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(४) जे वचन, चैत्यनी वंदना, श्लाघा अने पूजाना उद्देशथी अव्यस्तवनी अनुमति कहे, ते वचननो लोप करनारा हे द्रुपक! मुःखसमुहरूप हलाहल विषनी ज्वालाजालरूप एवा संसाररूप सर्पना वदनमां पडवानो लय शुं तने नथी लागतो? २३
विशेषार्थ-साधुनु-परमार्थथी चारित्रने धारण करनारा मुनियोनुं वचन उव्यस्तवनी अनुमोदनाने सूचवे. जे वचन कायोत्सर्ग करवानी प्रतिझाने प्रतिपादन करनारं, ते चैत्यनी वदना, प्रशंसा अने पूजाना उद्देशथी व्यस्तवनी अनुमोदना कहे. हे बुंपक! ते वचनना लोप करनारा, तने आ जवरूपी नुजंगना मुखमां पडवाथी शुं जय नश्री लागतो? व्यंगार्थ एवो डे के, ए अयुक्त जे के नहीं ? ए लव तुजंगर्नु वदन (मुख) मु:खना समुहरूप हलाहल विषनी ज्वालानी जाल सरखं बे. ते उपर आ प्रमाणे स्पष्ट सूत्र वचन बे. “ अरिहंत चेश्याएं करेमि काउस्सग्गं, वंदणवत्तिआए, पूणवत्तिएत्ति” श्रा सूत्रनो एवो अर्थ बे के-अर्हत अर्थात् नाव अर्हतना जे चैत्य एटले चित्त समाधिने उत्पन्न करनार प्रतिमा लक्षणरूप, तेमने वंदनादिकनी प्रतीतिरूप हुँ कायोत्सर्ग करुंबु. कायोत्सर्ग एटले स्थान, मौन अने ध्यान विना बीजी क्रियानो त्याग तेने हुं आचरूंचं. ते शा निमित्ते आचरूंबु. “वंदणवत्तिाए” वंदन अर्थात् श्रेष्ठ मन, वचन, कायानी प्रवृत्ति ते निमित्ते, अर्थात् वंदनश्री जेवू पुण्य थाय तेवू कायोत्सर्गथी पण मने पुण्य था. " वत्तियाए” ए रूप आर्ष (रुषिप्रयोग) होवाश्री सिद्ध थाय. “पूश्रणवत्तिाए” पूजन अर्थात् गंध माल्यादि