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(५८) अस्मिन् सत्ववधे वदंति किल येऽशक्यप्रतीकारतां, तैर्निदामि पिबामि चांजइति हि न्यायः कृतार्थः कृतः __ अर्थ-मुनिने नदी उतरवी एवा संख्यानामनां नियमथी विषमपणुं श्ष्ट बे, एम न कहेदूं जोईए, कारणके तेमां काई पुष्टालंबन नियमित नथी, पण ते शास्त्रना रागथी नियमित थयेलु ने. तेथी नदी उतरवामां जीवनो वध श्रवानो प्रकार अशक्य परिहाररूप , एम जे लुंपको कहेजे, तेए “हुँ जल निंउबुं अने पी, " एवा न्यायने कृतार्थ को. ३६ .
विशेषार्थ-मुनिने नदी उतरवामां संख्या नियम कहेलो ने, अने श्रावकने जिन पूजामां तेवो कांई नियम कहेलो नथी, एवा हेतुने लईने तेमां विषमपणुं इष्ट ने. श्रा प्रमाणे कहेवू तने योग्य नश्री. कारणके नदीनुं उतरवू कांज्ञानादि लालना कारण रूपे नियमित कर्यु नथी, परंतु ते श्रागम (शास्त्र) ना रागथी नियमित करेलुं जे. जेम नखना घसाराथी श्रता घातना निषेधमाटे प्रोक्षण विधिमां कडं तेम.
पूर्वपक्ष-अव्यस्तवनो विधि तो गृहस्थने अपूर्व , तेथी समानपणानो अहीं योग नथी अर्थात् विषमपणुं .
उत्तरपक्ष-जो एम होय तो पुष्टालंबन तरफ जोश्शुं तो वर्षा कालमां पण गामोगाम विहार करवानी आज्ञा आपेली ने, तो तेमां संख्या नियम शो रह्यो? . ते विषे श्रीस्थानांग सूत्रमा कडं के " वासा वासं पजोसविश्राएं नो कप्पर निगंथाणं वा २ गामानुगामं दूई जित्तए पंचहिं
तेमा संलगामोगा हाय तो