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बाद के महापुरुषों ने गुजराती-हिन्दी आदि प्रांतीय भाषाओं में भी काव्य-ग्रंथ आदि रचे
एक मात्र कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी ने संस्कृत-प्राकृत में साढे तीन करोड श्लोक प्रमाण साहित्य का नवसर्जन किया था ।
वाचकवर्य उमास्वातिजी ने 500 ग्रंथ एवं सूरिपुरंदर श्री हरिभद्रसूरिजी म. ने 1444 धर्मग्रंथों का सर्जन किया था ।
हमारे-अपने दुर्भाग्य से उनमें से अधिकांश ग्रंथ काल-कवलित हो चुके हैं, फिर भी जो भी बचे हैं, वे भी खूब महत्त्वपूर्ण हैं - परंतु दुर्भाग्य है कि आज जैनों में से ही संस्कृत भाषा लुप्त प्राय: हो चुकी है।
मात्र जैन दर्शन ही नहीं, बौद्ध, न्याय, वेदांत, सांख्य आदि दर्शनों का भी बोध प्राप्त करना हो तो उसके लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान बहुत जरूरी है परंतु आज संस्कृत भाषा का ज्ञान धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
महापुरुषों का अमूल्य खजाना हमें विरासत में मिला है, परंतु हम उसके लाभ से सर्वथा वंचित हैं।
भोजन पास में होकर भी भूखे मर जाय या पानी पास में होने पर भी प्यासे मर जायें, ऐसी हमारी हालत है।
महापुरुषों ने कठोर श्रम करके, रात के उजागरे करके हमारे हित के लिए उन ग्रंथों का सर्जन किया, परंतु भाषा ज्ञान के अभाव के कारण वे सब ग्रंथ हमारे लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' ही हैं। आज जैन संघ में संस्कृत भाषा का अभ्यास मात्र साधु संस्था तक सीमित रह गया है और उसमें भी धीरे धीरे कटौती होती जा रही है। श्रावक संघ का तो उस भाषाज्ञान की ओर किसी प्रकार का लक्ष्य ही नहीं हैं।
जरा भूतकाल के इतिहास की ओर नजर करें - कुमारपाल महाराजा ने 70 वर्ष की उम्र में भी संस्कृत व्याकरण सीखा था और संस्कृत भाषा में प्रभु-स्तुतियाँ रची थी।