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(७) नामाचार्य विगैरे त्रण श्राचार्य करतां जे नावाचार्य ने ते तीर्थकर समान जाणवा.
उत्तर पक्ष- परम शुद्ध नावने ग्रहण करनार निश्चयनयनोज श्रा विषय जे. जेना मतमा एकपण गुणनो त्याग करवायी मिथ्यादृष्टिपणुं प्राप्त थाय . यदाहुः " जो जहवायं न कुण मिहिनी तहु कोनोत्ति” तेना मतमां बीजा निदेपना अनादरमा पण नेगम विगेरे सर्व नयथी नामादि निदेपने प्रमाण मानेला . तेम बतां तने आवो व्यामोह केम थाय ? कारणके सर्वनय संमतनेज शास्त्रार्थपणुं बे, अन्यथा समकित अने चारित्रना ऐक्यने ग्रहण करनारा निश्चय नयवडे अप्रमत्त संयतज समकितनो स्वामि थाय अने प्रमत्त न थाय. अने तेथी श्रेणिक विगेरे अनेक पुरुषोने थयेलुं प्रसिद्ध समकित तारा जेवा देवानां प्रिय माणसे ( मूर्खे ) स्विकारवा योग्य न थाय. आ अर्थाने प्रतिपादन करनार सूत्र आचारांग सूत्रना पांचमा अध्ययनना त्रीजा उद्देशामां कदेखें . यथा-"जं संमंति पासहा तंमोणंति पासहा, जं मोणंति पासहा तं सम्मति पासहा" अर्थ-जेजे कारक समकित ने ते मुनिपणुं ने, अने जेजे मुनिपणुं ने ते कारक समकित ने, इत्यादि वली नावाचार्यपणुं नाम, स्थापना, व्यथी प्रशस्त बे, बतां तेनुं उलंघन करतुं नथी, श्रने अंगारमईक विगेरेनुं अव्य तो तेनां नाम, स्थापनानी जेम अप्रशस्तज जे. तेनो अर्थ उपर प्रमाणे महानिशीथ सूत्रमा श्रावीजाय जे. वली गुरुतत्व निश्चयमां कह्यु के जे वस्तुनो नाव निदेपो शुध, तेनां नामादि त्रणे निदेपा शुद्ध जाणवा.