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(३०) अर्थ-श्रीवर्धमान स्वामि, बलिदान अने प्रतिमार्चन विगेरे व्यवहारथी सावद्य ने, तेथी तेने सादात् आदेश नहि करतां, ते गुणकारी ने, एम मौन धारणकरी प्रवर्तीवेने. अने देवताउँने तेमनी वंदना विगैरे तेमना आचरणनो आश्रयकरी स्फुटरीते कर्त्तव्यतरीके जणावे. वली लगवान् श्चायोगी प्रत्ये योग्य श्वानो अनुग्रह करी तेमने व्रत कहे, तेथी प्रनुनी वाणीनो क्रम विचित्र प्रकारनो के. २०
विशेषार्थ-नगवान् वर्षमानस्वामी बलिदान विगेरे तथा प्रतिमापूजन विगेरे, जे स्थूल व्यवहारथी पण सावध , तेने साक्षात् कंगना शब्दथी आदेश नहि करतां मौनवडे गुणकारक माने , अर्थात् मौनतारूप विधिवडे तेने प्रवर्तीवे . तेथी एम समजवु के अप्रमत्त साररूप श्री परमात्मानो उपदेश पोतपोतानी योग्यतापूर्वक अपुनर्बधकपणे तेवा विषयमा प्रवर्ते ने, एज तेमनी वाणीना अतिशयनो विलास जे. श्री वीरजगवंत देवताने वंदनादि व्यवहार तेना आचरणने लइने स्फुटरीते कर्त्तव्य तरीके कहेने, एथी कहे जे के “सूर्यानोदेवानुप्रियंवंदे" ( सूर्याजदेवानुप्रिय वंदना करे ने ) इत्यादि उक्तिमां लगवंते कां के "पोराणमयं” आनाट्यकरणादि उपासनानो पण उपदेश ने. जो तेम न होय तो " जाव पज्जुवासामि” एना उत्तरना अनावथी न्यूनतानी प्राप्ति थाय. वली नाम, गोत्र श्रवण कराववानो विधि स्वतंत्र नथी, परंतु करवाने श्वेला साधनने अनुकुल एवी प्रतिज्ञाविधि अवशेष होवाथी तेनो उपयोग मे, अने तेथी विशेषवालानो श्रादेप करवो सुगम थायजे.