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अर्थ- व्यस्तव जावनुं कारण होवाथी, पूजामां थयेली हिंसा बंध करनार यती नथी. व्यवहारनयनी पद्धतिथी विचारीएतो या हिंसा गौणी अर्थात् उत्तम हिंसा के अने निश्चयनयथी विचारीए तो आ हिंसा वृथा ने, कारण के पूजामां मात्र नाव एकज फलने आपनार ने अविरतिना अंशथी उत्पन थयेलो बंध जुदो बे. तेथी या स्थले अपातुं कुवानुं दृष्टांत कोइकने शंकानुं स्थान थर पडे बे. ६०
• विशेषार्थ - अव्यस्तव जावनुं कारण रूप होवाथी पूजामां थती स्नानादि सामग्री मां करेली हिंसा बंध करनारी होती नथी, कारण के जो तेम होय तो दूर्गता स्त्री प्रमुखने सद्गतिनी - सिद्धि होय, परंतु सिद्धांतमां तेर्जने सद्गतिनां प्राप्त करनारां वर्णव्यां वे. वली व्यवहारनयनी पद्धतिए जोतां श्र हिंसा गौ
अर्थात् श्रेष्ठ वे, कारण के परम पुण्यबंधनी हेतुरूप होवा - "श्री" घी बले बे" एवा न्यायथी इष्ट वे अने निश्चयनयथी विचारीए तो था हिंसा वृथा छे, कारण के बंधनी कारणरूप थती नथी. मात्र शुभजाव एकज फलदायक बे, अर्थात् ते जो श्रेष्ठ होय तो श्रेष्ठ फल मले छाने मंद होय तो मंद फल आपवाने समर्थ थाय. या प्रमाणे विविक्तनो विवेक करतां अविरति सम्यग्दृष्टि प्राणीने पण पूजामां बंध नथी, ने अविरतिपणाना श्रंशथी लागतो बंध ते तो जुदोज बे. पूजाना योगमां ते योजेंलो नथी, नहीं तो जिनवंदन विगेरेमां पण ते थवानो प्रसंग
वे. ते कारणथी या स्थले कुवानुं दृष्टांत केटलाएक श्रुत जाणनारने आशंकानुं स्थान थइ पडे. ते विषे आवस्यक सू