Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 07
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ हरिवासकूड 1167- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हलधरवसण महाहिमवति वर्षधरपर्वते स्वनामख्याते कूटे, स्था० 8 ठा० 3 उ० / स्त्रीणि चाधिकानि प्रव्रज्यां पालितवान् / दशवर्षसहस्रत्वात्तदायुष्कजम्बूद्वीपे हरिवर्षस्य क्षेत्रविशेषस्याधिष्ठातृदेवेन स्वीकृते निषधवर्षधर- | स्येति। स०६७ सम० / स्वनामख्याते ऋषभदेवपुत्रे, तन्निवेशिते देशपर्वतस्य स्वनामख्याते कूटे, स्थाई ठा० 3 उ०। विशेषे च। कल्प०१ अधि०७ क्षण। हरिवासय पुं० (हरिवासक) हरिवर्षे जातो हरिवर्षों वाऽस्य वासः। हरिवर्षे | हरी स्त्री० (हरी) जम्बूद्वीपे पूर्वाभिसुखेन लवणसमुद्रं समुत्सर्पन्त्यां उत्पन्ने, अनु०॥ स्वनामख्यातायां महानद्याम्, स्था०७ ठा०३ उ०1 हरिवाहण पुं० (हरिवाहन) नन्दीश्वरद्वीपस्य अपरार्धादिपतौ देवे, जी० / हरीडक पुं० (हरीतक) कोङ्कणदेशप्रसिद्ध कषायबहुले पय्याफले, प्रज्ञा० 3 प्रति० 4 अधि०। द्वी०। १पद। हरिवेरुलियवण्णाभ न० (हरिवैडूर्यवर्णाभ) हरिः षिङ्गो वर्णो, वैडूर्य | हरीयई स्त्री० (हरीतकी) स्वनामख्याते वृक्षे, हरीतकीफले च। विशे०! मणिविशेषस्तस्यवर्णो नीलो वैडूर्यवर्णस्ततो द्वन्द्वस्तद्वादाभाति यत्तद्धरि "ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धेऽम्बरे, तुल्यां शर्करया वैडूर्यवर्णाभम् / स्था० 10 ठा०३ उ०। नीलवैडूर्यवर्णाभे, भ०१६श० शरद्यमलया शुण्ठ्या तुषारागमे। पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण ६उ०। संयोजितां, पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः // 1 // " हरिस धा० (हष) हर्षे, "वृषादीनामरिः" / / 8 / 4 / 235 / / इति सूत्र०१ श्रु०८ अ०। ऋतः 'अरि' इत्यादेशः। हरिसइ। हृष्यति। प्रा० 4 पाद। हरे अव्य० (हरे) क्षेपादिषु, "हरे क्षेपे च" ||812 / 220 // क्षेपे * हृष पुं० हर्षणं हर्षः / आतु०। मनःप्रमोदे, ध०१ अधि० आ० म०। संभाषणे रतिकलहयोश्च हरे इति प्रयोक्तव्यम् / क्षेपे-हरे णिलज्ज / ज्ञा०। मनसः प्रीतिविशेषे, विशारूढिगम्याभरणविशेषे, औ०।सन्तोषे, संभाषणे-हरे पुरिसा। रतिकलहे-हरे बहुवल्लह। प्रा० ढुं० 2 पाद। हरेडगाइ पुं० (हरीतक्यादि) पथ्याप्रभृतौ, पञ्चा० 10 विव०। जीवा० 20 अधिo "हरिसवसविसप्पमाणहियया' हर्षवशेन विसर्पद् हरेणुया स्त्री० (हरेणुका) प्रियङ्गी, उत्त० 3 अ०। विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा। भ० 6 श०३३ उ०। कल्प० / रा०।। हल पुं० (हल) लाङ्गले, औ०। प्रश्न० ! ज्ञा०। हलधरे बलदेवे, नामैकहरिसपुर पुं० (हर्षपुर) अजमेरनिकटवर्तिनि सुभटपालसम्बन्धिनि देशग्रहणात्-नचंतस्सयलीलापातुक्खेवेन कंपिता वसुधा। उच्छल्लन्ति स्वनामख्याते पुरे, कल्प० 2 अधि० 5 क्षण। समुद्दा, सइला निपतन्ति तं हलं नमथ।। १॥"प्रा० 4 पाद। श्रेणिकहरिसप्पओसावण्णपुं० (हर्षप्रद्वेषापन्न) हर्षश्च प्रद्वेषश्च हर्षप्रद्वषंतदापन्नः। राजस्य कुक्षिजे पुत्रे, अणु०। (स च वीरान्तिके प्रव्रज्य षोडश वर्षाणि रागद्वेषसमाकुले, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। श्रामण्यं परिपाल्य जयन्ते कल्पे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति हरिसह पुं० (हरिसह)आलम्बिकायां वीरजिनस्य प्रियपृच्छके, आ०म० अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीये वर्गे षष्ठेऽध्ययने सूचितम्।) 1 अ०। दाक्षिणात्यानामग्निकुमाराणामिन्द्रे, स्था०२ ठा० 3 उ०। हलकुहाल पुं० (हलकुद्दाल) हलस्योपरितने भागे, उपा० 2 अ० / हरिसहकूड न० (हरिसहकूट) जम्बूद्वीपे वक्षस्कारपर्वते स्वनामख्याते "हलकुद्दालसंठिया से हणुया गल्लकडिल्लं च तस्स खड़े" उपा० कूटे, स्था०६ ठा०३ उ०। उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्रस्य माल्यव 22 अ०। द्वर्षधरकूटे, जं० 4 वक्षः। हलद्दा स्त्री० (हरिद्रा) "पथि पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्राहरिसाहु पुं० (हरिसाधु) आचारागसूत्रकृताङ्गयोष्टीकाकारकस्यशीलाङ्ग- | विभीतकेष्वत्" // 811188 // इति आदेरितोऽकारोदेशः / चार्यस्य टीकाकरणसहायके साधौ, आचा०१श्रु० अ०४ उ०। "हरिद्रादौ लः " // 8/11254 / / इति रस्य लः। हलद्दा। प्रा० / हरिसिहपुं० (हरिशिख) उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्र, स्था० 4 ठा०१७०। "छायाहरिद्रयोः"।।३॥३५॥ इति स्त्रियां ङीर्वा / हलद्दी। हरिसेण पुं० (हरिषेण) काम्पिल्यनगरे जाते दशमचक्रवर्तिनि, ती०२४ हलद्दा / पीतवर्णे मूलभेदे, प्रा०३ पाद। कल्प! स०। प्रव०। आव० स्था०। हलधर पुं० (हलधर) बलदेवे, प्रव० 206 द्वार। ज्ञा० / प्रज्ञा० / जं०। हरिसेणे णं राया चाउरंतकवट्टी एगूणणउई वाससयाई रा०। आ० म०। महाराया होत्था। (सू०१६) स०८६ सम०। हलधरकोसेज न० (हलधरकौशेय) बलदेववस्त्रे, औ०। रा०। हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी देसूणाईसत्ताणउइवाससयाई हलधरवसण न० (हलधरवसन) हलधरो बलदेवस्तस्य वसनम् / अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वइए। (सू०६७x) बलदेववस्त्रे तच किल नीलं भवति / सदैव तथास्वभावतो हलधरस्य हरिषेणो दशमचक्रवर्ती देशोनानि सप्तनवति वर्षशतानि गृहमव्युषित- नीलवस्त्रपरिधानात् इति, नीलापमायामिदं वर्ण्यते / रा०।

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