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विशेषार्थ - जे श्रावक सर्व सावद्यकर्मनो संक्षेप करनार होय, जे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि स्थावर जीवोने मर्दन करवामां बहुज जीरु होय, जे स्वभावथीज यतनापूर्वक सर्व प्रवृत्ति करतो होय जेनी बुद्धि मुनिनी क्रिया करवामां निरंतर कर्त्तव्य तरी - के उत्सुक होय, तेवो श्रावक श्री अव्यपूजानो अधिकारी नथी. एम मे पण कहीए बीए. कारण के तेनामां श्रात्माने नाश करनार मलिनारंजनो अभाव बे अने चारित्रनी इवाना यो
थी अनारंजनी सिद्धि बे. ते बाबतमां दृष्टांत ए वे के कादवना मलने स्पर्श करी तेने धोइ नाखवाना करतां, ते कादवनो स्पर्श नहींज करवो ते वधारे उत्तम बे. तेथी मलिनारंजी तथा सदारंजी बनेने श्रा प्रव्यपूजानो अधिकार बे; अने यतिक्रियाना अन्यासवालो श्रावक तो श्रमणोपासक बे, परंतु श्र स्वरूप आधुनिक उत्पन्न थयेला कुमतियोने जाणवामां नथी, कारण के तेनो सर्व मत कपोलकल्पित बे. ९८
सिंहावलोकन न्यायवडे प्रव्यस्तवमां कहली हिंसाना अंशनी बुझिने दूर करे.
धर्मार्थं सृजतां क्रियां बहुविधां हिंसां न धर्मार्थका, हिंसांशेन यतः सदाशयभृतां वांडा क्रियांशे परं । न द्रव्याश्रवतश्च बाधनमपि स्वाध्यात्मजावोन्नते, रारंजा दिकमुच्यते हि समये योग स्थितिव्यापकं ५
अर्थ. धर्मने अर्थे अनेक प्रकारनी क्रिया करनारा श्रावकोने धर्मार्थ हिंसा न थाय, कारण के शुभ जाववाला श्रावकोने हिं