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ने नहीं की थी जो पहल पंन्यासजी श्री रत्नसेन विजयजी ने की है।
बाते करना आसान है, कार्य करना आसान नही है । परंतु संकल्पित कार्य के प्रति उत्साह उत्स्फूर्त चेतना व अप्रमादभाव पंन्यासजी म. का दूसरा पर्याय है। अत: वे कोई भी कार्य उठाने के बाद पूर्ण कर के ही रहते है।
अपने पास पढ़ने के लिये आये हुए एक हिन्दीभाषी जिज्ञासु की वेदना को अपनी संवेदना का स्वरुप देकर पंन्यासजी म. ने हैम संस्कृत प्रवेशिका को हिन्दी में रुपान्तरित करने का जो प्रयत्न किया है, वह अत्यन्त सराहनीय एवं सहज अनुमोदनीय है।
संस्कृत अध्ययन का अभिलाषी अगर हिन्दीभाषी है तो उसके लिये ये हिन्दी हैम संस्कृत प्रवेशिकाएँ नितान्त आशीर्वाद रुप बन पाएगी।
संस्कृत भाषा ही एक सर्वांगसुंदर भाषा है। या सरस्वती जिस के उपर प्रसन्न हो, वही यह भाषा सीखने में समर्थ बन पाता है ।
साधु-साध्वी एवं मुमुक्षु आत्माएं इस पुस्तक के माध्यम से संस्कृतज्ञ बनकर अपनी अपनी योग्यता के अनुसार शास्त्र ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त कर आत्मविकास की दिशा में आगे बढ़ें यही शुभकामना ।
- विजयमुक्तिप्रभसूरि मनमोहन पार्श्वनाथ जैन मंदिर टिंबर मार्केट, पूना-४२ दि. १५-१०-२०१०