Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी विरचित. श्री प्रतिमा शतक (मूल संस्कृतमां ) तेनुं - अने. श्री जावप्रसूरि विरचित लघुवृत्तिनुं भाषान्तर करनार. वकील मुलचंद नथुनाई. R नावनगर. पावी प्रसिद्ध करनार. शा० भीमशी माणेक. मुंबई. श्री निर्णयसागर प्रेसमां बाप्यं. संवत् १८५० कार्तिकशुदित्रयोदशि Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. न्याय विशारद अने तार्किक शिरोमणी श्रीमद् यशोविजय उपाध्यायजीए रचेला महान एकसो ग्रंथ मध्येनो आ प्रतिमा शतक नामनो ग्रंथ . श्राग्रंथमा उपाध्यायजी महाराजे ढुंपाक कुमतियोने हितशिक्षा आपवा सारु जैनसिद्धांतोने अनुसारे कटु औषधरुप, परिणामे लानदायक श्रनारा जे काव्योनी रचना करी उपकार कर्यो बे, ते उपकार अपरिमित ने. स्थूल बुहिवाला प्राणीउने श्राग्रंथ वाचतां प्रथम दर्शने एमज लागशे के, उपाध्यायजीए आग्रंथमा लुंपाक मतवालाने अर्थात् प्रतिमाना षीने सख्त वचनो कही, मात्र तेमनी निंदा करेली बे, परंतु तेज ज्यारे शास्त्र अध्ययन करतां करतां सूक्ष्मदृष्टि प्राप्त करी आ शतकना दरेक श्लोकना रहस्य याने मर्मने यथार्थ रीते समजशे, त्यारेज तेनालामां आवशे के, उपाध्यायजीए निःसीम परिश्रम लश् करेलो आ महान ग्रंथ तेउनी निंदा माटे करवामां आवेलो नथी, परंतु वक्र अने जड थ गयेला बालकने हितशिदा आपवासारु जेम अंतरंगमां अतिकरुणा धारण करी रहेलो पिता बहारथी कर्णने अति कठगेर लागे तेवा अने परिणामे हितकारक शब्दो कहे, तेनी जेम ते ढुंपाकमतियोने अनंताकाल सुधी आसंसारमा परिन्रमण करतां अटकाववासारु अने शुद्ध मार्गनुं ते अवलंबन करे एवी उपकारिक बुछिथी, सख्त वाणीरुपे परिणामे हितकारक श्राग्रंथ रचवामां श्रावेलो. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. आग्रंथना तमाम काव्यमां हेतु-युक्ति अने दृष्टांतो एवा न्याय पुरःसर आपवामां आव्याजे के वांचनारने ग्रंथकारनी तार्किक शक्तिने माटे अत्यंत चमत्कार लागशे. सिद्धांतमा जे जे स्थले प्रतिमा अने जिनालय संबंधी अधिकार जे जे स्वरूपे ने तेनो यथार्थ नाव आग्रंथमां एवी रीते प्रदर्शित करेलो के तटस्थ वृत्तिथी अवलोकन करनारा न्यायबुद्धिवालाने प्रतिमा देषीनी मूढता साक्षात् जणाश् श्रावशे अने प्रतिमाने लोपनारा मात्र स्वकपोल कल्पित रचनाथीज प्रतिमानो निषेध करे , परंतु तेउना निषेधमा नथी सिद्धांतनो आधार के नथी न्याय युक्त हेतु, युक्ति के प्रमाणवाली समज शक्ति. __ग्रंथमां बहु सूक्ष्मदृष्टिथी प्रवेश करतां वांचनारने सेहेज लागशे के उपाध्यायजीना समयमां ज्यारे लुंपाकमतियो जेने वर्तमानमा ढुंढीश्रा मति कहेमामां आवे , तेना उपदेशको, प्रतिमा अने जिनालय करवामां हिंसा थाय , तेमज प्रतिमां पूजनमां पण हिंसा श्राय ने, एवा कुतर्कवाला उपदेशनी जालमां मंदबुद्धिवाला प्राणीने फसावता हशे अने तेउने जिनमदिर अने जिनप्रतिमाना वेषी बनावी सत्य मार्गथी व्रष्ट करता हशे, त्यारे अति करुणार्ड अंतःकरणश्री नावदया युक्त वृत्तिश्री, तेवा प्राणीउने सत्य मार्गमा लाववाने वास्ते ते महा उपकारी महास्माए श्राग्रंथनी रचना करी हशे. . • आग्रंथ उपर उपाध्यायजीए पोतेज ग्रंथना गूढ आशयते प्रदर्शित करनारी अने नैगमादि नयोना यथार्थ स्वरूपने समजनारा विधान वाचकवर्गने उपकारी तथा चमत्कार उत्पन्न क Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. रनारी मोटी टीका रचेली ने ते टीकार्नु नाषांतर आग्रंथमां करवामां आवेलुं नथी, परंतु श्रीनावप्रजसूरिए पोताना शिष्य ज्योतीरत्नना हितनेवास्ते आ मूल ग्रंथ उपर जे लघु वृति करेली , तेनुंज नाषांतर आग्रंथमा करवामां आवेढुंचे. __ उपर मुजब प्रतिमाशतक नामनो ग्रंथ करवानो हेतु प्रदर्शित कर्याबाद प्रतिमा पूजननो हेतु तथा तेथी थता लालना विषय उपर विचार बताववा रजा लज बुं. प्रतिमावादीऊना विचारोमां पण अनेक तरेहनानेद , जेनेदोने लश्ने प्रतिमाना निषेध करनारा अनेक युक्ति बतावी प्रतिमानो निषेध करतां थकां पोताना मतमां चुस्त रही प्रतिमानो अंगीकार करता नथी, जेमके आर्यावर्त्तमां आर्यसमाजवाला इत्यादि अने पाश्चिमात्य देशमां प्रोटेस्टन्ट मतवाला इत्यादि. अन्यमतवाला प्रतिमां संबंधी विधि के निषेध शा शा कारणोथी करे ने ते बताववानुं आस्थले कांपण प्रयोजन नथी. आस्थले तो जैनदर्शनमां प्रदर्शित कर्या मुजब जिनेश्वर लगवंतनी प्रतिमा प्रतिपादन करवानो शुं हेतु अने तेथी शुं शुं लाल थाय ने तेज बताववानी जरूर बे. तेमां प्रथम जिनेश्वर जगवंतनी प्रतिमा प्रतिपादन करवाना जे जे हेतु बे, तेमा मुख्य हेतु ए बे के आजगतमां तीर्थकर लगवंते केवलझान प्राप्त को पीनव्य प्राणीउने मोक्ष प्राप्त कराववासारु जे उपदेशामृतनो वरसाद वरसावी निःसीम उपकार को जे, अने जे उपकारवाला उपदेशनी श्रेणी अत्यारसुधी जैनसिद्धांत रुपे वर्तमानना नव्य प्राणी उपर पण उपकार करती विद्य Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रस्तावना. मान स्वरुप प्रवर्ते बे, ते अपरिमित उपकार उपर ध्यान आपतां जेजे व्य आत्मा ते उपकारनो लान लहे बे. तेते नव्य श्रात्मार्जनी फरज बे के तेमणे ते तीर्थकर भगवंतनी नेतेमनेावे तेन प्रतिमानी नक्ति, नमन, वंदन ने पूजन क रवाज जोइए. संसारिक उपकार करनारा राजा, मंत्री के शेठनी अने तेमनेावे तेमनी बबी या प्रतिमानी जक्ति, नमन, पूजन, तेते उपकारने प्राप्त थयेला पोतानुं अवश्य कर्त्तव्य समजी करे बे, तो अनंतकाल सुधी संसारमां परिभ्रमण करावनारा दोषोना स्वरूपने यथार्थ रीते समजावी तेनाथी केवी रीते दूर थइ शकाय मृत्यु पुनः केम प्राप्त न थाय ने श्रा माने केवलज्ञान प्रमुख अनंत चतुष्टि केवी रीते प्राप्त थाय एवा उपदेशरूप उपकार प्राप्त करनारा जव्य आत्मार्जनी फरज ते ते उपकार करनार तीर्थकर भगवंताने तेमने अजावे तेमनी प्रतिमानी नक्ति, नमन, वंदन ने पूजन अवश्य कर्त्तव्यरुपे करवाज जोइए तेमां शुं नवाइ ! जे कर्त्तव्य समजता नथी छाने समजतां बतां प्रतिमा पूजन करता नथी अने तेथीपण उलट विरूद्ध या प्रतिमा पूजननो द्वेष करे बे तेर्ज खरेखरा कृतघ्नी वे एम न्यायपूर्वक साबित थाय बे. जन्म, जरा उपर प्रतिमा पूजन संबंधी मुख्य हेतु बताव्याबाद प्रतिमा पूजन, नमनादिथी शुं शुं लान थाय बे, ते विचार उपर जइए. जगतमां पांचे इप्रियोना विषयरूप थइ शके एवा जेजे पदार्थो बे, ते तमामना संबंधमां ज्यारे या आत्मा आवे बे, त्यारे अमुक स्थितिए पहोंचतां ते दरेक पदार्थ आत्माने र Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. सात्मक थाने ते रसनी सख्यां साक्षर वर्गे नव, दशनी मानेली बे. दशनी संख्या ध्यानमां लइ बोलीए तो दशमध्येना नव रस पौगलिक ने मात्र एकज रस श्रात्मिक बे, अर्थात् आत्मस्वरूपने पुष्टि आपनार बे. नवरस पौगलिक बे तेना नाम. १ शृंगार रस, २ हास्य रस. ३ करुणारस, ४ वीररस, ए रौद्र रस, ६ जयानक रस, 9 बीजत्स्य रस अद्भूतरस ए वात्सल्य रस. नव रसना पदार्थो आत्माने पौलिक स्वरूपमांजलीनता करावे एम अनुभवथी सिद्ध थाय बे, तेथी ते तमाम रसो पौलिक बे. दशमो रस जे शांत रस बेने जे आत्माने श्रात्मस्वरूपमां लीनता करावे बे, तेने श्रात्म स्वरूपना अभिलाषी याने मुमुक् आत्मा रसाधिराज कहे छे, कारण के शांतरसमां आत्मा प्रवर्त्ते त्यारे मन कांटे रहे अर्थात् आत्मस्वरूपना विचारथी प्रच्युत यतुं नथी; अने उपरना नवे रसमांथी हरको रसमां आत्मा प्रवर्त्ततो होय, त्यारे मन आत्मस्वरूपथी भ्रष्ट थइ जाय बे. उपर प्रमाणे आत्मस्वरूपना अभिलाषी आत्माने मात्र शांत रसज उपादेय होवाथी हवे विचारवानुं मात्र एज बे के एवो जगतमां कयो पदार्थ बे के जे आत्माने शांतरसनी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त करावे? ते बाबतमां श्री भक्तामर स्तोत्रना कर्त्ता श्री मानतुंग सूरिनुं वचन प्रमाणरूप बे. श्रीभक्तामर स्तोत्रमां ए - पूज्यपाद लखे बे के यैः शांतराग रुचिभिः परमाणु निस्त्वं, निर्मापित त्रिभुवनैक ललामभूत । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. तावंत एव खलुतेप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रुप मस्ति ॥१॥ त्रण नुवनने विषे अन्तिीय सौंदर्यतावाला हे प्रत्नु ! जे शांत रसना लावनी गयावाला परमाणुए करीने तमाएं शरीर निमर्माण थयेटुंबे, ते परमाणु पण आ जगतने विषे तमारा पुरतांज हता, अर्थात् ते राग द्वेषनी शांततारुप परमाणुढं जगतमां तेटलाज बे. अने तेज कारणने लश्ने आजगतने विषे तमारा सरखं बीजुं को रूप नथी. . __सारांश ए ने के आत्माने परमशांतरस प्राप्त करवामां श्री तीर्थकर जगवंतनी प्रतिमा अति प्रबल निमित्त कारण ने, जेथी आत्मा शांतरसमय प्रतिमानुं ध्येय स्वरूपे अवलंबन करी, ध्यानना प्रकर्ष स्वरूपे पहोंचतां, पूर्ण ध्याता थतां, पोते परम शांतता प्राप्त करे ; अने ज्यारे परम शांतता प्राप्त थाय ने त्यारेज दमा, मार्दव, आर्जव अने संतोषादि आत्माना सत्यगुणो श्रात्माने आत्मानुं निरावरण याने शुद्धस्वरूप प्राप्त कराववामां समर्थ थाय बे.. ___ हवे वांचनारने सेहेज समजाशेके ज्यारे आत्मानेपरम शांतता प्राप्त श्रतांज मुक्ति याने आत्मस्वरूप, अव्याबाध सुख प्राप्त श्राय , तो जेटले जेटले अंशे, तीर्थकर जगवंतनी प्रतिमान ध्यान करतां करतां शांतता प्राप्त थती जती हशे, तेटले तेटले अंशे सत्य सुखनो लाल यतो जाय, तेमां शुं असत्य ? अर्थात् तेमां कांपण असत्य नथी. हवे वर्तमानमां जिनमंदिरमां जिनप्रतिमाना नक्ति पूजना Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. .दिना संबंधमा जे पचतिथी प्रवर्त्तवामां आवे ने ते पञ्चति संबं धी विचार करीए. ___ श्री आनंदघनजी महाराज, श्री संजवनाथ नगवंतना स्तवनमा लखे जे के, परमात्मानी सेवनाना संबंधमां अन्नय, अष अने अखेद आत्रण गुणोनीतो प्रथम दरऊो आवश्यकता ने. समुदायिक जिनमंदिरमा आत्रणे गुणो सहित भक्तिनी प्रवृत्तिमां प्रवर्तनारो प्राणी, शांतिनी केटले दरो अपेक्षा राखेतोज श्रात्रणे गुणोना रक्षण सहित जिनेश्वर लगवंतनी यथार्थ रीते सेवना करी शके, ते बहुज ध्यानपूर्वक विचारवानुं . परिणाममा चंचलतां आवे ते लय, सेवामां अरुचि थाय ते घेष अने नक्तिमा प्रवृत्ति करतां श्राक लागे ते खेदः श्राप्रमाणे आत्रण शब्दना पारिजाषिक अर्थ वे. हवे विचारवानुं मात्र ए ले के सार्वजनिक जिनमंदिरमां सर्व नक्ति करनाराउने संपूर्ण स्वतंत्रताश्री नक्ति पूजनादि करवानो हक . बतांपि ते हकनो दरेकने एवी रीते उपलोग करवानो नश्री के, जेश्री बीजाने पोतानो हक भोगवतां विघ्नो आवे. आपणे लक्ति पूजन करतां बीजाने नक्ति पूजनमां विघ्न आवे तेपण एक जातनो मोटो अविवेक ने. सामान्य दृष्टांत ए के श्रीशत्रुजय तीर्थ उपर श्रीश्रादिनाथ परमात्मानी जल पूजा करतां समुदाय ज्यारे जल पूजा करनारो, होय , त्यारे दरेकने अनुलव थयो हशे के, मात्र अविवेकने लीधे केवी आशातना प्रसंगे प्रसंगे थइ जाय , तेश्री आवे प्रसंगे चित ने के, जेम रेलवे स्टेशन उपर टीकेट आपनारनी उफीस पासे पोलीसना नयने लीधे एक बीजाने विघ्न नहीं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. करतां अनुक्रमे टीकट खेवाय ने, तेवी रीते आशातनारूपी पोलीसनो जय अंतःकरणमां धारण करी एक बीजाने विघ्न न थाय तेवी रीते पूजनादि करवामां आवेतोज अविवेक दूर थतां. अजय, अष अने अखेद ए गुणोनुं उत्तम प्रकारे रक्षण यश शके, अर्थात् ए गुणो नक्ति पूजनादिमां बन्या बन्या रहे. श्री जबाइ सूत्रमा कह्यु बे के श्री जिनेश्वर भगवंतनी प्रतिमा जिनेश्वर नगवंत समान , आप्रमाणे सिद्धांतमां आपणे निरंतर श्रवण करीए अने तेवी ज आपणने श्रद्धा ने, एवी अंतःकरणमां धारणापण राखीए बतां वर्त्तनना संबंधमां, जिनेश्वर लगवंत सादात् आपण। सन्मुख बिराजमान होय तेवे प्रसंगे नक्ति पूजन प्रमुखना संबंधमां वर्त्तन राखवामां आवे तेने केटले अंशे जिनेश्वर नगवंतनी प्रतिमानी सन्मुख आपणे नक्ति पूजनादिना संबंधमां वर्त्तन राखीए जीए, ते बाबत दरेक सुझ मनुष्ये शांतिथी विचार करवो जोइए अने विचार करतां एम लागे के, आपण वर्तमान कालनी नक्ति पूजनादि संबंधी पचति श्रीजिनेश्वर जंगवतनी प्रतिमानी सन्मुख, शास्त्रना कथनानुसार नथी तेने सुधारी उत्तम प्रकारनी करवानो प्रयत्न करवो जोइए. __नाषान्तर करवामां कग्निस्थले शास्त्री नर्मदाशंकर दामोदरे मदद आपी ने तेनो उपकारमानुं बुं अने नाषान्तर करवामां मतिदोषथी जूल थइ होय तो माफी मागुं वं. ली नाषान्तर कर्ता Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. विषय. पानु. १ श्री जिनेश्वर जगवंतनी प्रतिमानुं महिमा गजत वर्णन. १ २ श्री जावप्रसूरिए प्रतिमा शतक उपर संक्षिप्तवृत्ति करवानोहेतु. ३ प्रतिमा संबंधी विशेषणोना श्रर्थनं स्पष्टी करण ४ नामादि त्रणे निक्षेप जावरुप जगवंतना तडूपपणाना कारण तेनुं विस्तारथी वर्णन. ५ नामादित्रणे निक्षेप संबंधी जावनिक्षेप सहित पूर्वपक्ष उत्तरपनुं हेतु युक्ति सहित वर्णन. ६ चोवीस करतां जीवने शुं लान थाय तेनुं वर्णन. 9 अन्य आवश्यक कार्योपयोग रहित कीर्त्तन संबंधी विचार २ ଥ ० प्रव्यनिक्षेप संबंधी श्राराध्यतानी प्रतीति श्रने चारे निक्षेपनी श्राराध्यतानी सिद्धिनुं वर्णन. ब्राह्मी लिपिनी जेम ईतनी प्रतिमा वंदन करवा योग्यवे तेनुंशास्त्राधार सहित वर्णन. १.१ १० नाम, स्थापना ने नाव निक्षेपना अरसपरसना संबंधनं विस्तार सहित वर्णन. ११ जगवंतनी प्रतिमाना विराधकनी उपहास्यता अने आराधकनी कृतार्थतानुं वर्णन १२ १४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. १५ श्री लगवतीसूत्रमा चारणमुनियोए करेली प्रतिमा संबंधी वंदनानुं विस्तार युक्त वर्णन. १५ १३ चारणमुनियोए करेली वंदना प्रमाणरुप नथी एवी कुमतियोनी वाणीने सिद्धांतानुसार निरुत्तर करवा हेतु युक्तिसहित वर्णन. १४ चैत्य शब्दनो अर्थ ज्ञान थाय ने एवी कुमतिनी वा पीनी उपहास्यताबतावी व्याकरणना नियमानुसारे तेने निरुत्तर करवारुप वर्णन. १५ देवताए अर्हतनी प्रतिमा वंदवा योग्य तथा शरण करवा योग्य ने तेनुं स्तुति गीत वर्णन. १६ जगवंतनी प्रतिमा अने दाढाउनी देवताउए करेली अनाशातनारुप विनयनो विचार । २३ १७ सूर्याल देवताए करेली नगवंतनी प्रतिमानी नक्तिना संबंधमां श्रीरायपसेणी उपांगना वचननो शास्त्राधार. २४ १७ ते आधारने कुमतियोए देवतानी स्थिति कहेवाथी, तेनुं निराकरण करवा सूर्याल देवतानी पूर्वापर हिता- . र्थता बतावी शास्त्राधार युक्त विस्तार सहित वर्णन. २६ १ए जिनेश्वर नगवंतनी प्रतिमानी पूजा देवताउने स्थिति मात्र जे. एवं कहेनारा कुमतियोनी हेतु युक्त उपहास्यतानुं वर्णन.ए २० प्रतिमा पूजनमां शक्रस्तव आदि चार जदोनुं विस्तारथी वर्णन करी, कुमतियोनी बतावेली अज्ञानतानुं वर्णन. ३१ २१ जगवंत श्रीमहावीर स्वामिए सूर्याल देवने जव्य आदि Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. विशेषणवालो कहेलो , तेथी देवतानी नक्ति धर्म ने .. परंतु स्थिति नथी. ते संबंधी विस्तारथी वर्णन. ३३ २५ कुमतियोए देवताओने अधार्मिक कहेला ने, ते संबंधी श्री स्थानांग सूत्रनो अभिप्राय. ३४ २३ सम्यग्दृष्टि देवताउँमां धर्म स्थापक गुणो ने ते संबंधी श्री जगवती सूत्रनो आधार. . ३५ २४ सूर्याजदेवनुं नक्ति कृत्य अनुमोदवायोग्य नथी तेवो कु____ मतिनो विचार अने ते संबंधे तेनी उपहास्यतानुं वर्णन. ३६ २५ सूर्याल देवना नृत्य संबंधमां वीर प्रनुना मौनगें समाधान ३५ २६ सावध अने निरवद्य व्यवहारमा प्रनुनी वाणीना क्रमनी विचित्रतानुं वर्णन. ३० २७ दानअने नक्ति कर्ममांप्रनुनी मौनता उपदेशना संबंधमां केवा आशयवाली ते बाबतमां कुमतियोनी समजण मिथ्या एम दावी ते संबंधे करेलु यथास्थित समाधान. ४० २७ जरतादिकनी वांगना निषेधेली, तेम जिनालय करा' ववानो निषेध कर्योनथी ते बाबतमां दृष्टांत युक्त समाधान.४५ २ए व्यस्तवमा मुनिने अनुमोदना करवानो अधिकार ने, ___एम सिद्धांतानुसार स्थापन. ४ ३० प्रन्यस्तवमां लक्ति अने हिंसानू मिश्रपणुं ने एम कुमतिनी शंका अने तेनुं विपत्तायुक्त समाधान. ४५ . ३१ व्यस्तव उपदेश करवायोग्य नहोवाथी अनुमोदवा योग्य नयी एवी कुमतिनी वाणी परत्वे हेतुयुक्त समाधान. ४६ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ३२ दयाना परिणामवाला ने आज्ञा प्रमाणे वर्त्तनारा साधु ने हिंसामा अनुमोदना तथा अनुमति नथी ते संबंधे विस्तारथी वर्णन. ३३ मुनिने पूजा विगेरे केम करवा योग्य नथी ते बाबतनी शंकानं हेतु युक्ति सहित समाधान. १२ ४७ ४८ ३४ जावस्तव ने व्यस्तवनो संबंध ने जावस्तव साथे जव्य पूजानी अपेक्षा मुनिनेनथी ते बाबत समाधान. ५० ३५ मुनि ने श्रावकनी सामर्थ्यतानी तरतमता अने श्रावकने प्रव्यपूजानी आवश्यकतानो ऊपदेश. ३६ प्रव्यस्तवमां जेजे गुणोनो समावेश बे तेनुं वर्णन. ३७ नाव आपत्तिनो नाशकरवानी इछा राखनारो श्रावक जगवंतंनी पूजामां दूषित यतोनथी, ते बाबत युक्ति सहित समाधान. एउ ३० मुनिने नदी उतरवामां निर्दोष पणुं बे एम न्याय युक्त समाधान एए ५२ m ५३ ३५ जिन शासननी उन्नति करनार श्रावकने प्रव्य स्तवमां हिंसानो का अंश लागतो नथी ते बाबत हेतु दृष्टांत युक्त समाधान. ६० ४० श्री रीषदेव भगवाने करेली व्यवहारिक प्रवृत्ति अने ते संबंधमां तेमनी निर्दोषतानुं वर्णन. ६१ ४१ श्री महानिशीथ सूत्रमां गणधरोए श्रावकोने पुष्पादिथी जगवंतनी पूजा करवा संबंधे करेला उपदेशनो अधिकार. ६२ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका५२ श्री महानिशीथ सूत्रना संबंधमां कुमतियोनुं दूषण अने ते बाबतमां करेलु समाधान. ६४ ४३ जिनालय करवाना संबंधमां श्रीकुवलयप्रन आचार्यना उपदेशनो अधिकार अने ते संबंधे कुमतियोए करेली आशंकानुं समाधान. ६५ ४४ व्रतधारी मुनियोने जिनबिंबने नमवानो आदेश नथी एवी कुमतियोनी वाणीनुं समाधान. ४५ प्रतिमां संबंधी वैयावच्च तेनी नक्तिधारा थायजे, एवी श्री प्रश्नव्याकरण सूत्रनी शादी. . ४६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्रमा चैत्यपदनो अर्थ ज्ञान एम कथन करनारा कुमतियोनी वाणीनुं खंडन. ४७ वैयावच्च संबंधी चोथा गुणस्थानमां करेला अर्थनुं वर्णन.७५ पूष्प, जल अने अग्निना जीवोनो वध करी पुजा करनारा प्राणीयोने धर्म केम थाय ? एवी कुमतियोनी वाणीने परास्त करता थकां जे वधने कुशास्त्रमा धर्म कथन करेलो ते हिंसाने, अने सक्रियानी स्थिति हिंसा नथी, एम करेलुं समाधान. ७५ ४ए दोषवाली पूजा करवाना करतां सामायिक विगेरे निर्दोष क्रिया करवी एवी कुमतिनी वाणीनु, युक्तिवालुं समाधान. ७७ ५० चैत्यपूजामां आरंजनी शंका करवाश्री जे दोष लागे तेनुं वर्णन. ५१ सावद्य कर्मनो संदेप करनार अने पापलीरु श्रावक अव्य पूजानो अधिकारी नश्री एम दृष्टांत युक्त उपदेश. १ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका५५ शुग्न लाववाला क्रिया करनारा श्रावकने अव्य स्तवमां . हिंसा लागती नथी एम युक्ति सहित समाधान.. ५३ जिन पूजामां श्रती हिंसा अनर्थ दंडरूप थाय के अर्थ दमरूप थाय ते संबंधमां करेलुं विस्तारवालुं समाधान. ५४ आनंदादि श्रावकोना दृष्टांतोथी कुमतिनी मूढता सूचवनारू व्याख्यान. ५५ लुपकोनामतनो उपसंहार करतां थकां जिनराजनी पूजा करनाराऊनी लव्यतानु वर्णन. ५६ तीर्थकर लगवतनी प्रतिमानुं पुजन केवु लालदायक ने तेनुं वर्णन. ५७ प्रतिमानी विधिपूर्वक प्रतिष्टा संबंधी धर्मसागरनो मत ____ अने ते बाबतमां करवामां आवेलुं समाधान. एए ५७ अन्य गबना चैत्यने नमस्कार करवो योग्य नथी एवा मतनी बाबतमां करवामां आवेलुं समाधान. १०३ एए प्रतिष्टाथी प्रतिमाने विषे परमात्मतत्वनी समापत्ति प्राप्त ___थतां तेनी लक्तिथी आत्माने श्रता लाननुं वर्णन. १०५ ६० पार्श्वस्थ धर्मसागरना मतनो उपसंहार. ६१ उपस्थित नक्तिथी प्रेरायेला अंत:करणथी ग्रंथकारे जगवंतनी प्रतिमानी करेली स्तुति. ६२ अव्य स्तव मिश्र अर्थात् धर्म अधर्म रूप ने एवा पाशचंग नामतनुं चारपदे विकटप वडे विनागकरी,करेलुं खंडन. ११२ ६३ अधर्म पद, धर्मपद अने धर्माधर्म पद-आत्रणपक्षमा गृहस्थने मिश्रपद कहेलो, ते बाबतमां सूत्रकृतांग १०॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अनुक्रमणिका सिद्धांतनो धाराने ते आधारे पूजा ने पोषधनी बतावेली तुल्यता. ६४ श्रमणोपासकने व्यस्तवनो अधिकार नथी एम कनारा पाशचंद्र मतने परास्त करतां थकां, ग्रंथकारे करेला काव्यानुं वर्णन. १२४ १२७ ६५ जिनपूजन करवानुं कर्म पुण्य रूप बे, परंतु चारित्रनी जेम धर्म रूप नथी एवं कथन करनारना मतनुं खंडन. १२७ ६६ लोकोत्तर ने लौकिक पूजाना स्वरूपनुं वर्णन अने तेथ थता लाजनुं वर्णन. १२ ६७ नैगमादि नय छाने हेतु युक्ति युक्त ग्रंथ रचतां गुरुनी पानुं स्वरूप बतावी पेलो उपदेश. ६० श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथनी स्तुति गर्जित दूषण पनारानी करेली परास्तता. युक्त उपमानुं वर्णन. ७१ ग्रंथकारे करेली गुरुस्तुति. १३२ १३३ ६ए श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथनी हर्षोल्लास युक्त जक्तिनुं स्वरूप. १३५ १० श्री जिनराजनी प्रतिमानुं सत्य स्वरूपवाला विशेषणो १३७ १३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री जिनाय नमः ॥ ॥ श्री प्रतिमा शतकम् ॥ ॥ गुर्जर - नाषांतर सहितम् ॥ ॥ शाईलविक्रीडित वृत्तम् ॥ *द्र श्रेणिनता प्रतापजवनं नव्यां गिनेत्रामृतं, सिद्धांतोपनिषद्विचारचतुरैः प्रीत्या प्रमाणीकृता । मूर्त्तिः स्फूर्तिमती सदा विजयते जैनेश्वरी विस्फुरन, मोहोन्मादघनप्रमादमदिरामत्तैरनालोकिता ॥ १ ॥ अर्थ - इंद्रोनी श्रेणिए नमस्कार करेली, प्रतापना गृहरूप, जव्य प्राणिना नेत्रने अमृतरूप, सिद्धांतना रहस्यना विचार करवामां चतुर पुरुषोए प्रीतिथी प्रमाण करेली ने स्फुरणाय - मान एवी श्री जिनेश्वर जगवंतनी प्रतिमा सदा विजय पामे बे, के जे प्रतिमा (मूर्ति) विविध परिणामवाला मोहना उन्माद गाढप्रमादरूपी मदिराथी उन्मत्त एवा कुमति पुरुषोना जोवामां आवती नथी. १ टीकाकारकृत द्वाररूप काव्यार्थ. लक्ष्मी ने पुण्यना गृहरूप अहिलपुर पाटणमां रत्ननी खावडे यथार्थपणाने धारण करनारा ढंढेरक नामना पाडामां Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) आवेला श्रीवीरप्रभु, कलिकुंड पार्श्व भगवान ने प्रौढिने प्राप्त थयेला श्रीश्यामला पार्श्वनाथ आत्रणे जिनेश्वरो तमारूं सदा मंगल करो. १ to पुरुष स्नात्र महोत्सवो ने पुष्पादिथी निरंतर जेनी पूजा करे बे, सत्पुरुषो ने मुनिजनो हृदयकमलमां जावथी जेने स्थापन करेने श्री पंचासर पार्श्वनाथ नामथी जे श्रेष्ठ प्रसिद्धिने पामेला बे, ते श्री पार्श्वनाथ प्रभु चिंतामणिथी प अधिक तमारां वांबतो पूर्ण करो. २ महिमाथी ज्ञानरूप प्रजा आपनारा सारस्वत ( सरस्वती संबंधी) तेजनुं ध्यान करी, पुनमीच्या गवना अधीश्वर श्रीभावप्रभसूरिए पोताना शिष्य ज्योतीरल माटे प्रतिमा शतक वृत्ति उपर सूत्रना अर्थने सूचवनारी या टीका तेथी कांइ जुदी करेली बे. ३-४ कुष्ट लुंपाक (जैनानास - लोंका ) पुरुषोए प्रतिमा पूजनविघिनो स्फुट रीते निषेध करेल बे. तेना शनो आश्रय लइ केटलाएक गनांतरी ए तेमनी जेम प्रतिमाने तजी दीधी बे. पाश दोषना खाएरूप केटलाएके प्रतिमाने मिश्रपक्षमां मेली पूजवा योग्य कहेली ने उत्तम पंडितोएज पुण्यफल पनारी ते निर्जरा रुप प्रतिमा पूजेली बे. ए विशेषार्थ - सो ग्रंथ रचनारा महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी ए आ प्रतिमा शतक ग्रंथ रचेलो बे. तेमां प्रतिमा सबंधी शंकानुं निराकरण करवानी इवाथी प्रतिमानी स्तुतिरूप प्रथम श्लोक इष्ट बीजना ध्यानपूर्वक कहे बे. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केत जे नमतमाने उहाकवी ने (३) श्री जैनेश्वरी प्रतिमा सदा जयवंत वर्ते जे. जैनेश्वरी अर्थात् जिनेश्वर संबंधी प्रतिमा ( मूर्ति ) जे सर्वदा प्रवाहरूपे स्पष्ट के, ते निरंतर विजय पामे , अर्थात् सर्वोत्कृष्टपणे वर्ते बे. ( अहिं जि धातुनो अर्थ उत्कर्ष थाय बे, ते विषे आख्यातचंत्रिका नामना ग्रंथमा लखेडे के जि धातु पराजव अने उत्कर्ष अर्थमां प्रवर्ते ने अने ते अकर्मक . अहिं विजयते तेमा वि उपसर्ग बे, ते सर्वथी अधिकपणुं सूचवेने ) ते प्रतिमा केवी ? इंञोनी श्रेणिवडे जे नमस्कार पामेली . श्रा विशेषणथी एवो व्यंगार्थ निकले के के ते प्रतिमाने उलवनारा कुमतिउंने इंञोना निश्चल श्राप लागे जे. वली ते प्रतिमा केवी जे? प्रताप अर्थात् प्रव्य नंडार अने दंडना तेजनुं जे गृह . आ तेज स्थापनाजी संबंधी जाणवु. अने स्थापनाजीनो उपचार करी तेनी व्याख्या करवी. तेथी एवो व्यंगार्थ जणाय के ते प्रतिमाने उलवनारा कुमति श्रीलगवंतना प्रतापानिथीज जस्म थशे. पुनः ते प्रतिमा केवी जे? जव्य अर्थात् आसन्न सिधिवाला प्राणिना नेत्रने अमृतसमान , कारण के तेना दर्शनथी नेत्रना सर्व रोग दूर थाय ने अने परम आनंद प्राप्त श्राय जे. आ विशेषणथी एवो व्यंगार्थ निकले के ते प्रतिमाना दर्शनश्री जेना नेत्रने आनंद श्रतो नश्री, ते अजव्य के दूरजव्य जाणवा. वली ते प्रतिमा केवी जे? सिद्धांतना रहस्यनो विचार करवामां चतुर एवा विधानोए जेने प्रमाण करेली . बलात्कार के दबाणथी नही, परंतु प्रीतिथी जेने प्रमाण करेली. तेथी एवो व्यंगार्थ जणाय ने के सिद्धांतमा प्रतिमानुं प्रमाण अने साबिती रहेली Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) बे. तेथी प्रतिमाने प्रमाण पूर्वक प्रीतिथी माननार पुरुषो श्रेष्ठ ने दरवा योग्य बे, अने ते प्रतिमाने प्रमाण करनारा पुरुषो सिद्धांतना जाए बे. वली ते प्रतिमा केवी बे ? स्फुर्तिमती अर्थात् वधती कान्तिवाली वा अष्ट प्रातिहार्य युक्त बे. श्रविशेषणथी एम सूचव्युं के ते प्रतिमाना श्राराधक पुरुषोनेज बुझिनी स्फुर्ति थाय बे, अन्यने थती नथी. पुनः ते प्रतिमा केवी बे ? जे दरथी जोवामां आवती नथी. अहिं अन्य अ र्थनो अध्याहार रहे बे. केवा पुरुषोथी जोवामां आवती नथी ? विविध परिणामने पामतो जे मोहोन्माद तथा गाढ प्रमाद तेरूप मदिराथी उन्मत्त थयेला पुरुषोथी जे जोवामां आवती नथी. हिं मोड़ शब्दमांज प्रमादनो अर्थ खावी जात, परंतु नाजोग बुद्धिनो नाश करनार इत्यादि रूप प्रमादने अधिकपणे ग्रहण करवाथी मोह ने प्रमाद बने ग्रहण करेला बे. ॥ १ ॥ प्रथम श्लोकमा प्रतिमा सर्व विद्वानोए आदर पवायोग्य एम क. हवे नाम विगेरे त्रणे निदेपा जावनिक्षेपा तुझ्य बे एम स्थापनाधारा जणावी प्रतिमानो अनादर करनारा कुमतिने आक्षेप करी कडे बे. नामादित्रयमेव जावजगवत्ताडूप्यधी कारणं, शास्त्रात् स्वानुजवाच्च शुद्धहृदयैरिष्टं च दृष्टं मुहः । तेनाईत् प्रतिमामनादृतवतां जावं पुरस्कुर्वता - मंधानामिव दर्पणे निजमुखालो कार्थिनां का मतिः । २ ॥ अर्थ - नामादि त्र निक्षेप जावरूप जगवंतना तडूपपणानी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) बुद्धिनां कारण ने, अने ते शुषहदयवाला गीतार्थ पुरुषोए शास्त्रथी श्रने स्वानुनवथी श्छेल तथा वारंवार जोयेल . तेमबतां अर्हत् प्रतिमानो अनादर करी मात्र नाव अर्हत् ने जे माननारा बे. तेउनी बुद्धि दर्पणमा मुखजोनारा अंध पुरुषोनी जेम कोण मात्र !॥२॥ विशेषार्थ-शुछ हृदयवाला गीतार्थ पुरुषोए नाम विगेरे त्रणअहिं नामादि पदनो अर्थ नाम विगेरे त्रण निदेप एम लेवानो वे. एटले कृदभिहित ए व्याकरणना न्यायथी एवो अर्थ थाय के, निक्षेप करातां नामादि त्रण, लावरूप जगवंत अर्थात् निदेपरूपे थता नावरूप जगवंतमां अनेद बुधिना कारण ने. ते कारण शास्त्रना प्रमाणथी अने स्वानुलव एटले स्वगत तार्किक बुधिना प्रमाणथी वारंवार श्छेल ने अने जोयेल , अर्थात् शास्त्रथी श्छेल अने अनुलवधी जोयेल . आ कथनथी तत्वप्राप्तिना समग्र उपाय सूचव्या. ते विष योगाचार्यना वचनने अनुवाद करनारा श्रीहरिभद्र सूरि कहे जे के “ श्रागमेनानानुमानेन, ध्यानान्यास रसेनच । त्रिधा प्रकटपयन् प्रज्ञां बनते तत्वमुत्तमं ॥” आगम अनुमान अने ध्यानान्यास-ए त्रण प्रकारे बुधिने प्रसारनार पुरुष उत्तम तत्त्व प्राप्त करे . तेथी नामादि त्रण निदेप मध्येना स्थापना निदेप रूप अईत् प्रतिमानो अनादर करनारा अने मात्र नाव निक्षेपनेज आगल करी पोताना वचन मात्रने प्रमाण करनारा जे पुरुषो , तेउनी बुद्धि दर्पणमां पोतानुं मुख जोवाने स्वता अंध पुरुषोना जेवी . अर्थात् कां नथी. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रण निदेपानो अनादर करी केवल नावोझास करवो अशक्य . शास्त्रप्रमाणे नामादि त्रणे निदेप हृदयमां होय त्यारे परम ध्येयरूप परमात्मा जाणे आपणी सन्मुख स्फुरणायमान होय, ह्रदयमा प्रवेश करता होय, मधुर बालाप करता होय अने सर्व अंगोअंग अनुलवता होय एम लागे जे. अने तेथी सर्व कट्याणनी सिद्धि थाय . माटे त्रण निदेपना आदर विना जावनिदेप केवी रीते थश् शके ? नावोदास तेनेज आधीन ने. पूर्वपक्ष- जावोदास स्वालाविक थाय. - उत्तरपक्ष- लावोझास स्वनाविक थाय एवो एकांत निश्चय होयज नही, जो तेम मानीए तो अनेकांत जैनमतमां सर्व व्यवहारना उजेदनो प्रसंग श्रावे. (अहिं प्रतिमा लुपकोने जे विशेषण आपी अंध पुरुषोनी साथे सरखाव्या ,ते उत्प्रेक्षा अलंकार थाय अथवा कटिपत उपमा अलंकार पण थाय. ते बाबत श्रखंकार ग्रंथमां निपुण पुरुषोए योग्य लागे तेम जाणी लेवं.) . श्रा प्रमाणे स्वगत अध्यात्मना गुणवडे चार प्रकारे वंदनानुं योग्यपणुं सूचव्यु. तेमां मस्तक श्रने चरणना संयोगरूप वंदन जाव जगवंतना शरीरमांज संजवे, परंतु श्राकाशनी जेम अरूपी एवा नाव लगवंतमां ते संजवतुं नथी. श्रने नावना संबंधी शरीरसंबंधी वंदन जावनेज लागुपडे. पूर्वपक्ष- नामादिसंबंधी वंदन पण नावने केम न प्राप्त थाय ? महानिशीथ सूत्रमा नावाचार्यने तीर्थकर तुट्य कहेला ने अने तेना त्रण निदेपने नकामा गणेला .तेना पांचमा श्रध्ययनमां कडं ने के “ चार प्रकारना आचार्य जाणवा, तेमां Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) नामाचार्य विगैरे त्रण श्राचार्य करतां जे नावाचार्य ने ते तीर्थकर समान जाणवा. उत्तर पक्ष- परम शुद्ध नावने ग्रहण करनार निश्चयनयनोज श्रा विषय जे. जेना मतमा एकपण गुणनो त्याग करवायी मिथ्यादृष्टिपणुं प्राप्त थाय . यदाहुः " जो जहवायं न कुण मिहिनी तहु कोनोत्ति” तेना मतमां बीजा निदेपना अनादरमा पण नेगम विगेरे सर्व नयथी नामादि निदेपने प्रमाण मानेला . तेम बतां तने आवो व्यामोह केम थाय ? कारणके सर्वनय संमतनेज शास्त्रार्थपणुं बे, अन्यथा समकित अने चारित्रना ऐक्यने ग्रहण करनारा निश्चय नयवडे अप्रमत्त संयतज समकितनो स्वामि थाय अने प्रमत्त न थाय. अने तेथी श्रेणिक विगेरे अनेक पुरुषोने थयेलुं प्रसिद्ध समकित तारा जेवा देवानां प्रिय माणसे ( मूर्खे ) स्विकारवा योग्य न थाय. आ अर्थाने प्रतिपादन करनार सूत्र आचारांग सूत्रना पांचमा अध्ययनना त्रीजा उद्देशामां कदेखें . यथा-"जं संमंति पासहा तंमोणंति पासहा, जं मोणंति पासहा तं सम्मति पासहा" अर्थ-जेजे कारक समकित ने ते मुनिपणुं ने, अने जेजे मुनिपणुं ने ते कारक समकित ने, इत्यादि वली नावाचार्यपणुं नाम, स्थापना, व्यथी प्रशस्त बे, बतां तेनुं उलंघन करतुं नथी, श्रने अंगारमईक विगेरेनुं अव्य तो तेनां नाम, स्थापनानी जेम अप्रशस्तज जे. तेनो अर्थ उपर प्रमाणे महानिशीथ सूत्रमा श्रावीजाय जे. वली गुरुतत्व निश्चयमां कह्यु के जे वस्तुनो नाव निदेपो शुध, तेनां नामादि त्रणे निदेपा शुद्ध जाणवा. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) नेमके गौतमादिकनो नाव निक्षेपो आराध्य बे, तो नामादि त्रणे आराध्य बे, अने अंगारमर्दकनो जाव निक्षेपो अशुद्ध (श्र नाराध्य ) होवाथी नामादि त्रणे अनाराध्य बे. या प्रमाणे श्रेष्ठ जावसंबंधी सर्व निदेपनुं श्रेष्ठपपुंज बे, एम निश्चय थाय बे. तेथी तेवा नाम निक्षेपनुं श्राराधन पण श्रेष्ठ गणाय. तेविषे श्री उत्तराध्ययन सूत्रना समकित पराक्रम नामना अध्ययनमां कह्युं बे. यथा - " चलवी सथ्येणं नंते जिवेकिं जाइ ? चडवी सथ्येणं दंसण विसोहिं जइत्ति” अर्थ - हे जगवंत! चोवीसथ्यो करवाश्री जीव शुं उपार्जे, जगवंते कहां के जीव दर्शन विशुद्धि करे. दर्शन आराधननुं महाफल कहेलुं बे. वली जगवती सूत्र विगेरे - मां महापुरुषना नामश्रवणनुं महाफल कहेलुं छे. यथा “ तं महाफलं खलु अरहंताणं जगवंताणं नाम गोयमस्स विसवण्या ए" इत्यादि. तेमज नाम, स्थापना निक्षेपनं आराधन पण बतावेलुं बे. यथा अलावो. " थय थुइ मंगलेणं जंते जीवे किं जाइ ? थय थुई मंगलें नाए दंसण चरित्त बोदिलानं जण ना दंसण चरित्त बोहिलान संपत्ते जंते जीवे० छांत किरिचं कप्पविमाणोववत्ति राहणं आहे " इति. हे जगवंत ! स्तव, स्तुतिरूप मंगलवडे जीवने शुं खान थाय, जगवंते कां के स्तव, स्तुतिरूप मंगलवडे जीवने ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने बोधिनो लाज थाय, छाने ज्यारे ज्ञान, दर्शन, चारित्र ने बोधिनो लाज थाय त्यारे ते कल्पविमानोपवर्ती आराधन - राधे. या व्याख्या सिद्ध बे. अहिं स्तव, स्तवनाने स्तुति - प्रकार प्रसिद्ध बे, तेमां चैत्यवंदन अवसरे स्थापना प्रजुनी Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) पासे जे कराय बे ते स्तुति समजवी. वली तेवीज रीते ऽव्य निक्षेपनी आराध्यता पण सूत्रमां स्फुट रीते जाय बे. जेम श्री आदिनाथ जगवंतना समयमां साधु ज्यारे आवश्यक क्रिया करे त्यारे चतुर्विंशति स्तवना आराधनमां त्रेवीश प्रव्य जिन पण आराध्यपणाने पामेवे . श्री शषनदेव ने अजीतनाथ विगेरेना समयमा एक स्तव, विस्तव विगेरेनी प्रक्रिया करी शकाय नहि कारण के शास्वता अध्ययननो पाठ लेशमात्र फेरववो ते मृत्युना कोपनी जेम वज्रलेप जेवो बे अर्थना उपयोगथी रहित एवं कीर्तन राजानी वेठजेवुं बे, अने तेथी ते योगी कुल जन्मने बाधक बे, ते कारणथीज द्रव्य श्रावश्यकनो निषेध करेलो बे, कारणके सूत्रमां तेनो उपयोग रेहेतो नथी, वली प्रव्यनी उद्घोषणा अनुयोगद्वार विगेरे सूत्रोमा सर्वत्र प्रसिद्ध बे, परंतु अर्थ - ना उपयोगना स्विकारपणाथीज द्रव्यजीवनी आराध्यता सिद्ध थाय . आ उपरथी शासननी विडंबना करनारा लुंपको एवो उपहास करेले के, जो द्रव्य जिननुं श्राराध्यपणुं स्विकारी एतो हस्तमां लीली अंजलिमां रहेला सूक्ष्म जीवोनुं पण आराध्यपणुं प्राप्त थाय, कारण के कोइ समये ते जीवोने पण जिनपदवीनी प्राप्तिनो संभव बे. या तेमनो उपहास तदन निर्माय बे. कारण के तेवा जीवोमां प्रव्य जिनपणाने निश्चय करनारा पर्यायनुं आपने ज्ञान नथी. जो तेवुं ज्ञान होयतो ते जीवोनुं पण श्राराध्यपणुं संजवेळे. श्री शेषन परमात्मानी वाणी थी जिनपर्याय जाणी जरतचक्रीए मरिचिने वंदना करी हती, ते अधिकार प्रसिद्ध बे. दीर्घकाले पण प्रस्थक विगेरेना दृष्टांतथी दूर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) एवा नैगम नयना अलिप्रायवडे तेनो श्राश्रय करी शकाय ने. वली ज्ञानीना वचनथी योग्यता विशेष जाणी दोष के उपेक्षा पण थायडे, श्रने तेप्रमाणे मुनियोने वंदन, वैयावृत्य विगेरे व्यवहार पण चाले ने. आप्रमाणे श्री वीरप्रजुना वचनश्री अतिमुक्त मुनिनुं नविष्यमा नअपणुं जाणी स्थविरोए व्रतनी स्खलनानी उपेदा करी तेमनुं वैयावच्च कर्यु हतुं. वली “ नमो सुश्रस्स" श्रुतज्ञानने नमस्कारहो-इत्यादि वाक्योथी अन्य निदेपनी श्राराध्यता प्रतीत थाय बे. अक्षर विगेरे श्रुत जेदमां, संज्ञा, व्यंजन, अदर विगेरे नाव श्रुतना कारण होवाथी तेमने व्यश्रुतपणुं प्राप्त थायने. यथा “दव सुअंजं पत्तय पोत्थय लिहितं " पत्र पुस्तक विगेरेमा जे लखेटुं ते अव्यश्रुत ने, अने ते आगम प्रमाणथी सिद्ध के. श्री जिनवाणीनो योग जे अव्यश्रुत ते श्रोताउने लावश्रुतनुं कारण . श्रा प्रमाणे होवाथी लावनिदेपने कांपण विपरीत जिन्नता नथी. श्रावी रीते चारे निदेपर्नु श्राराध्यपणुं सिद्ध थायजे. ॥२॥ एवी रीते सिम थवाथी ते प्रतिमा ब्राह्मी लिपिनी जेम सूत्रन्यायथी वंदवायोग्य जे, तेथी तेने उखवनारा कुमतियोनी मूढता खुसी करे .. खुप्तं मोहविषेण किं किमु हतं मिथ्यात्वदनोलिना, मनं किं कुनयावटे किमु मनो लीनं तु दोषाकरे । प्रज्ञप्तौ प्रथमं नतां लिपिमपि ब्राह्मीमनालोकयन्, वंद्यार्हत्प्रतिमा नसाधुनिरिति ब्रूते यन्मादवान्।३। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) अर्थ-प्रज्ञप्ति (नगवती) सूत्रमा श्रीसुधर्मा स्वामिए प्रथम नमस्कार करेली ब्राह्मी लिपिने पण नहीं विचारतो ते कुमति मोहने वश यश् कहे जे "साधुए अर्हतनी प्रतिमा वंदन करवा योग्य नयी" आते शुं तेनुं मन मोहरूप विषयी लुप्त थइ गयुं वे ? वा मिथ्यात्वरूप वज्रथी हणा गयुं चे ? वा कुनयरूप खाडामां खंची गयुं बे ? के दोषनी खीणमां लीन थ गयु बे ? ३. विशेषार्थ-प्रज्ञप्ति सूत्रमा प्रथमज सुधर्मा स्वामिए नमस्कार करेली श्री बाह्मीलिपिने पण धारणा बुधिश्री नहीं विचारतो कुमति " अर्हतनी प्रतिमा साधुजने वंदन करवा योग्य नथी" एम मोहने वश थर बोले , ते तेनुं मन मोहरूपी विषवडे व्याकुल श्रयेलुं ने ! मिथ्यात्वरूप वज्रथी हणायेलु ! वा उनयरूपी कुवामां मग्न थयेलुं ! ( अहिं यद्वा तु अव्यय उत्प्रेझालंकार बतावे) वा दोषनो समुहजे दोषाकर तेमां लीन थयुं ! अहिं एवो पण अर्थ थाय के दोषाकर एटले चंड तेमां गयाना आश्लेषथी मन पेसी जाय , एम वेदमतमां माने जे. अर्थात् तेमां शुं मृत्यु पामेलुं ! अहिं अंधकार जाणे अंगने लिंपतुं होय ए दृष्टांत प्रमाणे मोहरूप विष व्यापवाथी टुंपक कुमतिना मननी मूढता थ गयेली जे. प्राप्ति सूत्रमा "णमो बंनीए लिवीए"बाह्मीलिपिने नमस्कार. एवंपद मुकेलु ओ.३ हवे नामप्रत्ये वंदवायोग्य स्थापनाने स्थापित करे जे. किं नामस्मरणेन नप्रतिमया किं वा निदा कानयोः, संबंधः प्रतियोगिनान सदृशो नावेन किं वा छयो। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) तयं घ्यमेव वा जडमते त्याज्यं यं वा त्वया, स्यात्तर्कादत एव बुंपकमुखे दत्तो मषीकूर्चकः ॥४॥ अर्थः-चतुर्विंशति स्तवमा रहेला नामना स्मरणथी के प्रतिमाश्री शुंने ? ते बनेमां शो लेद ने ? बीजा निदेप के जावनिोपनी साथे ते नाम अने स्थापनानो संबंध शुं सरखो जे? जरा फेर , तेथी हे जममतिवाला! कांतो तारे ते बनेने वांदवा. अथवा तो ते बंनेने त्याग करवा. श्रा तर्कथी ते ढुंपक उर्मतिना मुखपर मषीनो कुचडो श्राप्यो, अर्थात् तेना मुख उपर श्यामता आपी. विशेषार्थ-चतुर्विशति स्तव विगेरेमा रहेलां नामना अनुचिंतनथी कदि अहिं शंका थाय के नामस्मरण पुद्गलात्मकपणाश्री आत्माने उपकारी न थाय, पण नामस्मरणमां गुणनी समापत्ति थाय तो तेथी फल थाय. तेथी कहे ले के प्रतिमाथी पण शुं? उत्तर के प्रकाशमान, गुणसमुज अने लोकोत्तर मुजाथी अलंकृत एवी जगवंतनी प्रतिमाना दर्शनथी पण सर्वातिशयी जगवंतना गुणोनुं स्मरण थवाथी तथाप्रकारे ध्यान श्रवानो संजव . कडं ले के__“ प्रशम रस निमग्नं दृष्टि युग्म प्रसन्नं, वदन कमलमंकः कामिनी संग शून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्र संबंध वन्ध्यं, तदसि जगति देवो वीतराग स्त्वमेव ॥ अहिं कोई शंका करे के नाम श्रने नामवालानी साथे वाच्यवाचक संबंध मे,पण स्थापनाने तेवो संबंध तथ नथी तेमां तेटलो लेद ने, तेथी कहे जे के प्रति यो Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) गिनी साथे एटले वीजा निदेपने निरूपण करनार नावनिदेपनी साथे ते बंने नाम अने स्थापनानो संबंध शुं सरखो ने के तेमां परस्पर कांक विषमपणुं ? उत्तर के एकमां वाच्यवाचक नाव अने बीजामां स्थाप्यस्थापक नाव , तेटलो अविशेष बे. श्रा युक्तिथी हवे प्रतिवादीने आक्षेप करे . तो हे जडमति ! तारे ते बंने नाम अने स्थापनाने अविशेषपणे वंदना करवी, कारण के बंनेमां लगवंतना अध्यात्म विषे विशेष तफावत नथी. अने जो अंतरंग प्रतीतिनो अनाव होय तो ते बनेनो त्याग करवो. आ युक्तिथी तेने प्रतिमानो अंगीकार करवो पडे अने ते तेने अनिष्ट श्रयुं तेथी ते लुंपक प्रतिवादीना मुख उपर मषीनो कुचडो लाग्यो अर्थात् मुख उपर मलिनता आवीगइ, एवो पण लावार्थ निकले के ते मौन रह्यो. (अहिं असंबंधमां संबंधरूप अतिशयोक्ति अलंकार थाय ) वली एवो पण तर्क थाय के जे लावनिक्षेप ने ते अवंद्य स्थापना निदेपनो प्रतियोगी थाय के अवंद्य नाम निदेपनो प्रतियोगी थाय; आवा तर्कनुं जे व्यधिकरण ( असदृश) पणुं ते पण उडी जाय . ___ एवी रीते युक्तिथी प्रतिमा विगेरेनो निर्णय करी, हवे तेना विराधक पुरुषोनुं उपहास्य अने आराधक पुरुषोनी स्तुति करे . स्वांतं ध्वांतमयं मुखं विषमयं दृग धूमधारामयी, तेषां यैर्न नता स्तुता न नगवन्मूर्तिर्न वा प्रेदिता। देवैश्चारणपुंगवैः सहृदयैरानंदितैर्वदिता, ये त्वेनां समुपासते कृतधियस्तेषां पवित्रं जनुः ॥५॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अर्थः-जेए लगवंतनी मूर्तिने नमस्कार कर्यो नथी, तेनुं हृदय अंधकारमय , जेठए तेनी स्तुति करी नथी तेनुं मुख विषमय ने अने जेए तेनां दर्शन कर्या नथी तेमनी दृष्टि धूम्र धाराधी व्याप्त जे. देवताउँए, चारण मुनियोए अने तत्ववेत्ताउए आनंदथी वंदना करेती ते प्रतिमानी जे उपासना करे , तेउनी बुद्धि कृतार्थ ने, अने तेमना जन्म पवित्र बे. विशेषार्थ- जेए जगवंतनी प्रतिमाने नमस्कार कर्यो नश्री, तेमनुं हृदय अंधकारमय ने, कारण के हृदयमां नमस्कार करवाना परिणामरूप प्रकाशनो अनाव होवाथी न नमन करवारूप अंधकार रह्या करे जे. जेए जगवंतनी प्रतिमानी स्तुति करी नथी, तेमनुं मुख विषमय ने, कारण के स्तुतिरूप सुलाषित अमृतनो तेमना मुखमां अनाव ले. अने तेथी विषनुं सत्व रहेलुं जे. जेए जगवंतनी प्रतिमार्नु अवलोकन कर्यु नथी, तेमनी दृष्टि धुम्र धाराथी व्याप्त बे, कारण के जगतनी दृष्टिने अमृतसिंचन समान तृप्ति श्रापनार ते प्रतिमाना दर्शननो तेमने अनाव होवाथी तेमनां नेत्र धुम्रधाराथी आवृत श्रयेलां ने, एम सिद्ध थाय जे. वली अंधकार, विष अने धुम्र विगेरे दोषथी तेमनामां तेवी जातना बीजा पण दोष ने, एम निश्चय थाय . (अहिं काव्यलिंग अलंकार साथे अतिशयोक्ति अलंकार .) जे कृतार्थ बुधिवाला पंडितो ए जगवंतनी प्रतिमानी उपासना करे , तेमना जन्म निरंतर मिथ्यात्व रूप मलना परित्यागथी पवित्र ने. ते प्रतिमा सुर, असुर, व्यंतर अने ज्योतिषी देवताउए, जंघाचारण, विद्याचारण मुनियोए अने तत्ववेत्ता पुरुषोए Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) आनंदथी वंदना करेली ने, कारण के आगम सिद्ध शिष्टाचार होवाथी तेनी उपासना देवतादिकना जन्मने पवित्र करनार थाय . देवताए जेवी रीते वंदना करेली ने ते वागल श्लोकमां स्फुट करीशुं, अने चारणमुनिनो अधिकार प्राप्तिसूत्रना वीशमा शतकना नवमा उद्देशामां वर्णव्यो बे. यथा “ काविहाणं नंते चारण पन्नत्ता” इत्यादि आलावाथी जाणी लेवं. ___ एवी रीते प्रतिमानो स्वीकार कह्यो, हवे तेमां कुमतिए कटपेली आशंकाने निरास करी कहे. प्राप्तौ प्रतिमान तिर्न विदिता किं चारणे निर्मिता, तेषां लब्ध्युपजीवनाछिकटना नावात्वनाराधना । सा कृत्याकरणादकृत्यकरणाद् नग्नवतत्वं नवे , दित्येता विलसन्ति सन्नयसुधासारा बुधानां गिरः॥६॥ अर्थ-प्रज्ञप्ति (जगवती ) सूत्रमा चारणमुनियोए करेली प्रतिमानी वंदना शुं प्रसिद्ध नथी ? अर्थात् प्रसिद्ध जे. ते चारण मुनियोनुं जीवन लब्धिथी , अने ते जीवन प्रमादरूप मे, तेथी तेने आलोचनानो अन्नाव , अने तेथी तेमनी अनाराधना गणायचे. ते अनाराधना करवा योग्य न करे अने न करवा योग्य करे ते रूप ने अने तेथी तेमने व्रत नंगपणुं प्राप्त थायजे. आ प्रकारनी शुलनयरूप अमृतवडे श्रेष्ठ एवी विधानोनी वाणी विलास करे. ॥६॥ विशेषार्थ-जगवती सूत्रमा जंघाचारण, विद्याचारण मुनियोए करेली प्रतिमानी वंदना शुं प्रसिद्ध नश्री ! अर्थात प्रसिद्ध Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बे. सिंहसमान सुधर्मा स्वामिनुं वचन सूर्यप्रकाश जे, बे, ते कुमतिरूप घुवड पदीथी अपन्हवकरी ( बुपावी ) शकाय तेम नथी. पूर्वपद-तमे जे कडं तेतो स्पष्ट , परंतु चैत्यवंदन निमित्त आलोचना कर्या वगर तेमने अनाराधक पणुं कहेलुं ने, कारण के " तस्सगणस्स प्रणालोश्य अपडिकंते कालंकरे' इत्यादि नगवती सूत्रमा पाउने, अने तेथी अमे तेउनी चैत्यवंदना रसनरेती जाणता नथी. __ उत्तरपद-ते जंघाचारण, विद्याचारण मुनियोने लब्धि उपजीवन, अने लब्धि उपजीवन ते प्रमाद गति ने, कारणके तीरना वेगनी जेम शीघ्र गतिए गमन करतां वचमां तीर्थयात्रा तथा शास्वता देहेरा प्रमुख रही जायचे, तेथी तेमने चित्तमां बहु खेद उपजे. अहिं तीरना वेगनी जेम गमन ते आलोचना करवा योग्य वे. मूलमा विकटना शब्दनो अर्थ आलोचना थाय. " आलोयणा वियनणा" एवं नियुक्ति वचन जे. ते चारणमुनियो आलोयण करी काल करतो आराधक ने अने ते विना काल करतो विराधक के. वली अनाराधना कृत्यतो प्रमादनी आलोचना न करवाथी तथा अकृत्य करवाश्री अर्थात् चैत्यवंदनमां मिथ्यापणुं करवायी गणाय, अने तेने जो अनाराधना कहेवामां आवे तो जग्नव्रतपणुं थाय कारणके मिथ्यात्वना सहचारी एवा अनंतानुबंधीना उदयथी चारित्रनो मूलमांथी नच्छेद थई जायजे. ते विषे सूत्रमा एवं वचन ने के " कषाय चारित्रने मूलमांथी देने" तेथी तेप्रमाणे थायतो मात्र आ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) लोचना कर्याथी शोधी शकाय तेम नथी. श्रावो कुतर्करूप सघलोनार मिथ्या कल्पना करनारा कुमतिना मस्तक उपर सदा रहो. या प्रमाणे शुजनयरूप उत्तम रस मिथ्या कल्पनारूप विषना विकारने परास्त करनार होवाथी अमृतरस समान बे. ते रसवडे श्रेष्ठ एव सिद्धांतना पारगामी उनी वाणी बे. ॥ ६ ॥ कुमतियोनो एवो मत बे के चारण मुनियोनी गतिनो जेटलो विषय को बे, तेटला प्रदेशमां जवानी परीक्षा करी जोवामांज तेमनो मुख्य उद्देश बे. ते परीक्षा करवा ज्यारे तेर्ज गमन करे बे, त्यारे ने पूर्व चैत्योनुं दर्शन श्रवाथी विस्मय थाय नेते विस्मयनेलीधे ते तेमनी वंदना करे छे, कां पोतानी प्रीति रसनाउल्लासथी करता नथी, माटे तेमनुं ते आचरण शिष्टाचार न कहेवाय. ते दृष्टांतथी सर्व साधुर्जने पण तेमने वंदन करवानी योग्यता तेवीज बे. याप्रमाणे ते कुमतियोनी शंका aara dat निषेध करे बे. तेषां न प्रतिमानतिः स्वरसतो लीलानुषंगानु सा, लब्ध्याप्तादिति कालकूटकवलोद्वारा गिरः पाप्मनां । हंतैवं न कथं नगादिषु नतिर्व्यक्ता कथं वेह सा, चैत्यानामिति तर्ककर्कश गिरा स्यात्तन्मुखं मुद्रितं । अर्थ:- ते चार मुनियोने प्रतिमानी वंदना पोताना प्रीति रसश्री नथी, पण लब्धिश्री प्राप्त थयेला कौतुक लीलाना प्रसंगथी बे. आवी कालकूटना कोलीयाना उद्गारजेवी ते पापीनी वाणी ने तेना उत्तरमां कहेवानुं के जो तेम होय तो ( मा २ - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) नुषोत्तर आदि) पर्वतोविषे तेनी वंदना केम न थाय ? त्यांपण कौतुकथी श्रवी जोइए,अने अहिं (जरत, विदेहादि क्षेत्रोमां आवेला ) चैत्योनेविषे तेमनी वंदना स्पष्ट रीते थयेली , तेनुं शुं कारण ? आवी कगेर तार्किक वाणीथी ते पापीउनुं मुख मुजित श्रश् जाय . विशेषार्थः- ते जंघाचारण, विद्याचारण मुनि प्रतिमाने स्वरस अर्थात् श्रधा नक्तिवाला परिणामथी वंदना करता नथी, पण खब्धियी प्राप्त श्रयेली कौतुकलीला जोवानी श्वाथी प्रवर्तता तेमनुं सांनिध्य थइ जवाथी ते वंदना करे . कदि तेवी रीते श्रद्धा नक्तिविना वंदना करे तो तेमने शी हानि थवानी ? कारण के श्रघा जक्तिपूर्वक अकृत्य करे तोज दोष लागे . आवा प्रकारनी ते पापी कुमतियोनी वाणी प्रवर्ते वे, जे वाणी कालकूट ( विष )ना कोलीयाना उद्गाररूप ने, अर्थात् ते उदूगार कालकूट विषना कोखीयाज जे. कारण के जेमणे मिथ्यात्वरूप कालकूट (विष ) लक्षण करेलुं होय, तेमना मुखमांथी तेवाज उद्गार निकलवानो संजव बे. हवे तेनो उत्तर आपे . जो एवीरीते सीला कौतुकथी विस्मय पामी ते मुनियो वंदना करता होय तो मानुषोत्तर, नंदीश्वर, रुचक, मेरुपर्वत अने तेना उद्यान विगेरेमां ते चारणो वंदना करता नथी तेनुं शुं कारण ? तेनुं पण अपूर्व दर्शन , तेथी विस्मय पामी ते थवानो संनव बे. तेमज आ जरत, विदेहादि क्षेत्रमा ज्यारे त्यांथी पाग फरे ने, त्यारे तेए अत्रेना चैत्योनी वंदना करेलीने तेनुं शुं कारण ? आवी तार्किक कर्कश वाणीथी ते पापीउनु मुख बंध थप जाय Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) बे, अर्थात् आ उत्तरथी प्रत्युत्तर आपवाने समर्थ श्रता नथी. अहिं एम समजवानुं ने के, जेम गोचरीना उद्देशथी निकलेला साधु वचमां आवी मलता साधुउने वंदना करे , तेम ते चारण मुनियो वचमा आवता नंदीश्वरादि तीर्थोनी प्रतिमाने स्वरसथी वंदना करे , अने ते वादलावगर श्रयेली अमृतवृष्टिनी जेम परम हर्षनी हेतुरूप बे. ७ __सूत्रमा " चेआई वंदे" ए पदनो एवो अर्थ के के “जेम नगवंते कडं तेमज नंदीश्वरादिकमां अवलोक्यु. अहा ! जगवंतनुं ज्ञान यथार्थ सत्य , एम अनुमोदना करे " कारण के चैत्य शब्दनो अर्थ ज्ञान थाय जे. आप्रमाणे मुग्ध लोकोमी पर पदामां मस्तक धुणावी व्याख्यान करता एवा कुतिलपहास्य करतां थकां कहे . ज्ञानं चैत्यपदार्थमाह न पुन र्मूर्ति प्रतीयों घिषन् वंद्यं तत्तदपूर्ववस्तुकलना दृष्टार्थसंचारिक धातुप्रत्ययरूढिवाक्यवचनव्याख्यामजानन्नती प्रज्ञावत्सु जडः श्रियं न लनते काको मरालेष्विव । अर्थः- श्री जिनशासननो देषी कुमति चैत्यशब्दनो अर्थ झान कहे . पण प्रनुनी मूर्ति कहेतो नथी. जे ज्ञान जोयेला अर्थमां संचारी ने ते बतां पण ते ते अपूर्व वस्तुने जणाववाथी वंदना करवायोग्य . धातु, प्रत्यय, रूढि, वाक्य अने वचननी व्याख्याने नहि जाणतो ते जडमति हंसोनेविषे कागडानी जेम विधानोमां शोला पामतो नथी. ७ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) विशेषार्थः- जिनशासन उपर घेष करनार कुमति, चैत्य शब्दनो अर्थ ज्ञान कहे , प्रनुनी मूर्ति कहेतो नथी. ते कहे ने के, ते केर्बु ज्ञान ने ? तेते अपूर्व वस्तुना जाणवाथी वंदना करवायोग्य , तेमज अनुमोदना करवायोग्य बे; वली ते ज्ञान जोयेला अर्थमा संचार करनारूं जे. एटले आ लोकमां चैत्यवंदन संचरिष्णु अने भविष्णु शब्दना अर्थवालुं पण अपूर्व दर्शनथी विस्मय उत्पन्न करनारूं होवाथी जगवंतनाज्ञानने वंदनीयपणुं . अहिं “चेश्याई वंदे " ए वाक्यनी उपपत्ति यती नथी, कारण के तेमां अपूर्वनुं अदर्शन जे. एवी रीते अपि शब्द अनुचितपणुं बतावे बे. आप्रमाणे मानतो ते जडमति विघानोनी सन्नामां उत्तरोत्तर समृधिने प्राप्त श्रतो नथी. कोनी जेम ? राजहंसोमां कागडो शोला पामतो नथी तेम. (उपमा अलंकार ) शामाटे ते शोना पामतो नथी ? शब्दना धातु विगेरे कांई जाणतो नथी. जेम के चैत्य शब्दमां चितिसंज्ञाने धातु, तेने कर्मणिमां ण्य प्रत्यय आव्यो, ते उपरथी तेनो अर्थ अर्हत् प्रतिमा थाय . चिति संज्ञाने एटले संज्ञान जे काष्ठविगेरेना कार्यमा सामी प्रतिकृति ( नकल) जोइ सम्यक् प्रकारे ज्ञान (उलखq ) थाय ते. जेम के "श्रा अर्हतनी प्रतिमा ." अहिं प्रकृति ( मूल ) नो केवल, ज्ञान अर्थ जाणतो अने प्रकृति, प्रत्यय नहि जाणतो तथा रूढि पण नहि जाणतो, ते तेम बोले . अहिं रूढि एटले चैत्यशब्द जिनगृहविगेरेमांज रूढ जे. तेविषे कोषकार लखे ने के " चैत्यं. जिनौकस्तद् बिंबं, चैत्यो जिनसनातरुः " अर्थ- चैत्यशब्द जि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) नगृह अने जिनबिंबमां नपुंसके प्रवर्ते ने अने जिनसताना वृक्ष अर्थमां पुलिंगे प्रवर्ते बे. तेथी एम सिद्ध थयुं के विपरीत व्युत्पत्तिवडे नाम नेद अने प्रत्ययना योगनो अर्थ पण उडी गयो, कारण के योगथी रूढि बलवान बे. जो तेम न होय तो पंकज शब्दनो व्युत्पत्ति अर्थ कादवमां श्रयेलु एवो बे, तेथी पंकज शब्द वडे शेवाल विगेरेनो बोध थवानो प्रसंग श्रावे. हवे वाक्यविषे कहे . आकांदावाला पदनो जे समुदाय ते वाक्य कहेवाय जे. अहिं" चेश्याइं वंदे" एटले चैत्योने ढुं वंदना करुं बुं एवो वाक्यार्थ , तेने ते ज्ञान अर्थसाथे घटावे चे, जेम के लगवंतनुं ज्ञान नंदीश्वरादिकमां वर्त्त जे. अहिं ज्ञानना जगवृत्तिपणाने बीजानुं साधारण्य आप, ते विस्मयकार क जे. हवे वचनविषे कहे जे. चैत्यशब्दनो ज्ञान अर्थ ते एकज ने अने अहिं शानअर्थे चैत्यशब्दनुं वितीया विनक्तिनुं बदुवचन मुकेने ते अनुचित ,कारण के कोइ ठेकाणे तेवू अनुशासन नथी तेमज तेवो पाठ पण नथी.जो तेम अतुं होत तो "केवल नाणं" ए स्थाने " केवल चेआई” एवो प्रयोग आववो जोइए. श्राप्रमाणे चारण मुनियोने प्रतिमा वंदनीय ,ए अधिकार कह्यो. __ हवे देवताउने प्रतिमा वंदनीय , ए अधिकारनो आरंज करी, तेमां प्रथम देवताए अर्हत् प्रतिमा शरण करवायोग्यचे, ते रूपे स्तुति करे. अर्हच्चैत्यमुनींअनिश्रिततया शक्रासनमावधि, प्राप्ती नगवान् जगाद चमरस्योत्पातशक्तिं ध्रुवं । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) जैनी मूर्तिमतो न योत्र जिनवजानाति जानातु कस्तं मयं बत शृंगपुलरहितं स्पष्टं पशु पंडितः ॥५॥ अर्थ-प्रज्ञप्ति सूत्रनेविषे श्रीजगवंते अर्हत्प्रतिमा अने मुनियोनी निश्राना हेतुथी असुरकुमारराज चमरेजने शक्रंजना आसननी पृथ्वीसुधी उडवानी शक्ति निश्चयपणे कहेली. तेम बतां पण जे कुमति आ जिनशासनमां जिनप्रतिमाने श्री जिनेश्वरसमान न जाणे तेवा पुरुषने कयो पंडित, मनुष्य जाणे अर्थात् कोइ न जाणे. तेने तो शींगमा अने पुरडावगरनो सादात् पशु जाणे. ए विशेषार्थ-तीर्थकरो, तेमनी प्रतिमा अने परमसौम्यताने जजनारा मुनिचंयोनी निश्राना हेतुथी, लगवान ज्ञातनंदने असुरकुमारोना इंक चमरेंजनी उडवानी शक्ति शक्रना आसननी पृथ्वीसुधी निश्चयपणे कहेली अने तेमाटे अर्हतने अनगार शब्दनी मध्ये चैत्यशब्दनो पाठ , उतां जे कुमति आ जिनशासनमां जिनप्रतिमाने जिनेश्वरतुल्य न जाणे तेने कयो मोदानिलाषी बुद्धिवंत विद्वान्, मनुष्य जाणे. कोइ पण जाणे नहीं. तात्पर्य ए के बुद्धिवान् पुरुषे तेने मनुष्यकोटीमां गणवो योग्य नथी, परंतु तेना अति अज्ञान अने अविवेकपणाथी शींगडा अने पुंउडावगरनो तेने प्रत्यक्ष पशु जाणवो. अर्थात् बे वस्तुना अनाव जेटलोज तेनामां अने पशुमां फेर. ( अहिं व्यतिरेक अलंकार गर्जित आदेप अलंकार छे, जे उपमानश्री बी. जानी अधिकता आवे त्यां ते अलंकार थाय एम काव्यप्रकाश Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) कार लखेबे, पण अलंकार चूडामणि वृत्तिने विषे ते विषे विशेष विवेचन कर्युबे.) अनाशातनारूप विनयश्री देवतार्जए वंदना करेली जगवंतनी प्रतिमा कया सचेतन पुरुषने वंदन करवायोग्य न होय, ए शयश्री कहे. मूर्तीनां त्रिदशैस्तथा जगवतां सक्थां सदाशातना, त्यागो यत्र विधीयते जगति सा ख्याता सुधर्मासना। इत्यन्वर्थ विचारणापि हरते निद्रां दृशोर्युर्नय, ध्वांतवेदरविप्रजा जडधियं घूकंविना कस्य न ॥ १०॥ अर्थ-देवता जेमां हमेशां जगवंतनी प्रतिमानी ने दाढार्जनी आशातनानो त्याग करेबे, ते सुधर्मा नामनी तेमनी सजा जगतमां विख्यात बे. प्रमाणे दुष्ट नयरूप अंधकारनो नाश करवामां सूर्यनीकान्तिरूप ते सुधर्मा शब्दनी सार्थकता - संबंधी विचारणा जड बुद्धिवाला दुर्मतिरूप घुवड पक्षीविना बीजा कोनी दृष्टिनी निषाने न हरे ? अर्थात् बीजा सर्वनी निद्रा हरीले. १० विशेषार्थ - हिं मूलमां तथा शब्द अर्थातर समुच्चयमां बे. जगवंतनी प्रतिमा जे सद्भाव स्थापनारूप वे ते ने भगवंतनी दाढा, तेमनी आशातनानो जेमां हमेशा त्याग करायचे, ते सुधर्मासना एवा नामश्री विख्यात थयेली े. सुधर्मा एटले सारा धर्मवाली एवा पदनी अर्थव्युत्पत्तिनी जे नावना, ते जडबुद्धिवाला कुमतिरूप घुवडपक्षी विना बीजा कोनी दृष्टिनी Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) नित्रा न हरे, अर्थात बीजा सर्वनी दृष्टिनी निजा ते हरेजे. ते सुधर्मा पदनी अर्थ विचारणा पुर्नयरूप अंधकारनो उम्छेद करवामां सूर्यनी कान्तिरूपले. अहिं सूर्यनी कान्तिसदृश एवं व्याख्यान न करवू, कारणके जो तेनीसदृश एम कहीए तो तेना जेवं कार्य उत्पन्न न पाय. ( अहिं विनोक्ति, काव्य रूपक अने काव्य लिंग अलंकारो थायजे.) १० ___ हवे सूर्याजनामना असुरना अधिकारवमे प्रतिमाना शत्रु अने शासनना अर्थने चोरनारा ते कुमतियोनी चारेतरफ नासी पासी बतावी प्रतिमानी स्तुतिकरे. प्राक् पश्चाच्च हितार्थतां हृदि विदन् तेस्तैरूपायैर्यथा, मूर्तीः पूजितवान्मुदा नगवतां सूर्याजनामासुरः। याति प्रच्युतवर्णकर्णकुहरे तप्तत्रपुत्वं नृप, प्रश्नोपांगसमर्थिता इतधियां व्यक्ता तथा पतिः ११ अर्थ-सूर्यान नामना असुरे पोताना हृदयमां पूर्वमां श्रने परिणामे (अंतमां) आत्महित जाणी तेते लक्तिसाधनना उपायोथी श्रीजगवंतनी प्रतिमाने पूजेली. या प्रक्रिया राजप्रश्नीयोपांग सूत्रमा स्पष्टीते आपेली. ते प्रक्रिया ते मुर्ख कुमतियोना निरक्षर कर्णमां तपेला सीसाजेवी लागे. ११ विशेषार्थ-प्राक प्रथम अने पश्चात् पछी अर्थात् उत्तरोत्तर जवनवांतरसंबंधी परिणामे हितार्थता अर्थात् कट्याणनी अजिलाषाने हृदयमां जाणतो, एवो सूर्याजनामनो असुर जे आगख कहेवामां आवशे एवा नक्तिसाधनना प्रकारोश्री श्रीनगवं Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) " तनी प्रतिमाने पूजतो हवो. ते प्रमाणे राजप्रश्नोपांगमां प्रगटपणे हेतु सहित निर्णय करेली प्रक्रिया, हतबुद्धि अर्थात मूलथी जेमनी बुद्धि छेद पामी एवा लुंपकमतवाला पुरुषोना वर्णरहित एटले निरक्षर एवा कर्णरूप राफडामां (हिं अक्षरशक्तिना प्रतिबंधन व होवाथी तेमां अतिदाह थाय एवो व्यंगार्थ जावो. वली राफडानी उपमाथी ते संस्काररहित एवो व्यंगार्थ निकले ) ते प्रक्रिया तपेला सींसाना रूपने पामेबे, अर्थात् प्रतिमाने प्रतिपादन करनारा अक्षरो दुर्मति लुंपकोना कर्णमां तपेला सींसानी जेम पोतानाज दोपथी दाह उत्पन्न करेबे.. (हिं मम्मटना मतप्रमाणे निदर्शनाअलंकार थाय ने बीजाना मतप्रमाणे संबंधे संबंध रूप अतिशयोक्ति थाय . ) ११ हिं कुमतियो कहेनेके प्रतिमानी पूजा पूर्व ने पश्चात् काले जे हितार्थकबे, ते देवजवनी अपेक्षाथी जळे. तेथी सूर्याजदेवने प्रतिमा पूजनादिकनुं फल मात्र या लोकना अयुदयने माटेज थायवे, तेथी ते मोक्षार्थीने आदरवा योग्य नथी. मात्र देवतानी स्थिति होवाथी देवतार्जनेज श्राश्रय करवायोग्य ते प्रतिमा पूजन या कथनना निराकरणसाथे ते कुमतियो आक्षेप करी कहे. नात्र प्रेत्य हितार्थितोच्यत इति व्यक्ता जिनाच स्थिति देवानां नतु धर्महेतुरिति ये पूत्कुर्वते पुर्द्धियः । प्राक् पश्चादिव रम्यतां परजवश्रेयोर्थितासंगतां, प्राक् पश्चाच्च हितार्थितां श्रुतमतां पश्यंत्यहो तेन किं १२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) - पूर्वे वर्णवेला सूर्यान देवना कृत्यउपरथी प्रतिमानी पूजामां परलोकनी हितार्थता कहेली नथी. ते प्रतिमानी पूजा प्रगटते देवतानी स्थितिमात्र. कां धर्मनुं साधन नथी. श्राप्रमाणे जे कुष्ट बुद्धिवाला कुमतियो पोकार करी बबड्या करेबे, ते पूर्व ने पश्चात् रम्यतावाली, परजवना कल्याणसाथे म - लेली ने श्रागमकथित एवी ते प्रतिमा पूजनथी थती पूर्व पश्चात् हितार्थताने शुं नथी जोता. ११२ विशेषार्थ - श्रहिं धिकार करेला सूर्यानदेवना कृत्यथी प्रतिमानुं पूजन परलोकनी हितार्थता कदेवाय नहि, कारणके " ए यमे पेच्चा हिए " इत्यादि वचनथी "पचा पुरा हिश्राए " एटले पश्चात् पूर्वे हितार्थबे, एवं जे वचन बे, ते धनकर्षण स्थलमां पण कहेलुंबे. एप्रमाणे जिनप्रतिमानी पूजा प्रगटपणे देवतानी स्थितिमात्र, पण धर्मनी हेतुरूप नथी. आवी रीते जे कुमतियो पोकार करेबे, ते जाणे पोताना मस्तक पर रज फेंकता होय तेम गाढ प्रलाप करे. ते गमने विषे कथन करेली, पूर्व ने पश्चात् रम्यतावाली, पूर्व पश्चात् प्रतिमापूजन नी हितार्थता, जे परनवसंबंधी कल्याणना लाजसाथे मलेली बे, अर्थात् उजय लोकनी तारूपे जे परिणाम पामेली, तेने शुं नथी जोता ? तेवी हितार्थतानुं तेमने जे दर्शनबे, ते तेमनो मोटो प्रमादळे. मूलमां जे पूर्वपश्चात् रम्यताविषे वचन कहां, ते राज प्रश्नीय उपांगमां प्रमाणे कह्युं छे. तथाच तत्सूत्रं ॥ "तएणं तस्स सूरियाजस्स देवरस पंचविहाए पऊत्तिए पऊत्ति जावं यस्स समाएस्स इमेयारुवे ऊथिए पथिए महोगए Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 29 ) संकपे समुप्पा किंमे पुव्वे करणिद्यं ? किं पचा कर घिं. किंमेपुधि सेयं किमेपासेयं किंमेपुव्विं पञ्चावि हियाए सुहाए खमाए सेसा णुगामियत्ताए जवस्सर, तरणं तस्स सूरिया स देवस सामायि परिसोववणगादेवा सूरियाजस्स इमेया रूवं ऊथियं समुपपन्नं समनिज्ञाणित्ता जेणेव सूरियानेदेवे तेणेव वागति सूरियानंदेवं करयल परिगहियं दसनहं सिरसावत्तं मध्यए अंजलीं कट्ट जए विजएणं वावेई वचावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाएं सूरियाजेविमाणे सिवाय - तो जिए परिमाणं जिगुस्सेहप्पमाणं मेत्ताणं सहसयं सन्निखिताणं चि सजाए सुमाएणं माणवए चे अखं वइरामएस गोलवट्ट समुग्गए बहु जिएस्स सकहार्ज सन्निखित्तानं चि - पंति तां देवाप्पिएयाणं अन्नेसयं बहुएं वैमाणियाणं देवाण य देवीय पद्यार्ज जावपवास विद्या तं एयणं देवाणु प्पियाणं पुविकरद्यिं एयणं देवाप्पियाणं पञ्चाकर पिकं एय देवाप्पियाणं पुत्रं पञ्चावि हियाए सुहाए खमाए निस्साए आगामियत्ताए विस्स” अर्थ-तेवारे ते सूरियाज देवताने, पांच प्रकारनी पर्यातिए पर्याप्तिज्ञाव पाम्या थकां ( देवताने जा पाने मन एम बने पर्याप्तिसाथे उपजे तेथी पांच कही ) एवा प्रकारनो मनोगत संकटप उत्पन्न थयो, ते कहे. शुं मारे पूर्वे श्रेयकारी ? शुं मारे पनी श्रेयकारी ? शुं मारे पूर्व ने पी हितकारी, पथ्य आहारनी पेरे, सुखने थे, संगतने अर्थे, म ने, निश्रेयस अर्थात् मोहने अर्थे परंपराए शुजानुबंधी शे? तेवारे ते सूर्याजदेवना सामानिक पर्षदामां उत्पन्न श्रयेला Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) देवता, ते सूर्याजदेवतानो एवो अलिप्राय उपन्यो जाणीने, ज्यां सूर्याल देवता , त्यां आवे, सूर्याजदेवने,बे हाथ जोडीने, दसनखनेलां करीने, मस्तके आवर्त करी अंजली जोडी जय विजय शब्दोए करी वधावे. वधावीने एम कहे. निश्चये हे देवानुप्रिय! सूर्याजनामा विमाननेविषे सिघनुं घर अर्थात् देहेरूं, ते देहेरानेविषे जिनेश्वरनी प्रतिमा के, ते प्रतिमा केवी ? तीर्थकरना उत्सेध उंचप्रमाण मात्र, अने तेवी एकसोने आठ स्थापना (प्रतिमा) . तथा सुधर्मा नामा सन्नाने विषे माणवक नामा चैत्यस्तंनो, ते स्तंजनेविषे वजमय गोलवृत्त डाबडा . तेमां घणां जिननी सक्था मे, ते स्थापनाए . ते जिनप्रतिमा तथा सक्था (दाढा) हे देवानुप्रिय ! तमने तथा बीजा पण सम्यग् दृष्टि वैमानिक देवता देवी ने पूजवायोग्य , यावत् सेवा करवायोग्य वे. यावत् शब्दे अहिं इत्यादिक कहेवू. ए तमने पूर्वे करवायोग्य ने, पनी करवायोग्य बे, ए तमने पूर्वे तथा पनी हितकारी, सुखने अर्थे, देमने अर्थे, मोक्षने अर्थे अने शुजानु बंधने अर्थे थाशे. वलीराज प्रश्नीय उपांगमां आ प्रमाणे कडुं ने यथा. “ तएएक केसीकुमार समणे पएसिं एवं वयासी माणं तुमं पएसी पुधि रमणिको पञ्जा अरमणि नवेजासि जहासेवणसंडे इति" श्रा आलावो केशी गणधर अने प्रदेशी राजा संबंधी प्रश्नोत्तरनो विस्तारथी त्यांथी जुवो. अहिं चतुर्थ नागमा विवेकीपणाथी पूर्वे प्रतिपादन करेला दानधर्मना निर्वाह विशिष्ट एवा शीलादि गुणोथी पूर्व अने पश्चात् रमणीय पणुंचे, ते जेम उन्नय लोक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) नो उपयोग जणावे तेवीरीते किंमे इत्यादि प्रश्ननो उत्तर “पुवि पन्चावि" इत्यादि सामानिक देवतार्नु वचन तेम केम न होय, एम अंतरात्मा वडे पर्यालोचन कर. वली " परिनाएमाणे" इत्यादि-अनुकंपामात्र अने शीलवतादि एज रमणीय नावळे, एम विधिमात्र जोतुं सुचवतो होतो, शुंतुं दानधर्मनो विधिपण उन्नेद करवाने तैयार थयोढुं ? अने जो एम होयतो शुं तुंगीया श्रावकना वर्णनमां “पडिलालेमाणे " इत्यादि अधिकारजे, ते तारा समजवामां नथी. ते अंतना अधिकारमा व्याकरणनो आ नश प्रत्यय ते विधि सुचवे . १२ __ पूर्वनी स्थितिविषयनी शंकाने, बीजा समान धर्मने जोइ विस्तारता एवा कुमतियोर्नु उपहास्य करी कहे जे. वाप्यादे रिव पूजनादि विषदां मूर्तेजिनानां स्थितिः, सादृश्यादिति ये वदंति कुधियः पश्यंति नेदं तु न। एकत्वं यदि ते वदंति निजयोः स्त्रीत्वेन जायांबयो, स्तरको वा यततामसंवृततरं वक्रं पिधातुं बुधः ।१३॥ अर्थः-नंदा पुष्करिणी (वापिका) नी जेम देवताउँने तेना सहशपणाथी जिनेश्वरनी प्रतिमानी पूजा स्थितिमात्र . आ प्रमाणे कुमतियो बोले . परंतु तेना नेदने जोता नथी. एवीज रीते कदि ते स्त्रीपणाना सरखा पणाथी पत्नी अने मातानुं एकत्व कहेतो क्यो पंडित पुरुष तेना अतिशय फाटेला मुखने ढांकवाने प्रयत्न करे ? अर्थात् कोइ न करे. १३ विशेषार्थ. नंदापुष्करिणी (वापिकानी) जेम, अहिं विगेरे शब्द Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जे मूलमां ने, तेथी महेंअध्वज, तोरण, सना अने शालभंजिका विगेरे ग्रहण करवा. देवताउनी, जिनेश्वरोनी प्रतिमानी पूजा, स्थितिमात्र , कारण के ते सर्वनुं सदृशपणुं बे, अर्थात् पूजा शब्द सर्वत्र समान बे. श्रा प्रमाणे कुमतियो बोले जे अने तेमां नेद जोता नथी. या प्रमाणे कदि जो ते स्त्रीपणुं सदृश जाणी पत्नी श्रने माता- एकत्व कहे तो क्यो बुद्धिशाली पुरुष तेना अतिशय फाटेला मुखने ढांकवाने प्रयत्न करे ? तेवा अशक्य अर्थमां पंडित पुरुषने यत्न करवानो अवकाश नथी. अहिं प्रतिवस्तूपमा अलंकार वडे घणुं अंतर उतां कांइक सदृश पणानो ज्रम करनारा कुमतियो- उपहास्य थयु. तेने माटे साहित्यमां लखे ने के " कागडामां स्वलावधीज कृष्णता के अने हंसोमां स्वनावधीज श्वेतता . वली बनेमां गंजीरता संबंधी अति अंतर बे, अने वाणीमां जे नेद ने तेनुं तो शुंजवर्णन करीए ? आ वीरीते बनेमां अनेक तफावतवाला विशेषणो बतां जे देशना लोको कागडा अने हंसना बच्चानो तफावत जोवे नहि अने बनेने सरखा गणे तेवा देशने हे मित्र! दूरथीज नमस्कार .” १३ __ हवे प्रतिमा पूजनमां नेदना हेतु बतावी ते नेदने नही जोनाराने आदेप करी कहे . सद्धर्मव्यवसाय पूर्वकतया शक्रस्तवप्रक्रिया, नावत्राजितहृद्यपद्यरचना लोकप्रणामैरपि ॥ दंतेऽतिशयं न चेद् जगवतां मूर्त्यर्चने स्वःसदां, बालस्तत्पथि लौकिकोऽपि शपथप्रत्यायनीया न किं१४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) अर्थः- जिनेश्वर लगवंतनी प्रतिमाना पूजनमां देवताउने चार प्रकारे नेद रहेला . प्रथम नेद, सद्धर्म व्यवसाय पणाश्री जे. बीजो नेद शक्रस्तव ( नमुथ्थुणं ) नी प्रक्रियाथी बे. त्रीजो नेद, नावस्तुतिथी प्रकाशित एवा मनोहर स्तवनोश्री बे, अने चोथो नेद लोक प्रणामश्री के. बालक जेवा द्रुपको जो आ नेदने न जोर शकशे तो तेढ लौकिकमार्ग (नोजनादि ) मां पण बीजाना सोगन उपर केम विश्वास करी शकशे ? १४ विशेषार्थः- बालक जेवा लुंपको देवताउथी कराती जगवंतनी प्रतिमा पूजामां कां विशेष लेद जोता नथी. ते प्रतिमा पूजन चार नेदथी करे बे. सधर्म व्यवसाय, शक्रस्तव प्रक्रिया विगेरे पदोथी नेद थाय जे. प्रथम नेदमां सधर्मना व्यवसाय पूर्वक जिनप्रतिमान अर्चन , ते नंदापुष्करिणी वापिकाना आनुषंगिक ( अवांतर ) पणे पूजननुं नेदक , अर्थात् पृथकपणुं बतावनारुं . ते सधर्मना व्यवसायनो नाव व्यवसाय सनामां संनवता क्योपशमनुं निमित्त बे, अने जावानुगत सम्यग् दृष्टिनी क्रियानुं बीजी क्रियानी जेम धर्मपणुं . व्यवसायसन्ना शुल अध्यवसायनुं निमित्त ने अने तेना क्षेत्रादिकपण कर्मक्षयोपशम विगेरेना हेतु रूप से, ते जिनशासनमां असिड नथी. जे अनुग त धर्म व्यवहार बे ते तो शुद्ध चित्तने पुष्टि करनार अनुगत एवी क्रिया अने ते चोथा गुणस्थानकनी क्रियाने अनुसरती जे, तेमज दर्शनना आचार रूप . तेथी दर्शन व्यवसाय रूप जिनप्रतिमानी अर्चा विगेरे देवताउने सिद्ध . ते विषे श्री गणांग सूत्रमा कडं वे के “ सम्यक् धर्म व्यवसाय त्रण प्रकारनो Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) बे. १ ज्ञान व्यवसाय, २ दर्शन व्यवसाय ३ चारित्रव्यवसाय. " हवे बीजो भेद कहे बे. बीजाभेदमां, शक्रस्तव प्रक्रिया ए प्रसिद्ध प्रणिपात दंडकनो पाठ . ते शक्रस्तवनो पाठ नंदापुष्करिणी वापिकानुं पूजन करतां तेनी श्रागल - पातो नथी, पण अर्हत् प्रतिमानी गलज जाय. वली ते सर्व संपत्तिना जावसाथे जायबे. बीजे स्थितिमात्रमां ते नाव जाय नहीं. हे प्रभु! तमे तयी बो, तमे तारक बो एवा नाव जिन प्रतिमा शिवाय बीजे अभिनय करी शकाय नही, अने नियादिकना व्यापारविना शांतरसनो स्वादपण नमले. तेथी ज्यां ज्यां जेवी जेवी योग्यता होय, त्यां त्यां तेवी तेवी सहृदय पुरुषो योजना करवी. त्रीजा शेदमां, जाव एटले पोताना पाप जुगल निवेदन करी स्तुति करवी इत्यादि. ते स्तुति गंजी - राशयवाला मनोहर पद्य जेनी संख्या एकसोआव बे तेवा पद्यो नी प्रतिमा गत रचना करवी, कारणके सुत्रमां जावस्तु तिने मांगल्यन हेतु रूप कथन करेल. या जाव स्तुति धर्मनी अपे ana, तेथी नंदापुष्करिणी वापिकानी गल कोइए तेवी स्तुति करेली नथी. चोथोनेद आलोक प्रणाम. जे जिन प्रतिमानेज थाय बे. जेने माटे " तत्रालोएपणामं करेइत्ति " एवो पाठ बे. बीजे ठेकाणे ( वापिकादिमां ) तेम यतुं नथी. श्रप्रमाणनो विनय विशेषपण, धर्मनी अपेक्षा राखनारोडे. श्रावी रीते श्रा पदोथी चार प्रकारे ते प्रतिमा पूजनना जेदबे, तेमवतां विशेष दर्शनना हेतुनी शक्तिश्री रहित एवा ते बालक लुंपको ते नेदोने न मानेतो, पबी लौकिक व्यवहारना मार्गमां एटले जोजनादि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) कार्यमां पण ते सोगन खानारा उपर विश्वास केम करी शकशे. सारांश ए डे के स्त्रीना हाथमा रहेला नोजनमां वा शिप्योए वोरी लावेला आहारमां आते शुं अन्न हशे के पुरीष? एवो संशय करता विराम पामशे नहीं. १४ हवे स्थितीने उद्देशीने कहे. नव्योन्यग्रगबोधिरपजवनाक् सदृष्टिराराधको, यश्चोक्तश्चरमोईता स्थितिरहो सूर्याजनाम्नोऽस्य या सा कल्पस्थितिवन्न धर्मपरतामत्येति नावान्वया, न्माकाथुममत्र केपि पिशुनैः शब्दांतरैर्वंचिताः॥१५॥ अर्थ-श्री महावीर प्रनुए जे सूर्यानदेवने, जव्य, सुलनबोधि, अपसंसारी, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानादिकनो आराधन करनार, अने चरम (अपश्चिम जववालो ) कहेलो, ते सूर्याजदेवनी जे स्थिति बे, ते शुजन्नावना संबंधश्री कल्प (आचार ) स्थितिनी जेम धर्म व्यवहारनी विषयताने नवंघन करती नश्री. तेथी अधिकारमां नीच शब्दांतरथी बेतरायेला कोइपण लोको ज्रममां पडशो नहीं. अर्थात् आ धर्म नथी परंतु स्थिति एवो व्यामोह करशो नहीं. १५ विशेषार्थ-श्रीमहावीर परमात्माए ते सूर्यानदेवने केवो कह्यो ? ते विशेषणोथी कहे. ते सूर्याजदेव जव्य अर्थात् नवसिधिवालो, सुलनबोधि अर्थात् समीपगत बोधिवालो, अल्प संसारी अर्थात् अपनव करनार, सम्यग्दृष्टि अर्थात् समीचीन दृष्टिवालो, ज्ञानादिकनो आराधक अने चरमन्नवी अर्थात् अप Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) श्चिम नववालो ने, अहो! आश्चर्य ले के एवा ते सूर्याजदेवनी जे स्थिति ते स्थिति कट्पस्थितिनी जेम धर्मव्यवहारना विषयने उलंघन करती नथी. शाथी ? शुन्जनावना संबंधथी. श्रा अधिकारमा नीच शब्दोथी मोहने प्राप्त श्रयेला केटलाएक लोको ज्रममां पडो नहीं. अर्थात् आ सूर्याजदेवना संबंधमां धर्म नथी पण स्थिति , एवा ब्रममां पडो नहीं. ते सूर्याजदेवमां जव्यत्व विगेरे गुणो हता ते निश्चय करावनारां आ वचनो . यथा “ अहन्नं नंते सूरियानेदेवे किं नवसिहिए” इत्यादि पाठ राजप्रश्नीय उपांगथी जाणवो. अहिं मूल वृत्तिमांथी एटलु जाणवायोग्य ने के, ज्योतिष विमानाधिपति सुधीना सर्व विमानपति देवताउँने सम्यक्त्व तथा अन्य सम्यक्त्वादि थायज , तेथी तेउनुं पूजादि कर्तव्य निश्चयपणे कहेलुं ने, अने मिथ्याहष्टि देवताउनेतो विमाननुं अधिपतिपणुं होतुंज नथी, तेथी ते कर्तव्य संजवेज नहीं. १५ अहिं शंका थाय के देवतापण अधार्मिक कहेवायचे, तो तेउनुं कृत्य प्रमाण न गणाय. ते शंकानुं निराकरण करवानी इच्छाश्री कहे. सद्भक्त्यादिगुणान्वितानपिसुरान् सम्यग्दृशो येध्रुवं मन्यते स्म विधर्मणो गुरुकुलभ्रष्टा जिना द्विषः। देवाशातनयानया जिनमतान्मातंगवदले निरे, स्थानांगप्रतिषिच्या विहितया ते सर्वतो बाह्यतां॥१६ अर्थ-गुरुकुलथी नष्ट थई, स्वछंदपणे विहार करनारा, जे Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) जिन प्रतिमाना क्षेषी कुमतियोए सद्लक्ति, वैयावृत्य विगेरे गुणां युक्त सम्यग् दृष्टि देवताउने निश्चयथी धर्मरहित मान्या ने, ते स्थानांग सूत्रमा निषिद्ध करेली आ अवर्णवादरूप आशातनावडे चंडालनी जेम सर्व जिनमतथी बाह्यताने प्राप्त थयेला.१६ विशेषार्थ-नथी-आ श्लोकमां व्यंगार्थनी प्रतीति , तेश्री श्री हेमाचार्यजीए कथन करेला लक्षण प्रमाणे पर्यायोक्त अलंकार थायडे, तेमज गम्योत्प्रेक्षा अलंकार पण थायजे. हवे देवताउँमां धर्मस्थापक गुणोदर्शावी बीजानो आदेप करे के शकेवग्रहदातृता व्रतभृतां निष्पापवाग् जाषिता, सबर्माद्यनिलाषिता च गदिता प्रज्ञप्तिसूत्रे स्फुटं । इत्युच्चैरतिदेशपेशलमतिः सम्यग् दृशां स्वःसदां, धर्मित्वप्रतिनूःखलस्खलन कृर्म स्थितिं जानतां॥१७ अर्थ-प्रज्ञप्ति सूत्रमा शक इंजनेविषे, व्रतधारी साधुउने अवग्रह आपवो, निर्दोषवाणी बोलवी अने मुनियोने सदा शाता विगेरे श्ववी, इत्यादि धर्मस्थापक गुणो स्फुटरीते कहेलावे.आ प्रकारे शुद्ध सम्यग्दृष्टिवाला देवताउनी बुद्धि, धर्मनी व्यवस्थाने जाणनारा सह्रदय पुरुषोने धर्मिपणानी सादी रूप. सदृशपणाथी रमणीय चे, अने दुर्जन प्रतिवादीनो परानव करनारी जे. विशेषार्थ-नश्री. देवताउनुं नक्तिकृत्य मुनियोने अनुमोदवा योग्य नथी, अने तेथी ते कृत्य धर्म न कहेवाय एवी गूढ आशयवाली शंकाने असिद्ध करी तेनुं निराकरण करे. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) देवानां ननु जक्तिकृत्यमपि न श्लाघ्यं यतीनां यतः, सूर्याजः कृतनृत्यदर्शनरुचिप्रश्नोईतानाहतः । हंतेयं जडचातुरी गुरुकुले कुत्र त्वया शिक्षिता, सर्वत्रापि हि पंडितैरनुमतं येनानिषिकं स्मृतं ॥ १७।। __ अर्थ-देवताउँनु नक्तिकृत्य मुनियोने अनुमोदन करवा योग्य नथी, कारण के श्री महावीर लगवंते नृत्य करवानी रुचि श्रवाश्री प्रश्न करनारा सूर्याजदेवने आदर आप्यो नहतो. दीलगीरी के के हे जम! आवी कल्पना करवानी चातुरी तुं कया गुरुकुलमां रहीने शीख्योबु ? के जे कृत्य सर्व संप्रदायमां पंडितोए अनिषिद्ध अने अनुमत करेलुं . विशेषार्थ-देवताउँनुनक्तिकृत्य जे प्रतिमा पूजनादि, ते मुनियोने अनुमोदन करवायोग्य नथी, तेथी ते धर्म नथी. वंदनादि जो अनुमोदन करवायोग्य होय तोज धर्म गणाय. " पोराणमेयं सूर्याला” ए गाथार्थमां कहेलु के के चारे निकायना देवताः अर्हतप्रनुने वंदना करी पोतानां नाम, गोत्र संललावेने, इत्यादि ते स्थले जोर लेवु. वली तुं कहे डे के “ सूर्यानदेवे श्री महावीर प्रनुपासे नृत्य करवा प्रश्न को तेना उत्तरमां लगवंते तेने आदर करेलो नथी” अहिं उत्तरमात्र एज ने के आवी चातुरी हे जड! तुं कया गुरुकुलमां रहीने शिख्यो? जेथी तुं आ मुनियोनी अनुमोदनानो निषेध करे, कारण के सर्व संप्रदायमां तेविष पंडीतोए निषेध कर्यो नथी, अने तेनी अनुमोदना करवी कहेली . १७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) उपर सूर्यानदेवे करेला नृत्यविषना प्रश्नमां श्री वीरप्रन्नु मौन रह्या, तेमां शुं बीज जे. ते कहे . श्छा स्वस्य न नृत्यदर्शन विधौ स्वाध्यायनंगः पुनः, साधूनां त्रिदशस्य चातिशयिनी नक्तिवध्वंसिनी। तुल्याय व्ययतामिति प्रतियता तूनी स्थितं स्वामिना बाह्यस्तत्प्रतिषेधको न कलयेत्तदंशजानां स्थितिर अर्थ-श्री वीतराग देवने नृत्य जोवानी इछा नहती, कारण के ते वीतराग , अने गौतमादि साधुऊने नृत्य जोवामां स्वा. ध्यायनो नंग थाय, ते पण अनिष्ट गणाय. वली सूर्याजनी नक्ति संसारने नाश करनारी अतिशयवाली , तेथी तेनुं नृत्य जोवामां समुदायनी अपेदाए सरखी लाल, हानि केवलज्ञानना बलथी जोता एवा श्री वर्धमान स्वामि मौन धरी रह्या हता. शासनथी बाह्य श्रयेला लुंपक कुमति श्री वीर परमात्माना वंशमां उत्पन्न श्रयेला साधुनी आ मर्यादा जाणे नहीं. बाहिर रहेलो माणस बीजाना कुलनी मर्यादाने केम जाणी शके ? १ए विशेषार्थ-यत्किंचित् नपरना नाषांतरमा समायो बे. हवे प्रनुनी वाणीना क्रमनी विचित्रता दर्शावे बे. सावधं व्यवहारतोपिनगवान् साक्षात् किलानादिशत् बल्यादि प्रतिमार्चनादि गुणकृत् मौनेन संमन्यते । नत्यादि युसदां तदा चरणतः कर्त्तव्यमाह स्फुटं, योगेला मनुगृह्य वा व्रतमऽतश्चित्रोविजोर्वा क्रमः ५० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) अर्थ-श्रीवर्धमान स्वामि, बलिदान अने प्रतिमार्चन विगेरे व्यवहारथी सावद्य ने, तेथी तेने सादात् आदेश नहि करतां, ते गुणकारी ने, एम मौन धारणकरी प्रवर्तीवेने. अने देवताउँने तेमनी वंदना विगैरे तेमना आचरणनो आश्रयकरी स्फुटरीते कर्त्तव्यतरीके जणावे. वली लगवान् श्चायोगी प्रत्ये योग्य श्वानो अनुग्रह करी तेमने व्रत कहे, तेथी प्रनुनी वाणीनो क्रम विचित्र प्रकारनो के. २० विशेषार्थ-नगवान् वर्षमानस्वामी बलिदान विगेरे तथा प्रतिमापूजन विगेरे, जे स्थूल व्यवहारथी पण सावध , तेने साक्षात् कंगना शब्दथी आदेश नहि करतां मौनवडे गुणकारक माने , अर्थात् मौनतारूप विधिवडे तेने प्रवर्तीवे . तेथी एम समजवु के अप्रमत्त साररूप श्री परमात्मानो उपदेश पोतपोतानी योग्यतापूर्वक अपुनर्बधकपणे तेवा विषयमा प्रवर्ते ने, एज तेमनी वाणीना अतिशयनो विलास जे. श्री वीरजगवंत देवताने वंदनादि व्यवहार तेना आचरणने लइने स्फुटरीते कर्त्तव्य तरीके कहेने, एथी कहे जे के “सूर्यानोदेवानुप्रियंवंदे" ( सूर्याजदेवानुप्रिय वंदना करे ने ) इत्यादि उक्तिमां लगवंते कां के "पोराणमयं” आनाट्यकरणादि उपासनानो पण उपदेश ने. जो तेम न होय तो " जाव पज्जुवासामि” एना उत्तरना अनावथी न्यूनतानी प्राप्ति थाय. वली नाम, गोत्र श्रवण कराववानो विधि स्वतंत्र नथी, परंतु करवाने श्वेला साधनने अनुकुल एवी प्रतिज्ञाविधि अवशेष होवाथी तेनो उपयोग मे, अने तेथी विशेषवालानो श्रादेप करवो सुगम थायजे. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) या तेथ तेमां जे व्युत्पन्न थयेला बे, तेमने अहिं कोई जातनो व्यामोह नथी. एवीरीते श्रीजगवान् वीरप्रनु प्रवृत्तियोगी प्रत्ये चारित्र व्रत स्फुटते कहे. " एवं देवाणुपियागंतव्व " इत्या दिवाक्य वायोगी प्रत्ये योग्य छानो अनुग्रह करी व्रत कहे. " हासु देवाणुप्पियामा पडिबंध करेत्ति " प्रमाणे लाने अनुकूल एवी जाषाथी कहे. अहिं मूलमां वा शब्द व्यवस्था अर्थमां बे. एवीरीते श्री जगवंतनी वाणीनी रचनानो क्रम विचित्र प्रकारनो बे. तेथी तेमनुं मौन पण विनीत ने अनि पुरुष प्रत्येवानी अनुकूलता प्रगट करनारुं बे. बुद्धिमानू पुरुषोनी प्रवृत्ति तात्पर्य अनुसरीनेज होय, तेथी जगवंते पोताना व्यवहारने अनुसरी मौन कयुं, पण परिणामी बुद्धिवडे पोताना कृत्यने साध्य एवा इष्टना साधनादिकने अनुसरी सूर्यादेवे नृत्य करवानो आरंभ कर्यो हतो, इत्यादि. विशेष विवेचन श्री राजप्रश्नीय वृत्तिमांथी जाणी लेवुं. २० एक अधिकारमां सरखा लाज छाने हानि होवाथी क्तिकार्यमा प्रजुने मौन राखवं योग्य बे, एवा लुंपकना मतनो निषेध करेने. दानादाविव जक्तिकर्मणि विनुदोंषान्निषेधे विधौ, मौनी स्यादिति गीर्मृषैव कुधियां दुष्टे निषेधः स्थितेः । अन्यत्र प्रतिबंधतोऽननिमतत्यागानुपस्थापनात्, प्रज्ञाप्ये विनयान्विते विफलता द्वेषोदयासंजवात् २१ अर्थ- जे श्रावको दान पे तेमां विधि, निषेध ( हा, ना ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) कहेवामां दोष लागेने, तेवीरीते नक्तिकर्ममां पण विधि, निषेध करवामां दोष लागे. एq धारी प्रन्नु हा, ना नहीं कहेतां मौन धरी रह्या. आवी मुष्ट कुमतियोनी वाणी तदन मिथ्या ने.कारण के जे दोषवान् होय तेने प्रतिबंध करवानी जो शक्ति न होय तो उत्तमपुरुष मौन धारण करने, अथवा पुरुष जो विनीत होय तो तेने निषेध करवामां निष्फलतानो असंनव तथा शेषना उदयनो असंनव जे. विशेषार्थ-दानशील एवा श्रावको दान आपता होय तेमां जेम विधि, निषेध करवाथी दोष लागे तेथी मौन राखq योग्य बे, तेम नक्तिकर्म जे नृत्य जिनपूजा विगेरे तेमां निषेध वा विधि करवामां दोष लागे. के जे दोष बने रीते पासला जेवो जे. तेथी ते वखते मौन राखq योग्य . कारण के दाननो निषेध करे तो अंतराय थाय अने करवाने कहे तो जीव हिंसामा अनुमति थाय, तेथी साधुने मौन राखq उचित . ते विषे श्री सूत्रकृत सिद्धांतमां कह्यु बे के " जे अदाणं पसंसंति वहमिछति पाणीणं जे अणं पडिसेहंति वित्तियं करेंतिते"॥१॥ उहतोवितेण नासंति अश्थिवा पश्थिवा पुणो, आयं रहस्स हिच्चाणं निव्वाणं पाजणंति ते॥॥इति" नावार्थ एवोने के जे दाननी प्रशंसा करे,ते प्राणि वधने इच्छेने, अने जे दाननो निषेध करेने ते अंतराय बंध करेले; पण जे हा के ना नहीं कहेतां मौन राखे ते निर्वाण पामे बे. तेवीज रीते जक्तिकर्ममां पण जो निषेध करे तो नक्तिना नंगनो जय लागे, अने करवाने अनुमोदे तो घणा प्राणिनी हिंसानो लय, तेथी मौन राख, योग्य . आवी ते कुमतियोनी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) वाणी मिथ्याज . कारण के दोषवानने विषे निषेध व्यवस्था करवी तेनो हेतु ते कार्य परत्वे प्रतिबंध करवो उचित ने तेज वे. वली अनिष्ट त्यागपरत्वे अनुकुल शक्तिनो अनाव होयतो मौन राखqयोग्य जे. जे पुरुष विनयवान तेने विधि, निषेध विफलचे कारण के क्षेषना उदयनो असंनव जे. आवो अन्वयार्थ बे, तेनो विस्तरार्थ कहे. प्रतिबंध एटले व्याप्ति. अहिं प्रतिबंधाकार आवो जे. जेनामां जेनाथी दोषवालुं जणाय तेमां तेनो निषेध करवो. हवे तेमां एवो व्यभिचार आवे ने के, उष्ट एवा आहार दाननो निषेध करवाने व्याख्यान करवानी शक्तिनो अन्नाव होयतो तेने अनुकूलतानी विरूपताथी अटकावq. आ व्यनिचारमा कहे के जे अनिष्ट एवो त्याग होय ते परत्वे अननुस्थापन एटले अनुकूल शक्तिनो अनाव होयतो तेनाथी मौन राखq. ते विष श्री आचारांगमां कडं बे के, जे पुरुष बीजानी समान न होय तेने तर्कथी जाणी विधि, निषेध करवो. जो ते पुरुष उपर आपणुं सामर्थ्य न चाले तेम होयतो वाग्गुप्ति करवी, तेथी एवो सिद्धांत थयो के जे उष्ट होय तेने, जो शक्ति होयतो निषेध करवो अने प्रतिपदी अत्यंत उष्ट होयतो सिछांती तेने निषेध करे नहीं, परंतु वाग्गुप्ति राखी बेसे, अने तेम करे तेथी कांई दोष लागे नहीं. ते विषे सिद्धांतमांकयुं ले के " अवावाया उविउंति तंजहा अश्थिलोए पश्थिलोए" इत्यादि नावार्थ एवो ने के. " अस्ति ” “ नास्ति' " ध्रुव" " अध्रुव " इत्यादि त्रणसो त्रेस एकांत वादीने वादलब्धिवालो विचराण पुरुष प्रतिज्ञा, हेतु तथा दृष्टांतना उपन्यासथी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) तेमनो पराजय करवा सारी रीते उत्तर आपे, अने जो तेम बनी शके तेवू न होयतो वागगुप्ति करे अने कहे के मारो श्रा मत. आ फलितार्थ जे. जमालिए जुदो विहार करवाने श्रीवीर परमात्माने पुग्युं. लगवंत तेनी उष्टताने जाणता हता, तेथी निषेध कर्यों नहीं अने मौन रह्या. तेमां कांई प्रनुने दोष लाग्यो? अविनीत पुरुष आगल सत्य वचननो प्रयोग सफल थाय तोपण ते असत्य वे. यथा “ अविणीय माणवंतो किलेस्सईनास मुसंवेव” इत्यादि तथा जे पुरुष प्रज्ञप्ति करवायोग्य अर्थात् विनयवान होय तेवा पुरुषने निषेध करवामां निष्फलता अने श्रोताने देषना उदयनो असंनव बे. ते कारणने लश्नेज विनीत एवा सूर्याजदेवे प्रजुने नृत्य विषे पुरतां प्रनुए जे मौन धारण कर्यु ते मौनज प्रनुनी संमत्तिने सूचवी आपेले. १ हवे निषेध कर्यावगर संमति आपवानुं दृष्टांत आपी सिद्ध करे. झातैः शल्यविषादिगिर्नु जरतादीनां निषिद्धा यथा, कामा नो जिनसद्मकारण विधिय॑क्तं निषिद्धस्तथा । तीर्थेशानुमते पराऽननुमते व्यस्तवे किं ततो, नेष्टा चेज्ज्वरिणां ततःकिमु सितामाधुर्यमुन्मुंचतिश्श अर्थ-शट्य, विष विगेरेनां दृष्टांतो आपी जेम जरतादिकनी वांना निषेध करेली , तेम श्री जिनालय कराववानो विधि स्पष्टपणे निषिच कर्यो नश्री. जेथी तीर्थकरोए संमति आपी मानेला एवा अव्यस्तवमां बीजा देषीनी अनुमोदना न श्राय Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) तेथी शु? अर्थात् कां नहीं. कदि ज्वरातुरमाणसोने साकर इष्ट न होय तेथी शुं ते पोतानी मधुरता गेडी देशे? २२ बिशेषार्थ-जेवी रीते शट्य, विष विगेरे दृष्टांतो आपी नरत विगेरेनी कामना निषिद्ध करेली , तेवी रीते जिनालय कराववानो निषेध कर्यो नथी. आगममां कां ने के “थुन्नसय नाजयाणं अगसीयंच जिणघरेकासी ” जो ते कार्य दोषित होत तो कामादिकनी जेम तेनोपण निषेध करत. तेज लावार्थनी गाथा कहे. “उसरणे बलिमाश् जरहाणन निवारियंतेण जहते सिंचिय कामासह विसाइहिंणा एहिंति" ॥ एवी रीते तीर्थकरोए अनुज्ञा आपी संमत करेला प्रव्यमां कदि बीजा क्षेषीनी अनुमोदना न होय तेथी | थाय? आ वचनने प्रतिवस्तूपमा अलंकारथी दृढ करे. जो ज्वरवाला माणसने साकर इष्ट न होय तो तेथी शुं ते पोताना स्वन्नावसिद्ध माधुर्य गुणने गेडी देशे अर्थात् नहीं गेडे. तेम जगवंते स्वीकारेला व्यस्तव, बीजाना क्षेषमात्रयी शुं असुंदरपणुं श्रशे? २२ व्यस्तवमां मुनिनी अनुमोदना करवानी योग्यता ने तेने सूत्रन्यायवडे स्थापन करी बीजानो आक्षेप करे. साधुनां वचनं च चैत्यनमनश्लाघार्चनोद्देशतः , कायोत्सर्गविधायकं ह्यनुमतिं व्यस्तवस्याह यत् । तत्किं खुपक लुपतस्तवनयं उःखौघहालाहल , ज्वालाजालमये नवाऽहिवदने पातेन नोत्पद्यते॥२३॥ अर्थ-चारित्रवाला साधुउनु, कायोत्सर्गनी प्रतिज्ञाने करनालं. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) जे वचन, चैत्यनी वंदना, श्लाघा अने पूजाना उद्देशथी अव्यस्तवनी अनुमति कहे, ते वचननो लोप करनारा हे द्रुपक! मुःखसमुहरूप हलाहल विषनी ज्वालाजालरूप एवा संसाररूप सर्पना वदनमां पडवानो लय शुं तने नथी लागतो? २३ विशेषार्थ-साधुनु-परमार्थथी चारित्रने धारण करनारा मुनियोनुं वचन उव्यस्तवनी अनुमोदनाने सूचवे. जे वचन कायोत्सर्ग करवानी प्रतिझाने प्रतिपादन करनारं, ते चैत्यनी वदना, प्रशंसा अने पूजाना उद्देशथी व्यस्तवनी अनुमोदना कहे. हे बुंपक! ते वचनना लोप करनारा, तने आ जवरूपी नुजंगना मुखमां पडवाथी शुं जय नश्री लागतो? व्यंगार्थ एवो डे के, ए अयुक्त जे के नहीं ? ए लव तुजंगर्नु वदन (मुख) मु:खना समुहरूप हलाहल विषनी ज्वालानी जाल सरखं बे. ते उपर आ प्रमाणे स्पष्ट सूत्र वचन बे. “ अरिहंत चेश्याएं करेमि काउस्सग्गं, वंदणवत्तिआए, पूणवत्तिएत्ति” श्रा सूत्रनो एवो अर्थ बे के-अर्हत अर्थात् नाव अर्हतना जे चैत्य एटले चित्त समाधिने उत्पन्न करनार प्रतिमा लक्षणरूप, तेमने वंदनादिकनी प्रतीतिरूप हुँ कायोत्सर्ग करुंबु. कायोत्सर्ग एटले स्थान, मौन अने ध्यान विना बीजी क्रियानो त्याग तेने हुं आचरूंचं. ते शा निमित्ते आचरूंबु. “वंदणवत्तिाए” वंदन अर्थात् श्रेष्ठ मन, वचन, कायानी प्रवृत्ति ते निमित्ते, अर्थात् वंदनश्री जेवू पुण्य थाय तेवू कायोत्सर्गथी पण मने पुण्य था. " वत्तियाए” ए रूप आर्ष (रुषिप्रयोग) होवाश्री सिद्ध थाय. “पूश्रणवत्तिाए” पूजन अर्थात् गंध माल्यादि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) वडे अर्चन इत्यादि पूजनथी जे फल प्राप्त थाय ते कायोत्सर्गश्री प्राप्त था, इत्यादि- २३ व्यस्तव ते नक्ति अने हिंसा, बन्नेश्री मिश्र होवाथी एकनी अनुमोदना करवाथी बीजानी अनुमोदना केम न थाय? आ प्रकारनी शंकाने नाश करता कवि पोतानी विपत्ता जणावे. किं हिंसानुमतिर्न संयमवतां अव्यस्तव श्लाघये , त्येतब्बुपक् बुब्धकस्य वचनं मुग्धे मृगे वागुरा। हृद्याधाय सरागसंयम व त्यक्ताश्रवांशाः स्थिता, जावांगांशमदूषणा इति पुनस्तछेदशस्त्रं वचः॥२४॥ अर्थ-संयमधारी अर्थात् चारित्रवाला पुरुषोने व्यपूजानी अनुमोदना करवाश्री शं हिंसामा अनुमति न कहेवाय? अर्थात् कहेवाय. ते दया रसिक पुरुषो जुर्म. आq लुंपक उर्मतिरूप शिकारीनुं वचन बंध पाशरूप बे. पाशरूप कोने जे? ते कहेले. मुग्ध अर्थात् जेणे बाह्य धर्माचार मात्र श्रवण कों ने एवा हृदयवाला मृगरूप मनुष्योने अहिं मुग्धपद अझ अने अश्रोतापणुं बतावेने. व्यंगार्थ एवो बे के जेणे ते वचन सांनट्युं ते मरेलोज समजवो. अमारा संप्रदायर्नु वचन ते धर्मतिरूप शिकारीना पाशने बेदवामां शस्त्र तुट्य . या व्यस्तव जे प्रव्य अने जावात्मक चे, तेमां नाव जेनो अंगजूत तेवा अंशने ह्रदयमां स्थापन करी अमे दोषरहित रह्या बीए. चारित्रनी जेम- सर संयममा आश्रवनागनी उपेक्षा करी अमे रह्या जीए. जावार्थ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) एवो बे के, जेम सराग संयमनी अनुमोदना करवाथी ते अनुमोदना करनारनी कुक्षिनी अंदर राग पेसी जतो नथी, तेम व्यस्तवनी अनुमोदना करवाथी तेमां हिंसानो जाग पेसी जतो नथी. संयमपणानी अनुमोदना करवामां रागनो अंश प्रास यतो नथी; अने व्यस्तवनी अनुमोदना करवामां हिंसानीतो प्राप्तिज नथी. २४ विशेषार्थ- मूल अर्थमा समावेलो बे. अव्यस्तव उपदेश करवा योग्य न होवाथी अनुमोदवा योग्य नथी, एवी लुंपक मतिनी वाणीने निरास करवा कहेते. मिश्रस्यानुपदेश्यता यदि तदा श्राद्धस्य धर्मस्तथा, सर्वः स्यात्सदृशी नु दोष घटना सौत्रक्रमोल्लंघनात् । तत् सम्यग् विधिनक्तिपूर्व मुचितद्रव्यस्तवस्थापने, विद्मो नापरमत्र लुंपक मुखम्लानिं विना दूषणं ॥२५॥ अर्थ :- जो मिश्र व्यस्तव साधुजेन उपदेश करवा योग्य न होय तो, श्रावकनो सर्व धर्म उपदेश करवा योग्य न थाय. कारण के तेमां पण दोषनी घटना, सूत्रना क्रमनुं उल्लंघन कर - वाथी सरखीज बे. तेथी सम्यक् प्रकारे विधि नक्तिपूर्वक योग्य एवा प्रव्यस्तवनो उपदेश करवामां, ते लुंपक मतिना मुख उपर येली ग्लानि शिवाय बीजुं दूषण श्रमे जाणता नथी. विशेषार्थ - नथी .. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) व्यस्तवमां हिंसानी अनुमोदना संबंधी विशेष जावथी सामान्य जाव बे, ते कहे बे. नाशंसानुमतिर्दया परिणति स्थेयार्थ मुद्यता, संवासानुमतिस्त्वनाय तनतो दूरस्थितानां कथं । हिंसाया निषेधनानुमति रप्याक स्थितानां न यत्, साधूनां निरवद्यमेव तदिदं द्रव्यस्तव श्लाघनं ॥ २७ ॥ अर्थ :- दयाना परिणामनी स्थिरताने माटे उद्यमवंत साधुने हिंसानी अनुमोदना गायज नहीं. तेमज हिंसाना स्थानश्री दूर रेहेनारा साधुर्जने त्यां वास करवानी अनुमति क्यांश्री होय. वली आज्ञा प्रमाणे वर्तनारा साधुर्जने हिंसाना निषेधनी अनुमति पण नथी तेथी तेजनाथी श्रती प्रव्यस्तवनी श्लाघा निर्दोषज ने. विशेषार्थ :- " श्री अरिहंत जगवंतनी पूजाना दर्शनश्री घ जीवो सम्यग् दर्शन निर्मल करी, चारित्रनी प्राप्तिवडे सिद्धिप्रासाद उपर आरुढ था " एंवी जावनाथी पूजा करवी जोइए. वी दयाना परिणामनी स्थिरता माटे उद्यमवंत साधु ए हिंसानी अनुमोदना करी न गाय. कारण के उपदेशफलनी वामां हिंसानो विषय आवतोज नथी. वली हिंसाना स्थानथी दूर रहेनारा साधुर्जने त्यां वास करवानी अनुमोदनातो शी रीते होय ? हिं जो पुष्पादिकनुं स्थान ते अनायतन कहेलुं होय तो समवसरणमा रहेला मुनियोने पण अनायतनवतीं थवानो प्रसंग वे. देवगृहमां पण त्रण स्तुति कर्या पनी वधारेवार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) रेहेवानी साधने आज्ञा नथी, परंतु विधि वंदनादिकने माटे रेहेवामां दोष लागतो नथी. वली आज्ञामां रहेला अर्थात् क्रमना विरुद्ध उपदेशनी आज्ञा प्रमाणे वर्त्तनारा साधुर्जने हिंसाना निषेध अनुमोदना पण न होय. ते कारणथी प्रव्यस्तवना महात्म्यने प्रकाश करवुं, ते शुजानुबंधी होवाथी साधुने निर्दोषबे. २६ हिं को शंका करे के, साधुर्जने जो प्रव्यस्तव अनुमोदवा योग्य होयतो तेनुं कर्त्तव्यपणुं पण तेने प्राप्त थाय, जो तेम होयतो शुं स्वतंत्र साधन बे ? वा प्रसंगथी संपादन थयेलुं साधनबे ? प्रथम पक्षतो घटतोज नथी, कारण के साधुना कर्त्तव्यपणाने चित नहीं होवाथी ते असाध्यवे. तेथी हवे बीजा पद माटे कहे बे. साधूनामनुमोद्यमित्यथ न किं कर्त्तव्यमर्चादिकं, सत्यं केवलसाहचर्यकलनान्नेष्टानुमानप्रथा । व्याप्तिः क्वापि गता स्वरुप निरयाचाराडुपाधेस्तव, कीवस्येव वृथा वधू निधुवने तद्बालतर्फे रतिः ॥ २७ ॥ अर्थ- जो व्यस्तव साधुने अनुमोदवा योग्य होय तो पूजा विगेरे केम कर्त्तव्य नथी ? तमारो प्रश्न सत्यबे, परंतु केवल साह चर्यने गल करी तेवुं अनुमान करवुं ते इष्ट नथी. ते अनुमोदना स्वरुपे निर्दोष आचार रूप उपाधिथी तने प्राप्त थयेली व्याप्तितो दूर नाशी गई. माटे हे बालक जेवा अविवेकी दुर्मति Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (MR) स्त्रीना रंति विषयमां थयेली नपुंसकनी प्रीतिनी जेम, आ तारी तर्क शास्त्र उपरनी प्रीति वृथा बे. २७ विशेषार्थ - जो व्यस्तव साधुने अनुमोदवा योग्य होय तो जिनपूजननी कर्त्तव्यता तेमने केम न होय ? जे अनुमोदवा योग्य होय ते करवा योग्य होय, छाने जे करवा योग्य न होय ते अनुमोदवा योग्य न होय. हे कुमति ! या तारूं अनुमान उपर चोटीच्या प्रसंग उपरथी युं परंतु मात्र साहचर्यने गल करी वुं अनुमान करवु, इष्ट नथी. अहिं साहचर्य अर्थात् व्याप्ति. जेमके जे जे अनुमोदन करवा योग्य होय, तेते कर्त्तव्य होय बे. श्रहिं ते व्याप्तितो क्या दूर नाशी गई, अने ते स्वरूपना निर्दोष आचारनी उपाधिना कारणथी नाशी गई. एटले ज्यां साधु कर्त्तव्यपणुं वे त्यां स्वरूपथी निर्दोषपणुंबे, छाने ज्यां अनुमोदवा योग्यपणुं बे त्यांपण स्वरूपथी निर्दोषपणुं बे. हवे कहे के कारणथी करवा पडेला वर्षाविहारादि तथा नदी उतरवा विगेरे संयमना अवलंबना दिकना अनुमोदनमां तारी व्याप्ति केम नथी ? इत्यादि. या प्रमाणे कुमति तर्क करेबे, तेथी तेनुं उपहास्य करे. हे विवेकी ! अंतरंग शक्तिना श्रावथी तारी जे तर्कमां प्रीति बे ते वृथा बे. कोनी जेम नपुसंक पुरुषनी प्रीति स्त्रीपरत्वे रतिविषयं करवामां जेम होय तेम. विद्याना मुखने मात्र चुंबन करवाथी तेना जोगनुं सौजाग्य कांइ मलतुं नथी. ते उपर सुभाषितमां लखेने के " वेश्यानामिव विद्यानां मुखं कैः कैर्न चुंबितं । हृदय ग्राहिण स्तासां द्वित्राः संति न संति च ॥ १ ॥ वेश्यानी जेम विद्याना > ४ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) मुखने कोणे कोणे चुंबन नथी कर्यु? परंतु तेना हृदयने ग्रहण करनारा बेत्रण होय के न होय.” श्रा प्रमाणे जे अचेलक विगेरेने एक चेलादि आचारनुं अनुमोदवापणुंजे, तेपण ते कर्त्तव्य न मानवाथी सूत्रनीतिवडे स्पष्ट दोष ने, परंतु ते केवलिगम्य .२७ __ जो कदि जावस्तवनी वृधिने अर्थे व्यस्तवनी अनुमोदना अपेक्ष्य होय, तो अव्य पूजानी अपेदा केम न कराय? आ शंका उपर कहेजे. दुग्धं सप्पिरपेक्षते नतु तृणं सादाद्यथोत्पत्तये, जव्यार्चानुमतिप्रभृत्यपि तथा जावस्तवो नत्विमा । इत्येवं शुचिशास्त्रतत्वमविदन् यत्किंचिदापादयन् , किं मत्तोसि पिशाचकी किमथवा किं वातकी पातकी॥ ___ अर्थ- जेमघी पोतानी उत्पत्तिने अर्थे ऽधनी अपेक्षा करे. तेम घासनी अपेक्षा करतुं नथी. अर्थात् घीनी उत्पत्ति सुध उपर आधार राखेडे, घास उपर आधार राखती नथी. तेम नावस्तव जेवी अव्यस्तवनी अनुमोदननी अपेक्षा राखेने, तेवी अव्य पूजानी अपेक्षा राखतुं नश्री. या प्रकारना शास्त्रना पवित्र तत्वने नहीं जाणता एवा हे कुमति ! शुं तुं मत्त थयो? के तने पिशाच वलग्यो ? वा तने संनिपात थयो ? वा शुं पातकी थयो ? जेथी श्रावं असंबद्ध बोट्या करे. २० विशेषार्थ- जेम घी, उत्पत्तिमाटे सुधनी अपेक्षा करे, तेम तृणनी अपेक्षा करतुं नथी. कारण के उधमांथी घी व्यवधान वगर साक्षात् उत्पन्न थयेलुं जोवामां आवेळे. अने गायोए लक्षण Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) करेलुं तृण परिणाम पामी दुध श्रायडे, तेने दुध करता घी साथे व्यवधान बे. या प्रमाणे जावस्तव, के जे उपचित अर्थात् वृद्धि पा - मेला अवयवी ने स्थानेबे, ते व्यपूजानी अनुमति विगेरे जे पोतानुं अवयव रूप व्यवधानरहित कारण छे, तेनी अपेक्षा करे, पण व्यपूजानी प्रत्यक्ष अपेक्षा करतुं नथी. कारणके तेमां व्यवधान बे. तेज कारणथी साधुर्जने प्रव्य अग्निकारिकानो निषेध कानकारिकानी श्राज्ञा करेली बे. तेविषे श्रीमद् हरि सूरिना अष्टकमां लखेने के " कर्मेधनं समाश्रित्य दृढा सद्भावनादुतिः । धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीक्षितेनाग्निकारिका" ॥ १ ॥ दीक्षावाला साधुए कर्मरूप इंधननो आश्रयकरी अनि कारिकाकरवी . निकारिका र्थात् अग्निकर्म - ते केवा प्रकारनी करवी ते कहे. दृढ एटले कर्मरूप इंधननो दाह करवाने समर्थ सद्भावना एटले सारो जाव तेरूप आहूति ( घी नाखवुं ) जेमां, एवी करवी. श्रहिं उपलक्षणथी धर्मध्यान ने शुक्लध्यान जाए। लेवुं. हे लुंपक! श्रावा प्रकारना पवित्र शास्त्रना तत्वने नहीं जाणतो, जे कां‍ जातिप्राय प्राप्त करता सजामां जेनुं उपहास्य थयेलुं वे एवो तुं शुं उन्मत्त थई गयो बे ? इत्यादि. २८ पुनः तेने उत्तेजित करे. द्रव्याचमवलंबते नहि मुनिस्ततुं समर्थो जलं, बाहुन्या मित्र काष्ठमत्र विषमं नैतावता श्रावकः । बाहुभ्यां जववारितर्तुमपटुः काष्ठोपमांनाश्रयेद् द्रव्याचमपि विप्रतारक गिरा जांतीरनासादयन् २७ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) अर्थ- बाहुवडे नवसागरना जलने तरवाने समर्थ एवा मुनि कांटावाला काष्ठनी जेम प्रव्यपूजानुं श्रावलंबन करता नथी. तेवीज रीते बाहुवडे जवसागर तरवाने असमर्थ एवो श्रावक कांइ काष्ठोपमावाली प्रव्यपूजानुं अवलंबन न करे एम नहीं. - र्थात् अवलंबन करे. परंतु जो ते लुंपक दुर्मतिनी वाणी थीमने प्राप्त थयो न होय तो तेम करेबे. अर्थात् जो ते लुंपकनी वाणीथी जमायो होय तो तेम करतो नथी. २‍ विशेषार्थ - नथी. २७ वे ते विशे विशेष कहे. श्रीणा विरति ज्वराहि गृहिणो द्रव्यस्तवं सर्वदा, सेवंते कटुकौषधेन सदृशं नानीदृशाः साधवः । इत्युच्चैरधिका रिदम विदन् बालो वृथा खिद्यते, नैतस्य प्रतिमा द्विषो व्रतशतैर्मुक्तिः परं विद्यते ॥३०॥ अर्थ- मनो वरतिरूप ज्वर नाश पाम्यो नथी तेवा गृहस्थो निरंतर व्यस्तवनुं सेवन करेबे, जे प्रव्यस्तव ते ज्वरने नाश करनारा कटु औषधरूप ने जेमनो अविरतिरूप ज्वर दीप थयोबे, एवा साधु द्रव्यस्तवनुं सेवन करता नथी. लोकमां पण रोगी औषधनुं सेवन करे एवं सिद्ध बे. प्रमाणे तां मलिनारंजी निर्मलारंजी एवा अधिकारी भेदने नही जाणतो वो ज्ञानी वृथा खेद पामेबे, अने तेवा प्रतिमाघे - पीनी सेंकडो व्रतोथी पण मुक्ति नथी. कारणके प्रवचनना उपर श्रद्धा नही राखनारा पुरुषना सो योगपण निष्फल बे. ३० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३) विशेषार्थनो अर्थमा समावेश करेलो. ३० हवे ऽव्यस्तवमां गुण बतावे. वैतृष्ण्यादपरिग्रहस्य दृढता दानेन धर्मोन्नतिः, सद्धर्मव्यवसायतश्च मलिनारंजानुबंधबिदा। चैत्यानत्युपनम्रसाधु वचसा माकर्णनात्कर्णयो रदणोश्चामृतमानं जिनमुखज्योत्स्ना समालोकनात् अर्थ- तृष्णानो विच्छेद थवाथी अपरिग्रह व्रतनी दृढता थायचे. दान आपवाथी धर्मनी उन्नति थायडे, सधर्मना व्यवसायथी मलिनारंजना अनुबंधनो बेद थायजे. चैत्यने नमवा नम्र श्रयेला साधुनां वचन सांजलवाथी कर्णमां अमृतनुं सिंचन थायडे अने श्री जिनप्रतिमाना मुखचंनी ज्योत्स्नाना दर्शनश्री नेत्रविषे अमृतांजन यायचे. ३१ । विशेषार्थ-तृष्णाना विच्छेदश्री अपरिग्रहव्रतनी दृढता थायचे, दानश्री धर्मनी उन्नति थायडे, सधर्मव्यवसाय अर्थात् कर्तव्यतार्नु अनुसंधान, जेमां सारा आरंजनुं प्राधान्य ने अने बीजार्नु आनुसंगिक (अवांतररूप ) पणुं (कारणके तेना प्रवाहमां प्रवृत्तिवडेज वंश तरवानी सिद्धि यायचे ) तेवा सधर्मना व्यवसायथी मलिनारंजना अनुबंधनो उछेद थायचे. अहंत प्रतिमाने नमवाने नम्रशील एवा साधु, जे मात्र देशनामांज जद्यमवंत बे, तेना वचननुं श्रवण करवाथी कर्णमां अमृतनुं सिंचन पायजे. अने जगवंतनी प्रतिमाना वदनचंनी ज्योत्स्नाना अवलोकनश्री नेत्रमा अमृतांजन श्रायने, अर्थात् बीजुं का Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए४ ) जाणवानुं नही रेहेवाथी उजयने आनंदस्वरूप शांतरसनो उद्बोध यायचे. ३१ पुनः विशे विशेष कहे. नानासंघसमागमात् सुकृतवत्सद्गंधद् स्तित्रज, स्वस्तिप्रश्नपरंपरापरीचयादप्यद्भुतोद्भावना | वीणावेणुमृदंगसंगमचमत्काराच्च नृत्योत्सव, स्फाराईद्गुणलीनता जिनयनाद् जेदमप्लावना | ३ | - अनेक देशना संघना समागमथी ने सुकृती पुरुष रूप गंध दस्तिना समूह साथे कल्याण प्रश्ननी चर्चाथ अद्भूत रसनो उद्बोध थायडे, तथा वीणा वेणु ने मृदंग विगेरे संगीतना चमत्कारथी ने नृत्योत्सव समये अर्हतना गुणोमां लीन थई विजाव, अनुभावरूप अभिनय करवाथी नेद मनो नाश थाय. ३२ विशेषार्थ - अनेक देशना संघना समागमथी ने सुकृतवाला सजन पुरुषोरूप गंध हस्तिना समूहनी साथे कल्याण प्रश्ननी परंपराथी अर्थात् तेमना परिचयथी अद्भूत रसनो उद्बोध थायडे, अर्थात् सनयोग तथा श्रवंचक क्रमश्री परम समाधिनो लाज था. हिं सऊन पुरुषने गंध हस्तिनुं रूप युं, तेथी एम सूचव्यं के जेम गंध हस्तिना गंधमात्रथी प्रतिदस्तिनो पराजव थाय, तेम सानना वादप्रसारथी वादीरूप प्रतिहस्तिनो पराजव थायडे. वली वीणा, वेणु ने मृदंग ए तौर्यत्रिक संगी'तनी संपत्ति थी जे चमत्कार थायडे, तेथी तथा नृत्योत्सव समये Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) विस्तारथी वर्णवाता हैतना गुणोनी लीनतामां विभाव, अनुजावरूप अनय करवाथी विपरीत मनो नाश थायबे. रहस्य ए बेके, समापत्ति विगेरे नेदवडे अर्हतनुं दर्शन थ जोइए, समापत्तिनुं लक्षण योगशास्त्रना ग्रंथमांथी जाणी लेवु. ३२ दवे बाकीनुं तेज विषयने पुष्टिरूप कहे. पूजा पूजकपूज्य संगतगुणध्यानावधान क्षणे, मैत्री सत्वगुणेष्वनेन विधिना जव्यः सुखी स्तादिति । वैरव्याधिविरोधमत्सरमदक्रोधैश्च नोपप्लव, स्तत्को नाम गुणो न दोष दलनो द्रव्यस्तवोपक्रमे ३३ अर्थ- पूजा, पूजक ने पूज्य, या त्रिपुटीसाथे मलेला गुणना ध्यान वखते या प्रव्यस्तवना विधिथी सर्व जव्यजन सुखी था ! एवी धारणा करवाथी सर्व प्राणी उपर मैत्री थायडे, तेमज वैर, व्याधि, विरोध, मत्सर, मद ने क्रोधसंबंधी कांइपण अनर्थ यतोनथी. तेथी द्रव्यस्तवना उपक्रम ( आरंभ ) मां दोष नाशक को गुण नथी ? अर्थात् सर्व गुणो दोषनाशक बे. ३३ विशेषार्थ - नथी. सत्तंत्रोक्त दशत्रिका दिकविधौ सूत्रार्थ मुद्रा क्रियायोगेषु प्रणिधानतो व्रतभृतां स्याद् जावयज्ञो ह्ययं । नावापद्विनिवारणाद बहुगुणे ह्यप्यत्र हिंसामतिमूढानां महती शिला खलु गले जन्मोदधौ मऊतां|३४| अर्थ - उत्तम शास्त्रमां कथन करेला दशत्रिक विगेरे विधिमां Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) सूत्र, अर्थ मुद्रा, क्रिया ने योगमा ध्यान करवाथी देशविरति पुरुषोने श्रा व्यस्तव जावयज्ञरूप थायडे. जाव श्रापत्तिने निवारवाथी, घणां गुणवाला श्री अव्यस्तवम पण मूढ कुमति - योने जे हिंसाबुद्धि बे ते या संसारमां डुबता एवा तेमने गजे शिलारूप बे. ३४ विशेषार्थ - व्रतधारी एटले देश विरति प्राणीने श्रा व्यस्तव जाव यज्ञरूप थायडे. कारण अन्युदयरूप कल्याणनो हेतु ते यज्ञ बे. सत्शास्त्रमां पूजाना पूर्वश्रंगरूप तेने कहेलो बे. ते माटे " दहति श्रहिगम पणगं" इत्यादि गाथा अवलोकन करवी. या दश त्रिकादि, विधि बे. तेमां सूत्र, अर्थ, मुद्रा छाने क्रियालक्ष्णवाला योगने विषे तेनो निर्णय करेलो बे. जिनविरहथी प्रयोजेली तेना विनयनी संपत्तिरूप जावयापत्ति, तेना निवारणाथी, घणां गुणवाला या प्रव्यस्तवमां जेमनी हिंसा बुशिबे ( श्रहिं " जावपद् विनिवारणोचितगुणो " श्रावो पाठ लइएतो, तेनो एवो अर्थ थाय के, जावयापत्तिना निवारणने योग्य गुण जेमां एवा श्रा प्रव्यस्तवमां पण जेनी हिंसाबुबे) ते मूढ कुमती योने संसारसमुद्रमां मुबता तेमने गले ते एक शिला बे. पापीउने मुबाडवा सारू तेमने गले शिलारोपण करवं योग्य नथी. ३४ ed a पत्ति निवारण करवाना गुणवडे करेली स्थापनाने दृढ करे. सम्यगृह ष्टिरयोगतो जगवतां सर्वत्र जावापदं, जेतुं तद्द्भवने तदर्चन विधिं कुर्वन्न दुष्टो जवेत् । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) वाहिन्युत्तरणोद्यतो मुनिरिव अव्यापदं निस्तरन् , वैषम्यं कि मिहेति हेतुविकलः शून्यं परः पश्यतु॥३५॥ __ अर्थ-जेम मुनि व्यापत्तिने नेदवाने नदी ऊतरवा 7द्यमवंत श्राय, तोपण सुषित थता नथी, तेम नावापत्तिने नेदवाने जिनालयमां लगवंतनी पूजा करवाने उद्यमवंत श्रयेलो सम्यगू दृष्टि प्राणी दूषित गणातो नथी. अहिं बनेमां शुं विषम पणुं ? ते बाबत प्रत्युत्तर आपवाने असमर्थ एवो प्रतिमानो शत्रु धर्मति दिग्मूढ थ रहो. ३५ विशेषार्थ-लगवंतना विरहथी सर्व ठेकाणे नावापत्तिने नेदवाने ते जगवंतना मंदिरमां लगवंतनी प्रतिमाने पूजा करतो एवो सम्यगू दृष्टि प्राणी दोषवान न पाय. दृष्टांत के जेम विहारने अनुचित एवी प्रव्यापत्तिने दूर करवा श्चता एवा मुनि नदी उतरवानो उद्यम करवाश्री दूषित न थाय तेम, ते प्राणी दूषित अतो नथी. आ बंनेमां शुं विषमपणुंने ? अल्प व्यय अने बहुलालमां ते ते अधिकारीने योग्य एवा आज्ञाना योगनुं तुल्यपणुं बे. अर्थात् जेमां बहुलाल अने व्यय अस्प होय ते आचरवानी आज्ञा . आ हेतु जाणवामां विकल अने प्रत्युत्तर आपवाने असमर्थ एवो ढुंपकमति प्रतिमानो शत्रु केवल शून्यतानुं अवलोकन करो ३५ __ हवे विषमपणामांहेतुनी श्राशंका बतावतां तेनुं निराकरण करे. नो नातरणे मुनेनियमताद्वैषम्य मिष्टं यतः, पुष्टालंबनकं न तन्नियमितं किं तु श्रुते रागजं । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) अस्मिन् सत्ववधे वदंति किल येऽशक्यप्रतीकारतां, तैर्निदामि पिबामि चांजइति हि न्यायः कृतार्थः कृतः __ अर्थ-मुनिने नदी उतरवी एवा संख्यानामनां नियमथी विषमपणुं श्ष्ट बे, एम न कहेदूं जोईए, कारणके तेमां काई पुष्टालंबन नियमित नथी, पण ते शास्त्रना रागथी नियमित थयेलु ने. तेथी नदी उतरवामां जीवनो वध श्रवानो प्रकार अशक्य परिहाररूप , एम जे लुंपको कहेजे, तेए “हुँ जल निंउबुं अने पी, " एवा न्यायने कृतार्थ को. ३६ . विशेषार्थ-मुनिने नदी उतरवामां संख्या नियम कहेलो ने, अने श्रावकने जिन पूजामां तेवो कांई नियम कहेलो नथी, एवा हेतुने लईने तेमां विषमपणुं इष्ट ने. श्रा प्रमाणे कहेवू तने योग्य नश्री. कारणके नदीनुं उतरवू कांज्ञानादि लालना कारण रूपे नियमित कर्यु नथी, परंतु ते श्रागम (शास्त्र) ना रागथी नियमित करेलुं जे. जेम नखना घसाराथी श्रता घातना निषेधमाटे प्रोक्षण विधिमां कडं तेम. पूर्वपक्ष-अव्यस्तवनो विधि तो गृहस्थने अपूर्व , तेथी समानपणानो अहीं योग नथी अर्थात् विषमपणुं . उत्तरपक्ष-जो एम होय तो पुष्टालंबन तरफ जोश्शुं तो वर्षा कालमां पण गामोगाम विहार करवानी आज्ञा आपेली ने, तो तेमां संख्या नियम शो रह्यो? . ते विषे श्रीस्थानांग सूत्रमा कडं के " वासा वासं पजोसविश्राएं नो कप्पर निगंथाणं वा २ गामानुगामं दूई जित्तए पंचहिं तेमा संलगामोगा हाय तो Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) गणे हिं कप्पर तंणाणग्याए दंसणग्याए” इत्यादि सारांशके मुनिने जो लाल होयतो वर्षामांपण गामोगाम विहार कटपेले. तेमां मालवा विगेरे देशोमां एक दिवसे घणीवार नदी उतरवानो संनव बे, त्यां शुं करवू ? तेथी संख्या नियमपण अशक्य परिहार थई शके नहीं तेवे प्रसंगे संन्नवेडे. आप्रमाणे नदी जतरवामां अपकाय विगेरे जीवोनी हिंसा थाय, अने ते हिंसा न लागे तेवो उपाय थवो अशक्य ने एमजे लुंपको बोले , ते तेमणे " हुँ जलने निंऽ अने पी_" एवा न्यायने कृतार्थ कर्यो, अर्थात् तेथी वदतोव्याघात जेवू थायजे. ३६ । हवे दृष्टांत श्रापी नदी उतरवामां निर्दोषपणुं ने, एम न्यायथी सिद्ध करे. यन्नद्युत्तरणं प्रवृत्तिविषयो ज्ञानादिलानार्थिनां, उष्टं तद् यदि तत्र कः खलु विधिव्यापारसारस्तदा। तस्मादीदृशकर्मणीहितगुणाधिक्येन निर्दोषतां, झात्वापिप्रतिमार्चनात् पशुरिव त्रस्तोऽसि किं उर्मते॥ अर्थ-ज्ञानादि लानना अर्थीउने नदीनुं उतर प्रवृत्तिनुं विषयरूप , ते जो दूषित होयतो, एवो विधिव्यापार करवानुं तात्पर्य शुं? तेमाटे इष्ट गुणना अधिकपणाथी नदी उतरवाना कर्ममां निर्दोषता जाणीने पण हे धर्मति ! तुं पशुनी जेम प्रतिमा पूजाथी केम त्रास पामे ? ३७ विशेषार्थ-ज्ञानादि लानना अर्थीउँने नदीनुं उतरतुं प्रवृत्तिनुं विषय , ते जो दूषित होयतो तेमां विधिव्यापार एटले विधिना Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) अर्थन तात्पर्य शुं थाय? अर्थात् विधिअर्थ अनिष्टना बाधनेमाटे करवामां आवेळे. पण ज्यारे पाप बलवत् थाय अने अनिष्ट श्रतुं होय त्यारे विध्यर्थनो बाध श्रायजे. तेवा अधिकारीने योग्य एवा नदी उतरवा विगेरे कर्ममां इष्ट गुणनी अधिकतावडे निर्दोषता जाणीने, एटले स्वरूपवडे सावधपणुं उतां, पण बलवान् अनिष्टना अनुबंधना अनावने जाणीने पण हे उमति ! पशुनी जेम प्रतिमानी पूजाथी तुंशामाटे त्रास पामेने ? विशेष दर्शी पुरुषने त्रास थवानुं कारणरूप कुमतिने दूर करवाथी आ त्रास श्रतो नश्री. एवो लावार्थ . नदी उतरवाना संबंधमां उत्सर्गापवाद सूत्र , ते वृत्तिथी जाणी लेवू. ३७ हवे बीजु दृष्टांत पापी उपर कहेला विषयने समर्थ करे. ग दंगविघर्षणैरपि सुतं मातुर्यथाहेर्मुखास्कर्षत्या न हि दूषणं ननु तथा फुःखानलार्चि तात् । संसारादपि कर्षतो बहुजनाद् अव्यस्तवोद्योगिनस्तीर्थस्फाति कृतो न किंचन मतं हिंसांशतो दूषणं३७ __ अर्थ-जेम विवरमांथी अतित्वरावडे, अंगना घसारा साथे सपना मुखमांथी पुत्रने बहार खेंचती माताने दूषण लागतुं नथी, तेम जिनशासननी उन्नति करनार, अव्यस्तवमां उद्यमवंत अने पुःखरूप अग्निनी ज्वालाथी अरपूर एवा संसारमांथी घणां प्राणियोने नहार करता एवा श्रावकने हिंसाना कोई अंशश्री दूषण लागतुं नथी. ३७ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) विशेषार्थ - कारणके स्वरूप हिंसाना दोषनुं निर्बलपणुं बे, अने श्रेष्ट फलना साधनपणाने सीधे अनुबंधव मे तेनुं निष्फलपणुं वे. ३८ उपर कहेलुं दृष्टांत न्यायश्री चालता विषयमां योजवाने कहे. एतेनैव समर्थिता जिनपतेः श्रीना जिजूपान्वय, व्योमंदोः सुतनीवृतां विजजना शिल्पादि शिक्षापि च। श्रंशोऽस्यां बहुदोषवारणमतिश्रेष्ठो हि नेष्टोऽपरो, न्यायोसावपि दुर्मत डुमवनप्रोद्दामदावानलः ॥ ३॥ अर्थ - उपर बतावेला पुत्रना दृष्टांतवडे नानिराजना वंशरूपी श्राकाशमां चंद्रसमान श्रीरुषनदेव जगवंते करेली पोताना पुत्रोने जुदा जुदा देशोनी वेहेंच ने प्रजाने बतावेली शिल्प विगेरेनी शिक्षापण निर्दोष दर्शावेली े. तेमां एक अंश बहुदोपने वारनार होवाथी प्रति श्रेष्ठ बे ने बीजो अंश आनुषंगिक हिंसारूप होवाथी उपेक्षा करेलो बे. या न्याय दुष्टमतरूप वृक्षसमूह विषेति प्रबल एवो दावानलरूप बे. ३७ विशेषार्थ उपर कहेला सर्प मुखमांथी खेंचवाना दृष्टांतवडे श्रीषजदेव जगवाने करेली, पुत्रोने जुदा जुदा देशनी जे वेहेंच ने प्रजाउने बतावेली शिल्प विगेरेनी शिक्षा, ते निर्दोषपणे दर्शावी बे. श्री रुपजदेव जगवान, नानिराजनो वंश जे अति विशाल होवाथी आकाशरूप बे तेमां चंद्रसमान बे, अर्थात् चंद्रनी जेम परम सौम्य मूर्त्ति वे यहिं विशेषणथी विशेयनी प्राप्ति बे. नीवृत् शब्द साथे युक्त एवा सुत शब्दने शिकामां दो अन्य तो नथी, तेथी सुतेभ्यः एवो अध्याहार Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) "" करवो, नहीं तो एवो विग्रह करवो के सु एटले सारि ने ता लक्ष्मी जेमां ते सुत कहेवाय. तेवो नीवृत् एटले देश ते सुतनीवृत् कहेवाय. श्रहिं सामानाधिकरण विशेषण प्रमाणे व्याख्या करवी. श्री हेमचंद्र कोषमां लखेटे के " तासा श्रीः कमलेंदिरा इत्यादि. ए पुत्रोने देशोनी वेर्हेचणमां ने प्रजाने शिल्पादि शिक्षा बताववामां अधिकारी एवा जगवंते अति श्रेष्ठ अंश को बे. जे अंश मात्स्य न्यायवडे अन्यायनी प्रवृत्ति थवा रूप बहु दोषने वारनारो बे, छाने बीजो अंश जे आनुषंगिक हिंसा - रूप हतो तेनी उपेक्षा करीबे. श्र निर्देश लक्षण न्याय पण दुष्टमत अर्थात् व्यस्तवने न स्वीकारनार मत, तेरूपी वृक्षना समूहने विषे अतिशय प्रबल एवो दावानलरूप बे, कारण के जमार्गे चालनार दुर्मतिने ते जस्म करनारो बे. हवे प्रमाणपूर्वक श्री महानीशीथ सूत्रना अक्षरो दर्शावे . किं योग्यत्वमकृत्स्न संयमवतां पूजासु पूज्या जगुः, श्राद्धानां न महानिशीथसमये जक्त्या त्रिलोकी गुरोः । नंदी दर्शितसूत्रवृंद विदितप्रामाण्यमुद्राभृतो, निद्राणेषु पतंति डिंडमडमत्कारा श्वैता गिरः ॥ ४० ॥ - श्री महानिशीथ सूत्र ( सिद्धांत ) मां पूज्य गणधरोए देशविरति श्रावको नक्तिवडे त्रण भुवनना गुरू श्रीतीर्थकरने पुष्पादिकथी पूजा करवानी योग्यता शुं नथी कही ? अर्थात् कहेली बे. श्रीनंदी सूत्रमां दर्शावेला सूत्रवृंदमां प्रसिद्ध प्र Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) माणनी मुखारूप ते लगवंतनी वाणी प्रमत्त थई सुई गयेला प्रमादी पुरुषोने विषे ढोल उपर डंकानी जेम पडे. ४० विशेषार्थ-श्रीमहानिशीथ सूत्रनो श्रालावो श्राप्रमाणे . __ "अकसिण पवत्तगाणं विरया विरयाण एसखलुजुत्तो जे कसिण संजम विउ पुप्फाई न कप्पएत बुङगोमाणी संसयं देस विरयाणं तुविणि उगमुजयत्र"इत्यादि ते स्थले विस्तारथी जोQ हवे ते विषे समुच्चयरूपे कहे. यदानादिचतुष्कतुल्यफलतासंकीर्तनं या पुन, र्षी श्राइस्य परो मुनेः स्तव इति व्यक्ता विनागप्रथा। यच्च स्वर्ण जिनौकसः समधिको प्रोक्तो तपःसंयमौ, तत्सर्वं प्रतिमार्चनस्य किमु न प्राग्धर्मताख्यापकंध? अर्थ-दान विगेरे चार प्रकारनुं सरखं फल मले ने, एम जे कहेलुंजे, श्रावक ने अव्यस्तव अने नावस्तव बंने योग्य अने मुनिने नाव स्तव एकज योग्य ,एवा जे वित्लाग पाडेला , तथा सुवर्णजिनालय कराववाथी तप अने संयम अधिक . आ प्रमाणे जे कहेलुं , ते सर्व प्रतिमापूजनना धर्मने शुं सूचवता नथी ? अर्थात् ते प्रतिमा पूजननेपूर्णरीते सूचवे . ४१ विशेषार्थ-दान विगेरे चार प्रकारना समान फलपणानुं जे संकीर्तन , वली श्रावक ने व्यस्तव अने नावस्तव बंने करवा योग्य वे अने मुनिने मात्र नावस्तवज करवा योग्य , एवा जे विनाग पामेला , तेमज सुवर्णतुं जिनालय करावq ते रूप नष्कृष्ट जव्यस्तवथी पण तप अने संयम अधिक . आ प्रमाणे जे क Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) थन ने ते सर्व प्रतिमापूजन ने सूचवनारूं नयी ? अर्थात् ज. कारण के अतिशय उत्कृष्टनी स्तुति दीनना मुकाबलानी साथे करवी ते योग्य नथी परंतु उत्कृष्टना मुकाबला साथे करवी योग्य ने, अने तेज स्तुतिगणाय. जेम सामान्य माणसथी चक्रवर्तीनी अधिकता कहेवी ते स्तुति नथी, परंतु महान् राजाथी चक्रवर्तीनी अधिकता कहेवी ते तेनी स्तुति गणाय. ४१ आ अमारूं कथन श्रीमहानिशीथ सूत्रनुं प्रमाण रूप , ते सिधकरी कुमतियोने दूषण श्रापी कहेजे. प्रमाण्यं न महानिशीथसमये प्राचामपीत्यप्रियं, यत्तुर्याध्ययनेन तत्परिमितेः केषांचिदालापकैः । वृद्धास्त्वाहुरिदं न सातिशयमित्याशंकनीयं वचित्, तत्किं पाप तवापदः परगिरांप्रामाण्यतोनोदिताः॥४॥ अर्थ-श्रीमदानिशीथ सूत्रमा प्राचीन एवा तमारा संप्रदायवालानी प्रमाणता नथी अने चोथा अध्ययनमा केटलाएक बे त्रण श्राचार्योना आलापक , तेपण प्रमाण गणाया नहीं. श्रा वचन घणुं अप्रिय बे. कारणके वृयो एम कहे के, श्रा महानिशीथ सूत्र अति गंन्नीर अर्थवालुंजे, तेथी तेमां को स्थले शं का करवी नहीं. माटे हे पापी ! ते उत्कृष्ट वाणीवाला अमारा संप्रदायक शुद्ध शास्त्रना प्रमाणथी तने आपत्तिठनो उदय शुं नहीं थाय ? अर्थात् उदय थशेज. ४२ विशेषार्थ-नश्री. ४२ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) श्री महानिशीथ सूत्रमा पण ते कुमतियो अन्यथा वचननी शंका करे, ते कहे. ज्रष्टैश्चैत्यकृतेऽर्थितः कुवलयाचार्यो जिनेखालये, यद्यप्यस्ति तथाप्यदःस तमश्त्युक्त्वा नवं तीर्णवान्। एतत्किं नवनीतसार वचनं नो मानमायुष्मतां, यत्कुर्वति महानिशीथवलतोऽव्यस्तवस्थापनं ॥४३॥ अर्थ-ज्रष्ट कुमतियोए चैत्यालय करवाविषे श्री कुवलयप्रन आचार्यनी प्रार्थना करी, त्यारे ते आचार्ये कह्यु के, चैत्यालय विषे कहेवानुं वे पण ते पापसहित बे; आq वचन कही ते आचार्य संसारसमज तरी गया हता. आ प्रमाणे नवनीतसार अध्ययनवचन श्रेष्ठ आयुष्यवाला एवा तमने शुं प्रमाण नथी? के जेथी तेश्रो महानिशीथ सूत्रना बलथी व्यस्तवनुं स्थापन कहे . ४३ विशेषार्थ-ज्यां मात्र एक वचनथी पण अव्यस्तवनी प्रशंसा करवानो निषेध होय त्यां चैत्य, करवं के करावq विगेरे केम विहित थशे. ४३. ___ हवे तेनो उत्तर आपेले. ज्रांतप्रांतधिया किमेतदितं पूर्वापरानिश्चयात्, येन स्वश्रुम कृप्तचैत्यममता मूढात्मनां लिंगिनां । उन्मार्गस्थिरता न्यषेधि न पुनश्चैत्य स्थितिः सूरिणा, वाग्नंगी किमु यद्यपीतिन मुखं वकं विधत्ते तव ॥४॥ अर्थ-हे ब्रांत ! ग्रंथना पूर्वापर तात्पर्यनो विचार कर्याविना Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६) हीन बुद्धिवाला एवा तें आवं कुवचन केम कहुं ? श्रीकुवलयाचार्ये, जाते श्रम लइ करेला चैत्य संबंधे ममतावडे जेनो श्रात्मा मूढ थ गयो , तेवा लिंगधारीउनी जन्मार्गनी स्थिरता निवारी हती, परंतु चैत्यनी स्थितिनो निषेध कर्यो न हतो. आ प्रमाणे चैत्यप्रवृत्ति संबंधी तेमनी वाक्यरचना, हे धर्मति! शुं तारा मुखने वक्र करती नथी? अर्थात् करे. ४ विशेषार्थ-जिनालयमा स्वनावधी सावधपणुं नथी अर्थात् चैत्य स्थिति स्वनावथी पुष्ट नथी, परंतु मठप्रवृत्तिनी उपाधिवडे उष्ट बे, एम समजवू. ४ __ आप्रामाणे व्याख्यान करी, सूत्रनुं निःशंकपणुं बतावी प्रत्रकानी सार्थकता सिद्ध श्राय , ते कहे. यत्कर्मापरदोषमिश्रिततया शास्त्रे विगीतं नवेत्, खाऽजीष्टार्थलवेन शुद्धमपि तदर्युपंति उष्टाशयाः। मध्यस्थास्तु पदे पदे धृतधियः संबंध्य सर्वं बुधाः, शुभाशुभविवेकतः खसमयं निःशव्यमातन्वते॥४५॥ अर्थ-जे कर्म स्वरूपश्री शुद्ध होय पण बीजा दोष सारे मिश्न थवाथी निषिध थाय तेवु होय, तेवा शुद्ध कर्मने मुष्टबुद्धिवाला ढुंपक कुमतियो पोताने रूचतो लवमात्र अर्थ लागु पाडी लोपेने अने जे मध्यस्थ-गीतार्थ पुरुषोने, तेउतो स्थाने स्थाने बुद्धिथी विचार करी, संबंध बेसारी, शुद्धाशुद्ध विवेकपूर्वक स्वसिद्धांत निर्दोषपणे विस्तारे. ४५ विशेषार्थ-नश्री. ४५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) वे प्रदेशांतरनो विरोधपण याप्रमाणे दूर थई गयो, ते कहे. तेनाको विकल्पितश्चरणभृयात्रा निषेधोद्यत, श्रीवत्रार्थ निदर्शनेन सुमुनेर्यात्रा निषेधो हतः । स्वाद्येन निवारिता खलु यतश्चंद्रप्रनस्यानतिः, प्रत्यज्ञायि महोत्तरं पुनरियं सा तैः स्वशिष्यैः सह ॥ ४६ ॥ अर्थ - चारित्रधारी मुनियोने यात्रानो निषेध करवामां उद्यवंत एवा श्रीवज्रसूरिनुं दृष्टांत आपी, उत्तम मुनियोने यात्रा कवानो निषेध दूर करी दीधो. जे निषेध तात्पर्यने जाण्यावर कुमतियोए पोतानी कल्पनाथी करेलो हतो. वली ते स्थले गुरुde पोताना शिष्योसहित स्वच्छंदपणे ( आज्ञारहितपणे ) श्री चंप्रनस्वामिने वंदना करवानो पण निषेध कर्यो हतो. वली एजस्थले संघयात्रानो उत्सव थया पनी ते आचार्योए चंद्रप्रनस्वामीनी यात्रा अंगीकार करी हती. ४६ विशेषार्थ - उपर वर्णवेला हेतुथी चारित्रधारी मुनियोने या - त्रानो निषेध करवामां उद्यमवंत एवा श्री वज्रसूरिनुं दृष्टांत श्रापी उत्तम साधुर्जने यात्रा करवानो निषेध निराकरण कर्यो. जे निषेध तात्पर्यने जाण्याविना कुमतिए कपनाथी कर्यो हतो. वली ते ग्रंथमां गुरुए पोताना शिष्योसहित स्वचंदपणे श्री चंद्रस्वामीने वंदना करवानोपण निषेध कर्यो दतो. वली एज स्थले संघयात्रानो उत्सव थवा पनी ते आचार्योए चंद्रप्रनस्वामीनी यात्रा अंगीकार करी हती. ते यात्रा संघयात्राना महोत्सवनी पक्षी करवी एम सूचव्युं. या विषे सावद्याचार्य ने श्री वज्रा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) चार्यना संबंधो श्री महानिशीथ सूत्रथी जाणी लेवा. ते स्थले एक काव्य लखे . यथा- “कुवलय प्रनचंज मुनिषयो, श्वरित युग्ममिदं विनिषम्यनो ॥ कुमतिनिर्जनितं मतिविन्रम, त्यजतयुक्त मउक्त विनावका ॥१॥ अर्थ-श्री कुवलयाचार्य अने चंप्रजाचार्यना चरित्रो सांजली, हे जव्य प्राणी ! मारां योग्य वचननो विचार करी कुमतियोए उत्पन्न करेला विन्रमने गेडीयो. ते चरित्रोमध्येना पेहेला चरित्रमा अधिकारीवगरना क"ए कहेली चैत्यप्रवृत्तिनी अनुमोदना न करवी ए तात्पर्य ने, अने बीजा चरित्रमा अविधियी यात्रा करवानो निषेध कहेलो ४६ __ हवे सिंहावलोकन न्यायथी जिन बिंबने नमवाना अनुकूल व्यापारमा यात्रापदना अर्थना बाधनी शंका करी तेनो परिहार करे. नो यात्रा प्रतिमानतिर्बतभृतां सादादनादेशनात्, तत्प्रश्नोत्तरवाक्य इत्यपि वचो मोहज्वरावेशजं । मुख्याथैः प्रथितायतोव्यवहृतिः शेषान्गुणान् लक्षयेत् सामग्येण हि यावतास्तियतना यात्रास्मृतातावता ४७ अर्थ-ते प्रश्नोत्तर वाक्यमा व्रतधारी मुनियोने सादात् जिनबिंबने नमवानो आदेश नथी, तेथी प्रतिमाने नमवं, ते व्रतधारीउनी यात्रा न कहेवाय, आवीरीतनुं जे कुमतियोनुं वचन ते मोहरूप ज्वरना आवेशथी या तघा प्रलाप करेलुं वचन ; अने मुख्य अर्थवडे प्रसिद्ध एवो व्यवहार शब्द प्रयोगवाला Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६ए) समग्र गुणोने लद करे , कारण के जेटली सामग्रीवडे यतना थाय तेटली सामग्रीवडे यात्रा कहेली . १५ विशेषार्थ-ते प्रश्नोत्तर वाक्यमां व्रतधारीने सादात अर्थात् कंठपारथी जिनबिंबने प्रणाम करवानो आदेश नश्री, तेथी प्रतिमाने नमवू ते व्रतधारीनी यात्रा न कहेवाय. या प्रकारचें कुमतियोनुं वचन ते मोहरूप ज्वरना आवेशथी प्रलाप करेलु वचन , एटले ज्वरना तोरमां परवश थई जेमतेम बोलाय तेना जेवं ते वचन . ते प्रश्नोत्तर वाक्य ग्रंथते- शुकसोमिलादिके करेला यात्रा पदना अर्थ विषे प्रश्नो, तेमना श्रावच्चापुत्र अने नगवंतवच्चे श्रयेला उत्तरो, जाणवा. वली मुख्य अर्थवडे प्रसिद्ध एवो व्यवहार शब्द प्रयोगरूप समग्र गुणोने सूचवी आपेले. अने तेथी जेटली सामग्रीवडे यतना थाय तेटली सामग्रीवडे यात्रा कथन करेली जे. तेविषे कह्यु के के “ यात्रामा तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान अने आवश्यकादि सारी यतना पूर्वक करवा.” अहिं विगेरे शब्द एवं बतावेने के, यात्रा पदनो अर्थ यतिना आश्रमने योग्य एवा योगमात्रनी यतना करवी, एवो थायजे. तेथीज सोमिल प्रश्नोतरमां शास्त्रना अर्थवडे यात्रा फलितार्थ बे, एम समजवू. ४७ हवे वैयावच्चना साक्षात् आदेशनी स्थिति कहे. वैय्यावृत्ततया तपोजगवतां नक्तिः समग्रापि वा, वैयावृत्यमुदाहृतंहि दशमे चैत्यार्थमंगे स्फुटं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) नैतत् स्यादशनादिनैव जजनाधारापि किं त्वन्यथा, संघादेस्तमुदीरणे बत कथं न व्याकुलः स्यात् परः ४७ अर्थ-वैयावच्चथी श्री लगवंतनी सर्व प्रकारे नक्ति करवी ते तप कहेवायचे, ते वैयावच्च दशमा प्रश्न व्याकरण नामना अंग (सूत्र )मां स्फुटरीते कथन करेल . ते वैयावच्च प्रतिमासंबंधी कां अशनपान विगेरेयी श्रतुं नथी, पण नक्तिधारा थायडे, परंतु जो तेम न होय तो संघ विगेरेनुं वैयावच्च कर, एवो उच्चार करवामां कुमति व्याकुल केम न थाय? अर्थात् व्याकुल अश्जाय, कारणके ते तेना विरूध पदमां . ४७ विशेषार्थ-पोतपोताना अधिकारनी योग्यताप्रमाणे, करवी, कराववी अने अनुमोदवी ए रूप सर्व जातनी लगवंतनी नक्ति ते तप कहेवायचे. कारणके जक्ति ते वैयावच्चरूप . ते उपरथी एवो नावार्थ निकलेने के, तप शब्दवडे मुनिने यात्रानो सादात् उपदेश . हवे ते नक्ति अर्थात् वैयावच्चपणुं शीरीते सिमडे, ते कहे. प्रश्नव्याकरण नामना दशमा अंगमा चैत्यसंबंधी वैयावच्च स्फुटरीते कहेलुं . ते वैयावच्च प्रतिमासंबंधी अशनपान विगेरे संपादन करवाथी थाय एम न समजवं, परंतु नक्तिघारा थाय एम कहेलुं जे. अहिं “अशनादि" मां आदि शब्दवडे नक्ति विगेरे ग्रहण करवा, मात्र अशनपान नहीं. वली वैयावच्चनो अर्थ अन्यथा श्रतो होय तो ते कुमति संघ विगेरेनुं वैयावच्च करवाना उच्चारमां व्याकुल केम न थाय? वली श्री प्रश्नव्याकरणनो पाठ श्राप्रमाणे . “अह के रिसए पुणाई - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) राह एवय मिणं जेसे उवरि जत्तपाण दाण संगहण कुसले अचंत बाल उब्दलादि पाठे एपठे” इत्यादि- तेथी चैत्य अर्थात् जिनप्रतिमासंबंधी वैयावच्च घणा प्रकारश्री, निर्जरा अर्थात् कर्मक्यनी चावालोप्राणी कीर्तिनी अपेक्षा विना करे. ७. हवे चैत्य शब्दना अर्थातरवादसंबंधी अधिकार बतावे जे. ज्ञानं चैत्यपदार्थमात्र वदतः प्रत्यक्षबाधैकतो धर्मिछारतयामुनावधिकृते त्वाधिक्यधीरन्यतो। दोषायेति परः परःशतगुणप्रछादनात्पातकी, दग्धागवतु पृष्ठतश्च पुरतः कांकांदिशीको दिशं ॥४॥ अर्थ-ए प्रश्नव्याकरण सूत्रमा चैत्यपदनो अर्थ शान ने, एम कहेनारा लुंपकने एक पदे प्रत्यद प्रमाणनो बाध आवे ने अने धर्मिने विषे धर्मनो उपचार श्राय एवा अभिप्रायश्री मुनिने अधिकारी गणीए तो बीजा पदे अधिकपणानी अर्थात् पुनरूक्तिपणानी बुद्धि दोषकारक याय . आप्रमाणे पूर्वे कहेला प्रकारथी ते कुमति चैत्य शब्दनो अर्थ बताववामां तेना सेंकडो गुणोने निन्हवकरी (उलवी ) पातकी बने , तेथी ते आगल पागल दग्ध श्रयेली कई दिशामां नाशी जाय! अर्थात् कोश् ठेकाणे नासवाने समर्थ नथी. ए विशेषार्थः-प्रश्नव्याकरण सूत्रमा चैत्य शब्दनो अर्थ शान ने एम कहेतां लुंपकने एकपदे प्रत्यद प्रमाणनो बाध आवे. कारणके विश्रामण आदि वैयावच्चनी चैत्यशब्दनो ज्ञान अर्थ थवामां सिद्धि थती नथी अने धर्मिधारपणाथी अर्थात् धर्मिने Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) विषे धमेनो उपचार थाय एवा अभिप्रायश्री ज्ञान अने ज्ञानी तरीके मुनिने अधिकारी मानीए तो बीजा पदे पुनरुक्तिपणानी बुद्धि दोषने माटे थाय. अर्थात् ते स्थले बाल विगेरे पदोथी मुनिने ग्रहण करवामां आवेल , तेथी चैत्य शब्दना अर्थमां पुनरूक्ति थाय. या प्रमाणे पूर्वे कहेला प्रकारथी चैत्य शब्दना निर्देशमां योजेला सेंकडो गुणोने उलवी पातकी थई, मिथ्यानिशंकी बनी, जय पामी, आगल पाउल दग्ध श्रयेली दिशामां , नासवाने समर्थ थतो नथी. ४ए __ हवे वैयावच्चविषे निश्चित अर्थनी सिद्धि न थवाथी शंका करतां तेनुं निराकरण करे. वैयावृत्त्यमथैवमापततिवस्तुर्ये गुणस्थानके, यस्माद् नक्तिरजंगुरा जगवतां तत्रापि पूजाविधौ। सत्यं दर्शनलक्षणेत्र विदितेऽनंतानुबंधिव्यया, नोहानि त्वयि निर्मलांधियमिव प्रेदामहे कामपि५० __अर्थः-जो एवी रीते पूर्व कहेला वैयावच्चनो अर्थ नक्ति लइए तो तमारा चोथा गुणस्थानमां ते आवी पडशे, कारण के त्यांपण अर्हत प्रनुनी पूजा विधिमां अनंग नक्ति रहेली .आ चोद्यु गुणस्थानक जेनेविष वैयावच्च, समकितनुं लक्षाणरूप , ते अनंतानुबंधिकषायना क्य, दयोपशथी जे एम जाणी अमे तारामां निर्मल बुधिनी हानि शिवाय बीजी कांपण हानिने जोता नथी. ५० विशेषार्थ-अविरति सम्यग्दृष्टि प्राणीने अनंतानुबंधिकषा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) यना क्य, क्योपशमथी वैयावच्च गुणना संनवमां काइपण बाधनो अन्नाव बे. ५० जो तेम लइए तो तेमने चारित्रना लेशना संलवमां, अविरतिपणानी जे सिद्धि न पाय तेज बाध आवे ने, तेम कहेतां निराकरण करे . श्राघानां तपसः परं गुणतया सम्यक्त्वमुख्यत्वतः, सम्यक्त्वांगमियं तपखिनि मुनौ प्राधान्यमेषाश्नुते । धीीलांगतयोपसर्जन विधां धत्ते यथा शैशवे, तारुण्ये व्यवसायसंभृततया सा मुख्यतामंचति ५१ अर्थ-दर्शनधारी श्रावकोने तपना गौणपणाने लीधे अने समकितना मुख्यपणाने लीधे आ नक्तिसमकितनुं अंग थाय जे. परंतु ए नक्ति तपस्वी मुनिनेविषे प्रधानपणाने पामे. दृष्टांत के बालवयमां क्रीडा प्रधान होवाथी बुद्धि गौणपणाने पामे, पण तेनी ते बुद्धि यौवन वयमा व्यवसाय पूर्ण होवाश्री मुख्यपणाने पामे. ५१ विशेषार्थ-दर्शनधारी (समकितदृष्टि) श्रावकोने तपनी गौणता , परंतु मुख्यता नथी, तेथी आ नक्ति तेने समकितनुं अंग प्राय ने, अर्थात् प्रधानपणे समकितनुं अंगरूप श्रश् समकितना फलवडेज फलवाली थायजे, कारण के फलवालानी सांनिध्ये तेनुं अंग निष्फल , एवो न्याय ,तेथी तेटलाश्री अविरतिपणाने हानि पहोंचती नश्री. जेम एक दोकडामात्रथी धनवना अने एक गायमात्रधी गायवालो न कहेवाय तेम. तेविषे पंचाशक Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) ग्रंथनी वृत्तिमां श्री अजयदेवसूरिजी कहे बेके, बाल्यावस्थामां क्रीडा पधान गरूप होवाथी बुद्धि गौणपणाने पामे अने तेज बुद्धि यौवनावस्थामां प्रौढ पराक्रमपणाथी मुख्यपणाने पामे बे. तेजप्रमाणे तपना प्राधान्यपणाथी चारित्रधारी मुनियोने श्रा जक्ति प्रधानरूप थाय बे. ५१ हवे सूत्रनीतिपूर्वक हिंसानी शंका करी उद्वेगनो देखावकरी कहे बे. अर्थं काममपेक्ष्य धर्ममथवा निघ्नंति ये प्राणिनः, प्रश्नव्याकरणे हि मंदमतयस्ते दर्शितास्तत्कथं, पुष्पांजोदना दिजीववधतो निष्पाद्यमानां जनैः पूजां धर्मतया प्रसह्य वदतां जिह्वाननः कंपतां ॥ ५२ ॥ अर्थ- जे प्राणी अर्थ, काम ने धर्मनी अपेक्षा करी प्राणीनी हिंसा करे बे, तेर्जने श्री प्रश्नव्याकरण सूत्रमां मंद बुद्धिवाला दर्शाव्या . तेथी तत्वने नहीं जाणनारा लोकोए पुष्प, जल ने नि विगेरेना जीवोनो वध करी, करेली पूजाने बलात्कारे धर्म कहेतां श्रमारी जिव्हा केम न कंपे ? अर्थात कंपेज. विशेषार्थ - धर्मवंत पुरुषोनी जिव्हा मृषावाद बोलतां बहुज कंपेबे तेथी हे मूर्तिपूजको ! जे पूजामां प्राणीवध थायबे, तेने धर्म केम कही शकाय ? ५२ पूर्वपनो उत्तर आपतां वैद्यस्वरूप धारण करी तेनुं श्रषध बतावे . जोः पापा जवतां जविष्यति जगद्वैद्योक्तिशंकाभृतां, किं मिथ्यात्व मरुत्प्रकंपवशतः सर्वांगकंपोपि न । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) यो धर्मांगतया वधः कुसमये दृष्टोऽत्र धर्मार्थिका, साहिंसा नतु सक्रियास्थितिरिति श्रद्धैव सदनेषजं॥ ___ अर्थ-हे पापी ! जगतना उपकारी वैद्यरूप श्रीनगवंतना वचनमा शंका लावतां, तमारा सर्व अंगमां, मिथ्यात्वरूप वायुना कोपने आधीन थवाथी शुं तमने कंप थशे नहीं? अर्थात् थशेज. जे वधने कुशास्त्रमा धर्मरूप कथन करेलो होय तेज वध, वध कहेवाय ने. लोकोमा धर्मार्थिका हिंसा कहेली ने, परंतु सक्रियानी स्थिति हिंसा कहेवाती नथी, तेथी लगवंतना वचनमां श्रचाराखवी तेज उत्तम औषध रूप जे. ५३ विशेषार्थ-हे पापी ! जगतना उपकारी वैद्यरूप श्री जगवंतना वचनमा शंका लावता, तमारा सर्व अंगमां मिथ्यात्वरूप वायुनो प्रकोप अवाश्री तमने कंप थयाविना रहेशे नहीं; अने तेम अशे तो अमे ते बाबतमां शुं उपाय करी शकीए? कारणके वैद्यना वचन उपर शंका लावनार रोगीने ब्रह्मापण निरोगी करी शके तेम नश्री. अहिं रोगर्नु औषध बताववानी इचा थवाथी तेनुं वर्णन करे. जे वधने कुशास्त्रमा धर्मना अंगरूप वर्णव्यो होय तेज वधने परीक्षक लोको धर्मार्थिका हिंसा कहे, परंतु सक्रियानी स्थिति हिंसा कहेवातीज नथी. कारण के अप्रमत्तपणे कार्य करतां, ते कार्यमां हिंसानी प्राप्ति थतीज नथी. तेथी जगवंतना वचनमां श्रघा राखवी तेज परम औषधरूप जे. जो तेप्रमाणे न मानीएतो श्रीज्ञातासूत्रमा खाना जलने शोधवामां सुबुद्धि मंत्री महा हिंसा करनार अने मंद बुद्धिवालो गणाय, परंतु शुन्न अध्यवसाययुक्त होवाथी ते शुधज . ५३ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर वर्णवेला धर्मना अंगरूप वधने माटे विवेचन करे ले. यागीयो वध एव धर्मजनकः प्रोक्तः परैःस्वागमे, नास्मिन्नौधनिषेधदर्शितफलं कार्यातरार्थाश्रिते। दादे कापि यथा सुवैद्यकबुधैरुत्सर्गतो वारिते, धर्मत्वेन धृतोप्यधर्मफलको धर्मार्थकोयं वधः॥५४॥ अर्थ-वेद मतवाला मिथ्यात्वी पोताना शास्त्रमा यज्ञस्थखने विषे करेलो पशुनो वध, धर्मजनक ने एम कहे. परंतु संपत्तिनी प्राप्तिरूप पशुना दाहमां सामान्यरीते निषेध करायेला कर्मनुं फल प्राप्त थतुं नथी एम समजवू नही, अर्थात् थायजे. कारण के उत्तम वेदज्ञ पंडीतोए उत्सर्गथी वारेला एवा पशुदाहमां तेनुं फल सुःखरूप कहेलु , तेश्री धर्मपणावडे मानेलो आ वध धर्मार्थ गणातां बतां अधर्मना फलने आपनारो बे. ५४ विशेषार्थ-वेदमतवाला पोताना शास्त्रमा यज्ञस्थलमां करेला पशुवधने धर्मजनक कहे. तेऊना शास्त्रमा लखेके " नूति कामः पशुमाललेत". संपत्तिनी श्वावाला पुरुषे यज्ञमां पशुनो होम करवो. कार्यात्तर अर्थात् संपत्तिनी प्राप्तिरूप कार्यना अर्थने आश्रित अने मुक्तिरूप फलथी जिन्न, तेमज उत्तम वेदज्ञ पंडीतोए उत्सर्गथी निवारेला आ पशुदाह विषे, उघनिषेध अर्थात् सामान्य निषेधवडे दर्शावेला फलनो निषेध करी, पुर्गतिमां जवारूप फल नथी मलतुं एम समजवू नहीं, अर्थात् मले बे. तेथी उत्सर्ग निषेधने अनुकूल एवं मुःखरूप फल न थाय एम समजवू नहीं, अर्थात् श्रायज, एम निश्चयपूर्वक जाणवू. धर्मने Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) अर्थे करेलो वध, धर्मरूप मानी लीधो होय, अर्थात् ब्रांतिथी तेने धर्मरूप मान्यो होय, तोपण ते अधर्मरूपज . शास्त्रमा कडं बे के “ मिथ्या दृष्टिनए आम्नायरूपे मान्यो होय, तां जो ते हिंसा विगेरेथी कलुषित होयतो, तेने धर्मरूप मानी आचरवाथी आ संसारमां ते परिज्रमण- कारणरूप थाय .” तेथी धर्मने अर्थे हिंसा यज्ञमांज थाय ने, परंतु जिनपूजामां श्रती नथी. एम श्रद्धा राखवी. ५४ अहिं शंका श्राय के, सामान्यपणे निषेध करेली हिंसानुं फल तमने मले उतां पूजामां अती हिंसा, फल केम न मले? तेना समाधानमां कहे. अस्माकं त्वपवादमाकलयतां दोषोऽपि दोषांतरो, छेदी तुफलेच्या विरहितश्चोत्सर्गरक्षाकृते। यागादावपि सत्वशुद्धिफलतो नेयं स्थितिईष्टतः, श्येनादेरिव सत्वशुष्यनुदयात्तत्संजवादन्यतः॥५५॥ __ अर्थ-अपवादने प्राप्त श्रयेला अमारा दोषपण उत्सर्गनी रक्षा करवाने अर्थे बीजा दोषने उन्जेदन करनारा अने तुब फलनी श्वाथी रहित . वली ह्रदयनी शुद्धि श्रवानो संजव, गायत्री विगेरे बीजा जप विगेरेथी , परंतु पुष्ट एवा श्येनयाग विगेरेश्री नश्री. तेथी हृदयनी शुधिना फलने उद्देशी याग विगेरेमां आ मर्यादा रहेती नथी. ५५ विशेषार्थ-अपवाद एटले उत्सर्गसंबंधी अपवाद- जे नीचा अने उंचा एवा न्यायथी तुट्य संख्यावालो बे. तेने प्राप्त थता Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) एवा अमारा व्यस्तवमां उत्पन्न थतो दोष मलिनारंजवालो वा सदारंजवालो होय तोपण ते उत्सर्गनी रक्षाने माटेज प्रव बे. ते दोषअनुबंध हिंसारूप नहीं होवाथी बीजा दोषने उछेदन करना a. कारणके संपत्तिरूप तु फलनी इवाथी रहित बे. एज विरोध बे. यज्ञ विगेरेमां या मर्यादा बिलकुल नथी. गायत्री विगेरे जप करवाथी अंतःकरणानी शुद्धि थवानो संजव बे, परंतु स्वरूपथी पुष्ट एवा श्येनयाग विगेरेश्री सत्व ( - तःकरण )नी शुद्धिनो संभव नथी. कारण के तेवा कार्यथी सत्वशुद्धि करवी अशक्य बे. तेथी सत्वशुचिना फलने उद्देशी यज्ञ विगेरेमा यती हिंसा सत्व शुद्धिनुं कारणरूप नहीं थवाथी मर्यादा ते कार्यमा बिलकुल नथी ने जिनपूजामां लाज, हानिनो विचार करतां, अपवादना श्राश्रयमां पण सत्वशुद्धिनो संव नथी. ५५ ज्यारे बीजी गति रही नहीं त्यारे पूजामां अन्यथा रीते सिहिनी शंका करे . नन्वेवं किमु पूजयापि जवतां सिद्धयत्यवद्यो ज्जिता, नावापद्विनिवारणो चितगुणः सामायिकादेरपि । सत्यं योधिकरोति दर्शन गुणोल्लासाय वित्तव्यये, तस्थेयं महते गुणाय विफलो हेतुर्न हेत्वंतरात् ॥५६॥ अर्थ- जो एम ने तो तमारे दोषवाली पूजा शामाटे करवी जोइए ? ते पूजाथी सर्यु, कारण के निर्दोष सामायिक विगेरेथी नावापत्ति निवारण करनार, योग्य गुणनी सिद्धि थाय बे. श्र Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) तमे कयुं ते सत्य , परंतु समकित गुणनी वृद्धि करवाअर्थे, उत्तम देत्रमा धन वापरवाने अधिकारी एवा श्रावकने आ पूजा मोटो गुण करे ये. कारणके बीजा हेतुथी का मुख्य हेतु निफल थतो नश्री. ५६ विशेषार्थ-जो सत्वशुद्धि करवानी श्वा राखता होतो, तमारे स्वरूपथी सावद्य एवी पूजा करवानुं शुं काम ? अर्थात् तेवी पूजाथी सर्यु. कारणके निरवद्य एवा सामायिक विगेरे अनुष्ठानश्री नावआपत्तिने निवारण करनार मोटो गुण सिद्ध थाय बे. कारण के सामायिक, पौषध विगेरे सत्वशुधिना परम साधनो के. तेना उत्तरमांकहे के, ते तमारू कथन सत्यने, परंतु जे श्रावक दर्शनगुणना नहासने माटे अर्थात् समकितगुणोनी वृधिने माटे उत्तम देत्रमा धन वापरवाने अधिकारी श्रयो होय, ते श्रावकने आ पूजा मोटो गुण करे बे. कारणके अधिकारी विशेषथी कारण विशेष श्राय जे. तेथी श्रावकने व्यस्तव हस्तिना शरीर जेवु अने नावस्तव जे अमुक काल सुधी सामायिकरूप में, ते तेमने हस्तिना नेत्ररूप बे. तेथी वीजा हेतुने ध्यानमां देतां मुख्य हेतु निष्फल अतो नश्री; तेथी सिद्ध थयु के दान, सामायिक अने देवपूजा, श्रावकने अमुक हेतुने लश्ने करवा योग्य ने अने तेम करतां बिलकुल दोष लागतो नश्री. ५६ । __ हवे चैत्यपूजामां आरंजनी शंका करवाश्री जे दोषो लागे ते कहे. अन्यारंजवतो जिनार्चन विधावारंनशंकाभृतो, मोदः शासननिंदनंच विलयो बोधेश्च दोषाः स्मृताः। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (00) संकाशादिवदिष्यते गुणनिधिर्धर्मार्थमृद्ध्यर्जनं, शुझालंबनपदपातनिरतः कुर्वन्नुपेत्यापि हि ॥५॥ अर्थ-श्री जिन पूजानी विधिमां आरंजनी शंका करता अने अन्य आरंजना कार्योंने करता एवा श्रावकने त्रण दोष लागे ने एम कडं जे. प्रथम मोह, बीजो दोष शासननी निंदा अने त्रीजो दोष बोधि ( सम्यक्त्व )नो नाश. तेथी जे श्रावक शुध आलंबननो पदपाती होय, ते संकाश नामना श्रावकनी जेम धर्मार्थे अन्योपार्जन करीने पण गुणनिधितरीके सर्व जनने इष्ट थाय बे. ५७ विशेषार्थ-बीजा श्रारंन करनार अर्थात् जिनमंदिर, जिनपूजाविधिमां आरंजनी शंका धारण करी ते नहीं करनार एवा अन्य कार्योना आरंन करनार नीच श्रावकने मुख्यत्वे करी त्रण दोष लागे जे. प्रथम दोष मोह , कारण के पोताना इष्ट अर्थनी संपत्तिने माटे तेने मतिविन्रम थाय ने अने तेथी शुलानुबंधी अनुष्ठानने आरंज मानी ते करतो नथी. बीजो दोष, शासननिंदा , कारणके अन्य: जनसमुदाय कहे जे के आ मनुष्य केवो कृपण ने, अन्य कार्योमा व्यनो व्यय करे , परंतु पोताना इष्ट देवना आराधनने माटे मंदिर के पूजा विधिमां अव्यनो व्ययतो बिलकुल करतो नथी, तेथी तेमना इष्टदेव तेवो उपदेश करी गया दशे; एवीरीते अनुक्रमे ते श्रावक पोताना कृत्यश्री. बीजा मनुष्यो पासे शासननी निंदा करावे . त्रीजो दोष बोधि अर्थात् सम्यक्त्वनो नाश, कारण के परमात्मानी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) अव्य अने लावधी नक्ति कर्याविना मात्र सांसारिक आरंजनां कार्योने करता एवा श्रावकने सम्यग्दर्शन, विद्यमानपणुं केम होय? तेथी तेनो नाशज बे, एम समजवं. माटे जे शुद्ध आलंबननो पक्षपाती होय एवो श्रावक धर्मनेअर्थ व्योपार्जन करीने पण संकाश नामना श्रावकनी जेम गुणनो जंडार थइ, सर्व लोकमां इष्ट थाय . ते संकाश श्रावक प्रमादशी चैत्यभव्य खाइ गयो हतो, तेनुं वृत्तांत विस्तारथी जोवू होय तो श्राविधि विगेरे ग्रंथ अवलोकन करवा. ५७ __अहिं कोई शंका करे के मलिनारंजी वा सदारंजी तो अव्यपूजानो अधिकारी थइ शके, परंतु जे तेवो न होय ते केम अधिकारी श्रश् शके ? तेनुं समाधान करे . यः श्राछोपि यतिक्रियारतमतिः सावद्यसंक्षेपकृद्, जीरुः स्थावरमर्दनाञ्च यतनायुक्तः प्रकृत्यैव च । तस्यात्रानधिकारितां वयमपि ब्रूमो वरं दूरतः, पंकास्पर्शनमेव तत्कृतमलप्रदालनापेक्षया ॥ ५ ॥ अर्थ.-जे श्रावक सर्व सावध कर्मने संदेप करनार होय, पृथ्वी विगेरे स्थावर जीवने मर्दन करवामां नीरू होय, स्वन्नावश्रीज यतना करनार होय अने जेनी बुद्धि मुनिना जेवी क्रिया करवामां उत्सुक होय, तेवो श्रावक श्रा पूजानो अधिकारी नश्री, एम अमे पण कहीए बीए. कारण के कादवना स्पर्शथी लागेला मलने धोइ नाखवा करतां, ते मलथी दूर रेहेकुं तेज वधारे सारं . ५७ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) विशेषार्थ - जे श्रावक सर्व सावद्यकर्मनो संक्षेप करनार होय, जे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि स्थावर जीवोने मर्दन करवामां बहुज जीरु होय, जे स्वभावथीज यतनापूर्वक सर्व प्रवृत्ति करतो होय जेनी बुद्धि मुनिनी क्रिया करवामां निरंतर कर्त्तव्य तरी - के उत्सुक होय, तेवो श्रावक श्री अव्यपूजानो अधिकारी नथी. एम मे पण कहीए बीए. कारण के तेनामां श्रात्माने नाश करनार मलिनारंजनो अभाव बे अने चारित्रनी इवाना यो थी अनारंजनी सिद्धि बे. ते बाबतमां दृष्टांत ए वे के कादवना मलने स्पर्श करी तेने धोइ नाखवाना करतां, ते कादवनो स्पर्श नहींज करवो ते वधारे उत्तम बे. तेथी मलिनारंजी तथा सदारंजी बनेने श्रा प्रव्यपूजानो अधिकार बे; अने यतिक्रियाना अन्यासवालो श्रावक तो श्रमणोपासक बे, परंतु श्र स्वरूप आधुनिक उत्पन्न थयेला कुमतियोने जाणवामां नथी, कारण के तेनो सर्व मत कपोलकल्पित बे. ९८ सिंहावलोकन न्यायवडे प्रव्यस्तवमां कहली हिंसाना अंशनी बुझिने दूर करे. धर्मार्थं सृजतां क्रियां बहुविधां हिंसां न धर्मार्थका, हिंसांशेन यतः सदाशयभृतां वांडा क्रियांशे परं । न द्रव्याश्रवतश्च बाधनमपि स्वाध्यात्मजावोन्नते, रारंजा दिकमुच्यते हि समये योग स्थितिव्यापकं ५ अर्थ. धर्मने अर्थे अनेक प्रकारनी क्रिया करनारा श्रावकोने धर्मार्थ हिंसा न थाय, कारण के शुभ जाववाला श्रावकोने हिं Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवानी अनिन नाववाला श्रासना करवायी वारण के स (३) साना अंशमां श्छा होती नथी, मात्र क्रियाना अंशमांज श्या होय . वली व्याश्रवथी पोताना अध्यात्मनावनी उन्नतिने पण बाध आवतो नथी, कारण के सिद्धांतमां योगस्थिति होय त्यांसुधी श्रारंन विगेरे कहेवाय ने एए विशेषार्थ-धर्मने अर्थे घणा प्रकारनी पूजनादि क्रिया करनारा श्रावकोने धर्मार्थ हिंसानो दोष लागे नहीं, कारण के सदाशय अर्थात् शुननाव जे के यतना करवाथी वृद्धि पामेलो जेने होय एवा शुल लाववाला श्रावकोने कोइ पण अंशे हिंसा करवानी अभिलाषा होतीज नथी. मात्र तेउने क्रियापूर्वक प्रवृत्ति करवानी श्वा होय . तेथी अनुबंध हिंसा के हेतु हिंसा ते क्रियामां होतीज नथी, मात्र स्वरूप हिंसा रहेछे, तेथी कहे के, तेवा अव्याश्रवथी पोताना अध्यात्मनावनी उन्नतिने पण बाघ श्रावतो नथी. वली सिमांतमां पण योगस्थितिमां व्यापक अर्थात् ज्यांसुधी योग रहे त्यांसुधी आरंन विगेरे . ते विषे कह्यु ने के "जावंचणं एयश् वेयश् तावंचणं श्रारंलइ सारंलइ समारं ज" इत्यादि वचन . जो व्याश्रवमात्रथी बंध थाय तो तेरमा गुणस्थानमां पण बंध थाय. एए श्रा विषयमा कूपनिदर्शन जणावी कहे. पूजायां खलु नावकारणतया हिंसा न बंधावहा, गौणी व्यवहारपतिरियं हिंसा वृथा निश्चये। जावः केवलमेक एव फलदो बंधो विरत्यंशज, स्त्वन्यः कूपनिदर्शनं तत श्हाशंकापदं कस्यचित्॥६॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (08) अर्थ- व्यस्तव जावनुं कारण होवाथी, पूजामां थयेली हिंसा बंध करनार यती नथी. व्यवहारनयनी पद्धतिथी विचारीएतो या हिंसा गौणी अर्थात् उत्तम हिंसा के अने निश्चयनयथी विचारीए तो आ हिंसा वृथा ने, कारण के पूजामां मात्र नाव एकज फलने आपनार ने अविरतिना अंशथी उत्पन थयेलो बंध जुदो बे. तेथी या स्थले अपातुं कुवानुं दृष्टांत कोइकने शंकानुं स्थान थर पडे बे. ६० • विशेषार्थ - अव्यस्तव जावनुं कारण रूप होवाथी पूजामां थती स्नानादि सामग्री मां करेली हिंसा बंध करनारी होती नथी, कारण के जो तेम होय तो दूर्गता स्त्री प्रमुखने सद्गतिनी - सिद्धि होय, परंतु सिद्धांतमां तेर्जने सद्गतिनां प्राप्त करनारां वर्णव्यां वे. वली व्यवहारनयनी पद्धतिए जोतां श्र हिंसा गौ अर्थात् श्रेष्ठ वे, कारण के परम पुण्यबंधनी हेतुरूप होवा - "श्री" घी बले बे" एवा न्यायथी इष्ट वे अने निश्चयनयथी विचारीए तो था हिंसा वृथा छे, कारण के बंधनी कारणरूप थती नथी. मात्र शुभजाव एकज फलदायक बे, अर्थात् ते जो श्रेष्ठ होय तो श्रेष्ठ फल मले छाने मंद होय तो मंद फल आपवाने समर्थ थाय. या प्रमाणे विविक्तनो विवेक करतां अविरति सम्यग्दृष्टि प्राणीने पण पूजामां बंध नथी, ने अविरतिपणाना श्रंशथी लागतो बंध ते तो जुदोज बे. पूजाना योगमां ते योजेंलो नथी, नहीं तो जिनवंदन विगेरेमां पण ते थवानो प्रसंग वे. ते कारणथी या स्थले कुवानुं दृष्टांत केटलाएक श्रुत जाणनारने आशंकानुं स्थान थइ पडे. ते विषे आवस्यक सू Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) त्रमा व्यस्तवना प्रसंगमां समाधानने स्थले अवलोकन करवू. ६० पूर्वोक्त दृष्टांतनुं विवेचन करे. अत्रास्माकमिदं हृदि स्फुरति यद्यव्यस्तवे दूषणं, वैगुण्येन विधेस्तदप्युपहतं जक्त्येति हि ज्ञापनं । कूपज्ञातफलं यतो विधियुताप्युक्त क्रिया मोददा, जक्त्यैव व्यवधानतःश्रुतधराः शिष्टाः प्रमाणं पुनः ६१ अर्थ- अहिं अमारा हृदयमां एवं स्फुरे ने के व्यस्तवमा जे दूषण कहेवाय , ते दूषण विधिना विकलपणाथी छे, परंतु ते दूषण लक्तिनावश्री हणाइ जाय . ए ज्ञापन कुवाना दृष्टांतश्री जाणवामां आवे . कारण के अविधिए करेली क्रिया परंपराथी नक्तिवडे मोददायक थाय . ए विषयमां शास्त्रने धारण करनारा शिष्टपुरुषोज प्रमाण . ६१ विशेषार्थ- श्रा विषे अमारा हृदयमां एवं स्फुरे बे के, अव्यस्तवमा जे दूषण , ते दूषण विधिना विगुणपणाथी , अर्थात् नक्तिमात्रमा एकतान थइ जवाश्री विधिमां विकलपणुं वा अन्नाव थइ जाय , तेवा विधिना विकलपणा वा अनावथी योजेलुं प्रव्यस्तव, दूषण पण अधिक नक्तिनावथी हणा जाय जे. आप्रकारनुं ज्ञापन ते कूप दृष्टांतनुं फल डे अर्थात् कुवाना दृष्टांतश्री ते जणाय जे. जेथी अविधियुक्त क्रियाना व्यवधानश्री पण परंपराए जो नक्तिनुं प्राधान्यपणुं होय तो तेथी मोददायक कथन करेल . श्र विषयमा मात्र शिष्टपुरुषोज प्र Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६) माणरूप . ते विषे शिष्टपुरुषोना वचन विरुष्प कुमतियोनी कपोलकल्पित कल्पनानी रचना न था. ६१ ।। हवे पूजामां हिंसानो संलव ने एवी उक्तिने विकटपे दूषित करी कहे . धर्मार्थप्रतिमार्चनं यदि वधः स्यादर्थदंडस्तदा, तत्कि सूत्रकृते न तत्र पठितो नूताहियक्षार्थवत् । या हिंसा खलुजैनमार्गविहितासास्यानिषेध्या स्फुटं, नाधाकर्मिकवन्निहंतुमिह किं दोषं प्रसंगोनवं ॥६॥ अर्थ- जो जिनपूजामां हिंसा लागती होय तो ते हिंसा श्रनर्थ दंडरूप थाय के अर्थ दंडरूप थाय? प्रथमपक्षतो संनवतो नयी अने बीजो पद अर्थदंडनो सश्ए तो सूत्रकारे अर्थदंडना अधिकारमा जूतादि यदना अर्थनी जेम ते केम कह्यो नथी ? तेथी आधार्मिक दोषनी जेम प्रसंगे उत्पन्न थयेला दोषने हणवाने जैनमार्गविहित हिंसा केम प्रगट रीते निषेध करवा योग्य न थाय? अर्थात् थायज ६५ विशेषार्थ- जो कुमति पूजामां हिंसा थाय एम कहे तो, शुं ते हिंसा अनर्थदंडरूप ने के अर्थदंडरूप ने ? प्रथमपक्ष श्रनर्थदंडरूप तो कही शकायज नही. कारण के तेमां प्रयोजननी सिद्धि . बीजो पक्ष अर्थदंडरूप अर्थात् प्रतिमापूजनरूप धर्म अर्थदंडपणाथी व्यवहार करे एटले के तेने अर्थदंड कहेतो सूत्रकारे अर्थदंडना अधिकारमां नूताहियदना अर्थनी जेम ते केम जणान्यो नथी ? जो तेम होय तो निश्चयपूर्वक जै Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) नमार्गविहित हिंसानो प्रगट रीते श्राधाकर्मिक दोषनी जेम प्रसंगना दोषने हणवा केम निषेध न करे ? अर्थात् जो तेम होय तो करवो जोइए. ते स्थले जुतादि यक्ष विषे " पढमे दंड समादाणे" इत्यादि पाठ विस्तारपूर्वक श्रापेलो . जो जिनप्रतिमानी पूजाने अर्थे थयेलो वध, हिंसा थात तो त्यां "जिणपडिमा हेलं जिण हेलं वा” ए प्रमाणे पाठ सूत्रकार नणत, परंतु, त्यां तेम कह्यु नश्री. तेथी जिनपूजा, हिंसा न गणय, एम अर्थ थाय. ६२ ___ हवे सूत्रोनां बीजां दृष्टांतो आपी कुमतियोनी मूढता बतावी श्रापे . आनंदस्य हि सप्तमांगवचसा हित्वा परिवार, श्रामस्य प्रथितोपपातिकगिरा चैत्यांतरोपासनां । अईचैत्यनतिं विशिष्य विहितां श्रुत्वा न यो धर्मतिं, खांतान्मुंचति नाश्रयप्रियतया कर्माणि मुंचंति तं ३ अर्थ-जे लुंपक धर्मति सप्तमांग ( उपासग दशांग ) ना वचनथी आनंद श्रावकनी चैत्यवंदना श्रवण करी श्रने उव्वाश (औपपातिक) उपांगनी वापीथी अन्यतीर्थना चैत्यनी उपासनानो त्याग करी पोताना हृदयमांथी धर्मतिने तजतो नथी, तेवा मुर्मतिने, जाणे पोताने सारो श्राश्रय मट्यो होय तेम ज्ञानावरणादि कर्मो गेडतां नथी, अर्थात् ते मुर्मति कदापि कर्मथी मुकातो नथी ६३ विशेषार्थ-जे ढुंपक उमति, श्रीउपासकदशांग नामना सातमा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (00) अंग मध्येनी आनंद श्रावकनी कथा श्रवण करी, तेमणे करेली नामग्रहणपूर्वक कर्त्तव्यरूपे कहेली वंदनाने सांगली, तेमज तापसोमां श्रेष्ठ एवा अंबड श्रमणोपासकनी औपपातिक ( जववाइ ) अंगमां वर्णवेली, अन्यतीर्थना चैत्यनी उपासनानो त्याग करावनारी कथा श्रवण करी पोताना हृदयमांथी दुर्मतिने बोडतो नथी तेवा दुर्मतिने, पोताने अत्यंत प्रिय आश्रय महयो बे एम धारी ज्ञानावरणादि कर्मों बोडतां नथी. " तेां से दे गाहावती समणस्स जगव महावीरस्स " इत्यादि सप्तमांगनो आलापक बे. ते यालापकमां वख्यं बे के हे जगवंत ! मारे ते कल्पे नहीं. इत्यादि विस्तारथी सप्तमांगमां अवलोकन करवुं. ते कथामां अन्यतीर्थीकोए ग्रहण करेला चैत्यने वांदवाना निषेधमां, निश्रीत अर्हत चैत्यवंदनादिकनी विधि स्फुट रीते दर्शावी बे. वली औपपातिक उपांगमां अंबड तापसे अईत चैत्यने पोताना कंग्यीज नमस्कार करेलो बे, एम उत्तराध्ययनना सम्यक्त्व पराक्रम नामना अध्ययनमां स्फुटरीते कथन करेल बे, तथापि लुंपको पूजाविधिने जोता नथी ते तेमनो पोतानोज अपराध बे. अंधपुरुषो थांजलाने जोवे नहीं, अने चालतां थांजलो वागे, तेमां थांजलानो अपराध न कहेवाय. वली उत्तराध्ययनना सम्यक्त्व पराक्रम अध्ययनना समकित श्रालापकमां सूक्ष्मदृष्टिए जोवाथी गुरु साधर्मिकनी सेवाना फलने बतावतां पूजानुं फल पण ते स्थले जावेलं बे, एम विधानोए जाणी लेवुं. ६३ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) हवे बीजां दृष्टांतो आपी स्थापना सिद्ध करे बे. प्रश्नव्याकरणे सुवर्ण गुलिकासंबंध निर्धारणे, शस्ते कर्मणि दिग्यग्रहरहः ख्यातौ तृतीयांगतः। सम्यग्नावित चैत्यसादिकमपि स्वालोचनाझाश्रुतौ, सूत्राच व्यवहारतो नवति नःप्रीतिर्जिने स्थिरा ६४ अर्थ-प्रश्न व्याकरणमां आपेला सुवर्णगुलिका दासीना संबंधथी, श्रीस्थानांग सूत्रमा आपेला श्रेष्ठ कर्मवाला पूर्व उत्तर बे दिशारूप ग्रहना तात्पर्यनी सिद्धिथी अने सद्लावने प्राप्त करेला चैत्योनी सादीए व्यवहारसूत्रथी करेली आलोचनाना श्रवएणश्री अमारी प्रीति श्रीस्थापना प्रनुने विषे दृष्टपणे स्थिर श्रयेली बे. विशेषार्थ-श्रीप्रश्नव्याकरण नामना दसमा अंगमां सुवर्णगुलिकाना संबंधन निर्धारण जे, तेने लीधे, तथा श्रीस्थानांग सूत्रथी श्रेष्ठ एवा कर्ममा पूर्व अने उत्तर दिशारूप ग्रहना तात्पयनी जे सिधि, ते अये उते अने सारीरीते सद्लावने प्राप्त करेला चैत्योनी सादीए व्यवहारसूत्रथी सम्यक् प्रकारे करेली आलोचनानुं श्रवण कर्येउते, अमारी प्रीति श्रीस्थापना जिनेंप्रने विषे स्थिर श्रयेली . दसमा अंगना तूर्याश्रवधारने विषे सुवर्णगुलिकानुं अख्यान . यथा. “ सुवन्नगुलिभाएत्ति " इत्यादि-सिंधु सौवीर देशमा विदर्जेक नगरने विषे. उदायन नामे राजा हतो, तेने प्रत्नावती नामनी राणी हती. ते राणीने देवदत्ता नामनी एक दासी हंती. ते दासीने देवताए निर्माण करेली श्री महावीर लगवंतनी प्रतिमा प्राप्त श्रझ, तेनी उपासना करता Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए.) कोश् श्रावके देशांतरथी लावी सो गुटिका आपी. ते गुटिकानां प्रनावथी, दासी कुबडापणुं गेडी सुरूपा थइ अने ते सुवर्णगुलिका एवा नामथी प्रख्यात था इत्यादि, विस्तारथी ते स्थखे जोवं. दिग्घय अनिग्रहने विषे श्रीस्थानांग सूत्रनो श्रालापक बे,ते बीजा स्थानना प्रथम उद्देशामां . यथा “ दोदिसा श्रनिगि लगप्पर निग्गंथाणवाणिग्गंथीणवा पन्वावित्तए पाहणं चेव उदीणंचेव" इत्यादि. पूर्व अने उत्तर ए बे दिशा तरफ जे सन्मुख करईं एम कहेढुंचे, ते अईत अने अर्हतचैत्योने सन्मुख करवाने माटेज . तेथी ते विनयर्नु श्रेष्ठकर्म पूर्वांगपणाथी गणायचे. अधिकारी गृहस्थने लोकोपचार अने विनयात्मक पूजानुं प्रधानपणुं योग्यज . श्रावो तेनो तात्पर्य . श्रीव्यवहार सूत्रनुं आसापक श्राप्रमाणे . " निखुश्रणयरं अकिच्चगणं सेविजा आलोत्तए" इत्यादि. तात्पर्य ए छे के-ते देवताना अलावे अर्हत प्रतिमानी श्रागल पोताने प्रायश्चित्त श्रापवाना ज्ञानमां कुशल पुरुष पोतानी मेसेज आलोचना करे. ए थालापकमां " सम्मंनाविश्राइं" एवं विशेषण , ते देवता अने चैत्यने खागु पडे. श्राप्रमाणे सम्यक् प्रकारे लावना करवाथी प्रतिमानी पूजा, मननी विशेष शुधिने अर्थे थाय . ६५ . _हवे प्रौपदीन दृष्टांत श्रापी ढुंपकमतिनी मूढता प्रगट करे ने. तीर्थेशप्रतिमार्चनं कृतवती सूर्याजवघ्नक्तितो, यत्कृष्णापरदर्पमाथि तदिदं षष्ठांगविस्फूर्जितं । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए१ ) सच्चक्रे खलु या न नारदमृषिं मत्वा वृता संयतं, मूढानामुपजायते कथमसौ न श्राविकेति नमः ॥६५॥ - औपदी सूर्यान देवनी जेम जक्तिश्री तीर्थकर भगवाननी प्रतिमानुं पूजन करेलुं हतुं, श्रावुं प्रतिवादीना गर्वने नाश करनार बठा ( ज्ञाता सूत्र ) अंगनुं कथन बे. वली जे द्रौपदीए नारद ऋषिने व्रतरदित जाणी, तेमनो सत्कार कर्यो न हतो, बतां ते पदी श्राविका नथी एवो मूढ लोकोने केम चम थाय बे १६५ विशेषार्थ - सती प्रौपदीए राजप्रश्नीय उपांगमां कथन करेला वृत्तांतवाला सूर्याजदेवनी जेम जक्तिपूर्वक तीर्थकर भगवाननी प्रतिमानुं पूजन कर्यु हतुं श्र प्रमाणेना श्रर्थने सूचवनारूं श्री ज्ञातासूत्र नामना बता श्रंगनुं कथन लुंपकमतिना गर्वने मथन करनारूं बे. हिं पक घुर्मति मिथ्या गर्वरूप एवो कुतर्क करे प्रौपदी प्रतिमापूजन करेलुं होय तो जले, परंतु तेलीने पांचमुं गुणस्थान प्राप्त थयुं न होतुं तेना समाधानमां कहे बे के, ते प्रौपदीए नारदऋषिने व्रतरहित जाणीने तेनो सत्कार पण कर्यो नहतो, बतां द्रौपदी श्राविका नथी, एवो भ्रम हे मूढपुरुषो ! तमने केम थाय बे ? वली प्रतिमापूजन करतां तेमने समकित प्राप्त थयेलुंबे, एम पण सूत्राक्षरे दर्शाव्यं बे. तथा नियाणाना फलना जोग पक्षी प्रौपदीने देशविर तिपणानो संजव नहतो एवं वचन पण बुद्धिनी अंधतामात्रनुं फल बे. नियाखाना प्रतिबंधपणामां तेनुं पार्यंतिक फल प्राप्त थया विना कृ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) वासुदेव विगेरेनी जेम ते जन्ममांज विरति लालनो असंलव जे. आप्रमाणे यत्किंचित् जाणी लेबु. ६५ प्रौपदीए करेली पूजामां तेने आलोक संबंधी अर्थनी वांग नहती ते कहे . तत्पाणिग्रहणोत्सवे कृतमिति प्रौढ्या प्रमाणं न चेत्, स्वःसन्निमितवंदनादिकमपि स्थित्युत्सवे किं तथा। क्लिष्टेचा विरहो घ्योरपि समस्तुत्यश्च जक्तेर्गुणो, नागादिप्रतिमार्चनादिह खलु व्यक्ता विशेषप्रथा ६६ __ अर्थ- प्रौपदीए पोताना पाणिग्रहणना उत्सवमा उत्सुकपणाथी तीर्थकरनी प्रतिमार्नु पूजन कर्यु हतुं, एम जो प्रमाण न होयतो, सूर्याजदेवे पण इंजमहोत्सवनी स्थितिने समये करेलु वंदनादिक पण उत्सुकपणाथी करेलु केम कहेवाय ? सूर्याजदेव अने प्रौपदी बनेने कामनोगनी इच्छानो विरह सरखो , तेमज ते बनेने नक्तिनो गुण पण सरखो गे; परंतु नागादिप्रतिमाना पूजननी अपेक्षाए ौपदीनी जिनपूजामा विशेष दृष्टि प्रगट जणाइ आवे . ६६ विशेषार्थ-प्रौपदीए पाणिग्रहणना उत्सवमां उत्सुकपणाथी श्रीतीर्थकर जगवंतनी प्रतिमार्नु पूजन कर्यु हतुं, ते जो तमने सत्य लागतुं न होयतो, सूर्यानदेवे इंप्रमहोत्सवनी स्थितिने समये उत्सुकपणाथी करेलुं चंदनादिक पण तमोने केम वास्तविक लाग अर्थात् ते वंदनादिक पण उत्सुकपणाथी करेला हता एम तमने लागशे नही. परंतु बुधिपूर्वक विचार करशो तो ज Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए३) णाशे के, जेम सूर्यानदेव अने जौपदी बनेने कामनोगादिकनी श्वानो अनाव समान , तेम ते बनेने नक्तिनो नवास पण समान बे. वली नागादि प्रतिमाना पूजनश्री प्रौपदीनी जिनपूजाने विषे विशेष दृष्टि प्रगट जणाय . कारणके नागादि प्रतिमाना पूजनमा लञासार्थवादीए पुत्रनी प्रार्थना करी हती एम सांगलीए जीए. यथा “ तेणं सालदा साथ्यवाही धणेणं सत्यवाहेणं” इत्यादि. जेम नवासार्थवाहीए नागादिकनी पूजा करी पुत्रनी मागणी करी हती, तेम प्रौपदीए जिनप्रतिमार्नु पूजन करी कांइपण वरदान माग्युं नहतुं, तेज यथार्थ ध्यानमां लेवानुं बे. ६६ ___ हवे ते विषयमा अवशेष ने तेनुं वर्णन करे जे. एतेनैव समर्थिता ज्युदयिकी धा च कट्पोदिता, श्रीसिद्धार्थनृपस्य यागकरणप्रौढिर्दशाहोत्सवे। श्राछः खन्वयमादिमांगविदितोयागं जिनार्चा विना, कुर्यान्नन्यमुदाहृता व्रतभृतां त्याज्या कुशास्त्र स्थितिः॥ अर्थ-ौपदीना चरित्रना सामर्थ्यश्री, श्रीवीरजगवंतना पिता सिद्धार्थ राजानी, दस दीवस सुधी महोत्सवपूर्वक याग करवानी प्रौढता सिद्ध श्रयेली , जे प्रौढता अन्युदयवाली अने धर्मयुक्त एवी श्रीकल्पसूत्रमा वर्णन करेली . ते सिद्धार्थ राजा श्रीपार्श्वनाथ जगवंतना साधुना उपासक हता एम प्रथम अंगमां कहेलु , ते श्री जिनपूजारूप याग विना बीजा लोक प्रसिध्द Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) यज्ञ करेज नहीं, कारणके व्रतधारीउने कुशास्त्रनी स्थिति त्याग करवा योग्य होय . ६७ विशेषार्थ-श्रीवीर परमात्माना पिता सिद्धार्थ राजा श्रीपार्श्वनाथ जगवंतना मुनियोना उपासक हता एम श्रीश्राचारांग सूत्रमा कथन करेल , तेमणे प्रौपदीना चरित्रना सामर्थ्यथी दस दीवस सुधी मोटा महोत्सवपूर्वक श्रीजिनपूजा करी हती. ते सिद्धार्थ राजानी यज्ञ करवानी प्रौढता अभ्युदयवाली अने धर्मयुक्त ने, एम श्री कल्पसूत्रमा वर्णन करेल , ते यज्ञ श्री जिनश्वर नगवाननी पूजाविना लोक प्रसिद्ध यज्ञ होश शके नही, कारणके व्रतधारी कुशास्त्रमा वर्णन करेला विधिमार्गनो त्याग करे बे. कुशास्त्रमा वर्णवेला याग हिंसामय , ते पार्श्वनाथ जगवंतनो उपासक श्रावक एवा याग कदापि करेज नही. एम कल्पसूत्रनो पाउ . यथा “ जाए अदाए अजाए" इत्यादि प्रसिद्ध बे. याग एटले देवपूजा जाणवी. परम श्रावक सिद्धार्थ राजाने जिनपूजाश्रीज श्रमणोपासकपणुं ने, एम श्री श्राचारांग सूत्रमा कहेलुं . ते राजा अनशन करी अच्युत देवलोकमां देवता थइ, महाविदेहमा मुक्ति पामशे. ६७ ___ सर्व ढुंपकोना मतनो उपसंहार करी कहे. इत्येवं शुचिसूत्रवृंदविदिता नियुक्तिनाष्यादिभिः, सन्न्यायेन समर्थिता च जगवन्मूर्तिः प्रमाणं सतां । युक्तिस्त्वंधपरंपराश्रयहता माजाघटीदुर्डिया, मेतदर्शनवंचिता गपि किं शून्येव न चाम्यति॥६॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) अर्थ- उपर प्रमाणे पवित्र सूत्रोना समूहमां वर्णवेली, नियुक्तिलाष्य विगेरेथी, तथा उत्तम न्यायपूर्वक सिद्ध करेली, ए. वी लगवंतनी प्रतिमा सत्पुरुषोने आराध्य होवाथी प्रमाणरूप बे; अने धर्मति लोकोनी कुयुक्ति अंधपरंपराथी हणाइ गयेली होवाथी तेमां अवकाश पामती नथी अर्थात् घटती नथी. वली नगवंतनी प्रतिमाना दर्शनथी गायेली तेमनी दृष्टि पण जाणे शून्य होय तेम शुं नथी नमती ? अर्थात् नमे बे. ६७ विशेषार्थ- श्रा प्रकारे निर्दोषसूत्रोना समूहमां कथन करेसी, नियुक्ति, नाष्य, वृत्ति विगेरेथी तथा सारी युक्ति अने सत्प्रकरणथी निष्कलंक निश्चय नयवडे सिद्ध करेली, लगवंतनी प्र. तिमा सजन पुरुषोने श्राराध्य होवाथी प्रमाणरूप में; अने अंधपरंपराथी हणाइ गयेली उर्मति लोकोनी युक्ति तेमां घटती नथी, कारण के युक्तिना नाशनी परंपरामा युक्तिनुं ग्रहण असिष थाय. जे. वली जगवंतनी प्रतिमाना दर्शनथी वंचित श्रयेली तेमनी दृष्टि पण जाणे शून्य होय तेम लम्या करे बे. ते उपर त्रण काव्य वे. यथा तिलकयुतललाटत्राजमानाः वनाग्यांकुरमिवसमुदितं दर्शयंते जनानां । स्फुरदगुरुजमाला सौरनोफारसाराः; कृतजिनवरपूजा देवरूपा महेन्याः ॥१॥ नावार्थ- तिलकवाला ललाटथी शोलता, तेमज विकस्वर एवी अगुरु चंदननी मालानी सुगंधीना उद्गारथी उत्तम एवा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए६ ) श्रावको श्री जिनराजानी पूजा करी, जाणे पोताना जाग्यना - कुरा प्रगट थया होय तेम तिलक लोकोने बतावे बे. १. वलीश्रानंदमांतरमहो समुदाहरंती, रोमांचिते वपुषि सस्पृहमुल्लसंती | पुंसां प्रकाशयति पुण्यरमासमाधि, सौनाग्यमर्चनकृतां निभृता दृगेव ॥ २ ॥ जावार्थ - जिनेश्वर जगवाननी पूजा करनारा श्रावकोनी हष्टि अंतरा आनंद प्रगट करती ने रोमांचित शरीरमां स्पृहाथी उल्लास पामती थकी तेमनी पुण्यलक्ष्मीना सौभाग्यने प्रकाशित करे वे. २. वली - स्पृशति तिलकशून्यं नैव लक्ष्मीर्ललाटं, मृतसुकृतमिव श्रीः शौचसंस्कारहीनं । कलितजजनानां वल्कलान्येव वस्त्राएयपि च शिरसि शुक्लं उत्रमप्युप्रजारः ॥३॥ नावार्थ- सुकृत तथा शौचसंस्कारथी रहित पुरुषनी जेम, तिलकरहित ललाटने लक्ष्मी स्पर्श करती नथी. जजन तिलकरहित पुरुषोने वस्त्रो वल्कलरूप बे ने मस्तक उपर रहेलुं श्वेत पत्र पण मोटा बोजारूप बे ॥ ३ ॥ - लुंपकोनी मिथ्या कल्पना परास्त करता, पतिमापूजन निदान लाजमय वे, ते दर्शावे बे. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) प्राप्या नूनमुपक्रिया प्रतिमया नो कापि पूजा कृता, चैत्यन्येन विहीनया तत श्यं व्यर्थेति मिथ्या मतिः॥ पूजानावत एव देवमणिवत् सा पूजिता शर्मदे, त्येतत्तन्मतगर्वपर्वतनिदावजं बुधानां वचः ॥ ६ ॥ अर्थ- चैतन्यविनानी प्रतिमानी पूजा करनार पुरुष कोई पण उपकृतिने प्राप्त थतो नथी, तेथी ते प्रतिमानी पूजा व्यर्थ बे, एवी लुपकोनी वाणी तदन मिथ्या . कारण के जो ते प्रतिमानी पूजा नावथी करी होय तो ते देवमणिनी जेम सुखदायक . आप्रमाणे विधानोनुं वचन तेमना मतना गर्वरूप पर्वतने नेदवामां वज्ररूप . ॥ ६ए॥ विशेषार्थ- चैतन्यथी रहित एवी प्रतिमार्नु पूजन करनार पुरुष कोइ पण उपकारने प्राप्त करतो नश्री, ते कारणथी आ पूजा व्यर्थ . श्रावी लुंपकोनी वाणी तदन असत्य जे. कारण के तीर्थकर नगवाननी प्रतिमानी पूजा जो नावपूर्वक करी होय तो ते देवमणिनी जेम सुखदायक आप्रमाणे विधानोनुं वचन तेमना मतना गर्वरूप पर्वतने नेदवामां वज्रसमान बे, ते बाबतमां आप्रमाणे काव्य . एवं युक्त्या शंजोनत्या सूत्रे व्यक्ता ढुंपाका, श्चित्तोडिक्ता माया सिक्ताः कृप्ता रिक्ताः किंपाकाः॥ एतत् पुण्यं शिष्टैर्गुण्यं निर्वैगुण्यं सद्बोधै, स्तत्वं बोध्यं मत्या शोध्यं नैवायोध्यं निःक्रोधैः॥१॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) लावार्थ-एवी युक्तिवडे चित्तमां गर्व धारण करनारा, मायावी अने विषवृक्ष जेवा ढुंपक पुरुषोए सूत्रनी स्पष्टताथी अने शंखजिननी जक्तिपूर्वक पुण्यना तत्वनो बोध करेलो ने, तेथी क्रोधरहित पुरुषोए तेउनी सामे युद्ध करवू नहीं, परंतु जे सत्य तत्व बे, ते बुधिपूर्वक शोधी लेवं. वलीश्रात्मारामे शुक्लास्यामे हृद्विश्रामे विश्रांता, स्त्रुट्यबंधाः श्रेयः संधाश्चित्संबंधादभ्रांताः। अहङ्गक्ता युक्तौ रक्ता विद्यासता येऽधीता, निष्टातेषामुच्चैरेषा तर्कोझेखा निर्णीता ॥२॥ __ लावार्थ-जे अर्हतना नक्तो उज्वल-प्रकाशित स्वरूपवाला, इदयने विश्रामरूप एवा आत्माराम ( श्रात्मारूप आराम) ने विषे विश्रांत श्रयेला बे, जेमना कर्मना बंध त्रुटी गयेला बे, जे चैतन्यना संबंधथी कट्याणनी साथे जोडायेला , जे ज्रांतिरहित युक्तिमां तत्पर अने विद्यामां आशक्त , ते श्रईत लक्तोनी जे (प्रतिमा पूजारूप) निष्टा , ते तर्क वितर्कथी निर्णय करी उत्तम प्रकारे कथन करेली . २ आ बने काव्योथी लुंपकनो सर्वमत निराश थइ जाय . इति ढुंपकमतं निराकृतम् ॥ हवे धर्मसागरना मतनुं निराकरण करवा कहे . वंद्यास्तु प्रतिमा तथापि विधिनासा कारिता मृग्यते, स प्रायो विरलस्तथा च सकलं स्यादिजजालोपमं । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) हंतैवं यतिधर्मपौषधमुखश्राकक्रियादेविधे, दौर्लन्येन तदस्ति किं तवन यत् स्यादिजालोपमं७० अर्थ-कदि ते प्रतिमा वंदवायोग्य नले हो परंतु ते प्रतिमा जो विधियी प्रतिष्ठा करेली होय तोज सर्वने वंदन करवा योग्य ने अने तेवो प्रतिष्ठा विधि श्रा उषम कालने विषे विरल , तेमज प्रतिमा संबंधी प्रतिष्ठा, वंदन विगेरे इंजजालना जेवू . आ शंकानो उत्तर आपे जे. जो ते सर्वे इंजाल जे, होय तो, आ सर्व, चारित्र धर्म, पौषध विगेरे श्रावकोनी क्रिया विगेरे पण विधिपूर्वक थवी उर्लन , तेश्री तेपण तमारे इंजजाल जेवू जाणवू. ७० लावार्थ-कदि ते प्रतिमा वंदवा योग्य नले हो, कारणके सैकडो अक्षरोधी तेनी व्यवस्था करवामां आवेली, परंतु ते प्रतिमा विधिपूर्वक करवामां आवेली बे के केम? एम शोधक वृत्ति थाय ने अर्थात् विधिए प्रतिष्ठा करेली प्रतिमाने सर्वलोको इछे , कारणके सारीरीते जावना करेली प्रतिमाने नावग्रामपणाश्री कथन करेली . ते प्रतिमानी प्रतिष्ठा करवानो विधि प्राये करीने आ कालमां विरल डे, कारणके आधुनिक ( उषमकाल ) समयना लोको प्राये करीने अविधिमां प्रवर्ते , ए प्रत्यद सिम . वली प्रतिमासंबंधी सर्व प्रतिष्ठा वंदना विगेरे इंजजालना जेवू , कारणके मोटो आडंबर असत्यनुं आलंबन करीने रहे . श्रा शंकानो उत्तर आपे . __जो एम होय तो वर्तमान कालमा यतिधर्म-मुनिनो आचार देश विरतिधर्म-श्रावकोने पर्वने दिवसे करवानी पौषध विगेरे Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) क्रिया पण. एप्रमाणे विधि विगेरेना दुर्लभपणाथी, अर्थात् वो विधि पुषम कालमां थवो दुर्लन बे तेथी तेपण तमने प्रतिमानी जेम इंद्रजालना जेवुं लागशे. अहिं विगेरे शब्दथी नर्बंधक विगेरे योग्य आचार पण ग्रहण करवा - १० हवे ते विशे विशेष कथन करे बे. योगाराधनशंसनैरथ विधेर्दोषः क्रियायां न चेत् तत् किं न प्रतिमास्थलेपि सदृशं प्रत्यक्षमुद्री क्ष्यते । किं चोक्ता गुरुकारितादि विषयं त्यक्ताग्रहं नक्तितः, सर्वत्राप्यविशेषतः कृतिवरैः पूज्याकृतेः पूज्यतः ७१ - अनुकुल परिवारनी संपत्ति, आराधन, बहुमान अने द्वेषना नावथी जो विधि क्रियामां दोष न होयतो, प्रतिमानी पूजामां पण निर्दोषिपणुं केम न होय ? अर्थात् ते पण निर्दोष होय; एम जाणीने प्रतिमा पूजानो द्वेष बोडी देवो जोइए. मुख्य पंडितोए मातपिता विगेरे वडीलोए करावेली प्रतिमानो कदाग्रह बोमी सर्व स्थले चैत्यने विषे विशेषपणे जक्तिपूर्वक श्री जगवंतनी प्रतिमानी पूजा करवी कथन करेल बे, अर्थात् ममता के दुराग्रह त्याग करी सर्व प्रतिमाने समजावे - तिथी पूजवा योग्य कहेल बे. जावार्थ - योग एटले विधिने अनुकूल परिवारनी संपत्ति, आराधन एटले पोताथीज निर्वाह, बहुमान ने द्वेषनो अनाव ते सर्वेथी जो विधि क्रियामां दोष न होय तो तेवीज रीते प्रति Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) 35 माना संबंधां पण विधि विगेरेनुं निर्दोषपणुं केम न जोवाय ? अर्थात् त्यांपण जोवाय. एवीरीते जिनप्रतिमानी पूजामां द्वेष बोडी देवो जोइए. ते संबंधमां शकुंतलानुं दृष्टांत ध्यानमां लेवुं. पंकित पुरुषोए, या प्रतिमा माता, पिता, पितामह विगेरे वडिलोए करावेली वे, वो कदाग्रह ( अभिनिवेश ) बोडी दई विशेष पणे सर्व चैत्यने विषे जक्तिश्री श्री जगवतनी प्रतिमानी पूज्यता कथन करेली बे; कारण के एप्रमाणे काल विगेरेना आलंबनथी बोधि सुलत थाय बे. तेविषे श्राद्धविधिमां प्रमाणे पाव बे. प्रतिमा विविध प्रकारनी बे. तेज॑ना पूजाविधिना सम्यक्त्व प्रकरणमां याप्रमाणे कह्युं छे. " गुरुकारिया के अन्ने सयंकारियाबिंति विह कारिया ने पडिमाए पूणविहाणं तेनी व्याख्या प्रमाणे बे. केटलाएकश्रावको पोतानां भातपिता विगेरे मीलोए स्थापेली प्रतिमार्जनी पूजाविधिमा - त्याग्रह राखे बे, कोइ पोते स्थापेली प्रतिमानी पूजाविधिमां त्याग्रह राखेने को तो सुविधिश्री प्रतिष्ठा करवामां वेली होय तेज प्रतिमा पूजवी एवो आग्रह राखे बे. मुख्य पतो वो केवल विगेरेए स्थापेली प्रतिमाउंज पूजवी वो दाग्रह ममत्व तजीद सर्व प्रतिमा विशेषपणे अर्थात् सामान्य बुद्धिथी पूजवी जोइए. कारण सर्व तीर्थंकरनी आकृति जोवाथी तेवी बुद्धि था शके बे. जो पुराग्रह राखी तीर्थकरनी प्रतिमा उपर पक्षपात राखे तो श्री अत भगवंतना बिंबनी अवज्ञा करी कहेवाय अने तेवी अवज्ञा करनारने पुरंत संसारमां परिभ्रमण करवारूप दंड बलात्कारे Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) लागे , कदि अविधिए करेली प्रतिमानी पूजा करे तोपण तेने तेनी अनुमोदना घारा आज्ञालंगरूप दोषनी प्राप्ति न थाय. कारण के तेवु आगम प्रमाण जे. वली श्रीकटपलाष्यमां " निस्सकड" इत्यादि गाथा बे, तेनो नावार्थ एवो ने के, निश्रीकृत एटले गढसाथे प्रतिबंध श्रयेल अथवा तेथी विपरीत एवा चैत्यमां सर्व स्थाने त्रण स्तुति कराय जे. जो प्रत्येक चैत्ये त्रण त्रण स्तुति करतां अतिवेला श्रश् जायतो प्रत्येक चैत्यै एक एक स्तुति पण करवी. ७१ उपर कडं.ते सर्व मनमा निर्धार करी कहे .. चैत्यानां खलु निश्चितेतरतया नेदेपि तंत्रे स्मृतः, प्रत्येकं लघुवृद्धवंदनविधिः साम्ये तु यत्सांप्रतं । श्याकहिपतदूषणेन नजना संकोचनं सर्वतः, . खानीष्टस्य च वंदनं तदपि किं शास्त्रार्थबोधोचितं७२ अर्थ-निश्रित अने अनिश्रितपणाना लेदमां पण शास्त्रमा प्रत्येक लघु अने वृक्ष वंदनविधि कथन करेल . जो प्राये बंनेमां तुट्यपणुं होय तो, तेमां आवा चालता विषम पुःखम कालमां जे श्वाथी कटपेला दूषणवडे सेवानो संकोच करेलो ने अने जे स्वेचामात्र विषयनी वंदना कहेली ने ते शुं शास्त्रार्थना बोधने उचित ? अर्थात् उचित नथी. १२ . . नावार्थ-अर्थने मलतो. विशेष ए ने के, तेनुं फलमात्र केटला एक मुग्ध वणिकने अंध करवा जेवू . १५ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) उपर कहेला जावमां व्यंग्य अर्थने कंठवडे स्पष्ट करवा कहे बे. चैत्यानां नहि लिंगिनामिव नतिर्गठांतरस्यो चिते, त्येतावद्वचसैव मोहयति यो मुग्धाञ्जनानाग्रही । तेनावश्यकमेव किं न ददृशे वैषम्यनिर्णायकं, लिंगे च प्रतिमासु दोषगुणयोः सत्वादसत्वात्तथा ७३ अर्थ - बीजा लिंगधारीनी जेम बीजा गन्नुना चैत्यने नमस्कार करवो योग्य नथी. आवां वचनोथी जे मुग्धजनोने मोहित करे मिध्यात्वना श्राग्रहवाला बे, ते शुं आवश्यक निर्युक्ति नामनुं शास्त्र जोयुं नथी ? के जे शास्त्र लिंगने विषे दोष तथा गुणना सत्यश्री ने प्रतिमाने विषे दोष ने गुणना सत्व विषमपणाने निर्णय करनारूं बे. ७३ भावार्थ जेम बीजा लिंगधारीने नमस्कार करवो योग्य नथी, तेम बीजा गन्ना चैत्यने नमस्कार करवो योग्य नथी. आ प्रकारनां वचनोथी जे जोला अंतःकरणना मनुष्योने जरमावे बे. हिं पांच अवयवनो प्रयोग या प्रमाणे करवो-जेमके बीजा गन्नी प्रतिमा वांदवी नही, कारणके बीजा गन्नुना लोकोए ग्रहण करेली वे तेथी; जेजे वीजा गडवाला ग्रहण करेल होय ते ते वांदवा योग्य नथी. जेम बीजा गहनो साधु वंदनीय नथी तेम. वली श्रमारा गुरुए जे कह्युं ते सत्य केम होय ? वाने जे मिथ्यात्वना आग्रहवाला बे, तेमणे शुं श्रावश्यक निर्युक्ति नामनुं शास्त्र जोयुं नथी ? के जे शास्त्रमां लिंग प्रतिमा संबंधमां विषमपणाने निर्णय करनारो जाव प्रतिपादन Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) करेलो बे. लिंगमां दोष ने गुण बनेनुं सत्व बे ने प्रतिमामां दोष ने गुणनं सत्व वे अर्थात् बताएं बे, तेथी लिंगने विषे जानुं रोपण शके नहीं, परंतु प्रतिमामां थइ शके. ७३ वली उपर कहेला जावनुं विशेष विवेचन करी वादीनुं मुग्धपणुं दर्शावे बे. लिंगे स्वप्रतिबद्धबुद्धिकलनाङ्गाज्या नवेद्वंद्यता, सैकांतात् प्रतिमासु जावजगवद्भूयोगुणोद्बोधनात् । तुल्ये वस्तुनि पापकर्मरहिते जावोपि चारोप्यते, कूटद्रव्यतया धृतेत्र न पुनर्मोहस्ततः कः सतां ॥७४॥ अर्थ-लिंगने विषे पोताना संबंधी धर्मबुद्धिना स्मरणथी तेनी द्यता या सत् धर्मनी प्राप्तिमां तेनालंबनवडे तेन निंद्यता था, वो अर्थ थाय बे; अने जाव जगवंत संबंधी घा गुणोना बोधथी ते वंद्यता प्रतिमाने विषे तो एकांतपणे कहेली बे. ते जावपण तुझ्य एटले उजयना श्रावथी पापचेष्टाथी रहित एवी वस्तुमां श्रारोपित थाय बे, परंतु कूट प्रव्यपणे रहेली ए वस्तुमां जाव आरोपित थतो नथी. ते कारणथी उत्तम पुरुषोने शुं मोह बे ? ७४ जावार्थ- पोताना संबंधी जे धर्म तेनी बुद्धिना स्मरणथी - र्थात एक संबंधी ज्ञानमां पर संबंधीनुं स्मरण थाय, ए न्यायथी, लिंग संबंधी सद् धर्मनी स्थितिना श्रालंबनपणाथी तेनी वंद्यताथाय ने असद् धर्मनी प्राप्तिमां तेना श्रालंबनवने Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५) तेनी निंद्यता थाय. आवो अर्थ थाय जे; अने नाव जगवंत संबंधी अनेक गुणोना बोधथी प्रतिमाने विष वंद्यतातो एकांतपणे रहेली . कारणके जाव पण तुट्य एटले. गुणदोष बनेना अनावथी, आ कृतिमां तुल्यतावाली, सावद्य कर्मश्री रहित एवी वस्तुमा आरोपित श्राय ने, परंतु कूट अव्यपणे रहेली ए वस्तुमां नाव आरोपित थतो नथी. अंगारमर्दक श्राचार्यने विषे नाव श्राचार्यना गुणनी जेम. ते कारणथी उत्तम पुरुषोने तेमां बिलकुल मोह उत्पन्न श्रतो नश्री. ७ __जो उपरप्रमाणे होय तो प्रतिष्ठा व्यर्थ थाय ते शंका उपर समाधान करे . नन्वेवं प्रतिमैकतां प्रवदतामिष्टा प्रतिष्ठापि का, सत्यं सात्मगतैव देव विषयोद्देशेन मुख्योदिता। यस्याः सा वचनानलेन परमा स्थाप्ये समापत्तितो, दग्धे कर्ममले नवेत्कनकता जीवायसः सिझता ॥७५ __ अर्थ-एवीरीते आकृतिमात्रयी प्रतिमानी ऐक्यताने कहेता एवा तमोने का प्रतिष्ठा इष्ट ने ? अर्थात् कोइ इष्ट नथी, त्यारे ते प्रतिष्ठा पण व्यर्थ श्राय. तेना उत्तरमा कहे . जे देव विषयना उद्देशश्री आत्मगत प्रतिष्ठा बे, ते मुख्य प्रतिष्ठा कहेली बे. जे प्रतिष्ठाथी वचनरूप अग्निवडे कर्मरूप मल दग्ध थ जवाथी स्थापवा योग्य परमात्माने विष समापत्ति प्राप्त करी जीवरूप लोहने सितारूप कनकपणुं प्राप्त थाय . ७५ नावार्थ-एवीरीते आकृतिमात्रयी प्रतिमानी वंद्यता प्रयो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) जनवाली ऐक्यताने कथन करता एवा तमोने क प्रतिष्ठा इष्ट थाय. ? अर्थात् कोपण इष्ट याय नहीं; अने तेथी तेनी व्यर्थता थाय. तेना उत्तरमां कहे बे के सत्यरीते ते प्रतिष्ठा देव विषयना उद्देशश्री आत्माने विषे प्राप्त थयेली मुख्यपणे कथन करेली छे, कारण के विधिथी उत्पन्न थयेल जे अदृष्ट नामे - त्मगत अतिशय ते पूजाना फलना प्रयोजनरूप बे; तेथी करीने श्रात्मगत एवातिशयने समानाधिकरणने पर्यंते मुक्तिनुं फल पण प्राप्त थाय बे, ते कहे बे. जे प्रतिष्ठाथी नियोग वाक्यरूप निवडे परमात्मारूप पात्रने विषे समापत्ति प्राप्त करी जीवरूप लोढाने सिपणारूप कनकपणुं थ‍ जाय बे. ते प्रतिष्ठा सर्वोत्कृष्ट बे. ७५ हिं शंका याय के श्रात्माना प्रतिष्ठापणामां पण प्रतिमानुं प्रतिष्ठितपणुं थायाने ज्यारे प्रतिष्ठाना कर्त्ताना श्रदृष्टनो क्ष्य थाय त्यारे प्रतिमानी पूज्यतानी श्रसिद्धि थाय, ते शंकाना समाधानमां कहे . बिंबेसावुपचारतो निजहृदो जावस्य संकीर्त्यते, पूजा स्याद्विहिता विशिष्टफलदा द्राक् प्रत्यनिज्ञा यथा । तेनास्यामधिकारिता गुणवतां शुद्धोशयस्फुर्त्तये, वैगुण्ये तु ततः खतोप्युपनतादिष्टं प्रतिष्ठाफलं ॥ ७६ ॥ अर्थ - पोताना हृदय संबंधी अध्यवसायना उपचारथी ए प्रतिष्ठा जिनबिंब विषे कथन करेली बे, जेम सत्वर करेली प्रत्यनिज्ञा - पंधाणीनी पूजा विशेष फल श्रापनारी थाय. तेथी ए प्र Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७) निष्ठामां श्रेष्ठ गुणवाला कर्त्ताउँनो अधिकार शुछ आशयनी स्फुर्त्तिने माटे जे. जो तेवी प्रतिष्ठाविधिनी सामग्रीनो अभाव होय तो ते प्रत्यनिझा के जे बाह्य सामग्री विना मनमांथी प्राप्त थ होय तो पण तेथी प्रतिष्ठानुं फल इष्ट थाय. के. ७६ नावार्थ- पोताना हृदय संबंधी जाव- अध्यवसायना उपचारथी ए प्रतिष्ठा जिनबिंबने विषे कथन करेली बे. जेम सत्वर करेली प्रत्यनिज्ञा- एंधाणीनी पूजा विशेषफल आपनारी थाय. अहिं विशेषफल, प्रतिमानी श्राकृतिमात्र आलंबनना अध्यवसायना फलनु अतिशायी जाणवू तेमज प्रतिष्ठित विषयवालु समजवू. जे यथार्थ प्रत्यजिज्ञान- एंधाणी ने ते पूजाना फलनुं प्रयोजनरूप में; तेथी ए प्रतिष्ठामा श्रेष्ठगुणवाला कर्ता नो अधिकार शुद्ध श्राशयनी स्फुर्त्तिने माटे के कारण के, श्रा प्रतिमा विशेष गुणवान पुरुषे प्रतिष्ठित करेली , एवी एंधाणी करवाथी विशिष्ट अध्यवसाय, प्रत्यद सिघपणुं थाय जे. अने जो तेवी प्रतिष्ठाविधिनी सामग्रीनो अनाव होय तो ते प्रत्यनिझा के जे बाह्य सामग्री विना मनमांथी प्राप्त थइ होय तो पण तेथी प्रतिष्ठान फल देखवामां आवे . सारांश के कटुक दिगंबरोए प्रतिष्ठा करेल तथा व्यलिंगीना व्यथी जे प्रतिष्ठा करवामां आवेली होय ते शिवाय बीजी सर्व प्रतिमा वंदवा योग्य . आ प्रमाणे श्री हीरविजयसूरिनी आज्ञा . ७६ एवी शकानो शेष नाग पण निराश थर जाय ते कहे. चैत्येनायतनत्वमुक्तमथयत्तीर्थातरीयग्रहात्तत्किं तन्ननु धर्मतिग्रहवशादृष्टश्रयाशीतिचेत् । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) साम्राज्ये घटमानमेतदखिलं चारित्रनागां नवेत्, पार्श्वस्थस्त्वसतीसतीचरितवन्नो वक्तुमेतत्प्रजुः ॥७॥ अर्थ-नावार्थ युक्त. अन्य तीर्थना परिग्रहश्री चैत्यने विषे अनायतनपणुं कहेलु , तेश्री पुष्ट बुद्धिवाला पार्श्वस्थ विगेरेना आग्रहने वश थइ दोषवाला एवा ते चैत्यनो शुं हुं आश्रय करूं ? आप्रमाणे जे तुं कहे , ते सर्व आ प्रवर्तमान एवा चारित्रधारीना राज्यमा घटे ने कारण के, विधिगुणनो पक्षपात करवो सर्वने सुगम के अने पार्श्वस्थ एटले अर्थशुन्य धर्मसागर पावस्थनो मध्यवर्ती एवो तुं जेणे आ दाव्यु बे ते असतीस्त्री, सती स्त्रीना चरित्रने कथन करवाने जेम समर्थ नथी तेम समर्थ थश्श नही. ७ ... हवे उपसंहार करे जे. सर्वासु प्रतिमासु न ग्रहकृतं वैषम्यमीदामदे, पूर्वाचार्यपरंपरागतगिरा शास्त्रीययुक्त्यापि च । इत्थं चाविधिदोषतापदलनं शक्त्याविधातुं विधि, स्वैरोजागररागसागरविधुज्योत्स्नेव जक्तिप्रदा ॥७॥ अर्थ-पूर्वाचार्योनी परंपरागत . वाणीथी अने शास्त्रसंबंधवाली युक्तिवडे अमे निश्रित के अनिश्रित विगेरे नेदवाली प्रतिमाने विष आग्रहथी कांइपण विषमपणुं जोता नथी परंतु सर्वत्र समानपणुंज जोइए जीए. आप्रमाणे विधिरूपी वृद्धि Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०ए) पामेला रागरूप सागरमां चंकान्तिना जेवी नक्ति अविधि दोपना परितापने विनाश करवाने समर्थ . ७० नावार्थ-नथी. ७० जाणे उपस्थित नक्तिथी प्रेरायेला होय तेम ग्रंथकार लगवंतनी प्रतिमानी स्तुति करे . उत्फुशामिवमालती मधुकरो रेवामिवेजः प्रियां, माकंदाममंजरीमिव पिकः सौंदर्यजाजं मधौ । नंदचंदनचारुनंदनवनी नूमी मिव द्योः पति, स्तीर्थेशप्रतिमां नहि क्षणमपि स्वांताधिमुंचाम्यहं ए अर्थ-जेम जमर प्रफुलित मालतीने गेडे नही, जेम हाथी मनोहर रेवानदीने गेडे नहीं, जम कोकिलपदी वसंतरूतुमां सौंदर्यवाली आम्रवृदनी मंजरीने गेडे नही अने जेम स्वर्गपति इंज, चंदन वृदोथी सुंदर एवी नंदनवननी नूमिने गोडे नहीं, तेम हुँ तीर्थकर लगवंतनी प्रतिमाने मारा ह्रदयमांथी दवार पण गेडीश नहीं. पुए लावार्थ-जेम चमर प्रफुल्लित मालतीने गेडे नहीं, कारणके ते मालतीना गुणने जाणनारो ने अने तेथी तेनी असंपत्तिमां पण तेना पक्षपातने तजतो नथी. जेम हाथी पोताना मनने हरनारी नर्मदानदीनो त्याग करतो नथी, कारणके तेने नर्मदानदीनी गहन क्रीडाश्रीज रति उत्पन्न थाय . वसंतरूतुमां सौंदर्यने प्राप्त श्रयेली आम्रवृदनी मंजरीने जेम कोकिलपदी तजे नहीं; Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) ते पक्षी आम्रमंजरीना स्वादथी मधुरकंठ प्राप्त करी काकली स्वरना टोकाराथी युवान पुरुषोना मनने मदवालुं करे बे. वली जेम स्वर्गपति इंद्र चंदनवृदोनी घटाथी सुशोजित एवी नंदनवननी भूमिने तजे नही, कारणके ते इंद्र पोतानी प्रियाना वि रहतापने नंदनवनना सौंदर्यनो चमत्कार जोइ जुली जाय बे. तेम डुं श्री तीर्थंकर जगवंतनी अलौकिक शांत रसमय प्रतिमाने मारा ह्रदयमांथी क्षणवार पण बोडीश नहीं. ७७ वली ग्रंथकार जव्य प्राणीने उपदेश करता थका जगवंतनी प्रतिमानी स्तुति करे बे. मोहोद्दामदवानलप्रशमने पाथोदवृष्टिः शम, स्रोतो निर्करिणी समीहितविधौ कल्पवलिः सतां । संसार प्रबलांधकारमथने मार्तंडचंड युति, जैनी मूर्तिरुपास्यतां शिवसुखे जव्याः पिपासास्तिचेत् अर्थ- हे जव्य प्राणी, जो तमारे मोक्ष सुख प्राप्त करवानी होयतो तमे श्री तीर्थंकर जगवंतनी प्रतिमानी उपासना करो. जे प्रतिमा मोहरूपी दावानलने शमाववामां मेघवृष्टिरूप बे, जे शमतारूप प्रवाहनी नदी बे, जे सत्पुरुषोने वांबित - पवामां कल्पलता बे ने जे संसाररूपी उग्र अंधकारने नाश करवामां सूर्यनी तीव्र कान्तिरूप बे. ८० अर्थ - हे जन्य प्राणी, जो तमारे मोहनुं अक्षय सुख प्राप्त करवानी प्रबल हा होयतो तमे श्रीतीर्थंकर भगवंतनी अपरि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) मित शांत रसमय प्रतिमानी एकाग्रताए उपासना करो. जे प्रतिमा, मोहरूपी प्रचंड दावानल के जे सर्व शमतारूप पवनने दहन करनार बे तेने शमाववामां मेघवृष्टि रूप बे. वली जे प्रतिमा शमताने वहन करनार होवाथी शमतारूप प्रवादनी नदीरूप वे, तथा जे प्रतिमा अविलंबे सर्व सिद्धि पनारी होवाथी सत्पुरुषोना वांबितने श्रापवामां कपलतारूप बेने जे प्रतिमा संसाररूपी उम्र अंधकारने टालवामां सूर्यनी तीव्र कान्तिरूप बे. ज्यारे विवेकरूप दिवस तरुण होय त्यारे मोहनी बाया पण रहेती नथी. ८० उपर बे श्लोकवडे जगवंतनी प्रतिमानी स्तुति करी हवे बीजा वादनो आरंभ करे वे छाने तेथी पाशचंद्रनो मत तोडी पाडे बे. श्राद्धेन स्वजनुः फले जिनमतात् सारं गृहीत्वा खिलं, त्रैलोक्याधिपपूजने कलुषता मोक्षार्थिनामुच्यतां । धृत्वा धर्मधियं विशुद्धमनसा द्रव्यस्तवे त्यज्यतां, मिश्रोसावितिलं बितः पथि परैः पाशोपि चाशोजनः ०१ अर्थ- मोक्षार्थी श्रावक जैन प्रवचनमांथी सर्व तात्पर्य ग्रहण करी पोताना मनुष्य जन्मना फलरूप जगत्पति श्रीतीर्थकरना पूजनमां शंका तजी ने शुद्ध मन करी व्यस्तवने विषे धर्मबुद्धि धारण करी, परमतवालाई ए या अव्यस्तव मिश्र एटले धर्म धर्म रूप से " एवो जे मार्गमां पाश नाख्यो वे तेने पण बोडीदे. १ ८८ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) जावार्थ-मोदना अर्थी एवा श्रावक जैन सिद्धांतमांथी सर्व तात्पर्य ग्रहण करी पोताना मनुष्य जन्मने सफल करवा वास्ते त्रण जगतना अधिपति श्रीतीर्थकर जगवंतना पूजनमां सर्व शंकानो त्याग करी दे; तेमज ते श्रावक शुद्ध मनवडे अव्यस्तवने विषे धर्म बुधि धारण करी ते नगरा पाशने तजीदे. जे पाश परमतवालाए था व्यस्तव मिश्र एटले धर्म अधर्मरूप ने एम कही मार्गने विषे लंबाव्यो बे. अहिं पाश शब्दश्री पाशचंजनो मत सूचव्यो. जे मत मुग्धजनरूप मृगोने पाशमां पाडवा जेवू काम करे . १ उपर जे धर्माधर्मरूप मिश्रपणुं कडं, तेने चार पदे विकल्पवडे विजाग करी खंडन करवानों आरंज करे जे. जावेन क्रियया तयोर्नतु तयोर्मिश्रत्ववादे चतुनंग्यां नादिम एकदाननिमतं येनोपयोगघ्यं । नावो धर्मगतः क्रियेतरगतेत्यल्पो द्वितीयः पुनर्जावादेव शुनात् क्रियागतरजो हेतु वरूपदयातूज्य अर्थ-१ धर्म गतनाव अधर्म गतनाव २ धर्म गतलाव अ. धर्मगत क्रिया ३ अधर्मगत नाव धर्मगत क्रिया अने ४ धर्मगत क्रिया अधर्मगत क्रिया-श्रा चार नांगा . तेमां जे प्रथम पद बे, ते घटतो नथी कारणके एकीसाथे बे उपयोग थवा संजव नश्री. धर्म गतनाव अने अधर्मगत क्रिया ए बीजो नांगो अप ने कारणके शुल नावथी क्रियागत अशुलनाव घारवालु रजोगुणना हेतुनुं जे स्वरूप तेनो क्ष्य थाय . ७५ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) विशेषार्थ-पूर्व पदे लावधी, क्रियाथी, ते नाव क्रियाना अव्यस्तवमा धर्म अधर्मना मिश्रपणामां चौलंगी श्राय बे. ते आपमाणे-१ धर्मगतनाव अधर्मगतनाव २ धर्मगतनाव अधर्मगत क्रिया ३ अधर्मगतनाव धर्मगत क्रिया ४ धर्मगत क्रिया अधर्मगत क्रिया. चार लांगामा जे प्रथम नांगो धर्मगत नाव अने अधर्मगत नाव अर्थात् नाववडे लावना मिश्रपणानो बे, ते घटतो नथी कारणके, एकी साथे बे उपयोग अवानो संलव नथी. प्रव्यस्तवना तथा उपयोग एकी साथे होता नथी, तेथी बेनाव मिश्र थाय नही. जे अनारंजमां यत्नवान् होय तनो आरंजमां उपयोग होय नहीं कारणके, तेनी स्थिरतामां अतिचारना जयनो अनाव बे, एम सूदमदृष्टिए विचारवं. आप्रमाणे प्रथम नंग थाय . हवे नाव धर्मगत अने क्रिया इतरगत अ. थर्थात् अधर्मगत एवी आरंल नामनी क्रिया, आ बीजो नांगो अट्प ने, अर्थात् चूर्ण करवाने समर्थ नथी. कारणके शुल नावश्रीज क्रियागत एवं अशुननावधारवालुं रजोगुणना हेतुर्नु स्वरूप तेनो क्य थाय , तेथी था बीजो नांगो अटप ने अने जे क्रिया के ते अशुन्न नावधारा अधर्मनुं अने शुलनावधारा धर्मनुकारण , कांऽ स्वरूपथी नथी. ७२__ ज्यारे बीजा नंगनो पद लागु पडयो नही त्यारे वादीने अनिष्टा पतिथइ, ते कहे बे. वाहिन्युत्तरणादिके परपदे चारित्रिणामन्यथा, स्यान्मिश्रत्वमपापजावमिलितां पाप क्रियां तत्वतां । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. (११५) किं चाकेवलिनं विचार्यसमये अव्याश्रयं जाषितं, शुकं धर्ममपश्यतस्तनुधियः शोकः कथं गछति ॥३॥ अर्थ-धर्म स्वनावी अध्यवसायनी साथे मलेली पापक्रियाने आचरता एवा चारित्रधारी नाव साधुउने अन्यथा रीते नदी उतरवा विगेरेना अपवाद मार्गमां मिश्रपणुं थाय अने वली सिशांतमां केवली सुधी कहेलु जे व्याश्रय वचन तेने विचारी शुद्ध धर्मने नहीं जोता.एवा तुझ बुद्धिवाला पुरुषने श्रयेलो शोक शीरीते मटे अर्थात् मटेज नही. ७३ । - विशेषार्थ-अपाप एटले धर्मस्वनावी नाव जे पुष्टालंबनना अध्यवसाय रुप तेनीसाथे मलेली जे नदी उतरवा रुप पापक्रियाने आचरता एवा चारित्रधारी नाव साधुग्ने अन्यथा रीते एटले कहेला स्वरूपथी आश्रवपणाने अनिमत एवा - चरणने अधर्मपणुं कहेवामां नदी उतरवा विगेरेना अपवाद मार्गमा मिश्रपणुं थाय. गनित अर्थ एवो के, जे अहिं मिश्रपणुं ने ते मिश्रपदना आश्रयवालुं जाणवू ते परनेपण इष्टनश्री कारणके, साधुउने तो एक धर्मपदज लेवानो , तेथी स्वरूपे करी धर्मनावमां सावधक्रियानुं जे मिश्रण ते व्यस्तव . वली सिद्धांतमां केवलीपर्यंत कहेलुं जे व्याश्रय वचन तेने विचारी शुधर्मने नहीं जोता एवा तु बुद्धिवाला पुरुषने श्रयेलो शोक शीरीते मटे ? अर्थात् धमपदना स्थाननो उछेद थवाथी श्रयेलो शोक कोशीते पण न जाय. तेथी परमसुंदरमुनि अयोगी केवलीमांज सर्वथा संवर रहेलो ने एम सूक्ष्मपणे जाणी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) केवलज्ञानसुधी देशविर तिपणानी संभावना करे बे. यथा "जावंचणं एसजीवे एयश्वेयइ तावचणं आरंभ इति " एवीरीते saraai मिश्रता केवली मां पण थाय. तेथी पाशचंद्र बाती कूटी शोक करे तेने कोणवारे. प्रमाणे मिश्रपणुं नथी एम सिद्धांत बे. ८३ हवे वादीना प्रसंगनुं समाधान करे बे. वाहिन्युत्तरणादिकेपि यतनानागे विधिर्न क्रिया, मागे प्राप्तविधेयता हि गदितां तंत्रे खिलैस्तांत्रिकैः । हिंसा न व्यवहारतश्च गृहिवत् साधोरितीष्टं तु नो मिश्रत्वं ननु नोमते किमिह तद्दोषस्य संकीर्त्तनं ॥ ८४॥ अर्थ - नदी उतरवा विगेरे कर्ममां यतनाना नागविषे विधि यामां विधि नथी कारके सर्व तांत्रिकमत वालार्जए तंत्रशास्त्रमां प्राप्तनी प्राप्तिमां विधि कथन करेलो बे छाने व्यवहार नयथी गृहस्थनी जेम साधुने नदी उतरवा विगेरेनी हिंसा न लागे, तेथीते मिश्रपणुं इच्छेलुं नथी. तेथी थाय ? अर्थात् न थाय. ८४ हिंसा मिश्रणनो अभाव बे माटे मारा मतमां शुं ते दोषनुं कीर्त्तन विशेषार्थ - हवे वादी जे पोताना मतने समर्थ करे बे, ते कहे बे- नदी उतरवा विगेरे कर्ममां यतनाना जाग विषेविधि बे का - राके, ते प्राप्त नथी ने क्रियानागमां विधि नथी कारणके, सर्व तंत्र मतवाला विद्वानोए तंत्रशास्त्रमां प्राप्त पणामांविधि कथन करेलो बे. मीमांसामां पण लखे बे के " प्राप्त प्रापणं Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) विधि" एटले अप्राप्तमा जे प्राप्ति ते विधि कहेवाय. अमे अहिं ए न्यायनो आश्रय करीए बीए. अहिं यतना अने नाव, तेमां यतना जावनी साथे मिश्रित नथी कारणके, अन्यनी साथेज ते मिश्रथवानो संनव बे; त्यारेतो नदी उतरवा विगेरे क्रियावडे ते मिश्रित थाय. तेविषे कहे जे. व्यवहार नयथी साधुने गृहस्थनी जेम नदी उतरवा विगेरे हिंसा न थाय. कारणके गृहस्थ अने साधुने यतना अने अयतना वडेज विशेष व्यवहार रहलो , माटे ते हिंसा मिश्रणनो अनाव ने तेथी मिश्रपणुं श्वेलुं नश्री, तेथी अमारामतमां शुं ते दोषy कीर्तन श्राय. अर्थात् न थाय अहिं मिपश्रदमां वादीनो एवो हृदयाशय ने के तमारा व्यस्तवमा साधुने योग्य एवी यतनानो अन्नाव ने तेथी हिंसावर्जवा योग्य नथी, तेनो उत्तर हवे पीना काव्यमां आपेले ४ ___ उपरना पदने दूषण आपी ग्रंथकार वादीना मतने दूषित करे बे. हिंसा सद्व्यवहारतो विधिकृतः श्राधस्य साधोश्च नो, सा लोकव्यवहारतस्तु विदिता बाधाकरी नोनयोः। श्वाकल्पनयान्युपेत्य विहिते तथ्या तफुत्पादनो, त्पत्तिन्यां तु निदान कापि नियतव्यापारके कर्मणिज्य __ अर्थ-सद्व्यवहारथी विधिकरनार श्रावक अने साधुने हिंसा थती नथी अने बाहेरना लोक व्यवहारनी अपेदाए ते हिंसा गृहस्थ अने साधु बनेने बाधाकारी न थाय अने श्या Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) कल्पनावडे करेली हिंसा संबंधी कर्ममा, तेनु उत्पादन तथा उत्पत्तिवडे करीने कांइपण सत्यनेद नथी. ७५ विशेषार्थ-सद्व्यवहार एटले सिद्धांतमां बतावेला जनव्यवहारथी विधिकरनार श्रावक अने साधुने हिंसा थती नश्री कारएके प्रमादना योगथी प्राणीऊना प्राणनो वियोग करवो तेज हिंसा कहेवाय जे एम सिद्धांतमां कहेलुं . वली पोताना गुण स्थानने योग्य एवी यतना बडे प्रमादनो त्याग करवामां ते बनेमा विशेष लेद नथी तेथी धर्मकर्ममां हिंसाज नथी एम सिघथयु. वली बाहेरना लोक व्यवहारनी अपेक्षाए ते प्राण वियोग रुप हिंसा गृहस्थ अने साधु बंनेने बाधाकारी न थाय अर्थात् मिश्रपदनो प्रवेश करनारी न पाय, अने इच्छा कल्पना एटले रसपूर्वक करेली श्चावडे करेला नियमित व्यापारवाला हिंसा संबंधी कर्ममां तेनुं उत्पादन अने उत्पत्तिवडे करीने कांइपण सत्यनेद नथी परंतु ते स्वकपोल कल्पित कल्पनावडे मुग्ध जनना मनने विनोद करवा मात्र . ०५ अपवादात्मक कर्ममां विधि न होय पण यतना नागमांज होय तेथी स्वचंदपणे प्राप्त थवाथी तेमां मिश्रपणुं थाय-ते विषे कहे . पूर्णेऽर्थे पि विधेयतावचनतः सिझा विात्मिका, नागे बुछिकृता यतः प्रतिजनं चित्रा स्मृता सा करे। नोचेौनवचः क्रियानयविधिः सर्वश्च मिश्रो जवे, दित्थं नेदमयं न किं तव मतं मिश्राध्यं बुंपति॥६॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) - यतना विशिष्ट एवा कर्ममां वचनथी लिङ लकारना रूप एवी विधेयता सिद्ध थाय बे ने जे बुद्धिकृत विशेष रूप विधेयता बे ते जले जागने विषेरहे तेथी कांइ हानिनथी कारण ते प्रत्येक जनमां विचित्रपणे रहेली बे एम स्यादूवाद रत्नाकरमां कहेलुं बे. एवी रीते यतना ने क्रिया नागवडे मिश्रपणं होयतो तेने प्रतिपादन करनारु जैनवचन ने सर्व क्रिया नयनो विधि ते मिश्रथाय आप्रमाणे धर्मपद पण बने जागवडे मिश्र थाय एटले बे मिश्रा थाय. ते बे मिश्रा दमय एवातारा मतनो केम न लोपकर अर्थात् लोप करेज. ०६ · विशेषार्थ पूर्ण अर्थ एटले यतना विशिष्ट एवा कर्ममां वचन श्री लिंङ लकारना अर्थ स्वरूपी एवी विधेयता सिद्ध रहेली कारणके, श्रुति मात्रवडे प्रवर्त्तना तेने अर्थेज बे ने जे बुविकृत विशेष रूप विधेयता बे. ते जले जागने विषे रहे तेथी कां हानिनथी कारणके, ते प्रत्येक जनमां विचित्रपणे रहेली बे. प्रमाणे स्याद्वाद रत्नाकरमां कहेतुं ने, अर्थात् ते स्थले " स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणं " स्वछाने परनो निश्चय करनार जे ज्ञान ते प्रमाण, बे एम कहेलुं बे. जो एम न होय अने यतना छाने क्रिया नागवडे मिश्रपणुं होयतो तेने प्रतिपादन करना जैनवचन ने सर्व क्रियानयनो विधि ते मिश्र थाय. श्रप्रमाणे धर्मनी पक्षपण तेबने नागवडे मिश्रथाय, एटले बे मिश्राथाय. बीजा बेनो लोपथइ ते एकज अवशेष रहे बे. वली ते बने मिश्रा तारामतनो केम न लोपकरे कारणके तेमत भेदमयाने त्र पहने प्रतिपादन करनारो बे अर्थात् पोतानुं Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११ए) शस्त्र पोतानो घात करे एवो न्याय थयो. एवीरीते आ बीजोजंग सिद्ध को. ०६ हवे त्रीजा नांगाविषे कहे जे. जावो धर्मगतः क्रियेतरगतेत्यत्रापि नंगे कथं, मिश्रत्वं तमधर्ममेव मुनयो नावानुरोधादिः । जक्त्याईत्प्रतिमार्चनं कृतवतां न स्पृश्यमानः पुन, विश्चित्तमिवाग्रहाविलधियां पापेन संलयते॥७॥ __ अर्थ-त्रीजो नांगो जे अधर्मगतनाव अने धर्मगत क्रिया, तेमांपण मिश्रपणुं केवीरीते घटे ? कारणके विधान लोको लावने लश्ने तेने अधर्म कहे जे. जेम पुराग्रहथी मलिन बुद्धिवाला पुरुषोनुं चित्त जेवं पापना स्पर्शवालु जणाय, तेवू नक्ति करनारा माणसनुं चित्त पापना स्पर्शवाळु जणातुं नथी, तेवीजरीते नक्तिवडे अर्हतनी प्रतिमानी पूजा करता एवा नव्यप्राणीउनोजाव पापना स्पर्शवालो थतो नथी. ७ विशेषार्थ-त्रीजो नांगो जे अधर्मगत नाव अने धर्मगत क्रिया-तेमां पण मिश्रपणुं शीरीते घटे ? कारणके लावना अनुरोधथी मुनिजनो ते अधर्मज कहे जे. कारणके उष्टनाव पूर्वक विहित एवी क्रियानुं पण बहु प्रत्यवायने लीधे अधर्मपणुं ले अने तेश्रीज निन्हव विगेरेनुं जे निग्रंथ रूप , ते पुरंत संसारनुं हेतु रूप होवाथी तेमां अधर्मपणुं बे. वली नक्ति तथा विधिवडे अर्हत लगवंतनी प्रतिमानी पूजा करतां एवा जव्य प्राणीनो नाव पापथी स्पर्श श्रयेलो जोवामां आवतो नथी. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ते उपर व्यतिरेकथी दृष्टांत आपे जे. जेम उराग्रहथी मलिन बुद्धिवाला पुरुषोनुं चित्त पापथी स्पर्श थयेलुं जोवामां श्रावे , तेम लक्ति करनारानुं चित्त पापथी स्पर्श श्रयेलुं जोवामां श्रावतुं नश्री. आप्रमाणे अर्थ योजना करवी जेमके " हुँ पुष्पादिकनुं मर्दन करूं अने पली प्रतिमानी पूजाकरूं" श्रावोजे नावते पापगत नाव एम जो होयतो “ हुं नदीना जखजंतुने हणुं अने पी नदी उतरीने विहारकरूं" एवो साधुने पण दूषितनाव गणाय. एवीरीते त्रीजा नांगानुं निराकरण कयु. ७७ - हवे चोथा लांगानुं निराकरण करे . धर्माधर्मगते क्रिये च युगपद्धत्तो विरोधं मिथो, नाप्येते प्रकृतस्थले क्वचिदतस्तुर्यो पिन्नंगो वृथा। शुभाशुभ उदाढतो ह्यविधिना योगोर्चनाद्यश्च यः, सोप्येको व्यवहारदर्शनमतो नैव ज्योर्मिश्रणात्॥ अर्थ-धर्मगता क्रिया अने अधर्मगता क्रिया-श्रा चोथो नांगो बे. ते बने क्रिया परस्पर विरोधने पामे , तेथी ते बने क्रिया या चालता स्थलमां एटले अव्यस्तवने स्थाने न थाय. तेथी चोथो नांगो पण वृथा श्राय जे. अने अविधिवडे जे जिन पूजनादि शुछ अशुद्ध योग कहेलो ने, ते योग व्यवहार दर्शन रूप मे, तेथी ते बंने क्रियाना मिश्रणथी न थाय. आप्रमाणे चोथा नांगानुं निराकरण थाय बे. अने मिश्र पदनो तदननाश श्राय . ७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) विशेषार्थ-चोथो नांगोजे धर्मगता क्रिया अने अधर्मगता क्रिया, ते बंने क्रिया परस्पर विरोधने पामे बे. कारणके जिन्न विषय वाली बे क्रिया एक समये निषिद्ध थाय . तेमज ते बने क्रिया प्रकृतस्थले एटले कोइपण अव्यस्तवने स्थाने न थाय. तेथी चोथो लांगो पण वृथा ने, अर्थात् मिश्रपदने समर्थ करवानो ते वृथा उपक्रम . अहिं शंका करे के शुद्ध अशुधनो योग शास्त्रोमां कथन करेल , तो त्यां आ चोथा नांगानो अवकाश केमन थाय ? ते कहे . अविधिवडे जे जिन पूजनादि शुद्ध अशुद्ध योग कथन करेलो , ते योग व्यवहार दर्शन रूप मे, तेथी ते बंनेना मिश्रणथी न थाय, कारणके शुद्ध अशुधनो विरोध श्रावे. तेथी करीने मिश्रपदने जलांजलि आपवामां आवता अर्थात् मिश्रपदने तोडी पाड्यो अने एप्रमाणे चोथा नांगानुं निराकरण कर्यु. ७७ ___ हवे निश्चय नयश्री शुष अशुधनो योग अरूपमां नथी ते कहे जे. नावडव्यतया द्विधा परिणतिः प्रस्पंदरूपा स्मृता, योगास्तत्र तृतीयराश्यऽकथनादायेषु नो मिश्रिता। नैवांत्येष्वपि निश्चयादिति विषोजारः कथं ते मो, निष्पीता किमु न दमाश्रमणगीः सन्नाष्यसिंधो सुधा॥ अर्थ-परिणाम अने तेनी स्फुरणा रूप योग व्य अने नाव बे प्रकारना कहेला . तेमां नाव योगोमां त्रीजी राशिना न कहेवाथी ते परिणाम मिश्रित थता नथी, तेमज अव्य योगोमां Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) पण निश्चय नयथी ते मिश्रित थता नथी. आप्रकारनो विषना उद्गार रूप ज्रम तने केम थाय ? शुं विशेष आवश्यक रूप समुजना अमृतपान रूप एवी श्री जिननगणि क्षमाश्रमणनी वाणीनुपान तें नश्री कर्यु ? ए विशेषार्थ-मन, वचन अने कायाना योगने निबंधन करवामां जे अध्यवसाय करवो ते परिणाम कहेवाय के जे परिपाम मन, वाणी अने कायाना व्यने टेकाथी उत्पन्न थाय ने अने तेनी बाह्य क्रियाना परिस्पंद रूप तेना लक्षणवाला योग थाय ने, ते नाव अने अव्य पणाथी बे प्रकारना कहेला ने, अर्थात् परिलाम पण बे प्रकारना अने योग पण बे प्रकारना वे. तेमां पेहेला जे लाव योगो ने, तेमां त्रीजी राशिना न कहेवाथी ते मिश्रित थती नथी; एटले शुल अने अशुल एवा अध्यवसायना स्थानको कहेला ने पण त्रीजोराशि कहेलो नथी, तेथीते अंत्य ऽव्य योगमां निश्चयथी मिश्रित थती नथी. श्राप्रकारनो तने चमरह्या करे बे, एटले तने विषना उद्गार रूप ब्रांत प्रयोग श्रया करे . कारणके सद्लाष्य जे विशेष आवश्यक ते रूप समुज तेना अमृतनुं पान तें जो कर्यु होततो श्रावो चमरूप विषनो उद्गार तने न श्राय. ए संकीर्ण-मिश्र कर्म रूप फलना अनावधी पण संकीर्ण योग नथी एम व्यस्तवमा जे मिश्रपदनी प्रौढ उक्ति , ते खलतानोज विस्तार , ते कहे .. मिश्रत्वे खलु योगनाव विधया कुत्रापि कृत्ये जवे, मिश्रं कर्म न बध्यते च शबलं तत्संक्रमात्स्यात्परं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३) तव्यस्तवमिश्रतां प्रवदता किं तस्य वाच्यं फलं, खव्युमाहितमूढपर्षदि मदान्मूळनमाधुन्वता॥ए॥ अर्थ-कोश्पण कृत्यमा योगनावना प्रकारथी मिश्रपणुं अंगीकार करीए तो तेथी कांइ मिश्रकर्म न श्राय अने तेनुं शबल ( मिश्र ) कर्म बंधाय पण नही. अने ते मिश्र केवल संक्रमणश्री श्राय बे, तेश्री पोताना पक्षमा लीधेला एवा मूढ पुरुषोनी पर्षदामां मदथी मस्तकने धुणावता अने प्रव्य स्तवनी मिश्रताने कहेता एवा तने तेनुं शुं फल कहेवु ? अर्थात् तने मौनधारण करी रेहेवं योग्य जे. ए विशेषार्थ-कोपण कृत्यमां योगनावना प्रकारथी मिश्रपणुं अंगीकार कर्ये ते फलपणाश्री अंगीकार करेलुं मिश्रकर्म न थाय; पण ते बंधथी नथी ते कहे . ते शबल कर्म न बंधाय अहिं शंका करे के त्यारे मिश्रमोहनीय कर्म प्रसिद्ध केम ? तेना समाधानमां कहे जे के, पर एटले केवल ते मिश्र संक्रमपथी श्राय बे. ते कारण माटे पोते पदमां लीधेला एवा मूढ पुरुषोनी पर्षदामां मदवडे मस्तकने धुणावता अने व्यस्तवन मिश्रपणुं कहेता एवा तने ते व्यस्तवर्नु फल रूप बंधातु कर्म जाणवू; एटले अयोग्य पणाथी शुलके अशुल न थाय. जो मिश्रबंधाश्ने प्राप्त थाय तो यमराज कोप करे, तेथी ते बाबतमां तारे मौन राखीने रहे. मस्तक धुणाव, ए मदनो अनुलाव जे. अहिं शंका थाय के, मुग्ध जनने न्याय आपवो ते कूट पाश रूप ने, एम अनिन्न सूत्रना आदेशथी श्रावकोने तो मिश्र प Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) हज बे, एम जोता एवा मने तेना अधिकारवाला व्यस्तवनुं मिश्रणुं रूचे बे, एम जो होयतो अरे पुराशय, गुरूकुलनी उपासनाने नही करनारा एवा तने सिद्धांतना तात्पर्यनुं ज्ञान केम संजवे, तेमां तो व्यवहार नयना आदेशवडे बंधना अनुपाय रूप ऋण पक्षनुं वर्णन करेलुं बे, अने संग्रह नयना आदेशथी फलनी अपेक्षा तो बे प्रकारज बे. तेथी पूजा ने पौषधत्रत करवामां शो विशेष बे ? ते बातमां श्रावकोने मिश्रपहनो नेद बे, एवा अभिप्रा यथी कहे बे. सिद्धांते परिभाषितो हि गृहिणां मिश्रत्वपदस्ततो, बंधनौपयिको विरत्य विरतिस्थानात्त्वयोत्प्रेक्ष्या । अंतर्भावित एव सोऽपि पुरतो धर्मे फलापेक्षया, पूजापोषधतुल्यताऽस्य किन न व्यक्ता विशेषेक्षिणां ॥ अर्थ - धर्मपक्ष, धर्मपक्ष ने धर्माधर्म पक्ष - एमत्र पक्ष मां सिद्धांत विषे गृहस्थोने मिश्र ( धर्माधर्म ) पक्ष कहेलो बे, ते बंधना उपाय रहित पक्ष विरति अविरतिना स्थामां जे वय बेतेनी उत्प्रेक्षाथी कहेलो बे अने ते मिश्रपक्ष पण आगल फलनी अपेक्षाए धर्ममां अंतर्हित थइ गयेलो a. ते गृहस्थ विशेष जोनारा पुरूषोनी दृष्टिए पूजा पौषधी तुझ्या शुं स्पष्ट नथी ? अर्थात् स्पष्ट बे. ए १ विशेषार्थ - धर्मपक्ष ने धर्माधर्म पक्ष, ए त्रण पक्ष बे. मां धर्माधर्म पहने कहे बे. सूत्रकृतांग नामना सिद्धांतने विषे Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) गृहस्थने बंधने प्रतिकूल धर्माधर्म रूप मिश्रपद कहेलो , ते विरति अने अविरतिना स्थानमा जे अन्वय ३ तेनी उत्प्रेदा अर्थात् स्वरूप मात्रथी कहेलो . ते कहेलो मिश्रपद आगल फलनी अपेक्षाए धर्ममां अंतर्हित श्रश् गयेलो बे. तेथी आ गृहस्थाने विशेष जोनारा पुरूषोनी दृष्टिए पूजा अने पौषधनी तुल्यता शुं स्पष्ट नथी ? अर्थात् स्पष्ट बे. ते वाणीना व्यवहारथी अने मिश्रपदना निश्चयथी अने धर्म पणाना हेतुथी स्पष्ट वे. ए त्रण पदनुं व्याख्यान सूत्र कृतांग सूत्रमा मूलवृत्तिथी जाणी लेवु. ए१ ___ अहिं कुतीर्थीनी दृष्टिने अनुसरेलो आचार अधर्म अने पोताना सिद्धांतने अनुसरेलो आचार ते धर्म जणाय जे. ए सर्व अभिप्राय लश् नक्ति अने रागने जुदा करी प्रव्य स्तवमा धर्म पदनो बलात्कारे अंगीकार करी कहे - हिंसांशो यदि दोषकृत्तव जड व्यस्तवे केन त, मिश्रत्वं यदि दर्शनेन किमु तनोगादिकालेपि न । जक्त्या चेन्नतु सापि का यदि मतो रागो नवांगं तदा, हिंसायामपि शस्तता नु सदृशीत्यत्रोत्तरं मृग्यते॥ए॥ ___ अर्थ-हेजड ! जो ऽव्य स्तवमां हिंसानो अंश दोष करनार रे तो, कोनी साथे मिश्रपणुं थाय; जो समकितनी साथे मिश्रपणुं होय तो नोगादि कालमां ते मिश्रपणुं केम न थाय, अने जो नक्तिनी साथे मिश्रपणुं होयतो ते नक्ति केवी ? जो नक्तिनो अर्थ राग कहोतो ते संसारनुं अंग थाय; जो नक्ति-राग Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) संसारचं अंग नहोयतो व्यस्तवने अनुगत एवी हिंसामां पण श्रेष्टपणुं सदृशपणे रहेलुं . अहिं तुं शो उत्तर आपीस ? एश् विशेषार्थ-हेजड ! जो अव्यस्तवमां हिंसानो अंश दोष कारक एटले मिश्रत्व करनारो होयतो ते मिश्रपणुं कोनी साथे थाय ? ते मिश्रपणुं देश संयमनी साथे तो न थाय. वली जो दर्शन-समकितनी साधे मिश्रपणुं थाय तो ते लोगादि कालमा पण ते मिश्रत्व केम न थाय ? जो तुं नक्ति साथे मिश्रपणुं कहतो ते नक्ति कर जाणवी ? जो नक्ति एटले रागः एम कहतो ते संसार- अंग थाय, कारणके राग क्षेष संसारनुं मूल अने संसारना मूल रूप एवा ते बंने अंतर्गत रहेता अधर्मनो पक्ष उत्कट थाय, तो पळी मिश्रपणानो अवकाश क्या रह्यो ? श्रेष्ठ राग होय तो ते नक्ति संसार- अंगन कहेवाय एम जो कहेतो जव्यस्तवमा अनुगत एवी हिंसामा पण सरखीज श्रेष्ठता बे. हवे अहि तुं शुं उत्तर आपीश ? एकहजार वर्षे पण संतोषकारक उत्तर आपी शकीश नही. तेथीज मोक्षार्थी पुरूषो अमारा कहेला मार्ग उपरज श्रघा राखे . आप्रमाणे षटू पुरूषीना दर्शनथी " श्रमणो पासकने व्यस्तवनो अधिकार नथी” एम कहेता एवा कापुरूष पाशनो मत निरास को. आविषे काव्यो ने ते कहे . तार्किक बुद्धिवाला मुनिउंना हृदयमा प्रतिमा विषेनो श्रा अति उज्वल विचार मार्ग स्फुरे , उतां जड बुद्धिवाला पुरुषोना वचनोथी वंचित श्रयेला केटलाएक जड पुरुषो शुं नथी? Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) अहो ! कलिकाल केवो बलवान ने ! पोतानी बुद्धिने रूचिकर एवा कटिपत अर्थोथी विधानोना वचनने तिरस्कार करवामां तत्पर एवा अतिगर्विष्ट पामरोना हृदयमां स्फुरेला परतंत्र शास्त्र लवने जो अमे विस्मय पामीए बीए २ सुझ पुरुषो सात नयने अनुसरता अनंग अने गंजीर एवा आप्तवाक्यने विधिवत् पदेपदे विवर्ण करे बे, ते उतां मलिन लोकोए ग्रहण करेला आकल्पित मत विषे तमेशो निश्चय कर्यो ? ३ शिष्य मूढ अने गुरुपण मूढ तेथी शास्त्र पण मूढ अझ गयुं होय एम लागे डे आप्रकारनी शंका रूप पिशाची ते मूर्ख कुमतिउनी साथे खेल कर्या करो. ५ स्फुट परिणामवाला नवीन तर्कमां सत्पुरुषोनी प्राचीन वाणीउनी गति यतीज नथी; आप्रमाण ते मूढ कुमति बबड्या करे . ते नयना विचित्र परिणामने तेमज रचनाने जाणतो नथी अने वृथा गर्वश्री ग्रस्तथइ विधानोना सर्व विसोने शोध्या करे . ५ एक लवमात्र पदने जाणनारा रागी जम पुरुषोनी पर्षदामां विधानोनुं चातुर्य शोले नही. घणा कागडाउश्री संकुल एवा पांजरामां राजहंसनुं लालन अघटित . ६ जेनामां कालाश अने धोलारानुं अंतर ने अने वाणीना गांलीर्य गुणनो मोटो नेद ने, ते हंस अने कागडाना बच्चांनी बाबतमां तफावत न जाणे तेने अने तेनी माताने धिक्कार जे. ७ वस्तु तो गमेते हो पण जिनवाणीने जाणनारा एवा पंडितने नमस्कार , के जेने वश रहेलु, सर्व पापने नाश करनार श्री जैनशासन जयवंत वर्ते . ८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) हवे अति देशथी कुमतिनो बाकी रहेलो मत निराकरण करी कहे . एतेनेदमपि व्यपास्तमपरे यत्प्राहुरझाः परं, पुण्यं कर्म जिनार्चनादि न पुनश्चारित्रवधर्मकृत् । तछत्तस्य सरागतां कलयतः पुण्यार्जनहारतो, धर्मत्वं व्यवहारतो हि जननान्मोदस्य नो हीयतेए३ अर्थ-जेमणे सूत्रनुं तात्पर्य जाण्यु नथी, एवा केटलाएक अज्ञानी पुरुषो कहे ने के, जिनपूजन करवानुं कर्म पुण्य रूप , पण ते चारित्रनी जेम धर्मनुं कारण नथी. आप्रमाणे कहेनाराउनो मत आ शुद्ध जिनपूजा धर्मत्वनुं कारण ने, एम साबित करवाथी उडी जाय बे. ते जिनपूजादिकर्म चारित्रनी जेम सरागपणाश्री युक्त होय तेश्री व्यवहारथी तेनुं धर्मत्व हणातुं नश्री कारणके पुण्य उपार्जन करवाना धारने लश् मोदनुं ते कारण थाय ने. ए३ विशेषार्थ- श्रा शुछ जिनपूजनमां धर्मत्वर्नु व्यवस्थापन श्राय , तेथी अद अर्थात् सूत्रना तात्पर्यने नही जाणनारा एवा जे पुरुषो कहे जे के, जिन पुजा पुण्यकर्म डे पण ते चारित्र नी जेम धर्मनुं कारण नथी, ते लोकोनो मत उडी जाय जे. तेने अतिदेशथी स्फुट करे . ते जिन पूजा विगेरे कर्म चारित्रनी जेम रागसहित होवाश्री तेनुं धर्मत्व व्यवहारथी हणातुं नथी कारण के पुण्यार्जन घारा शुनाशुल व्यापार पणे ते मोदनुं कारण जे. ते विषे श्री वाचकें कहे डे के- जे पुरुष जिननवन, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) जिनबिंब करावे, जिनपूजा करे अने जैनमतने आचरे, ते पुरुपने मनुष्य, देवता अने मोदना सुखरुप फल हस्तगत थाय वे. ए३ ___ हवे लोकोत्तर अने लौकिक पणाश्री जे धर्म, पुण्य रुप पणुंचे ते पूजामा ज स्वाय. ते कहे. या ज्ञानाद्युपकारिका विधियुता शुद्धोपयोगोज्वला, सा पूजा खलु धर्म एव गदिता लोकोत्तरत्वं श्रिता। श्राजस्यापि सुपात्रदानवदितस्त्वन्यादृशीं लौकिकी, माचार्या श्रपि दाननेदव दिमांजपति पुण्याय नाएट अर्थ-जे पूजा ज्ञानादिकने उपकार करनारी, विधियुक्त अने शुध उपयोग वडे उज्वल, ते पूजा लोकोत्तरपणाथी धर्म रूपज कहेली अने श्रावकने, सुपात्रमा आपेला दानजेदनी जेम, बीजी लौकिकी पूजा कहेली के जेने आपणा आचार्यो पुण्य रूप कहे. ए विशेषार्थ-जे जिनपूजा ज्ञानादिकनी पुष्टि करनारी, अर्ह आदि शब्दथी सम्यक्त्व विगेरे ग्रहण करवां, वलीजे पूजा विधिसहित अने जे शुद्ध उपयोगथी उज्वलने, अहिं उपयोग श्रेटले नवसागरमां नाविका समान अवीते पूजाने जोई, घणां पुरुषो प्रतिबोध पामी षट्काय जीवना रदको थाय श्रेवो अध्यवसाय ते वडे करी उज्वलजे, ते पूजा निश्चयपणे लावपूर्वक वा असंमोह पूर्वक बे के जे धर्मज कहेली कारणके ते लोकोत्तरपणाने आश्रित अयेली बे; तेमज एवा गुणना Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) ध्यानथी तेनुं शास्त्रोक्तपणुं बे. वली अमारा श्राचार्यो सुपात्रने विषे दानदनी जेम लौकिक पूजाने विशेषपणे पुण्यने अ कहे. सारांशके, कोई श्रावकने लोकोत्तर पूजा थाय ते लोकोत्तर फल पे, जेम सुपात्रमां पेलुं दान मोहने माटे थाय तेम. तेवीज रीते कोइ श्रावकने लौकिक पूजा पुण्यने थाय. जेमतेवी जातना दान दथी पुष्य थाय बे तेम. जेम खेड करवामां पलाल - घास विगेरे नियतपणे आनुषंगिक फलरूप, ते पुण्य बे ने बीजथीजे धान्यनी प्राप्ति जे मुख्य फल, ते परम निर्वाणरूप बे. श्रप्रमाणे सूत्रयी उपदेश करेल बे, तेथी दानादि पुण्यना मध्यमां कथन करेल बे, तत् पूजा पण धर्मनी मध्यमां थाय येवो परमार्थ बे. ए४ हिं शंका करे के, पूजा, दान, प्रवचननुं वात्सल्य विगेरे जे कृत्य बे ते सराग कृत्य कहेवाय ने तप चारित्र विगेरे कृत्य वीतराग कृत्य कहेवाय एम विवेचनथी विभाग जणायचे, तेमा जे पेहेलु सराग कृत्य ते पुण्यरूप बे ने बेलु वीतराग कृत्य ते धर्मरूप बे. तेथी धर्म पदार्थ बे प्रकारे थाय. ज्ञान योग लक्षण २ पुण्यलक्षण. प्रमाणे शास्त्रावार्ता समुच्चय नामना ग्रंथमां श्रीहरिजप्रसूरिए कहेलुं बे, तो तेनी पूर्वनी भूमिमां रहेला देव पूजादि कर्ममां धर्मपणुं वे ए वार्ता अमने केवी रीते रुचे ? तेना समाधानमां कहे बे. पुण्यं कर्म सरागमन्यडुदितं धर्माय शास्त्रेष्विति, श्रुत्वा शुद्धनयं न चात्र सुधियामेकांतधीर्युज्यते । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१) तस्माच्छुकतरं चतुर्दशगुणस्थाने हि धर्म नयः, किं ब्रूते न तदंगतां त्वधिकृतेप्यत्रांतमीदामहे ॥५॥ अर्थ-सराग कर्म ते पुण्य अने वीतराग कर्म ते धर्म, एम शास्त्रमा कहेलुं ने, आवो शुछ नयनो अर्थ सांजली सद्बुद्धिवाला पंडितोने एकांत उराग्रह राखवो योग्य नथी. तेथी अतिशुद्ध अवो निश्चय नय चौदमा गुण स्थानमां शुं धर्मने न कहे ! १ अर्थात् कहेज. अमे तो ऽव्य स्तवना अधिकारमा ते शुद्ध निश्चयानिमत धर्मनी अंगताने ब्रांति रहित जोइए जीए. एए विशेषार्थ-मूलमां च शब्द निश्चयार्थमां ने अने अनेद क्रम ने अटले आलोकमांज जे पुण्य ते सराग कर्म ने अने जे वीतराग कर्म ने ते शास्त्रने विषे धर्म कहेलुं ने, आवो शुद्ध नयनो अर्थ सांगली पंडितोए एकांतबुद्धि अर्थात् एकांत उराग्रह करवो योग्य नथी कारणके, एक नयमा आग्रह करवो ते मिथ्यात्व रूप ने अने बीजा नयनो विचार करवाथी ते मूलमांधी उखडी जायचे. वली लखे बे के " धम्मकंखिए पुण्य कंखिए" इत्यादिकमां श्रुत चारित्र लदणधर्म के अने तेनुं फलरूप शुन्न कर्म कहेलुं ; तेथी अर्थात् तेवा अवांतर निश्चये करीने जे अति शुद्ध नय एटले निश्चय नय बे ते चौदमा गुणस्थानमा रहेलो , ते चरम समयमां शुं धर्म कहे तो नश्री? अर्थात् कहे जे. जो एकांत पुराग्रह राखवामां आवे तो ते पूर्वेनो सर्व अधर्म थाय अने तेथी तारे पण ते अनिष्ट थाय कारण के, अमे तो तदंगता एटले शुद्ध निश्चय नयने अनिमत Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) एवी धर्मागताने ते अव्य स्तवना अधिकारमा ब्रांतिरहित जोइए जीए. कारणके प्रस्थक विगेरे दृष्टांत वडे नैगम नयनी विचित्र प्रवृत्ति थाय जे. वली कहयुं ने के, नक्तिविधि वसे रचित एवा जव्यस्तवमां पुण्य पण धर्म नथी. आपकारनी धर्मतिओनी कुमति ले अने सबुद्धिवाला पुरुषोनो ते ते नयथी जे विविध प्रकारनो उपदेश ने ते जड धर्मतिने क्लेशकारक थाय तेमां शुं आश्चर्य ? ते लुंपक पूजाने अधर्म कहे , कुमतिपाश सागरमति मिश्रपदनो आश्रय करी तेने अनुसरे ने, बीजी विधिमां ब्रांत थइ तेने पुण्य कहे अने शुल गन्नमां उत्तम एवा विद्वानो तेने धर्म कही अमृतसाररूप वाणी वदे जे. एy हवे गंजीर एवा या विचारमा गुरूनी परतंत्रतानी सफलता बतावी उपदेश सर्वस्व जणावे . इत्येवं नयनंगहेतुगहने मार्गे मनीषोन्मिषे, न्मुग्धानां करुणां विना न सुगुरोरुद्यतां स्वेदया। तस्मात् सद्गुरुपादपद्यमधुपः स्वं संविदानो बल, सेवा तीर्थकृतां करोतु सुकृती अव्येण नावेन वा ए६ अर्थ-एवी रीते नैगमादि नयो, संयोगो अने हेतुओ वडे गहन एवा मार्गमा स्वेचाथी उद्यमवंत एवा मुग्ध पुरुषोनी बुद्धि कुगुरूनी दयाविना उडशे नही, तेथी पोताना सद्गुरूना चरणकमलमां नमररूप एवो सुकृती पुरुष पोतानी योग्यतानुं बलजाण व्यथी के लावधी श्रीतीर्थकर प्रनुनी सेवा करो. एy विशेषार्थ-एवी रीते नैगमादि नयो, संयोगो, हेतुओ अने Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) उत्कृष्टादिकनी अपेक्षाए दशपंच विगेरे एकावयव वाक्यो, तेवडे गहन एवा मार्गमां स्वेवावडे उद्यम करता एवा मुग्ध पुरुषोनी बुद्धि कुगुरुनी दया विना उन्मेष पामे नही अर्थात् कांदा वगर विश्रांत थाय नहीं. तेथी पोताना सद्गुरूना चरणकमलमां चमर समान एवो सुकृती पुरुष पोतानी योग्यतारूप बलने जाएं। यथाधिकार प्रमाणे व्यथी गृहस्थ अने जावी साधु श्रीतीर्थकर प्रजुनी सेवा करो. कारण के जगवंतन नक्ति करवीते परम धर्म वे. ६ श्री शंखेश्वराधिष्टित पार्श्वनाथ प्रभुनुं संबोधन करी तेनामत रूप अमृतथी वाप्य एवा लुंपकने दूषित करतां, बेवटे स्तुति पुर्वक नयनेद बतावे बे. सेयं ते व्यवहारज क्तिरुचिता शंखेश्वराधीश यद्, दुर्वा दिजदूषणेन पयसा शंकामलालनं । स्वात्मारामसमाधिबाधितनवैर्नास्मा जिरुन्नीयते, दूष्यं दूषकदूषण स्थितिरपि प्राप्तैर्नयं निश्चयं ॥ ए ॥ अर्थ- हे श्री शंखेश्वराधीश प्रभु ! दुष्टवादीर्जना समूहना दूषणरूप जलवडे जे शंकारूप मलनुं प्रकालन थयुं, तेज श्रातमारी व्यवहार नयने योग्य भक्ति करेली बे. पोताना आत्माने उद्यानरूप एवी शुन उपयोगरूप समाधि वडे जेमणे या संसा बाधित कर्यो एवा ने निश्चय नयने प्राप्त थयेला अमे दूष्य, दूषक ने दूपानी सत्ताने जोता नथी. ए विशेषार्थ - हे श्री शंखेश्वराधीश पार्श्वनाथ प्रभु ! दुष्ट वादी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) योना समूहना दूषणरूप जलवडे जे शंकारूप मलनुं प्रकालन थयुं, तेज तमारी, व्यवहार नयने योग्य एवी नक्ति करेली बे. अहिं यत् अने तत् शब्दनो नित्य संबंध बे, तेथी आ ते जक्ति के जे श्रा दालन बे-अहिं स्त्रीलिंग छाने नपुंसकलिं गनो जे संबंध बे ते दूषण नथी एम शिष्ट पुरुषो कहे बे. हवे पर सिद्धांतने दूषण श्रापी स्वसिद्धांतनुं स्थापन करवामां जगवंतना यथार्थ वचनना गुणनी स्तुति करवा योग्य उपासना पणुं व्यवहाररूप कहे बे. कदि या व्यवहारजक्ति होय तो पनी निश्चयनक्ति कर ? ते कहो. तेवी आकांक्षा रहेता कहे बे. पोताना आत्मारूप आराम-उद्यान, जे अत्यंत सुखनो हेतु होवा श्री नंदनवन ते जेमां बे एवो अथवा जे चारे तरफ मा ते राम कहेवाय; तेवो जे समाधि एटले शुभ उपयोग - रूप संप्रज्ञात समाधि अथवा पश्चिम विकटप निर्वचन प्रव्यार्थिक उपयोग लेशथी उत्पन्न थयेलो संप्रज्ञात लयरूप समाधिवडे बाधित करेलो ने एटले बाधित अनुवृत्तिश्री स्थापित कर्यो बे संसार जेम एवा ने निश्चय नयने प्राप्त थयेला एवा मो दूष्य, दूषक ने दूषणनी सत्ताने पण जोता नथी. एउ हवे साक्षात् स्तुति कहे बे. दर्श दर्शमवाप मव्ययमुदं विद्योतमाना लसद्, विश्वासं प्रतिमामकेनर हितखांते सदानंद यां । साधत्ते खरसप्रसृत्वगुणस्थानो चितामानमद्, विश्वासं प्रतिमामकेनर हितस्त्रांते सदानं दद्यां ॥ ए८|| Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) अर्थ-हे सर्व दुःखथी रहित प्रनु, हे सदा आनंदमयनाथ ! तमारी मूर्तिने जोर जोइ, ढुंमारा हृदयमां विश्वास मेलवी, अव्यय, अविनाशी एवा हर्षने प्राप्त थयेलो बुं. हे मनुष्यना हितकारी प्रनु ! उपाधि वगर वधता गुणस्थानने योग्य जेने विश्व नमे ने अने जे विशेषथी प्रकाशित के एवी ते प्रतिमा हृदयमां अजयदान सहित दयानु पोषण करे . ए विशेषार्थ-हे सर्व सुःखथी रहित एवा प्रनु ! हे सदा आनंदमय नाथ ! तमारी मूर्तिने जोइ जोश, दाणेदाणे वधता एवा शुक्ल परिणामवालो थइ, मारा ह्रदयमां विश्वास मेलवी, अव्यय, अविनाशी एवा हर्षने हुं प्राप्त थयेलो बु; एटले बीजुं वेद्यवस्तु जेमां नथी एवा परब्रह्मना स्वाद समान शांत रसना आस्वादने प्राप्त थयो बु. हे मनुष्यना हितकारी प्रन्नु ! ते तमारी प्रतिमा संप्रतिकाले दर्शन करवाथी उत्पन्न श्रयेली नावनाना उत्कर्ष कालमां अनयदान सहित एवी दया वृत्तिनुं पोषण करे . जे दया उपाधि वगर वधता गुणस्थानने योग्य अनुग्राह्य अने अनुग्राहक बनेनी योग्यतानी तुट्य वृत्ति बे. वली जे प्रतिमा विश्वने नमवा योग्य अने विशेषथी प्रकाशित . एG त्वबिंबे विधृते हृदि स्फुरति न प्रागेव रूपांतरं, त्वपे तु ततः स्मृते नुवि नवेन्नो रूपमात्रप्रथा । तस्मात्वन्मदन्नेदबुझयुदयतो नो युष्मदस्मत्पदो बेखःकिंचिदऽगोचरं तुलसति ज्योतिःपरंचिन्मयं एए अर्थ-हे प्रनु ! तमारूं बिंब हृदयमा धारण करवाथी बीजु Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३६) कोइ रुपांतर स्फुरणायमान श्रतुं नथी अने तमारा रूपनुं स्मरण थतां पृथ्वीमां बीजा रूपनी प्रसिद्धि थती नथी. तेमाटे "तुं अने हुँ" एवी अनेद बुद्धिना उदयश्री युष्मत् अने अस्मत् पदनो जस्लेख थतो नथी अने तेथी अगोचर परम चैतन्यमय ज्योति स्फुरणायमान थाय जे. एए। विशेषार्थ-हे प्रनु, तमारू बिंब हृदयमां धारण करवाश्री प्रथ मज रूपांतर स्फुरित थतुं नथी, अर्थात् स्मरण कोटीमा आवतुंज नथी, कारणके तमारा बिंब आगल बीजु कांश स्मरणमार्गे आवतुंज नथी, अर्थात् तमारूं बिंब स्वनाविकरीते एवं रमणीय डे के जेथी बीजें कोई बिंब दृष्टिमार्गे आववा पामतुंज नथी. ते तमारा बिंबना आलंबननुं ध्यान कर्या पळी तमारा रूपनुं ध्यान कर्ये बते आ पृथ्वीने विष बीजा रूप मात्रनी प्रख्याति थती नथी, कारणके बीजां सर्व रूपो तेनाथी निकृष्ट ने अने तमाळं रूप सर्वोत्कृष्टपणे ध्यान करवा योग्य वे. ते तमारा रूपना. ध्यानश्री जव्य, गुण, पोयना सदृशपणावडे निश्चयश्री तमारा अने मारा अनेद बुधिना उदय श्री युष्मत् (तमे) अने अस्मत् (अमे) नापदनो उलेख न थाय, कारणके ध्याता, ध्यान अने ध्येय ए त्रणने एकत्वनी प्राप्ति थाय जे. तेथी करीने कां अगोचर एवं परब्रह्म चैतन्यमय ज्योति स्फुरे चे, तेना स्फुरणथी सर्व क्रियानुं साफट्य . लावार्थ एवो ने के ज्यारे लगवंतनुं बिंब हृदयमां धारण करवामां आवे त्यारे लगवंतना रूपनुं अनुस्मरण अने तेनुं ध्यानज पापने क्य करनारूं थाय अने तेथी निश्चय अव्य, गुण, पर्यायना साम्यनी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) आ लोचनामां "तुं अने हुं अने दुं अने तुं” एवं समापत्ति रूप अनेद शान थाय . एए ___ उपर कहेला अर्थनी नावना करी स्तुति करे बे. किं ब्रह्मैकमयी किमुत्सवमयी श्रेयोमयी किं किमु, झानानंदमयी किमुन्नतिमयी किं सर्वशोजामयी। इत्यं किं किमितिप्रकल्पनपरैस्त्वन्मूर्तिरुद्दीक्षिता, किं सर्वातिगमेव दर्शयति सद्ध्यानप्रसादान्महः १०० अर्थ-शुं ते प्रतिमा ब्रह्ममय ! शुं ज्ञानानंद मय ! शु उन्नति मय वे ! वाशुं ते सर्व शोनामय ! आप्रमाणे कल्पना करता एवा कविओए जोयेली तमारी प्रतिमा सद्ध्यानना प्रसाद श्री सर्वने नवंघन करनार स्वप्रकाश ज्ञानरूप तेजने बतावे . १०० विशेषार्थ-शुं ते प्रतिमा ब्रह्ममय वे ! अर्थात् ब्रह्मनी साथे ऐक्यतावाली, अहिं स्वरूपोत्प्रेक्षा अलंकार . शुं ते प्रतिमा उत्सवमय ! शुं ते प्रतिमा ज्ञानानंदमय वे ! वा शुं ते उन्नति मय ! वा शुं ते सर्व शोनामय ! अहिं उत्सव विगेरे ब्रह्मना विवर्त्त स्वरूप जे. अहिं रुपोत्प्रेक्षा थाय नहीं तेथी क्रम दोष लागे नहीं. कारणके उत्प्रेक्षा वडे क्रम स्वतंत्र नथी. आप्रमाणे कट्पना करता एवा कविओए जोयेली तमारी प्रतिमा सध्यानना प्रसाद थी सर्वने जवंघन करनार स्वप्रकाश ज्ञान रूप तेजने बतावे . अहिं सद् ध्यान एटले निर्विकल्प कलानी प्राप्ति अथवा स्वतः सिघनाव जाणवो, तेमां जिज्ञासा नहीं एटले Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) ते सर्व प्रयोजनना मूलरूप परब्रह्मना स्वादने आपनार होवाथी जगवंतनी मूर्तिनुं दर्शन नव्य प्राणीयोने परम हितकारी ने एवं द्योतन थाय . १०० हवे प्रार्थना गीत स्तुति कहे जे. त्वद्रुपं परिवर्ततां हृदि मम ज्योतिःवरूपं प्रजो, तावत् यावदरूपमुत्तमपदं निष्पापमाविर्भवेत् । यत्रानंदघने सुरासुरसुखं संपंडितं सर्वतो, नागेऽनंततमेपि नैतिघटतां कालत्रयीसंजवि ॥११॥ अर्थ-हे प्रनु, पापना दयवालुं, रूपरहित, उत्तमपदस्वरूप अने फलसाधनरूप एवं अप्रतिपाती ध्यान ज्यां सुधी प्रगट न थाय, त्यां सुधी मारा हृदयमां तमारूं रूप अनेक प्रकारे ज्ञेयाकार रूपे परिणाम पामो. जे आनंदघनमां त्रिकाल संजवी अने सर्व तरफथी एकत्र येलुं सुर असुरनु सुखपण अनंतमा लागे घटतुं नथी. १०१ विशेषार्थ-हे प्रनु, पापना क्यवालु, रूपरहित, उत्तम पद स्वरूप, फल साधनरूप एवं अप्रतिपाती ध्यान ज्यां सुधी प्रगट न थाय त्यां सुधी मारा हृदयमां तमारूं रूप अनेक प्रकारे ज्ञेयाकारवडे परिणाम पामो. आनंदघन एटले आनंदना एक रसमां त्रिकाल संजवी अने सर्व तरफ एक राशिरूप श्रयेलु, सुर असुरनुं सुख अतिशे अनंतमा लागमां पण घटनाने प्राप्त न थाय. ते विशे रुषिए कह्यु ने के "सुरनर सुहं सम्मत्तं सव्वहा पिंडिअं अनंतगुणं णवि पावे मुत्ति सुहणंताहिं विवेग वग्गु Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३ए) ही १ सिस्स सुहोरासी सव्वझा पिंडिळ जश्ह विजा सोणं तवगाना सव्वा गासेण माझा. २ इत्यादि. १०१ हवे बाकीना त्रण काव्यनी नूलवृत्ति संपूर्णपणे कहे . खांतं शुष्यति दह्यते च नयनं जस्मीनवत्याननं, दृष्ट्वा तत्प्रतिमामपीह कुधियामित्याप्तबुंतात्मनां । अस्माकं त्वनिमेषविस्मितदृशां रागादिमां पश्यतां, सांडानंदसुधानिमअनसुखं व्यक्तिनवत्यऽत्वहं॥१२ अर्थ-जिन प्रतिमाने विषे जेमनो आत्मा खंडित श्रयेलो ने एवा कुमतिनु, ते प्रतिमा जोश हृदय सुकाइ जाय बे, नेत्र बली जाय बे, अने मुख जस्म श्रश् जाय . तेज साधे रागयी ते प्रतिमाने अनिमेष दृष्टि थी जोतां एवा अमने तो आनंदघन अमृतमा निमजननु सुख निरंतर प्रगट थाय बे. १०२ विशेषार्थ-आप्रमाणे निर्णय करेली ते प्रसिद्ध जिने प्रनुनी मूर्तिने जोइ ते कुमतिनु हृदय मेघना जलश्री जवासानी जेम सुकाइ जाय , अथवा अंदर रहेल समकितनुं स्थानरूप एवं मन मूलथी सारवगरनुं श्रश् जायजे. एश्रीज कुमतिना नेत्र ते प्रतिमाने जोर शीतल जलना संपर्कथी तपेला घीनी जेम स्वयमेव दहन थाय; अथवा आ अर्थ युक्त जे. ज्यारेपात्रमाथी जल बली जाय त्यारे तेमां रहेखें अन्नादिक पण पोतानी मेले बली जाय बे; अने तेमनुं मुख जस्ममय यश् जाय बे एटले नस्मावशेष होय तेम थाय बे. या अर्थ पण युक्त जे. ज्यारे सर्व दग्ध थर जाय त्यारे नस्म उडवाथी सर्व नस्मलिप्त थाय बे. ते कुमति, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) जेठनो आत्मा जिन प्रतिमाने विषे खंडित श्रयेलो ने तेउनी उपर प्रमाणे दशा थाय जे. अमे तो निरंतर अंतरंग प्रीति थी जिनेश्वर लगवाननी प्रतिमानुं निमेष रहितपणे दर्शन करीएनी ए तेथी अमने ते दर्शनश्री आनंदघन अमृतमा निमजन करवा जेवं सुख प्रगट थाय . १०२ मंदारपुमचारुपुष्पनिकरैवृंदारकैरर्चितां, सवृंदाजिनतस्य निर्वृतिलताकंदायमानस्य ते । निस्पंदात् स्नपनामृतस्य जगतीं पांतीममंदामया, वस्कंदात् प्रतिमां जिनेंद्र परमानंदाय वंदामहे॥१०३ अर्थ-हे जिने ! उत्तम पुरुषोना वृंदोए नमस्कार करेली अने मुक्तिरूप लताना कंद समान एवी तमारी प्रतिमा, जे, देवताउए मंदार वृदना पुष्प समूहवडे पूजेली अने उग्र रोगने शोषण करनारा स्नात्र जलरूप अमृतना ऊरणथी सर्व जगतनी रक्षा करे . ते प्रतिमाने अमे परम आनंद (मोद) ने अर्थे वंदना करीए जीए. १०३ विशेषार्थ-नश्री. तपगणमुनिरुद्यत्कीर्तितेजोभृतां श्री, नयविजयगुरूणां पादपद्मोपजीवी । शतकनिदमकार्षीछीतरागैकनक्ति, प्रथितशुचियशः श्रीरुखसम्यक्तयुक्तिः ॥ १० ॥ अर्थ-श्रीवीतराग उपर अपितीय चक्ति वडे जेना यशनी श्री. . Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) शोजा प्रख्यात बे तथा उम्र कीर्ति ने तेजने धारण कारनार श्रीनय विजय गुरूना चरणकमलनी जे सेवा करनारा बे, एवा तप गहना मुनि श्रीयशोविजयजीए प्रगट युक्ति युक्त या प्रतिमा शतक रचेलुं बे. १०४ ( विशेषार्थ - शास्त्र तत्वने जे मनन करे ते मुनि एवा सार्थक नामवाला तपागना मुनि ने श्रीवीतराग परमात्मानी ऋषिती क्ति करवाथी जेना यशनी शोजा प्रख्याति पामेली बे विशेषणथी कविए पोतानुं नाम यशोविजय सूचव्यं) ने उम्र कीर्ति ने तेजने धारण करनारा श्रीनय विजय गुरूना चरणकमलनी जे सेवा करनारा बे एवा श्रीयशोविजय उपाध्यायजीए प्रगट युक्ति प्रमाणवालुं श्र प्रतिमा शतक रचेलुं बे. १०४ ॥ इति प्रतिमाशतकं समाप्तं ॥ " अर्हतो मंगलं मे स्युः सिद्धाश्च मम मंगलं । साधवो मंगलं मे स्युः जैनधर्मश्च मंगलं ॥ १ ॥ अथ प्रशस्ति भाषांतर देवतार्जए नमस्कार करेला ने प्राणीने वांबित पवामां कल्पवृक्ष समान श्रीवर्धमान जिनेंद्र जयवंत वर्ते बे. जे जगवंतनुं निर्मल शासन या जगतमां गाढ मिथ्यात्वने दारू अने सुखने उत्पन्न करनारूं बे. १ तेना पट्टरूप कमलने सूर्यसमान एवा श्री सुधर्मास्वामी गणधर तेमनाथी उत्पन्न थया. त्यारबाद अनुक्रमे चारित्रने जजनारा एवा केटलाएक विधान सूरि उत्पन्न थयेला बे. ते पछी तेमना वंशमां श्री पूर्णिमा गहना Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (142) राजा, एवा श्रीचंद्रप्रभ नामे सूरि थया अने तेनी पनी वादी उने जितनारा श्रीविद्याप्रभ नामे प्रख्यात सूरिथया. 2 तेपनी वाणीथी बृहस्पतिने पण जितनारा एवा ललितप्रभ नामे सूरिश्रया; अने तेनी पाट उपर भाजूषण रूप एवा विनयप्रभ नामे सूरि श्रया. 3 महीमंडलमां. विलास करती ने कीर्ति जेमनी अने जेमनी मूर्ति चारित्र शुद्धि वडे विराजित ने एवा महिमाप्रभ नामे गुणवान गुरू तेनी शुल पदवी उपर आव्या. 4 श्रीमहिमाप्रभ सूरिना चरणकमलमां नमररूप, तेमनी कृपाथी सुखी अने सतीर्थ्य शिष्यादि गणोथी युक्त एवा भावप्रभ नामे सूरि तेमनी पदवी उपर आव्या. 5 श्रीमालीना वीर वंशरूप कमलमां राजहंसरूप, रामा नामनी मातानी कुक्षिमा उत्पन्न श्रयेला, जयतसी नामना पिताना पुत्र, प्रकाशमान अने सर्व शाहुकारोमां तिलकरूप श्रीतेजसी नामे श्रेष्ठी थया. ते श्रा के घणुं प्रव्य खरची भावप्रभ सूरिना पदनो महोत्सव कोहतो.६ ते ढुं भावप्रभ नामना सूरिए, संदेपरीते पृथक रचेली आ लघुवृत्तिमांजे कां अशुद्ध होय ते विधानोए सुधारी लेवु.७ संवत् १७ए३ ना वर्षना माघ शुक्ल अष्टमी तिथि अने गुरुवारे आ उत्तम टीका संपूर्ण श्र ने छ इति श्रीमत्पूर्णिमागढीय जट्टारक श्रीनावप्रन सूरि समुख *ता प्रतिमा शतक लघुवृत्तिरिय शिष्य ज्योती रत्नस्य हेतवे / // संपूर्णा //