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[ १५ ] लोगों में देखी जाती है जिन्हें नाड़ी दौर्बल्य या वातरोग रहता है। ऐसे रोगी स्वयं तो जानते हैं कि अपनी हालत कैसी खराब है पर डाक्टरोंके कहनेसे वे निश्चिन्त बैठे रहते हैं। कभी-कभी तो उन्हें अपने जीवनसे हताश होना पड़ता है। यदि डाक्टरोंकी की हुई रोग परीक्षा निश्चित न हो तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है क्योंकि डाक्टरोंको अभी यह पता नहीं है कि रोग क्या चीज है।
दूसरी बात यह है कि डाक्टरों के निदानके आधारपर उचित इलाज नहीं हो सकता । क्योंकि ऐलोपेथिक चिकित्सक पहलेसे ही जान लेते हैं कि यदि शरीरके किसी एक अङ्गमें कोई रोग हो तो उससे दूसरे अंगोंसे प्राय: कोई सरोकार नहीं होता। इसलिये केवल उसी अङ्ग के लिये औषध प्रयोग करते हैं।
औषधियों का इस तरहका प्रयोग कैसा व्यर्थ और कभी कभी हानिकारक होता है, यह बात अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध है।
(१) पहला उदाहरण एक महाशयका है जिनकी जीभ बहुत ही सूजी हुई थी। इस बातको हर कोई आसानीसे देख सकता था, इसलिये डाक्टरने भी रोगकी जाँच बहुत ही आसानीके साथ कर ली। इलाज सिर्फ जीमहीका किया गया, क्योंकि डाक्टरने छमझा कि रोगका एकमात्र स्थान बस जीभ ही है । पर उस इलाजसे कोई फायदा न हुआ और बीमारकी हालत दिनपर दिन खराब होती गयी। उसकी जीभ लगातार सूचती गयी यहाँतक कि कुछ दिनोंके बाद वह जीभको विलकुल न हिला सकता
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