Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 07
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1223
________________ हसंत 1196 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हाउं सेश्चा आ वा" ||8 / 3 / 28 / / इति जश्शसोश्च स्थाने आकारो वा / सागरियमातिकजेसु सागारियं मेहुणं को विपडिवुद्ध वसहीए सेवति, एसा हसंतीआ / प्रा०३ पाद / ताहे हसिज्जति जेण णातोऽयमिति लज्जियाण मोहो णासति। अहवा मा हसण न० (हसन) हासे, स्था० 4 ठा०१ उ०। पञ्चा० / नि० चू०। अपरिणया इत्थिगाए सदं सुणेतु त्ति हसिज्जति / आदिसहातो कारणे जे भिक्खू मुहं विप्फालिय विप्फालिय हसइ हसंतं वा | जागरातिसु। नि० चू०४ उ०। साइजइ॥२९॥ हसणिज्ज त्रि० (हसनीय) हसितुंयोग्ये, आचा०१श्रु०२ अ०१ उ०। मुखं वक्कं वयणं च एगढ़, विप्फालेति विहाडेति अतीव फालेति हसमाणि स्वी० (हसन्ती)"अजाते पुंसः" / / 8 / 3 / 32 / / इति विप्फालेति / वियंभमाणो व्व विविधैः प्रकारैः कालेति विप्फालेति।। स्त्रियां वर्तमानात् पुल्लिङ्गा डी। हसभाणी। हसमाणा। हासं कुर्वत्याम, विणाड(डि) कारवत् / वीप्सा पुनः पुनः मोहनीयोदयो हास्यं, तस्स प्रा०३ पाद। चउव्विहा उप्पत्ती। हसहसेऊण अव्य० (जाज्वलित्वा) भृशमुद्दीपितो भूत्वेत्यर्थे , बृ० गाहा 3 उ०। पासित्ता भासित्ता, सोतुं सरितूण वा विजे भिक्खू। हसाविअ पुं० (हासित) "लुगावी क्त-भाव-कर्मसु"।। 8 / 3 / विप्फालेत्ताण मुहं, सुवियार कहकहं हसती / / 256 / / 152 / / इतिणेः स्थाने लुगावि इत्यादेशौ भवतः।हासि। हसाविअं। असंवुडादि पासित्ता वा अतिविक्खलियं भासित्ता, णमोक्कारणिज्जुत्तीए हास प्रापिते, प्रा०३ पाद। कागसरडादि अक्खाणगं सुणेत्ता, पुव्वरयपुव्वकीलियाति सरिऊण हसिअ त्रि० (हसित)"क्ते"।।३।१५६॥क्ते परतोऽत इत्त्वम्, मोहमुदीरकं अण्णस्स वा हासुप्पायागं सविकारं महंतेण वा उक्कलिया हसि। हासकारिते, प्रा०३ पाद। सद्देण कहकह भण्णति, जो एवं हसति। हसिऊण अव्य० (हसित्वा) "एच क्त्वा-तुम्-तव्य-भविष्यत्सु" गाहा |||3 / 157 // इति अत एकारः इकारश्च / हसेऊणं / हसिऊण। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविधा। हासं कृत्वेत्यर्थे, प्रा०३ पाद। पावति जम्हा तेणं, सवियारकहकहं ण एसे / / 257 / / हसिजंत त्रि० (हास्यमान) "ईअ इजौ क्यस्य" / / 8 / 3 / 160 // को दोसो? इति क्यस्य स्थाने ईअ इज्ज इत्येतावादेशौ / हसिअंतो। हसिखंतो। गाहा हासविषयीक्रियमाणे, प्रा०३ पाद। पुवामयप्पकोवो, अहो व धमणी गलस्स गहणं वा। असंवुडणं भवेजा, तावसमरणेण दिलुतो। 218 // हसितून अव्य० (हसित्वा)"क्त्वस्तूनः"||||३१२॥ इति __ पैशाच्यां क्त्वाप्रत्ययस्य स्थाने तून इत्यादेशः / हसितून / हासं पुष्वामयो सूलातिरोगो सो उक्संतो पकोवं गच्छति / कण्णस्स अहो महंती गलसरणी मता भवति, ता घेपेज, मुहस्स वा असंवुडणं भवेज, कृत्वेत्यर्थे, प्रा०४ पाद। जहा सेविस्स मुहं विप्फाडिय हसमाणस्स तारिसं चेव बद्धं, ताहे वेजेण हसिय न० (हसित) वक्रोक्तिगर्भे हसने, प्रव० 166 द्वार। दश० / ईषत् आयपिंडतावित्ता मुहस्स होइतं, संवुडं जातं, किंचान्यत् पंचसता तावसा हासे, प्रश्न०४ संव० द्वार। औ०। कपोलविकाशिनि प्रेमसंदर्शिनि च णं मोयए भक्खंति / तत्थ एगेण अदेसकाले दाढिया मोडिया, सव्वे हसने, जं० 2 वक्ष० / जी० / हसितं यत् कपोलविकाशमात्रसूचितं पहसिता गललग्गेहिं मोयगेहि सव्वे मता। नत्वट्टहासदि। रा०! उबुद्धे, विशे०। गाहा हसिर त्रि० (हसिन्) "शीलाधर्थस्येरः" ||8|21145 // इति आसंकवरजणगं, परपरिभवकारगं च हासं तु। शीलार्थप्रत्ययस्येरादेशः। हसनीशीले, , प्रा०२पाद। संपातिमाण य वहो, हसयंत मयगदिलुतो // 256 / / हसिरिआ (देशी) हास्ये, दे० ना०८ वर्ग 62 गाथा। परस्स आसंका अहं अणेण हसितो त्ति / किंच, अहमणेण हसितो त्ति | हस्स त्रि० (हस्व) वामनकादौ, सूत्र०१ श्रु०१ अ०। आचा० / को०। वेरसंभवो भवति। हसंतेहिं परपरिभवो कतो भवति, संपातिमादि मुहे. ] पविसंति, मयगदिढतोयभणियव्वो। राया सह देवीए उल्लोचणे चिट्ठति, *हस्य न० हसने, भ०१श०६ उ०। प्रश्न०। देवी भणति-रायं ! मतं माणुसं ति हसति / राया ससंभंते कहं कत्थ | *घर्ष पुं० घर्षणे, प्रज्ञा०२ पद। वा ? साधुं दरिसेति, राया भणति कहं मतो ति, देवी भणति-इह भवे *हस ध० हसने, "गमादीनां द्वित्वम्" |8||246 / / इति सव्वसुहवर्जितत्वात् मृतो मृतवत् सकारस्य द्वित्वम्। हस्सइ। हसति। प्रा० 4 पाद। गाहा हहा अव्य० (हहा) खेदे, स्या०। बितियपदमणप्पज्झे, उप्पात विकोविते य अप्पज्झे। हा अव्य० (हा) महत्खेदे, उत्त०२१ अातं०। जाणते वावि पुणो, सागारितमाइकज्जेसु / / 260 // हाउं अव्य० (हापयित्वा) वञ्चयित्वेत्यर्थे, बृ०३ उ०। प्रश्न०।

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