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(३७) उपर सूर्यानदेवे करेला नृत्यविषना प्रश्नमां श्री वीरप्रन्नु मौन रह्या, तेमां शुं बीज जे. ते कहे . श्छा स्वस्य न नृत्यदर्शन विधौ स्वाध्यायनंगः पुनः, साधूनां त्रिदशस्य चातिशयिनी नक्तिवध्वंसिनी। तुल्याय व्ययतामिति प्रतियता तूनी स्थितं स्वामिना बाह्यस्तत्प्रतिषेधको न कलयेत्तदंशजानां स्थितिर
अर्थ-श्री वीतराग देवने नृत्य जोवानी इछा नहती, कारण के ते वीतराग , अने गौतमादि साधुऊने नृत्य जोवामां स्वा. ध्यायनो नंग थाय, ते पण अनिष्ट गणाय. वली सूर्याजनी नक्ति संसारने नाश करनारी अतिशयवाली , तेथी तेनुं नृत्य जोवामां समुदायनी अपेदाए सरखी लाल, हानि केवलज्ञानना बलथी जोता एवा श्री वर्धमान स्वामि मौन धरी रह्या हता. शासनथी बाह्य श्रयेला लुंपक कुमति श्री वीर परमात्माना वंशमां उत्पन्न श्रयेला साधुनी आ मर्यादा जाणे नहीं. बाहिर रहेलो माणस बीजाना कुलनी मर्यादाने केम जाणी शके ? १ए विशेषार्थ-यत्किंचित् नपरना नाषांतरमा समायो बे.
हवे प्रनुनी वाणीना क्रमनी विचित्रता दर्शावे बे. सावधं व्यवहारतोपिनगवान् साक्षात् किलानादिशत् बल्यादि प्रतिमार्चनादि गुणकृत् मौनेन संमन्यते । नत्यादि युसदां तदा चरणतः कर्त्तव्यमाह स्फुटं, योगेला मनुगृह्य वा व्रतमऽतश्चित्रोविजोर्वा क्रमः ५०