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विशेषार्थ - कारणके स्वरूप हिंसाना दोषनुं निर्बलपणुं बे, अने श्रेष्ट फलना साधनपणाने सीधे अनुबंधव मे तेनुं निष्फलपणुं वे. ३८ उपर कहेलुं दृष्टांत न्यायश्री चालता विषयमां योजवाने कहे. एतेनैव समर्थिता जिनपतेः श्रीना जिजूपान्वय, व्योमंदोः सुतनीवृतां विजजना शिल्पादि शिक्षापि च। श्रंशोऽस्यां बहुदोषवारणमतिश्रेष्ठो हि नेष्टोऽपरो, न्यायोसावपि दुर्मत डुमवनप्रोद्दामदावानलः ॥ ३॥
अर्थ - उपर बतावेला पुत्रना दृष्टांतवडे नानिराजना वंशरूपी श्राकाशमां चंद्रसमान श्रीरुषनदेव जगवंते करेली पोताना पुत्रोने जुदा जुदा देशोनी वेहेंच ने प्रजाने बतावेली शिल्प विगेरेनी शिक्षापण निर्दोष दर्शावेली े. तेमां एक अंश बहुदोपने वारनार होवाथी प्रति श्रेष्ठ बे ने बीजो अंश आनुषंगिक हिंसारूप होवाथी उपेक्षा करेलो बे. या न्याय दुष्टमतरूप वृक्षसमूह विषेति प्रबल एवो दावानलरूप बे. ३७
विशेषार्थ उपर कहेला सर्प मुखमांथी खेंचवाना दृष्टांतवडे श्रीषजदेव जगवाने करेली, पुत्रोने जुदा जुदा देशनी जे वेहेंच ने प्रजाउने बतावेली शिल्प विगेरेनी शिक्षा, ते निर्दोषपणे दर्शावी बे. श्री रुपजदेव जगवान, नानिराजनो वंश जे अति विशाल होवाथी आकाशरूप बे तेमां चंद्रसमान बे, अर्थात् चंद्रनी जेम परम सौम्य मूर्त्ति वे यहिं विशेषणथी विशेयनी प्राप्ति बे. नीवृत् शब्द साथे युक्त एवा सुत शब्दने शिकामां दो अन्य तो नथी, तेथी सुतेभ्यः एवो अध्याहार