________________
(१५) तयं घ्यमेव वा जडमते त्याज्यं यं वा त्वया, स्यात्तर्कादत एव बुंपकमुखे दत्तो मषीकूर्चकः ॥४॥
अर्थः-चतुर्विंशति स्तवमा रहेला नामना स्मरणथी के प्रतिमाश्री शुंने ? ते बनेमां शो लेद ने ? बीजा निदेप के जावनिोपनी साथे ते नाम अने स्थापनानो संबंध शुं सरखो जे? जरा फेर , तेथी हे जममतिवाला! कांतो तारे ते बनेने वांदवा. अथवा तो ते बंनेने त्याग करवा. श्रा तर्कथी ते ढुंपक उर्मतिना मुखपर मषीनो कुचडो श्राप्यो, अर्थात् तेना मुख उपर श्यामता आपी.
विशेषार्थ-चतुर्विशति स्तव विगेरेमा रहेलां नामना अनुचिंतनथी कदि अहिं शंका थाय के नामस्मरण पुद्गलात्मकपणाश्री आत्माने उपकारी न थाय, पण नामस्मरणमां गुणनी समापत्ति थाय तो तेथी फल थाय. तेथी कहे ले के प्रतिमाथी पण शुं? उत्तर के प्रकाशमान, गुणसमुज अने लोकोत्तर मुजाथी अलंकृत एवी जगवंतनी प्रतिमाना दर्शनथी पण सर्वातिशयी जगवंतना गुणोनुं स्मरण थवाथी तथाप्रकारे ध्यान श्रवानो संजव
. कडं ले के__“ प्रशम रस निमग्नं दृष्टि युग्म प्रसन्नं, वदन कमलमंकः कामिनी संग शून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्र संबंध वन्ध्यं, तदसि जगति देवो वीतराग स्त्वमेव ॥ अहिं कोई शंका करे के नाम श्रने नामवालानी साथे वाच्यवाचक संबंध मे,पण स्थापनाने तेवो संबंध तथ नथी तेमां तेटलो लेद ने, तेथी कहे जे के प्रति यो