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(ए) लावार्थ-एवी युक्तिवडे चित्तमां गर्व धारण करनारा, मायावी अने विषवृक्ष जेवा ढुंपक पुरुषोए सूत्रनी स्पष्टताथी अने शंखजिननी जक्तिपूर्वक पुण्यना तत्वनो बोध करेलो ने, तेथी क्रोधरहित पुरुषोए तेउनी सामे युद्ध करवू नहीं, परंतु जे सत्य तत्व बे, ते बुधिपूर्वक शोधी लेवं. वलीश्रात्मारामे शुक्लास्यामे हृद्विश्रामे विश्रांता, स्त्रुट्यबंधाः श्रेयः संधाश्चित्संबंधादभ्रांताः। अहङ्गक्ता युक्तौ रक्ता विद्यासता येऽधीता, निष्टातेषामुच्चैरेषा तर्कोझेखा निर्णीता ॥२॥ __ लावार्थ-जे अर्हतना नक्तो उज्वल-प्रकाशित स्वरूपवाला, इदयने विश्रामरूप एवा आत्माराम ( श्रात्मारूप आराम) ने विषे विश्रांत श्रयेला बे, जेमना कर्मना बंध त्रुटी गयेला बे, जे चैतन्यना संबंधथी कट्याणनी साथे जोडायेला , जे ज्रांतिरहित युक्तिमां तत्पर अने विद्यामां आशक्त , ते श्रईत लक्तोनी जे (प्रतिमा पूजारूप) निष्टा , ते तर्क वितर्कथी निर्णय करी उत्तम प्रकारे कथन करेली . २ आ बने काव्योथी लुंपकनो सर्वमत निराश थइ जाय .
इति ढुंपकमतं निराकृतम् ॥ हवे धर्मसागरना मतनुं निराकरण करवा कहे . वंद्यास्तु प्रतिमा तथापि विधिनासा कारिता मृग्यते, स प्रायो विरलस्तथा च सकलं स्यादिजजालोपमं ।