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(७५) यो धर्मांगतया वधः कुसमये दृष्टोऽत्र धर्मार्थिका, साहिंसा नतु सक्रियास्थितिरिति श्रद्धैव सदनेषजं॥ ___ अर्थ-हे पापी ! जगतना उपकारी वैद्यरूप श्रीनगवंतना वचनमा शंका लावतां, तमारा सर्व अंगमां, मिथ्यात्वरूप वायुना कोपने आधीन थवाथी शुं तमने कंप थशे नहीं? अर्थात् थशेज. जे वधने कुशास्त्रमा धर्मरूप कथन करेलो होय तेज वध, वध कहेवाय ने. लोकोमा धर्मार्थिका हिंसा कहेली ने, परंतु सक्रियानी स्थिति हिंसा कहेवाती नथी, तेथी लगवंतना वचनमां श्रचाराखवी तेज उत्तम औषध रूप जे. ५३
विशेषार्थ-हे पापी ! जगतना उपकारी वैद्यरूप श्री जगवंतना वचनमा शंका लावता, तमारा सर्व अंगमां मिथ्यात्वरूप वायुनो प्रकोप अवाश्री तमने कंप थयाविना रहेशे नहीं; अने तेम अशे तो अमे ते बाबतमां शुं उपाय करी शकीए? कारणके वैद्यना वचन उपर शंका लावनार रोगीने ब्रह्मापण निरोगी करी शके तेम नश्री. अहिं रोगर्नु औषध बताववानी इचा थवाथी तेनुं वर्णन करे. जे वधने कुशास्त्रमा धर्मना अंगरूप वर्णव्यो होय तेज वधने परीक्षक लोको धर्मार्थिका हिंसा कहे, परंतु सक्रियानी स्थिति हिंसा कहेवातीज नथी. कारण के अप्रमत्तपणे कार्य करतां, ते कार्यमां हिंसानी प्राप्ति थतीज नथी. तेथी जगवंतना वचनमां श्रघा राखवी तेज परम औषधरूप जे. जो तेप्रमाणे न मानीएतो श्रीज्ञातासूत्रमा खाना जलने शोधवामां सुबुद्धि मंत्री महा हिंसा करनार अने मंद बुद्धिवालो गणाय, परंतु शुन्न अध्यवसाययुक्त होवाथी ते शुधज . ५३