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करवानी अनिन नाववाला श्रासना करवायी वारण के स
(३) साना अंशमां श्छा होती नथी, मात्र क्रियाना अंशमांज श्या होय . वली व्याश्रवथी पोताना अध्यात्मनावनी उन्नतिने पण बाध आवतो नथी, कारण के सिद्धांतमां योगस्थिति होय त्यांसुधी श्रारंन विगेरे कहेवाय ने एए
विशेषार्थ-धर्मने अर्थे घणा प्रकारनी पूजनादि क्रिया करनारा श्रावकोने धर्मार्थ हिंसानो दोष लागे नहीं, कारण के सदाशय अर्थात् शुननाव जे के यतना करवाथी वृद्धि पामेलो जेने होय एवा शुल लाववाला श्रावकोने कोइ पण अंशे हिंसा करवानी अभिलाषा होतीज नथी. मात्र तेउने क्रियापूर्वक प्रवृत्ति करवानी श्वा होय . तेथी अनुबंध हिंसा के हेतु हिंसा ते क्रियामां होतीज नथी, मात्र स्वरूप हिंसा रहेछे, तेथी कहे के, तेवा अव्याश्रवथी पोताना अध्यात्मनावनी उन्नतिने पण बाघ श्रावतो नथी. वली सिमांतमां पण योगस्थितिमां व्यापक अर्थात् ज्यांसुधी योग रहे त्यांसुधी आरंन विगेरे . ते विषे कह्यु ने के "जावंचणं एयश् वेयश् तावंचणं श्रारंलइ सारंलइ समारं ज" इत्यादि वचन . जो व्याश्रवमात्रथी बंध थाय तो तेरमा गुणस्थानमां पण बंध थाय. एए
श्रा विषयमा कूपनिदर्शन जणावी कहे. पूजायां खलु नावकारणतया हिंसा न बंधावहा, गौणी व्यवहारपतिरियं हिंसा वृथा निश्चये। जावः केवलमेक एव फलदो बंधो विरत्यंशज, स्त्वन्यः कूपनिदर्शनं तत श्हाशंकापदं कस्यचित्॥६॥