Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 07
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ हेमवय 1246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 होया हेममया शिलापट्टका उपयुज्यन्ते,तत उपचारेण ददातीत्युक्तम्। नित्यं हेलियामच्छ पुं०(हेलिकामत्स्य) मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति०। हेम-प्रकाशयति, ततो हेम नित्ययोगि प्रशस्यं चाऽस्यास्तीति हेमवत्, | हेलुअ-(देशी) - छिक्कायाम्, दे० ना० 8 वर्ग 72 गाथा। हेमवदेव हैमवतम्, प्रज्ञादेराकृतिगणतया 'प्रज्ञादिभ्यः' (श्रीसिद्ध० अ० हेलुका-(देशी) - हिक्कायाम्, दे० ना०८ वर्ग 72 गाथा। 7 पा०२ सू० 165) इति स्वार्थेऽणप्रत्यय:, हैमवतश्चात्र देवो महर्द्धिक: हेलि (सम्बो०) हेसखि-हेसखि इत्यस्य हेल्लि इति निपात्यते। संख्या पल्योपमस्थितिक परिवसति, तेन तद्योगाद्वैमवतमिति च्यपदिश्यते।। आमन्त्रणे, 'हेलि म झंखहि आलु'। प्रा०४ पाद। हैमवतो देवः स्वामित्वेनास्यास्तीति,* अभ्रादित्यादप्रत्ययो चा। जं० हेवाग पुं०( हेवाक) स्वभावे, स्था० 4 ठा०४ उ०। अभ्यासे च। नि० 4 वक्ष०। चू०१ उ०। हेमवयकूड न०(हैमवतकूट) -हैमवद्वषेशसुरकूटे जं० 4 वक्षः। जम्बुद्वीपे | *हेव्वस-पुं० पारसीक: शब्द: / अलाउद्दीनसुरत्राणस्य मल्लिके, “कलिहिमवर्षधरपर्वत स्वनामख्याते कूटे, स्था०२ ठा०३ उ०। कालदुललिअवसेण अलाउद्दीनसुरत्ताणस्स मल्लिकेण 'हेव्वस' नामेणं।" हेमविमलसूरिपुं०(हेमविमलसूरि) हीरविजयसूरिगुरो: आनन्दविजयसूरः | ती०३५ कल्प०। हेसिय न०(हेषित) हयशब्दे, अनु०।०। गुरौ सोमसुन्दरसूरिशिष्ये, ग० 3 अघि०।। हेमसंभवा स्त्री०(हेमसंभवा) हेमकृतराजस्य भार्यायाम, बृ० 4 उ० / हेहभूय न०(हेहभूत) गुणदोषपरिज्ञानविकलेऽशठभावे, व्य०१३० / हेहय पुं०(हैहय) स्वनामख्याते क्षत्रियराजे, आव०४ अ०। (बालिकासु अत्यन्तंगृद्धस्य अस्या: पुत्रस्य वेदोपधातो जात:, तवृत्तम् हो अव्य०( हो) विस्मये, पाइ० ना० 274 गाथा। 'उवधायपंडग' शब्दे द्वितीयभागे निरूपितम्)। होअऊण (अव्य०) भूत्वा- "स्वरादनतो वा" ||841240 // हेमसरोवर न०(हेमसरोवर) स्वनामख्याते तीर्थे, यत्र द्वासप्ततिर्जिना इति अकारागमो वा। होअऊण। होऊण / भूत्वा / उप्तयेत्यर्थे, प्रा० लया: / ती०४३ कल्प। 8 अ० 4 पाद। हेमसुत्तग न०(हेमसूत्रक) हेमसड्कलके, ज्ञा० 1 श्रु०१०। होउकाम पुं०(भवितुकाम) मोक्षार्थिनि भव्यसत्त्वे, पं० सू०१ सूत्र। हेरपुं०(हैर) माण्डव्यगोत्रे गोत्रविशेषप्रवर्तकेच ऋषो, तदपत्येषु च / स्था० होन्त त्रि० भवत्-"शत्रानाश:"||८१३/१८१॥ इतिशतृप्रत्ययस्थाने ७ठा०३ उ०। न्तः। प्रा० जायमाने विशे०। हेरव-(देशी)-महिष-डिण्डिमयो:, दे० ना०८वर्ग७६ गाथा।पाइ० ना० / होड पुं०(होढ) - मोषे, ज्ञा०१ श्रु०२ अ01 हेरण्णवय पुं०(हैरण्यवत) जम्बूद्वीपे स्वनामख्याते वर्षक्षेत्रे, स्था०६ठा० होत्ता (अव्य०) भूत्वा-"क्त्व इअ-दूणौ”॥४२७१।। इति 3 उ०।०। प्रज्ञा० / रुक्मिवर्षधरे अष्टकूटानां मध्ये सप्तमे कूटे, स्था० क्त्वाप्रत्ययस्य इय-दूणौ वा भवतः / होत्ता। उत्पद्येत्यर्थे, प्रा० 8 अ० 2 ठा०३ उ०५७ सूत्र टी०॥ 4 पाद। दो हेरण्णवयाई (सूत्र-१२+) स्था०२ ठा०३ उ०। होत्तिय पुं०(होत्रिक) अग्निहोत्रिके, भ० 1 श० 5 उ० / औ० / (अस्य) व्याख्या 'रुप्पि' शब्दे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (111) सूत्रेण षष्ठे भागे तृणवनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा०१पद! गतार्था। होत्था (क्रिया०) अभवत्-जात इत्यर्थे, पिवा० 1 श्रु० 1 अ०। हेरण्णवयकूड न०(हरण्यवतकूट) शिखरिवर्षधरपर्वतस्य कूटे, स्था० होदूण (अव्य०) भूत्वा-भू-क्त्वा / “कत्व इय-दूणौ" ||8|| ३ठा०३ उ०। हैरण्यवतक्षेत्राधिपसत्केरुक्मिवर्षधरकूटे, जं.०४ वक्ष०॥ 271 / / इति क्त्वास्थाने दूणादेशः / उत्पद्येत्यर्थे, प्रा०४ पाद / होन्तो। हेरण्णिय पुं०(हैरण्यिक) स्वर्णकारे, आ०म०१ अनं०। अभविष्यत्। “न्त-माणी"|| 8|3|180 // इति न्ताऽऽदेशः। हेरिंब-(देशी)- गणेशे, दे० ना०५ वर्ग७२ गाथा। होन्तो। होमाणो। अभविष्यदित्यर्थे, प्रा० 5 अ०३ पाद। हेरिय पुं०(हैरिक) उद्भ्रामके, कल्प० 1 अधि०६ क्षण। होम पुं०(होम) अग्रिहोतृभिः क्रियमाणे अग्निहोमे, अनु०। नि० चू०। हेरुयाल पुं०(हेरुताल) वृक्षविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० ज०। पं०५०। हेला स्त्री०(हेला) लीलायाम्, जीवा० 16 अधि०। पाइ० ना० / वेगे, दे० | होयव्य न०(भवितव्य) भाव्ये, पञ्चा० 4 विव० / आ० म० / नि० चू०। ना०८ वर्ग 71 गाथा / अनादरे, पाइ० ना० 162 गाथा। | होया पुं० (होतृ) होतरि, अग्नौ हविः प्रदातरि, ज्ञा०१ श्रु(१अ०।

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