Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 07
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1225
________________ हार 1201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हालिय पुत्तेण से पलावियाणि, तेण विभंगेण दिहाणि मारियाणि य सोलस य | हारविराइय त्रि० (हारविराजित) मौक्तिकादिमालया शोभमाने, कल्प० रोगायंका पाउब्भूया, विवरीया इंदियत्था जाया, जं दुग्गंधं त सुगंधं / १अधि०२ क्षण। स्था०। "हारविराइयवच्छे हारेण विराजमानं 'वच्छ मन्नइ / पुत्तेण य से अभयस्स कहियं, ताहे चंदणिउयगं दिजइ। भणइ- त्ति' हृदयं यस्य / कल्प०१ अधि० १क्षण / हारैर्विराजितं वक्षा येषां ते अहो मिटुं विष्टेण आलिप्पइ पूइमसं आहारो, एवं किसिऊण मओ, अहे हारविराजितवक्षसः / जी० 3 प्रति० 4 अधि० / 'हारविराइयरइयसत्तमंगओ। ताहे सयणेण पुत्तोसे ठविजइसोनेच्छइ, मा नरगंजाइस्सामि वच्छा'" हारेण विराजमानेन रचितं शोभितं वक्षो यस्य स हारविराजत्ति सो नेच्छइ। ताई भणंति-अम्हे विगिंचिस्सामो तुम नवरं एक मारेहि मानरचितवक्षः / रा०।औ०। सेसए सव्वे परियणो मारेहिति / इत्थीए महिसओ बिइए कुहाडो य / हारि त्रि० (हारिन्) मनआह्लादकारिणि, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०॥ रत्तचंदणेणं रत्तकणवीरेहि, दोवि डंडीया मा तेण कुहाडएणं अप्पा हओ हारिभह पुं०(हारिभद्र) हरिभद्रस्येदंहारिभद्रम्।हरिभद्रसूरेः सम्बन्धिनि, पडिओ विलवइ, सयण भणइ-एयं दुक्खं अवणेह, भणंति-नतीरंति। षो०१६ विव०। तो कह भणह-अम्हे विगिचामो ति? एयं पसंगेण भणियं, तेण देवेणं हारि(री)य स्त्री० (हारीत) कौत्सगोत्रविशेषप्रवर्तक स्वनामख्याते ऋषौ, सेणियस्स तुट्टेण अट्ठारसवंको हारो दिण्णो, दोण्णि य अक्खलियवट्टा स्था० 7 ठा०३ उ० नं० / हारितोऽचलभ्राता / आ० म० 1 अ०। दिण्णा / सो हारो चेल्लणाए दिण्णो पिय त्ति काउं, वट्टा नंदाए। ताण गोत्रभेदे, कल्प०२ अधि०८ क्षण। रुट्ठाए किमहं चेडरूव त्ति काऊण अनिरक्खिया खंभे आवडिया भग्गा, हारि(री)या स्त्री० (हारीता) श्रीगुप्तान्निर्गतस्य चारणगलस्य प्रथमतत्थ एगम्मि कुंडलजुयलं, एगम्मि देवदूसजुयलं, तुट्ठाए गहियाणि। एवं शाखायाम, कल्प०२ अधि० 8 क्षण। हारस्स उप्पत्ती। "आव०४ अ०। 'हारुत्थयसकयरहयवत्थे हारेण हारि(री)यायणपुं०(हारीतायन) हारीतर्षिगोत्रापत्ये, कल्प०२ अधि० अवस्तृतम्-आच्छादितम्। अत एव सुष्ठ कृतं रतिकं दृष्टीनां प्रमोददायि क्षण। एवंविधं वक्षो हृदयं यस्य स तथा। कल्प०१ अधि०३क्षण। हरणं हारः। हारीस पुं० (हारीश) म्लेच्छदेशभेदे, तत्र जातेऽनार्यसनुष्ये च / प्रज्ञा० हृती, व्य०१उ० स्वनामख्यातेद्वीपे, जी०३ प्रति०४ अधि०।सू०प्र०। 17 पद 2 उ०। हारज्झयण न० (हाराध्ययन) गृद्धिदशानां नवमाध्ययने, स्था० 1 ठा० हारोत्थय त्रि० (हारावस्तृत) हारेणाऽऽच्छादिते, कल्प० 2 अधि० 3 ३उ०। क्षण / "हारोत्थयसुकयरइयवच्छा' हारावस्तृतेनहारावच्छादनेन सुष्टु हारणिगर पुं० (हारनिकर) पुजीकृतमुक्ताहारे, कल्प०१अधि०२क्षण। कृतरतिक वक्ष-उरो यस्याः / औ० / भ० / हारेणावस्तृतमाच्छादित हारपुडपाय न० (हारपुटपात्र) लोहपात्रे, आचा०२ श्रु०१चू०६ अ० तेनैव सुष्ठु कृत रतिदंच वक्ष-उरो यस्याः / तं०। १उ०। हारोदपुं० (हारोद) हारदीपस्याभितः समुद्रे, जी०३ प्रति० 4 अधि० हारभद्द पुं० (हारभद्र) हारद्वीपे स्वनामख्याते देवे, जी० 3 प्रति० 4 हाल पुं०(हाल) पणिहि' शब्दे पञ्चमभागे उदाहृते भृगुकच्छराजे, आ० अधि०। क०४ अ०। हारमहामहपुं०(हारमहाभद्र) हारद्वीपे स्वनामख्याते देवे,जी०३ प्रति० हाला (देशी) कस्मॅिश्चिद्देशे पुरुषाधामन्त्रणे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। 4 अधि०। हालाहल पुं० (हालाहाल) श्रावस्त्यां नगर्यामाजीविकोपासके स्वनामहारमहावर पुं० (हारमहावर) हारसमुद्रे स्वनामख्याते देवे, जी० 3 प्रति० ख्याते कुम्भकारे, भ० 15 श० त्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा० 1 पद। 4 अधि०। स्थावरविषभेदे, ग०२ अधि०! हारवधा० (नश) अदर्शने,"नशेविउड-नासव-हारव-विप्पगाल- | हालिज न० (हारीत) स्थविरात् श्रीगुप्तान्निर्गतस्य चारणगणस्य तृतीये पलावाः" / / 811131 // इति नशधातोहरिवाऽऽदेशः। हारवइ। कुले, कल्प० 2 अधि०८ क्षण। नश्यति / प्रा० 4 पाद। हालिद्द त्रि० (हारिद्र) हरिद्रावर्णे पीते, कर्म०१ कर्म०। सू०प्र०। रा०। हारवर पुं० (हारवर) स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च / चं० प्र०२० पाहु। जी०। एगे हालिद्दे / स्था०१ठा०। जी० / सू० प्र० / हारवरद्वीपे स्वनामख्याते देवे, जी०३ प्रति० | हालिद्दणाम न० (हारिद्रनामन्) यदुदयात् जन्तुशरीरं हारिन्द्रं-पीतं 4 अधि०। हरिद्रादिवद्भवति तद् हारिद्रनाम। वर्णनामभेदे, कर्म० 1 कर्म०। हारवरोभास पुं० (हारवरावभास) स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च हारवर- | हालियंड न० (हालिकाण्ड) गृहकोलिकायोः ब्राह्मण्या वा अण्डे, कल्प० भासे स्वनामख्याते देवे, जी०३ प्रति०४ अधि०। 3 अधि० 6 क्षण। हारवरोभासमहाभह पुं० (हारवरावभासमहाभद्र) हारवरावभाससमुद्रे | हालिय पुं० (हालिक) हलेन व्यवहरतीति हालिकः। अनु०ालाङ्गलिके स्वनामख्याते देवे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। ज्ञा०१ श्रु०१ अ01

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