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था। ऐसी हालतमें मैंने भाकृति-निदानके सिद्धान्तोंके अनुसार उसकी परीक्षा की। उसके लिये मैंने जो इलाज तजवीज किया उसमें पुरी सफलता हुई।
(२) जर्मनीकी राजधानी बर्लिनमें एक छोटा बालक महीनोंसे बीमार था। उसका इलाज एक मशहूर डाक्टर कर रहा था। बहुत दिनोंतक वह यही न स्थिर कर सका कि उस बालकको वास्तविक बीमारी क्या है । अन्तमें अगुवीक्षणसे उसने यह निश्चय किया कि उस बालककी बीमारी एक किस्मके कीटाणुओंसे पैदा हुई है। ऐसा कहा जाता है कि ये कीटाणु केवल तिनकों में रहते हैं और वहीं अण्डे बच्चे देते हैं। वह लड़का बेचारा कभी भी तिनकों के सम्पर्कमें नहीं आया था। पर डाक्टरने कहने के लिये कुछ न कुछ निदान निकाल ही लिया। उसने कहा कि जबतक बालकके शरीरके अन्दर यह सब कीटाणु जड़से उच्छिन्न न किये जायेंगे तबतक वह चङ्गा नहीं हो सकता। इसका परिणाम बहुत ही बुरा हुआ। बेचारे रोगीकी हालत दिनपर दिन खराब होती गयी और कीटाणुओंकी संख्या भी दिनपर दिन बढ़ती गयी। ऐसी हालतमें उस बालकके माता पिताका ध्यान मेरी चिकित्सा-प्रणाली की ओर गया। मैंने उस बालककी परीक्षा की और बिना इस बातकी परवाह किये हुए कि उसके बदनके अन्दर कीटाणुओंका निवास है मैंने अपने ढंगपर उसकी चिकित्सा शुरू की।
डाक्टरसे यह नहीं कहा गया कि मैं उसकी चिकित्सा कर
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