Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 07
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ हीसमण १२४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हुरत्था हेषितस्थाने हीसमणेति निपात्यते। हीसमणं / अश्वशब्दे, प्रा० / | हुंडी स्त्री०(हुण्डी) घटिकायाम्, "हुंडी घडा" पाइ० ना०२६५ गाथा ! दे० ना०। हुंतए (अव्य०) भवितुम्- सत्ता लब्धुमित्यर्थे, वृ०६ उ०। हीही- (देशी)-अव्य०। हर्षे, प्रा०। “हीही विदूषकस्य" हुंतावायपगासण न०(भाव्यपायप्रकासन) अशुद्धव्यवहारकृतां ||8 / 4 / 285 / / शौरसेन्या हीही इति निपातो विदूषकस्य हर्षद्योत्ये भाविनोऽपायस्स प्रकटने, 'मा कृथा: पापानि चौर्यादीनि, इह परत्र प्रयोक्तव्य: "हीही भो सम्पन्ना मणोरधा पियवयस्सस्स" प्रा०। चानर्थकराणी' त्याश्रितं शिक्षयति, ध०२ अधि०। ध० 20 / हु अव्य०(हु)निश्चये, उत्त०१अ०। व्याआ० मा यस्मादर्थे, आचा० हिंबउट्ठ पू०(हम्बतुष्ट) कुण्डिकाश्रमणे, भ०११श०६ उ०नि०।औ०। १श्रु०६अ०१ उ०। सूत्र०। नि० चू० / शब्दार्थे, विशेषणे च। सूत्र०१ हुड-(देशी) -मेषे, दे० ना०८ वर्ग 70 गाथा। ' श्रु०१२ अ० आचा० आ० म०। हेतौ, अवधारणेच! आचा०१ श्रु० हुडुअ-(देशी)-प्रवाहे, दे० ना०५ वर्ग 70 गाथा।पाइ०ना० 6 अ०१उ०। सूत्र०नि० चू० श्रा० सम्म०। पश्चा०। वाक्यालकारे, हुडका स्त्री०(हुड्डुक्का) काहलानामके तूर्यविशेषे, जी०३ प्रति 4 अधि० / आ० म०१०। सूत्र० / तं० / प्रश्र० / पश्चा० / प्राकट्ये, प्रव०१ द्वार। आ० म०। औ०। रा०। स्फुटार्थे, आतु०। पादपूरणार्थ, जीवा० 28 अधि०। पं० 50 / हुडुम-(देशी) पताकायाम्, दे० ना०८ वर्ग 70 गाथा। पाइ० ना० एवकारार्थे, उत्त०१अादर्श आ० म०।पं० सं०।तर्कितार्थसमर्थने, हुड्डा स्त्री०(हुड्डा) हुड्डांपारापतनालिकेरादिसम्बन्धिनीं विधत्ते। द्वाषष्टितमे आव०२ अ०1- “हु खु निश्चयवितर्क-संभावन-विस्मये" || श्रावकस्य आशातनादोषे, प्रव०३८ द्वार। ८१२/१९८॥हु खुइत्येतौ निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यौ। निश्चये-तंपिहु हुण धा०(हु) दानादानयोः, "चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगांणो अच्छिन्न सिरी परहस्सं। वितर्क ऊह: संशयो वा। ऊहे- 'न हुणवरं हस्वच" |10|241 // इति अन्ते णकारागम: / हुणइ / जुहोति। संगहिया' बहुलाधिकारादनुस्वारात्परो हुर्न प्रयोक्तव्यः / प्रा०२ पाद। प्रा०नि०1 चू० / “न वा कर्मभावे व्व: क्यस्य च लुक" || हुअवह पुं०(हुतवह) अग्नौ, “धूमद्धओ हुअवहो" पाइ० ना०६ गाथा / 8 / 4 / 252 // इति अन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा क्यस्य च लुक्। हुआस पुं०(हुताश) वह्नौ, आव० 4 अ०॥ हुव्वइ / हुणिज्ज। हूयते / प्रा० 4 पाद। हुआसण पुं०(हुताशन) राजगृहे नगरे स्वनामख्याते. ब्राह्मणे "नगरे हुत्त (त्रि०) हुत- 'सेवादी' वा // 8 // 26E | इति अन्त्यस्य द्वित्त्वं पाटलीपुत्रे, श्रावकोऽभूत हुताशनः / तद्भार्याज्वलनशिखा, दहनज्वलनौ वा। हुत्तं / हुअं। अग्निक्षिप्ते घृतादिके, प्रा० / स्था० / सूत्र० / अभिमुखे, सुतौ" आ० क० 4 अ० / अग्नौ, पाइ० ना० 6 गाथा। दे० ना० 8 वर्ग 60 गाथा। (अस्य व्याख्या 'कुसील' शब्दे तृतीयभागे हुं अव्य०( हु) दानादिषु प्रा० / “हुँ दानपृच्छानिवारणे" 610 पृष्ठे। 'उदग' शब्दे द्वितीयभागे 766 पृष्ठे च द्रष्टव्या।) ||2|167 II, हुं इति दानादिषु प्रयुज्यते / दानेहुं गेण्ह अप्पणच्चिअ। पृच्छायां-हुँ साहुसु सम्भावं। निवारणे-हुं निल्लज्ज ! हुन्त (त्रि०) भवत्- "अविति हुः" || 8161 // इति भुवो हु समोसर / प्रा०२पाद। इत्यादेश: / विद्यमानार्थे, प्रा०४ पाद०। हुंकअ- (देशी)-अञ्जलौ, दे० ना०५ वर्ग७१ गाथा। हुयवह (पुं०) हुतवह- वैश्वानरे, जी०३ प्रति० 4 अधि० / प्रज्ञा० / अनौ, हुंकार पुं०(हुंकार) वन्दने, हुंकारं दद्यात्-वन्दनं कुर्यादित्यर्थः / विशे०। ज्ञा०१श्रु०१अ०॥ तं०। औ०। आ० / म०। को० आव०। 'हुयवआ०म०। प्रा०1०। हणिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा' हुतवहेन-अम्निना निर्मात हुंकुरुव- (देशी)- अञ्जलौ; दे० ना० 8 वर्ग 71 गाथा। सत् यत् धौतं शोधितमलं तप्तं तपनीयं सुवर्णविशेषस्तद्वत् रक्ते तले हुंड न०( हुण्ड) अव्यवस्थिताङ्गावयवे, विपा०१ श्रु०१ अ०। सर्वत्रा- | हस्ततले तालु ककुदं जिह्वा च-रसना येषां ते हुतवहनिर्मातधौतसंस्थितं, यस्य हि प्रायेणैकोऽप्यवयव: शरीरलक्षणोक्तप्रमाणे न संवदति तप्ततपनीयरक्ततलतालुजिह्वा: / जी०३ प्रति० 4 अधि०। तं०। सर्वत्रासंस्थितं हुण्डमिति / स्था० 6 ठा० 3 उ० / प्रश्न / कर्म०। हुण्डं हुयहुयासण (पुं०) हुतहुताशन-दीप्तब्रौ, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। प्राय: सर्वावयवेषु आदिलक्षणविसंवादोपेतमिति। भ०१४ श०७ उ०! हुयासण (पुं०) हुताशन-वैश्वानरे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ० / अग्नौ, कल्प० तका अनु०। प्रज्ञा०ाजी०। विशे०। सर्वावयवप्रमाणविकले संस्थान- १अधि० 6 क्षण। देवमायाकृते वह्नौ, उत्त०१६ अ०। माहेश्वर्यां नगर्या विशेषे, विपा० 1 श्रु० 1 अ० / कर्म०। स्वनामख्याते व्यन्तरगृहे , पञ्चा०६ विव०। आ० म० आ० चू०। हुंडणामन०(हुण्डनामन) संस्थाननामकर्मभेदे, यदुदयाजन्तुशरीरं हुण्ड- हुरत्था-(देशी०) बहिर्वा निर्गत्येत्यर्थे, आचा०२ श्रु० 1 चू० 1103 संस्थानं भवति। कर्म०१ कर्म०। उ०। उपाश्रयाबहिर्वर्तिन्यां वगडायाम्, बृ०२ उ०।

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