनाप्ररूपणा विरहितप्ररूपणा अविरहितप्ररूपणा अह मज्झण्हे सिट्ठी, सकुडुबो गंतु साहुमूलंमि। श्रेण्यपहारप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा समयप्ररूपणा चेति द्वारगाथा पणमिय पुच्छइ धम्म, एवं से कहइ साहू वि।। 14 / / द्वयम्। बृ०३ उ०। जह सुरकरी करीसु, अमरेसु हरी गिरिसु कणयगिरी। सेढिआयय न० (श्रेण्यायत) प्रदेशिकश्रेणिरूपे आयते, भ० 25 श० तह धम्मेसु पहाणो, दाणाई चउह जिणधम्मो।। 15 / / 3 उ०। तत्थ वि सुनिकाइयक–म्मघम्मजलहरसमो तवो पवरो। सेढिचारण पुं०(श्रेणिचारण) चतुर्योजनशतोच्छ्रितस्य निषधस्य नीलस्य तत्थ विय विसेसिज्जइ, सज्झाओ जेणिम भणियं / / 16 / / वा अद्रेष्टइच्छिन्नां श्रेणिमुपर्यधो वा पादनिक्षेपोत्क्षेपपूर्वकमुत्तरणावत- कम्ममसंखिज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। णनिपुणे चारणभेदे, प्रव०६८ द्वार। ग० अन्नयरंमि वि जोगे, सज्झायमि य विसेसेण // 17 // सेढितवन० (श्रेणितपस्) श्रेणिः-पङ्क्तिस्तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपः। बारसबिहंमि वि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसलदिटे। चतुर्थादिक्रमेण क्रियमाणे षण्मासान्ते तपोभेदे, उत्त० 30 अ०।। नवि अत्थि नविय होही, सज्झायसमं तबोकम्म॥१८॥

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