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(७१) राह एवय मिणं जेसे उवरि जत्तपाण दाण संगहण कुसले अचंत बाल उब्दलादि पाठे एपठे” इत्यादि- तेथी चैत्य अर्थात् जिनप्रतिमासंबंधी वैयावच्च घणा प्रकारश्री, निर्जरा अर्थात् कर्मक्यनी चावालोप्राणी कीर्तिनी अपेक्षा विना करे. ७.
हवे चैत्य शब्दना अर्थातरवादसंबंधी अधिकार बतावे जे. ज्ञानं चैत्यपदार्थमात्र वदतः प्रत्यक्षबाधैकतो धर्मिछारतयामुनावधिकृते त्वाधिक्यधीरन्यतो। दोषायेति परः परःशतगुणप्रछादनात्पातकी, दग्धागवतु पृष्ठतश्च पुरतः कांकांदिशीको दिशं ॥४॥
अर्थ-ए प्रश्नव्याकरण सूत्रमा चैत्यपदनो अर्थ शान ने, एम कहेनारा लुंपकने एक पदे प्रत्यद प्रमाणनो बाध आवे ने अने धर्मिने विषे धर्मनो उपचार श्राय एवा अभिप्रायश्री मुनिने अधिकारी गणीए तो बीजा पदे अधिकपणानी अर्थात् पुनरूक्तिपणानी बुद्धि दोषकारक याय . आप्रमाणे पूर्वे कहेला प्रकारथी ते कुमति चैत्य शब्दनो अर्थ बताववामां तेना सेंकडो गुणोने निन्हवकरी (उलवी ) पातकी बने , तेथी ते आगल पागल दग्ध श्रयेली कई दिशामां नाशी जाय! अर्थात् कोश् ठेकाणे नासवाने समर्थ नथी. ए
विशेषार्थः-प्रश्नव्याकरण सूत्रमा चैत्य शब्दनो अर्थ शान ने एम कहेतां लुंपकने एकपदे प्रत्यद प्रमाणनो बाध आवे. कारणके विश्रामण आदि वैयावच्चनी चैत्यशब्दनो ज्ञान अर्थ थवामां सिद्धि थती नथी अने धर्मिधारपणाथी अर्थात् धर्मिने