Book Title: Chaturvinshatiprabandha
Author(s): Rajshekharsuri, Hiralal R Kapadia
Publisher: Harsiddhbhai Vajubhai Divetia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦). શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર - સંયોજક- બાબુલાલ સરેમલ શાહ હીરાજૈન સોસાયટી, રામનગર, સાબરમતી, અમદાવાદ-૦૫. (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ પૃષ્ઠ 296 160 164 202 48 306 322 668 516 268 456 420 १४. 638 192 428 070 406 પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને સેટ નં.-૨ ની ડી.વી.ડી.(DVD) બનાવી તેની યાદી या पुस्तat परथी upl stGnels sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ભાષા કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક 055 | श्री सिद्धहेम बृहदति बृदन्यास अध्याय-६ पू. लावण्यसूरिजीम.सा. 056 | विविध तीर्थ कल्प पू. जिनविजयजी म.सा. 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृति टीका श्री धर्मदतसूरि 06080 संजीत राममा श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) सं श्री रसिकलाल हीरालाल कापडीआ 062 | व्युत्पतिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय | श्री सुदर्शनाचार्य 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी पू. मेघविजयजी गणि 064 | विवेक विलास सं/४. श्री दामोदर गोविंदाचार्य 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध सं | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 066 | सन्मतितत्वसोपानम् पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 067 | 6:शभाटा टी शुशनुवाई पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 068 | मोहराजापराजयम् सं पू . चतुरविजयजी म.सा. 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया | कालिकाचार्यकथासंग्रह | सं/१४. श्री अंबालाल प्रेमचंद 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका श्री वामाचरण भट्टाचार्य 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन | 073 | मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं | श्री भगवानदास जैन 074 | सामुदिइनi uiय थी ४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 0758न यित्र पदूम लाम-१ ४. श्री साराभाई नवाब 0768नयित्र पद्मसाग-२ ४. श्री साराभाई नवाब 077 | संगीत नाटय ३पावली ४. श्री विद्या साराभाई नवाब 078 मारतनां न तीर्थो सनतनुशिल्पस्थापत्य १४. श्री साराभाई नवाब 079 | शिल्पयिन्तामलिला-१ १४. श्री मनसुखलाल भुदरमल 080 यूशल्य शाखा-१ १४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 081 | शिल्प शाखलास-२ १४. श्री जगन्नाथ अंबाराम 082 | वृक्ष शिल्पशास्त्रला1-3 | श्री जगन्नाथ अंबाराम 083 | यायुर्वहनासानुसूत प्रयोगीला-१ १४. पू. कान्तिसागरजी 084 ल्याएR8 १४. श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री 085 | विश्वलोचन कोश सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा 086 | Bथा रत्न शास-1 श्री बेचरदास जीवराज दोशी 087 | કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 १४. श्री बेचरदास जीवराज दोशी 088 |इस्तसजीवन | सं. पू. मेघविजयजीगणि એ%ચતુર્વિશતિકા पूज. यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા | सं. आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 308 128 532 376 374 538 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 230 322 089 114 090 560 Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાનમ” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૬૧ 'ચતુર્વિશતિપ્રબંધ (પ્રબંધ કોષ) : દ્રવ્યસહાયક : તપાગચ્છાધિપતિ પૂ. આ. શ્રી વિજયપ્રેમસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની આજ્ઞાવર્તિની શ્રી ચન્દનબાળા કન્યા શિક્ષણ શિબિરની પ્રણેત્રી સ્વ. પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી સૂર્યપ્રભાશ્રીજી મ.સા.ની તૃતીય પુણ્યતિથિ નિમિત્તે પૂજ્ય સાધ્વીજી શ્રી દિવ્યપ્રભાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શ્રી ધર્મ-વિદા-વિહાર ઉપાશ્રયની આરાધક શ્રાવિકાઓના જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૬ ઈ.સ. ૨૦૧૦ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Forbes Gujarati Sabhā Series No. 12 Caturvims'ati-Prabandha or Prabandhakos'a by Sri Rajasekhara Suri Edited with Introduction, Notes and Appendices by Prof. Hiralal Rasikdas Kapadia, M. ▲., Post-Graduate Lecturer at the Bhandarkar O. R. Institute, Poona; formerly Asst. Prof. of Mathematics, Wilson College, Bombay. A. D. 1932 ] Price 2-8-0 [ Copies 5C0 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - Sitaram Vasudev Phadnis, B, A., at the Aryasamekṛti Press, Chimanbag, Tilak Road, Poona 2. Printed by Harsiddhabhai Vajubhai Divetia M.A., LL, R., Advocate, High Court; Hon, Secretary, The Forbes Gujarati Sabha, Maharaj Mansions, Sandhurst Road, Bombay 4. Published by: To be had from : Messrs. N. M. Tripathi & Co., Book-sellers & Publishers, Princess Street, Bombay 2. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD It is with great pleasure that we place before the public for the first time a Sanskrit work written by a well-known Jaina author Sri Rajasekhara Sūri of great importance as a material for the history of Gujarat. This work was entrusted to Prof. H. R. Kapadia, M. A., in 1931 A. D., by the Forbes Gujarātī Sabha, Bombay, for editing, annotating etc. We are grateful to him for the splendid edition he has prepared by utilizing 3 Mss. and a printed copy. Herein the learned reader will find various readings, Sanskrit renderings of verses in Prakrit and old Gujarati, notes pertaining to the technicalities of Jainism and several appendices. Out of them the alphabetical index of names of rulers; cities etc., will attract the attention of students interested in research work. This edition stands unique in all these aspects which are wanting in the other edition which may be looked upon as editio princeps. This was published in A. D. 1921 by Sri Hemacandracarya Granthavali, as the 20th number of that Series, which has been here referred to as ga. We need not dilate upon the life of the author as well as the historical basis of the 24 prabandhas as the learned editor hopes to deal with it in the subsequent volume of this work viz. the critical edition of the Gujarati translation which is entrusted to him by our Sabha and which is in press at present. We shall be failing in our duty if we did not express our indebtedness to Divan Bahadur K. M. Javeri, M. A., LL. B., who procured from the Bombay Royal Asiatic Society for the Sabha two Mss., of Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 FOREWORD Caturviṁsati-prabandha here designated as kha and gha respectively, ka being a Ms. belonging to the Bhandarkar Oriental Reserch Institute, and consulted by our editor during his stay in Poona. We are grateful to Sri Caturavijaya for his supplying the editor with the press-copy for the 2nd and the 6th appendices and for going through some of the proofsheets In the end, we may thank Dr. V. G. Paranjpe, M. A.,LL. B., the Proprietor of Aryasamskṛti Press, Poona, for the attention he paid as regards the printing etc., of the work. We are indebted to the Bombay Branch of the Royal Asiatic Society as well as the Bhandarkar Oriental Research Institute of Poona for allowing us to make use of their Mss. 21-2-1932. Bombay. Harsiddhbhai Vajubhai Divetia, Honorary Secretary, S'ri Forbes Gujarāti Sabhā, BOMBAY Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविकम् | " मवबीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ " विदाङ्कुर्वन्तु विद्यारसिकशिरोमणयः सहृदयहृदया यदयं प्रबन्धक शेत्यपराह्वयः श्रीचतुर्विंशतिप्रबन्धो गुर्जरगीगुम्फितो गद्यप्राय: प्राकृतादिभाषानिबद्धैः पद्यगंद्यात्मकैश्वावतरणैः समलङ्कृतो ग्रन्थो वरीवर्ति । अत्र सूरिप्रबन्धा दश, १ सन्तुल्यतां यदुक्तं स्वयं प्रन्धकारैः प्रशस्स्यां निम्नलिखितपद्म द्वारा " तेनायं मृदुगधैर्मुग्धो मुग्धावबोधकामेन । रचितः प्रबन्धकोशो जयताज्ञ्जिनपतिमतं यावत् ॥३॥ २ प्राकृत - प्राचीन गूर्जरादिभाषा सङ्कलितानाम बतरणानां प्रतिसंस्कृतं कृतं मया मन्दधिया, किन्तु कुत्रचित् समस्ति शङ्का । यत्र स्खलनावगम्यते शेमुषीशालिभिस्तत्प्रमार्जनं ते करिष्यन्ति मां च निवेदयिम्यन्तीति तेभ्यो मेऽभ्यर्थना विद्यते । 19 ३ ' गुरुवचनमलमपि ० ' इति गद्यात्मकं अवतरणं तृतीये पृष्ठे । एतस्य मूलस्थलानिर्देशार्थिभिः प्रेक्ष्यतां श्रीयुतका लेद्वारा सम्पादितायाः कादम्बर्याः १० ३तमः परिच्छेदः । ४ एतेषां सर्वेषां मूलस्थान निर्देशकरणे नाहमलं यथेष्टसाधनाप्राप्तेः । तथापि कतिपयानां मूलस्थानं प्रादर्शि मया छ- परिशिष्टे । अनेनानुमीयते यदुत अयोगव्यवच्छेदिकाद्वात्रिंशिका - कादम्बरी-कुमारसम्भव - नैषधीयचरित्र - रघुवंश- प्रबन्धचिन्तामणि- रुद्रटालङ्कार-विक्रमोर्वशीय वेणीसंहार-वैराग्यशतकप्रभृतयो प्रन्या प्रन्थकाराणां दृष्टिपथमवतीर्णाः । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविकम् विश्वधाश्चत्वारः, भूपतिप्रबन्धाः सप्त, राजाङ्गश्रावकप्रबन्धात्रयः एवं प्रबन्धाश्चतुर्विंशतिः सन्ति । एतेषु कतिपयाः प्रभावक चरित्रेऽपि दृश्यन्ते यत्संवादादिमीमांसां कर्तुं प्रयतिष्येऽस्य ग्रन्थस्य गुर्जरभाषात्मकेऽनुवादे | चतुर्विंशतौ । प्रबन्धेषु सप्तमं विहाय सर्वे गद्यमयाः । किश्च समस्तषु प्रबन्धेषु नवमः प्रान्तिमश्च विशेषतो विस्तृतौ वर्तेते । अपरञ्चात्र क्वचिद् गुर्जर भाषायाः शब्दाः संस्कृतस्वाङ्गसज्जीकृता विलोक्यन्ते, यथाहि - बण्ड : (पृ. ११ ), हक्तिः (पृ. २१ ), छोटयित्वा (पृ. ३४ ), खटपटापयति (पृ. ५३ ), टलवलायमानः (पृ. ८१ ), तडफडायमाना (पृ. ९६ ), छुटन्ति (पृ. ९६ ), बुम्बां पातयन् (पृ. १२१ ), झगटक ( पू. १३८) । अस्मिन् प्रबन्धकोशे नाना न्याया अपि निर्दिष्टा:, यथाहि - 'एकं वानरं अपरं वृश्चिकेन जग्धा' (पृ. १८, प. ७), अस्थिमजः (पृ. ५९, प. १ ), काकतालीय: (पृ. ८५ प ४), अन्धवर्तकी (पृ. ८५, प. ५), 'भजते विदेशमधिकेन जितस्तदनुप्रवेशमथचा कुशलैः' (पृ. १२३, प. २०३ ) मात्स्यः (पृ. २०६ ) च । अस्य प्रबन्धकोशस्य प्रणेतृभिः श्रीराजशेखरसूरिभिः १ श्री अमरचन्द्रसूररीणां प्रबन्धस्यान्तर्भावोऽत्र कृतः प्रस्तुतग्रन्थकारैः, न तु सूरिप्रबन्धेषु । तत्र केनापि कारणेन भवितव्यमिति सम्भावनायामेतेषां कविप्रतिभा प्रदर्शन हेतुकं निरूपणमिदमिति पोस्फुरीति । २ सन्तुल्यन्तां प्रभावकचरित्रगता आर्यनन्दिल-पादलिप्त-वृद्धवादि- मल्लवादि - हरिभद्र- बप्पभट्टि हेमचन्द्रसूरीणां जीवनवृत्तान्ताः । ३ मत्कृतोऽनुवादोऽयं प्रस्तावनापरिशिष्टादिपरिष्कृतश्व प्रसिद्धधमानोऽस्ति श्री फार्बस गुजरातीसभया'ऽऽदित्य' मुद्रणालये राजनगरे । ४ प्रस्तुतप्रबन्धकाराणां काव्यनिर्माणसम्बन्धिनी कुशलता की शी वर्तते तनिश्चयार्थिभिः पठ्यतां प्रबन्धोऽयम् । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् प्रास्ताविकम् प्रशस्तौ निजकुलगणशाखागच्छगुरूणां यो नामोल्लेखोऽकारि तदाधारेण ज्ञायते यदुतैतेषां प्रश्नवाहनाभिधं कुलम्, कोटिकाभिख्यं गणम्, मध्यमाख्या शाखा, हर्षपुरीयाह्वं गच्छम्, श्री तिलके त्याह्वयाश्व गुरवः । यैर्मलधारिश्रीराजशेखरसूरिभिर्षड्दर्शनसमुच्चयः सन्धधः त एव हमे इति सम्भाव्यते । ७१० श्लोकप्रमाणकवस्तुपालप्रवन्धस्य प्रणेतृरूपेण येषां श्रीराजशेखरेति नामधेयं निर्दिष्टं जैनग्रन्थावयां dsuit एव स्युः । स प्रबन्धोऽपि प्रबन्धकोशस्यास्यान्तर्गत एव स्यात् । निश्चयस्तु तत्प्रतिविलोकनेनैव शक्यः । एभिर्मलधारिरिभिश्चतुरशीतिः कथा अपि निर्मिता इति ज्ञाम्यते- बृहद्धि पनि कागतेन निम्नलिखितेनोल्लेखेन 39 “ २४ प्रबन्धाः ८४ कथाच राजशेखरसूरिरचिताः । अथवा प्रत्यक्षे प्रमाणे सति किमनुमानेन १ । अयं चतुरशीतिकथात्मक ग्रन्थः प्रसिद्धिं नतिः पण्डितश्रावकहीरालालहंसराजनाम महाशयैर्वैक्रमीयान्दे १९६९ तमे । १ एतनामोल्लेखो मङ्गलाचरणरूपेण रचितस्य पद्यपञ्चकस्य प्रान्तेऽध्यवलोक्यते । आद्ये पयचतुष्के तु श्रीऋषभ नेमि पार्श्व-वीरेतितीर्थकरचतुष्टयस्य वन्दनं विहितमाचार्यवर्यैः । २ अस्याद्यं पद्यमित्थम् " नत्वा मिजगुरून् भक्त्या, स्मृत्वा वाङ्मयदेवताम् । सर्वदर्शनवक्तव्यं, वक्ति श्री राजशेखरः || १ || अन्तिमं तु यथा— " बाकावबोधनकृते 'मलधारि' सूरि : श्री राजशेखर इति प्रथमानबुद्धिः । सम्यग् गुरोरधिगतोत्तमतर्कशास्त्र: षड्दर्शनीमिति मनाक् कथयाम्बभूव ॥ १८० ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित् पास्ताविकम् स्थाद्वादकलिकाकारोऽपि नाम्ना राजशेखरा इति जैनप्रन्थावल्यां निर्देशः। एतत्प्रणयनसमयः १२१४तमो वैक्रमयिान्द इति तत्र सूचितम् । अनेनानुमीयते यदुतैते न प्रस्तुताः । किश्च कर्पूरमञ्जरी-काव्यमीमांसा-बालभारत-बालरामायण-विद्धशालभञ्जिकाप्रणेतारो राजशेखरा अप्येभ्यो मलधारिसूरिभ्यो भिन्ना एव । लुङ( Aorist)प्रयोगप्रचुरस्यास्य प्रबन्धकोशस्य संशोधनकार्ये साधनीभूतं पुस्तकचतुष्टयम्। तत्र क-सञ्ज्ञकं पुण्यपत्तनस्थप्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरसत्कं हस्तलिखितम्, ख-घ-सञ्ज्ञात्मके मुम्बापुर्या रायल्एशियाटिक्सोसायटिसत्के हस्तलिखिते, ग-सज्ञि तु श्रीहेमचन्द्राचार्यग्रन्थावल्यां विंशतितमाङ्करूपेण प्रसिद्धि नीतम् । एतसिन् पुस्तकचतुष्के क-ख-सञ्ज्ञयोः प्रायः परस्परा पाठसदृशता दरीदृश्यते, ग-घ-सञ्जयोरपि च तथाविधता। घ-सञ्ज्ञा हस्तलिखिता प्रतिः शेषापेक्षया शुद्धतमा, परन्तु न चैतस्था एवाधारेण संशोधनं शक्यम् । किञ्च पुस्तकचतुष्टये प्राप्तेऽपि कतिचन स्थलानि सन्देहास्पदानि सन्ति । अस्य सम्पादनविधावनुगृहीतोऽसि महाशयैस्त्रिभिः । तत्र १३६तमानां पृष्ठानां द्वितीयवेलाशोधनपत्राणामेकस्या प्रतेः समीक्षणेनोपकृतोऽहं दक्षिणविहारिमुनिवर्यश्रीअमरविजयशिष्यरत्नमुनिश्रीचतुरविजयैः सम्पूर्णस्य ग्रन्थस्य मुद्रणवेलाशोधनपत्राणां तु डॉ. वासुदेवराव गोपालराव पराञ्जपे एम्. ए., एल्एल्. बी. इत्येभिर्महानुभावैः । अपरश्चाहमृणीकृतः श्रीफारसगुजरातीसभया यया जैनसाहित्यप्रचारकार्ये सुयोगः समर्पितो मह्यम् । एवं यथासाधनं सम्पादितो विषमस्थानेषु टिप्पनकैविशिष्टपरिशिष्टैश्च समलड़तोऽयं ग्रन्थः सायन्तः समीक्ष्यतां समीक्षकः । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किञ्चित प्रास्ताविकम् कथासाहित्यरसपिपासुभिः कणेहत्य निपीयताममन्दानन्दसन्दोहनिस्यन्दी रसनिवहः । अयं मदीयः परिश्रमः फलेग्रहितां नीयता नीतिनिपुणैर्विद्याविनोदिभिः सद्भिः । क्षम्यन्तां 'क्षमासन्ततिचारुचित्तै' निसर्गोपनिपाताश्छा अस्थिकानि स्खलनानि । उपेक्ष्यन्तामशुद्धयो मुद्रणयन्त्र सञ्जातास्तनियुक्तजन समाचरिता वा मात्राऽनुस्वाराङ्कादिपतन परावर्तनप्रभृतयः प्रतिभाप्रतिष्ठा पुरस्कृतैः परीक्षकैरिति प्रार्थयति हीरालाल मोहमयीनगर्या भूलेश्वरवीथ्या माघे सुदि सप्तम्यां २४५८ मे वीर संवत्सरे । विबुधवृन्दारविन्दमकरन्दन्दिन्दरो ११ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५/ विषयानुक्रमः- Tablé of 'Conténts विषयः Foreword ( आमुखम् ) किञ्चित् प्रास्ताविकम् उपक्रमः श्रीचतुर्विंशतिप्रबन्धः (१) श्रीभद्रबाहुवराहप्रबन्धः ( २ ) श्री आर्यनन्दि सूरिप्रबन्धः (३) श्रजियदेवसूरिप्रबन्धः (४) श्री भार्यखपटसूरिप्रबन्धः (५) श्रीपादलिप्तसूरिप्रबन्धः (६) श्रीवृद्धवादि - सिद्धसेनसूरिप्रबन्धः (७) श्रीमल्लवादि सूरिप्रबन्धः (८) श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः ( ९ ) श्रीबंष्पभट्टिसूरिप्रबन्धः (१०) श्रीहेमचन्द्रसूरिप्रबन्धः (११) श्रीहर्षविद्याधर - जयन्तचन्द्र प्रबन्धः (१२) हरिहर प्रबन्धः (१३) श्री अमरचन्द्रसूरिप्रबन्धः (१४) श्रीमदनकीर्तिप्रबन्धः (१५) श्री सातवाहन प्रबन्धः (१६) श्रीवक चूलप्रबन्धः (१७) श्रीविक्रमादित्यप्रबन्धः (१७ अ ) विक्रमचरितम् (१८) श्रीनागार्जुनप्रबन्धः (१९) श्रीवत्सराजोदयनप्रबन्धः पृष्ठाङ्क ५...६ ७-११ १- २५९ १-२ ३-७ ८-१२ १३-१७ १८-२२ २३-२९ ३०-४२ ४३-४८ ४९-५४ ५५-९५ ९६ - १११ ११२-११८ ११९ - १२५ १२६-१३० १३१-१३५ १३६-१५२ १५३-१५९ १६०-१६९ १६९-१७१ १७२-१७४ १७५-१७९ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुकमः। विषयः (२०) श्रीलक्षणसेनप्रबन्धः (२१) श्रीमदनवर्मप्रबन्धः (२२) श्रीरत्नप्रबन्धः (२३) श्रीआभडप्रबन्धः (२४) श्रीवस्तुपालप्रबन्धः परिशिष्टानि (१) सपादलक्षीयचाहमानवंशः (२) श्रीआर्यनन्दिलसूरिकृतो वैरोट्यास्तवः (३) 'उवसग्गहरं स्तोत्रम् (४) श्रीपादलिप्तसूरिकृता श्रीवीरस्तुतिः (५) 'शान्तो वेषः स्तवनम् (६) श्रीवस्तुपालकृतपुण्यकृत्यस्तुतिः (७) श्रीचतुर्विंशतिप्रबन्धगतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः (८) विशिष्टनगनगरनरादीनां सूचिः (९) प्रकीर्णकटिप्पणकानि (१०) शुद्धिपत्रकम् पृष्ठाकः १८०-१८४ १८५-१९० १९१-१९८ १९९-२०४ २०५-२५९ २६०-३०५ २६०-२६१ २६१-२६३ २६४ २६५-२६६ २६६-२६७ २६७-२६९ २६९-२७६ २७७-२९१ २९२-३०० ३०१-३०५ Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हम् श्रीराजशेखरसूरिवरविरचितः ॥चतुर्विंशतिप्रबन्धः॥ प्रबन्धकोशेत्यपराह्वयः राज्याभिषेके कनकासनस्थः, सर्वाङ्गदिव्याभरणाभिरामः । श्रियेऽस्तु वो मेरु'शिरोऽवतंसः, कल्पद्रुकल्पः प्रथमो जिनेन्द्रः ॥१॥ विवेकमुच्चैस्तरमारुरोह य-स्ततोऽद्रिशृङ्गं चरणं ततस्तपः। ततः परं ज्ञानमयोत्तमं पदं, श्रियं स नेमिर्दिशतूत्तरोत्तेराम् ॥२॥ यस्मै स्वयंवरसमागतसप्ततत्त्व___लक्ष्मीकरग्रहणमाचरतेति भक्त्या । सप्त व्यधात् फणिपतिः फणमण्डपान् किं वामाजभूः स भगवान् भवतान्मुदे वः ॥ ३ ॥ अर्थेन प्रथमं कृतार्थमकरोद् यो वीरसंवत्सरे दाने च व्रतपर्वजेऽथ परमार्थेनापि विष्वग् जनम् । १० यद्दत्तागमशुद्धबीजकबलादद्यापि तत्त्वाभिधा लभ्यन्ते निधयो बुधैर्भरत'भुव्यस्यां स वीरः श्रिये ॥ ४ ॥ देयासुर्वाङ्मयं मे जिनपगणभूतो भारती सारतीव्रा भारत्याः सौम्यदृष्टया विलसतु मम सा सन्तु सन्तः प्रेसन्नाः। सूरिमें सद्गुरुः श्रीविलक इति कलाः स्फोरयत्वस्तविघ्नः शिष्याः सृर्जन्तु गर्जन्त्वविरलसुकृतश्रेणयः श्रावकौघाः ॥ ५ ॥ १ ग-णेऽमिरामः'। २ श्रीऋषमस्तीर्थकरः। ३ उपजातिः । ४ ग-मथे। खरं पदं'। ५ क-चरम्। ६ वंशस्थविलम् । ७ वसन्ततिलका । ८ शार्दूलविक्रीडितम् । कस-प्रसमा । १. सम्धरा । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुवैिशतिप्रदन्धे [ १ श्रीभद्रबाहुचरा ईड विल डि. प्येण विनीतविनयेन तजलधिपार मस्य क्रियापरस्य गुरोः समीपे विधिना सर्वमध्येतव्यम् । ततो भव्योपकाराय देशना क्लेशनाशिनी विस्ताय । तद्विधिश्चायम् - अस्खलितम्, अमिलितम्, भहीनाक्षरं सूत्रमुच्चार्यम् । अग्राम्यललितभङ्गाऽर्थः कथ्यः । ५ कायगुप्तेन परितः सभ्येषु दत्तदृष्टिना यावदर्थबोधं वक्तव्यम् । वक्तुः प्रायेण चरितैः प्रबन्धैश्व कार्यम् । तत्र श्री ऋषभादिवर्धमानान्तानां जिनानाम्, चत्र्यादीनां राज्ञाम् ऋषीणां चार्यरक्षितान्तानां वृत्तानि चरितानि उच्यन्ते । तत्पश्चात्कालभाविनां तु नराणां वृत्तानि प्रबन्धा इति । " इदानीं वयं गुरुमुखश्रुतानां विस्तीर्णानां रसाढ्यानां चतुर्विंशतेः प्रबन्धानां सङ्ग्रहं कुर्वाणाः स्म । तत्र सूरिप्रबन्धा दश, कविप्रबन्धाश्वत्वारः, राजप्रबन्धाः सप्त, राजाङ्गश्रावकप्रबन्धास्त्रयः, एवं चतुर्विं शतिः । १ भद्रबाहु - वराहयोः, २ आर्यनन्दिलक्षपणकस्य, ३ जीवदेवसूरीणाम्, ४ आर्यखपटाचार्याणाम्, ५ पादलिप्त १५ प्रभूणाम्, ६ वृद्धवादि- सिद्धसेनयोः, ७ मल्लवादिनः, ८ हरिभद्रसूरीणाम्, ९ बैप्पभट्टिसूरीणाम्, १० 'हेमसूरीणाम्, ११ श्रीहर्षक १२ हरिहरकवेः, १३ अमरचन्द्रकः, १४ दिगम्बरमदनकीर्तिकवेः, १५ सातवाहन - १६ वङ्कचूल - १७ विक्रमादित्य - १८ नागार्जुन- १९ उदयन- २० लक्षण सेन२० २१ मदनवर्मणाम्, २२ रत्न- २३ आभड - २४ वस्तुपालानां चेति । तेषु प्रथमम् 'S १० [ १ ] || भद्रबाहुवराहप्रबन्धः ॥ दक्षिणापथे ' प्रतिष्ठान' पुरे भद्रबाहु-वराहाहौ द्वौ द्विजो कुमारौ निर्धनो निराश्रयौ प्राज्ञौ वसतः । तत्र यशोभद्रो नाम १६- 'हद्द हि किल' । २ ख ग घ ' सूत्रम् ' । ३ ग घ - 'श्रीजीव०' । ४ घ 'श्रीहरिः' । ५ घ - 'श्रीबप्प ० ' । ६ घ - ' श्रीम० ' । ७ घ- 'रत्नश्रावकमाभर ० । ८ स घ 'एषु' । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्नये चतुर्दशपूर्वी समागतः । भद्रबाहु-वराहौ तदेशनां शुश्रुवतुः । यथाभोगा भङ्गुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भव स्तत्त्वस्येह कृते परिभ्रमत रे लोकाः । सृ ( कृ ?)तं चेष्टितैः । आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां ३ काप्यात्यन्तिक सौख्यधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ॥ १ ॥ * एतच्छ्रवणमात्रत एव प्रतिबुद्धौ गृहं गत्वा तौ मन्त्रयेते स्म - जम्म कथं वृथा नीयते । तावद् भोगसामग्री नास्ति, तर्हि योगः साध्यते । अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः पृष्ठे लीलावलयणितं चामरग्राहिणीनाम् । यद्यत्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटत्वं नो चेश्वेतः ! प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ ॥ १ ॥ * इति विमृश्य द्वावपि बान्धवौ प्रवत्रजतुः । भद्रबाहुश्चतुर्दशपूर्वी षट्त्रिंशद्गुणसम्पूर्णः सूरिरासीत् । १ दशवैकालिक - २ उत्तराध्ययन- ३ दशाश्रुतस्कन्ध-४ कल्प-५ व्यवहार - ६ आवश्यक - ७ सूर्यप्रज्ञप्ति - ८ सूत्रकृत - ९ आचा- १५ राङ्ग - १० ऋषिभाषिताख्यप्रन्यदशकप्रतिबद्धदशनियुक्तिकारतया पप्रथे, भ (भा) द्रबाहवीं नाम संहिता च व्यरचयत् । तदा आर्यसम्भूतिविजयोऽपि चतुर्दशपूर्वी वर्तते । श्रीयशोभद्रसूरीणां स्वर्गगमनं जातम् । भद्रबाहुसम्भूतिविजयौ स्नेहपरौ परस्परं भव्याम्भोरुहभास्करौ विहरतो 'भरते' पृथक् पृथक् । वराहोऽपि २० विद्वानासीत्; केवलमखर्वगर्व पर्वतारूढः सूरिपदं याचते भद्रबाह्वाह्रसहोदरपार्श्वात् । भद्रबाहुना भाषितः सः वत्स ! विद्वा। नसि, क्रियावानसि परं सगर्वोऽसि सगर्वस्य सूरिपदं न दभः । एतत् सत्यमपि तस्मै न सरवदे, यतो 'गुरुवचनममलमपि महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्य' । ततो व्रतं तत्याज । मिध्यात्वं २५ " ० १ घ-'भुव’। २ घ -'शान्त०' । ३ शार्दूल० । ४ख - 'गृहे । ५ मन्दाक्रान्ता । ६ क ख - 'स्वर्ग' । ७ घ-मपि सलिलमिव मह०' । ८ क - 'सदुप० । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [१ श्रीभद्रबाहुवराह गतः पुनर्दिजर्वेषं जग्राह । व्रतावस्थाऽधीतशास्त्रार्थज्ञतया वाराहसंहितादिनवीनशास्त्र. रचनायां प्रजगल्भे, लोकेषु च जगाद- अहं बाल्ये लममभ्यस्यामि स्म । तद्विचार एव लीनस्तिष्ठामि स्म । एकदा प्रतिष्ठानाद् बहिः 'शिलायामेकस्यां लग्नं मण्डयामि स्म । सायममृष्ट एव तस्मिन् स्वस्थानमागत्य स्वपिमि स्म । सुप्तोऽहं तल्लमममृष्टं स्मरामि स्म । ततो माष्टुं तत्र यामि स्म । तत्र लग्नाधिष्ठिते शिलातले पश्चानन उपविष्टोऽभूत् , तथापि तदुदरदेशे करं निक्षिप्य मया तल्लनं मृष्टम् ; तावता पञ्चाननः साक्षाद् भास्कर एवाभूत् । तेनाहं भाषितः-- १० वत्स ! तव ईढानश्चयतया लग्नग्रहभक्त्या च बाढं तुष्टोऽस्मि, रविरहम् , वरं वृणीष्व । अथ मयोक्तम्-स्वामिन् ! यदि प्रसन्नोऽसि तदा निजविमाने चिरं मामवस्थाप्य सकलमपि ज्योतिश्चक्रं मे दर्शय । अथाहं मिह (हि)रेण चिरं स्वविमानस्थः खे भ्रॉमितोऽस्मि । सूर्यसमितामृतसन्तर्पितेन च मया क्षुत्तृषादिदुःखं न १५ किश्चिदनुभूतम् । कृतकृत्यश्च सूर्यमापृच्छय ज्ञानेन च जगदप कर्तुं महीलोकं भ्रमन्नस्मि । अहं वराहमिह(हि)र इति वाच्यः । इत्यादि स्वैरं प्रख्यापयामास । सम्भाव्यत्वात् लोके पूजां परमामाप्य 'प्रतिष्ठान'पुरे शत्रुजितं भूपालं कलाकलापेन रञ्जयामास । तेन निजपुरोहितः कृतः । यतः२०. गौरवाय गुणा एव, न तु ज्ञातेयडम्बरः । वानेयं गृह्यते पुष्प-मङ्गजस्त्यज्यते मलः ॥ १॥ अथ श्वेताम्बरान् निन्दति--किममी वराकाः काका विदान्त ? मक्षिकावद् भिणिहणायमानाः कारास्था इव कुचेलाः कालं क्षपयन्ति, क्षपयन्तु । तच्छृण्वतां श्रावकाणां शिरःशूलमुत्पेदे । "धिगिद. क-'विशालायामेक०१२ क-ख- 'दृढतथा लम' ।। ग-'मवस्थापय' । - सूर्येण । ५ क-ख-घ- भ्रमितोऽस्मि ' । ६ क-ख- 'माप'। ७ वने जातम् । ८ अनुष्टुप् । ९क-ख-'वदान्त' । १. क-न- 'विगरमाक' । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रवन्धकोशल्यपराये मस्माकं जीवितं येन गुर्ववज्ञा सहामहे । किं कुर्मः । अयं कलावानिति नरपतिना पूज्यते । राजभिः पूज्यते यश्च सर्वैरपि पूज्यते । भवतु, तथापि भद्रबाहुमाह्वयामस्तावत् । इति सम्मन्त्र्य तथैव चक्रुः । आगताः श्रीभद्रबाहवः । कारितः श्रावकैः संस्पर्द्धप्रवेशमहः । स्थापिता गुरवः सुस्थाने । नित्यं व्याख्यारसानास्वादयामासुः ५ सभ्याः। भद्रबाह्वागमे स वराहो बाढं मम्लौ, तथापि तेभ्यो नापकर्तुमशकदसौ । अत्रान्तरे वराहमि(हि)हरगृहे पुत्रो जातः । तज्जन्मतुष्टः प्रभूतं धनं व्ययति स्म । लोकाच्च पूजामाप्नोति स्म । पुत्रस्य वर्षशतमायुरिति तेन नरेन्द्रादिलोकापसभासमक्षं प्रख्यापितम् । १० गृहे उत्सवोदयस्तस्य | ___ एकदा सदसि वराहः प्राह स्म- अहो सहोदरोऽपि भद्रबाहुर्मे पुत्रजन्मोत्सवे नागात् इति बाह्या एते । एतदाकर्ण्य श्रावकैर्भद्रबाहुर्विज्ञप्तः- एवं एवमसौ वदन्नास्ते, गम्यतां भवद्भिरेकदा तद्गृहम, मा वृधन्मुधा क्रोधः । श्रीभद्रबाहुनाऽऽ- १५ दिष्टम्- द्वौ क्लेशौ कथं कारयध्वे ? । अयं बाल; सप्तमे दिने रात्रौ निशीथे बिडालिकया धानिष्यते । तस्मिन् मृते शोकविसर्जनायापि गन्तव्यमेव तावत् । ततः श्रावकैरूचे- तेन विप्रेणोपराजमर्भस्य समाशतमायुरुक्तम् , भवद्भिः पुनरित्यमादिष्यते, किमेतत् ! श्रीभद्रबाहुस्वामिना भणितम्- ज्ञानस्य प्रत्ययः सारम् , स चासन्न २० एवास्ते । स्थितास्तूष्णीं श्रावकाः । आगतं सप्तमं दिनम् । तत्रैव द्विप्रहरर्मात्रायां रीत्र्यां बालं स्तन्यं पाययितुं धात्र्युपविष्टा । द्वारशाखाग्रे न्यस्ताऽर्गला बालमस्तके पतिता जनान्तरसञ्चारात् । , 'ख'- 'स पूज्यते । २ क-ख 'सस्पढिप्र. '। ३ घ-' स्पर्ध ' ग. 'भद्रबाहागमे वराहो । ५ क-'भद्रबाहु में इत आरभ्य 'क्रोधः एतत्पर्यन्त नास्ति। ६ ख-भद्रबाहुना' । ७ ग. 'पुनरिद.१८ ख-'बाहुना' १९ क-ख-'माया'। १० ग-शत्रौ'। ११ ग-शाखाग्रन्यम्ता' । . .न-मम्नकमा । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ १ श्रीभद्रबाहु वराह प्रेमीतो बालः । रुवते वराहगृहे । मिलितो लोकः । भद्रबाहुनाऽपि श्रावका उक्ताः-- शोकापनोदो धर्माचार्य इति तत्रास्माभिरधुना गन्तव्यम् । श्रावकशतावृता गतास्तत्राचार्याः । वराहः शोकसङ्कुलोऽप्यभ्युत्थानाद्युचितमकरोत् अभ्यदधाच्च - आचार्याः ! भवतां ज्ञानं मिलितम्, केवलं बिडालीतो मृत्युर्न किन्त्वर्गलातः । भद्रबाहुना निजगदे - तस्या अर्गलाया लोहमय्या अग्रभागे रेखामयी बिडाल्यस्ति, नासत्यं ब्रूमः । औनीताऽवलोकिताऽर्गला तथैवास्ते, अथोवाच वराहः -- तथा पुत्रशोकेन न खिद्येऽहं यथा राजविदिताख्यात पुत्रशतायुस्त्ववैफल्येन खिधे। धिगमीषां निजपुस्तकानां १० प्रत्ययेनास्माभिर्ज्ञानं प्राकाशि, एतान्यसत्यानि, तस्मान्मृज्मः । इत्युक्त्वा कुण्डानि जलैरपूपुरत् । पुस्तकानि मार्छु स यावदारभते तावद् भद्रबाहुना बाहुना धृत्वा वारितः । आत्मप्रमादेन ज्ञानं विनाश्य कथं पुस्तकेभ्यः कुप्यसि । एते पुस्तकाः सर्वज्ञोक्तमेव भाषन्ते, ज्ञाता तु दुर्लभः । अमुकस्मिन् स्थाने त्वं विपर्यस्तमति जीत:, १५ आत्मानमेव निन्द | प्रभुप्रसादस्तारुण्यं, विभवो रूपमन्वयः । ५ शौर्य पाण्डित्यमित्येत -- दमघं मदकारणम् ॥ १ ॥ मत्तस्य च कुतो विचार सूक्ष्मेक्षिका: ? । तस्मान्मा भाङ्क्षीः पुस्तकान् इति निषिद्धः । विलक्षीभूय स्थितो वराहः । तत्रान्तरे पूर्वं तत्कृता२० र्हन्मतगर्हापीडितमनसा केनापि श्रावकेण पठितम् — युष्मादृशाः कृपणकाः कृमयोऽपि यस्यां भान्ति स्म सन्तमसमय्यगमन्निशाऽसौ । सूर्याशुदीप्तदशदिदिवसोऽधुनाऽयं १० भात्यत्र नेन्दुरपि कीटमणे ! किमु त्वम् ॥ १॥ 'अभ्यधाच्च' | ५ क ' आनीयाव०' । मृज्म: । • ग - ' बाहो' । ९ अनुष्टुप् । १ ग - 'प्रमृतो । २ ग 'शतवृता' | ३ ख - ' शन्कुसकुलो । ४ क ६ क ' प्रकाशितं । ७ ग- 'तस्मात् तु १० वसन्त० | Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये 1 इति वदन्नेव नष्टः सः बाढ़ पीडितो वराहः । अत्रान्तरे स्वयमागतो राजा । राज्ञोक्तम् मा स्म शोचीः, भवस्थितिरियं विद्वन् ।। तदा जिनभक्तेन राजमन्त्रिणैकेन भणितम् — ते आचार्या नवा याताः सन्ति यैर्डिम्भस्य सप्ताहमात्रमायुरभाणि ते सङ्गतवाचो महात्मानः । केनापि दर्शिता भद्रबाहवः, एते ते; तदा द्विजस्तथा दूनो यथा स एव विवेद । गतो राजाऽपि, भद्रबाहुरपि, लोकोऽपि स्वस्थानम् । राजा श्रावकधर्मं प्रतिपेदे । वराहोऽपमानाद् भागवती दीक्षां गृहीत्वाऽज्ञानकष्टानि महान्ति कृत्वा जैन - धर्मद्वेषी दुष्टो व्यन्तरोऽभूत् । ऋषिषु द्वेषवानपि न प्रबभूव । तपो हि वज्रपञ्जरप्रायं महामुनीनां परप्रेरितप्रत्यूहपृषत्कदुर्भेदतरम् । अतः १० श्रावकानुपद्रो तुमारेभे । गृहे गृहे रोगानुत्पादयामास । श्रावकै पीडामद्रबाहुरादरेण विज्ञप्तः — भगवन् ! भवति सत्यपि यद् वयं रुग्भिः पीड्यामहे, तत् सत्यमिदम् - कुञ्जरस्कन्धाधिरूढोऽपि भषणैर्भक्ष्य(ष्य ?) ते इति ? | गुरुभिरभाणि मा भैष्ट, सोऽयं वराहमिह (हि)र: पूर्ववैशद् भवद्भयो दुधुक्षति | रक्षामि पाणेरपि वज्रपाणेः । ततः १५ पूर्वेभ्य उद्धृत्य ' उवसग्गहरं पासम् ' इत्यादि स्तवनं गाथापश्चकमयं सन्दहमे गुरुभिः । पठितं च 'तल्लोकैः । सद्यः शान्ति गताः केशाः । अद्यापि कष्टापहारार्थिभिस्तत् पठ्यमानमास्ते । अचिन्त्य - चिन्तामणिप्रतिमं च तत् । श्रीभद्रबाहूनां विद्योपजीवी चतुर्दशपूर्वी श्री स्थूलभद्रः परमतान्यचुचूर्णत् । इति श्रीभद्रबाहुवराहप्रबन्धः प्रथमः ॥ प्र० १२२ ॥ - १ ख- 'बराइचरः' । २ ख- 'तो' । २० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे (२ श्रीमायनान्दल. ।। अथार्यनंन्दिलप्रबन्धः ।। 'पमिनीखण्ड पत्तने पद्मप्रभनामा राजा । तस्य भार्या पत्रावती । तस्मिन् पुरे पमदत्तनामा श्रेष्ठी वसति । तस्य कान्ता पअयशा नाम । तयोः सुतः पद्मनामाऽभूत् । वरदत्तेन सार्थवाहेन खकीया वैरोख्या नाम पुत्री तस्य दत्ता । स तां व्यवाहयत् । ___ अन्यदा वरदत्तो वैरोट्याजनकः सपरिवारो देशान्तरं गच्छन् वनदवेन दग्धः । वैरोख्यां श्वः शुश्रूष्यमाणाऽपि निष्पितृको भणित्वाऽपमानयति । यतः रूपं रहो धनं तेजः, सौभाग्य प्रभविष्णुता । प्रभावात् पैतृकादेव, नारीणां जायते ध्रुवम् ॥१॥ १० सा श्वश्रूवचनैः कुकूलानलकर्कशैः पीडिताऽपि दैवमुपालभते, न श्वश्रू निन्दति, चिन्तयति च-- सव्वो पुवकयाणं, कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेनु गुणेसु य, निमित्तमि(म ?)त्तं परो होइ ॥ १॥" अन्यदा वैरोख्या भोगीन्द्रस्वप्नसूचितं गर्भ बभार । पायसभोजन१५ दोहद उत्पन्नः । तदाऽऽचार्यनन्दिलनामा सूरिरुद्याने समवासा पीत् , सार्द्धनवपूर्वधर आर्यरक्षितस्वामिवत् । वैरोव्याया: श्वश्रूरिति वक्ति-अस्या वध्वाः सुता भविष्यति, न तु सुतः । इति कर्णक्रकचकर्कशतचापीडिता सती सा सती वधूः सूरिवन्दनार्थ गता। सूरयो वन्दिताः । स्वस्य श्वश्वा सह विरोधोऽकपि । क-'नन्दिप्रबन्धः' । २ क-पचप्रभो। ३ क-नि:पितृको । र अनुष्टुप् । ५क-ग- 'देवमुपा.'। छाया--सर्वः पूर्वकृताना कर्मणां प्राप्नोति फलविपाकम् । अपराधेषु गुणेषु च निमित्तमात्र परो भवति ॥ मायो। दस-कमें कच.'।म-ततः स्वस्य । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये सूरिभिरुक्तम् –पूर्वकर्मदोषोऽयम् , क्रोभो न वर्द्धनीयः, भवहेतुत्वात् , वत्से! ईह लोए चिय कोवो, सरीरसंतावकलहवेराई । कुणइ पुणो परलोए, नरगाइसुदारुणं दुक्खं ॥१॥ पुत्रं च लम्स्यसे । पायसदोइदस्ते जातोऽस्ति सोऽपि यथा ५ तथा पूरयिष्यते । इति सा सूरिवचसाऽऽनन्दितचित्ता निजगृहमागच्छत् , अचिन्तयच्च-~अस्माभिश्चतुरम्बुराशिरसनाविच्छेदिनी मेदिनी भ्राम्यद्भिः स न कोऽपि निस्तुषगुणो दृष्टो विशिष्ठो जनः । यस्याने चिरसञ्चितानि हृदये दुःखानि सौख्यानि वा व्याख्याय क्षणमेकमर्द्धमथवा निःश्वस्य विश्रभ्यते ॥१॥ एते तु गुरवस्तादृशाः सन्ति । __ पद्मयशा अपि चैत्रपूर्णिमायामुपोषिता । पुण्डरीक तपसि "क्रियमाणे उद्यापनमारेभे । तदिने पायसपूर्णः प्रतिग्रहो यतिभ्यो दीयते, साधर्मिकवात्सल्यं च क्रियते । तया सर्व कृतम् | वध्वाः १५ पुनर्वैरभावात् कुलत्यादि कदशनं दत्तम् । वधूः पुनः स्थाल्यामुद्धृतं पायसं प्रच्छन्नं गृहीत्वा वस्ने बद्ध्वा घटे क्षिप्त्वा जलाशय जलाय गता । वृक्षमूले कुम्भं मुक्त्वा यदा हस्तपादप्रक्षालनार्थ गता तावताऽलिझरनामा नागः पातालेऽस्ति, तस्य कान्तायाः क्षीरान्नदोहदः समजनि । पृथिव्यामायाता क्षीरानं गवेषयति । तत्र २० तरोर्मूले घटमध्ये क्षीरानं दृष्टम् , भुक्तं च । येन मार्गेणागता तेनैव १ छाया---इह लोके एव कोपः शरीरसन्तापकल हवैराणि । ___ करोति पुनः परलोके नरकादिसुदारुणं दुःखम् ।। २ आर्या । ३ क.-'पूरयिष्ये'। ४ शार्दूल। ५ क-ख-' एते गुरक०'। ६ एतत्स्वरूपार्थ प्रेक्ष्यतो क-परिशिष्टम् । ७ क-'क्रियामारेभे'। ८ क-ख-- • भरात्'। ९ख-'कत्वा। १० ग-'पायसदोहदः'। बतार्वशतिः २ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे [२ श्रीआर्यनन्दिल. गला मागपत्नी । पदा वैरोठ्या पादशौचं कृत्वा समायाति तापत् क्षीरानं न पश्यति, तथापि न चुकोप, न विरूपं बभाषे, किन्त्येवं बभाषे-'येनेदं भक्षितं भस्य पूर्यतां तन्मनोरथ इत्याशिष ददौ । इतवाऽलिजरपल्या सर्वन्तरितस्थितया तस्यास्तदाशीर्वचनं श्रुतं खस्थानमेव्य स्वभर्ने निवेदितं च । वैरोख्या स्वगृहमागता । ततो रात्रौ वैरोख्यानातिवेश्मिक्याः स्त्रियाः स्वप्ने नागपल्या कथितम्भद्रे ! अहं लिजरनागपत्नी, मदीया तनया पैरोव्या, तस्याः पायसदोहदोऽस्ति, स तस्यास्त्वया पूरणीयः । तथा तस्याने कथनीयम्-तव 'पितृकुलं नास्ति, परमहं पितृसमानोपकारं करि१० पामि, श्वश्रूपराभवामितापमुपशमयिष्यामि । तया प्रातिवेश्मिक्या प्रातर्वैरोळ्या क्षीराचं भोजिता । सम्पूर्णदोहदा सुतमजीजनत् । नागकान्तयाऽपि सुतशतमसूयत । वैरोयापुत्रनामकरणदिने पन्नगेन उत्सवः कारितः । यत्र पितृगृहं पूर्व स्थितं तत्र धवलगृहं कार यित्वा पातालवासिभिर्नागैरलङ्कृतम् । गजा-ऽश्व-वरवाहन-पदाति१५ वर्गसहिता नागलोकाः समाययुः । तस्या गृहलक्ष्म्या सङ्कीर्ण चक्रुः । 'अलिञ्जरपत्नी पतिना ( पक्ष्या) पुत्रैश्च युता दिव्यवस्त्रपकूलस्वर्णरत्नखचितसर्वाङ्गाभरणादिकं सर्व मनोज्ञ वस्तुसमूह वैरोव्यायाः प्रतिपन्न तात्वेन पूरयति । वैरोटया अलिम्जरपत्नीगुहे नित्यं यात्यायाति च । अलिञ्जरपत्न्याऽतीव मान्यते, पूज्यते वैरोटया । श्वश्रूस्तयारूपं पितृगृहं मेलापकमिव दृष्ट्वा वधू सत्कर्तुमारेभे । 'लोकः पूजितपूजकः । वैरोटथाया रक्षार्थं नागवध्वा स्वकीयलघवः शतं पुत्राः सर्पकाः समर्पिताः । तया सर्पा घटे क्षिप्ताः । तत्र च कयापि कर्मकर्मा अग्नितप्तस्थालामुखे सर्पघटो १ ग-बभाण'। २ पधार्थमिदम् । ३ क-न-पितुहं । ४ क-ख'पातालपासिभिरधिकृतं नायैः कृतम्' । ५ क-ख-'गृहं सङ्कीर्ण'। ६ क-खप्रत्योः • अलिअरपत्नी' इत आरभ्य 'पूज्यते वैरोठ्या' पर्यन्तं नास्ति । ७ ग--' विध पित' ८ ग..'पैरोठ्यांमधूं'।९ श्लोकचरणं सम्भाव्यते । १० क-'सर्पाः । २० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशैत्यपराह्णये दत्तः । ' तत्क्षणमेव वैरोटययोत्तारितः । पानीयेनाभिषिक्तास्ते ततः स्वस्थाः सम्पन्नाः । एकस्तु शिशुर्विपुच्छो जातः । यदा स स्वति क्षितौ तदा वैरोट्या ते बण्डो जीवतु । वैरोट्याजातकस्थ स्नेहेन मोहितास्ते सर्वे बान्धषरूपाः सर्पाः क्षौमरत्नस्वर्णादि दस्त्रा नामकरणं च कारयित्वा यथास्थानं ययुः । वैरोट्या ५ नागप्रभावात् गौरवपात्रं जाता । ११ अन्यदाऽलिञ्जरः स्वपुत्रं पुच्छरहितं दृष्ट्वा चुकोध । 'मम पुत्रः केन दुरात्मना विपुच्छः कृतः । तप्तो वैराव्यया कृतो विपुच्छो मे पुत्र इत्यवधिना ज्ञात्वा वैरोट्याय उपरि पूर्व सुप्रसन्नोऽपि चुकोप । कुपितः सन् विरूपं कर्तुं नैरोट्यागृहमगमत् । १० अलिञ्जरो गूढनुगृर्हमध्ये स्थितः । यदा वैरोट्या ध्वान्तभरे सति गृह पवरकमध्ये प्रविष्टा तदा तयोक्तम्- बण्डो जीवतु "चिरम् । तच्छ्रुत्वा नागराजः सन्तुष्टस्तस्यै नूपुरे ददौ । अथप्रभृति वत्से ! स्वया पाताले आगन्तव्यम्, नागाश्च स्वगृहमेष्यन्ति इति प्रसादः कृतः । सा वैरोट्या पाताले गमनागमनं करोति । १५ नागवरात् नागदत्त इति नाम दत्तं पुत्रस्य । तदा पद्मदत्तो वैरोट्याश्वशुरः श्रीआर्यनन्दिलक्षपणकैरेवमुक्त:-- स्वया स्ववध्यग्रे कथनीयम्, नागाश्रयं गतया त्वया नागा वक्तव्याः - भवद्भिर्लोकस्थानुग्रहः करणीयः कोऽपि न दंष्टव्यः । तत् सूरिवचनं श्वशुरेण तस्यै, तथा च नागेभ्यः कथितम् । तत्र गता च वैरोटथा एवमुच्चैर्जगौ -- २० साऽलिञ्जरपत्नी जीयाद् सोऽलिञ्जरो जीयात् " येनाहमपितृगृहाऽपि सपितृगृहा कृता, अनाथाऽपि सनाया जाता । " १ ग पुस्तके ' तत्क्षणमेव ' एतदधिकम् । २ क- ' सुस्था: । ३ ' बाँडो' इति गूर्जर भाषायाम् । ग - पुस्तके 'मम' इत्यत आरभ्य 'इति' एतस्पर्यन्तमधिकं विद्यते । ५ कखप्रत्योः 'वैरोट्या' इत्यत आरभ्य 'कर्तुं' एतत्पर्यस्तं न दृश्यते । ६ क --ख-तनुर्मध्ये' । ७ग - पुस्तके ' चिरं ' अधिकं विद्यते । ८ क- खप्रत्योः • नागदत्त इति नाम दतं पुत्रस्य' एतन्न दृश्यते । ९ ग' कर्तव्यः । १० क- 'येनाहमपि सपितृगृहा कृता । ११ ग जाता । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २ श्राश्रामन्दिल. भो भो नागकुमाराः ! आर्यनन्दिलेन महात्मना एवमादिष्टम् - लोको न पीडयितव्यः, 'लोकस्यानुग्रहः कार्यः । वैरोट्या पुनरपि स्वगृहं गता । गुरुणा वैरोट्यास्तवो नवो विरचितः । यो वैरोट्यास्तवं पठति तस्य पन्नगभयं नास्ति । पन्नगाः सर्वे वैरोट्याया ५ गुरोः पार्श्वमानीताः । उपदेशं श्राविता उपशान्तचित्ताः संवृत्ताः । नागदत्तनामा वैरोट्यापुत्रः सौभाग्यरङ्गभूरभूत् । पद्मदत्तेन प्रियासहितेन व्रतं गृहीतम् । तपस्तप्त्वा स्वर्गं गतः । पद्मयशा अपि तस्य देवत्वं प्राप्तस्य इच्छासिद्धियुजो देवी सञ्जाता । वैरोट्या च फणीन्द्राणां (न्द्रस्य ?) ध्यानान्मृत्वा धरणेन्द्रपत्नीत्वेनोत्पन्ना | १० तत्रापि ' वैरोट्या ' इति नामास्याः । इति आर्यनन्दिलप्रबन्धः ॥ २ ॥ १२ १ ग - पुस्तके 'लोकस्यानुमहः कार्यः ' एतदधिकम् । २ क- 'आगता' । ३ सर्प पुस्तके ' संवृत्ताः एतदधिकम् । भीतिः । - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये [ ३ ] ॥ अथ श्रीजीवदेवसूरिप्रबन्धः ॥ १३ ' गुर्जर' धरायां वायुदेवतास्थापितं 'वाय' नाम महास्थानम् । तत्र धर्मदेवनामा श्रेष्ठी धनवान् । तस्य शीलवती नाम गेहिनी गेहश्रौरिख देहिनी । तयोः सुतौ महीधर - महीपालौ । महीपालः क्रीडाप्रियो न कलाऽभ्यासं करोति । ततः पित्रा 'हक्कितो रुष्टो देशान्तरमसरत् | धर्मदेव श्रेष्ठी परलोकं प्राप्तः । महीधरोऽपि ५ श्रीजिनदत्तसूरीणां ' वायट' गच्छीयानां पादमूले प्रवत्राज । स राशिल्लसूरिर्नाम सूरीन्द्रो बभूव । महीपालोऽपि पूर्वस्यां दिशि ' राजगृहे ' पुरे दिगम्बराचार्यदीक्षां प्राप्याचार्यपदमवाप । सुवर्णकीर्तिः इति नाम पप्रथे । श्रुतकीर्तिना गुरुणा तस्मै द्वे विधे प्रदत्ते - ' चक्रेश्वरी' विद्या ' परकायप्रवेश' विद्या च । धर्मदेवे दिवं १० गते शीलवती दुःखिन्यासीत् यतः - यथा नदी बिमाऽम्भोदाद्, यामिनी शशिना विना । अम्भोमिनी बिना भानुं, भर्त्रा कुलवधूस्तथा ॥ १ ॥ * 'राजगृहा' गतपरिचित मनुष्यमुखेन स्वपुत्रं स्वर्णकीर्ति तत्रस्थं ज्ञात्या तन्मिलनाय गता । मिलितः स्वर्णकीर्तिस्तस्याः । उन्मी - १५ लितो मातापुत्रस्नेहः । एकदा तया सुवर्णकीर्तिर्भाषितः - तब पिता दिवमगमत् । स्वमत्र सूरिः । महीधरस्तु राशिल्लसूरिर्नाम श्वेताम्बरसूरिपदे वर्तते । ' वायट 'प्रदेशे विहरति । युवां द्वावेकमतीभूय एकं धर्ममाचरतम् । ' वायट ' मानीतस्तया सः । द्वौ बान्धवौ एकत्र मिलितौ । सुवर्णकीर्तिर्भाषितो मात्रा, वत्स ! स्वं २० श्वेताम्बर एधि । सुवर्णकीर्तिर्वदति - राशिल्लरिदिंगम्बराचार्यो भवतु मदनुसरणात् । एवं वर्तमाने मात्रा द्वे रसवत्यौ १ क ख 'स्थि' । ' हांकी कढायेलो ' इति भाषायाम् । - शशिनं । ४ अनुष्टुप् । ५ ग- 'सुवर्णकीर्तिः । ६ क ख ' मद्दीपालस्तु ' । > Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे 3 श्रीजीवदेवसूरिकारिते----एका विशिष्टा, 'अपरा मध्यमा कुटुम्बार्था । दिग्वासाः पूर्वमाकारितः । स विशिष्टां रसवती भुङ्क्ते स्वैरम् , कुरसवती पश्यत्यपि न । राशिल्लसूरिशिष्यौ द्वावागतौ । ताभ्यां निर्जरा थिम्पां कुरसवती विजहे। मात्रा भोजनादनु दिगम्बरः प्रोक्तः५ वस्स ! एते श्वेताम्बराः शुद्धाः, त्वमाधाकचिन्तां न करोषि । एते तु वदन्ति भुंजइ आहाकम्म, सम्म न य जो पडिकम्मइ । लुखो सव्वाजणाणा-विमुहस्स तस्स आराहणा नत्यि ॥१॥ तथैव च पालयन्ति । तस्मादेतेषां मिल, मोक्षमिच्छसि चेत् । १० स्वर्णकीर्तिर्मातृवचसा प्रबुद्धः श्वेताम्बरदीक्षामाददे । जीवदेव सूरिः इति नाम तस्य दशसु दिक्षु विस्तृतम् । यतिपञ्चशतीसहचरो विहरन् भव्यानां मिथ्यात्वादिरोगान् सुदेशनापीयूषप्रवाहेण निर्दलयति । श्रीसूरेरेकदा देशनायां योगी कश्चिदार्यातः । स · त्रैलोक्य१५ जयिनी ' विद्या साधयितुं द्वात्रिंशल्लक्षणभूषितं नरं विलो क्यति । तस्मिन् समये ते त्रय एव-एको विक्रमादित्यः, द्वितीयो जीवदेवसूरिः, तृतीयः स एव योगी, नान्यः । राजाऽवध्यः । नरकपाले एकपुटी षण्मासी यावद् भिक्षा याच्यते भुज्यते च, ततः सिध्यति । तेन सूरि छलयितुमायातः । सूरीणां ' सूरि'मन्त्र२० प्रभावाद् वस्त्राण्येव नीलीभूतानि, न पुनर्वपुः । ततो गुरुसमीपस्थ वाचकजिह्वा स्तम्भिता । श्रीजीवदेवसूरिदृष्टौ 'स्वजिह्वाया योगपट्टपर्यस्तिका बबन्ध । सभ्यलोको बिभाय । प्रभुभिः स कीलितः । १ ग-द्वितीया' । २ दिगम्बरः। ३ छाया-भुक्त आधाकर्म सम्यक न च यः प्रतिक्राम्यति । लुब्धः सर्वजिनामाविमुखस्य तस्याराधना नास्ति ॥ - क-ख-.' तस्मादेषां'। ५ क-ख- 'मादत्ते' । ६ ग-- 'गतः'। ७ ग-- पुस्तके 'स' इति आरभ्य 'स्तम्भिता पर्यन्तं अधिकं दृश्यते । ८ क-ख- 'जिह्वाया। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोशेत्यपराये प्रबन्धः ] ततस्तेन खटिकया भूमौ लिखितम् उवयारह उवयारडउ सव्वउ लोड करे | अवगुणि किया जु गुणु करइ विरलड जमणी जणेइ ॥ १॥ अहं तव च्छलनार्थमागतोऽभूवम्। त्वया ज्ञातः, स्तम्भितः, प्रसीद, मुञ्च, कृपां कुरु इत्यादि । ततः कृपया प्रभुभिर्मुक्तोऽसौ 'वायट-' नगरे बहिर्मठीं गत्वा तस्थौ । प्रभुभिः स्वगच्छः समाकार्योक्तःयोगी दुष्टो बहिर्मठेऽस्ति अमुकदिशि तस्यां दिशि केनापि साधुना साळ्या वा न गन्तव्यमेव । तथेति तन्मेने सर्वैः । साध्य्यौ ऋभुतया कुतूहलेन तामेव दिशं गते। योगिना समेत्य चूर्णशक्त्या वशीकृते तत्पार्श्व न मुञ्चतः । प्रभुभिः स्ववसतौ दर्भपुत्रकः कृतः । १० तत्करच्छेदे योगिनोऽपि करच्छेदः । मुक्ते साध्व्यौ । मस्तकक्षालनात् परविद्याविदलनेन सुस्थीभूते ते । १५ अथान्यदा ' उज्जयिन्यां ' विक्रमादित्येन संवत्सरः प्रवर्तयितुमारेभे । तत्र देशानामनृणकिरणाय मन्त्री निम्बो 'गुर्जरवरादिशि प्रहितो विक्रमेण । स निम्बो ' वायटे' १५ "श्री महावीरप्रसादमची करत् । तत्र देवं श्रीजीवदेवसूरीन्द्रः प्रेत्यतिष्ठपत् । अन्येद्युर्वायटे लल्लो नाम श्रेष्ठी 'महामिध्यादृत् । तेन होमः कारयितुमारब्धः । विप्रा मिलिताः । आसन्नादाचाम्लिकाद् द्रुमाद् धूमाकुलोऽहिः कुण्डासन्नोऽपतत् । निर्घृणैर्विप्रैः स बराक २० “उत्पाट्याग्नौ जुहुवे। लल्लुस्तद् दृष्ट्वा विरक्तो विप्रेषु उवाच च - अहो निष्ठुरत्वमेतेषाम् || एवं जीवहिंसारता ये तस्मादलमेभिर्गुरुभिः । १ छाया - उपकारकम्य उपकारं सर्वो लोकः करोति । अवगुणे कृते यो गुणं करोति विरलं तं जननी जनयति ॥ 1 २ क- ' मुन्चेते' | ३ ख - ' वरसरो वर्तयितु' । अयं प्रासादस्ताचापि समस्ति । ५ ग - प्रत्यतिष्टिपत् । ६ ग - पुस्तके 'महामिध्यादृकू एतदविक्रम्' । ७ क --- 'डास' | ग- 'उत्पारण बहौ'। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ ३ श्रीजीवदेवपूर Į एवं वदन् विप्रान् विसृज्य स्वगृहमगमत् । 'सर्वदर्शनामामाचारान् विठोकते । एकदा मध्याह्ने श्रीजीवदेवसूरीणां साधुसङ्घाटकस्तद्गृहे भिक्षार्थं गतः । तयोः शुद्धभिक्षाग्रहणात् तुष्टः । लल्लन तौ मुनी आलापिती- युवयोः के गुरवः । ताभ्यां श्रीजीवदेवसूरयः कथिताः । लल्लुस्तत्र गतः । श्रावकद्वादशवतीं सम्यक्त्वां ललौ । अन्यदा लल्लेनोक्तम् - सूर्यपर्वणि मया द्रव्यलक्षं दाने कल्पितम् । तस्थार्द्ध व्ययितम्, शेषमर्द्ध गृह्णीतम् । न गृह्णन्ति ते निर्लोभाः । लल्लो बाढं प्रीतः । गुरुभिरुक्तम् अद्य सायं प्रक्षालितैकपादस्य तव यत् प्राभृतमायाति तदस्मत्पार्श्वे आनेयम् । इति श्रुत्वा १० गृहं गतो लछुः । सायं केनापि द्वौ वृषभौ प्राभूतीकृतौ । लल्लेन गुरुपार्श्वमानीतौ । गुरुणोक्तम् — यत्रैतौ स्वयं यावा तिष्ठतः तंत्रतद्द्द्रव्यव्ययेन चैत्यं काराप्यम् । तच्छ्रुत्वा तेन वृषौ स्वच्छन्दं मुक्तौ • पिप्पल्लानक' ग्रामे गतौ कचित् स्थितौ । तत्र भूमौ लल्लेन चैत्यमारब्धम् निष्पन्नम् । तत्रावधूतः कोऽप्यायातः । १५ तेनोक्तम् अत्र प्रासादे दोषोऽस्ति । जनैरुक्तम्- को दोषः । तेनोक्तम्-त्रीशल्यमास्ते । लल्लेन तच्छ्रुखा गुरवो विज्ञप्ताः । गुरुभिरुक्तम्- निःशल्यां भूमिं कृत्वा पुनः प्रासादः कार्यते, लख ! स्वया द्रव्यचिन्ता न कार्या, तदधिष्ठात्रयो धनं पूरयिष्यन्ति । प्रासाद उत्कीलयितुमारेभे । शब्द उत्पन्न: - चैत्यं नोस्कीलनीयम् । २० गुरवो विज्ञप्ताः । तैर्ध्यानं दध्रे । अधिष्ठात्री देव्याययौ । तयोक्तम्--' कन्यकुब्ज' राजसुताऽहं मेहणीकनाम्नी पूर्व ' गुर्जर'देशे वसन्ती म्लेच्छसैन्ये समागते पलायमाना तेषु पृष्ठापतितेषु भियाऽत्र कूपेऽपतम् । मृत्वा व्यन्तरी जाता । अतः स्वाङ्गास्थिशल्याकर्षणं नानुमन्ये । प्रतोय "मामधिष्ठात्रीं त्वं कुरु यथा ऋद्धिं 1 । મ ५ - १ क ख - प्रत्योः 'सर्व' इति पदं नास्ति । २ ग 'कथितम्' । ३ क ख -- तत्रैव द्रव्यध्ययेन' । ४ ख - पिष्पलानकग्रामं ' ५ ग' महणीनाम्नी' । ६ क-ख-'पतन्ती' । ७ क ख 'मामधिष्ठात्री कुरु यदवा' | Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये वृद्धिं कुर्वे । गुरुभिः प्रतिपन्नम् । ततस्तदत्तभूमौ तद्योग्या देव. कुलिका कारिता । तत्र चामितं धनं लब्धम् । लल्लो निष्प्रतिमल्लसुखभाजनमभवत् । सङ्घश्च तुष्टः । लल्लद्वेषाद् द्विजैर्मुमूर्षुगौश्चैत्ये क्षिप्ता । सा तत्र मृता । श्रावकैर्विज्ञप्तं तद् गुरवे । गुरुणा विद्याबलाद् गौर्ब्रह्मभवने क्षिप्ता । यच्चिन्त्यते परस्य तदायाति सम्मुख- ५ मेव । ब्राह्मणैरनन्योपायत्वात् जीवदेवसूरयोऽनुनीताः । जीवदेवसूरे ! तारय नः । श्रीसूरिभिस्ते तर्जिताः, उक्ताश्च–यदि मच्चैत्ये मत्पट्टसूरेश्च श्रावकवत् सा भक्तिं कुरुध्वे, मत्सरेः सूरिपदप्रस्तावे 'हेममययज्ञोपवीतं दत्थ, तत्सुखासनं स्वयं वहथ, तदा गामिमा ब्रह्मालयादाकृषामि; अन्यथा तु न । 'तैरपि कार्यातुरैः सर्वमङ्गी- १० कृतम् | अक्षरादिभिः स्थैर्यमुत्पादितम् । ततो गौराकृष्याचार्यबहिः क्षिप्ता । तुष्टं चातुर्वर्ण्यम् । कालान्तरे मरणासत्तौ सूरिभिस्तस्माद् योगिनो बिभ्यद्भिः स्वकीयाखण्डकपालस्य सर्वसिद्धिहेतोभञ्जनं श्रावकाग्ने कथितम् । अन्यथा विद्यासिद्धौ सङ्घोपद्रवं करिष्यति । तथैव तैस्तदा चक्रे । योगी निराशश्चिरमरोदीत् ॥ इति श्रीजीवदेवसूरिप्रबन्धः ॥ ३ ॥ MENU . .१ ग-'पनं तत् । तहत०' । २ काख-- हेमयज्ञोपनी(वी)तं'। ३ क-ख. 'तैरेव ।। ४ क.-सर्वमप्यङ्गी-'। ५ ग--पुस्तके 'अन्यथा विद्यासिद्धी सोपद्रवं करिष्यति' एतद धिकं दृश्यते। चतुर्विशति०३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [४ श्रीआर्य सपट ।चार्य [४] ॥ अथार्यखपटाचार्यप्रबन्धः ॥ क्वापि गच्छेऽनेकातिशयलब्धिसम्पन्नाः श्रीआर्यखपटा नाम आचार्यसम्राजः । तेषां शिष्यो भागिनेयो भुवनो नाम । ते सूरयो 'भृगुकच्छं' विजहुः । तत्र बलमित्रो नाम बौद्धभक्तो राजा, बौद्धाश्च महाप्रामाणिकास्तादृग्यजमानगर्विताश्च दुर्दान्ताः । 'एकं वानरी, अपरं वृश्चिकेन जग्धा' इति न्यायात् ते श्वेताम्बराणां धर्मस्थानेषु तृणपूलकान् निक्षेपयन्ति, यूयं पशव इति भावः । अनयाऽवज्ञया खपटाचार्या न चुक्रुधुः, गुरुत्वात् । यतः -- उपद्रवत्सु क्षुद्रेषु, न ध्यन्ति महाशयाः । उत्फालैः शरैः किं स्या-ल्लोलः कल्लोलिनीपतिः। ॥१॥ भुवनस्तु चुकोप | श्रावकशतसहस्रसङ्कुलो राज्ञः पार्श्व ययौ श्रीसङ्घगुर्वनुज्ञां गृहीत्वा तत्रोचैरुवाचतावडिण्डिमघोषणां विदधतां तावत् प्रशंसन्तु च स्वात्मानं प्रथयन्तु तावदतुलां रीढां च पूज्ये खलाः । यावत् प्राज्यघृतप्रतर्पितंबृहद्भानुप्ररोहत्पृथु-- ___ ज्वालाजालकरालजल्पनिवहे नोतिष्ठतेऽयं जनः ॥ १ ॥" राज्ञा बलमित्रेणोक्तम् -साधो ! किं किमात्थ ?। भुवनो बभाण-तव गुरवस्तार्किकंमन्या गेहेनर्दिनः श्वेताम्बरान् निन्दन्ति, ततो वयं बादाय त्वत्सदः सम्प्राप्ताः । आस्फालय तान् मया सह, एकदा भवतु श्रोतृणां कर्णकौतुकम् । ततो राज्ञा ते आहूताः । चतुरङ्गसभायां वादं कारिताः । भुवनमुनिपश्चाननतर्कचपेटाताडिताः "फेरण्डा इव तूष्णीकाः समजनिषत । राजादि१ कखपुटा'। ३ क-ख-- 'धर्मस्थाने' 13 ख-. 'तया' । ४ कखपुटा'। ५ क--- 'शुभ्यन्ति। ६ मत्स्यविशेषैः। ७ अनुष्टुप् । ८ अविनयम् । १ अग्नि । १. शाईल.। ११ शृगालाः। ----- -- -- Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराहये भिर्घोषितः--जयः श्वेताम्बरशासनस्य । वर्तन्ते चैत्येषु महोत्सवाः । बौद्धास्तु 'हिमतपद्मवनाभा जाताः । तं बौद्धापमानं श्रुत्वा बौद्धाचार्यों 'गुडशस्त्र'पुराद् वृद्धकराख्यो महातार्किको ' भृगुपुर' मगात् । राजानमवोचत्---श्वेताम्बरैः सह मां वादं कारापय । राज्ञा भुवनप्रज्ञास्फूर्तिज्ञेन वारितोऽपिं नास्थात् । ५ 'वादेऽजित एव सोऽपि भुवनेन जितः । न खलु यमो भूतानां धीयते(?)। जित्वा सभ्याः प्रभाषिताः-- भो भो शृणुतयहको दृषदो यदुष्णकिरणो ध्वान्तस्य यच्छीतगुः 'शेफालीकुसुमोत्करस्य च देशाकर्षः पतङ्गस्य यत् । अर्यत् कुलिशः प्रचण्डपवनो मेघस्य यद् यत् तरोः पशुत् करिणो हरिः प्रकुरुते तद वादिनोऽसावहम् ॥१॥" संभ्या श्चमत्कृता उज्जुघुषुः -- जयति धवलाम्बरशासनम् । वृद्धकरः पुनरपमानाशनितप्तोऽनशनं कृत्वा 'गुडशस्त्र'पुरे वृद्धकराख्यो यक्ष उत्पन्नः प्राग्वैरेण जैनानुपद्रवति व्याधिवर्द्धन-भापनधनहरणादिप्रकारैः । 'गुडशस्त्र' पुरसङ्घन आर्यखपटास्तद् विज्ञप्ता- १५ स्तत्र गताः । तत्र यक्षायतनं प्रविश्य यक्षस्य कर्णयोरुपानही बबन्धुः, यक्षसि पादौ ददुः। लोको मिलितः । राजा तत्रत्यस्तत्रागतः । राज्ञि तत्रागते आचार्याः श्वेतवस्त्रेण खं सर्वमङ्गमावृत्य तस्थुः । राजा यत्र यत्रोद्घाटयति तत्र तत्र "स्फिचावेव दृश्यते । ततः क्रुद्धो राजा घातान् दापयति बँपटाचार्यस्याङ्गे । २० १३.--'हिमवत्पद्मनाभा'। २ ग-'सह वादं'। ३ घ--' वादं वादं कारय । ४ क-ख - स्फूर्तितेन'। ५ घ-'चादोदित एव' । ६ क-ख-'प्रायति' । ७ चन्द्रः । ८ लताविशेषगतपुष्पसमुदायस्य । ९ दीपकवतेराकर्षणम् । १० वज्रम् । ११ कुटारः १२ गजस्य । १३ सिंहः । १४ शार्दूल०। १५ ख--'सभ्याच चम.'। १६ ख'करोडपमान''। १७ क-'खपुटा०1१८ ख-तत्र च यक्षा.' ११९ 'उघाडे छे' इति भाषायाम् । २० ग- स्फिजावेव' । २१ जघनौ । २२ क-'खपुटा०' Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ ४ श्रीभार्यखपटाचार्य ; ? ते घाताः शिरीषकोषादपि कोमलेष्वन्तः पुरौणामङ्गेषु 'लेगुः । उच्छलितोऽन्तःपुरे स्त्रीणां कोलाहल :- - हा नाथ ! रक्ष रक्ष, हा हन्यामहे हन्यामहे केनाप्यदृष्टेन कथं जीविष्यामः ? | राजा सूरिशक्तिचमत्कृतमनाः सूरीणां पैदोलनः । प्रसद्य मम सपरिजनस्य जीवितभिक्षां देहि, कृपालुस्त्वम् इत्याद्युवाच । यक्षस्तु स्वस्थानादुत्थायोपरि समागतो विनीतः पादसंवाहनां कुरुते । मम कीटिकामात्रस्योपरि वः कः कटकारम्भ इति ब्रूते । मिलितो लोकः । आर्यखपटैर्यक्ष ऊचे रे अथम ! अस्मध्यान् पराबुभूषसि । पराभव, यद्यस्ति प्राभवम् । १० यक्षः प्राह स्म हनूमति रक्षति सति शाकिन्यः पात्राणि कथं प्रसन्ते ? | तेव भृत्योऽस्मि । मा मां पीडय । तव सङ्घ बान्धववद् रक्षिताऽस्मि । राजादयः सर्वे चमत्कृताः सूरिभक्ता बभूवुः । सूरयः प्रासादान्निर्गत्य यदा बहिर्गतास्तदा यक्षः पाषाणमूर्तिः सहायातः । द्वे दृषदौ द्वे दार्षदकुण्डिके, सूक्ष्मयक्षाः सहागुः । १५ नगरप्राकारद्वारायातेन सूरीन्द्रेण यक्षाद्या विसृष्टाः स्वस्थानमगुः । कुण्डिके तु पुरद्वारे सूरिणा स्थापिते, लोके ख्यातिनिमित्तम् । राजा प्रबोध्य सद्यः श्रावकः कृतः स्वसौधं गतः । प्रभावनानर्तकी - रङ्गाचार्य इति स सूरीन्द्रस्तत्र चातुर्वण्र्येन वर्णयामासे । तदैव 'भृगु' पुरात् साधू द्वावागतौ, ताभ्यां प्रभवः प्रोक्ताः -- भगवन् ! २० 'भृगु' पुरादत्र गच्छद्भिर्भवद्भिर्या कँपरिका गूढमधारि सा भवतां भागिनेयेनावाच्यत । वाचयता आकृष्टिलब्धिर्लब्धा । तद्वशादिभ्यानां गृहेषु निष्पन्नां रसवतीमा कृष्यानीय भुङ्क्ते स्म । तथा कुर्वन् गच्छेन ज्ञातो निषिद्धो न निवर्तते, रसनेन्द्रियपरवशत्वात् I २० w - ४ ग १ 'लाग्या' इति भाषायाम् । २ 'उछळयो' इति भाषायाम् ३ ग - 'पादौ लग्नः ' । ५ क - प्रती ' तव ' इत्यारभ्य पीडय' एतत्पर्यन्तं न दृश्यते द्यूान् ६ घ - 'पुरप्राकार०' । ७ घ- 'कमलिका (१)' । ८ क ख ग 'क्षुल्लके नैकेन वाच्यत' .. " Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः] प्रवन्धकोशेत्यपराजये ततः सङ्घन हक्कितः । क्रुद्घो गत्वा बौद्धानां मिलितः । तदाचार्य इव जातः । बौद्धानां पात्राणि मठात् खेन गृहमेधिनां गृहेषु नयति । ततो भक्तपूर्णानि तानि खेनैव मठमायान्ति । तथा दृष्ट्वा लोको बौद्धभक्तो भवन्नास्ते । यदुचितं तत् कुरुध्वम् । तदवधार्यायखपटदेवा 'भृगु'पुरमगुः । प्रच्छन्नाः स्थिताः । श्रौद्धानां पात्राणि अन्नपूर्णान्यागच्छन्ति । शिलाविकुर्वणेन खे अभक्षुः । पतन्ति पात्रेभ्यः शालि-मण्डक-मोद काद्यंशाश्च लोकस्य मस्तकेषु । 'चेल्लकः सूरीणां समागमनं सम्भाव्य भीतो नष्टो वराकः । सूरयः ससधा बौद्धानां प्रासादमगमन् । बुद्ध उपलमूर्तिः सम्मुख उत्थितः जय जय महर्षिकुलशेखर ! इत्यादि स्तुतीरतनिष्ट । पुनर्जिनपतिशासनस्य १० प्रभावः प्रोदिदीपे । आर्यखपटा अन्यत्र विजाहुः । इतश्च 'पाटलीपुत्र'पत्तने दाहडो नाम नृपो विप्रभक्तो जैनयतीनाह्वयत् , अबोचच्च-विप्रान् नमस्कुरुत, इति । जनरुक्तम् - राजन् ! नेदं युक्तम् , गृहिणोऽमी, ययं च यतयो वन्द्याः । दाहडेनोक्तम्----न बन्दचे चेच्छिरांसि वः कृन्तामि । जैन- १५ यतिभिः सप्तदिनी याचिता । राज्ञा दत्ता । दैवादायखेपटशिष्य उपाध्यायो महेन्द्रनामा 'भृगुकच्छा'त् तत्रायातः । तदने यतिभिः स्वदुःखं कथितम् । तेन सन्धीरितास्ते । प्रात: करवीरकम्बे द्वे रक्तश्वेते लात्वा महेन्द्र उपदाहडमगात् । तदाऽयमदिनप्रत्यूषं वर्तते । राज्ञोक्तम्-श्वेताम्बरा विप्राणामायाहूयन्ताम् । आहूताः, अग्रे २० उस्तिस्थुः । महेन्द्रेण रक्तां कम्बां वाहयित्वा राजा भाषितःकिं प्रथममितो नमाम: ? किंवा इतो नमाम इति । एतद्भणनसमकालमेव विप्राणां मस्तकास्त्रुटित्वा ताडफलवद् भूमौ पेतुः । तद् १ ग-क्रुद्ध्वा । २ घ-बौद्धानां भक्तो । ३ क-'खपुट०' | 'मांडा' इति भाषायाम् । ५ ख-घ-नेलकः'। ६ गं-'प्रदिदीपे'। ७ क-'खपुटा०। ८ क-- ख- पाटलीपुरे' । ६ क-'खपुट०। १० क-तालफल.' । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ ४ श्री आर्यखपटाचार्य दृष्ट्वा भीतो राजा चाटूनि करोति स्म, पुनर्नैवमबिनयमाचरिष्यामि इति उवाच । तदा महेन्द्रेण पठितम् कः कण्ठीरवकण्ठकेसरसटाभारं स्पृशत्यंघ्रिणा ? कः कुन्तेन शितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं काङ्क्षति । कः संनह्यति पन्नगेश्वर शिरोरत्नावतंसश्रिये ? यः श्वेताम्बर शासनस्य कुरुते वन्द्यस्य निन्दामिमाम् ॥ १ ॥ विशेषतो भीतो नृपो दर्शन ( ? )स्य पादेवलगीत् । तदा महेन्द्रेण धवला करवीरकम्बा दिग्येऽपि वाहिता । पुनर्विप्राणां मस्तकाः स्वस्थानेषु ससज्जुः । प्रतिबोधितो राजा विप्रलोकश्च । एवं प्रभा१० बनाऽभूत् । भुवनोऽपि बौद्धान् परिहृत्य स्वगुरूणां मीलितः । तेन स्वगुरवः क्षामिताः । तैर्गुरुभिस्तस्य भुवनस्य बहुमानं दत्तम् । पश्चाद् भुवनो गुणवान्, विनयवान्, चारित्रवान् श्रुतवान्, जातः । तत आर्यखपटाः सूरिपदं भुवनाय दत्त्वाऽनशनेन द्यामारुरुहुः | १५ जीवितव्यं च मृत्युं च, माराधयन्ति ये । ५. त एव पुरुषाः शेषः, पशुरेष जनः पुनः ॥ १ ॥ इति महाप्रभावक श्री आर्यखपटाचार्यप्रबन्धः ॥ ४ ॥ १ ग - 'महेन्द्रेोक्तम् | २ शार्दूल० । ३ क घ- प्रतयोः 'भुवनोऽपि ' इत आरभ्य 'जातः ' एतत्पर्यन्तं नास्ति । ४ क - 'खपुटः। ५ अनुष्टुप् । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराये [५] ॥ अथ पादलिप्साचार्यप्रवन्धः॥ 'कौशला' नाम नगरी, तत्र विजयवर्मा राजा नयविक्रमसागरः। फुल्लनामा श्रेष्ठी जैनः प्राज्ञो दानभटः। तस्य प्रतिमाणा नाम पत्नी रूपशीलसत्यनिधिवसुधा । सा निष्णुत्रत्वेन खिद्यते । केनाप्युक्तम्- ५ वैरोट्यां देवीमाराधय । तपोनियमसंयमैस्तयाऽऽराधिता सा प्रत्यक्षीबभूव, अभिदधौ च---वत्से ! किमर्थ स्मृताऽहम् ।। श्रेष्ठिन्योक्तम्पुत्रार्थम् । वैरोट्ययोक्तम्-वत्से ! शृणु, 'विद्याधर'वंशे श्रीकालिकाचार्योऽभूत् । तस्य 'विद्याधरो' नाम गच्छः । तत्र आर्यनागहस्ती नाम सूरिरास्ते । स सम्प्रति इमां नगरीमागतोऽस्ति क्रियाज्ञानार्णवः, १० तस्य पादोदकं पिब । तत्र श्रेष्ठिनी भावनाभरभरिता गता । करस्थगुरुपदप्रक्षालनजलपात्रः 'शिष्यकः सम्मुखमागच्छन् दृष्टः । श्रेष्ठिन्या पृष्टम् ----तपोधन ! किमेतत् ? । शिष्यकेणोक्तम्--गुरूणां पादोदकम् । तया पोतम् । अथ गुरवोऽवन्दिष(ष्य)त । गुरवः प्राहुः-यन्मत्तो दशकरान्तरस्थ- १५ या त्वयाऽम्भः पीतं तत् ते पुत्रस्त्वत्तो दशयोजनान्तरितः स्थाता । ततः पश्चादन्ये नव पुत्रा भवितारः सारश्रियः । सा चम्पककुसुममकरन्दपानमत्तमधुपध्वनिकोमलया गिरा बभाषे----आद्यः पुत्रो युष्मभ्यं दातव्यो मया । इत्युक्त्वा निजसदनमगमत् । भर्ने गुरूक्तं स्वोक्तं चाकथयत् । तुष्टः सः । श्रेष्ठिनी काले नागेन्द्रखनसप्रभावं २० पुत्रं प्रासूत । माङ्गल्योत्सवाः प्रसरन्ति स्म । गुरुसत्कः सन् वर्धते । नागेन्द्र इति नाम तस्य । शरीरावयवेंगुणेश्च सकललोकहणीयै वृधे । गुरुभिरागत्याष्टमे वर्षे दीक्षितः । मण्डनाभिधस्य मुनेः पार्श्वे पाठितः । बालोऽपि सर्वविद्यो जातः । ५ क-शिष्यः कः' ! २ ग-'स्थाता । पश्चाद.१३ त्यार पछी' इति भाषायाम् । ४ ग-चम्पकमकरन्द.' । ५ क-'मलोत्सवाः' । ६ ग-'कमनीयैः' । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [५ श्रीपादलिप्ताचार्यएकदा गुरुणा जलार्थ प्रस्थापितो विहृल्यागत आलोचयति'अंबं तंबच्छीए, अपुफियं पुप्फदंतपंतीए । नवसालिकंजियं नव-वहूइ कुड एण मे दिन्नं ॥ १ ॥ इति गाथया गुरुभिर्भणितम्---पलित्तओ, शृङ्गारगर्भभणितिश्रवणात् । किल त्वं विनेयक ! रागाग्निना प्रदीप्त इति भावः । नागेन्द्रेणाचचक्षे-भगवन् ! मात्रया एकया प्रसादः क्रियताम् , यथा 'पालित्तओ' इति रूपं भवति । अत्र को भावः ? गगनगमनोपायभूतां पादलेपविद्यां मे दत्त येनाहं पादलिप्तक इत्यभिधीये । ततो गुरुभिः पादलेपविद्या दत्ता । तद्वशात् खे भ्रमति । दशवर्ष१० देशीयः सन् सूरिपदे स्थापितः । बहुशिष्यपरिकरितो विहरति । नित्यं 'शत्रुञ्जयो -'जयन्ता दिपेश्चतीर्थी वन्दित्वाऽरसविरसमश्नाति । तपस्तप्यते । यद् दूरं यद् दुराराध, यच्च दूरे प्रतिष्ठितम् । तत् सर्वं तपसा साध्यं, तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ १ ॥ १५ ततः सर्वसिद्धयः। एकदा 'पाटलीपुत्रं' गताः । तत्र मुरुण्डो नाम खण्डितचण्डारिमुण्डो राजा । तस्य षण्मासान् यावच्छिरोऽर्तिरुत्पन्नाऽऽस्ते । मन्त्रतत्रौषधैर्न निवृत्ता । "विशेषविदुरान् सूरीनागतान् श्रुत्वा राज्ञा मन्त्रिणः प्रहिताः प्रोचुः-भगवन् ! राजराजेन्द्रस्य शिरोऽर्तिनिवर्त्य२० ताम् । कीर्ति-धौं सञ्चीयेताम् । ततः सूरीन्द्रो राजकुलं गस्त्रा मन्त्रशक्त्या क्षणमात्रेण शिरोऽर्तिमपहरति स्म । ततोऽद्यापि पठ्यते-- १ छाया-आनं ताम्राक्ष्यापुष्पितं पुष्पदन्तपङ्क्त्या । नवशालिकाञ्जिकं नववध्वा कुडकेन मे दतम् ।। २ क- सालिकंजिअं'। आर्या । ग-भ्रमति'। ५ शत्रुनय-गिरिनारा-बुंदसम्मेतशिखरा-ऽष्टापदेति तीर्थपरकम् । ६ क-ख-'व्यवस्थितम्। अनुष्टुप् । ८ घ-'पाडलीपुत्र'। ९ ग- 'मुरण्डो' ।१. प्रज्ञान् । ११ क-राजेन्द्रशिरोतिः' । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकtraपराये जह जह परसिणि जाणुयंमि पालित्तओ भमाडे | तह तह से सिरविणा पणस्सर मुंडरायस्स ॥ १ ॥' प्रीतो राजा । संवृत्ता उत्सवाः । पादलिप्तसूरीणां यशसा पवित्रतानि सप्त भुवनानि । राजा स्तौति — चेतः सार्द्रतरं वचः सुमधुरं दृष्टिः प्रसन्नोज्ज्वला J शक्तिः क्षान्तिकेली श्रुतं हृतमदं श्रीदनिदैन्यापहा | रूपं शीलयुतं मतिः श्रितनया स्वामित्वमुत्सेोकितानिर्मुक्तं प्रकटान्यहो नव सुधाकुण्डान्यमून्युत्तमे ॥ १ ॥ एकदा सभायां नृपेणोक्तम् - राजकुले महान् विनयः । आचार्यैरभिहितम् - गुरुकुले महीयान् विनयः । तत आचार्याः प्राहु:- १० यो वः परमभक्तो राजपुत्रोऽस्ति स आहूयताम् इदं च तस्मै कथ्यताम् - यात्वा विलोकय 'गङ्गा' किं पूर्ववाहिनी किंवा पश्चिमवाहिनी इति । आहूतो राजपुत्रः, प्रहितश्च विलोकनाय, यत्र तत्र मित्वा समागतः भाषितो भूपालेन - विलोकिता 'गङ्गा' किं पूर्वबाहिनी पश्चिमवाहिनी वी ?" । अथ राजपुत्रः प्रचख्यौ -किमत्र १५ "विलोकनीयम् ? बाला अपि विदन्ति 'गङ्गा' पूर्ववाहिनी, गत्वा च विलोकिता मया, पूर्ववाहिन्येवास्ते । राजा श्रुत्वाऽस्थात् । सूरिभिः साधुः स्वस्तस्मै कर्मणे प्रहितस्तत्र गतः । दण्डकं वाह्य व्यलोकत पूर्ववाहिनी सुरवाहिनी । उपसूरि समागतः, अभाषत - अहं 'गङ्गां' पूर्ववाहिनीं पूर्वमश्रौषम्, गत्या पश्यंश्च तथैवाज्ञासिषम्, तत्वं तु २० १छाया— यथा यथा प्रदेशिनीं जानुनि पादलिप्तको भ्रामयति । तथा तथा तस्य शिरोवेदना प्रणश्यति मुरुण्डराजस्य ॥ २ ग 'मुरण्ड०' । ३ आर्या । भूर्लोक - भुवर्लोक-स्वर्लोक-मद्दर्कोक-जनोंकतपर्लोक-सत्यलोकेति सप्तमो ब्रह्मलोको वा । ५ ग - ' युतं । ६ मनोहरा । ७ शार्दूल । -- e 1 ८ क ख - 'महान् विनमः । ९ग-घ - 'गत्वा' । १० विलोक्यम्' । १२ क- ख- 'प्रमज्य' । १३ ग घ - 'तु ग -' इति वा' । ११ घ सद्गरवो' | Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रवन्धे [५ श्रीपादलिधाचार्यस्वयं सद्गुरवो विदन्ति । एतच्च राजपुत्र-यत्योश्चरितं राज-सूर्योः प्रच्छन्नचरैरुक्तम् । राजा मेने एव–महीयान् गुरुकुले विनयः । ततः पठ्यते-- 'निवपुच्छिण गुरुणा, भाणओ 'गंगा' कओमुही वहइ ? । संपाइयवं सीसो, जह तह सव्वत्थ कायव्वं ॥१॥ 'पाटलिपुत्रा'दथ सूरीन्द्रो 'लाटान्' गतः । तत्रैकस्मिन् पुरे बालैः सह क्रीडति । मुनयो गोचरचर्यार्थ गताः । तावता श्रावकाः प्रवन्दनार्थमायाताः । आकारं संवृत्योपविष्टः प्रभुः । श्राद्धेषु गतेषु पुनरपवरकमध्यं गत्वा खेलस्ति । तावता केऽपि वादिनः समायाताः। १० तैर्विजनं दृष्ट्वा · कूकुकू' इति शब्दः प्रोकः । सूरीन्द्रेण तु 'म्याऊं' इति बिडालशब्दः कृतः । ततो दर्शनं दत्तम् । वादिनः पादयोः पेतुः प्रभोः । अहो प्रत्युत्पन्नमतित्वं ते, चिरं जय बालभारति ! । तत आरब्धा प्रभुणा तैः सह गोष्ठी । तेष्वेकेन पृष्टम्१५ पालित्तय ! कहसु फुडं, सयलं महिमंडलं भैमंतेण । दिह सुयं च कत्थ वि, चंदणरससीयलो अग्गी ? ॥१॥" प्रभुणाऽभाणि-- अयसाभिओगसंदू-मियस्स पुरिसस्स सुद्धहिययस्स । होइ वहंतस्स दुहं, चंदणरससीयलो अग्गी ॥१॥ १ ग-घ-"एतच्च' एतदधिकम् । २ छाया- नृपपृष्टेन गुरुणा भणितो 'गङ्गा' किंमुखी बहति ।। सम्पादितवाञ् शिष्यो यथा तथा सर्वत्र कर्तव्यम् ।। , आर्या । ४ घ-पाटलिपुत्रा०'। ५ ग-'कृतः'। ६ ख-घ-'पदयोः'। ७ छाया-पादलिप्तक! कथय स्फुटं सकलं महीमण्डलं भ्रमता । टं श्रुतं च कुदापि चन्दनरसशीतलोऽमिः ॥ ८ क-कयम्'। ९ क-'भमतेणे'। १० क-घ-'कत्थई' । ११ आयो । १२ छाया-अयशोऽभियोगसन्दूनस्य पुरुषस्य शुद्धहृदयस्य ।। भवति वहतो दुःखं चन्दनरसशीतलोऽभिः ॥ १३ आर्या । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये २७ तुष्टास्ते वादिनस्तुष्टुवुः-साक्षादमरगुरुरेव त्वम् , धन्पा ब्राह्मी या ते वदने बसति । इतश्च ये पूर्व ब्राह्मणाः खपटाचार्यगच्छीयेनोपाध्यायेन महेन्द्रेण भाषितास्ते बलात् केचित् प्रवाजिताः । तेषां स्वजनाः 'पाटलीपुत्र'पत्तने वसन्ति । पूर्ववैराज्जैनयतीनुपद्रवन्ति । सा ५ वार्ता प्रभुश्रीपादलिताचार्यैः श्रुता । स्वयं ते गगनेन तत्र गताः, अभ्यदधुश्च-- रे मयि वीरे सति के नाम जैनजनं तुदन्ति । जर्जराऽपि यष्टिः स्थालीनां भञ्जनाय प्रभवत्येव । ततस्ते काकनाशं नष्टाः । प्रभुः पुन' गु'पुरमगमत् । तत्रार्यखपटसम्प्रदायात् सकलाः कलाः प्रजग्राह । 'ढङ्क' पर्वते नागार्जुनः प्रभुणा खगमनविद्या १० शिक्षापितः परमार्हतोऽजनि । तेन 'पादलिप्तक'पुरं नव्यं कृतम् । दशाह मण्डपोग्रसेनभवनादि च तत् तत् तत्र तत्र प्रभुणा गाथायुगलेन स्तवनं बद्धम् । तत्र हेमसिद्भिविद्याऽवतारिताऽस्तीति वृद्धाः प्राहुः । नागार्जुनेन च रसः प्रारब्धः। सोऽतिकृच्छेऽपि कृते न बन्धमायाति । ततो वासुकिनागस्तेनाराद्धः । तेन श्रीपाद- १५ लिप्तेन चोपायोऽर्पितः-यदि 'कान्ती'पुर्याः श्रीपार्श्वनाथमानीय तद्दृष्टौ रसं बध्नासि तदा बन्धमायाति, नान्यथा । नागार्जुनेन पृष्टम् – कथमेति श्रीपार्श्वनाथः ? । वासुकिना पादलिप्तेन च प्रोक्तम्--उत्पाटयानय गगनाध्वना । गतो नागार्जुनः ‘कान्ती'म् । तत्र चैत्यं पृच्छति । तत्र धनपतिश्रेष्ठी चैत्यगोष्ठिकः । तस्याग्रे २० नैमित्तिकेनोक्तम्---पार्श्व रक्षेः, धूर्त एकस्तद्धरणाय भ्रमन्नस्ति । स सचतुष्पुत्रो देवं रक्षति । नागार्जुनस्तत्र गतः । तेषु रक्षत्सु हरणावसरो नास्ति । तैरेव सह नागार्जुनेन प्रीतिसरेभे । विश्वास उत्पन्नः । आरात्रिकमङ्गलदीपकसमये पितापुत्रेषु प्रणामाधोमुखषु १ बृहस्पतिः। २ ग-सा च वाता' । ३ ग-'जनमुपद्रवन्ति । ४ क-'खपट। ५ ख-'गाहाकुअलेन' । ६ 'गोठी' इति भाषायाम् । ७ क-रारेभि' । ८ख-घ'प्रणामेऽधो०'। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे [५ श्रीपादालप्ताचार्यपार्श्व खेन गृहीत्वा गतो नागार्जुनः। 'सेडी'सम्झनदीतटे श्रीपार्श्वदृष्टौ रसः स्तम्भितः। 'स्तम्भनकं' नाम तत् तीर्थ पप्रथे, 'स्तम्भनपुरं' नाम पुरं च । __ अथ श्रीपादलिप्ताचार्याः 'प्रतिष्ठान'पुरं दक्षिणाशामुखभूषणं 'गोदावरी नदीतरङ्गरङ्गज्जलकणहृतपान्थश्रमभरं जग्मुः । तत्र सातवाहनो राजा विदुषां योधानां दानशौण्डामा भोगिनां च प्रथमः। तस्य सभायां वार्ताऽभूत् , यथा-- पादलिप्ताचार्याः सर्वविद्याबनितावदनरत्नदर्पणाः समागच्छन्तः सन्ति प्रातः । तप्तः सर्वैः पण्डितैः सम्भूय स्त्यानघृतभृतं कच्चोलकमर्पयित्वा निजः पुरुष एक १० आचार्याणां सम्मुखः प्रस्थापितः । आचार्येतिमध्ये सूच्येका क्षिप्ता। तथैव च प्रतिप्रेषितं तत् । राज्ञा स वृत्तान्तो ज्ञातः । पग्रिताः पृष्टाः- धृतपूर्णकच्चालकप्रेषणेन वः को भावः ? । तैरुक्तम्-- एवमेतन्नगरं 'विदुषां पूर्णमास्ते यथा घृतस्य वर्तुलकम् , तस्माद् वि मृश्य प्रवेष्टव्यम्, इति भावो नः । राज्ञा निगदितम्-- तर्हि १५ आचार्यचेष्टाऽपि भवद्भिीयताम् , यथा-निरन्तरेऽपि घृते निज तीक्ष्णतया सूची प्रविष्टा तथाऽहमपि विद्वानिबिडे नगरे प्रवेक्ष्यामि इति । दध्वनुः पण्डिताः । सर्वे राजेन्द्रोऽपि सम्मुखं गताः सुरसरिल्लहरिहारिण्या वाण्या तुतुषुः ! नगरमानीतो गुरुनिर्वाणकलिका प्रश्नप्रकाशादिशास्त्राणि सन्ददर्भ । एकां च 'तरङ्गलोला नाम २० चम्पूं राज्ञोऽने नवां निर्माय सदसि व्याचख्ये प्रभुः । तुष्टो राजा । भवत्ययं कपीन्द्रः। शाणोत्तीर्णमिवोज्ज्वलद्युति पदं बन्धोऽर्द्धनारीश्वरः श्लाघालङ्घनजाछिको दिवि लतोद्भिन्नेव चार्थाद् गतिः । १ ग--'प्रेषितः' । २ क-'तत:' । ३ क-ख-'घृतप्तम्पूर्ण.' । ४ ग--'विदुषैः । ५ ग-'सर्वे पण्डिता राजेन्द्रोऽपि' । ६ क-'तुष्टुवुः । ७ नायं प्रन्थो दृष्टिपथमा यातः। ८ एषा सरसा कथा न काप्युपलभ्यते । ९ क-न्याचचक्षे । १० क-ग-'चार्थोगतिः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराहये ईषच्चूर्णित चन्द्रमण्डलगलपीयूषहृयो रस स्तत् किश्चित् कविर्कर्ममर्म न पुनर्वाडिण्डिमाडम्बरः ॥ १ ॥ ' इत्येवं कवयोऽपि तुष्टुवुः । एका तु वैश्या विदुषी राजसभ्या गुणज्ञाऽपि सूरीन्द्रान् न स्तौति । ततो राज्ञा भणितम् वयं सर्वे तुष्टाः स्तुमः । केवलमियमेका न स्तौति । तत् क्रियतां येन स्तुते । तदाकर्ण्य सूरयो वसतिमाययुः । रात्रौ गच्छसम्मत्या कपटमृत्युना मृताः, पवनजयसामर्थ्यात् । शवयानमाश्रितः सूरिः । चातुर्वर्ण्यं * रोदिति । वेश्यागृहद्वारे नीतं शवयानम् । वेश्याऽपि तन्त्रागता रुदती वदति "सीस कहवि न फुट्टे, जम्मस्स पालित्तयं हरंतस्स ? | जस्स मुहनिज्झराओ, तरङ्गलोलाई बूढा ॥ १ ॥ पुनरजीवत् प्रभुः । वेश्ययाऽमाणि - मृत्वाऽऽत्माऽस्तावि ? | सूरिराह - 'मृत्वाऽपि पञ्चमो गेय' इति किं न श्रुतम् ? | अथ प्रभुः 'शत्रुञ्जये' रैंदनसङ्ख्योपयासानशनेन ईशानेन्द्रसामानिकत्वेनोदपद्यत । इति श्रीपादलिप्साचार्य प्रबन्धः ॥ ५ ॥ 2 १ क- 'कर्मन ० ' । २ शार्दूल | 3 क-'वैश्या' । ४ क-'शोदितः' । ५ छाया-1- शीर्ष कथमपि न भक्षं यमस्य पादलिप्तं हरतः । यस्य मुखनिर्झरःत् तरङ्गलोलानदी व्यूडा || ६ आर्या । ७ द्वात्रिंशदुपवासा० । ८ ख - 'पद्ये' । १० १५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रवन्धे [६ श्रीवृद्धवादि-सिद्धसेन. [६] ॥ अथ श्रीवृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रबन्धः॥ 'विद्याधरेन्द्र'गच्छे श्रीपादलिप्तसूरिसन्तामे स्कन्दिलाचार्याः साधितजैनकार्याः पुस्फुरुः । ते यतनया विहरन्तो 'गौड'देशं ययुः । ५ तत्र 'कोशला'ख्यग्रामवासी मुकुन्दो नाम विप्रः । स तेषां सूरीणां मिलितः । इत्थं देशनामश्रौषीत्.. भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्निभूभृद्भय __ दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं वंशे कुयोषिद्भयं । स्नेहे वैरभयं नयेऽनयभयं काये कृतान्ताद् भयं सर्व नाम भयं भवे यदि परं वैराग्यमेवाभयम् ॥ १॥ श्रुत्वा भवोद्विग्नश्चारित्रं गृहीत्वा गुरुभिः समं 'भृगु'पुरं गतः । स मुकुन्दमुनिस्तारस्वरेणाधीते रात्रौ । साधूनां निद्राभङ्गो भवति । ततस्तान् दुर्मनायमानान् ज्ञात्वा गुरुभिः पठन्निषिद्धोऽसौ । यथा वत्स ! नमस्कारान् गुणय । रात्रावुच्चैाषणे हिंस्रजीवजागरणादनर्थ१५ दण्डो मा भूदिति । ततो दिवा पठने श्रावकश्राविकादीनां कर्णज्वरो भवति । केनाप्युक्तम्---किमयमियद्वयाः पठित्वा मुशलं पुष्पापयिष्यति ? । तच्छुत्वा मुकुन्दः खिन्नः सद्यो महाविद्यार्थी एकविंशत्योपवासैर्जिनालये ब्राह्मीमारराध । तुष्टाऽसौ प्रत्यक्षीभूय जगाद सर्वविद्यासिद्धो भव । ततः कवीन्द्रीभूय स्वगुर्वन्तिकमागत्य सङ्घ२० समक्षमक्षामस्वरेण बभाण- यन्ममोपहासः केनापि कृतो यदयं किं मुशलं पुष्पापयिष्यति, विलोकयत लोकाः ! मुशलं पुष्पापयामि । इत्युक्त्वा मुशलमानाय्य चतुष्पथे स्थित्वा तत् पुष्पापयामास, मन्त्रशक्तिमाहात्म्यात् । स्कन्धस्थितेन तेन भ्रमति पठति चक-ख-'तेन यत०' । २शार्दूल ! ३ क-कवीन्द्रो भूत्वा' । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धक शेत्यपराये पंत्तमवलंबियं तह, जो जंपर फुल्लए न मुसलमिह । तमहं निराकरिता, फुलइ मुसलं ति ठावेमि ॥ १ ॥ तथा— प्रबन्धः ] "मद्गोशृङ्गं शक्रयष्टिप्रमाणं शीतो वह्निर्नारुतो निष्प्रकम्पः । यस्मै यद् वा रोचते तन्न किञ्चिद् ५ वृद्धो वादी भाषते कः किमाह ॥ १॥ * अप्रतिमल्लो वादी सोऽभूत् । स्कन्दिलाचार्यैः स्वपदे निवेशितः । वृद्धवादी इति ख्यातं तन्नाम । स्कन्दिलाचार्याः समाधिमृत्युरथेन द्यामगमन् । मिता भूः पयाऽपां स च पतिरपां योजनशतं सदा पान्थः पूषा गगनपरिमाणं कलयति । 塩を इति प्रायो भावाः स्फुरदवधिमुद्रामुकुलिताः ५ एकदा वृद्धवादी 'भृगु 'पुरं गच्छन्नास्ते । इतश्चा' ऽवन्त्यां ' विक्रमादित्यो राजा | यस्य दानानि अष्टौ हाटककोटयत्रिनवतिर्मुक्ताफलानां तुला पञ्चाशन्मदगन्धलुब्धमधुपक्रोधोद्धुराः सिन्धुराः । लावण्योपचयप्रपश्चितदृशां पण्याङ्गनानां शतं 19 दण्डे 'पाण्ड्य'नृपेण दौकितमिदं वैतालिकस्याप्यताम् ॥ १ ॥ इत्यादीनि ख्यातानि । तस्य राज्ये मान्यः 'कात्यायन 'गोत्रावतंसो देवर्षिर्द्विजः । तत्पत्नी देवसिका । तयोः सिद्धसेनो नाम पुत्रः । स प्रज्ञाबलेन जगदपि तृणवद् गणयति । प्रज्ञायाश्च इयत्ता नास्ति । जगति ततः पठ्यते २० १० १५ सतां प्रज्ञोन्मेषः पुनरयमसीमा विजयते ॥ १ ॥ ' येन वादे जीये तस्याहं शिष्यः स्याम् इति प्रतिज्ञा तस्य । २५ १ छाया -- पत्रमवलम्बितं तथा यो जल्पति पुष्पेत् न मुशलमिह । तमहं निराकृत्य पुष्पति मुशलमिति स्थापयामि ॥ २ ग 'वाचेमि' । आर्या । ६ क - ख. ' स्मार्पितम्' । ७ शार्दूल० । ४ ख -- घ - - ' मद्गोः शृतं । ५ शामि . सूर्यः । ९ शिखरिणी । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [६] श्रीवृद्धवादिसिद्धसेन - " क्रमेण वृद्धवादिनः कीर्ति श्रुत्वा स तत्सम्मुखं धावति स्म । सुखासनारूढो ' भृगु' पुरं गतः । तावद् भृगुकच्छा' निर्गतो वृद्धवादी मार्गे मिलितः । परस्परमालापो जातः । सिद्धसेनो भाषते - वादं देहि । सूरिराह - दमः परमत्र के सभ्याः ? सभ्यान् विना वादे जिताजिते को वदेत् । सिद्धसेनेनोक्तम्एते गोपालकाः सभ्या भवन्तु । वृद्धवादिना भणितम् तर्हि ब्रूहि । ततः सिद्धसेनस्तत्र नगरगोचरे चिरं संस्कृतेन जल्पमनल्पमकरोत् । क्रमेण च स्थितः । गोपैरुक्तम्- किमप्ययं न १० वेत्ति, केवलमुच्चैः पूत्कारं पूत्कारं कर्णौ नः पीडयति । धिग् धिक् । वृद्ध ! त्वं ब्रूहि किञ्चित् । ततो वृद्धवादी कालज्ञः कच्छां दृढं बद्ध्वा विन्दिणिच्छन्दसा क्रीति---- ३२ वि मारिय नवि चोरियs परदारह गमणु निवारियइ । 'थोवाथोव दाविया सगि (ग्गि) बहु ( हु ) गुट्टगु जाईयइ ॥ १॥ १५ पुनः पठति च गुलसितं चावई तिलतांदली वेडिई वज्जावई वांसली । 11 पहिरणि ओढणी हुइ कांबळी इण परि ग्वालइ पूज (र) इ रुली ॥१॥ नृत्यति च"कालउ कंबल अनुनी वाँटु छासिहि खाल्ड भरिडं निपाटु | २० अइचडु पडित ( 7 ) उ नीलइ डा (झा) डि अवर कि सरगह सिंग निलाडि (१) ॥२॥ १ ख- घ 'धीदण ० ' 1 २ छाया - नापि मारयेत् नापि चोरयेत् परदारस्य गमनं निवारयेत् । स्तोकस्तोकं दापयेत् स्वर्ग झटिति गच्छेत् । ३ क - 'थोवाथोधं दाइयह सगि टुकुटुकु आइयर'; घ - 'थोवाथोवलं दायइ सागिदुराट्टुगु जाइयर' | ४ छाया-- गुडेन चर्वति तिलतान्दूलान् पर्वभिर्वादयति वेणुम् । परिषाने आच्छादने भवति कम्बली एवं गोपालः पूरयति हर्षम् । ५ छाया - कृष्णः कम्बलो लघु स्तक्रेण दृतिर्भूता निम्नतम् ! अज्ञावृन्दः पतितः सान्द्रे वृक्षेऽपरः कि स्वर्गस्य रागं ललाटे ? ॥ ६ क ख 'चाटु' । ७ कन्दं पद्यं केवढं ग -प्रतो दृश्यते । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धक शेत्यपराह्वये गोपा हृष्टाः प्रोचुः -- वृद्धवादी सर्वज्ञः, अहो कीदृक् श्रुतिसुखमुपयोगि पठति । सिद्धसेनस्तु असारपाठक इत्यनिन्दन् । ततः सिद्धसेनः प्राह भगवन् ! मां प्रत्राजय । तब शिष्योऽहं, वादे सभ्यसम्मतं जितत्वात् । अथ वृद्धवाद्याह-- 'भृगु' पुरे राजसभायामावयोर्वादोऽस्तु । गोपसभायां को बादः । सिद्धसेने ५ नोक्तम् -- अहमकालज्ञः, त्वं तु कालज्ञः, यः कालज्ञः स सर्वज्ञः । त्वयैव जितम् । इत्येवं वदन्तं तं तत्रैव दीक्षयामास । ? तत्र प्रभृति 'भृगु' पुरनरेन्द्रेण तं वृत्तातं ज्ञात्वा 'तालारसो' नाम ग्रामः स्थापितः प्रौढः । नाभेयचैत्यं कारितम् । नाभेयविम्बं वृद्धवादिना प्रतिष्ठितम् । सङ्घो जगर्ज । सिद्धसेनस्य दीक्षाकाले १० कुमुदचन्द्र इति नामासीत् । सूरिपदे पुनः सिद्धसेन दिवाकर इति नाम पप्रथे । तदा 'दिवाकर' इति सूरेः सञ्ज्ञा, स्वामिशब्दवद् वाचकशब्दवच्च । वृद्धवादी अन्यत्र विहरति । सिद्धसेनस्त्व' ऽवन्ती' ययौ । सङ्घः सम्मुखमागत्य तं सूरिं 'सर्वज्ञपुत्रक' इति बिरुदे पठधमाने 'वन्ती' चतुष्पथं नयति । तदा राजा विक्रमादित्यो हस्ति- १५ स्कन्धारूढः सम्मुखमागच्छन्नस्ति । राज्ञा श्रुतम् - सर्वज्ञपुत्रक इति । तत्परीक्षार्थं हस्तिस्थ एव मनसा सूरेर्नमस्कारं चकार, न वाक्शिरोभ्याम् | सूरिश्वासन्नायातो धर्मलाभं वभाण । राजेन्द्रेण भणितम् - - अवन्दमानेभ्यो ऽस्मभ्यं को धर्मलाभः ? । किमयं समर्धी लभ्यमानोऽस्ति ? | सूरिणा श्रुत्वाऽभाणि – चिन्तामणिकोटितोऽप्यधिको २० ऽयं वन्दमानाय देयः, न च त्वया न वन्दिता वयम्, मनसः सर्वप्रधानत्वात् अस्मत्सार्वज्ञपरीक्षायै हि मनसाऽस्मानवन्दथाः । ततस्तुष्ट राजेश्वरो हस्तिस्कन्धादवरुह्य सङ्घसमक्षं ववन्दे कनककोटिं श्वानाययत् । आचार्यैः सा न जगृहे, निर्लोभत्वात् । राज्ञाऽपि न जगृहे, कल्पितत्वात् । तत आचार्यानुज्ञया सङ्घपुरुषैर्जीर्णोद्धारे २५ व्यथिता | राजवहिकायां स्वेषं लिखितम्--- १ ख- " 'मुपयोगं' । २ ग -' चतुर्विश्वति०५ ३३ --' इस्माकं ' । ३ ख - घ - 'सूरसुत्राम्ला (१) माणि' । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रवन्धे । ६ श्रीवृद्धवादि-सिद्धसेन धर्मलाभ इति प्रोक्ते, दूरादुश्छ्तिपाणये ।। सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटिं धराधिपः ॥१॥ श्रीविक्रमाने अवसरे तेनैव भगवता भाणितम्'पुन्ने वाससहस्से सयंमि वरिसाण नवनवइकलिए । होही कुमरनरिंदो तुह विकमराय ! सारिच्छो ॥१॥ अन्यदा सिद्धसेन चित्रकूटमटति स्म । तत्र चिरन्तनचैत्ये स्तम्भमेक महान्तं दृष्ट्वा कञ्चिदप्राक्षात्कोऽयं स्तम्भो महान् ? किंमयः । तेनोक्तम्---पूर्वाचार्यैरिह रहस्यविद्यापुस्तकानि न्य स्तानि सन्ति । स्तम्भस्तु तत्तदोषधद्रव्यमयः । जलादिभिरभेद्यो १० वज्रवत् । तद्वचनं श्रुत्वा सिद्धसेनस्तस्य स्तम्भस्य गन्धं गृहीत्वा प्रत्यौषधरसैस्तमाच्छोटयामास । तैः स प्रातरम्बुजवद् विचकास । मध्यात् पतिताः पुस्तकाः । तत्रैकं पुस्तकं छोटयित्वा वाचयन्नाद्यपत्र एव द्वे विद्ये लभते स्म । एका सर्षपविद्या, अपरा हेमविद्या । तत्र सर्षपविद्या सा यथोत्पन्ने कार्य मान्त्रिको यावन्तः सर्षपान् १५ जलाशये क्षिपति तावन्तोऽश्वनारा "द्विचत्वारिंशदुपकरणसहिता निस्सरन्ति । ततः परबलं भज्यते । सुभटाः कार्यसिद्धरनन्तरमदृशीभवन्ति । हेमविद्या पुनरक्लेशेन शुद्धहेमकोटीं सद्यो निष्पादयति पेन तेन धातुना। तद् विद्याद्वयं सम्यग् जग्राह । यावदने वाचयति तावत् स्तम्भो मिषितः पुस्तकगर्भः । खे च वागुत्पन्ना-अयोग्यो२० ऽसि ईदृशानां रहस्यानां, मा चपलं कृथाः; सद्यो मा म्रियस्व, इति । ततो भीतः स्थितः । यद् विद्याद्वयं लब्धं तल्लब्धम् , ना १ अनुष्टुए। २ छापा-- पूर्णे वर्षसहसे शके वर्षाणां नवनवतिकलिते । भविष्यति कुमारनरेन्द्रस्तव विक्रमराज ! सदृशः ॥ ३ आर्या । ४ छोडीने' इति भाषायाम् । ५ एतनामानि न ज्ञायन्ते । 'भक्ष्यते'७ क--'अरश्या हेमविधा' । ८ घ--कोटी। घ.. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्ध कोशेत्यपराह्नये धिकं लभ्यते अप्राप्तितः । 'चित्रकूटा 'त् सिद्धसेनोऽथ पूर्वदेशे 'कूर्मार 'पुरं गतः । तत्र देवपालराजानं (?) प्रबोध्य नीली राग जैनमकार्षीत् । तत्रास्थात् । नित्यमिष्ठा गोष्ठी वर्तते । कियानपि कालो 'जगाम । एकदा राज्ञा रह एत्य साश्रुणा विज्ञप्तम् — भगवन् ! पापा वयं नेदृशमधुरभवद्गोष्ठीयोग्याः, येन सङ्कटे पतिताः स्म । सूरीन्द्रः पप्रच्छ - - किं सङ्कटं वः । राजा प्राह- सीमाल भूपालाः सम्भूय माज्यं जिघृक्षष आपान्ति । सूरिराह - राजन् ! मा स्म विलो भूः । तवैव राज्यश्रीर्वशे यस्याहं सखा । राजा हृष्टः । परचक्रमायातम् । विद्याद्वयशक्त्या राजेन्द्रः समर्थो विहितः सूरिणा । १० भग्नं परबलम् । गृहीतं तत्सर्वस्वम् । वादितान्यातोद्यानि । ततो बाढं राजा सूरिभक्तः सम्पन्नः | सूरयः सगच्छा अपि क्रियाशैथिल्यमादृषत । यतः ------ चाटुकारगिरां गुम्फैः, कटाक्षैर्मृगचक्षुषाम् । केलिकल्लोलितैः 'स्त्रीणां, भिद्यते कस्य तो मनः १ ॥ १ ॥ १५ सुई गुरू निचितो, सीसा वि 'सुअंति तस्य अणुकमसो । ओसाहिज्जइ मुक्खो, हुड्डा सुयं हि ॥ १ ॥ ९ श्रावकाः पौषधशालायां प्रवेशमेव न लभन्ते । गपाणं पुष्कफलं, अणेसणिज्जं गित्यकिश्चाई | अजया पडि सेवंती (ता), जइवेसविडंबना नवरं ॥ १ ॥ ३५ २० १ ग घ - - ' नित्यनिष्ट गोष्टी' । २ घ - ' जगाल' । ३ ग घ -- 'मधुर गोडी ०' ख - घ - श्रीणां । ५ अनुष्टुप् । ६ छाया - स्वपिति गुरुनैिश्विन्तः शिष्या अपि स्वपति तस्यानुक्रमतः । अवसद्यते मोक्षः स्पर्धया स्वपद्भिः । 'स्वपंति' ९ आर्या । ७ ध- 'सूयइ'। ८ १० छाया - दकपानं पुष्पफलमनेषणीयं गृहस्थकृत्यामि । अग्रतना प्रतिसेवमाना यतिवेषविडम्बका नवरम् ॥ ११ ख- 'डिसेहती | १२ आर्या । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ५ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ ६ श्रीवृद्धवादि- सिद्धसेन T इति गाथा समाचर्यते । तदपयशः श्रुत्वा वृद्धवादी कृपया तं निस्तारयितुमेका कीभूय गच्छे वृषभेषु न्यस्य तंत्रागतः । द्वारे स्थितः सूरीणामग्रे कथापयति द्वाःस्थः, यथा - वादी एको ज्यायानायातोऽस्ति । मध्ये सूरिभिराहूतः पुर उपवेशितः । वस्त्राव गुण्ठितसर्वकायो वृद्धवादी वदति-- व्याख्याहि---- अणकुंडियफुल म तोडहिं मा रोवा मोडहिं । I मणकुसुमेहिं अचि निरंजणु हिँडइ कांइ वणेण वणु ॥ १ ॥ सिद्धसेनश्चिन्तयन्नपि न वेत्त्यर्थम् । ततो ध्यायति - किमेते मे गुरवो वृद्धवादिनो येषां भणितमहमपि व्याख्यातुं न शक्नोमि ? | १० पुनः पुनः पश्यता उपलक्षिता गुरवः । पादयोः प्रणम्य क्षामिता : ' पद्यार्थी पृष्टाः । तेऽथ व्याचक्षिरे, यथा- 'अणफुल्लियफुल्ल ' प्राकृतस्यानन्तत्वात् अप्राप्तफलानि पुष्पाणि मा त्रोटय । को भावः ? | योगः कल्पद्रुमः । कथम् ? यस्मिन् मूलं यमनियमाः, ध्यानं प्रकाण्डप्रोयं, स्कन्धश्रीः समता, कवित्ववक्तृत्व यशः प्रताप१५ मारणस्तम्भनोच्चाटनवशीकरणादिसामर्थ्यानि पुष्पाणि, केवलज्ञानं फलम् | अद्यापि योगकल्पद्रुमस्य पुष्पाण्युद्गतानि सन्ति, तत् केवलफलेन तु पुरः फलिष्यन्ति । तान्यप्राप्तफलान्येव किमिति घोटयसि ? | मा त्रोटय इति भावः । ' मा रोवा मोडहि ' इह "रोपाः पञ्च महाव्रतानि तानि मा मोटय । 'मणकुसुमेहिं ' मनः कुसुमै२० र्निरञ्जनं - जिनं पूजय । 'हिंडई वणेण वणु' वनाद् वनं किं हिण्डसे ? | राजसेवादीनि कृच्छ्राणि विरसफलानि कथं करोपीति J १ घ - 'क्षपया' । २ ग ० ' तत्र गतः । ३ छाया - अप्राप्तफलानि पुष्पाणि मा त्रोटय मा रोपान् मोटय । मनः कुसुमैरर्चय निरजनं हिण्ड से किम् वनाद् वनम् ? ॥ ५ क ख ग - हिंडइ वणेण ' । ४ ग..घ.. --'हुल्लिय०' । ७ क ख घ- ' क्षमिता: । १० ग 'शेप पश्च०' । ६ ख ग 'पक्ष्यो:' । ● ग घ - 'हुल्लिय० । ९ स्त्र. 'प्रायस्वन्धः श्रीः Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये पदार्थः । ततो वादी तां गुरुशिक्षां मूर्ध्नि धृत्वा राजानमापृच्छय वृद्धवादिना सह निविडचारित्रधरो विजहार । अपरापरगुरुभ्यः 'पूर्व' गतश्रुतानि लेभे । वृद्धवादी बां गतः । ३७ एकदा सिद्धसेनः सङ्घ मेलाथित्वाऽऽह स्म - सकलानप्यागमानहं 'संस्कृतमयान् करोमि, यदि आदिशथ । ततः सो वदति स्म - किं संस्कृतं कर्तुं न जानन्ति श्रीमन्तस्तीर्थङ्करा गणधरा वा यदर्धमागधेनागमानकृपत । तदेवं जल्पतस्तव महत् प्रायश्चित्तमापन्नम् । किमेतत् तवाग्रे कथ्यते ? | स्वयमेव जानन्नसि । ततो विमृश्यामिदधेऽसौ सोऽवधारयतु, अहमाश्रितमौनो द्वादशवार्षिकं 'पाराचिकं ' नाम प्रायश्चित्तं गुप्तमुखवस्त्रिकारजोहरणादिलिङ्गः १० प्रकटितावधूतरूपश्चरिष्याम्युपयुक्तः । एवमुक्त्वा गच्छं मुक्त्वा ग्रामनगरादिषु पर्यटन् द्वादशवर्षे श्रीम' दुज्जयिन्यां महाकालप्रासादे 'शेफालिका' कुसुमरञ्जिताम्बर।लङ्कृतशरीरः समागत्यासाञ्चक्रे । ततो देवं कथं न नैमस्यसीति लोकैर्जल्प्यमानोऽपि नाजल्पत् । एवं च जनपरम्परया श्रुत्वा श्रीविक्रमादित्यदेवः १५ समागत्य जल्पयाचकार- क्षीरलिलियो ! भिक्षो ! किमिति त्वया देवो न वन्द्यते । ततस्तु राजानं प्रतीदमवादि वादिना --- मया नमस्कृते लिङ्गभेदो भवतामप्रतिये भविष्यति । राज्ञोचे-भवतु, क्रियतां नमस्कारः । तेनोक्तम् - श्रूयतां तर्हि । पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकाभिर्देवं स्तोतुमुपचक्रमे । तथाहि-- २० "स्वयम्भुवं भूतसहस्रनेत्र - मनेकमेकाक्षर भावलिङ्गम् । अव्यक्तमव्याहत विश्वकोक-मनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् ॥ १ ॥" इत्यादि श्री वीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता । परं तस्मात् १ जैनानां द्वादशाङ्गन्त एको विभागः संस्कृतप्रायः । २ 'मेळवीने' इति भाषायाम् । ३ ग घ - 'संस्कृतान्' । ४ ख 'मागधिना' । ५ ग 'नमसीति । ६ क-ख-घ- 'ततस्त्विदमवादि ' । ७ उपजातिः । ८ म- प्रतौ ' श्रीवीर० ' इत्यारभ्य ' स्तवं चके एतत्पर्यन्तमधिकम् । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [६ श्रीवृद्धवादि-सिद्धसेनताहक(श) चमत्कारमनालोक्य पश्चात् श्रीपार्श्वनाथद्वात्रिंशिकामभिकर्तुं कल्याणमन्दिरस्तव[वं चके प्रथम एव श्लोके प्रासादस्थितात् शिखिशिखाग्रादिव लिङ्गाद् धूमवर्तिरुदतिष्ठत् । ततो जनै घनमिदमूचे-अष्टविधेशाधीशः कालाग्निरुद्रोऽयं भगवास्तृतीय५ नेत्रानलेन भिक्षु भस्मसात्करिष्यति । ततस्तडित्तेज इव सतंडात्कारं प्रथमं ज्योतिर्निर्गतम् । ततः श्रीपार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीबभूव । तद् वादिना विविधस्तुतिभिः स्तुतं क्षमितं च । राजा विक्रमादित्यः पृच्छति-भगवन् ! किमिदमदृष्टपूर्व दृश्यते ? । कोऽयं नवीनो देवः प्रादुरभूत् ! । अथ सिद्धसेनः प्रोवाच---राजन् ! पूर्वमस्या१० मेवा'ऽवन्त्यां' श्रेष्ठिनीभद्रासनुत्रिंशत्पत्नीयौवनपरिमलसर्वस्वग्राही अवन्तीसुकुमाल इति ख्यातः श्रेष्ठयासीत् । स शालिभद्र इव कमपि गृहव्यापारं नाकार्षीत् , किन्तु मातैव सर्वामपि गृहतप्तिमकृत । एकदा दशपूर्वधर आर्यसुहस्त्याख्यो ‘मौर्य वंशमुकुटसम्प्रतिनृपगुरुः सगच्छो विहर'नवन्ती'मागत्य भद्राऽनुमत्या गृहकदेशेऽस्थात् । रात्रौ ते 'नलिनीगुल्मा' ख्यस्य स्वर्विमानस्य विचारं गुणयन्ति । तपोधनजने विश्रान्ते सति तं विचार शण्वन् सान्द्रचन्द्रातपायां निशि स्वैरं पद्भ्यां भ्रमन्नवन्तोसुकुमालस्तत्रायातः सम्यगोषीत् । आगत्य गुरून् जगौ--भगवन् ! किमेतद् गुण्यते । आर्यैरुक्तम्----वत्स ! "नलिनीगुल्म'विमान२० विचारः । अवन्तीसुकुमालः प्राह स्म-ईदृशमेवेदं प्रेत्य मयाऽ नुभूतम् । इदं केनोपायेन लभ्यते ? । आर्भणितम्--चारित्रण । अवन्तीसुकुमालोऽप्याविभाताद् गृहीत'नलिनीगुल्म'विमानग्रहणप्रतिज्ञः स्वयं कृतलोचः पश्चाद् गुरुभिरपि दत्तसामायिकः 'कन्धारकुंडङ्गा'ल्यं श्मशानमेत्य कायोत्सर्गी भवान्तरभार्थया शगालीत्व १ घ- तन्कारं'। २ ग-प्रतौ 'शृपवन्' इत्यधिकः पाठः। 'नाकिनीमुल्मविचार। ४ ग- 'प्याविभावात्'। ५ स्व-गुडगा। ३ ग Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रवन्धकोशेत्यपराह्वये मापनया सामया क्षुधितया दर्भसूचविधक्षरत्तद्बुधिर धारागन्धलुब्धागतया भक्षितः सद्भावनाजर्जरितपापकर्मा 'नलिनीगुरुम' माप । प्रातस्तन्माता सस्नुषा गुरुमुखादवगतपुत्रवृत्तान्ता तच्छ्रमशानमागत्य विललाप विविधं विविधम् । पुनर्गृहमागता । एकां सगर्भा वधूं गृहे मुक्त्वा एकत्रिंशता वधूभिः सह संयममादाय दिवं लेभे । सगर्भस्थित- ५ वधूकाजातपुत्रेण स्फीतयौवनेनायं प्रासादः कारितः । मम पितुमहाकालोऽत्राभूदिति 'महाकाल' नाम दत्तम् | श्रीपार्श्वविम्बं मध्ये स्थापितम् । कत्यप्यहानि 'लोके पूर्णितम् । अवसरे द्विजैस्तदन्तरितं कृत्वा मृडलिङ्गमिदं स्थापितम् । अधुना मत्कृतस्तुतितुष्टः श्री पार्श्वनाथः प्रादुरासीत् । मत्प्रेरितशासनदेवताबलात् तु मृड- १० लिङ्गं विदधे । सत्यासत्ययोरन्तरं पश्य । तच्छ्रवणान्नृपः शासने ग्रामशतान्यदन्त देवाय । उपगुरु ससम्यक्त्वां द्वादश (?) व्रतीमुपादत्त । अश्लाघत वादीन्द्रम् - अहयो बहवः सन्ति, मेकभक्षणदक्षिणाः । एक एव स शेषो हि, धरित्रीधरणक्षमः ॥ १ ॥ तथात्वम् । अहो कवित्वशक्तिस्ते ! । पदं सपदि कस्य न स्फुरति शर्करापाकिमं ? रसालरससेकिमं भणितिवैभवं कस्य न ? | तदेतदुभयं किमप्यमृतनिर्झरो द्वारिमै स्तरङ्गयति यो रसैः स पुनरेक एव कश्चित् ॥ १ ॥ २० न नाम्ना 'नो वृत्त्या परिचय शाच्छन्दसि न वा न शब्दव्युत्पत्त्या निभृतमुपदेशान्न च गुरोः । अपि त्वेताः स्वैरं जगति सुकवीनां मधुमुचो ११ विपच्यन्ते वाचः सुकृतपरिणामेन महता ॥ २ ॥ १५ १ वत्ससहितया । २ क- 'स्फीतिवधूकायौ' । ग 'श्रीपार्श्वनाथनि । क क- 'लोकेन' । ५ शिव० ६ ग 'सत्पराः। ७ग- श्रीशेषो हि धरणीधरन.' ८ अनुप् । ९ पृथ्वी । १० ख-या वृत्त्या | ११ शिखरिणी । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [ ६ श्रीवृद्धवादि-सिद्धसैनइति स्तुत्वा स सम्राट् स्वस्थानमयासीत् । वादीन्द्रोऽपि प्रभावनातुष्टेन सङ्घन मध्ये कृतः । ___ अन्येयुः सिद्धसेनो बिहर नाङ्कारा ख्यं 'मालवे'षु नगरं ययौ। तत्र भक्तैः श्रावकैर्विज्ञप्तं सूरये, यथा--भगवन् ! अस्यैव नगरस्यासन्नो ग्राम एक आसीत् । तत्र सुन्दरो नाम राजपुत्रो ग्रामणीः । तस्य द्वे पल्यौ । एका प्रथमां पुत्री प्रासूत, अखिद्यत च । तदैव सपल्यप्यासन्नप्रसवा वर्तते । मा स्मेयं पुत्रं प्रसूय भर्तुः सविशेष वल्लभा भूदिति स्त्रीत्वोचितया तुच्छया बुद्धया सूतिकामेकामवोचत यदा इयं मे सपत्नी प्रसवकाले त्वां दैववशादाह्वयति तदा त्वया १० परस्थानात् प्रथमं सङ्गृहीतं मृतं किञ्चिदपत्र तत्र सञ्चार्यम् । तज्जातकं चेत् पुत्रो भवति तदा स्वयं गृहीत्वा ग्रामाद् दूरे व्युत्स्रष्टव्यम् । इदं हेम गृहाण । इति सूत्रणां चक्रुषी । विधिवशात् तत्र तत् तया तथैव कृतम् । राजपुत्रो जातमात्रो ग्रामाद् दूरे क्षिप्तो ही। स राजपुत्रोऽपि पुण्याधिक इति तत्कुलदेवतया धेनुरूपेण दुग्धं १५ दत्त्वा पालयन्त्याऽष्टवर्षदेशीयः कृतः । अथात्रैव 'ॐकार'नगरे शिवभवनाधिकारिणा भरटकेन दृष्टः, आलापितः, स्वां दीक्षा ग्राहितः। अन्यदा 'क(?का)न्यकुब्ज'देशाधिपतिर्नरेन्द्रो जात्यन्धो दिग्विजयकार्येण प्रत्यासन्नः समावासितः । रात्री लघुभरटकस्य शिवादेशः सञ्जातः-त्वया 'क(?का)न्यकुब्जे'शाय शेषा देया । तयाऽसौ सज्जा२० क्षो भावी । तद् वाक्यं लघुर्वृहद्गुरवे समाख्याय तदाज्ञया शेषामादाय स्कन्धावारमध्यमेत्य राजामात्यानुवाच- भो भो स्वनाथमस्मत्सम्मुखमानयध्वं यथा सद्यः कमलदलललितं स्वविषयग्रहणक्षमाक्षं कुर्महे । ततोऽमात्यनुलो राजा तत्रायातः। ऋषिदत्तां शेषामादाया! निवेश्य सज्जाक्षो जातः । प्रीतो भक्त्या ग्रामशतानि शासनेऽदात् । २५ अत्रैव च 'ॐकारे' इममुत्तुङ्गं प्रासादमचीकरत् । वयमिह पुरे वसामः। जैनः प्रासादः कारयितुं न लभ्यते । मिथ्यादृशो बलिनः । तस्मात् ग-दानपुत्रामणी'। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धोत्पराये ર तत् कुरु येन इतोऽधिकं तुङ्गं रम्यं चैश्यं निष्पद्यते । बली स्वमेवेति । तद्वचनं श्रुत्वा वादी 'अवन्ती' मागत्य चतुःश्लोकीं हस्ते कृत्वा विक्रमादित्यद्वारमेत्य द्वास्येनोपराजं श्लोकमचीकथत् । स तेन कथितः; यथा - दिक्षुर्भिक्षुरायातो, द्वारि तिष्ठति वारितः । हस्तन्यस्तचतुः श्लोक, उतागच्छतु गच्छतु ? ॥ १ ॥ तं लोकं वा विक्रमादित्येन प्रतिश्लोकः कथापितः, यथा - दत्तानि दश लक्षाणि शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुः श्लोक, उता गच्छतु गच्छतु ॥ २ ॥ - वादिना तं श्लोकं श्रुत्वा द्वास्थद्वारेण भाणितं राज्ञे दर्शनमेव १० भिक्षुरीहते, नार्थम् । ततो राज्ञा स्वदृष्टौ आहूतः । उपलक्षितो भाषितश्च भगवन् ! किमिति चिराद् दृश्यध्वे । आचार्यैरुक्तम्धर्मकार्यवशाश्चिरादायातः । श्लोकचतुष्टयं शृणु । राज्ञि शृण्वति पठितं तद्, यथा अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः ? । मार्गणौधः समभ्येति, गुणो याति दिगन्तरम् ॥ १ ॥ "सरस्वती स्थिता वक्त्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्तिः किं कुपिता राजन् !, येन देशान्तरं गता ॥२॥ कीर्तिस्ने जातजाख्येव, चतुरम्भोधिमज्ञ्जनात् । आतपाय धरानाथ !, गता मार्तण्डमण्डलम् ॥ ३ ॥ सर्वदा सर्वदोऽसीति, मिध्या संस्तूयसे जनैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं, न वक्षः परयोषितः ॥ ४ ॥ श्रुत्वा तुष्टो विक्रमश्वतुरो गजान् यथासङ्ख्यं वसन- सुगन्धद्रव्य-हेमनाक - हारादिपूर्णान् आनाय्य सूरिमभाणीस्-इमे गृह्यन्ताम् । १५ २० १ ग-'द्वास्थनोपचारं' । २ क ख ग 'यातस्तिष्ठति द्वारि वारितः । ३ अनुष्टुप् । ४ ख - घ - राज्ञो दर्शन० | ५०६ अनुषुप् । ७-८ अनुष्टुप् । चतुर्विंशति ० ६ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [६ मीवृद्धवादि-सिद्धसेन सरिरूचे-नैतदर्थ्यहम् । पुनर्विक्रमो भणति—मन्महीसारभूतांश्वतुरो देशान् स्वरमादत्स्व । वाचाह-इदमपि नेच्छामि । तर्हि किमिच्छसीति । राजन् ! श्रयताम्-'ॐकारे' चतुर जैनप्रासादं शिवप्रासादादुच्चं कारय, स्वयं सपरिच्छदः प्रतिष्ठां च तत्र कारयेति। राज्ञा तत् तथैव कृतम् । प्रभावनया सधस्तुष्टः । एवं जैन धर्म घोतयन् वादी दक्षिणस्या 'पृथ्वीस्थान'पुरं विहरन् गतः । तत्रायुरन्तं ज्ञात्वाऽनशनं लात्वा स्वर्गलोकमध्यवात्सीत् । तत्रत्यसवेन 'चित्रकूटे' सिद्धसेनगच्छं तं वृत्तान्तं ज्ञापयितुं वाग्मी भट्ट एकः प्रस्थापितः। स तत्सूरिसभायां श्लोकपूर्द्ध पुनः पुनः पठति स्म . स्फुरन्ति वादिखद्योताः, साम्प्रतं दक्षिणापथे । पुनः पुनः पाठे 'सिद्धसारस्वत या सिद्धसेनमगिन्योक्तम् नूनमस्तं गतो वादी, सिद्धसेनो दिवाकरः ॥ १॥ पश्चाद् भट्टन प्रपञ्च्योक्तम् । ततः शोको विहितो विसृष्टश्च । इति वृद्धवादिसिद्धसेनयोः प्रबन्धः ॥ ६ ॥ PAARAAT --- -- - --कूटे गच्छन्तं सं सिद्धसेनवृत्तान्त'। २ अनुष्टुप् । ख-घ--'प्रबन्धी' । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये [ ७ ] ॥ अथ श्रीमल्लवादिप्रबन्धः ॥ R श्रीइन्द्रभूतिमानम्य, प्रभावकशिरोमणेः । श्रीमल्लवादिसुरीन्दो - धरितं कीर्त्यते मया ॥ १ ॥' 'खेटा 'भिधं महास्थान - मस्ति ' गुर्जर 'मण्डले । देवादित्यापस्तत्र विप्रोऽभूद् वेदपारगः ॥ २ ॥ सुभगाख्या सुता तस्य, विधवा बालकालतः । कस्मादपि गुरोर्मन्त्र, सौरं सा प्राप भक्तिभाक् ॥ ३ ॥ आकृष्टस्तेन मन्त्रेण, मास्करस्तामुपागमत् । तद्भोगलाभादापन - सत्वा सा न चिरादभूत् ॥ ४ ॥ वैकियेभ्यः सुराङ्गेभ्यो, गर्भो पद्यपि नोद्भवेत् । "तदानीं त्वौदारिकाङ्ग - धातुयोगात् तु सम्भवी ॥ ५ ॥ आपाण्डुगण्डफलकां, ग्लानाहीं वीक्ष्य तां पिता । बभाषे किमिदं वत्से !, निन्यमाचरितं त्वया ? ॥ ६ ॥ सा प्राह स्म पितर्नेयं, प्रमादविकृतिर्मम | मन्त्राकृष्टागतोष्णांशु न्यासः पुनरयं बलात् ॥ ७ ॥ इत्युक्तोऽपि विषण्णात्मा, देवादित्यः कुकर्मणा । तां पुत्र प्रेषयामास सभृत्यां 'वलभी' पुरीम् ॥ ८ ॥ कालेन तत्र सासूत, पुत्रं पुत्र च सुद्युतम् । तत्रैवोवास सुचिरं, जनकार्पितजीविका ॥ ९ ॥ क्रमेण ववृधाते तौ, पुत्रौ बालार्कतेजसौ । यावदष्टौ व्यतिक्रान्ता, वत्सराः क्षणवत् तयोः ॥ १० ॥ तावदध्यापकस्यान्ते, पठितुं तौ निवेशितौ । कलहेऽर्भ निष्पितृक - मूचिरे लेखशालिकाः ॥ ११ ॥ - युग्मम् १० १५ २० १ अतः परं ६९ तमं पद्यं यावत् छन्दोऽनुष्टुप् ' । २ ख घ- 'स्थानं, अस्ति' । ३ सूर्यसम्बन्धि । --' तदानीतौ (!)दा० ' । ख-घ - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [७ श्रीमल्लवादि तद्विरा खिद्यमानोऽभः, पप्रच्छ जननी निजाम् । किं मातर्नास्ति मे तातो, येन लोकोक्तिरीदृशी ? ॥ १२ ॥ माता जगाद नो वेभि, किं पीडयसि पृच्छया ? ततः खिन्नः स सत्त्वाख्यो, मर्तुमैच्छद् विषादिभिः ॥ १३ ॥ साक्षादागरय तं भानु-रूचेऽहं वत्स ! ते पिता । पराभवकरो यस्ते, तस्याहं प्राणहारकः ॥ १४ ॥ इत्युक्त्वा कर्कर सूक्ष्म-मेकं तस्य समार्पयत् । ताड्याउनेन त्वया द्वषी, सद्यो मर्तेति चादिशत् ॥ १५ ॥ तेन कर्करशस्त्रेण, बालः स बलवत्तरः । विब्रुवन्तं विब्रुवन्त-मवधील्लेखशालिकम् ॥ १६ ॥ 'वलभी'पुरभूपेन, श्रुतो बालवधः स तु । कुपितस्तं शिशु सद्यो, जनैः स्वान्तिकमानयत् ॥ १७ ॥ उक्तश्च रे कथं हंसि, नृशंस ! शिशुकानमून् ? । बालः प्रत्याह न परं, बालान् हन्मि नृपानपि ॥ १८ ॥ इत्थं वदन् महीपाल-महन् कर्करकेण तम् । मृतस्य तस्य साम्राज्ये, स राजाऽजनि विक्रमी ॥ १९ ॥ शिलादित्य इति ख्यातः, 'सुराष्ट्रा'राष्ट्रभास्करः । लेभे सूर्याद् वरं वाह', परचक्रोपमर्दकम् ॥ २० ॥ निजां स्वसारं स ददौ, 'भृगुक्षेत्र'महीमुजे । असूत सा सुतं दिव्य-तेजसं दिव्यलक्षणम् ॥ २१ ॥ 'शत्रुञ्जये' गिरौ चैत्यो--द्धारमारचयच्च सः । श्रेणिकादिश्रावकाणां, श्रेणावात्मानमानयत् ॥ २२ ॥ कदाचिदागतास्लत्र, बौद्धास्तर्कमदोद्धराः । ते शिलादित्यमगदन् , सन्ति श्वेताम्बरा इमे ॥ २३ ॥ ३ घ..'शाल कम्' । . मुद्गरम् । २ ख- सदा छैषी सद्यो मत्यति'। क-ख-'बाद।५ अश्वम् । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोशेत्यपराये वादे जयन्ति यद्यस्मा - स्तदैते सन्तु नीवृति । वयं यदि जयामोऽमूं- स्तदा गन्तव्यमेतकैः ॥ २४॥ दैवयोगाज्जितं बौद्धैः सर्वे श्वेताम्बराः पुनः । " प्रबन्धः ] } विदेशमाशिश्रियिरे, पुनः कालबलार्थिनः ॥ २५ ॥ शिलादित्यनृपो बौद्धान् प्रपूजयति भक्तितः । 'शत्रुञ्जये' च ऋषभ -स्तैर्बुद्धीकृत्य पूजितः ॥ २६ ॥ इतश्च सा शिलादित्य-भगिनी भर्तृमृत्युतः । विरक्ता व्रतमादत्त, सुस्थिताचार्यसन्निधौ ॥ २७ ॥ अष्टवर्ष निजं बाल-मपि व्रतमजिग्रहत् । , सामाचारीमपि प्राज्ञं, किञ्चित् किञ्चिदजिज्ञपत् ॥ २८ ॥ १० एकदा मातरं साध्वीं, सोऽपृच्छद भिमानवान् । अल्पः कथं नः सङ्घोऽयं, प्रागप्यर पोऽभवत् कथम् ? ॥२९॥ साप्युदर भाषिष्ट, वत्स ! किं वच्मि पापिनी । श्रीश्वताम्बरसोऽभूद् भूयानपि पुरे पुरे ॥ ३० ॥ तादृक् प्रभावनावीर - सूरीन्द्राभावतः परैः । स्वसात्कृतः शिलादित्यो, भूपालो मातुलस्तव ॥ ३१ ॥ तीर्थ 'शत्रुञ्जया' हं यद्, विदितं मोक्षकारणम् । श्वेताम्बराभावतस्तद्, बौद्धैर्मूतैरिवाश्रितम् ॥ ३२ ॥ विदेशवासिनः श्वेताम्बराः खण्डितडम्बराः । क्षिपन्ति निहितौजस्काः, कालं कचम केचन ॥ ३३ ॥ इति श्रुत्वाऽकुपद् बाल - स्तोथागतभटान् प्रति । प्रतिज्ञां च चकारोचैः प्रावृडम्भोधरध्वनिः ॥ ३४ ॥ नोन्मूल्यामि चेद् बौद्धान्, नदीरय इव द्रुमान् । तदा भवामि सर्वज्ञ - ध्वंसपातकभाजनम् ॥ ३५ ॥ " ४५ १ देशे । २ क- ' शत्रुञ्जयेऽस्ति' । ३ साधूनामाचारम् । ५ क ख - ' खण्डितडम्बरैः । ६ बौद्धवीरान् । १५ २० • आत्मवशीकृतः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे [ श्रीमछवादिइत्युक्त्वाऽम्बा समापृच्छय, बाल: कालानलद्युतिः । मल्लनामा मिरिं गत्वा, तेपे तीव्रतरं तपः ॥ ३६॥ आसन्नग्रामभैक्षण, पारणं च चकार सः । दिनैः कतिपयैस्तच्च, जौ शासनदेवता ॥ ३७ ॥ भूत्वा व्योमनि साऽवादीत् , के मिष्टाः सोऽपि बालकः । तच्छ्त्वाऽऽख्यत् सानुभवं, वल्ला इति खदत्तदृक् ॥ ३८ ॥ षण्मास्यन्ते पुनः सोचे, खस्था केन सहेत्यथ ? । बालर्षिरप्यभाषिष्ट, समं घृतगुडैः शुभैः ॥ ३९ ॥ अवधारणशक्त्यां तं, योग्यं शासनदेवता । प्रत्यक्षा न्यगदद् वत्स !, भूयाः परमतापहः ॥ ४० ।। नयचक्रस्य तर्कस्य, पुस्तकं लाहि मानद ! । वाणी सेत्स्यति ते सम्यक्, कुतर्कोरगजाङ्गुली ॥ ४१ ॥ भूमौ मुमोच तं तर्क-पुस्तकं बालको मुनिः । प्रमादः सुलभस्तत्र, वयोलीलाविशेषतः ॥ ४२ ॥ रुष्टा शासनदेव्यूचे, विहिताऽऽशातना त्वया । सान्निध्यं ते विधाताऽस्मि, प्रत्यक्षीभविता न तु ॥ ४३ ॥ तं लब्ध्वा पुस्तकं मल्ल-वादी देदीप्यते स्म सः । शस्त्रं पाशुपतमिव, मध्यमः पाण्डुनन्दनः ॥ ४४ ।। आगल्य 'वलभी'द्रङ्गं, 'सुराष्ट्रा'राष्ट्रभूषणम् । शिलादित्यं युगप्रान्ता-दित्यधुतिरुवाच सः ॥ ४५ ॥ बौद्धैर्मुधा जगजग्धं, प्रतिमल्लोऽहमुत्थितः । 'अप्रमादी मल्लवादी, त्वदीयो भगिनीसुतः ॥ ४६॥ शिलादित्यनृपोपान्ते, बौद्धाचार्येण वाग्मिना । वादिवृन्दारकश्चक्रे, तर्कबर्बरमुल्बणम् ॥ ४७ ॥ मल्लवादिनि जल्पाके, नयचक्रबलोल्बणे । २५ १ अर्जुनः। २ क घ-'अप्रवादी', ग-पुस्तके तु 'अप्रमादो' इति पाठः । ग-'नयतर्कवलो.। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोशैत्यपराष्ट्र्ये हृदये हारयामास, षण्मासान्ते स शाक्यराट् ॥ ४८ ॥ षण्मासान्तनिशायां स स्वं निशान्तमुपेयिवान् । तर्कपुस्तकमाकृष्य, कोशात् किश्चिदवाचयत् ॥ ४९ ॥ चिन्ताचक्रहते चित्ते, नाथस्तान् धर्तुमीश्वरः । । बौद्धः स चिन्तयामास, प्रातस्तेजोवधो मम ॥ ५० ॥ श्वेताम्बरस्फुलिङ्गस्य किञ्चिदन्यदहो महः ! | निर्वासयिष्यन्तेऽमी हा, बौद्धाः साम्राज्यशालिनः ।। ५१ ।। धन्यास्ते ये न पश्यन्ति, देशभङ्गं कुलक्षयम् । परहस्तगतां भार्या, मित्रं चापदि संस्थितम् ॥ ५२ ॥ इति दुःखौधसङ्घट्टाद्, विदद्वे तस्य हृत् क्षणात् । नृपाहानं समायातं, प्रातस्तस्य द्रुतं द्रुतम् ॥ ५३ ॥ मोद्घाटयन्ति तच्छिष्या, गृहद्वारं वराककाः । मैन्दो गुरुर्नाथ भूप-सभापेतेति भाषिणः ॥ ५४ ॥ तद् गत्वा तत्र तैरुक्तं, श्रुत्वा तन्मल्ल उल्लसन् । अवोच्च शिलादित्यं, मृतोऽसौ शाक्यराट् शुचा ॥ ५५ ॥ १५ स्वयं गत्वा शिलादित्य-स्तं तथास्थमलोकत | बौद्धान् प्रावासयद् `देशाद्, धिक् प्रतिष्ठाच्युतं नरम् ॥५६॥ मल्लवादिनमाचार्य, कृत्वा वागीश्वरं गुरुम् । विदेशेभ्यो जैनमुनीन्, सर्वानाहवन्नृपः ॥ ५७ ॥ 'शत्रुञ्जये' जिनाधीशं, भवपञ्जरभञ्जनम् । कृत्वा श्वेताम्बरायतं, यात्रां प्रावर्तयन्नृपः ॥ ५८ ॥ कालान्तरे तत्र पुरे, रङ्को नामाभवद् वणिक् । तस्य कार्पेटिको हट्टे, न्यासीचक्रे महारसम् ॥ ५९ ॥ रसेन तेन स्पृष्टस्य, लोहस्य तपनीयताम् । सष्ट्वा हट्टसदन - परावर्त चकार च ॥ ६० ॥ मन्धः થાકે १० २० २५ १ क ख - 'प्रत्योरिदं पथं नास्ति' । २ 'मादो' इति भाषायाम् । ३ क बघ'देशान्' । ४ सुर्वणताम् । ५ क ' स:' । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છૂટ १० १५ २० चतुर्विंशतिप्रबन्धे वञ्चयित्वा कार्पटिकं, रङ्कः सोऽभून्महाधनः । । तत्पुत्र्या राजपुत्र्याश्च, सख्यमासीत् परस्परम् ॥ ६१ ॥ 'म कङ्कतिकामेकां, दिव्यरत्नविभूषिताम् । रङ्कपुत्रीकरे दृष्ट्वा, याचते स्म नृपात्मजा ।। ६२ ।। तां न दत्ते पुंना रङ्को, राजा तं याचते बलात् । तेनैव मत्सरेणासौ, म्ले सैन्यमुपानयत् ॥ ६३ ॥ भग्ना पूर्वलभी' तेन, सञ्जातमसमञ्जसम् । शिलादित्यः क्षयं नीतो, वणिजा स्फीतऋद्धिना ।। ६४ ।। ततोऽथाकृष्य वणिजा, प्रक्षिप्ताश्च रणे शकाः । तृष्णया ते स्वयं मत्र - है (य ? ) तो व्याधिर्महानयम् || ६५ ॥ विक्रमादित्यभूपाळात, पश्चर्षित्रिक ( ५७३) वत्सरे । जातोऽयं ' वलभी' भङ्गो, ज्ञानिनः प्रथमं ययुः ॥ ६६॥ खवना गतान्यर्हद - विम्बानि विषयान्तरम् | देवताधिष्ठितानां हि, चेष्टा सम्भाविनी तथा ॥ ६७ ॥ एतच्च प्रथमं ज्ञात्बा, मल्लवादी महामुनिः । सहितः परिवारेण, 'पश्चासर' पुरीमगात् ॥ ६८ ॥ 'नागेन्द्र' गच्छसत् केषु धर्मस्थानेष्वभूत् प्रभुः । " श्री' स्तम्भनक' तीर्थेऽपि, सङ्घस्तस्येशामधात् ॥ ६९ ॥ श्रीमल्लवादिचरितं जिनशासनीयतेजः समुन्नतिपवित्रमिदं निशम्य । भव्याः ! कवित्ववचनादिविचित्रलब्धिव्रातैः : प्रभावयत शासनमार्हतं भोः ॥ ७० ॥ इति श्रीमल्लवादिचरित्रम् ॥ ७ ॥ [७] श्रीमलवादि १ ग -' हैमीकङ्कनी का०: । २ घ 'पुरा' । ३ ग 'अश्'ि । ग-- 'सृष्णाया ते स्वयं मृत्वा, हतो' । ५ ख - 'प्राभ्या' । ६ वसन्त० । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध कोशेत्यपह्वये [4] || अथ श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः ॥ श्री चित्रकूटे ' हरिभद्रो विप्रश्चतुर्दशविद्यास्थानज्ञः । दृश्यां पादुकाः, पञ्चमदूरीकृतदर्शनान्यानि पञ्चममाघ इति कृत्वा ; उदरे पट्ट, उदरं विषया स्फुटतीति कृत्वा । जालं कुद्दालो निःश्रेणी सह चलन्ति । यत्पठितमहं न जानामि तस्य शिष्यो भवामीति प्रतिज्ञा । एकदा चतुष्पथासन्नभूमिं व्रजता गाथामेकां पठ्यमाना याकिनी नाम साच्ची श्रुता । तया प्रबन्धः ] ७ १० " चक्किदुगं हरिपणगं, पणगं चक्कणि केसवो चक्की | केसव चक्की केसव - दुचाकीकेसी य चक्की य ॥ १ ॥ इति गाया पेठे । न च तेन बुद्धा । अग्रे गत्वोक्तम् — मातः ! खरं चिकचिकापितम् । साध्योक्तम् — नवं लिप्तम् । अहो अनयाऽहमुत्तरेणापि जितः । इति तां ववन्दे । त्वच्छिष्योऽस्मि । गाथार्थ ब्रूहि मातः ! | सा प्राह स्ममम गुरवः सन्ति । हरिभद्रः प्राह क ते । अत्र सन्ति । ततः केनापि श्रावण १५ स चैत्यं नीतः । जिनदर्शनं तत्प्रथमम् । हर्षः । वधुरेव तत्राचष्टे, भगवन् ! वीतरागताम् । न हि कोटरसंस्थेऽग्नौ, तरुर्भवति शाड्वलः ॥ १ ॥' ४९ " १ षडङ्गमिश्रिता वेदा, धर्मशास्त्रं पुराणकम् । मीमांसा तर्कमपि च एता विद्याश्चतुर्दश ॥" २६ पादुकामदूरीकृतं दर्श० ३ 'कोदाली' इति भाषायाम् । ४ क ख घ-'व्रजन् । ५ ग-पुस्तके 'गाथामेवां ष्ठमाना' एधियम् । ६ ग पुस्तक 'श्रुताः एतदधिकम् । ७ छाया - चक्रिद्विकं हरिप्रश्चकं पञ्चकं चक्रिणां केशवश्वकी । कैशवकी केशवद्विचक्रिकेशिनौ च चक्री च ॥ ८ आर्या । ९ ख - 'स्वरं' । १० ' अत्र सन्ति । ततः केनापि श्रावण' इत्यधिके । ग- पाठ: । ११ अनुष्टुप् । चतुर्विष्ठति● ● Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे ८ श्रीहरिभद्रपूरि 'अं दिही करुणातरंगियपुडा एयरस सोमं मुहं ___आयारो पसमायरो परियरो संतो पसन्ना सणू । तं नूणं जरजम्ममच्चुइरणो देवाहिदेवो इमो देवाणं अवराण दीसइ जओ नेयं सरूवं जए ॥ २ ॥ इत्यादि नवीन नमस्काराः। ततो जिनभट्टाचार्यदर्शनम् । प्रतिपत्तिः।. चारित्रम् । सूरिपदवी । आवश्यक 'चक्की'त्यादिदुष्करत्वादावश्यक तेनैव विवृत्तम् । 'कलिकालसर्वज्ञ' इति विरुदम् । रहस्यपुस्तका देवताभ्यो लब्धाः । ते चादरेण जितदिक्पटाचार्याच्छिन्न ८४मठप्रतिबद्ध ८४ नामकप्रासादस्तम्मे विविधौषधनिष्पन्ने जलज्वल१० नाथसाध्ये क्षिप्ताः ।। एकदा भागिनेयौ हंस-परमहंसौ पाठयति प्रभुः । निष्पन्नौ, परं बौद्धतर्कास्तन्मुखेन पिपठिषतः । गुरुणा ज्ञानिना वार्यमःणावपि तस्पार्श्व गत्रौ । जरतीगृहे इत्तारकः । बौद्धाचार्यान्तिके तद्वेनस्थौ पठतः । कपलिकाया रहस्यानि लिखतः । प्रतिलेखनादिसंस्कारवशाद १५ दयालू इव ज्ञात्वा गुरुणाऽचिन्ति--ध्रुवं श्वेताम्बरावेतौ । द्वितीयाहे सोपानश्रेणौ खट्याऽहद्विम्ममालिलिखे । तदासन्नायातौ तौ पादौ तत्र न दत्तः । रेखात्र याङ्कस्तत्कण्ठश्चके । बुद्धोऽयं जात इति कृत्वा उपरि पादो दत्तः । उपरि चटितौ । गुरुणा दृष्टौ । गुरोः समक्ष निषण्णौ । तौ गुर्वास्यच्छायापरावर्त दृष्ट्वा तत्कैतवं तत्कृतमेव मत्वा २० बैठरपीडामिषेण ततो निरक्रामताम् । कपलिका लात्वा गतौ तौ चिरामायातौ । विलोकापितौ न स्तः | राजाने फथितम् १ छाया- यद्दष्ठि: करुणातरङ्गितपुटा एतस्य सोम्यं मुख आचार:- अंशमाकरः परिकरः शान्त : प्रसना तनुः । तद् नूनं जरासन्ममृत्युहरणो देवाधिदेवोऽयं देवानामपरेषां दृश्यते यतो नेदं स्वरूपं जगति ॥ १ शार्दूल. । ३ 'दृष्करस्वादावश्यक' इत्यधिको ग-पाठः। गतो युल्मा' । ५ 'उतारो' इति भाषायाम् । ६ घ-दयालव इव'! ७ क- पादं । “ग-पुस्तके 'तर' एतमान समारत । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] कोशेश्य eavergreener लत्त्वं लाख यावः । कपलिकामानापथ । पृष्ठे सैम्यमल्पं गष्ठम् | दृष्टिदृष्टिः 1 द्वावपि सहस्रयोधौ तौ । ताभ्यां निहतं राजसैन्यम् । उद्धृतन है परानं मत्था कथितं तत्तेजः । पुनर्वसुसैम्यं प्रैषि | दृष्टिमेलापकः । युद्धमेकः करोति । अपरः कपारे (लि?) काणिष्टः । हंसस्य शिरा रा दर्शितं वै । तेनाप्रि 'गुरवे दत्तम् । गुरुराह किमनेन ? । कपरि (लि?) कामामायय | गता भटाः । रात्रौ चित्रकूटे प्राकारकपाटबोर्दत्तयोस्तदास सुप्तस्य परमहंसस्य शिरश्छित्वा तैस्तत्रार्पितम् । तेषां बौनामां तत्सुरेश्व सन्तोषः । प्रातः श्रीहरिभद्रसूरिभिः शिष्यकबन्धो दृष्टः । कोपः । तैलकटाक्षाः कारिता: । अग्निना तापितं तैलम् ।१४४० १० बौद्धा होतं व आकृष्टा: शकुनिकारूपेण पतन्ति । गुरुभिर्वृतान्तो 'ज्ञातः । 'प्रतिबोधाय साधू प्रहितौ । ताभ्यां गाथा दत्ता: : 15 ༥ 'गुणसेण- अग्निसमा सीहा- ऽणंदाय तह पिया-पुता । सिहि-जाकिणि माइ सुया धण धणसिरिमो य पइ-भज्ना ॥ १ ॥ ' "जय-विजयाय सहोयर घरणो लच्छी य तह पई भज्जा । १५ "सेण-विसेणा वित्तिय उत्ता जम्मंमि सत्तमए ॥ २ ॥ गुणचंद-वणवंतर समराइच गिरिसेणपाणी उ । एगस्स तओ मुक्खो तो बीयरस संसारो ॥ ३ ॥ १- पुस्तके ' शकुनिकारूपेण पतन्ति एतदधिकं विद्यते। २ - ' बात: ३ग - पुस्तके 'प्रतियोघाम' एतद्विकं वर्तते । छाया--गुणसेनाऽग्निशर्माणी लिहा -ऽऽनन्दौ च तथा शिखि - जालिन्यौ माताकृते धन-: वनय पतिमायें ॥ । ५ अस्य पद्यरथानन्तरीयस्य च पद्यत्रितयस्य छन्द 'आर्या' वईते । ६ आर्या -- जय-विजयौ च सह धरणो लक्ष्मीश्र तथा पत्तिर्भार्या । सेम-विषेण पितृव्यपुत्रौ जन्मनि सहमे ॥ - 'सेणविणा पत्तियं' । ● छाया -- गुणचन्द्र वानव्यश्री समरादित्यो गिरिषेणप्राण: ( " मातङ्गः ) तु । एकस्य ततो मीनम्तो द्वितीयस्थ संसारः ॥ 'वाणमंतर' | Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशत्तिप्रबन्धे [८ श्रीहरिभारिजह जलइ जलउ लोए, कुसत्यपवणाहओ कसायग्गी । तं चुछ जं जिणवयणअमियसित्तो वि पज्जलइ.॥ ४ ॥" बोधः । शान्तिः । १४४० ग्रन्थाः', प्रायश्चित्तपदे कृताः । 'चित्रकूट'तलइट्टिकास्थेन तैलवणिजा प्रतयः कारिताः । तत्प्रथम ५: याकिनीधर्मसृनुसित हारिभद्रग्रन्थेष्वतोऽभूत् । १४४० पुनर्भव विरहान्तता । गुणसेण-अग्गिसम्मा'इत्यादिगाथात्रयप्रतिबद्ध समरादित्यचरित्रं नव्यं शास्त्रं क्षमावल्लीबीजं कृतम् । २१०० शतक-पञ्चाशत्-पोडशक-अष्टक -पञ्चलिङ्गी-अनेकान्तजय-- पताका-न्यायावतारवृत्ति पञ्चवस्तुक-पञ्चसूत्रक-श्रावकप्रज्ञ-प्ति १० नौणायत्तकप्रभृतीनि हारिभद्राणि । अत्रान्तरे 'श्रीमाल'पुरे कोऽपि धनी श्रेष्ठी जैनश्चेतुर्मासके सपरिकरो देवतायतनं व्रजन् सिद्धाख्यं राजपुत्रं द्यूतकारं युवानं देयकनकपदे निर्दयै नकारैर्गर्तयां निक्षिप्तं कृपया तद्देयं दत्त्वाऽमचियत् । गृह मानीयाभोजयत् । अपाठयत् । सर्वकार्याध्यक्षमकरोत् । पर्यणाययत् । १५ माता,पागप्यासीत् । पृथग् गृहेऽस्थात् । मात्रा प्रियया च समं स गृहमण्डनिका । श्रेष्टिप्रसादाद् धनं बभूव । सिद्धो रात्रौ अतिकाले एति, लेख्यकलेखलखनपरवशत्वात् । श्वश्रू-स्नुषे अतिनिर्विण्णे, अतिजागरणात् । वध्वा श्वश्रूरुक्ता- मातः ! पुत्रं तथा बोधय यथा निशि सकाले एति । मात्रा उक्तः सः-- वत्स! निशि शीघ्रमेहि, यः कालज्ञः स सर्वज्ञः । सिद्धः प्राह-मातः ! येन स्वामिनाऽहं सर्वस्वदानेन जीवितव्यदानेन च समुद्धृतस्तदादेशं कथं न कुर्वे ? । तोष्णीक्येन स्थिता माता । अन्यदाऽऽलोचितं श्वश्रू-स्नुषाभ्याम्-- -- .....१ छाया- यथा ज्वलति स्वलनं लोके कुशास्त्रपवनाहतः कषायानिः । । तच्चोद्यं यजिनवचनामृतसिक्तोऽपि प्रज्वलति ॥ २ ग-धन्तेऽभूत् । ३ एतत्प्राप्तिर धुना दुर्लभा । ४ न ज्ञायते एतदुपलब्धिः । ५ क-श्वतुर्मासे'। ६ ग-पुस्तके 'गृहे' अस्यानन्तरं 'अस्थात् । मात्रा प्रियया च समं सः' एतदधिकं वर्तते । ७ ग-पुस्तके 'बभूव' एतदधिकमस्ति । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये अस्य चिरादागतस्य निशि द्वारं नोद्घाटयिष्यावः । द्वितीयरात्रावति'चिराद् द्वारमागतः स कटकं 'खटपटापयति । ते तु न ब्रूतः । तेन क्रुद्धेन गदितम् किमिति द्वारं नोद्घाटयेथे ! । ताभ्यां मन्त्रित पूर्बिणीभ्यामुक्तम् - पत्रेदानीं द्वाराणि उद्घाटितानि भवन्ति तत्र व्रज । तच्छुवा क्रुद्धश्चतुष्पथं गतः । तत्रोद्घाटे हट्टे उपविष्टान् ५ सूरिमन्त्रस्मरणपरान् श्री हरिभद्रान् दृष्टवान् । सान्द्रचन्दिके नभसि देशना | बोधः । व्रतं जगृहे । सर्वविद्यता दिव्यं कवित्वम् । हंस - परमहंसवद् विशेषतंर्वान् जिघृक्षवैद्धान्तिकं जिगमिषुगुरुमवादीत् प्रेषयत बौद्धपार्श्वे । गुरुभिर्गदितम् - - तत्र मा गाः, मनःपरावर्ती भावी । स ऊचे - युगान्तेऽपि नैवं स्यात् । १० पुनर्गुरवः प्रोचुः -- तत्र गतः परावर्त्यसे चेत् तदा अस्मदत्तं वेषमत्रागत्यास्मभ्यं ददीथाः । ऊरीचक्रे सः । गतस्तत्र, पठितुं लग्नः । सुघटितैस्तत्कुतर्कैः परावर्तितं मनः । तद्दीक्षां ललौ । वेषं दातुमुपश्री हरिभद्रं ययौ । तैरप्याच्छन्ना वर्जितो वादं कुर्वन् वादेन जितः । बौद्धाचार्यस्य बौद्धवेषं दातुं गतः । तेनापि बोधितः । १५ पुनरागत उपश्रीहरिभद्रं श्वेताम्बरवेषं दातुम् । पुनवदेन जितः । एवं वेषद्वयप्रदानेन एहिरेयाहिरा: २१ कृताः । द्वाविंशवेलायां गुरुभिश्चिन्तितम् --- माऽस्य वराकस्य आयुः क्षयेण मिध्यादृष्टित्वे मृतस्य दीर्घभवभ्रमणं भूयात् । पुराऽपि २१ वरान् वादे जितो ऽसौ । अधुना वादेनालम् । ललितविस्तराख्या चैत्यवन्दना- २० वृत्तिः सतर्का कृता । तदागमे पुस्तिकां पादपीठे मुक्त्वा गुरवो बहिरगुः । तलुस्तिका परामर्शाद् बोधः समजनि । ततस्तुष्टो निश्चलमनाः : प्राह---- -- ܀ ५३ । २ ख- खापयति', क - घटपटापयति । " ३ क 1 ५ग-पुस्तके १ क- ' चिरेण ' तर्कानाजि० ' I क ख - गच्छन (?) जटितः 1 बाद इत्यारभ्य पुनर्वादेन जित: ' एतत्पर्यन्तमधिकं विद्यते । ६ घ ' वारं वादेर्जितो । ७ क - 'बोध्या सम्यक्' । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे श्रीहरिभदरिनमोऽस्तु हरिभद्राय, तस्मै प्रवरसूरये । मदर्थ निर्मिता येन, वृत्तिललितविस्तरा ॥ १ ॥ ततो मिथ्यात्वनिविष्णेन सिद्धर्षिणा १६ सहना उपमितिभवप्रपञ्चा कथाऽरचि 'श्रीमाले' "सिद्धिमण्डपे । सा च सरस्वत्या साध्व्याऽशोधि । समये श्रीहरिभद्रसूरयोऽपि सोऽपि अनशनेन सुरलोकमवापन् ।। इति चरित्रम् । पति श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः ।। ८ ॥ सन्तुल्यता श्रीउपमितिभधप्रपञ्चकथा प्रशस्तिगतं निम्नलिखितं पद्यम्__"अनागतं परिज्ञाय, चैत्य वन्दनमंश्रया । मदर्थेब कता येन, वृत्तिललितविस्तरा ॥ .. ॥" २ अनुम् । ३ ख-घ-सिदिऋषिणा'। ४ ग-१८'। ५ ख-घ-घिसि(?)मण्ड' । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये [९] ॥ अथ श्रीबप्पभेट्टिसरिप्रवन्धः । 'गूर्जर'देशे 'पाडलीपुर'नगरे जितशत्रू राजा राज्यं करोति स्म । तंत्र श्रीसिद्धसेननामा सूरीश्वरोऽस्ति स्म । स 'मोढेर'पुरे महास्थाने श्रीमहावीरनमस्करणाय गतः । महावीरं नत्वा ५ तीर्थोपवासं कृत्वा रात्रावामारामरतो योगनिद्रया स्थितः सन् स्वप्न ददर्श, यथा- केसरिकिशोरको देवगृहोपरि क्रीडति। स्वप्नं लब्ध्वाऽजागरीत् । माङ्गल्यस्तवनान्यपाठीत् । प्रातश्चैल्यं गतः । तत्र षड्वार्षिको बाल एको बालांशुमालिसमद्युतिराजगाम | सूरिणा पृष्टः~ भो अर्मक ! कस्त्वम् ! कुत आगतः । तेनोक्तम् १० -- 'पश्चाल'देशे ढुंबाउधी' ग्रामे बप्पाख्यः क्षत्रियः । तस्य भट्टि म सधर्मचारिणी । तयोः सूरपालनामपुत्रोऽहम् । मत्तातस्य बह्वा भुजबलगर्विताः प्रचुरपरिच्छदाः शत्रवः सन्ति । तान् सर्वान् हन्तुमहं सन्नह्य चलनासम् । पित्रा निषिद्धः-वत्स ! बालस्वम्, नास्मै कर्मणे प्रगल्भसे, अलमुद्योगेन | ततोऽहं क्रुद्धः-किमनेन १५ निरभिमानेन पित्राऽपि यः खयमरीन् न हन्ति मामपि नन्त निवारयति ? । अपमानेन मातापितरावनापृच्छपात्र समागतः । सूरिणा चिन्तितम्- अहो दिव्यं रत्नम् ! न मानवमात्रोऽयम् ; तेजसा हि न घयः समीक्ष्यते । इति विमृश्य बाल आलेपे-~-- वत्सक ! अस्माकं पार्थे तिष्ठ निजगृहाधिकमुखेन । बाले. २० नोक्तम्- महान् प्रसादः । खस्थानमानीत । सचो दृष्टस्तद्रूपविलोकनेन । दृष्टयस्तृप्ति न मन्यते । पाठयित्वा विलोकितः । एकाहेन लोकसहस्रमध्यगीष्ट । गुरवस्तुष्टुवुः । रत्नानि पुण्यप्रचय १ प-प्रवी प्रबन्धोऽयं 'आभप्रबन्ध'प्रान्से समस्ति । २ ग-'बप्पभपरि०' । ३ ग- पाटलापुर.', घ.. पाउलापुर.'। क-'अत्र'। ५ग-'श्रीमहा। ६घ-बा. .ग-'सरते। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ चतुर्विंशतिपधन्धे । श्रीवापयष्टिमूरिप्राप्याणि । धन्या वयम् । तेन बालेनाप्यल्पदिनैलक्षण-तर्क-साहित्यादीनि भूयासि शास्त्राणि पर्यशीलिघत। ततो गुरवो 'डुबाउधी'प्राम जग्मुः । बालस्य पितरौ वन्दितुमागतौ । गुरुभिरालापितौ---पुत्रा भवन्ति भूयांसोऽपि; किं तैः संसारावकरकृमिभिः । अयं तु युवयोः पुनो व्रतमीहते । दीयतां नः । गृह्यतां धर्मः । नष्टं मृतं सहन्ते हि पितरो निजतनयम्। श्लाघ्योऽयं भवं निस्तितीर्घः । पितृभ्यामुक्तम्भगवन् ! अयमेक एव नः कुलतन्तुः कथं दातुं शक्यते । तावता सविधस्थेन सूरपालेन गदितम् -~~-अहं चारित्रं गृह्णाम्येव । यतःसा बुद्धिर्विलयं प्रयातु कुलिशं तत्र श्रुते पात्यतां वल्गन्तः प्रविशन्तु ते हुनभुजि ज्वालाकराले गुणाः । यैः सर्वैः शरदिन्दुकुन्दविशदैः प्राप्तैरगि प्राप्यते भूयोऽप्यत्र पुरन्धिरन्ध्रनरकमोडाधिवासव्यथा ॥ १ ॥ ततो ज्ञाततन्निश्चयाभ्यां तन्मातरापितृभ्यां जल्पितम्---- भगवन् ! गृहाण पात्रमेतत् । परं बप्पभैट्टिरिति नापास्य कर्तव्यम् । १५ गुरुमिभणितम् -- एवमस्तु । कोऽत्र दोषः ? । पुण्यवन्तौ युवां ययोरयं लाभः सम्पन्नः । बप्प-भट्टी आपृच्छ्य सूरपालं गृहीत्वा सिद्धसेनाचार्या 'मोढेरक' गताः । शताष्टके वत्सराणां, गते विक्रमकालतः । सप्ताधिके राधशुक्ल-तृतीयादिवसे गुरौ ॥१॥ २० दीक्षा दत्ता । बप्पभट्टिरिति नाम विश्ववल्लभं जुधुषे । सङ्घप्रा र्थनया तत्र चतुर्मासकं कृतम्। अन्यदा बहिर्भूमिं गत्तस्य बप्पभट्टेमहती दृष्टिमतनिष्ट घनः । कापि देवकुले स्थितः सः । तत्र देवकुळे महाबुधः को.पि पुमान् समागतः । तत्र देवकुले प्रशस्तिकाम्यानि रसाढ्यामि गम्भीरानि तेन बपभडिपार्भाद् न्याख्या घ. डूंगा.' । २ शाल ०१ ३ घशात निश्चया' ।। स्व-दष्टिः'। प् । च-बोका। ५ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये पितानि । ततः स बप्पभट्टिना समं वसतिमायासः । गुरुभिराशीर्भिरभिनन्दितः । आम्नायं स पृष्टः । ततोऽसौ जगाद – भगवन् ! 'कन्यकुब्ज' देशे 'गोपाल गिरि 'दुर्गनगरे यशोधर्मनृपतेः सुयशादेवीकुक्षिजन्मा नन्दनोऽहं यौवनेन निरर्गलं धनं लीलया व्ययन् पित्रा कुपितेन शिक्षितः वत्स ! धनार्जकस्य कृच्छ्रमस्थानव्ययी पुत्रो न वेत्ति तातस्य, मितव्ययो भव । ततोऽहं कोपादिहागमम् । गुरवोऽप्यूचुः किं ते नाम । तेनापि खटिकया भुवि लिखित्वा दर्शितं आम इति । महाजना चार पैरम्परे दृशी- 'स्वनाम नामाददते न साधवः' । तस्यैौन्नत्येन गुरवो हृष्टाः । चिन्तितं च तैःपूर्व श्रीराम सैन्ये ग्रामे दृष्टोऽसौ षाण्मासिकः शिशुः । I पीवृक्षमहाजाल्या, वैत्रदोलकमास्थितः । "अचलच्छायया च पुण्यपुरुषो निर्णितः ॥ 10 ――― ६५७ १० ततस्तज्जननी वन्यफलानि विचिन्वानाऽस्माभिर्मणिता-बहसें ! का त्वम् ? । 'किञ्च ते कुलम् । साऽवादीत् निजं कुलम् - अहं राजपुत्री 'कन्यकुब्जे 'शयशोधर्मपत्नी सुयशा नाम । अहमस्मिन् १५ सुते गर्भस्थे सति दृढकार्मणवशीकृतधवया यत्कृतप्रमाणया कृत्ययेव क्रूरया सपत्न्या मिथ्या परपुरुषदोषमारोप्य गृहानिष्कासिता । अभिमानेन श्वशुरकुल - पितृकुले हित्वा भ्रमन्तीह समागता वन्यवृत्त्या जीवामि । बालं च पालयामि । इदं श्रुत्वाऽस्माभिर्सा उक्ता--- वरसे ! अस्मच्चैत्यं समागच्छ स्वं वत्सं " प्रवर्धय । तया तथा कृतम् । २० सपस्यपि बहुसपत्नीकृतमारण प्रयोगेण ममार । ततो विशिष्टपुरुषैः 'कन्यकुब्जे' शो यशोधर्मा विज्ञप्तः देव ! सुयशा राज्ञी निर्दोषाऽपि तदा देवेन सपत्नीवचसा निष्कासिता सा प्रत्या १ ग- 'वर्म । २ क- घ - - ' सुशया (१यशा ) ०', ग-पुस्तके तु 'सुयशो' । ३ घ - 'पदं परेदशी । ४ घ' प्रामेऽसौ दृष्टः षाण्मासिकः शिशुः । ५ ख - 'वखान्दोल ०'1 ६ सप्ताक्षरात्मकं चरणमिदम् । ७ अनुष्टुप् (१) । • घ--' किंवा ' ९ग-'यशोवर्म० । १० ख ग - 'वधेय' । ११ क- ' प्रयोगर्म मार' | चतुर्विंशति Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे नीयते । राज्ञा सा स्वसौधमानाथिता सपुत्रा गौरषिता च । अम्पदा विहरतो वयं तस्या देशं गताः ! तया पूर्वप्रतिपन्नं स्मरन्स्या वयं वन्दिताः पूजिताः । अनेन आमनाना तत्सुतेन भाव्यम् । एवं चिरं विभाव्य सूरयस्तमूचुः- वत्स ! बस मिश्रिन्तो निजेन सुहृदा बप्पभट्टिनाम्ना सममस्मत्सन्निधौ । स्व गृहाण कलाः । कास्ताः - - - लिखितम् १ गणितम् २ गीतम् ३ नृत्यम् ४ वाद्यम् ५ पठितम् ६ व्याकरणम् ७ छन्दो ८ ज्योतिषम् ९ शिक्षा १० निरुक्तम् ११ काल्यायनम् १२ निघण्टुः १३ पत्रच्छेयम् १४ नखच्छेयम् १५ रत्नपरीक्षा १६ १० आयुधाभ्यासः १७ गजारोहणम् १८ तुरगारोहणम् १९ तयेोः शिक्षा २० मन्त्रवादः २१ यन्त्रवादः २२ रसवादः २३ खन्य• वादः २४ रसायनम् २५ विज्ञानम् २६ तर्कवादः २७ सिचान्तः २८ विषवादः २९ गारुडम् ३० शाकुनम् ३१ वैद्यकम् ३२ आचार्यविया ३३ आगमः ३४ प्रासादलक्षणम् १५ ३५ सामुद्रिकम् ३६ स्मृतिः ३७ पुराणम् ३८ इतिहासः ३९ वेदः ४० विधिः ४१ विधानुवादः ४२ दर्शन संस्कारः ४३ खेचरीकला ४४ अमरीकला ४५ इन्द्रजालम् ४६ पातालसिद्धिः ४७ धूर्तम्बलम् ४८ गन्धवादः ४९ वृक्षचिकित्सा ५० कृत्रिममणिकर्म ५१ सर्वकरणी ५२ वैश्यकर्म ५३ पणकर्म २० ५४ चित्रकर्म ५५ काष्ठघटनम् ५६ पाषाणकर्म ५७ लेपकर्म ५८ चर्मकर्म ५९ यन्त्रकरसवती ६० काव्यम् ६१ अलङ्कारः ६२ हसितम् ६३ संस्कृतम् ६४ प्राकृतम् ६५ पैशाचिकम् ६६ अपभ्रंशम् ६७ कपटम् ६८ देशभाषा ६९ धातुकर्म ७० प्रयोगोपीयः ७१ केवलीविधिः ७२ । एताः सकलाः कलाः २५ शिक्षितवान् । लक्षण- तर्कादिग्रन्थान् परिचितवान् । बप्पभट्टिना ૫. [ ९ श्रीबप्पमट्टिसूरि ――― १ ग - 'भ्यासम् । २ घ 'शम्बल' ३ ख 'दशाकर्म' ४ - प्रतौ एषा कला " नोलिखिता । ५ ग -' पायम् । ६ घ - केवली ७१ विधिः ७२ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराहये भाप ५ साक मस्थिमज्ज'न्यावेन प्रीतिं बद्धवान् । यतः-- 'आरम्भगुवी क्षयिणी क्रमेण, हवा पुरा वृद्धिमता च पश्चात् । दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्ध भिन्ना, छायैब मैत्री खल-सजमानाम् ॥१॥ कियत्यपि गते काले यशोधर्मनृपेणासाध्यन्याधितेम पट्टाभिषेकार्थमामकुमाराकारणाय प्रधानपुरुषाः प्रेषिताः । अनिच्छन्नपि तैस्तत्र नीतः । 'पितुर्मेलितः । पित्राऽऽलिङ्गितः सबाष्पगद्गदमुपालब्धश्चधिग् वृत्तनृत्तमुचितां शुचितां धितां धिक् कुन्दसुन्दरगुणग्रहणाग्रहित्वम् । चक्रेकसीनि तव मौक्तिक ! येन वृद्धि र्वार्द्धन तस्य कथमप्युपयुज्यसे यत् ! ॥ १ ॥ अभिषिक्तः स्वराज्ये । शिक्षितश्च प्रजापालनादौ । एतत् कृत्वा यशोधर्मा अर्हन्तं त्रिधा शुद्ध्या शरणं श्रयन् यां गतः। आमराजा पितुरौर्ध्वदेहिकं कृतवान् । द्विजादिदोनलोकाय वित्तं दत्तवान् । लक्षद्वितयमश्वानां हस्तिनां स्थानां च प्रत्येकं १५ चतुर्दशशती एका कोटी पदातीनां । एवं राज्यश्रीः श्रीआमस्य न्यायरामस्य । तथापि बप्पमाट्टिमित्रं विना सर्व पलालपूलप्राय मभ्यते स्म सः । ततो मित्रानयनाय प्रधानपुरुषान् प्रैषीत् । तैस्तत्र गत्वा विज्ञप्तम् ~~ हे श्रीवप्पमट्टे ! आमराजः समुत्क७४याऽऽह्वयति, आगम्यताम् । बप्पभाट्टना गुरूणां वइनकमलम- २० वलोकितम् । तैः सङ्घानुमत्या गीतार्थयतिभिः समं बप्पभट्टिमुनिः प्रहितः । आमस्य पुरं 'गोपालगिरि' प्राप । राजा सबलवाहनः सम्मुखमगात् , प्रवेशमहमकात्,ि सौधमानैषात् । अवोचत च----भगवन् ! अर्धराज्यं गृहाण । तेनोक्तम्-अस्माकं निम्रन्थानां सावधेन राज्येन किं कार्यम् ? । यतः-- २५ __ १ घ-'आपातगुवी' । २ उपजातिः। ३ घ--'पितुर्मिलितः'। ४ वसन्त । ५ ख-घ--"विक्तश्च राज्ये । THE THHETINUTH Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे ९ भीषष्पष्टिमूरिअनेकयोनिसम्पाता-ऽनन्तबाधाविधायिनी। अभिमानफलैयेयं, राज्यश्रीः साऽपि नश्वरी ॥ १ ॥ ततो राज्ञाऽसौ तुङ्गधवलगृहे स्थापितः । प्रातः सभामागताय बप्पभट्टये नृपेण सिंहासनं मण्डापितम् । तेन गदितम्उर्वीपते ! आचार्यपदं विना सिंहासनं न युक्तम् । गुर्वाशातना भवेत् । ततो राज्ञा बप्पभट्टिः प्रधानसचिवैः सह गुर्वन्तिके प्रहितः। विज्ञप्तिका च दत्ता--यदि मम प्राणैः कार्य तदा प्रसद्य सद्योऽयं महर्षिः सूरिपदे स्थाप्यः । ' योग्यं सुतं च शिष्यं च, नयन्ति गुरवः श्रियम् ।' स्थापितमात्रश्चात्र शीघ्रं प्रेषणीयः । १० अन्यथाऽहं न भवामि । मा विलम्ब्यतामिति । अखण्डप्रयोग र्मोढेरकं प्राप्तो बप्पट्टिः । सचिवैः सूरयो विज्ञप्ताः- प्रभो ! राजविज्ञप्त्यर्थोऽनुसार्यः; उचितज्ञा हि भवादृशाः । अथ श्रीसिद्धसेनाचार्यैर्बप्पभट्टिः सूरिपदे स्थापितः । तदङ्गे श्रीः साक्षादिव सामन्ती छ । रहश्च शिक्षा दत्ता--- वत्स ! १५ तव राजसत्कारो भृशं भावी । ततश्च लक्ष्मीः प्रवर्त्यति । तत इन्द्रियजयो दुष्करः । त्वं महाब्रह्मचारी भवेः । ""विकारहेतौ सलि विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः" अनेन महाव्रतेन महत्तरः स्फुरिष्यसि । एकादशाधिके तत्र, जाते वर्षशताष्टके । विक्रमात् सोऽभवत् सूरिः, कृष्णचैत्राष्टमादिने ११॥ गुरुणा आमराजसमीपे प्रेषितः । तत्र प्राप्त: । 'गोपगिरेः' प्रासुकवनोद्देशे स्थितः । राजा अभ्यागत्य महामहेन तं पुरी प्रावीविशत् । श्रीबप्पभट्टिसूरिणा तत्र देशना क्लेशनाशिनी दत्ता-- श्रीरियं प्रायशः पुंसा-मुपस्कारैककारणम् । २५ तामुपस्कुर्वते ये तु, रत्नसूस्तैरसौ रसा ॥ १॥ कुमारसम्भवे (स. १, १ अनुष्टुप् । २ ग-याणकौमोंढरेक' । ३ क-'भव' । श्लो. ५९)। ५ ग-वीराः । ६-७ अनुष्टुप् । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः] - प्रबन्धकोशेत्यपराये आमेन गुरूपदेशादेकोत्तरशतहस्तप्रमाणः प्रासादः कारयामासे 'गोपगिरौ' । अष्टादशभारप्रमाणं श्रीवर्धमानबिम्बं तत्र निवेशयाम्बभूधे । प्रतिष्ठा विधापयाञ्चक्रे । तत्र चैल्ये मूलमण्डपः सपादलक्षेण सौवर्णटङ्ककैर्निष्पन्न इति वृद्धाः प्राहुः । आमा कुखरारूढः 'सर्वर्द्धया चैत्यवन्दनाय याति । मिथ्याशां दृशौ सैन्धवेन पूर्येते, ५ सम्यग् दशा स्वमृतेनेव । एवं प्रभावनाः । प्रातर्नूषो मौलमनऱ्या स्वं सिंहासनं सूरये निवेशापपति । तद् दृष्ट्वा विप्रैः क्रुधा ज्वलितै पो विज्ञप्तः-- देव ! श्वेताम्बरा अभी शूद्राः । एभ्यः सिंहासनं किम् ? । अथास्तां तत् । परं हस्वीयो भवतु, न महत् । मुहुर्मुहस्तरित्यं विज्ञप्या कर्थ्यमानः पार्थिवो मौलसिंहासनं १० कोशगं कारयित्वाऽन्यल्लष्वारूरुपत् । प्रत्यूषे सूरीन्द्रेण तद् दृष्ट्वा रुध्नेव राज्ञोऽग्रे पठितम् --- मर्दय मानमतङ्गजदर्प, विनयशररिविनाशनसर्पम् । क्षीणो दो दशवदनोऽपि, यस्य न तुल्यो भुवमे कोऽपि ॥१॥ इदं श्रुत्मा राज्ञा होणेन सदा भूयो मूलसिंहासनमनुज्ञातम् । अपराधः १५ क्षमितः । एकदा सपादकोटी हेम्ना दत्ता गुरुभ्यः । तैर्निरीहै: सा जीर्णोद्धारे ऋद्धियुक्तश्रावकपार्थाद् व्ययिता । अन्यदा शुद्धान्ते प्रम्लानघदमा वल्लभां दृष्ट्वा प्रभोः पुरो गाथाई राजाऽऽह अज्ज वि सा परितप्पड़, कमलमुही अत्तणो पमाएण । समस्येयम् । अथ प्रभुः माह पदमविबुद्धेण तए, जीसे पच्छाइय अंग ॥ १ ॥ राजा आत्मसंवादाच्चमस्कृतः । अन्यदा प्रियां पदे पदे मन्दं मन्दं सञ्चरम्ही दृष्ट्वा गाथाई राजा जगाद २० १ क-'हस्त शत.'। २ ग-'बुधाः। घ.'सर्वध्या' । १ क-ख-'मूलम.' । ५.क-ख-'हसीयो भवतु।६ पाद कुलकम् । ७ क-ख. 'तदा'। ८.१ छाया--अद्यापि सा परितपति कमलमुखी आत्मनः प्रमादेन । प्रथमविबुद्धेन त्वया यस्याः प्रच्छादितम गम ॥ १. आर्या । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ चतुर्विंशतिप्रबन्धे 'बाला चकंमती पर प५ कीस कुणइ मुहभंग ? । सूरिराह Ama १५ नूर्ण रमणपरसे मेहलया छिबइ नहपंति ॥ १ ॥ * इदं श्रुत्वा राजा मुखं निश्वासहतदर्पणसमं दध्रे । अभी मदन्तः५ पुरे कृतविप्लवा इति धिया । तच्चाचार्यैः क्षणार्धेनावगतं चिन्तितं च -- अहो विद्यागुणोऽपि दोषतां गतः । [ श्रीपमट्टिसूरि जलधेरपि कल्लोल्ला-श्वापलानि कपेरपि । 4 शक्यन्ते यत्नतो रोद्धुं न पुनः प्रभुचेतसः ॥ १ ॥ रात्रौ सूरिः सङ्घमनापृछ्य राजद्वारकपाढसम्पुटतष्टे काव्यमेकं १० लिखित्वा बहिर्ययौ । तद्यथा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्ध को शेर पराहये तत्र पुरे धर्मो नाम राजा । स च गुणज्ञः । तस्य सभायां वाक्पतिनामा कविराजोऽस्ति । तेन सूरीणामागमनं लोकादवगतम् । ज्ञापितश्च राज्ञा । राज्ञा प्रवेशमहः कारितः । पूर्मध्ये सौधोपान्ते गुरुस्तुङ्गगृहे स्थापितः । राजा नित्यं वन्दते । कवयो जिता राजताश्च । प्रभावना प्रैधते स्म । यशश्च कुन्दशुभ्रम् | 'राजा प्रोचे - अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा, दृष्टे विरह भीरुता । दृष्टेनाप्यदृष्टेन भवता नाप्यते सुखम् ॥ 1 1 १ ॥ निर्बन्धे सूरिराह - आमश्चेत् स्वयमायास्यति तदा वयं यास्यामः, नान्यथा । इति प्रतिज्ञाय स्थापिताः पुण्यलाभं कुर्वन्ति । इतश्च यदा बप्पभट्टिः कृतविहारः प्रातः श्रीआमपार्श्व नामा- १ तस्तदा तेन सर्वक्षावलोकितो न लब्धः । जातो विवक्षः | 'यामः स्वस्ति वास्तु' इत्यादि काम्यानि दृष्टामि। अक्षराण्युपलक्षितानि । ध्रुवं स मां मुक्त्वा क्वापि गत एवेति निर्णीतम् । अन्यदा बहिर्गतेन राज्ञा महाभुजङ्गमो दृष्टः । तं मुखे धृत्वा वाससाऽऽच्छाच सौधं गतः । कविवृन्दाय समस्यामर्पितवान् शस्त्रं शास्त्रं कृषिर्विद्या, अन्यो यो येन जीवति । इति । पूरिता सर्वैरपि । न तु नृपश्चमच्चकार हृदयाभिप्रायाकथनात् । तदा बप्पभट्टि बाढं स्मृतवान् । सा हृदयसंवादिनी गौस्तत्रैव । अथ स पटहमवदत् । तत्रेदमजूघुषत् — यो मम हृदूतां समस्यां पूरयति तस्मै 'हेमटङ्ककलक्षं ददामि। तदा 'गोपनिरी' यो द्यूतकारः २० कश्चिद् 'गौड' देशं गतः । स बप्पभट्टिसूरीणामग्रे तत् समस्यापदद्वयं कथितवान् । सूरिणा पश्चार्द्ध पेठे । सुगृहीतं च कर्तव्यं, कृष्णसर्पमुखं यथा ॥ १ ॥ इति । स हि भगवान् विकृतित्यागी सिद्ध सारस्वतो गगनगमनशक्त्या विविधतीर्थवन्दमशक्तियुक्तस्तस्य कियदेतत् ? । सबूत- २५ १५ • १ ग - पुस्तके 'राजा कुर्वन्ति' एतदधिकम् । २ अनुष्टुप् । ३ ख - 'काव्यं दृष्टम् । ग- हेम ० ' । ५ अनुष्टुप् । ६ दुग्ध-घूत-दधि-तैल-गुरु- पक्वान्नेति षड् विकृतयः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रपन्चे [९ श्रीवप्पमट्टिसूरि कारस्तत्पादद्वयं 'गोपगिरौ' श्रीआमाले निवेदितवान् । राजा दध्वान--अहो सुघटितस्वमर्थस्य ! । तं पप्रच्छ-केन क्वेयं पूरिता समस्या ? । द्यूतकृदाह-लक्षणावत्यां बप्पभट्टिसूरिणा ज्ञानपू(भू)रिणा तस्योचितं दानं चके ।। ____ अन्यदा राजा नगर्या बहिर्ययौ । न्यग्रोधद्रुमाधः पान्थं मृतं ददर्श । शाखायां लम्बमानं करपत्रकमेकं विग्रुषां व्यूहं सवन्त गाथाई च विशिष्टप्राव्णि लिखितं कठिन्या (खटिन्या!) अपश्यत् । तइया मह निग्गमणे पियाइ थोरंसुएहिं जं रुण्णं । तदपि समस्यापादद्वयं राज्ञा कविभ्यः कथितम् । न केनापि सुष्टु १० पूरितम् । राजा चिन्तयति स्म वेश्यानामिव विधाना, मुखं कैः कैर्न चुम्बितम् ।। हृदयग्राहिणस्तासा, द्वित्रा सन्ति न सन्ति वा ॥१॥ हृदयग्राही स एव मम मित्रं सूरिवरः । स एव दौरोदरिको नृपे णोपसूरि प्रैषि । सूरिणाऽक्षिनिमेषमात्रेण पूरिता समस्या-- १५ करव(प)त्तयबिंदूअनिवडणेण तं मज्झ संभरियं ॥ १ ॥ तत् पुनर्वृतकाराच्छत्वा राज्ञा हृष्टेनोत्कण्ठितेन सूरेराहनाय वाग्मिनः सचिवाः प्रस्थापिताः । उपालम्भसहिता विज्ञप्तिश्च ददे । प्राप्तास्ते तत्र । दृष्टास्तैस्तत्र सूरयः । उपलक्ष्य वन्दिताः । राज विज्ञप्तिर्दत्ता । तत्र लिखितं वाचितं गुरुभिः-- २० न गङ्गां गाङ्गेयं सुयुवतिकपोलस्थलगतं .. न वा शुक्ति मुक्तामणिरुरसिजस्पर्शरसिकः । न कोटीरारूढः स्मरति च सवित्री मणिचय स्ततो मन्ये विश्नं स्वमुखनिरतं स्नेहविरतम् ॥१॥ क-ख-'क(का)ठिन्यात्' । २ छाया-तदा मम निर्गमने प्रियया घो(स्थू)राश्रुभिर्यद् रुदितम् । ३ ग-'स्तेषा' ! ? अनुष्टुप् । ५ छाया-करपत्रकविन्दुकनिपतमेन तत् मय। स्मृतम् । ६ आर्या । • शिखरिणी । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धक शेत्यपराये छायाकाराणि सिरि धरिय पश्चवि भूमि पति । पत्तहं "इहु पत्तत्तणउं तरुअर काई करंति ? ॥ २ ॥ सचिवा अप्यूचुः - स्वामिन्! आमराजो निर्व्याजप्रीतिर्विज्ञ (ज्ञा:)पयते ( ति ) - शीघ्रमागत्याऽयं देशो वसन्तावतं सितोद्यानलीलां लम्भनीयः । त्रद्वागूरसलुब्धानामस्माकमितरकवि वाग् न रोचते । कथासु ये लब्धरसाः कवीनां ते नानुरज्यन्ति कथान्तरेषु । नै गन्धिपर्णप्रणयाश्चरन्ति प्रबन्धः ] कस्तूरिकागन्धमृगास्तृणेषु ॥ १॥ तदाकर्ण्य लेखं दत्त्वा सूरिभि: सचिवाः प्रोचिरे - श्री आमो गीष्पति- १० समप्रज्ञ एवं भाषणीयः 117 11 - ६५ अस्माभिर्यदि वः कार्य, तदा धर्मस्य भूपतेः । 2= सभायां छन्नमागम्य, स्वयमापृच्छ्यतां द्रुतम् ॥ १ ॥ अस्माकमिति हि प्रतिज्ञाऽऽस्ते धर्मेण राज्ञा सह - स्वयमामः समेत्य त्वत्समक्षं यदाऽस्मानाकारयति किल तदा तत्र यामः, नान्य- १५ थेति । प्रतिज्ञालोपश्च नोचितः सत्यवादिनां प्रतिष्ठावताम् । ततो मन्त्रिण उप' कन्यकुब्जे ' शमाजग्मुः | सूरीणामुक्तमुक्तं खश्चादर्शि । तत्र लिखितं यथा "विंझेण विणा वि गया, नरिंदभवणेसु हुति गारविया । विंझो न होइ वंझो, गएहिं बहु एहिं वि गएहिं ॥ १ ॥ ' १३ २० १ छाया – छायाकारणाच्छिर से घृतानि प्रत्युत भूमी पतन्ति । पत्राणामेतत् पात्रत्वं (पत्र) तरुवराः किं कुर्वन्ति ? ॥ २ घ -- कारिणी । ३ घ - 'पच्चिवि' । ग 'पहुपत्त०' । ५ एतच्छन्दोनाम न ज्ञायते । ६ ख - 'मवद्वाक्यरस० । ७ घ--' --'निर्भन्धिमुरूमांश (?) पर्ण ० ' । ८ क ख - 'प्रन्थि०' । ९ उपजातिः । १० अनुष्टुप् । ११ ख -घ - - "सूरीणां तदुक्त०' । १२ छाया - विन्ध्येन विनाऽपि गजा नरेन्द्रभवनेषु भवन्ति गौरविताः । विन्ध्यो न भवति कष्यो गतेषु बहुकेष्वपि गजेषु ॥ १३ अतः परं दशमपर्यन्तानां पञ्चानां छन्द आर्या । • ९ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे ९ श्रीवप्पभतिसूरिमाणसँरहिएहिं सुहाई जह न उमति रायहंसेहिं । तह तस्स वि तेहिं विणा, 'तीरुच्छंगा न सोहंति ॥२॥ "परिसेसियहंसउलं, पि माणसं माणसं न संदेहो । अन्नत्य वि जत्थ गया, हंसा वि बया न भन्नति ॥३॥ हंसा जहिं गया तहिं, गया महीमंडणा हवंति । छेहउ ताहं महासर-हं जे हंसेहिं मुञ्चति ॥४॥ मैलओ सचंदणु चिय, नइमुहहीरंतचंदणदुमोहो । पम्मी पि हु मलया-उ चंदण जायइ महग्धं ॥५॥ अग्घायंति महुयरा, विमुक्कमलायरा वि मयरंदं । कमलायरो वि दिट्ठो, सुओ वि किं मञ्जयरविहुणो ? ॥६॥ इकण कुच्छुहेण, पिणा वि रयणायरु ञ्चिय समुहो । कुच्छुहरयणं पि उरे जस्स ठियं सो वि हु महग्घो ॥७॥ छाया-मानसरहिसेः सुखानि यथा न लभ्यन्ते राजहंसः । तथा तस्यापि तेन विना तीरोस्सङ्गर न शोभन्ते ॥ - 'माणसरएहिएहि' । घ--'निरु०' । छाया- परिशेषितहंसकुलमपि मानसं मानसं न सन्देहः । अन्यत्रापि यत्र (कुत्र) गता इंसा अपि वका न मण्यन्ते ।। हंसा यत्र गतास्तत्र गता महीमण्डना भवन्ति । विरहस्तेषां महासरसा यानि इंसैर्मुच्यन्ते ॥ ५ स्व-'अयं'। ६ ग--'जिगय(१) महिमंडणा' । .-८ छाया- मलयः सचन्दन एष नदीमुखाहियमाणचम्बनमोघः । प्रभ्रष्टमपि खलु मलयात् चन्दनं जायते महार्षम् ।। आजिघन्ति मधुकरा विमुक्तकमलाकरा अपि मकरन्दम् । कमलाकरोऽपि दृष्टः श्रुतोऽपि कि मधुकराविहीनः।। ९घ-मुहुयरा', ग-'मठुयश(?) । .१० छाया-एकेन कौस्तुभेन विनाऽपि रलाकर एव समुद्रा। कोस्तुभरत्नमप्युरसि यस्य स्थिमं सोऽपि खल महा।। १५ ग-कन्थु । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये पे मुक्काण वि तरुवर! फिइ पत्तत्तणं न पत्ताणं । तुह पुणच्छामा जइ होइ कहवि ता तेहि पत्तेहिं ॥८॥ जे केवि पहू महिमंडलंमि ते 'उच्छुदंड सारिच्छा । सरसा जडाण मज्झे बिरसा पत्तेसु दीसंति ॥९॥ संपर पहुणो पहुणो पहुत्तणं किं चिरंतणपहूणं ? | दोगुणा गुणदोसा एहिं कया न हु कया तेहिं ॥ १० ॥ एतद् वाचयित्वा सोत्कण्ठं नृपः सारकतिपयपुरुषवृत्तोऽचालीत् । 'गोदावरी' तीरग्राममेकमगमत् । तत्र खण्डदेवकुले वासमकार्षीत् । देवकुलाधिष्ठात्री व्यन्तरी सौभाग्यमोहिता गङ्गेव भरतं तं भेजे । प्रभाते करभमारुह्य तां देवीमापृच्छ्य प्रभुपादान्तं प्राप । गाथार्थ १० पपाठ 3 अज्ज विसा सुमरिज को नेहो एगराईए ? | " सूरन्द्रिः प्राह "" गोदा' नईइ तीरे, सुन्नउले जंसि वीसमिओ ॥ १ ॥ * इति । अन्योन्यं गाढमालिङ्गितुरुभौ । तत आम आह स्मअद्य मे सफला प्रीति - रद्य मे सफला रतिः । अद्य मे सफलं जन्म, अद्य मे सफलं कुलम् ॥ १ ॥७ रात्रौ इष्टा गोष्ठी च ववृते मधुमधुरा । ततः प्रभाते सूरिर्धर्मनृपास्थानमगमत् । आमनृपोऽपि प्रधानैः खैः पुरुषैः सह : १ छाया - त्वया मुक्तानामपि तरुवर ! भ्रश्यति पचत्वं (पात्रत्वं न पत्राभाम् । तव पुनश्छाया यदि भवति कथमपि तर्हि तैः पत्रैः १ ॥ ये केsपि प्रभवो महीभण्डले ते इक्षुदण्डसदृशाः । सरसा जटान ( जडान ) मध्ये त्रिरसा: पत्रेषु पात्रेषु) । सम्प्रति प्रभवः प्रभवः प्रभुत्वं किं चिरन्तनप्रभूणाम् । दोषगुणा गुणदोषा एभिः कृता न खलु कृतस्तैः॥ २ध- 'उच्छदंड' ३ छाया - अद्यापि सा स्मर्यते कः स्नेह एकराभ्या ? | गोदावरी ) नथास्तीरे शून्य (देव) कुले यदसि विश्रमितः ॥ १५ ग - 'गोदामईय० । ५आर्या ६ क ख - 'फलम्'। ७ अनुष्टुम् । 1 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [९ श्रीबप्पमहिरिस्थगीधरो भूत्वाऽऽगच्छत् । आम आवउ इति ब्रुवाणैः सूरिभिधर्माय आमस्य विशिष्टपुरुषा दर्शिताः । एते आमनृपनराः किलास्मानाह्वातुमायाता इति । धर्मेण राज्ञा पृष्टं विशिष्टजनपार्श्वे-- भो आमप्रधाननराः ! स भवतां स्वामी कीदृशरूपः ? । तैर्निगदितम्__ यादृगयं स्थगीधरस्ताहगस्ति । प्रथमं मातुलिङ्गं करे धारयित्वा आम आनीतोऽस्ति । सूरिभिः पृष्टम् ---- भो स्थगीधर ! तव करे किमेतत् ? । स्थगीधरीभूतेन श्रीआमेनोक्तम् ---"बीजउरा इति । क्षणार्धेन वातीमध्ये सूरिभिः सूक्तमवतारितम् "तत्तीसीयली मेलाबा केहीं धण उत्तावली पिउ मंदसणेहा । १० 'विरहि माणुसु जो मरइ तसु केवण निहोरा कन्निपवित्तडी जणु जाणइ दोरा ॥ १ ॥ इति । गुरुणा कथितम् --आम आवउ, आम आवउ। धर्मेण राज्ञा तुअरिछोडं दृष्ट्वा पृष्टम्--- अहो स्थगीधर ! किमिदम् ? । तेनोक्तम्--- तू अरि, तबारीत्यर्थः । इत्यादि गोष्टयां वर्तमानायां १५ शनैः शनैः श्रीआमराजाश्चिद्रूपो मेलापकानिसृत्य पुराद् बहिः स्थाने स्थाने स्थापितैर्वाहनैः कियतीमपि 'भूमिमत्यकाम्यत् । तावता सूरीश्वरो विलम्बाय प्रहरद्वयं कामपि कथामचीकथत् । रसावतारः स कोऽपि जातो यो रम्भा-तिलोत्तमाप्रेक्षणीयकेऽपि १ अत्रागम्यताम्, पक्षान्तरे, आम ! आगम्यताम् । २ क- आमनृपनराः'। ३ घ- 'करण' । ४ बीजपूरकम, पक्षान्तरे द्वितीयो राजा । ५ एतत्पद्यस्थ अष्टोत्तरं शतमी व्याख्याताः श्रीवप्पभट्टिमूरिभिः, परन्वधुना तु श्रीप्रभावकचरित्रे प्रदशि तमर्थ चतुष्टयमेवोपलभ्यते ज्ञायते च । ६ घ."ह धणउत्तावणी] ली प्रियमंद० । ७ ग-धणि उतावली'। ८ ग-'विरह जो मणुस मरइ', घ-विरह माणुसु जइ मरइ तणु। ९ख-'कवणु नहोरा कर्णपवि०, घ'कवणु निहोरा किनपत्रि०' । ५० 'इति' इत्यारभ्य तवारीत्यर्थः' इति पर्यन्तमधिक दृश्यते ग-पुस्तके। ११ 'तुबेर'रोपम् । १२ ग--'राजश्चिदुपमेलापक०' । १३ ख .. भिवत्य (1) अत्यकामत्', घ-'भुवं अतिक्रामत्' । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराइये ng दुर्लभः । आमो राजाऽमूल्यं कङ्कणं ग्रहणके मुक्त्वा वेश्यागृहे उति आसीत् । सा तु 'लक्षणावती' पतेर्वारस्त्री । एकं कङ्कणं आमो राजद्वारे मुञ्चन्नगात् । अपराड़े राज्ञः पार्श्वाद् बप्पभट्टि - । सूरिभिर्मुत्कलापितम् — देव ! 'गोपगिरौ' आमपार्श्व यामः, अनुज्ञा दीयताम् । धर्मेण भणितम् — भवतामपि वाणी विघटते ? भवद्भिर्भणितमभूत् यदा तब दृष्टौ आमः समेत्यास्मानादयति तदा यामः, नार्वाक् ; तत् किं विस्मृतम् ? जिह्वे किं वो द्वे स्तः १ । आचार्या जगदुः -- श्रीधर्मदेव ! मम प्रतिज्ञा पूर्णा । राजाऽऽह — कथम् ? । सूरिर्वदति-- 'आमराजोऽत्र स्वयमागतस्तव दृष्टौ ? | राजाऽऽह -- कथं ज्ञायते ? | सूरिः यदा भवद्भिः १ पृष्टं भवतां स्वामी कीदृशः विशिष्टैस्तदा भणितम् - स्थगिकाधररूपः, तथा, ' बीजउरा ' शब्दोऽपि विमृश्यताम् । ' दोरों 'शब्दोऽपि यो मयोक्तोऽभूत् । तस्मात् प्रतिज्ञा पूर्णा मे । अत्रान्तरे केनापि राजद्वाराद् आमकङ्कणं धर्मनृपहस्ते दत्तं आमनामाङ्कितम् । द्वितीयं वैश्यया दत्तम् । तद् दृष्ट्वा नष्टसर्वख १५ स्तद्धन इव धर्मः शुशोच - धिग् मां यन्मया शत्रुः खगृहमायातो नार्चितः न च साधितः । धर्मेण मुत्कलिताः सूरयः पुरः कापि स्थितेनामेन सह जग्मुः । मार्गे गच्छता आमेन पुछिन्द एको जलाशयमध्ये जलं छगलवन्मुखेन पिबन् दृष्टः । आमराजेन सूरीणाम एत्योक्तम्--- २० * पसु जेम पुलिंद पर पियइ "पंथिअ कवणिण कारणिण ! सूरिभिरभाणि - कर वे वि करंबिय कज्जलिणमुद्वह अंसुनिवारणिण ॥ १॥ १ ग 'आमो राजाऽत्र । २ ' दो शब्दोऽपि विमृश्यताम्' इत्यधिकः ख- पाठः । ३ ग --' नृपधर्महस्ते ' । ● छापा - पशुरिव पुलिन्दः पयः पिबति पथिकः केनापि कारणेण । ५ ग - 'पंथिय । ६ छाया---- करौ द्वावपि करम्बितौ कज्जलेन उद्वहृदश्रुनिवारयतः । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 go ५ चतुर्विंशति प्रवन्धे [९] श्रीमट्टिसूरि । राज्ञा प्रत्ययार्थं स समाकार्य पृष्टः । तेनोक्तम्- सत्यं सूविचः । हस्तौ दर्शितौ । राजा तेन वाक्संवादेन प्रीतः । 'अज्ज विसा परितप्पर' इत्यादि तदुक्तं सर्वे सारस्वतविलसितमिति निरवैषीत् । शीघ्र शीघ्रं 'गोपाल गिरिं गतः । पताकातोरणमञ्चप्रतिमञ्चादिमहास्तत्रासुः । दिवसाः कल्यप्यतिक्रान्ताः । ततः श्रीसिद्धसेन सूरयो वार्धकेन पीडिता अनशनं ग्रहीतुकामाः श्रीवप्पभट्टिसूरीणामाकारणाय गीतार्थमुनियुगलं प्रैषिषुः । ते तद् गुरोर्लेख मदीदृशन् । तत्र लिखितं यथा - अध्यापितोऽसि पदवीमधिरोपितोऽसि तत् किञ्चनापि कुरु वत्स! बप्पभट्टे ! | प्रायोपवेशनरथे विनिवेश्य येन ३ सम्प्रेषयस्यमरधाम नितान्तमस्मान् ||१|| ' - तद् दृष्ट्वा आमभूपतिमापृच्छय ' मोढेरक' पुरं ब्रह्मशान्तिस्थापितवीर जिन महोत्सवाढ्यं प्रापुस्ते । गुरून् वर्षान्दिरे । गुरवोऽपि १५ सान् बाढमालियालापिषुः । वत्स! गामुत्कण्ठितमस्माकं हृदयम् । मुखकमलकमपि ते विस्मृतम् । राजानुगमनं तेऽस्माकं दुःखायासीत् । कारय साधनाम् । अनृणो भव । ततोऽन्त्याराधना-चतुःशरणगमन - दुष्कृतगर्हा-सुकृतानुमोदन - तीर्थमालावन्दनादिका विधिमां विधापिता । गुरवो देवलोकललनानयन त्रिभाणपात्रत्व२० मानञ्चुः । शोक उच्छलितः । ततो बप्पभट्टिः श्रीमद्गोविन्दसूरये श्रीमन्नसूरये च गच्छमारं समर्प्य श्री आमपार्श्वमागतः । पूर्ववत् समस्या दिगोष्ठ्यः स्फुरन्ति । एकदा सूरिर्नृपसभायां चिरं पुस्तकाक्षरदत्तदृक् तस्थौ । तत्रैका नर्तकी नृत्यन्ती आसीद् रूपदासीकृताप्सराः । सूरिर्हग्नी लिन२५ वारणाय तस्याः शुकपिच्छनीलवर्णायां नीलकञ्चुलिकायां दृशं १ स्व 'प्रैषिष्ट' । २ क- 'अध्यापिताऽपि । ३ वसन्त० १ ४ ग - आगमन् । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] taraकोशेत्यपराये निवेशयामास । आमस्तद् दृष्ट्वा मनसि पपाठ - 'सिद्धततत्तपारं - गयाण जोगीण जोगजुत्ताणं । जह ताणं पि मयच्छी, मणंमि ता तच्चिय प्रमाणं ॥ १॥ आमो रात्रौ पुंवेषां तां नर्तकीं सूरिवसतौ प्रेषात् । तया सूरीणां विश्रामणाऽऽरब्धा । करस्पर्शेन ज्ञाता युवतिः सूरिणाऽभि - ५ हिता सा - का त्वम् ? । कस्मादिहागताः । अस्मासु ब्रह्मव्रतनिषिडेषु वराकि ! भवत्याः कोऽवकाशः ? । वास्याभिर्म चलति काञ्चनाचलः । तयोक्तम्- भवद्भ्य उपदेष्टुमागता राज्ये सारं वसुधा, वसुधायामपि पुरं पुरे सौधम् । सौधे तपं तल्पे, वैराङ्गनाऽनङ्गसर्वस्वम् ॥ १॥" इति । किश्व - प्रियदर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः ? | प्राप्यते येन निर्वाण, सरागेणापि चेतसा ॥२॥ E ७१ ३ आर्या । 'बराको' । श्री आमेन प्रेषिताऽहं प्राणवल्लभा भवतां शुश्रूषार्थम् । ततः सूरिशको वदति स्म - अस्माकं ज्ञानदृक्प्रपातदृष्टद्रष्टव्यानां नैव १५ व्यामोहाय प्रगल्भसे । १ घ 'स्तथा । २ छाया - सिद्धान्ततत्वपारङ्गतानां योगिनां योगयुक्तानाम् । यदि तेषामपि मृगाक्षी मनसि तर्हि तदेव प्रमाणम् ॥ ख- वराङ्गनाम सर्व० । ५ आर्या । ६-७ अनुष्टुप् । द १० मलमूत्रादिपात्रेषु, गात्रेषु मृगचक्षुषाम् । रतिं करोति को नाम, सुचगृहेष्विव ॥ १॥ साऽपि निर्मिकारं सूरिवरं निश्चित्य ध्वनच्चेताः प्रातर्नृपतिसमीपं गता । पृच्छते राज्ञे रात्रीयः सूरिवृतान्तः सम्यकू कथित. २० स्तया - पाषाणघटित इव तव गुरुः; नवनीतपिण्डमय ः शेषो लोकः ः । यावन्तः कूप्रपचा हावभाव - कटाक्ष भुजाक्षेप - चुम्बन Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रवन्धे [९] श्रीवष्यमहिंसूरि 'नख-दन्तक्षतादिविष्ठासारले सर्वे आजन्मशिक्षितास्तत्र प्रयुक्ताः । पुनस्तिलतुषत्रिभागमात्रमपि मनोऽस्य नाचालीत् । अनुराग बलात्कारपूत्कार - भीदर्शन - हन्यादानादिविभीषिकाभिरपि नाक्षुभत् । तदेष मन्ये महात्रजमयो न देवकन्याभिर्न विद्याधरीभिर्न नागाङ्गनाभि५ चाल्यते; मानुषीणां तु का कथा । अस्मिन् सूरेर्धर्मस्थैर्ये श्रुते नृपो विस्मयानन्दाभ्यां कन्दम्बमुकुलस्थूलरोमाञ्चकञ्चुकितगात्रः संवृत्तः । दध्यौ च गुरुं ध्यानप्रत्यक्षं कृत्वा -- 3 न्युञ्छने यामि वाक्यानां दृशोर्याम्यवतारणे । बलिः क्रियेऽहं सौहार्द - हृद्याय हृदयाय ते ॥१॥ १० प्रातर्गुरवः समागुः । राजा हीणो न वदति किञ्चित् । सूरिभि - भणितम् - राजन् ! मा लज्जिष्ठा; महर्षीणां दूषणभूषणान्वेषणं राज्ञा कार्यम्, न दोषः । राज्ञेोक्तम्- अलमतीतवृत्तान्तचर्चया । एतदहमुसम्मितभुजो ब्रुवे युष्मान् ब्रह्मघनानवलोक्य धन्यास्त एव यतलोचनानां १५ तारुण्यदर्पधनपीनपयोधराणाम् । क्षामोदरो परिलसत्रिवली लतानां दृष्ट्वाऽकृति विकृतिमेति मनो न येषाम् ॥ १ ॥ इत्युक्त्वा दण्डप्रणामेन प्रणनाम श्रीआमः । अन्येद्यू राजा राजपथेन सँश्वरमाणो हालिकप्रियां एरण्डबृहत्पत्र२० संवृतस्तनविस्तरां एरण्डपत्राणि विचिन्वानां गृहपाश्चात्यभागे दृष्ट्वा गाथार्द्ध योजितवान्- 'व ( त ?) ३ वि वरनिग्गयदलो एरंडो सोहइ व्व तरुणाणं । 2 १ ख- 'नखर दन्ताक्षता • । २ क- 'क्रयेऽहं' । अनुष्टुप् । खणो' । ५ क- 'तरलायत०' | ६ वसन्त० । ७ग 'सन्तरमाणो' । ८ छाया - तथापि वरनिर्गतवल एरण्डः शोभत एव तरूणाए । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धक शेत्यपराह्नये तत् तु सूरीणां पुरः समस्यात्वेन समर्पितवान् । सूरय ऊचु:--- 'इत्थ घरे इलियडू ईंद्दह मित्तत्थणी वैसइ ॥ १ ॥ राजा विस्मितः । अहो सारं सारस्वतम् ! | अन्यदा सायं प्रोषितभर्तृकां वासभवनं यान्तीं वक्रग्रीवां दीपकरां ददर्श । गाथार्द्ध चोच्चैः सूर्यग्रे पपाठ -- 'दिउझ करगीवा- -इ दीवओ पहियजायाए । सूरिगीथा पूर्वार्द्धमुवाच ---- पियसंभरणपलुट्टे - तअंसुधारानिवाय भीयाए ॥ १ ॥ इति । सूरि-भूपौ सुखेन कालं गमयतो धर्मपरौ । अन्यदा धर्मनृपेण आमनृपस्य पार्श्वे दूतः प्रहितः । एत्या. १० वोच्चत् — राजन् ! तब त्रिचक्षणतया धर्मनृपः सन्तुष्टः । पुनः स आह— भवद्भिर्वयं छलिताः । यतो भवद्भ्यो गृहमागतेभ्यो नास्माभिर्महानल्पोऽपि कोऽपि सत्कारः कृतः । अधुना शृणु -- अस्मद्राज्ये वर्धनकुञ्जरो नाम महावादी बौद्धदर्शनी विदेशादागतोऽस्ति । स वादं जिघृक्षुः । यः कोऽपि वो राज्ये वादी भवति १५ स आनीयताम् । अस्माकं भवद्भिः सह चिरन्तनं वैरम् । यः कोऽपि वादी विजयी भविष्यति तत्प्रभुरपरस्य राज्यं ग्रहिष्यति । मम वादिना यदा जितं तदा त्वदीयं राज्यं मया ग्राह्यम् । यदा तव वादिना जितं तदा मदीयं राज्यं त्वया ग्राह्यम् । अयं पणः । वाग्युद्धमेवास्तु । किं मानवकदर्थनेन । आमेनोक्तम्- - दूत ! २० त्वया यदुक्तं तद् धर्मेण कथापितमथवा त्वया स्वतुण्डकण्डूतिमात्रे १ छाया - अत्र गृहे हालिकषधूरे तावन्मात्रस्तना वसति । २ घ - 'इद्दहमिहळणी' । ३ ग 'अस्थि' । ४ आर्या । ५ ख - 'भुवनं ' | ६-७ छाया--- दृश्यते वक्रप्रीवया दीपकः पथिकजायया । प्रियस्मरण प्रलुठदश्रुधाराभिपात भीत्या ॥ ८ आर्या । ९ ख - 'यदि' | चतुर्विंशति ० ० १० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंतिप्रबन्धे [९ श्रीबप्पभट्टिसरिणोक्तम् ?। यदि तब प्रभुः सप्ताङ्गं राज्यं वादे जिते समर्पयिष्यति मै इति सत्यं तदा वयं वादिनमादायागच्छामः । दूतेनोक्तम्कारणवशाद् युधिष्ठिरेणापि 'द्रोण' पर्वण्यसत्यं भाषितम् ; मत्प्रभुस्तु कारणेऽपि न मिथ्या भाषते । आमेन दूतः प्रैषि । उक्तदिनोपरि चं बप्पभाट्टि गृहीत्वाऽर्द्धपथे उक्तस्थाने आमोऽगमत् । धर्मभूपतिरपि वर्धनकुञ्जरं वादीन्द्रमादाय तेत्राजगाम । 'परमार'वश्यं नरेन्द्रं महाकवि वाक्पतिनामानं स्वसेवकं सहादाय "समाययो । उचितप्रदेशे आवासान् दापयामास । तो वादि-प्रतिवादिनौ पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहेण वादमारेभेते । सभ्याः कौतुकाक्षिप्ताः पश्यन्ति । द्वावग्यसामान्यप्रतिभौ । वादे षण्मासा गताः । द्वयोः कोऽपि न हारयति, न जयति ! आमेन सूरयः प्रोक्ताः सायम्-- राजकार्याणां प्रत्यूहः स्यात्, निर्जीयतामसौ शीघ्रम् । सृरिणा भणितम्- प्रातर्निग्रहीष्यामि, मा स्म वो भ्रान्तिर्भूयात् । रात्रौ सूरीश्वरेण मन्त्रशक्त्या मण्डले हाराहारमणिकुण्डल१५ मण्डिताङ्गी दिव्याऽङ्गरागवसना दिव्यकुसुमपरिमल बासितभुवनोदरा भगवती भारती साक्षादानीता । चतुर्दशभिः काव्यैः सद्यस्कैदिव्यैः स्तुता । देव्योक्तम्--वत्स ! केन कारणेन स्मृता ? । सूरिवीरेण भणितम्--पण्मासा वादे लग्नाः; तथा कुरु यथा मादे निरुत्तरीभवति सः । देव्या गदितम्---वत्स ! अहमनेन २० प्राक् सप्तभवानाराधिता । मयाऽत्र भवेऽस्मै अक्षयवचना गुटिका दत्ताऽस्ति । तत्प्रभावाच्चक्रिनिधिधनमिव नास्य वचो हीयते । सूरिणोक्तम्-~-त्वं देवि ! किं जैनशासनविरोधिनी येन मे जयश्रियं न दत्से ? । भारती ऊचे-वत्स ! जयोपायं ब्रुवे, त्वया वादारम्भे प्रातः सर्वे बदनशौचं काराप्याः पार्षद्याः । गण्डूषं . -...---- ---...- --.-.. --....-. -- , “स्वाम्य-अमात्य-सुहृत् कोश-राष्ट्र-दुर्ग-बलानि च" इत्यमरकोशे। २ ग'गच्छाम इति'। ३ क-'भा च'। 'घ'आमो [अन]गतः'। ५ घ-तत्र जगाम'। ६ स्त्र- वंश'। ७ क--ख-घ--'समानिन्ये । ८ घ-'प्रभाते नि०। ९ घ-'लुलितभुव । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये कुर्वतस्तस्य नदनाद् गुटिका ममेच्छया पतिष्यति तदा त्वया जेष्यते, एकं तु याचे---मत्स्तुतेश्चतुर्दशकाव्यं कस्याप्यने न प्रकाश्यम् । तत्पठने हि मया धुवं ध्रुवं प्रत्यक्षया भाव्यम् । कियतां प्रत्यक्षा भवामि ? । क्लेशेनालम् । एवमुक्त्वा देवी विद्युज्झा कारलीलयाऽन्तर्दधे । सारीभिर्निशि परमाप्तः शिष्य एको वाक्- ५ पतिराजसमीपं प्रहित्याख्यापितम्, यथा सूरयो वदन्ति--राजन् ! त्वं विद्यानिधिरस्माकं 'लक्षणावती'पुरीपारचितचरः । तदाऽवादी:-भगवन् ! निरीहा भवन्तः, को भवद्भ्यो भक्तिं दर्शयामि ? ।” तदा वयमबोचाम----अवसरे कामपि भक्ति कारयिध्यामः । भवद्भिर्भगितम्-तथाऽस्तु । इदानीं सोऽवसरोऽत्र १० समायातः । वाक्पतिना शिष्यः पृष्टः --- सूरयः किं मे समादिशन्ति ? आदिष्टं कुर्वे ध्रुवम् । शिष्यो न्यवेदयत्-~राजन् ! गुरव आदिशन्ति---प्रातधर्मा-ऽऽमयोः सदःस्थयोः सतोस्त्वया वाच्यं यथा बदनशौचं विना भारती न प्रसीदति । तस्माद् वादिप्रतिवादिसभ्यसभेशाः सर्वे शौचं कुर्वन्तु । एतावति कृते १५ भवता नः सर्वः स्नेहः कृत एव । वामतिना तदङ्गीकृतम् । शिष्येणोपगुरु गत्वा तत् तत्प्रतिज्ञातं कथितम् । तुष्टा गुरवः । प्रत्यूषे उदयति भगवति गभस्तिमालिनि लाक्षालिप्त इध प्राचौमुखे राजानौ सभायामागाताम् । वाक्पतिना बदनशौचं सर्वे कारिताः, बौद्धवादीन्द्रोऽपि । तस्य वदनकमलाद् विगलिता गुटिका पसद्- २० ग्रहे । बप्पभट्टिशिष्यैः पतग्रहो जनैदूरे कारापितः । गुटिका सूरीन्द्रसाजाता । बौद्धो गुटिकाहीनः सूरिणा पार्थेन कर्ण इव दिव्यशक्तिमुक्तो निःशङ्क वाक्पृषत्कर्हतः । निरुत्तरीकृतः राहुग्रस्तश्चन्द्र इव हिमानीविलुप्तस्तरुखण्ड इत्र बाढं निस्तेजतां भेजे । तदा श्रीवप्पभट्टनिर्विवादं वादिकुञ्जरकोसरीति बिरुदं स्वैः परैश्च २५ -- --. ३ ख-'कारापयिष्यामः' । १ ग-'ध्रुवं प्रत्यक्षः'। २ ख- रस्मान्' । ४ का-'आदिशन्तु' । ५ घ--'सभ्येशाः' । ६ सूर्ये । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [९ औषप्पमहिपूरिदत्तम् । धर्मेण सप्ताङ्गं राज्यं आमाय दत्तम् । लाहीदम् । धर्माद्धि राज्यं लभ्यते । काऽत्र चर्चा ? । आमेन गृहीतम् । तदा सूरिणा आमः प्रोक्त:--राजन् ! पुना राज्यं धर्माय देहि । महादानमिदम् । शोभते च ते । राजस्थापनाचार्याश्च पारम्पर्येण यूयम् । पूर्व श्रीरामेण वनस्थेनापि सुग्रीव-विभीषणौ राजीकृतौ । त्वमप्येवं युगीननृपेषु तत्तुल्यः । एतद्वचनसमकालमेव आमेन गाम्भीर्यौदार्यधाम्ना धर्माय तद्राज्यं प्रत्यर्प्य स धर्मः परिधापितः । स्वे मत्ताः करिणः शतं, सहस्रं तुङ्गास्तु रङ्गाः, सहस्रं सवरूथा रैथाः, शतं वादिवाणि प्रादायिषत । स्वं स्वं स्थानं गताः सर्वे । १० सरि-भूपौ यशोधवलितसप्तभुवनौ 'गोपगिरौ' श्रीमहावीरमवन्दिषा ताम् । तदा सूरिकृतं श्रीवीरस्य स्तवनम्- "शान्तो वेषः शमसुखफला" इत्यादि काव्यैकादशकमयमद्यापि सछे पठ्यते । सझेन प्रभुर्ववन्दे । तुष्टुत्रे च रवेरेवोदयः श्लाघ्यः कोऽन्येषामुदयग्रहः ? । १५ न तमांसि न तेजांसि, यस्मिन्नभ्युदिते सति ॥ १ ॥ अन्यदा स्वपरसमयसूक्तैः प्रबोध्य राजा प्रभुभिर्मद्यमांसादिसप्तव्यसननियम कारितः । सम्यक्त्वमूलैकादशवतनिरतश्च श्राक्कः कृतः । द्वादशं व्रतं त्वतिथिसंविभागरूपं प्रथमचरमजिननृपाणां निषिद्धं सिद्धान्ते। १ग.. 'तुल्यः'। २ क-'प्रत्यापि'। ३ घ-वधाः'। ४ घ-"नभ्युदये सति'। ५ अनुष्टुप् । " द्यूतं मांसं तुरा वेश्या, पाश्विोरिका तथा । परस्त्रीगमनं चेति, सप्तव व्यसनानि हि ॥४॥" इति श्रीसोमप्रभसूरिसूत्रिते सप्तव्यसनकथासमुच्चये। ७क-'प्राहितः । ८ स्थूलप्राणातिपातविरमण-स्थूल-मृषावादविरमण-स्थूलादत्तादानविरमण-परबारगममधिरमण-स्थूलपरिप्रहविरमण-दिग्वत-भोगोपभोगविरमणामर्थदण्डविरमण-सामायिक-देशाषकाशिक-पोषधेसिवतैकादशकम् । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R प्रबन्धः] प्रबन्धकोशेल्यपराये एकदा 'लक्षणावत्यां' बौद्धो वर्धनकुञ्जरो धर्मनृपमाह सगद्गदम्- अहं बप्पभट्टिना जितस्तन्मे न दूषणम् । बप्पभट्टिर्हि भारती नररूपा, प्रज्ञामयः पिण्डः, गीपुत्रः , न च दुनोति । एतत् तु दुनोति यत् तव भृत्येनापि वापतिराजेन सूरिकृतभेदान्मम मुखशौचोपायेन गुटी हारयामहे । एतावदभिधाय स ५ तारं तारं रुरेद । स निवारितः क्षमापेन रोदनात् । उक्तश्च-किं क्रियते ! । अयं नश्चिरसेवकोऽनेकसमराङ्गणलब्धजयप्रतिष्ठः प्रबन्धकविः पराभवितुं न रोचते । क्षमस्वेदमस्यागः । ततो बौद्धो जोप स्थितः । अपरेयुर्यशोधर्मनाम्ना समीपदेशस्थेन बलवता भूपेन 'लक्षणायनी'मेत्य रणे धर्मनृपो व्यापादितः । १० राज्यं जगृहे । वाक्पतिरपि बन्दीकृतः। तेन कारास्थेन 'गौडवध'सञ्ज्ञकं प्राकृतं महाकाव्यं रचयित्वा यशोधर्माय राजेन्द्राय दर्शितम् । तेन गुणविशेषविदा ससत्कारं बन्देर्मुक्तः क्षभितश्च । "विद्वान् सर्वत्र पूज्यते” । ततो वापतिर्बप्पभट्टेः समीपं गतः । द्वयोस्तयोमैत्री पूर्वमप्यासीत् , तदानी विशेषतोऽवृधत् । १५ तेन वाक्पतिना 'महामहविजयाख्यं प्राकृतं महाकाव्यं बद्धम् । आमाय दर्शितम् । आमो हेमटङ्ककलक्ष्यमस्मै व्यशिश्नणत् । कियती पञ्च सहस्री, कियती लक्ष्या च कोटिरपि ? । औदार्यान्नतमनसा, रत्नवती वसुमती कियती ? ॥ १॥ अपरेयुः प्रभुः श्रीआमेन पृष्टः- भगवन् ! यूथं तावत् तपसा २० विद्यया च लोके लब्धपरमरेखाः । किमन्यः कोऽपि क्याप्यस्ते यो भवत्तुलालेशमवाप्नोति ? । बम भट्टिरमाणीत-अवनिपते! मम गुरुवान्धवौ गोविन्दाचार्य-ननसूरी सर्वैर्गुणैर्मदधिको 'गूर्जर'धरायां 'मोढेरक' पुरे स्तः । गुणोत्कण्ठयाऽमितसैन्य आमस्तत्र गतः । १ ख. 'इसरेधु०' । २ ग-'राझे' । ३ घ-महमहर्वि' । पथमागतम् । ५ आर्या । म चेदं मे दृष्टि. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [ ९ श्रीबप्पमट्टिसूरि. तदा ननसूरिाख्यानेऽवसरायातान् वात्स्यायनोक्तान् कामाङ्गभावान् पल्लवयन्नासीत् । राज्ञा श्रुतं तत् सर्वम् । अरुचिरुत्पन्ना । अहो वयं कामिनोऽपि नैतान् भावान् विद्मः; अयं तु वेत्ति सम्यक्; तस्मादवश्यं नित्यं योषित्सङ्गी, किमस्य प्रणामेन ? । इत्यकृतनतिरेवोत्थायाशु 'गोपगिरि मागात् । चिराद् दृष्टः क्षमाप इति रणरणकाक्रान्तस्वान्ताः प्रभवो वन्दापयितुमैयरुः । राजा निरादरो न वन्दते तथा । एवं दिनानि कतिपयानि गतानि । एकदा गुरुभिः पप्रच्छे- राजन्! यथा पुरा भक्तोऽभूस्तथेदानी भक्तो नासि । किमस्माकं दोषः कोपि ? । राजा स्माह-सूरिवर ! १० भवादृशा अपि कुपात्रश्लाघां कुर्वते, किमुच्यते ? । सूरिभिरूच कथम् ? । आमः प्राह-यो भवद्भिः त्वौ गुरुबान्धवा स्तुतौ तत्र गत्या एको ननसूरिनामा दृष्टः शृङ्गारकथाव्याख्यानलम्पटस्तपोहीनो लोहतरण्डतुल्यो मज्जति मज्जयति च भवाम्बुधौ । तस्मान्न किञ्चिदेतत् । सूरयो मसिमालनवदनाः स्ववसतिमगुः । तत्रोप१५ विश्य द्वौ साधू 'मोढेरक'पुरं प्रहितौ । तत्पार्थात् तत्र कथापितम् आमोऽकृतप्रणामो भवत्पा दागतः । एवमेवं युवां निन्दति । तत् कर्तव्यं येनासौ भवत्स्यन्येष्वपि श्रमणेषु अवज्ञावान् न भवति । सर्वं तत्रत्यं ज्ञात्वा तौ द्वावपि गुटिकया वर्णस्वरपरावर्त कृत्वा नटवेषधरौ 'गोपांगरि'मीयतुः । श्रीवृषभध्वजचरित्रं नाटकत्वेन २० बबन्धतुः । नटान् शिक्षयामासतुः । आमराजमवसरं यया चतुः । राज्ञाऽवसरो दत्तः । मिलिताः सामाजिकाः तत्तद्रसभावज्ञाः । ताभ्यां नाटकं दर्शयितुमारेभे । भरत-बाहुबलिसमावसरोऽभिनीयते । यदा व्यूहरचना-शस्त्ररणरणत्कारवारवर्णना-भट्टकोला हलाश्चोत्थापनघर्धरिका-झणझणत्कारादि ताभ्यां वर्णयितुमारब्धम्, २५ धारारूढश्च रसोऽवातारीत् तदा श्रआिमस्तद्भटाश्च 'कालिन्दी' १ ख-ख्यानावसरा.' । २ क-पप्रच्छते'। ३ ख--'सूरिरूच'। घ-'भवेत् । ५ इदं नाटकं न दृष्टं मया। ६ ग-शस्त्रझलत्कार' । . ख-'हलात्थापन' । ८ग-ऋणऋणत्कारादि । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेश्यपराह्वये ? प्रवाहश्यामदीर्घान सानाकृष्योत्थिता हैत हत इति भाषन्ते स्म । अत्रान्तरे नन्नसूर - गोविन्दाचार्यौ स्वरूपमुद्रे प्रकाश्याहतुःराजन् ! राजन् ! भटा ! भटाः ! शृणुत शृणुत केथायुधमिदम्, न तु साक्षात् । अलं सम्भ्रमेण । इत्युक्त्वा लज्जिता विस्मिताश्च ते राजाद्याः संवृस्याकारमस्थुः । तदा गोविन्दाचार्य- नन्नसूरिभ्यां भूपोऽभाणिकिल शुङ्गारानुभावनो वयमिति तं सम्यग् व्याख्यातुं विद्मः किमु समराजिरमपि भवद्वत्प्रविष्टाः स्मः कुरङ्गा इव शस्त्रे दृष्टेऽपि बिभिमः । आबाल्याद् गृहीतव्रताः पापभीरवः स्मः परं भारती प्रभावप्रभववचनशक्त्या रसान् सर्वान् जीवद्रूपानिव दर्शयामः । राजन् ! 'मोढेर के' यैस्ते वात्स्यायनभावा व्याख्यातास्ते वयं नन्नसूरय १० इमे च गोविन्दाचार्य: । भवतां तदा मृषा विकल्पः समजनि । राजा सद्यो ललजे । तौ सूरी क्षमयामास आनच बप्पभट्टि च । तौ कतिचिद् दिनानि उपराजं स्थित्वा बप्पभट्टेरनुज्ञया पुन 'मोंढेर 'पुरमगाताम् । गतः समयः कियानपि । अन्यदा गाथकवृन्दमागतम् । तन्मध्ये बालिका तेमालनीलो- १५ त्पललोचना मृगाङ्कमुखी किन्नरस्वरा विदुषी गायति । तां दृष्ट्वा मैदनशरज्वरजर्जरो गलितविवेको गतप्रायशौचधर्माभिनिवेश: 'कन्यकुब्जे 'शः पचद्वयं प्रभुप्रत्यक्षमपाठीत् वक्त्रं पूर्णशशी सुधाधरलता दन्ता मणिश्रेणयः कान्तिः श्रीर्गमनं गजः परिमलस्ते पारिजातद्रुमाः । वाणी कामदुघा कटाक्षलहरी सा कालकूटच्छटा तत् किं चन्द्रमुखि ! त्वदर्थममरैरामन्थि दुग्धोदधिः ॥ १ ॥ * जन्मस्थानं न खलु विमलं वर्णनीयो न वर्णो दूरे शोभा वपुषि निहिता पङ्कशङ्कां तनोति । २० १ घ- 'हनइनेति' । २ ग 'कचायुद्धमिदं' । ३ क- 'प्रतिष्ठाः' । ४ क-ख'निन्दा' । ५ ख - ध- 'सनालनीलो ०' । ६ ग 'मदनज्वर' । ७ शार्दूल० । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिमबन्धे विश्वप्राः सकलसुर मिर्दव्यदर्पापहारी नो जानीमः परिमलगुणः कस्तु कस्तूरिकायाः ॥२॥ सूरिभिश्विन्तितम् - अहो महतामपि कीदृग् मतिविपर्यासः । । reat are भूरिरन्ध्रविगलत्तत्तन्मलक्लेदिनी सा संस्कारशतैः क्षणार्धमधुरां बाह्यामुपैति द्युतिम् । अन्तस्तत्त्व रसोर्मिंघौतमतयोऽप्येतां नु कान्ताधिया श्लिष्यन्ति स्तुवते नमन्ति च पुरः कस्यात्र पूत्कुर्महे ? ॥३॥ ' उत्थिता सभा । त्रिभिर्दिनैर्भूपॆन पूर्बहिः सौधं कारितम्, मातङ्गीसहितोऽत्र वत्स्यामीति धिया । तदवगतं श्रीबप्पभट्टिसूरिभिः । १० ध्यानप्रत्यक्षं हि तेषां जगद्वृत्तम् । ततो माऽसौ नरकं यासीदिति कृपया तैर्निष्पाद्यमान सौधभारपट्टे निशि खटिकया बोधदानि पश्चानि लिखितानि । यथा ---- ८० शैत्यं नाम गुणस्तवैव तदनु स्वाभाविकी स्वच्छता किं ब्रूमः शुचितां भजन्त्य शुचयस्त्वत्सङ्गतोऽन्ये यतः । १५ " किञ्चातः परमस्ति ते स्तुतिपदं एवं जीवितं देहिनां त्वं चेन्नीचपथेन गच्छसि पयः ! कस्त्वां निरोद्धुं क्षमः ? || १ || सद्वृत्त सद्गुणमहार्ह महार्घकान्त २० कान्ताघनस्तनतटोचितचारुमूर्ते ! | [ ९ श्रीबप्पमट्टिसूरि आः पामरीकठिनकण्ठविलग्नभग्न ! हा हार ! हारितमहो भवता गुणित्वम् ॥२॥ 'जीयं जलबिंदु समं, संपत्तीओ तरंगलोलाओ । सुमिणयसमं च पिम्मं, जं जाणसि तं करिज्जासि ॥ ३ ॥ ९ १ घ - ' कायाम् ' । २ खग्धरा । ३ शार्दूल० । ४ घ - कारापितम् । ५ क - 'नरकमया०' । ६ ग - ' किंवाऽतः ' । ७ शार्दूल० । ८ वसन्त० । ९ छाया - जीवितं जलबिन्दुसमं सम्पत्तयस्तरङ्गलोलाः । स्वमसमं च प्रेम यज्जानासि तत् कुर्याः । १० आर्या । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्नये लेज्जिज्जइ जेण जणे, मइलिज्जइ निअकुलकमो जेण । कंठडिए वि जीए, तं न कुलीणेहिं कायव्वं ॥ ४ ॥ * - 1 प्रातरमूनि पद्यानि स्वयमामो ददर्श । वर्णान् कवित्वगतिं च उपलक्षयामास । अह्नो गुरूणां मयि कृपा ! | अहोतमां मम पापाभिमुखता इति ललज्जे । दध्यौ च साङ्कल्पिकमिदं जैनङ्गमीसङ्ग- ५ मपापं मयाssचरितम् । भारितोऽहं क्क यामि ? किं करोमि ? कथं गुरोर्मुखं दर्शयामि ? किं तपः समाचरामि ? किं तीर्थ सेवे ? । ऊर्ध्व मुखं गृहीत्वा गच्छामि ? । कूपे पतामि ? | शस्त्रेणात्मानं घातयामि ? । अथवा ज्ञातम् - सर्वजनसमक्षं पापमुद्गीर्य काष्ठानि भक्षयामि । एवं लवलायमानोऽनुचरानादिदेश- अमिं प्रगुणयत । प्रगुणितस्तै १० रग्निः । समागताः श्रीवप्पभट्टिसूरयः । मेलितं चातुर्वर्ण्यम् । उक्तं तदघम् । यावत् सहसा कृशानुं प्रवेक्ष्यति आमस्तावत् सूरिभिर्बाही धृत्वोक्तः राजन् ! शुद्धोऽसि । मा स्म खिद्यथाः । त्वया हि सङ्कल्पमात्रेण तत् पापं कृतं, न साक्षात् ; सङ्कल्पेनाग्निमपि प्रविष्टोऽसि । चिरं धर्मं कुरु । १५ ७ मनसा मानसं कर्म, वचसा वाचिकं तथा । कायेन कायिकं कर्म निस्तरन्ति मनीषिणः ॥ १ ॥ इति वचनाद् विसृष्टोऽग्निः । जीवितो राजा । तुष्टो लोकः । प्रीतः सूरिः । समयान्तरे वाक्पतिराजो 'मथुरा' ययौ । तत्र श्रीपादस्त्रि- २० दण्डी जज्ञे सः । तल्लोकादवगम्य आमः सूरीन् बभाषे - भवद्भिरहमपि श्रावकः कृतः । दिव्या वाणी वः प्रसन्नैव । जानामि वः शक्तिपर मरेखा यदि वाक्पतिमप्याहृतदीक्षां ग्राहयथ । आचार्येन्द्रैः १ छाया--- लज्ज्यते येन जने मलिनीक्रियते निजकुलक्रमो येन । कण्ठस्थितेऽपि जीवे तत् न कुलीनैः कर्तव्यम् ॥ २ आर्या । ३ चाण्डाली० । ४ 'टळवळतो' इति भाषायाम् । ५ ग - 'सहसाऽभि' । ६ अभिम् । ७ अनुष्टुप् । ८ ग- 'आचार्यैः' । चतुर्विंशति ११ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे ९ श्रीबप्पमट्टिसरिप्रतिज्ञा चक्रे- तदा विद्या मे प्रमाणं यदि वाक्पति स्वशिष्यं श्वेताम्बरं कुर्वे । वाक्पतिस्तु क्वास्ति इति उच्यताम् ? । राज्ञोक्तम्- 'मथुरा'यां विद्यते । सूरयो 'मथुरा'यां गता बहुभिः श्रीआमाप्सनरैः सह । 'वराहमन्दिरा'ख्ये प्रासादे ध्यानस्थं वाक्पतिं गत्वाऽद्राक्षुः । तत्पृष्ठस्थैः सूरिभिस्तारस्वरेण आशीर्वादाः पठितुमारब्धाःसन्ध्यां यत् प्रणिपत्य लोकपुरतो बद्धाञ्जलिर्याचसे धरसे यच्च परां विलज्ज ! शिरसा तच्चापि सोढं मया । श्रीर्जाताऽमृतमन्थनाद् यदि हरेः कस्माद् विषं भक्षितं ? मा स्त्रीलम्पट ! मा स्पृशेत्यभिहितो गौर्या हरः पातु वः ॥१॥ एकं ध्याननिमीलनान्मुकुलितं चक्षुर्द्वितीयं पुनः पार्वत्या विपुले नितम्बफलके शृङ्गारभारालसम् | अन्यद् दूरविकृष्टचापमदनक्रोधानलोद्दीपितं शम्भोभिन्नरसं समाधिसमये नेत्रत्रयं पातु वः ॥२॥ १५ रामो नाम बभूव हुं तदबला सीतेति हुं तां पितु र्वाचा 'पञ्चवटी'वने विचरतस्तस्याहरद् रावणः । निद्रार्थ जननीकथामिति हरेहुंङ्कारिणः शण्वतः पूर्वस्मर्तुरवन्तु कोपकुटिला भूभङ्गुरा दृष्टयः ॥३॥ उत्तिष्ठन्त्या रतान्ते भरमुरगपतौ पाणिनैकेन कृत्वा धृत्वा चान्येन वासो विगलितकबरीभारमंसे वहन्त्याः । सधस्तत्कायकान्तिद्विगुणितसुरतप्रीतिना सौ(शौ)रिणा व शय्यामालिङ्गय नीतं वपुरलसलसद्बाइ लक्ष्म्याः पुनातु ॥४॥ एवं बहु पेठे । अथ वाक्पतिर्ध्यानं विसृज्य सम्मुखीभूय सूरीनाह- हे बप्पमट्टिमिश्रा ! यूयं किमस्मत्पुरतः शृङ्गाररौद्राङ्गं २५ पद्यपाठं कुरुध्वे ? । बप्पभट्टयः प्राहुः-- भवन्तः साङ्ख्याः । १ ग-'नदी'। २ घ--'मन्थने' । ३ माम् । ४६ शार्दूल । " ग--सुरते प्रीतिना.' : विष्णुना । ९ स्रग्धरा । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये साङ्ख्या निरीश्वराः केचित् केचिदीश्वर देवताः । सर्वेषामपि तेषां स्यात्, तत्त्वानां पञ्चविंशतिः ॥१॥ ' इति ज्ञात्या भवदमितदेवाशिषः पठन्तः स्मः । यथारुचि हि श्रोतुः पुरः पठनीयं समयज्ञैः । वाक्पतिराह यद्यप्येवं तथापि मुमुक्षवो वयमासन्ननिधनं ज्ञात्वा इह परब्रह्म ध्यातुमायाताः स्मः । बप्पभट्टयो जगदुः-- किं नर्दि रुद्रादयो मुक्तिदातारो न भवन्तीति मनुध्वे ? | वाक्पतिः प्राह एवं सम्भाव्यते । बप्प - भट्टयो बभाषिरे - तर्हि यो मुक्तिदानक्षमस्तं शृणु । पठामि । स जिन एव । "मैदेन मानेन मनोभवेन, क्रोधेन लोमैन ससम्मदेन । पराजितानां प्रसभं सुराणां वृथैव साम्राज्यरुजा परेषाम् ॥ १ ॥ "जं दिट्ठी करुणातरंगियपुडा एयस्स सोमं मुहं १५ आयारो मायरो परियरो संतो पसन्ना तणू | तं मन्ने जर जम्ममच्हरणो देवाहिदेवो 'जिणो देवा अवराण दीसह जओ नेयं सरूवं जए || २ || इत्यादि बहु पेठे | वाकूपतिः प्राह- स जिनः कारते ? | सूरि :- स्वरूपतो मुक्त, मूर्तितस्तु जिनायतने । वाक्पतिर्भूतेप्रभो ! दर्शय तम् । प्रभुरपि आमनरेन्द्रकारिते प्रासादे तं निनाय । स्वयं प्रतिष्ठितवरं श्रीपार्श्वनाथमदद्दिशत् । शान्तं कान्तं निरञ्जन रूपं दृष्ट्वा प्रबुद्धो भाण - अयं निरञ्जनो देव आकारेणैव लक्ष्यते । २० तदा बप्पभट्टिसूरिभिर्देवगुरुधर्मतत्त्वान्युक्तानि । रञ्जितः सः । मिथ्यात्ववेषमुत्सृज्य जैन ऋषिः श्वेताम्बरोऽभूत् । जिनमबन्दिष्ट अपाठीच्च प्रबन्धः । From ૮૨ १० १ अनुष्टुप् । २ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूविरविरचितायामयोगव्यवच्छेदिकाय पञ्चविंशतितमं पद्यमिदम् । ३ उपजातिः छायार्थिना प्रेक्ष्यतां पञ्चाशत्तमं पृष्ठम् । ५ ग ंघ- ‘इम ं । ६ शार्दूल० । ७ ख 'बभाषे ' । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ १० चतुर्विंशतिप्रबन्धे [९ श्रीवम्पभट्टिसूरि मैनाहिसुरहिए - णं इमिणा किंकरफलं णवाडेणं । इच्छामि अहं जिणवर !, पणाम किंण कलुसियं काउं ? ॥१॥ 'दो वि गिहि (ह) त्या धडड वच्चई, को किर कस्य विपत्त भणिज्जई ? | सारंभो सारंभं पुज्जइ,कद्दमुकदमेण किम (मु) सुज्ज ( झ ) इ ? ||२॥ * "अत्यासन्ने आयुषि ' मथुरा' चातुर्वर्ण्यस्य आमनृपसचिवलोकस्य च प्रत्यक्षं अष्टादशपापस्थानानि त्याजितः । नमस्कारं पञ्चपरमेष्ठिमयं श्रावितः । जीवेषु क्षामणां कारितो वाक्पतिः सुखेन त्यक्ततनुर्दिवमगमत् । तत् सर्वं प्रधानैरन्यैरपि प्रथमं ज्ञापितो नृपः । पश्चाद् बप्पभट्टि 'गिरिं गतः । राजा तुष्टस्तुष्टुवे सूरिशक्रम्आलोकवन्तः सन्त्येव, भूयांसो भास्करादयः । कलावानेव तु प्राव- द्रावकर्मणि कर्मठः ॥ १॥ एकदा राज्ञा सूरिः पृष्ट:- किं कारणं येनाहं ज्ञातजैन तत्वोऽपि अन्तराऽन्तरा तापसधर्मे रतिं बध्नामि ? | सूरिराह - प्रातर्वक्ष्यामः । प्रातरायाताः प्रोचुः -- राजन् ! अस्माभिर्भारतीवचसा तव प्राग्भवो १५ ज्ञातः । त्वं 'कालिञ्जर' गिरेस्तीरे शालनामा तपस्वी शालदुमाधोभागे युपवासान्तरितभोजनस्तपो बहूनि वर्षाण्यतपथाः । स मृत्वा त्वमुत्पन्नः । तस्यातिदीर्घा जेटास्तत्रैव लतान्तरिता अद्यापि सन्ति । तदाकर्ण्य आसनरास्तत्र राज्ञा प्रहिताः । तैर्जटा अनीताः । सूरिवाक्संवादो दृष्टः । भूपतिः सूरीणां पदोर्विलग्य तस्थौ । पर२० मार्हतो बभूव । १ ख- 'मयताए' सुर०', ग- 'मेयनाए' । २ छाया - मृगना मिसुरभितेनानेन किङ्करफलं ललाटेन । इच्छाम्यहं जिनवर ! प्रणामं किं कलुषितं कर्तुम् ? ॥ १ ३ छाया-- द्वावपि गृहस्थौ शीघ्रं शीघ्रं व्रजतः कः किल कस्य विपति भणेत् ? । सारम्भः सारम्भं पूजयति कर्दमः कर्दमेन किमु शुध्यति ? ॥ • एतच्छन्दोनाम नावगम्यते ५ घ 'प्रयास' । ३ ग 'भूप०' । ७ क ख - 'क्षमा' ८ अनुष्टुप् । ९ ग 'जटा तत्रैव' । १० ग अथाप्यस्ति । ११ ग' आनीता । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये अन्यदा सौधोपरितलस्थेन आमेन कापि गृहे भिक्षार्थ प्रविष्टो मुनिदृष्टः । तत्र युवतिरेका कामार्ता गृहागतं मुनि परब्रह्मैकचित्तं रिरमयिषुः कपाटसम्पुटं ददौ । मुनिर्नेच्छति ताम् । तया मुनये पादतलप्रहारे दीयमाने नपुरं मुनिवरचरणे प्रविष्ट 'काकतालीय' न्यायेन 'अन्धवर्तकी'न्यायाच्च । राजा तद् दृष्ट्वा सूरये ५ समस्यां ददौ-- कंत्राडमासज्ज वरंगणाए अब्भत्थिओ जुव्वणगम्वियाए । सूरिः प्राह-- 'न मन्नियं तेण जिइंदिएण सनेउरो पब्वइअस्स पाओ ॥१॥ अन्यदिने प्रोषितभर्तृकाया गृहे भिक्षुः कश्चिद् भिक्षार्थी प्र- १० विष्टः । राज्ञा सौधाग्रस्थेन दृष्टः । तया भिक्षोः पारणायानमानीतम् । उपरि काकैक्षितम् । मुनिकस्य दृष्टिस्तस्या नाभौ "स्थिता । तस्यास्तु दृष्टिस्तन्मुखकमले । आमः सूरये समस्यामापिपत् । यथा___ 'भिकूखयरो पिच्छइ नाभिमंडलं सा वि तस्स मुहकमलं । १५ सूरिराह----- 'दुहं पि कवालं चड़यं पि काया विलुपति ॥२॥" इति आमः श्रुत्वा चमत्कृतः । अहो सर्वज्ञपुत्रका एते! । अन्यदा कोऽपि चित्रकृद् भूपरूपं लिखित्वा उपभूपं गतः । बप्पभट्टिना श्लाधिता तत्कला । नृपात् तेन टङ्ककलक्षं लेभे । २० १ घ-'तम्। २ छाया-कपाटमासाथ वराङ्गनयाऽभ्यर्थितो यौवनगर्वितया । ३ ग-'अम्भुस्थिओं'। ४ छाया-न मतं तेन जितेन्द्रियेन सनपुरः प्रवजितस्य पादः ॥ ५ उपजातिः। ६ ग-'अन्यदा' । ७ ग-'पतिता'। ८-९ छाया–मिक्षाचरः पश्यति नाभिमण्डलं साऽपि तस्य मुखकमलम् । द्वयोरपि कपालं चाटकमपि काका विलुम्पयन्ति ।। १० आर्या । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिमवन्धे [९ श्रीवप्पभटिसूरिलेप्यमयबिम्बचतुष्टयं च कारितम्- एकं 'मथुरा'याम्, एकं 'मोढेरवसाहका' या मणहिल्लपुरे', एकं गोपगिरौ' एवं 'सतारकाक्ष'पुरे । तत्र तत्र प्रतिष्ठाः प्रभावनाश्च कारिताः । अन्यदपि बह्वकारि । ___अथ आमगृहे पुत्रो जातः सुलक्षणः । सोत्सवं तस्य दुन्दुक इति नाम प्रतिष्ठितम् । सोऽपि युवत्वे तैस्तैर्गुणैः पितृवत् पप्रथे । एकदा समुद्रसेनभूपाधिष्ठितं राजगिरि नामदुर्ग आमो रुरोध । अमितं सैन्यं कुद्दालादिसामग्री भैरवादयो यन्त्रभेदाः कल्पिताः । प्राकारोऽतिबलेन प्रपातयितुमारेभे । नापतत् । १० आमः खिन्नः । तेन सूरयः पृष्टाः- अयमभ्रंलिहः प्राकारः कदाऽस्माभिहिष्यते ? । सूरिभिर्बभाषे- तव पुत्रपुत्रो भोजनामाऽमुं प्राकारं दृक्पातमात्रेण पातयिष्यति, अन्यो नैव । आमस्त्यक्तारम्भः प्राकाराद् बहिादशाब्दीमस्थात् । ३७देशमात्मसान्चके । दुन्दकगृहे पुत्रो जातः । तस्य 'भोज'नाम ददे । सञ्जातमात्रः पर्यङ्किकान्यस्तो दुर्गद्वाराममानीतः प्रधानैः । तदृक्प्रपातमात्रेण प्राकारः खण्डशो विशीर्णः । समुद्रसेनभूपो धर्मद्वारे निःसृतः । आमो ‘राजगिरि मविक्षत् । प्रजाभारो न कृतः । अक्रूरा हि जैना महर्षयः राजर्षयश्च दयापरास्ते । रात्रौ आमाप 'राजगिर्य'धिष्ठात्रा भाणितम्-- राजन् ! यदि त्वमत्र स्थास्थसि तदा तव लोकं हनिष्यामि । आमः प्रत्यूचे- लोकेन हतेन किं ते फलम् ? । यदि हनिष्यसि तदा मामेव घातय । एतनिर्भयमामवचः श्रुत्वा तुष्टो व्यन्तर उवाच- प्रीतोऽस्मि ते सत्त्वेन, याचस्व किश्चित् । राज्ञोचे- न किमपि न्यून मे, केवलं कदा मे मृत्युः ब्रूहीदम् । व्यन्तर उवाच- षण्मासावशेषे आयुषि स्वयमेत्य वक्ष्यामि । २० ३ ग-सूरिभिर्वभण' । १ 'तारकाख्यपुरे'। २ क-ख-घ 'क्लप्ताः'। ४ ग-पातयिष्यते' | ५क-'धर्मद्वारेण' । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धा प्रबन्धकोशेत्यपराये षण्मासावशेषे आयुषि पुनरागतः सः । राज्ञोक्तम्- कियन्मे आयुरिति ? | व्यन्तरो वदति- देव ! 'गङ्गाऽन्त 'गिधे' तीर्थे, नावाऽवतरतः सतः । मकाराद्यक्षरग्रामोप--कण्ठे मृत्युरस्ति ते ॥१॥ षण्मासान्ते इति विद्याः । पानीयान्निर्गच्छन्तं धूमं यदा द्रक्ष्यसि ५ तदा मृत्युर्ज्ञातव्यः । साधना च कार्या पारलौकिकी । इति गदित्वा गतो देवजातीयः । राजा प्रातः सूरिपाचे गतः । सूरिरुवाचराजन् ! यद् व्यन्तरेण वोऽने कथितं आयुःप्रमाणं तत् तथैव । धर्मपाथेयं गृह्णीयाः । तदाकर्ण्य भूपस्तुतोष विसिष्मिये च । अहो ज्ञानम् ! अथवा विस्मय एव कः ? । सूरस्तेजस्वी, इन्दुराल्हादकः, १० 'गङ्गा'ऽम्भः पावनम् , जैना ज्ञानिन इति । दिनद्वये गते सूरिः श्रीआमस्य पुरः प्रसङ्गेन श्रीनेमिनाथस्याशीर्वादं पपाठ | यथा लावण्यामृतसारसारणिसमा सा ‘भोज'भूः स्नेहला ___ सा लक्ष्मीः स नवोद्गमस्तरुणिमा सा 'द्वारिका' तद् बलम् । ते गोविन्द-शिवा-समुद्रविजयप्रायाः प्रियाप्रेरकाः १५ यो जीवेषु कृपानिधिय॑धित नोद्वाहं स नेमिः श्रिये ॥२॥ ___भूयोऽपिमग्नैः कुटुम्बजम्बाले, यैमिथ्याकार्यजजेरैः । 'नोज्जयन्ते' नतो नेमि-स्ते चेन्जीवन्ति के मृताः ? ॥२॥ तथा 'रैवतक'तीर्थमहिमा सूरिभिर्व्याख्याय पल्लवितः । यथा २० भूमिमाहत्योत्थाय परिकरं बद्ध्वा सरभसं भूपः प्रतिशुश्राव-'रैवतके' नेमिमवन्दित्वा मया न भोक्तव्यमिति । लोकैर्निषिद्धःराजन् ! मा, मा; दूरे वितिको' गिरिः; मृदवो भवादृशाः । १ घ-'आयुः । २ क-'मगधे'। ३ अनुष्टुप् ! ४ ग-'आयुष्प्रमाणं'। ५ ख-प्रियाः प्रेरकाः । ६ शाईल. । ७ घ- 'काम' । ८ अनुष्टुप् । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [९ श्री भट्टसूरि राजाऽऽह- प्रतिज्ञातं मे न चलति । ततः सह सूरिणा आमो लक्षमेकं पृष्ठवाहा वृषभाः करभसहस्र २० हस्तिशत ७ अश्वलक्षमेकं पदातिलक्षत्रयं श्राद्धकुटुम्ब सहस्र २० सारसैन्यैर्द्वात्रिंशदुपवासैः 'रैवतका' याचालीत् । ' स्तम्भन 'तीर्थं यावद् गतः । तत्र ५ क्षुत्तापेन व्याकुलितोऽपि प्राणसन्देहं प्राप्तोऽपि नाहारमग्रहीत् / भीतो लोकः । खिन्नः सूरि : मन्त्रशक्त्या कूष्माण्डीदेवीं साक्षादानिनाय । तदग्रे कथयामास तत् कुरु येन राजा 'जेमति जीवति च । तद्वचनात् कूष्माण्डी बिम्बमेकं महच्छिरसा बिभ्रती गगनेन आमसविधं गता ऊचे च - वत्स ! साऽहमम्बिका । तव १० सत्त्वेन तुष्टा । गगने आगच्छन्तीं मां त्वं साक्षादद्राक्षीः । मयेदं I I 'रेवतै'कदेशभूतादवलेाकनाशिखरान्नेमिनाथबिम्बमानीतम् । इदं वन्दस्व । अस्मिन् वन्दिते मूलनेमिर्वन्दित एव । कुरु पारणकम् । सूरिभिरपि तत् समर्थितम् । लोकेनापि स्थापितम् । तद् वि वन्दित्वा राज्ञा ग्रासग्रहणं चक्रे । अद्यापि तद् बिम्बं ' स्तम्भ' तीर्थे १५ पूज्यते । 'उज्जयन्त' इति प्रसिद्धं तत् तीर्थम् । हृद्यातोद्यानि ध्यानयन्नामो 'विमलगिरौ' वृषभध्वजं सोत्सवं वन्दित्वा यावद् 'देवता' हिं गतः तावत् तत् तीर्थं दिगम्बरै रुद्धम्, श्वेताम्बरसङ्घः प्रवेष्टुं न लभते । आमेन तज्ज्ञातम् । ज्ञात्बोचे - युद्धं कृत्वा निषेद्धृन् हत्वा श्रीनेमि नंस्यामि । तावत् तत्र दिगम्बरभक्ता एकादश राजा२० नो मिलिताः । सर्वे युद्धैकतानाः । तदा बप्पभट्टिना भणित आम:- राजेन्द्र ! धर्मकार्ये पापारम्भः कथं क्रियते ! | लीलयैव तीर्थमिदमात्मसात्करिष्ये । भवद्भिः स्थिरैः स्थेयम् । एवं भूपं प्रबोध्य बप्पभडिरुपदिगम्बरमुपैतद्भक्तं भूपं च नरं प्राहिलाचभाणत् - इदं तीर्थं यस्याsम्बिका दत्ते तस्य पक्षस्य सत्कमिति मन्यध्वे । तैरुख-घ-'आमः सारसैन्ये रैवतक०' । २ 'जमे' इति भाषायाम् । ३ - 'तावता' ५ घ - 'हत्वा नेर्मि' । ६ घ 'राजन् ! ' । १ क ख - 'समर्पितम्' | ७ घ- 'तक्तभूपं ' । . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध प्रबन्धकोशेस्यपराह्वये क्तम्-युक्तमेतत् । ततो बप्पमट्टिना 'सुराष्ट्रा'वास्तव्यानां श्वेताम्बरीयाणां दिगम्बरयिाणां च श्रावकाणां शतशः कन्यकाः पञ्चसप्तवार्षिक्यो 'मेलिताः । मिलिताः सभ्याः । बप्पभट्टिना अम्बादेवीपाश्र्थात् कथापितम्– यदि सर्वाः 'श्वेताम्बरश्रावककन्यकाः"उजित'सेलसिहरे दिक्खा नाणं निस्सी(सी)हिया जस्स। ५ तं धम्मचक्कट्टि अरिट्टनेमि नमसामि "॥१॥ इति गाथा पठिष्यन्ति तदा श्वेताम्बरीयं तीर्थम्, पक्षान्तरे तु दिगम्बरीयं तीर्थमिति । तत आनीता मुग्धबालिकाः । सर्वाभिः श्वेताम्बरपक्षश्रावकबालिकाभिः पठिता सा गाथा । अपरासु तु नैकयाऽपि । ततो जातं श्वेताम्बरसाद् 'रैवत'तीर्थम् । अम्बिकया १० स्वःस्थया पुष्पवृष्टिः श्वेताम्बरेषु कृता । ततो नष्ट्वा दिक्पटा 'महाराष्ट्रा'दिदक्षिणदेशानगमन् । राज्ञाऽन्यैरपि सर्वसधैश्चिरात् तत्र मिलितैर्नेमिर्नेमे । वित्तं ददे । 'प्रभासे' चन्द्रप्रभः प्रणेमे । बन्दिमोक्षः सर्वत्रापि कारितः। आमस्य भुक्तौ 'गूर्जरा दिदेशास्तदा तीर्यानां चिरं पूजोपयोगिनो हटाया याः(:) प्रक्लृप्ताः । एवं कार्याणि १५ कृत्वा ससूरिनॅपो गोपगिरिं' प्राविशत् । सङ्घपूजादिमहास्तत्र नवनवाः । प्राप्तप्राये काले दुन्दुको राज्ये प्रतिष्ठितः । आपृष्टः सः । लोकोऽपि क्षमितः । अनृणो देशः कृतः । सह सूरिणा नावाऽऽरूढो 'गङ्गा'सरित्तीरे तीर्थ 'मागधं' मतः । तत्र जले धूमं दृष्टवान् । तदा सूरीन्द्रमक्षमयत् । संसारमसारं विदन् अनशनमगृह्णात् । २० समाधिस्थः श्रीविक्रमकालात् अष्टशतवर्षेषु नवत्यधिकेषु व्यतीतेषु भाद्रपदे शुक्लपञ्चम्यां पञ्च परमेष्ठिनः स्मरन् राजा दिवमध्यष्ठात् । सूरयस्तत्त्वज्ञा अपि रुरुदुः । चिरप्रीतिमोहो दुर्जय एव । सेव १ स्व--मिलिताः' । १ श्वेताम्बरकन्यकाः'। ३ छाया---'उछयन्त शैलशिखरे दक्षिा ज्ञानं निषेधिका यस्य । तं धर्मचक्रवर्तिनमरिष्टनेमि नमस्यामि ॥ १ आर्या। ५ ग-'नष्टा' ।६ ग-प्राप्तकाले । ७ घ--'गङ्गां सह तोरे'। चतुर्विशति ११ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [९ श्रीमट्टिसूरि कास्तु चक्रन्दुः- हा शरणागतरक्षा वज्रकुमार ! हा राजस्थापनदाशरथे ! हा अश्वदमननल ! हा सत्यवागुयुधिष्ठिर ! हा हेमदानकर्ण ! हा मज्जा जैनत्व श्रेणिक ! हा सूरिसेवासम्प्रते ! हा अनृणीकरणविक्रमादित्य ! हा वीरविद्यः शातवाहन ! अस्मान् विहाय क्व गतोऽसि । दर्शयैकदाऽस्मभ्यमात्मानम् । मैकाकिनो मुञ्च । एवं विलपन्तस्ते सूरिभिः प्रतिबोधिताः -- भो भो सस्यं । दैवेन पापेन । 'आलब्धा कामधेनुः सरसकिशलयश्चन्दनवर्णितो हा छिन्नो मन्दारशाखी फलकुसुमभृतः खण्डितः कल्पवृक्षः । १० दग्धः कर्पूरखण्डो घनहतिदलिता मेघमाणिक्यमाला भग्नः कुम्भः सुधायाः कमलकुवलयः केलिहोमः कृतोऽयम् ॥ १ ॥ १ तथापि मा शोचत मा शोचत, यतः - पूर्वाह्णे प्रतिबोध्य पङ्कजवनान्युत्सार्य नैशं तमः कृत्वा चन्द्रमसं प्रकाशरहितं निस्तेजस तेजसा । १५ मध्याह्ने सरितां जलं विसृतैरापीय दीप्तैः करैः सायाहे रविरस्तमेति विवशः किं नाम शोच्यं भवेत् ॥ १ ॥ * इति लोकं निःशोकं कृत्वा लोकेन सह सूरि'र्गोप गिरि' मगात् । सूरिभिर्दुन्दुको राजा आमेन आमशोकेन जात्यमुक्ताफलस्थूलानि अश्रूण्युद्गरन् हिमम्लानपदी नवदनश्चिन्ताचान्तस्वान्तो बभाषे -- २० राजन् ! कोऽयं महतस्तव पितृशोकः ? । स हि चतुर्वर्गं संसाध्य कृतकृत्यो बभूव । यशोमयेन देहेन चाचन्द्र जीवन्नेवास्ते । पुण्यलक्ष्मीः कीर्तिलक्ष्मीश्चेति द्वे नरस्योपकारिण्यौ बल्लभे । पुण्यलक्ष्म्याश्च कीर्तेश्च, विचारयत चारुताम् । स्वामिना सह पात्येका, परा तिष्ठति पृष्ठतः ॥१॥ अन्योऽप्येवंविधः कोऽपि भवतु । इत्येवंविधाभिर्वाग्भिर्दुन्दुक २५ १ क- 'प्रबोधिताः । २ ख 'आलब्ध्वा । ३ स्रग्धरा । रात्रिसम्बन्धि ५ ग - 'प्रविशतै ० ' । ६ शार्दूल० । ७ अनुष्टुप् । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये राजं सूरिशओ निःशोकमकार्षीत् । दुन्दुकः शनैः शनैः परमार्थतोऽभूत् | राजकार्याणि अकार्षीत् । त्रिव स समसेविष्ट । एवं वर्तमाने काले एकदा दुन्दुकश्चतुष्पथे गच्छन् कण्टिकां नाम गणिकामुदाररूपां चिद्रूपां युवजनमृगवागुरां मदनमायामयीमालोकिष्ट । तां शुद्धान्तश्री मकार्षीत् । तया दुन्दुकस्तथा वशीकृतो यथायदेव सा वदति तत् सत्यम्, यदेव सा करोति तदेव हितं मनुते । सा तु कार्मणकारिणी वाक्पटुः सर्व राज्यं ग्रसते हिमानी 'चित्रम्, भोजमातरं पद्मां नाम अन्या अपि राज्ञीरन्वयवतीर्विनयवतीर्लावण्यतस्तृणाय मनुते । - एकदा कलाकेलिनीम ज्योतिषिको निशि विसृष्टे सेवक लोके १० दुन्दुकराजं विजनं दृष्ट्वाऽवादीत् - देव ! वयं भवत्सेवकत्वेन सुखिनः ख्पाताः श्रीशाश्व । ततो यथातथं ब्रूमः । अयं ते भोजनामा तनयो भाग्याधिकस्त्वां इत्वा तव राज्ये निवेक्ष्यते । यथार्ह स्वयं कुर्वीथाः । T रामा तदवचायै वज्राहत इव क्षणं मौनी तस्थौ । ज्योतिषिकं विससर्ज । सा वार्ता भोजजननीसहचर्या दास्यैकया विपुलस्तम्भान्त- १५ रितया श्रुता । भोजमात्रे चोक्ता । सा पुत्रमरणाद् बिभाय । राजाऽपि कण्टिकागृहमगात् । साऽपि राजानं सचिन्तमालोक्याछापीत्--- देव! अद्य कथं म्लानबदन: ? । राजाऽऽह स्म — किं क्रियते ! | विधिः कुपितः । पुत्रान्मे मृत्युर्ज्ञानिना दृष्टप्रत्ययशतेन कथितः । कण्टिका वदति स्म का चिन्ता ? | मारय पुत्रम् | २० सुतमपि निर्दलयन्ति राज्यलुब्धाः । सुप्तो न सुतः । सुतरूपेण शत्रुरेव सः । तद्वचनाद् वुन्दुकः सुतं जिघांसामास । यावता घातथि - ष्यति तावता भोजमात्रा पाडलीपुत्रे स्वभ्रातृणां शूराणां राज्यश्रीस्वयंवर मण्डपानां स्नेहलानां धर्मज्ञामाममे प्रच्छन्नलेखेन ज्ञापितम्, यथा - एवमेवं भवतां भागिनेयो विनंक्ष्यति । रुष्टो राजा । आगत्य २५ 1 १ अशोकवृक्षम् । २ क- 'तथ तथ' ३ क - 'दृष्टिप्रत्यय० । ४ ख ग पाडली पुरे' ५ ख - ' सूराणा' । ६ ख घ- 'भाग्नेयः । ७ घ- 'राजा रुष्टः । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे ९ श्रीबम्पभविसूरि | एनं गृहमा गच्छत । रक्षत जीववत् । मा स्माहं भवत्सु सत्सु निष्पुत्रोऽभूवम् इति । तेऽप्यागच्छन्, दुन्दुकमनमन् । उत्सवम'भागिनेयं भोजं गृहीत्वा " पाडलीपुत्र' मगमन् । तत्र नमपीपठन् । अलीललन् । शास्त्राभ्यासमचीकरन् । जीधवदमंसत । तत्र ५ तस्य पश्चान्दी दिनैः कतिभिरप्यूनाऽतिक्रामति स्म । कण्टिका दुन्दुका कथयति स्म - देव ! पुत्ररूपस्ते शत्रुर्मातृशाले वर्धते । नखच्छेद्यं पर्शुच्छेद्यं मा कुरु । अत्रानीय च्छन्नं यमसदनं नथ । राजाऽऽह- सत्यमेतत् । ततो दूतमुखेन दुन्दुको भोजं तन्मातुलपार्श्वेऽयाचीत् । ते भोजं नार्पयन्ति । पुनः पुनः स्वान् दूतान् १० दुन्दुकः प्रहिणोति । भोजमातुला: प्राहु:- राजन् ! वयं तव भावं विद्यः, नार्पयाम एवैनम् । धर्मपात्रमसौ । अन्योऽपि शरणागतो रक्ष्यः क्षत्रियैः, किं पुनरादृक् भगिनीपुत्रः ? । बलात्कारं बूषे चेद् युद्धाय प्रगुणीभूयागच्छेः । भगिनीपतये चमत्कारं दर्शयि I ष्यामः । तद् दूतैरागत्योक्तम् । दुन्दुकः कुपितोऽपि तान् हन्तुं न १५ क्षमः । भोजोऽपि तैः पितुर्दुष्टत्वं ज्ञापितः कवचहर उपपितृ नैति । ततो दुन्दुकेन बप्पभट्टिसूरयः प्रार्थिताः - यूयं गत्वा भोज सुतमनुनीयानयत मानयत मामू । अनिच्छन्तोऽपि तत्सैनिकैः सह 'पाडली पुत्र' चेलुः । अर्धमार्ग सम्प्राप्तः स्थित्वा विमुष्टं ज्ञानदेशाभोजस्तावन्मम वचसा नृपसमीपं नैष्यति । आनीयते वा यथा २० तथा तदाऽऽनीतोऽपि पित्रा हन्यसे । बाग्लङ्घने राजाऽपि क्रुद्धो मां हन्ति । तस्मादितो व्याघ्र इतो दुस्तटी इति न्यायः प्राप्तः । समाप्तं च ममायुः, दिवसद्वयमवशिष्यते, तस्मादनशनं शरणम् । इति विमृश्यासन्नस्थयतयो भाषिता:- नन्नसूरि गोविन्दाचार्यो K ग - 'रक्षति' । २ ख - घ - भाग्य | ग-घ - 'पाटली० । ४ क-ख - 'अलीलपन् '। ५ 'मोसाळ' इति भाषायाम् । ६ ग - तन्मातुलेभ्योऽयाचीत्' ।७ ग 'मनुनीयानयततमाम् ' ८ ग 'घ' पाटली० । ९ग-'दृष्टया' | Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन: ] प्रबन्धको शैत्यषराहुये प्रति हिता भवेत । श्रावकेभ्यो मिथ्या दुष्कृतं ब्रूयात् । परस्परम-मत्सरतामाद्रियध्वम् । क्रियां पालयेत । 'आबालवृद्धान् लालयेत । नै वयं युष्मदीयाः, न यूयमस्मदीयाः, सम्बन्धाः कृत्रिमाः सर्वे । इति शिक्षयित्वाऽनशनस्थाः समतां प्रपन्नाः । ४ अर्हतत्रिजगद्वन्धान्, सिद्धान् विध्वस्तबन्धनान् । साधूंश्व जैनधर्म च, प्रपद्ये शरणं त्रिधा ॥ १ ॥ महाव्रतानि पश्चैव षष्ठकं रात्रिभोजनम् । , विराधितानि यत् तत्र, मिथ्या दुष्कृतमस्तु मे ॥२॥ इति ब्रुवाणा आसीना अदीनाः कालमकार्षुः । श्रीबप्पभट्टिसूरीणां श्री विक्रमादित्यादष्टशतवर्षेषु गतेषु भाद्रपदे शुक्कतृतीयायां रवि- १० दिने हस्तार्के जन्म, पश्चनवत्यधिकेषु गतेषु स्वर्गारोहणम् । तदैव 'मोढ़ेरे' नन्नसूरीणामग्रे भारत्योक्तम्--- भवद्गुरव 'ईशान' देवलोक गताः । तत्र बाढं शोकः प्रससार । शास्त्रज्ञाः सुवचस्विनो बहुजनस्याधारतामागताः सद्वृत्ताः स्वपरोपकारनिरता दाक्षिण्यरत्नाकराः । सर्वस्याभिमता गुणैः परिवृता भूमण्डनाः सज्जना धातः ! किं न कृतास्त्वया गतधिया कल्पान्तदीर्घायुषः ॥ १॥ वृद्धैस्तु प्रबोधो दत्तः " ११ हित्वा जीर्णमयं देहं लभते भो पुनर्नवम् । कृतपुण्यस्य मर्त्यस्य, मृत्युरेव रसायनम् ||२|| इति । दुन्दुकेन सूरिभिः सह प्रहिता ये सैनिकास्ते निवृत्य दुन्दुकपार्श्व गताः । सोऽपि पश्चात्तापानलेन दन्दह्यते स्म । भोजेनाऽपि समातुलेन सूरिशिष्याणामन्येषामपि लोकानां मुखादवगतम्, यथा-- सूरय एवं मनुः, तव पार्श्व नाजग्मुः । मा स्माय १५ २० १ ख- 'प्रतिहता भवेत् (१) । २ क- 'बालवृद्धान् ' । ३ क - 'नो' । ४-५ अनुष्टुप् ६ पञ्चत्वं प्राप्ताः । ७ ख - 'इस्तार्क्ष' । ८ हे ब्रह्मन् ! | ९ शार्दूल० | १० ख-ग'कृत्यपुण्य ०' | ११ अनुष्टुप् । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [ ९ श्रीनप्पभष्टिसूरिमस्मदुपरोधसङ्कटे पस्तिः पितुः पार्श्व गतः सन् नियंत इति कृपा दध्रुः । तदेतदाकर्ण्य भोजस्तथा पीडितो यथा वज्रपातेनापि न पीज्यते । पितुरन्तिकं नागादसौ। एकदा मालिकः कोऽपि पूर्वमामराजभृत्यो विदेशं 'भ्रमित्वा भोजान्तिकमागतः 'पाटलीपुरे' । तेनोक्तम्- देव ! त्वं मत्स्वामिकुलदीपः । मया विदेशे सद्गुरोर्मुखाद् विद्यैका लब्धा 'मातुलिङ्गी' नाम ययाऽभिमन्त्रितेन मातुलिङ्गेन हताः करि-हरिप्राया अपि बलिनो नियन्ते, मानवानां तु का कथा ?। देव! गृहाण ताम् । भोजेन सा तस्मादात्ता । प्रमाणिता । सल्या । मालिको १० दान-मानाभ्यां भोजेन रञ्जितः । मातुलाः सर्वे भोजेन विद्या शक्ति प्रकाश्य तोषिताः । ते ऊचुः- यदीयं ते शक्तिस्तदा प्राभूतमिषेण मातुलिङ्गानि गृहीत्वाऽस्माभिः सह पितुः समीपं व्रज । पितरं निपाल्म राज्यं गृहाण । तद् रुरुचे भोजाय । चलितो बहुमातुलिङ्गशोभी सन् गतः पितुरि कथापितं च--- तात! त्वं पूज्योऽहं शिशुः ; स्वत्तो मरणं वा राज्यं वा सर्व रम्यं मे । राजा सन्तुष्ट :--अहो विनीतसुतः । आयातु । इति विमृश्य आहूतो भोजा। शोधितो मध्यमागतः । एकासनस्थौ कण्टिका-राजानी पृथक् पृथग् मातुलिङ्गेन जघान । सम्यविद्या हि नान्यथा । उपविष्टो दुन्दुकराज्ये भोजः । तन्मातुला अतुलं तोषं दधुः । माता पद्मा २० प्रससाद । दुन्दुकेन धनहरण-ग्रासोद्दालनादिदूनचरा 'राज न्यकाः पुनर्जातमात्मानं मेनिरे । महाजनो जिजीव । वर्णाः सधै उन्मेदुः । संसारसरोऽम्भोज भोज कमला भेजे । दोर्बलात् परिच्छदबलाच जगजिगाय | अथ कृतज्ञतया 'मोढेर'पुरे नन्नसूरये विज्ञप्तिं दत्त्वा उत्तमनरान् प्रेषीत् । ते गतास्तत्र । विज्ञप्तिर्दर्शिता १५ १ घ--'मृतेति' । २ 'माळी' इति भाषायाम् । ३ ग 'भ्रान्त्वा' ४ ग-'प्रदीपः'। ५ 'अर-सिंह०', ६ ख-कण्टीराजा । ७ घ- 'धनहरणेन प्रासाः । ८ घ-- 'राजकन्यकाः । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये तैस्तत्र । वाचिता नन्नसूरि-गोविन्दाचार्यधा- 'स्वस्ति श्री'मोढेरे' परमगुरुश्रीननसूरि-श्रीगोविन्दसूरिपादान् सगच्छान् 'गोपगिरि दुर्गात् श्रीभोजः परमजैनो विज्ञपयति यथा- इह तावत् प्रज्ञागङ्गाहिमाद्रयः समाचारनारीसौभाग्यवर्धनमकरध्वजाः क्षिप्तिपतिसदःकुमुदिनश्चेितदीधितयो भारतीधर्मपुत्राः श्रीबप्पभडि- ५ सूरयस्त्रिदिवलोकलोचनलेझललितपुण्यलावण्यतामादधिरे । तत्स्थाने सम्प्रति दीर्घायुषो यूयं स्थः । 'दृष्टविज्ञप्तिकाप्रमाणेनात्र पादोऽयधार्यः' । तद् दृष्ट्वा भक्तिरहस्यं सूरयः ससद्धाः सुतरां जद्दषुः । सवानुमत्या गोविन्दाचार्य 'मोढेरके' मुक्त्वा श्रीनन्नसूरयो 'गोपगिरि'मसरन् । भोजः पादचारेण ससैन्यः सम्मुखमायातः । गुरोः १. पादोदकं पपौ । उल्लसत्तृष्णो गिरं शुश्राप । स्थानस्थानमिलितजनहृदयसवाचूंरिसहारमौक्तिकधवलितराजपथं पुरं निनाय । सिंहासने निवेशयामास तान् । मङ्गलं चकार । तदाऽऽज्ञामयो बभूव । तद्भक्तानात्मवद् ददर्श । तदभक्तान् विषवदीक्षाश्चके । तदुपदेशाजिनमण्डितां मेदिनीं विदधौ । दुन्दुकस्य ताहम् मरणं १५ स्मृत्वा कुपथेषु न रेमे । 'मथुरा'-'शत्रुञ्जया' दिषु यात्रां चकार । एकादश व्रतानुच्चचार । पूर्वराजर्षियशांसि उद्दधार । चिरं राज्यं भेजे । इत्येवं 'गोपगिरौ' भोजो धर्म लालयामास उदियाय च । अन्यैरपि पुण्यपुरुषैरेवं भाव्यम् ॥ ॥ इति 'श्रीबप्पभड्विचरित्रम् । ग्रन्थानं ६०० ।। - १ ग--हेमा.' । ९ क-'दृष्टविज्ञप्तिप्रमाणेन' । ३ ख-'हरितहार.'। ४ घ'यात्राकार' । ५ घ-भट्टिमरिचरित्रप्रबन्धः' । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रवन्धे [१० श्रीहेमचन्द्रसूरि [१०] ॥ अथ हेमसूरिप्रबन्धः । ' पूर्णतल्ल गच्छे श्रीदत्तसूरिः प्राज्ञः 'वागड'देशे 'वटपद्र' पुरं गतः । तत्र स्वामी यशोभद्रनामा राणक ऋद्धिमान् । तत्सौधान्तिके उपाश्रयः श्राद्धैर्दत्तः । रात्रौ उन्मुद्रचन्द्रातपायां राणकेन ऋषयो दृष्टा उपाश्रये निषष्णाः । श्रावकामात्यपार्श्वे पृष्टम्--- के एते ?। अमात्यः प्रोचे- देव! महामुनयोऽमी विषमव्रतधारिणः । राणकस्य श्रद्धा बभूव । प्रातर् वन्दितुं गतः । देंशना । श्रावकत्वं सुष्टु सम्पन्नम् । मासकल्पमेकं स्थिताः । १० परदेशं गता गुरवः । तावता वर्षाकालः । देवपूजादिधर्मव्यापार साराण्यहानि गमयति राणः । प्राप्ता शरद् । चरिक्षेत्राणि द्रष्टुं गतो राणः । तावता बॅण्टानि ज्वालयन्ति भृत्याः । तेषु सर्पिण्येका गर्भभारालसा ज्वालादिभिर्दह्यमाना तैडफडायमाना सिमिसिमाय माना राणेण दृष्टा । दयोत्पन्ना । विरक्तश्च । हा हा संसारं, धिग् १५ गृहवासं, कस्य कृते पापमिदमाचर्यते । राज्यमपि दुष्पालं मायाजालं नरकफलम् । तस्मात् सर्पसङ्गपरित्यागः कार्यः । इति ध्यायन् सौधमायासीत् । निशि श्रावकमन्त्रिणमाकार्य रहोऽप्राक्षीत् मम धर्मगुरवः श्रीदत्तसूरयः क्व विहरन्ति ! । मन्त्र्याह'डिण्डुआणके' । विसृष्टो मन्त्री शेषपरिच्छदश्च । राणको मिताश्चपरिवारः सारं हारमेकं सह गृहीत्या शीघ्र 'डिण्डुआणकं ' प्राप्तः । गुरवो दृष्टा वन्दिताः । भववैराग्याद् रुदितः । पदोलगित्ला कथितं स्वपापम् । गुरुभिर्भणितम्----राणक ! चारित्रं विना न छुटन्ति पापेभ्यो जीवाः । राणकेन न्यगादि- सद्यो दीयता तर्हि तत् । सूरय ओमित्याहुः स्म । राणकेन ' डिंडुआणकीय'१ चन्द्रप्रमायाम् । २ ख-चरणक्षेत्रा० । ३ पशुक्षेत्राणि । ४ अर्धपक्कधान्यकणान् इति प्रतिभाति । ५ 'तडफडती' इति भाषायाम् । ६ 'छुटे डे' इति भाषायाम् । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः "] प्रबन्ध कोशेत्यपराये श्रावकाः समाकारिताः, छारोऽर्पितः । दिव्यः प्रासादः कार्यतामिति । तथाऽऽचरितं तैः । अद्यापि दृश्यते स तत्र । राणकैर्व्रतमत्तम् । नन्द्यामेव षड्विकृतिनियमः, एकान्तरोपवासा यावज्जीवम् । तस्य राणयशोभद्रस्य गीतार्थत्वात् सूरिपदं जातम् । श्रीयशोभद्रसूरिरिति नाम । तदीयपट्टे प्रद्युम्न सूरिर्ग्रन्थकारः । तत्पट्टे श्रीगुणसेनसूरिः । श्रीयशोभद्रसूरिपादास्त्रयोपवासा 'रक्ते' नेमिनाथदृष्टौ कृताननाः खर्लोकमैयरुः । गुणसेन सूरिपट्टे श्रीदेवचन्द्रसूरयः 'ठाणांगवृत्ति - शान्तिनाथचरितादिमहाशास्त्रकरण निर्व्यूढप्रज्ञाप्राग्भाराः । ते विहरन्तो 'बैन्धुक्क' पुरं 'गुर्जर 'धरा' सुराष्ट्रा' सन्धिस्थं गताः । तत्र देशनाविस्तरः | १० एकदा नेमिनागनामा श्रावकः समुत्थाय श्रीदेवचन्द्रसूरीन् जगौ — भगवन्! अयं 'मोढ' ज्ञातीयो मद् भगिनीपाहिणिकुक्षिभूः ठक्कुरचाचिगनन्दनश्च (श्वा) ङ्गदेवनामा भगवतां देशनां श्रुत्वा प्रबुद्धो दीक्षां याचते । अस्मिश्व गर्भस्थे मम भगिन्या सहकारतरुः स्वमे दृष्टः । स च स्थानान्तरे उप्तस्तत्र महती १५ फलस्फातिमायाति स्म । गुरव आहुः - स्थानान्तरगतस्यास्य बालस्य महिमा प्रैधिष्यते । महत् पात्रमसौ योग्यः सुलक्षणो दीक्षणीयः, केवळं पित्रोरनुज्ञा ग्राह्या । गतौ मातुल भागिनेयौ पाहिणि चाचिगान्तिकम् । उक्ता व्रतवासना | कृतस्ताभ्यां प्रतिषेधः करुणवचनशतैः । चाङ्गदेवो दीक्षां ललौ । स हेमसूरिः प्रभुः । तेन १५ यथा श्री सिद्धराजो रञ्जितः, व्याकरणं कृतम्, वादिनो जितास्तथा च कुमारपालेन सह प्रतिपन्नम् । कुमारपालोऽपि यथा पञ्चाशद्वर्षदेशीयो राज्ये निषण्णः । यथा श्रीहेमसूरयो गुरुत्वेन प्रतिपन्नाः । तैरपि यथा देवबोधिः प्रतिपक्षः पराकृतः । राजा सम्यक्त्वं ग्राहितः तः श्रावकः कृतः । निर्वाराधनं (?) च मुमोच सः । तत् २० १ क घ - 'मादत्तम्' । २ जैनानां तृतीयमङ्गम् । ३ क ' धुन्धुकू', ख-धुन्धूक०' । ४ घ - 'मातु रु] भायौ' । शि० १३ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [९] श्रीहेमचन्द्रसूरि प्रबन्धचिन्तामणितो ज्ञेयम् । किं चर्वितचर्षणेन ? | नवीनास्तु केचन प्रबन्धाः प्रकाश्यन्ते कुमारपालेन अमारी प्रारब्धायां आश्विन शु (सु) दिपक्षः समागात् । देवतानां कैण्टेश्वरी-प्रमुखाणां अबोटिकैर्नृपो विज्ञप्तः --- देव ! सप्तम्यां सप्त शतानि पशवः सप्त महिषाः, अष्टम्यां अष्ट महिषा अष्टौ शतानि पशवः, नवम्यां तु नव शतानि पशवो नव महिषा देवीभ्यो राज्ञा देया भवन्ति पूर्वपुरुषक्रमात् । राजा तदाकर्ण्य श्री हेमान्तिकमगमत् । कथिता सा वार्ता । श्रीप्रभुभिः कर्णे एवमेव मित्युक्तम् । राजोत्थितः । भाषितास्ते -- देयं दास्यामः । इत्युक्त्वा १० बहिका ( ? ) क्रमेण रात्रौ देवीसदने क्षिप्ताः पशवः । तालकानि दृढीकृतानि । उपवेशितास्तेषु प्रभूता आप्तराजपुत्राः । प्रातरश्यातो नृपेन्द्रः । उद्घाटितानि देवीसदनद्वाराणि । मध्ये दृष्टाः पशवो रोमन्यायमाना निर्वातशय्यासुस्थाः । भूपालो जगाद - भो अबोटिकाः ! एते पशवो मयाऽभ्यो दत्ताः । यद्यमूभ्यो रोचिष्यन्ते, ते तदा ग्रसि १५ व्यन्ते परं न प्रस्ताः; तस्मान्नामूभ्योऽदः पैललं रुचितम् । भवद्भ्य एव रुचितम् । तस्मात् तूष्णीमाध्यम् । नाहं जीवान् घातयामि । स्थितास्ते विलक्षाः । मुक्ताश्छागाः । छागमल्यसमेन तु धनेन देवेभ्यो नैवेद्यानि दापितानि । अथाश्विनशुक्कदशम्यां कृतोपवासः क्ष्मापो निशि चन्द्रशालायां ध्याने उपविष्टो जपति । बहिर्द्वास्था: २० सन्ति । गता बही निशा । रूयेका दिव्या प्रत्यक्षाऽऽसीत् । उक्तस्तया सः -- राजन् ! अहं तब कुलदेवी कण्टेश्वरी । "ऐषमः किमिति त्वया नास्मद्देयं दत्तम् ? । राज्ञोक्तम्--- जैनोsहं दयालुः पिपीलिकामपि न हन्मि का कथा पञ्चेन्द्रियाणाम् ? | तच्छ्रुत्वा कण्टेश्वरी क्रुद्धा, राजेन्द्रं त्रिशूलेन शिरसि हत्व २५ जग्मुषी । राजा कुष्टी जातः । दृष्टं स्ववपुर्विनष्टम् । विषण्णः | " ५ १ ख- 'कोटेश्वरी । २ सेवकैः (?) ३ उद्गीर्थस्य वाऽवगीर्णस्य रोमं कुर्वन्तः । • मसम् । ५ अस्मिन् वर्तमाने वर्षे 1 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराये मूल्येन मन्त्रिणमुदयनमाकार्य तत्स्वरूपं निगद्य पप्रच्छ-- मन्त्रिन् ! देवी पशून् याचति, दीयन्ते न वा ? । मन्त्री दाक्षिण्यादाह -देव ! राजा यत्नेन रक्ष्य एव । भूपो न्यगादीत्--- निःसत्त्वो वणिगसि । यदेवं ब्रूषे मम किं कार्य जीवितेन ? । कृतं राज्यम् । लब्धो धर्मः । हताः शत्रवः । केवलं काष्टानि देहि रहः, येन प्रातर्मामीदृशं दृष्ट्वा लोको धर्मे नोड्डाहं करोति । उदयनेन चिन्तितम्---अहो महत्कृच्छ्रमापतितम् ! । पारवश्यमूलं नियोगं धिक् । मन्त्रिणोक्तं सद्यो बुद्धिवशात्---श्रीहेमसूरयो विज्ञप्यन्ते । राज्ञोक्तम्---तथाऽस्तु । गतो मन्त्री उपसूरि । सूरिभिर्जलमभिमन्त्र्यार्पितम् । अनेन राजाऽऽच्छोट्य इति । १० सचिवेन तथा चक्रे राज्ञः । राजा दोगुन्दुकदेव इव दिव्यरूपः सम्पन्नो भक्तश्व समधिकं श्रीगुरुं वन्दितुं ययौ । गुरुर्देशनां दत्तेशूराः सन्ति सहस्रशः प्रतिपदं विद्याविदोऽनेकशः सन्ति श्रीपतयो निरस्तधनदास्तेऽपि क्षितौ भरिशः । . किन्त्वाकर्ण्य निरीक्ष्य वाऽन्यमनुजं दुःखादित यन्मन- . १५ स्तद्रूपं प्रतिपद्यते जगति ते सत्पूरुषाः पञ्चषाः ॥१॥ राजा स्वावासं गतः । राज्यं समृद्धं भुनक्ति। . . एकदा प्रभुभिर्भरतस्य चक्रिणः साधर्मिकवात्सल्यकथाऽकथि । तां श्रुत्वा भूपः साधर्मिकवात्सल्यं दिव्यभोजन-वसन कनकदानैः प्रतिग्राम प्रतिपुरं प्रारेभे । तद् दृष्ट्वा कविश्रीपालपुत्रः सिद्धपालः २० सूक्तमपाठीत्क्षिप्त्वा वारिनिधिस्तले मणिगणं रत्नोत्करं 'रोहणो' रेण्वावृत्य सुवर्णमात्मनि दृढं बद्ध्वा “सुवर्णाचलः' । .. क्ष्मामध्ये च धन निधाय धनदो बिभ्यत् परेभ्यः स्थितः किं स्यात् तैः कृपणैः समोऽयमखिलार्थिभ्यः स्वमर्थं ददत् ॥१॥ २५ १ उपहासम् । २ एतत्खरूपार्थ प्रेक्ष्यतां परिशिष्ट । ३ ख-घ-सुराः। । शार्दूल० । ५ मेरुः । ६ शार्दूल । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० चतुर्विंशतिप्रबन्धे [१० श्रीहेमचन्द्रसूरिदमलक्षदत्तिरत्र । पुनः कदाचित् पठितम्श्रीवीरे परमेश्वरेऽपि भगवत्याख्याति धर्म स्वयं प्रज्ञावत्यभयेऽपि मन्त्रिणि न यां कर्तुं क्षमः श्रेणिकः । अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्ता जीवरक्षा व्यधाद् यस्यास्वाद्य वचःसुधां स परमः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः॥१॥ अत्रापि लक्षदत्तिः । अन्येयुः कथाप्रसङ्गे प्रभवः प्राहुः स्म-- ___ पूर्व श्रीभरतो राजा श्रीमाल'पुरे 'नगर'पुरे ‘शत्रुनये' 'सोपारके 'अष्टापदे' च जीवन्तस्वामिश्रीऋषभप्रतिमावन्दनार्थ च चतुरङ्ग' चमूचक्रोच्छलितरजःपुञ्जध्यामलितदिक्चक्रवालः सङ्घपतिर्भूत्वा ववन्दे । तदाकर्ण्य श्रीचौलुक्यः स्वयं कारितरथेऽईद्विम्बमारोप्य ससैन्यः 'शत्रुञ्जयो'-'जयन्ता दियात्रायै चचाल | सङ्घ उदयनसुतो वाग्भटश्चतुर्विंशतिमहाप्रासादकारापकः; नृपनागाख्यश्रेष्ठिभूः श्रीमान् आभडः, पेंड्भाषाकविचक्रवर्ती श्रीपालः, तद्भः सिद्धपालः, कवीनां दातृणां च धुर्यो भाण्डागारिकः कपर्दी, १५ 'परमार वंश्यः 'कूर्चालसरस्वती' 'प्रह्लादन'पुरनिवेशको राणः प्रह्लादनः, राजेन्द्रदौहित्रः प्रतापमल्लः, नवतिलक्षहेमस्वामी श्रेष्ठिछाडाका, राज्ञी भोपलदेवी, चौलुक्यपुत्री लीलूः, राणअम्बडमाता माऊा, आभडपुत्री चाम्पल इत्यादि, कोटीश्वरो लोकः, 'श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः, श्रीदेवसूरयः, श्रीधर्मसूरयः, लक्षसङ्ख्या मानवाः । स्थाने स्थाने प्रभावना । जिने जिने छत्रचामरादिदानम् । पात्राणां इच्छासिद्धिः । प्रथम 'रैवता'द्रितले साङ्कलीयालीपंद्या दिशि गत्वा स्थितः क्षितिपतिः । नान्दीनिर्घोषः । रात्रौ भारत्या श्रीहेमसूरिभ्य आदिष्टम्- राज्ञा नौद्रावारोढव्यं, २० ख-'लक्षं दत्तिः' । २ शार्दूल० । ३ ख-ध-'नगरे पुरे' । संस्कृत-प्राकृतशौरसेनी-मागधी पैशाची-अपभ्रंश इति भाषाषट्कम् । ५ घ-'वंशः' । ६ 'पालनपुर' इति भाषायान् । ७ ख-राजा अम्बड०। ८ ग-चाम्पलदे इत्यादि । ९ घ'श्रीहेमसूरि०' । १० व-पाचा' । ११ क-'नैवादो आरोटव्यं' । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोंशेत्यपराये विघ्नसम्भवात् । अत्रैव देवो मदनसूदनो नेमिर्वन्द्यः । तथैव कृतम् । 1 सङ्घस्तु 'वत' गिरौ श्रनिमिस्नानावलेपनपुष्पफलवस्त्र पूजानैवेद्यनादमालादिग्रहणैर्भावमपूरि । राजाऽप्यक्षवाट कवस्त्रापथराजीमत्यादिगुहा प्रायस्थानयात्रया महादानैश्च धनजीवितन्ययोर्लाभमग्रहीत् । 'देवपत्तने' चन्द्रप्रभयात्रा ससङ्घस्यास्यासीत् । ततो व्याघुट्य 'शत्रुञ्जया' द्विं गतः । आरूढः । मरुदेवादर्शनपूजे । तत्राशी :-- बालो मे वृषभो भरं सुमनसामप्येष किं सासहि मन्दं धेहि किरीटमस्य करयोर्मा काङ्कणी भूद् व्यथा । गाङ्गेयं कटिसूत्रमत्र तनुकं युक्तं बलिष्ठेऽप्यम् नथे मातृदयागिरः सुरजने हास्यावहाः पान्तु वः ॥१॥ पुरः कपर्दी, तत्र कायोत्सर्गः । आशीस्तु रूढिः किलैवं वृषभः कपर्दिनं निषेवतेऽस्मिन् 'विमला 'चले पुनः । अयं कपर्दी वृषभं शुभाशयस्तनोतु वः शान्तिकपौष्टिक श्रियम् ॥१॥ * - पुरो वृषभप्रभुप्रासादः । देवदर्शनं पूजा । आशीर्वाद :नव्योद्वाहविधौ वधूयतं पुत्रं सवित्रीरति प्रीत्यासन्नमिव स्मरः किल ददौ यं वीक्ष्य सत्याशिषम् । कल्पद्रुर्भुवि जङ्गमः किमधुना पत्रद्वयेनोगत - "स्तत्त्वं स्याः शतशाख इत्यनुदिनं सश्रेयसे नाभिभूः || १ || चैत्य परिपाठ्यां कपर्धा - श्री चौलुक्य ! स दक्षिणस्तव करः पूर्व ममासूत्रितः प्राणिप्राणविघातपात कसैखः शुद्धो जिनेन्द्रार्चनात् । १ घ - 'मरुदेवीदर्शन ' । २ शार्दूल० । ३ इन्द्रवंशा ( ? ) । ख-घ -'स्मरं । ५ ख - 'सरवं । ६ शार्दूल० । ७ क 'मुखः' । C १०१ १० १५ २० स्वरं ', Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [.. प्रीहेमचन्द्रसूरिवाभोऽप्येष तथैव पातकसखः शुद्धिं कथं प्राप्नुयात् न स्पृश्येत करेण चेद् यतिपतेः श्रीहेमचन्द्रप्रभोः ॥२॥ मेरुमहाध्वजावारितान्नदानयाचकसत्काराः प्रवर्तन्ते । मालोद्घानप्रस्तावे तादशि सधे राज्ञि च निषण्णे महं वाग्मटः प्रथम लक्षचतुष्कमवदत् । प्रच्छनधार्मिकः कश्चित् कथापयति-लक्षाष्टौ; एवमन्योन्येष्वीश्वरेषु वर्धयत्सु कश्चित् सपादकोटी चकार । राजाऽपि चमञ्चकार, उवाच च- उत्थाप्यतां स यो गृह्णाति । उत्थितः सः । यावद् दृश्यते तावद् बौदरमलिनवसनो वणिगरूपः । राज्ञा वाग्भटो भाषितः- द्रेम्मसुस्थं कृत्वा देहि । वाग्भटो वणिजा १. सहोत्थाय पादुकान्तिकं गस्वा द्रम्मसुस्थं पप्रच्छ तम् । वणिजा सपादकोटिमूल्यं माणिक्यं दर्शितम् । मन्त्रिणा पृष्टम्-कुत इदं ते? । वणिगाह--- 'महूअक'वास्तव्यो मत्पिता हंसाख्यः सौराष्ट्रिकः प्राग्नासः । अहं तर्जगडः । माता मे धारुः। मम पित्रा निधन समयेऽहं भाषित:-- वत्स ! चिरं कृताः प्रवहणयात्राः फलिताश्च । १५ मेलितं धनम् । तेन च क्रीतं प्रत्येकं सपाइकोटिमूल्यं माणिक्य पञ्चकम् । अधुना प्रभुघृषभचरणौ शरणं मे । अनशनं प्रतिपनम् । क्षामिताः सर्वे जीवाः।एकं माणिक्यं श्रीऋषभाय, एकं श्रीनेमिनाथाय एकं श्रीचन्द्रप्रभाय दधाः, माणिक्यन्यमात्मनोऽन्तर्धनं दध्याः । बाह्यघनमपि प्रचुरतरमारले । इदानी माता मैया सहानीता कपर्दिभवने मुक्ताऽसि । तां जरन्ती मातरं सर्वतीर्थाधिकतया पुराणपुरुषैनिवेदितामेतां मालां परिधारयिष्यामि । श्रुत्वा हृष्टो मन्त्री राजा सधश्च । मातृसम्मुखगमनं सर्वश्रावकाणां मालापरिधापनम् । तन्माणिक्यं हेम्ना खचित्वा ऋषमाय कण्ठाभरणमनुष्यकिरणभरितचैत्यगर्भमासूत्रयामहे । वैलितः सकः, प्राप्त पत्तनम् । प्रवर्तन्ते १ शार्दूल । २ ख- मरु० ' । ३ ख-घ- स गृह्णाति'। ४ स्थूल । ५ च-'धर्मस्थं'। ६ घ-'धारूः'। क-घ-'क्षमिताः '। ८ ग--'मम' । क'चलितः। १० 'वळ्यो' इति भाषायाम् । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराडये सहभोज्यानि प्रतिलाभनाश्च । अमारिस्तु नित्यैव । तस्य च कुमारपालदेवस्य भग्नी 'शाकम्भरी' श्वरेण 'चाहमान' - वंश्थेनं राज्ञा आनाकेन परिणीताऽस्ति । एकदा तौ सारिभिः क्रीडतः । क्रीडता राज्ञा सारिगृहे मुञ्चतोक्तम्- मारय मुण्डिकान् पुनर्मारय मुण्डिकान् । एवं द्विस्त्रिः । 'टोपिकारहित शीर्षकत्वान्मुण्डिका 'गुर्जर' लोका विषक्षिताः । अथवा श्वेताम्बरा गुर्जरेन्द्रगुरवो मुण्डि का इतिहासगर्भोक्तिः । राशी कुपिता वदति-- रे जङ्गडक ! जिह्वामालोच्य नोच्यते ?, किं बक्षि? । न पश्यसि माम् ? । न जानासि मम भ्रातरं राजराक्षसम् । क्रुद्धो राजा तां पदा जघान । साऽप्याह- यदि ते जिह्वां अवटुपथेन कर्षयामि तदा राजपुत्री मा १० ममंस्थाः । इति वदन्त्येव सा ससैन्या निर्विलम्ब 'श्रीपतन' मेत्य चौलुक्याय तं परिभवं प्रतिज्ञां च स्वोपज्ञामजिज्ञपत् । चौलुक्योSभाषत - इश्थमेव करिष्यामः, कौतुकं पश्येः । ततश्चानाकस्तस्यां तत्र गताया 'गुर्जर' नृपतेजो दुर्धरं विदंक्षुक्षोभ । चौलुक्यो अपि बह्वाप्तपरिच्छदं मन्त्रिणमेकं तत्रव्यवृत्तान्तज्ञानाय प्रैषीत् । गतः स १५ तत्र । जग्राह गृहम् । राजासन्नदासीमेकां धनेन रञ्जयित्वा आत्मीयं भोगपात्रमकरोत् । नित्यं सा याममाध्यां रात्र्यामायाति रञ्जयति तम् । एकदा निशीथे साऽऽगात् । मन्त्री कुपितः - आः पापे ! पैरनुगामिनि ! किमिति विलम्बेन समागताऽसि ? । साऽपि संप्रश्रयं मन्त्रिणमभाषत - स्वामिन् ! मा कुपः । कारणेन स्थिताऽ- २० स्मि । मन्त्रिणोचे- किं कारणम् ? । सा जगाद प्रभो ! अहं अन्नस्य राज्ञस्ताम्बूलदासी । रात्रेर्याम एकस्मिन् राज्ञा परिच्छदः सर्वो विसृष्टः | अहमपि विसृष्टा । विसृजता चाप्तनर एकोऽभाषिव्याघ्रराजं हक्कारय । अहं स्तम्भान्तरिता कौतुकेन स्थिता । को व्याघ्रराजः ? | कथमाहूयते इति । ततो राज्ञाऽऽकारितः स आगतः, २५ I १ ख- घ 'क्रीडा' । २ घ 'मञ्चतो ० ' । 'अवटपथेन' । ५कूपमार्गेण । ६ क - 'पश्य' । - ૨૦o ३ 'टोपी' इति भाषायाम् । ४ ग - 'परापरनृ० ८ सविमयम् । ७ घ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ १० श्री हेमचन्द्रसूरि L कृतप्रणामः सन् राज्ञाऽऽलापि - भो ! विजनमस्ति इति भाष्यसे 1.. त्वमस्माकं कुलक्रमागतः सेवकः । सद्यो व्रज । 'गुर्जरे 'श्वरघातको भूत्वा व्यापादय । लक्षत्रयं हेम्नां दास्ये अथ स व्याघ्रराजाख्यो बभाषे - देव ! हनिष्याम्येव तं राजानम् । मा स्म संशय कृथाः स्वामिन्! । ततस्तद्वचः श्रुत्वा तुष्टः 'शाकम्भरीश्वरः सधो हेमलक्षत्रय बदरकांस्तद्गृहायाचीचलत् । व्याघ्रराजं चाप्राक्षीत् कदा केनोपायेन तं हनिष्यसि ? । व्याघ्रराजोऽवादीत् नाथ ! अथ रविवारो वर्तते । आगन्तुकामे सोमबारे क्वचनावसरं लब्ध्वा I हनिष्यामि । उपायस्तु भरटकरूपं करिष्यामि । राजा तु 'कर्ण१० मेरु' प्रासादे आयाति सोमवारे ध्रुवम् । देवं नत्वा व्यावर्तमानायास्मै बाह्याङ्गणे शेषादानमित्रेण पुष्पकलम्बकमुत्पाटयिष्यामि । तत्र धृतया कैर्तिकया कैङ्कमय्या घातयिष्यामि । अङ्गीकृतसाहसानां न किश्चिदपि दुष्करम् । अहं इतश्चेत् तत्र तदा मन्मानुषाणामुपरि कृपा करणीया । उद्धृतश्चेदहं तदा जितं जितम् । एवं व्याघ्र - १५ राजेन निगदिते आनाकेन वीटकं दत्तम् । विसृष्टोऽसौ । तत् सर्व सावधानतया स्तम्भान्तरितया मया श्रुतम् । राज्ञि शुद्धान्ते गतेऽहं त्वदंहिसेवार्थ मायाता । तस्मान्मा मनो मयि क्रोधकरमलितं कार्षीः । एतद्दासीवचः श्रुत्वा चौलुक्यनियोगी चिन्तयति - लब्धं शत्रुगृहमर्म । यतिष्येऽतः कार्यकरणाय । इति परामृशन् दासीम२० भाषत - याहि मृषाभाषिणि ! । कः स्त्रीवचसि विश्वास : ? । श्रूयते यन्न शास्त्रेषु, तल्लोकेऽपि न दृश्यते । तत् कल्पयन्ति लाक्ष्यो, जल्पन्ति स्थापयन्ति च ॥ १॥ * इत्यादि भाषित्वा तां व्यस्राक्षीत् । स्वयं तु चतुरांश्चतुरो याम - लिकानुपचौलुक्यं प्रास्थापयत् । विज्ञप्त्या चाज्ञापपत्- सावधानैः २५ स्थेयम् । इत्थं इत्थं स्वामिपादानामुपरि शत्रुकृतं कपटं वर्तते । भरटकश्चिन्तनीयः । चौलुक्यः सावधानस्तस्थौ । सोमबारे गतो १ ----'वारे भुवम्' । २ घ 'कर्चरितया' । ३ पक्षिविशेष० । अनुष्टुप् । १०४ M Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये राजा 'कर्णमेरु'म् । प्रकटीभूतः पूर्वोक्तचेष्टया भरटकः । दृष्टमात्रमेव तं नृपो मल्लैरदीधरत् । कर्तिका च लब्धा । बद्धो व्याघ्रराजः । जल्पितश्च- रे वराक! जङ्गडकेन प्रेषितोऽसि ? । सेवकस्त्वम् । सेवकस्य च हिताहितविचारो नास्ति । स्वाम्यादेशवशंवदस्त्वं मा भैषीः । मुक्तोऽसि । तमेव हनिष्यामि य एवं द्रोह- ५ माचरति दुर्दुरूढः । इत्युक्त्वा परिधाप्य व्यसृजत् । स्वयं तु सौधं गत्वा सामग्री यौद्धी व्यरचत् । पाणिरक्षां विधिवद् विधाय चलितः । 'सपादलक्षा'न् प्रविष्टः । भट्टेन आनाकनरेन्द्रमालीलपत् । यथा-~-- अये भेक ! च्छेको भव भवतु ते कूपकुइरं शरण्य दुर्मत्तः किमु रटसि वाचाट! कटुकम् ? । पुरः सो दी विषमविषत्कारवदनो __ ललजिह्वो धावत्यहह भक्तो जिग्रसिषया ॥१॥ आनकोऽपि तदुद्दामशौण्डीर्यरिपुदूतवचः श्रुत्वा लक्षत्रेयाश्वेन नरलक्षदशकेन पञ्चाशता च मदान्धैर्गन्धगजैरचलत् । 'शाक- १५ म्भरी'तः पञ्चक्रोश्याऽर्वागागतः । दिनत्रयेण युद्धं भविष्यतीति निर्णीतमुभाभ्यां राजेन्द्राभ्याम् । अन्योन्यमक्षान् दीव्यन्ति राजपुत्राः। योधयन्ति मल्लयोध-च्छुरीकार-मेष-वृषभ-महिष-गजान् । स्फोटयन्ति नालिकेराणि । तावन्तमवकाशं लब्धा ‘सपादलक्ष'क्ष्मापालेन निशि द्रव्यबलेन 'नड्डलीय केल्हणा'दयो राजकीया चौलुस्य'- २० भक्ता भेदिताः स्वपक्षे कृताः । सर्वेषामेको मन्त्रः- युद्धाय सनद्धन्यमेव, न तु योद्धव्यम् । राजा चौलुक्य एकाकी मोचनीयः । शत्रुभिर्हन्यताम् । अर्थो हि परावर्त्तयति त्रिभुवनम् । दधाति लोभ एवैको, रङ्गाचार्येषु धुर्यताम् । आरङ्कशक्रं यनाट्य-पात्राणि भुवनत्रयी ॥१॥ २५ १ ग--'सौधे'। २ क-विहाय। ३ क-'फूरकारिवदनो' । शिखरिणी। ५ ख-घ - 'त्रया वा नर०' । ६ अनुष्टुप् । पतुर्विशति १४ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ १० चतुर्विंशतिप्रबन्धे [१० श्रीमन्द्रसूरि एतं च तेषां मन्त्रं चौलुक्योऽद्यापि न वेत्ति । अतः प्राता राजा कुमारपालः कलहपश्चाननं पट्टहस्तिनं महामात्र श्यामलपार्श्वात् पुरः प्रेरयामास । तटस्थांस्तु चेष्टितैर्दुष्टान् निरणैषत् ि। नृपेण गदितः श्यामलः - किमर्थममी उदासीना इव दृश्यन्ते ? | श्यामलेन विज्ञप्तम् - देव! अरिकृतार्थदानादमी त्वयि द्रोहपराः सम्पन्नाः । राजाऽऽह -- तर्हि तब का चेष्टा ? । श्यामलोऽप्याललाप - देव ! एको देवः १, अपरोऽहम् २, अन्यस्तु कलहपश्चाननो हस्ती ३; एते त्रयः कदापि न परावर्त्यन्ते । नृपो बदति तर्हि सम्मुखीने दृश्यमाने शत्रुनृपमुद्गरधट्टे गजं प्रेरय । 1 साहसत्तर है वह ( चल ? )इ दैवह तणइ कपालि । खूटा विणू खीखड़ नही खेडिम ( डग ?) खूंटा टालि ॥ १॥ तदैव चारण एको न्यगादीत् ――――――――――― कुमारपाल ! मैन चिंत करि चिंति किंपि न होइ । जिणि तुदु रज्जु समप्पिं चित करिसंह सोइ ॥ १ ॥ १५ तत् तदीयं वचः श्रुत्वा सुशब्दं मन्यमानः पुरस्थे महाघट्टेऽदिशत् । नरसहस्त्रेण सह भञ्जन् घ्नन् गतो गजारूढः कुमारपाल आनाकगजान्तिके । आस्फालितो गजो गजेन । लग्नः करः करेण । आस्फालितौ दन्तौ दन्ताभ्याम् । एकदेहत्त्वमिव द्वयोरिभयेोरभूत् । प्रवृत्तं युद्ध नाराचैः । द्वावपि बलिष्ठौ महोत्साहो राजेभौ । तथापि २० कलहपश्चाननश्चीत्कारान् मुञ्चन् पुनः पुनः पश्चान्निवर्त्तते । तदा । २ साइसयुक्तेन हलं वह (चल) ति दैवस्थ कपाले । क्षुपान् विना स्तम्नाति न कर्षक ! क्षुपान् त्यक्त्वा ॥ इति दि. न. के. इ. ध्रुव इत्येभिः साक्षरवर्यैः सूचिताच्छाया । २ ध - 'इलु' ।। ३-४ घ' खंडा' । ५ ग - पुस्तके तु एवम्- 'खेडिम खूंटा टालि खूंटा विण खींसह नही । दैवहत कपालि साहस जुत्तइहलवलाई ॥ १ ॥ ६ छाया --- कुमारपाल ! मा चिन्तां कुरु चिन्तया किमपि न भवति । येन तुभ्यं राज्यं समर्पितं चिन्तां करिष्यति स एव ॥ ७ - 'मनि चिंत्य करि' ८ ग 'रज्ज' । ९ घ - सिइ सोइ' । १० लोड्मयवाणैः । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये चौलुक्येन श्यामल ऊचे - कथमयं निवर्तते । श्यामलो गदति स्म - स्वामिन्! श्रीजयसिंहदेवे बिपन्न ३० दिनानि पादुकाभ्यां राज्यं कृतम् | 'मालवीय 'राजपुत्रेण चाहडकुमारेण राज्यं प्रधानपार्श्वे याचितम् । प्रधानैस्तु परवश्यत्वान्न दत्तम् । ततो रुष्ट्वा वाह आनाकसेवकः सञ्जातः । स भगदत्तनृपवन्महामात्रधुर्यः, अतुलबलः । तस्य सिंहनादेन कलहपश्चाननः क्षुभ्यन् पश्चानिवर्तते । किमत्र क्रियते न विद्म: । चौलुक्यस्तदाकर्ण्य द्विपटीं विदार्य फालिकद्वयेन द्वौ गजकर्णौ पूरयामास । ततश्चाहडसिंह - नादमाण्वन् कलहपञ्चाननः स्थिरतरः स्थिता गिरिवत् । वर्तते 'त्रिँशदायुधैर्युद्धम् । चमत्कृते द्वे अपि सैन्ये । उदासीनतया प्रथमं १० स्थिता 'चौलुकीया' चकम्पिरे भयेन अहो एकाङ्गमात्रस्यापि कुमारदेवस्यासमसमरसम्पल्लैम्पटत्वम् ! | सैन्ययोर्युद्धमपि निवृत्तम् । तावेव युध्येते । अत्रान्तरे चौलुक्यो विद्युदुत्क्षिप्तकैरणं दत्त्वा "आनाकगजपतिस्कन्ध मारूढः । क्षिप्तौ भुजौ राजोपरि । कसणकानि छुरिकया च्छिखा आनाकं सर्दञ्चकं च भूमौ पातयित्वा १५ योक्तृबन्धं क्षिपवा हृदि पादं दत्त्वा छुरी कराग्रे गृहीत्वा अवादीत् - रे वाघाट! मूढ ! निर्धर्मन् ! पिशाच ! स्मरसि मद्भगि न्यग्रे 'मारय मुण्डिकान्' इति वदिष्यसि । पूरयामि निजभगिनीप्रज्ञाम् । छिनतेि दुर्वाक्पङ्कदूषितां जिह्वाम् । इत्येवं वदति कृन्तदुष्प्रेक्ष्ये चौलुक्ये 'सपादलक्षीयः' किश्चिनोचख्यौ केवलं २० तरलतारकाभ्यां चक्षुभ्यिमद्राक्षीत् । चौलुक्योऽप्युत्पन्नलोकोत्तरकरुणापरिणामः प्राभाणीत् रे जाल्म ! मुक्तोऽसि, न भगिनीपतित्वेन, किन्तु कृपापात्रत्वेन । पूर्वं तव देशे टोपी बन्धाभागे जिह्निके " १०७ १ म ‘परवंशत्वान ं। ३ स्व - फालक० । ३ एतन्नामार्थ दृश्यतां पद्मानन्दमद्दाकाव्यस्य परिशिष्टं (पृ. ५८९ - ५९० ) । ग - 'प्रथम स्थिता-' । ५ ख-घ'हम्पट्टत्वम्' । ६ क - 'किरण' । ७ क ' आनक०' ८ 'दांची' इति भाषायाम् । ९ के घ- 'नाचख्यात्' । १० ग 'वन्धेऽप्र० । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ चतुर्विंशतिप्रवन्धे १० श्रीहेमचन्द्रसूरि भासाताम् । कसा(शा)या जिह्वेति सज्ञा । अतःपरं जिह्वाबन्धः पश्चात् करणीयः, अवटोर्जिह्वाकर्षणप्रतिज्ञासिद्धिसूचकत्वात् । एवं श्रुते तथेति प्रतिपेदे आनाकः । बलवद्भिः सह का विरोधितेति न्यायात् । काष्ठपञ्जरे क्षिप्तः त्रिरात्रं स्वसैन्ये स्थापितः । जयातायानि घोषितानि । पश्चात् 'शाकम्भरी पतिर्विहितः । उत्खातप्रति'रोपितव्रताचार्यों हि तिहुअणपालदेवनन्दनः । गम्भीरतया स्वभटा नोपालब्धाः । त्यक्तजीवाशास्ते तं सेबन्ते । 'मेडतकं सप्तवारं भग्नम् । 'पल्लीकोट'स्थाने आर्दकमुप्तम् । ततः पठितं चारणेन "कुमारपाल रणहट्टि वलिउ कुकरि सइव वैहरणु । १० इक्कह पल्ली मट्टि बीसलक्सउ(१) झगडउ कियउ ।। इति चिरं तस्थौ स तत्र | श्रीहेमचन्द्रसूरयः सदैव सन्ति । पृष्टास्ते तेन-- भगवन् ! 'मालवीया' राजानो 'गूर्जरा'नागताः प्रासादान् पातयन्ति आत्मख्यातये। तदस्माकमकृत्यम् । केनो पायेनात्मख्याति कुर्मः ? । श्रीहेमसूरिपादैः प्रत्यपादि-राजेन्द्र ! १५ पाषाणमयानि तिलपेषणयन्त्राणि भञ्जय, पुण्यकार्तिलाभात् । भञ्जितास्ते तेन घाणकाः । अद्यापि भग्नाः पतिताः स्थाने दृश्यन्ते । ततो वक्ले परराष्ट्रमर्दनः चौलुक्यः । आयातः 'पत्तनम् । भग्नी भर्तृकुले प्रगन्तुमतत्वरत् । न तु सा गता अभिमानात् । तपस्तु तेपे । राजा 'स्तम्भन'पुरे यात्रां सूत्रयामास । २० तत्पुरं पार्श्वदेवाय ददौ । पुनः ‘पत्तन' मैत् । गृहीत-सपादलक्षा' धिपतिलेश्चाद्रव्यान् कुसेवकान् निगृह्य निश्चिन्तीभूतः श्रीकुमारपाल: श्रीहेमसूरिपादान् पर्युपास्ते, सामायिकपौषधादीन्याचरति । . एकदा पृष्टं राज्ञा- भगवन् ! इदमपि ज्ञायते यदहं पूर्वभवे -...-- -.. ...... ....... --.-- क-'प्रभुः' । २ ख-घ-रोपित्ताचार्यो' । ३ क-'मेदंत' । . ४ छाया- कुमारपालो रणहट्टे वलितः...... | एकस्य पल्ल्याः कृते ... ... कलहः पतिः ॥ ५.घ-'बहुरणु। ६ ग-- गुरुभिरुक्तम् । ७ 'पाणी' इति भाषायाम् । ८ ख-ग'भगिनी' । ५ लांच' इति भाषायाम् । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये 9 कीदृशोऽभूवम् । गुरुंराह- राजन् ! निरतिशयः कालोऽयम्, यतः श्रीवीर मोक्षगमनाद वर्षाणां चतुःषष्ट्या चरमकेवली जम्बूस्वामी सिद्धिं गतः । तेन समं मनः पर्यवज्ञानम्, परमावधिः, पुलाकलब्धि:, आहारकशरिम्, क्षपणश्रेणिः, उपशमश्रेणिः, जिनकल्पः, परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसम्पराय यथाख्यातचारित्राणि, ५ केवलज्ञानम् सिद्धिगमनं च इति द्वादशस्थानानि 'भरत' क्षेत्रे व्युच्छिन्नानि । सप्तत्यधिके वर्षशते गते स्थूलभद्रे स्वर्गस्थे चरमाणि चत्वारि पूर्वाणि समचतुरस्त्र संस्थानं वज्रऋषभनाराचसंहननं महाप्राणध्यानं व्युच्छिन्नम् । आर्यवज्रस्वामिनि दशमं पूर्वं आद्यसंहननचतुष्कं च व्यपगतम् । ततः परं शनैः शनैः सर्वाणि १० पूर्वाणि प्रलयं गतानि । 'सम्प्रति अल्पश्रुतं वर्तते तथापि देवतादेशात् किमपि ज्ञायते । राज्ञा विज्ञप्तम् - यथातथा पूर्वभवं ज्ञापयत माम् । गुरुभिः प्रतिपन्नम् । ततः 'सिद्ध' पुरे निजैराप्ततपोधनैः : सह 'सरस्वती' तीरं गत्वा विजने ध्याने निषण्णाः । दौ मुनी दिग्रक्षायां मुक्तौ । दिनत्रयान्ते विद्यादेव्य आजग्मुः । १५ प्रभूणामये ताभिरुक्तम् - यद् भवतां सखेन तुष्टाः स्मः, याच्यतां किञ्चित् । सूरिभिरभाणि - कुमारपालस्य प्राग्भवं वदत । ता ऊचु. - 'मेदपाट' परिसरे पर्वतश्रेण्यां 'परमार 'पल्ली शो जयताको राज्यमकरोदन्यायी । एकदा धनकनकसमृद्धा बैलीवर्दश्रेणी तेन गृहीता । बलीवर्दाधिपतिर्नष्टः । जयताकेन सबै लुण्ठितम् । २० 'बलीवर्दा 'विपतिस्तु 'मालव' देश गत्वा राज्ञा सह मिलित्वा सेनां गृहीत्वा तस्यां पल्ल्यां वेष्टमकृत । कीटमारिः कृता । जयताको नष्टः । तस्य भार्या (हस्ते) चटिता । तस्या उदरं विदार्य पुत्रं गर्भमुपले आस्फाल्य बाणिज्यारकोऽबधीत् । 'पल्ली' ग्रामादि प्रज्वालय पुन १०९ - १ 'सम्प्रति' इत्यधिका ग पाठः । २ एतन्नामार्थमेतासां प्रतिकृत्यर्थे च प्रेक्ष्यत श्रीयप्पभट्टित्तिचतुर्विंशतिकाया मदीयं संस्करणम् । 3 'मळद' इति भाषायाम् । ४ 'वणजारो' इति भाषायाम् । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ १० महेमचन्द्रसूरि 'मालव' देशं गतः । राज्ञा हृष्टेन पृष्टः- कथं कथं विग्रहः कृतः ? । वाणिज्यारकेणोक्तम्- खामिन् ! तत्पुरं प्रज्वालितम्, जयताको नष्टः, तत्पत्नी चटिता, सगर्भा इता । राज्ञेोक्तम्- त्वया न सुष्ठु कृतम् । इस्याद्वयं गृहीतम् । अद्रष्टव्यमुखस्त्वं ममान्तिकं त्यज । निष्कासितः । लोकनिन्दोच्छलिता । तपोवनं गत्वा तपस्विदीक्षा जगृहे । गाढं तपस्तप्वा मृत्वा च वाणिज्यारको जयसिंहदेवो जातः । जयताकस्तु स्थानभ्रंशं दृष्ट्वा देशान्तरं गतः । अटवीं गच्छतस्तस्य ' षण्डेर 'गच्छस्वामिनः श्रीयशोभद्रसूरयो मिलिताः । सूरिभिरमिहितम् — यद् भवतोऽधुना सर्व गतम्, किमर्थमन्यायं १० करोषि ? | जयताकेनो कम्— 'बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ?' । ततः सर्वमकृत्थं करोमि । सूरिभिरुक्तम् -- अधुना शम्बलादिकं भोजनादि कारयिष्यते । अनयं मा कृथाः । भोजनवस्त्रादिकं कस्यापि पाद दापितम् । सार्थे हि तदादेशकारिणो बहवः चौर्यनियमं यावज्जीवं ग्राहिताः । स 'तिलङ्गेषु 'उरङ्गल' पुरे ओढर१५ वाणिज्यारकगृहे भोजनादिवृत्त्या भृत्योऽस्थात् । तत्र विहरन् यशो - भद्रसूरयः प्राप्ताः । चतुष्पथे मिलिता जयताकस्य । श्रावकैरुपाश्रयो दत्तः । जयताकेन तत्र गत्वा हृदयशुद्धया पुनश्चर्यनियमो गृहीतः अन्येऽपि बहवो 'ग्राहिता नियमाः । उत्सूरे ओढरगृहं गतः । ओढरेण पृष्टम् -- तव व वेला लैग्ना ? । त्वां विना २० कार्याणि सीदन्ति । तेनोक्तम् - मम गुरवः समागताः सन्ति 'तत्मकमलवन्दनानन्दमन्वभूवम् । नियमानग्रहीषम् । ओढरेणःपि समुत्पन्न श्रद्धेन व्याकृतम् — वयमपि गुरून् बन्दिष्यामहे । जयताकेनोक्तम् - पुण्यात् पुण्यमिदम् । ओढरस्तत्र गतः । गुरून् वन्दित्वा न्यवदत् । देशना श्रुता । तत्त्वज्ञानमुन्मीलितम् | श्रावकत्वं २५ गृहीतम् । पश्चाद् गुरुदक्षिणा गृह्यतामिति ओढरेणोक्ते सूरिभि । ११० ५ १ घ - शम्बलादि भोजनादि' । २ अनीतिम् । ३ ख ब ' तिलिङ्गेषु तुर० ४ ग 'नियमा गृहीताः । ५ ' लागी' इति भाषायाम् । ६ चरण० । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये रुक्तम्- वयं निर्ममा निष्परिग्रहा धनादि न गृहीमः । अथ तवाल्याग्रह एव तर्हि महावीरप्रसादकारापणं दक्षिणाऽस्तु । कारितः प्रासादः । ओढरस्य जयताकेन सह सोदरत्वमिवासीत् । ___ एकदा पर्युषणे ओढरः सपरिवारश्चलितो जयताकेन समं देवगृहं प्रति । पुष्पाणि गृहीत्वा ओढरेण देवस्य पूजा कृता, ५ जयताको जजल्पे- इमानि पुष्पाणि मे गृहीत्वा पूजां कुरु । जयताको जगाद- पष्पाणि भवदीयानि, एभिः पूजायां कृतायां किं मे फलम् ? । 'विष्टिरेव केवला । केवलं ममापि पञ्च वराटका सन्ति । तत्पुष्पैः पूजयिष्यामि जिनेन्द्रम् । तथैव पूजितः । जयताको पुण्यमगण्यमुपार्जयत् । तत ओढर-जयताको गुरून् १० वन्दितुं जग्मतुः । उपवासः कृतो जयताकेन । द्वितीयदिने मुनि* यो दत्त्वा पारणं कृतम् । एवं पुण्याढ्यः सन् मृत्वा श्रीमूलराजवंशे तिहुअणपालदेवगृहे श्रीकुमारपालोऽभूत् । एवमुक्त्वा विरतासु देवीषु प्रभुभिः प्रोक्तम्- कोऽत्र प्रत्ययः ? । पुनर्देव्यः प्राहुः- उपराजं बदः नवलक्षतिलङ्गशृङ्गारनगरे 'उरङ्गले' मान- १५ वान् प्रेषय । अद्यापि ओढरस्य वंशीयाः सन्ति । तेषां दासी स्थिरदेवी जीर्णवृत्तान्तान् जानाति वक्ष्यति च । इदं श्रुत्वा विसृज्य गच्छन्ताभिर्देवीभिस्तत्रत्ये ओढेरगृहे लप्स्यमानानि निधानानि कथितानि । विज्ञाय 'पत्तने' राजान्तिकं गता प्रभवः । पृष्टं तत्र राज्ञा । तथैव राज्ञोऽने न्यगादि । नरप्रेषणात् सर्व ज्ञातम् । २० जिनधर्मे स्थैर्य जातम् । संह सिद्धसेनेनापि वैरकारणमुपलब्धम् । पूर्वभवे गर्भघातान्न सिद्धराजस्य पुत्रः । इति कुमारपालपूर्वभवः ।। ॥ इति हेमसूरिप्रबन्धः ॥ १०॥ १ ग-तर्हि धीमहा०।२ ग-'इमानि मे पुष्पाणि'1३ 'वेठ' इति भाषायाम् । ४ ग-वेष्ठिरव'। ५ स्व-'नवलक्षनषशृङ्गार', घनवलक्षतिलिङ्गः०१६ 'जूना इति भाषायाम् । ७ क-ख-'इत्युक्त्वा देव्यो गताः स्वस्वस्थानम् । पत्तने राजान्तिक' । ८ ग-'सह सिद्धेशेनापि । ग-'सन्तानम्' । . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [११] ॥ अथ श्रीहर्षविप्रबन्धः ॥ पूर्वस्यां दिशि 'वाराणस्यां ' पुरि गोविन्दचन्द्रो नाम राजा ७५० अन्तः पुरीयौवनरसपरिमलग्राही । तत्पुत्रो जयन्तचन्द्रः । तस्मै राज्यं दत्त्वा पिता योगं प्रपद्य परलोकमसाधयत् । जयन्तचन्द्रः सप्तयोजनशतमानां पृथ्वीं जिगाय । मेघचन्द्रः कुमारस्तस्य यः सिंहनादेन सिंहानपि भक्कमलम्, किं पुनर्मदान्धगन्धेभघटाः । तस्य राज्ञश्चलतः सैन्यं 'गङ्गा' - ' यमुने' विना नाम्भसा तृप्यति । नदीद्वययष्टिग्रहणात् 'पङ्गुलो' राजेति लोके श्रूयते । यस्य गोमती१० दासी षष्टिसहस्रेषु वाहेषु प्रक्षरां (रं) निवेश्याभिषेणयन्ती परचक्रं त्रासयति । राज्ञः श्रम एव कः ? । तस्य राज्ञो बहवो विद्वांसः | तत्रैको हीरनामा विप्रः । तस्य नन्दनः प्राज्ञचक्रवर्ती श्रीहर्षः । सोऽद्यापि बालावस्थः । सभायां राजकीयेनैकेन पण्डितेन वादिना हीरो राजसमक्ष जित्वा मुद्रितवदनः कृतः । लज्जापके मनः । वैरं १५ बभार धारालम् | मृत्युकाले श्रीहर्ष स बभाषे -- वत्स ! अमुकेन पण्डितेनाहमाहत्य राजदृष्टौ जितः । तन्मे दुःखम् । यदि सत्पुत्रोऽसि तदा तं जयेः क्ष्मापसदसि । श्रीहर्षेणोक्तम् - ओमिति । हीरो द्यां गतः । श्रीहर्षस्तु कुटुम्बभारमाप्तदायादेष्वारोप्य विदेश गत्वा विविधाचार्यपार्श्वेऽचिरात् तर्का ऽलङ्कार-गीत-गणित-चूडा२० मणि-मन्त्र- व्याकरणादीः सर्व विद्याः सस्फुराः प्रजमाह । 'गङ्गातीरे सुगुरुदत्तं 'चिन्तामणि' मन्त्रं वर्षमप्रमत्तः साधयामास । प्रत्यक्षा त्रिपुराऽभूत् । अमोधादेशत्वादिवराप्तिः । तदादि राजगोष्ठीषु भ्रमति । अलौकिकोल्लेखशिखरितं जल्पं करोति यं कोऽपि न बुध्यते, ततोऽतिविद्ययाऽपि लोकागोचरभूतया खिन्नः । पुन [ ११ श्रीहर्ष ད १ ग - 'अथ हर्ष ० ' । २ घ - 'पूर्वस्यां वारा०' । ३ घ 'तृष्यतीति' । ४ तुरङ्गसन्ना - इम्, 'पाखर' इति भाषायाम् । ५ खगस्य धारावत्, तीत्रम् । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध: प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये औरती प्रत्यक्षीकृत्याभणत्-मातः ! अतिप्रज्ञाऽपि दोषाय मे जाता | बुध्यमानवचनं मां कुरु । ततो देव्योक्तम्---- तर्हि मध्यरात्रेऽम्भःक्लिन्ने शिरसि दधि पित्र । पश्चात् स्वपिहि । कफांशावताराज्जडतालेशमाप्नुहि । तथैव कृतम् । बोध्यवागासीत् । खण्डनादिग्रन्थान् परःशताञ्जग्रन्थ । कृतकृत्यीभूय 'कासी'मायासीत् । ५ नगरतटे स्थितः जयन्तचन्द्रमजिज्ञपत्- अहमधीत्यागतोऽस्मि । राजाऽपि गुणस्नेहलो हीरजेतृपण्डितेन सह सचातुर्वर्ण्यः पुरीपरिसरमसरत | श्रीहर्षो नमस्कृतः । तेनापि यथार्हमुचितं लोकाय कृतम् राजानं त्वेवं तुष्टाव गोविन्दनन्दनतया च वपुःश्रिया च __माऽस्मिन् नृपे कुरुत कामधिय तरुण्यः । अस्त्रीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री रस्त्रीजनः पुनरनेन विधीयते स्त्री ॥१॥ व्याचख्यौ च तारस्वरं सरसविस्तरम् । तुष्टा सभा राजा च । पितृवैरिणं तु वादिनं दृष्ट्वा सकटाक्षमाचष्टेसाहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले तर्के वा मयि संविधातरि समं लोलायते भारती। शय्या वाऽस्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाकुरैरास्तृता भूमिळ हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतियोषिताम् ॥१॥ एतच्छ्रुत्वा स वादी प्राह- देव! वादीन्द्र ! भारतीसिद्धः तव २० समो कोऽपि न, 'किं पुनरधिकः ।। हिंसाः सन्ति सहस्रशोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्धता___ स्तस्यैकस्य पुनः स्तवीमहि महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् । केलिः कोलकुलैमंदो मंदकलैः कोलाहलं नाहलैः सहर्षो महिषैश्च यस्य मुमुचे साहकृतेर्तुङ्क्तेः ॥१॥ २५ क-काशीमायासीत्। २ वसन्त । ३ घ-'चचक्ष' । । शार्दक।। ५ - त्वधिकः' । ६ वराहः । ७ मदोन्मरापजैः । ८ म्लेचविशेषैः । १ बाईला। पार्विशति. १५ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे " श्रीहर्षकविइदं श्रुत्वा श्रीहर्षो निष्क्रोध इवासीत् । भूपेनोक्तम्-~~अत्र श्रीहर्षे इदमेव वक्तुमर्हम् । प्रतिवादीनां कोऽर्थः । । सम्यगवसर'मज्ञासीः । श्रीहीरवैरिनित्यर्थः । अन्योन्यं गाढालिङ्गनमचीकरद् द्वयोरपि वसुन्धरासुधांशुः । विस्तरेण सौधमानीय माङ्गलिकानि कारयित्वा गृहं प्रति प्रहितः । लक्षसङ्ख्यानि हेमानि ददिरे । निश्चिन्तीकृत्यैकदा मुदा नृपेणोक्तः कवीशः- वादीन्द्र ! किञ्चित् प्रबन्धरत्नं कुरु । ततो नैषधं महाकाव्यं बद्धं दिव्यरसं महागूढव्यङ्गयभारसारं राज्ञे दर्शितम् । राज्ञोचे- सुष्टुतममिदम् , परं 'काश्मीरं' व्रज । तत्रत्यपण्डितेभ्यो दर्शय । भारतहिस्ते च १० मुञ्च । भारती च तत्र पीठे स्वयं साक्षाद् वसति । असत्यं प्रबन्धं हस्ते न्यस्तमवकरनिकरामिव दूरे क्षिपति, सत्यं तु मूर्धधूननपूर्व सुष्ठ इत्युरीकरोति । उपरितः पुष्पाणि पतन्ति । श्रीहर्षो राजदत्तार्थनिष्पन्नविपुलसामग्रीकः 'काश्मीरा'नगमत् । सरस्वती हस्ते पुस्तकं न्यास्थत् । सरस्वत्या दूरे क्षिप्त तत् । श्रीहर्षेण १५ कथितम्---- किं जरतीति विकलाऽसि यन्मदुक्तमपि प्रबन्धमितर प्रबन्धमिव मन्यसे ? । भारत्याह-- भो परमर्मभाषक ! न स्मरसि यदत्रोक्तं त्वया एकादशे सर्गे चतुःषष्टितमे काव्ये'देवी पवित्रितचतुर्भुजवामभागा वागालपत् पुनरिमां गरिमाभिरामाम् । २. 'एतस्य निष्कृपकृपाणसनाथपाणेः पाणिग्रहादनुगृहाण गणं गुणानाम् ॥१॥' एवं मां विष्णुपत्नीत्वेन प्रकाश्य लोके रूढं कन्यात्व लुप्तवानसि, ततो मया पुस्तकं क्षिप्तम् । याचको वञ्चको ब्याधिः, पश्चत्वं मर्मभाषकः । २५ योगिनामप्यमी पश्च, प्रायेणोद्वेगहेतवः ॥१॥ घ- केवलं काश्मीरं'। २ ग.. अस्यारि निष्कृप० । ३ वसन्त । भमुष्टप् । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधा] प्रबन्धकोशेत्यपराये इति वाग्देवीवाचं श्रुत्वा श्रीहर्षो वदति- किमर्थमेकस्मिन्नवतारे नारायणं पतिं चक्रुषी, त्वं पुराणेष्वपि विष्णुपत्नीति पठ्यसे। ततः 'सत्यं किमिति कुप्यसि । कुपितैः किं 'छुट्यते कलङ्कात् । इति श्रुत्वा स्वयं गृहीत्वा पुस्तकं हस्ते धारितम् । ग्रन्थश्च श्लाधितः सभासमक्षम् । श्रीहर्षेण पण्डिता उक्तास्तत्रत्या:- ग्रन्थमत्र- ५ त्याय राज्ञे माधवदेवनाने दर्शयत । श्रीजयन्तचन्द्राय च शुद्धोऽयं ग्रन्थ इति लेखं प्रदत्त । इति श्रुतेऽपि ग्रन्थे भारत्यभिमते ज्ञातेऽपि ते लेख न ददते, न भूपं दर्शयन्ति । स्थितः श्रीहर्षो बहून् मासान् । जग्धं पाथेयम् । विक्रीतं वृषभादि । मितीभूतः परिच्छदः । एकदा नधासनदेशे पतटासन्नतमे देवकुले रुद्रजपं रहः करोति । तत्रागते कयोश्चिद् गृहिणोरुल्लण्ठे चेट्यौ । जलप्रथमपश्चाद्ग्रहणघटभरणविषये वादे लग्ने । तयोश्चिर मुक्तिप्रत्युक्तिरभूत् । शीर्षाणि स्फुटितानि घातप्रतिघातैः । गते राजकुलम् । राजा साक्षिणं गवेषयति । उक्ते ते- अत्र कलहे कोऽपि साक्षी विद्यते १५ न वा ? । ताभ्यां जगदे-विन एकस्तत्रास्ते जपतत्परः । गता राजकीयाः । आनीतः श्रीहर्षः पृष्टस्तयोर्नयानयो । श्रीहर्षेण गीर्वाणवाण्योक्तम्- देव ! वैदेशिकोऽहम् । न वेद्मि किमप्येते प्राकृतवादिन्यौ ब्रूतः; केवलं तान् शब्दान् वेद्मि। राज्ञोक्तम्- ब्रूहि । तत्त्रामस्थमेव तद्भाषितप्रतिभाषितशतमभिहितमनेन । राजा चम- २० स्कृतः । अहो प्रज्ञा ! अहो अवधारणा ! दास्योर्वादं निर्णीय यथासम्भवं निग्रहानुग्रही कृत्वा प्रहित्य श्रीहर्षमपृच्छद् राजा- कस्त्वमेवं मेधिरशिरोमणिः १ । श्रीहर्षेणोऽक्तं सर्व कथानकं स्वम् । राजन् ! पण्डितकृतदौर्जन्यात् तव पुरे दुःखी तिष्ठामि । सम्यक्पारम्पर्यज्ञो राजा पण्डितानाहूयावादीत्-- धिग् मूढाः ! ईदृशेऽपि २५ रत्ने न स्निह्यथ । १ ख-'सत्ये किमतिः' । २ ‘छूटाय छे' इति भाषायाम् । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ चतुर्विंशतिप्रबन्धे वरं प्रज्वलिते वहा वह्नाय निहितं वपुः । न पुनर्गुणसम्पन्ने, कृतः स्वल्पोऽपि मत्सरः ॥१॥ ' वरं सा निर्गुणाऽवस्था, यस्यां कोऽपि न मत्सरी । गुणयोगे तु वैमुख्यं, प्रायः सुमनसामपि ॥ २ ॥ | [99 श्री हर्षवि तस्मात् खला यूयम् । गच्छत एतं महात्मानं प्रत्येकं स्वगृहेषु सत्कुरुत । तदा श्रीहर्षः 'प्रागदीत् १० यथा यूनस्तद्वत्परमरमणीयाऽपि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं केब कुरुते । मदुक्तिश्चेतश्चेन्मयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसपुरुषाराधनरसैः १ ॥१॥ * इति ललजिरे पण्डिताः । सर्वे गृहं नीत्वा सत्कृत्यानुनीय राज्ञा च सत्कार्यज्ञैः प्रहितः श्रीहर्ष : 'कासी (शी ? ) ' म् । मिलितो जयन्तचन्द्राय । उक्तं सर्वम् । तुष्टः सः । प्रसृतं नैषधं लोके । अत्रान्तरे जयन्तचन्द्रस्य पद्माकरनामा प्रधाननरः श्री' अण१५ हिलपत्तनं' गतः । तत्र सरस्तटे रजकक्षालितायां शाटिकार्या केतक्यामिव मधुकरकुलं निलीयमानं दृष्ट्वा विस्मितोऽप्राक्षीद् रज. कम् - यस्या युवतेरियं शाटी तां मे दर्शय । तस्य हि मन्त्रिणस्तत्पद्मिनीत्वे निर्णयस्थं मनः । रजकेन सायं गत्वा तस्मै तद्गृहं नीत्वा तामर्पयित्वा तत्स्वामिनी सूहवदेविनाम्नी शालापतिपत्नी २० विधवा यौवनस्था स्वरूपा दर्शिता । तां श्रीकुमारपालराजपार्श्वादुपरोध्य तद्गृहानीत्या सोमनाथयात्रां कृत्वा 'कास' गतः । तां पद्मिनीं जयन्तचन्द्र योगिनीमकरोत् । सूहवदेविरिति ख्यातिमगात् । सा च सगर्वा विदुषीति कृत्वा 'कलाभारती 'ति ४ १ अनुष्टुप् । २ सूत्रसम्बन्धे इति पक्षान्तरे । ३ पुष्पाणाम् इति पक्षान्तरे । अनुष्टुप् । ५ क - 'स्वस्वगृहेषु' ६ घ 'प्रागदत्' । ७ शिखरिणी । ८ खश-ध'लखिरे' १९ ग-'प्राक्षद्' | 1 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रवन्धकोशेत्यपराहये पाठयति लोके । श्रीहर्षोऽपि 'नरभारती'ति पठ्यते । तस्य तन्न सहते सा मत्सरिणी । एकदा ससत्कारमाकारितः श्रीहर्षः। भणितश्च- त्वं कः । श्रीहर्ष:- कलासर्वज्ञोऽहम् । राज्ञाऽभाणि- तर्हि मामुपानही परिधापय । को भावः ? । यद्ययं न वेभि इति भणति द्विजत्वात् तर्हि ५ अज्ञः । श्रीहर्षेणाङ्गीकृतम् । गतो निलयम् । तरुवल्कलैस्तथा तथा परिकर्मितैः सायं लोलाक्षः सन् दूरस्थः स्वामिनीमाजूहवत् । चर्मकारविधिनोपानही पर्यदीधपत् । अभ्युक्षणं निक्षिपध्वं चर्मकारोऽहमिति वदन् । राजानमपि तत्कृतां कुचेष्टां ज्ञापयित्वा खिन्नो 'गङ्गा'तीरे संन्यासमग्रहीत् । सा च सहवदेविः साम्राज्येशा पुत्र- १० मजनयत् । सोऽपि यौवनमाससाद । धीरः, परं दुर्नयमयः । तस्य च राज्ञो विद्याधरमन्त्री । स च चिन्तामणिविनायकप्रसादात् सर्वधातुहैमत्वकरणप्रख्यातमाहात्म्यस्पर्शपाषाणलाभात् ८८०० विप्राणां भोजनं दाता, इति 'लघुयुधिष्ठिर तया ख्यातः । कुशाग्रीयप्रज्ञः । राजा तं जगदे- राज्यं कस्मै कुमाराय ददामि ? । मन्त्र्याह- १५ मेघचन्द्राय सुवंशाय देहि, न पुनधुतापुत्राय । राजा तु तया कार्मणितस्तत्पुत्रायैव दित्सति । एवं विरोध उत्पन्नो मन्त्रि-राज्ञोः । कथङ्कथञ्चिन्मन्त्रिणा राज्ञीवाचमप्रमाणीकार्य भूपो मेषचन्द्रकुमाराय राज्यदानमङ्गीकारितः । राज्ञी क्रुद्धा । धनाढ्यतया स्वच्छन्दतया निजप्रधाननरान् प्रेष्य 'तक्षशिला'ऽधिपतिः सुरत्राणः 'कासी'- २० भखनाय प्रयाणे प्रयाणे सपादलक्षहेमदानेन चालित आयाति । तत् तु विद्याधरेण चरदृशा विदितम् । राज्ञे कथितम् । राजा तत्कार्मणेदिङ्मूढः प्राह-ममेयं वल्लभेश्वरी नैवं पतिद्रोहं समाचरति । मन्त्री तु वदति- राजन् ! अमुकप्रयाणे तिष्ठति शाखीन्द्रः । राज्ञा हक्कितो गतो गृहम् । चिन्तितं च तेन-- नृपस्तावन्मूढः । २५ ग-पाठते' । २ सिञ्चनम् । ३ ख-'दुर्गय०' । ४ 'सुलतान' इति भाषायाम् । ५ घ--'दृढमूदः' । ६ ख-'साखीन्द्रः । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [११ श्रीहर्षकवि राज्ञी बलवती, लब्धप्रसरा, अविवेकिनी । मम मरणं यदि स्वामिमरणादर्वाग् भवेत् तदा धन्यता । प्रातश्वलितो मन्त्री स्वसदनात् । पथि गच्छन्तं 'पिण्याकं दृष्ट्वा तमजिप्रसिषत् । पुनः पुरो गतः । स्फुटितच नकपिटकमा लोक्य तददने मनोऽदधत् । तेन कुचेष्टा५ येनात्मनो विधिवैपरीत्यं निर्णीयोपराजं गत्वा व्यज्ञपत्- देव! अहं 'गङ्गा' जले मक्त्वा म्रिये यद्यादिशसि । राजाऽऽख्यत् -- यदि म्रियसे तदा सुखेन जीवामः । कर्णज्वरो निवर्तते । मन्त्री दूनः डुं हितवचनानाकर्णनम्, अनये वृत्तिः, प्रियेष्वपि द्वेषः, निजगुरुजनेऽप्यवज्ञा, मृत्योः किल पूर्वरूपाणि । आगतं राज्ञो मर१० णम् । राजानमापृच्छय गृहं गत्वा सर्वस्वं द्विजादिलोकाय प्रदाय भवविरक्तो 'जाह्नवी' जलमध्यं प्रविश्य कुलपुरोहितमाह-- दानं गृहाण | विप्रेणापि करः प्रसारितः । दत्तः स्पर्शपाषाणः । तेनोक्तम्- धिक् ते दानं यद् ग्रावाणं दत्से । इति क्रुद्धेनान्तरुदकं चिक्षिपे । सोऽश्मा गङ्गादेव्या ढले । मन्त्री जले मक्त्वा मृतः । राजाऽनाथो जातः । सुरत्राण आयातः । नगरे भाण्डं भाण्डेन १५ स्फुटितम् । राजा युद्धायाभिमुखमागात् । ८४०० एतावन्ति निस्वानानि निजले, परं एकस्यापि निस्वानस्वनं राजा न शृणोति । आपृच्छच्च तटस्थान् । तैर्बभणे - म्लेच्छधनुर्ध्वानेषु मग्नानि ध्वानान्तराणि । राजा हृदये ऽहारयत् । ततो न ज्ञायते किं हतो गतो मृतो वा । यवनैलता पूः ॥ ॥ इति श्रीहर्ष - विद्याधर - जयचन्द्र प्रबन्धः ॥ ११ ॥ ११८ २० १ तिलकल्कम्, 'खोळ' इति भाषायाम् । २ क- 'व्यज्ञपयत्' । ३ घ '८४०० , निस्वानस्वनं । ४ ख ग 'हारयामास' | ५ 'गङ्गानलेऽपतत्' इत्यधिको ग-पाठः । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवन्धः ] प्रबन्धकोशेस्य पराइये [ ११ ] ॥ अथ हरिहरप्रबन्धः ॥ 'श्रीहर्ष ' वंशे हरिहरः गौडदेश्य: सिद्धसारस्वतः । स ' गूर्जर'धरो प्रत्यचालीत् । अश्वशतद्वयं, मानवानां शतपञ्चकं, करभाः पञ्चाशत् । अनिवारमन्नदानं 'धवलक्कक' तटग्राममागात् । राणश्रीवरिधवल - श्रीवस्तुपाल - श्रीसोमेश्वरदेवेभ्यः पृथक् पृथक् आशीर्वाद प्रागल्भबटुइस्तेन प्राहैर्षांत् । श्रीवस्तुपालो जहर्ष । उत्थाय बटुं सह नीत्वा श्रीवीरधवलाय पण्डितस्याशीर्वादमदीडशत् । तद्गुणांवावर्णयत् । राणकेनोक्तम्- किमत्र युक्तम् ? | मन्त्रयाहदेव ! विस्तरेण प्रातः पण्डितस्य प्रवेशमहोत्सवः क्रियते । विपुलं देयं दीयते । राणकेनोक्तम् न्याय्यम्, ततो निवृत्तौ मन्त्रिराजश्व बटुश्व | बटुना तृतीयाशीर्वादः पण्डितसोमेश्वरदेवायादर्शि । कवितया तस्य मात्सर्यमदीपिष्ट । स निश्वासमधोऽद्राक्षीत् । बैटुमालापीदपि न । आगत उत्थाय बटुर्हरिहरान्तिकम् । उक्तं राणकमन्त्रिणोः सौमनस्यं, सोमेश्वरस्य तु दौर्मनस्यम् । कुपितः सोमे- १५ श्वरदेवे हरिहरः । जातं प्रातः । राणकः समन्त्रिकः सचातुर्वर्ण्यः सर्व सम्मुख गतः । मिलितो हरिहरः । तत्र वीरधवलं प्रति- शम्भु'र्मानस' सनिधी सुरधुनीं मूनी दधानः स्थितः श्रीकान्तश्चरणस्थितामपि बहनेतां निलीनो अम्बुधौ । मनः रुहे कमण्डलुगतामेनां दधनाभिभू मन्ये वीर ! तब प्रतापदहनं ज्ञात्वोल्वणं भाविनम् ॥ १ ॥ दृष्टस्तेन शरान् किरन्नभिमुखः क्षत्रक्षये भार्गवो दृष्टस्तेन निशाचरेश्वरवधव्यम्रो रघुग्रामणीः । ११९ १ ख- 'अन्नगार० । २ ग 'धवलककलट० । ३ क -' P 'बटुवाला' । ५ विष्णुः । ६ ब्रह्मा । ७ शार्दूल ● २० - 'देवयोः' । ४ ख-ग- Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्षिशतिप्रबन्ध [११ मोहरिहर दृष्टस्तेन जयद्रथप्रमथनोन्निद्रः सुभद्रापतिः दृष्टो येन रणाङ्गणे सरभसश्चौलुक्यचूडामणिः ॥२॥ बटुः पृष्टः पण्डितेन-अत्र सदसि सोमेश्वरोऽस्ति न वा ? । बटुराह-स क्रोधान्नागतः । पण्डितो ज्ञात्वाऽस्थात् । जातः प्रवेशः । राणकेन दत्तं सौध-धन-कुप्य-वसन-परिजन-तुरगादि चमत्कारम् । अथ मन्त्रिगृहं गतोऽसौ । गुर्वी सभा । मन्न्यभ्युत्थानं चक्रे । ऊचे च मुधा मधु मुधा सीधु, मुधा सोऽपि सुधारसः । आस्वादितं मनोहारि, यदि हारिहरं वचः ॥ १ ॥ १० पण्डितस्तूचे-देव ! लघुभोजराज! विचारचतुर्मुख ! सरस्वती कण्ठाभरण! अवधारय वयं पण्डिताः, अस्माकं माता भारती, सा च त्रिभुवनचारिणी। एकदा भारत्या सह महेन्द्रस्य सभामगमाम । सा च 'सुधर्मा' नाम । इन्द्रः श्रीमान् । ३ कोट्यः सुराङ्गनाः । ८४ सहस्राणि १५ सामानिकाः । तथा द्वादशार्का वसवो ऽष्टौ, विश्वेदेवास्त्रयोदश । षट्त्रिंशत् तुषिताश्चैव, षष्टिराभास्वरा अपि ॥ १॥ षत्रिंशदधिके माहा-राजिकाश्च शते उभे । १ क- निद्रः' । १ शार्दूल० । ३ क- 'चमुत्कारम्'। ४ अनुष्टुप् । ५ "धाता मित्रोर्यमा रुद्रो, वरुणः सूर्य एव च ।। मगो विवस्वान् पूषा च, सविता दशमः स्मृतः॥ एकादशस्तथा त्वष्टा, विष्णुदश उच्यते ।" ६ “धरो ध्रुवश्च सोमन, अहश्चैवानिलोऽनलः । प्रत्यूपश्च प्रमासश्च, वसवोऽष्ठाविति स्मृताः" ॥ ७ "वसुः सत्यः ऋतुर्दक्षः, काल: कामो धृतिः कुरुः । पुरूरवा मारेयश्च, विश्वेदेवाः प्रकीर्तिताः॥" ८ घ--'वृाराभा.'। भनुष्टुप् । १०-महा.'। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये रुद्रा 'एकादशैकोन - पञ्चाशद् वायत्रोऽपि च ॥ २ ॥' चतुर्दश तु वैकुण्ठाः, सुशर्माणः पुनर्दश । साध्याश्व द्वादशेत्याद्याः, प्रसिद्धा गणदेवताः ॥ ३ ॥ ऐतत्समृद्धिस्वरूपं विलोक्य वयं विस्मिताः स्थिताः । अहो, तपःफलभोग इत्यादि चिन्तयन्तो यावता स्मः । अत्रान्तरे आगतस्तत्र कॅश्वन 'बुम्बों पातयन्नाह " ک. "अजै-कपाद- हिब्र (ई) "न-स्वष्टा रुद्र वीर्य्यवान् । त्वचाप्यात्मजः पुत्रो, विश्वरूपो महातपाः ॥ इरम्भ बहुरूपच. त्र्यम्बक चापराजितः । वृषाकपिश्व शम्भुख, कपदी वैतस्तथा || एकादशैते कथिता, त्रास्त्रिभुवनेश्वराः । " इति गरुडपुराणे षष्ठेऽध्याये । अजः एकपात्, अहिम (बु)ग्नः, पिनाकी, अपराजितः, त्र्यम्बकः, महेश्वरः, वृषाकपिः, शम्भुः हरण, ईश्वर इति मद्दाभारते दामधर्माधिकारे । २. “ एकज्योति द्विज्योंति- त्रिज्योति ज्योंतिरेव च । एकशको द्विशका, त्रिशकथ महाबलः ॥ इन्द्रव गत्यवश्यश्च ततः पतिसकृत्परः । मितभ सम्मिलन, सुमित महाबलः || ऋतजित् सत्यजिचैव, सुवेण : सेनजित् तथा । अम्तिमित्रोऽनमित्रव, पुरुमित्रोऽपराजितः ॥ तम ऋतवाद, भर्ती व बरुण भुवः । विधारणो नाम तथा, देवदेवो महाबलः ॥ माध्यक्ष, एते च मिताशिनः । यतिन: प्रसदृक्षध, सभरच महायशाः ॥ धाता दुर्गे धितिभीम- स्त्वभियुक्तस्त्वपात् सः । घुतिपुरनाभ्योऽथ वासः कामो जयो विराट् । इत्येकीनाथ पश्चाशन् - मरुतः पूर्वसम्भवाः ।। " इति वह्निपुराणे गणभेदनामाध्याये । 7 १२१ 1 ३-४ अनुष्टुप् । ५ ग - पुस्तके ' एतद्• विलोक्य पुसदधिकम्। ३ग-पुस्तके 'इत्यादि ० स्मः' एतदधिकम्' । ७ ग 'कोऽपि । ८ घ 'तुम्बावत्र:' । 'बूज वाढतो' इति भाषायाम् । वि१६ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ चतार्षशतिप्रबन्धे [ १२ श्रीहरिहरदेव ! स्वर्नाथ ! कष्टं ननु क इह भवा'चन्दनो' द्यानपालः खेदस्तत् कोऽध केनाप्यहह हृत इतः काननात् कल्पवृक्षः । हुँ मा वादीस्तदेतत् किमपि करुणया मानवानां मयैव प्रील्याऽऽदिष्टोऽयमुास्तिलकयति तलं वस्तुपालच्छलेन ॥१॥ एवं तत्रालापं श्रुत्वा विस्मितोऽहं भारत्या सह पश्चकल्पद्रुमं त्वां द्रष्टुमागाम् । एवं विस्तरं काव्यं व्याख्याय स्थितः पण्डितः । मन्त्री यावत् किं. ददामि इति चिन्तयति तावद् 'डोडीया'वंश्यराणभीमदेवेन जाल्या वाहनोत्तीर्णाश्चतुर्विंशतिरश्वा एकं च दिव्यं पदकं प्राभृतमानीतम् । तदेव पण्डिताय सर्व दत्तम् । तुष्टोऽसौ पश्चम१. कल्पतरुर्भवसि इत्युक्त्वा स्वोत्तारकमगात् । गतेषु कतिपयेष्वहःसु मिलितायां समायां पुरःस्थे सोमेश्वरे राणकेन पण्डितहरिहर उक्तः- पण्डित ! अत्र पुरेऽस्माभिर्वीरनारायणा'ख्यः प्रासादः कारितोऽस्ति । तत्प्रशस्तिकाव्यान्यष्टोत्तरं शतं सोमेश्वरदेवपार्थात् कारितम् । तत्र भवन्तोऽवदधतु । यथा शुद्धत्वे १५ निश्चयो भवति ज्ञान(ना?)म् । महालक्ष्मीदृष्टौ नाणकपरीक्षा यतः। हरिहरेणोक्तम्-कथाप्यतां तानि । उक्तानि सोमेश्वरेण तानि । श्रुत्वा तानि हरिहर ऊचे-देव ! सुष्टु काव्यानि परिचितानि च नः । यतो 'मालवीये' 'पूजयन्ती' गतैरस्माभिः 'सरस्वतीकण्ठाभरण' प्रासादगर्भगृहे पट्टिकायां श्रीभोजदेववर्णनाकाव्यान्यमून्यदक्षत । २० यदि तु प्रत्ययो नास्ति तदा परिपाट्या श्रूयताम् । इत्युक्त्वा क्रमेणा स्खलितान्यपाठीत् । खिन्नो राणकः । प्रीताः खलाः । व्यथिताः श्रीवस्तुपालादयः सज्जनाः । उत्थिता सभा । हत इव मृत इव स्तम्भित इव जडित इव जातः सोमेश्वरः । गतः स्वगृहम् । हिया वदनं न दर्शयति गृहेऽपि, का कथा राजादिसदनगमनस्य ? । २५ अथ सोमेश्वरः श्रीवस्तुपालमन्दिरं गत्वोवाच-मन्त्रिन् ! ममैव तानि काव्यानि, नान्यथा; मम शक्तिं जानासि त्वम् । हरिहरस्त्वेवं १ स्रग्धरा । २ 'नाणु' इति भाषायाम् । ३ क-श्रूयन्ताम् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्ध कोशेत्यपराइये र्मा व्यजगुपत् । किमहं करोमि ! | मन्त्र्याह तमेव शरणं श्रय । यतः- ' भजते विदेशमधिकेन जितस्तदनुप्रवेशमथवा कुशलैः ' इति न्यायात् । पण्डितः- तर्हि मां नय । तथा कृतं मन्त्रिणा | पण्डितसोमेश्वरं बहिरासयित्वा मन्त्री स्वयं हरिहरा - न्तिकमगात् । बभाण च - पण्डितसोमेश्वरदेवस्तवान्तिकमागतोऽस्ति विज्ञीप्सुः । हसितो हरिहरः । आनीनयत् स्वसमीपम् । चकाराभ्युत्थाना-ऽऽलिङ्गन - महासनादिसत्कारम् । सोमेश्वरेणोक्तम्पण्डित ! निस्तारय मामस्मात् परकाव्यहरणकलङ्कपङ्कात् । यतः — १२३ आगतस्य निजगेहमप्यरे-गौरवं विदधते महाधियः । मीनमात्मसदनं समेयुषो, गीष्पतिर्व्यधित तुङ्गतां कवेः ॥१॥ तुष्ट हरिहरो भणति स्म - मास्म चिन्तां विधाः । पुनर्गौरवमारोपयिताऽस्मि त्वाम् । गतः स्वस्थानं मन्त्री सोमेश्वरश्च । प्रत्यूषे राणकसभाभरे सोमेश्वर आह्नायितः । प्रस्तावना चारब्धा । यथाजयति परमेश्वरी भारती यत्प्रसादादेवं मम शक्तिः । श्रीवस्तुपाले - १५ नोक्तम्- किं किम् ? । हरिहरः — देव ! मया 'काबे (वे?) री ' नदीतटे ' सारखत 'मन्त्रः साधितः । होमकाले गीर्देवी प्रत्यक्षाऽऽसीत् । वरं वृणीष्वेत्याह स्म । मया जगदे - जगदेकमातः ! यदि तुष्टाऽसि तदा एकदा भणितानां १०८ सङ्ख्यानां ऋचां षट्पदानां काव्यानां वस्तुकानां घेत्तानां दण्डकानां वाऽवधारणे समर्थो २० भूयासम् । देव्याचष्ट - तथाऽस्तु । ततः प्रभृति यो यदाह १०८ तत् तु ब्रुवे, यथेदं सोमेश्वरदेवोपज्ञ काव्याष्टोत्तरशतम् । राणकेनोकम् प्रत्ययः कार्यताम् । भाणितान्यष्टोत्तरशतानि तत्तच्छन्दसां प्रतिभाणितानि च हरिहरेण तानि । जातो निश्चयः पण्डित हरिहरवचने । क्षुत्तृष्णातपप्रभृति चिन्तानपेक्षः स्थितो २५ १ रथोद्धता' । २ घ ' घतानी' । १० Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे १२ मीहरिहरलोकः । राणकेश्वरेण बभणे--तर्हि पण्डित ! कथमेवं दूषितः सोमेश्वरः ।। हरिहर प्राभाषत-देव! राणेन्द्र ! पण्डितेन मय्यवज्ञा दधे तत्फलमिदं ददे । यतः प्रियं वा विप्रियं वाऽपि, सविशेषं परार्पितात् । ५ प्रत्यर्थयन्ति ये नैव, तेभ्यः साऽप्युर्वरा वरा ॥१॥ राणः प्राह -तस्त्वेवम् , परं मिथः सरस्वतीपुत्रयोः स्नेहो युक्तः । इत्युक्त्वा कण्ठग्रहणमकारयत् । स्थितो निष्कलङ्कः सोमेश्वरः । वर्तते नित्यमिष्टगोष्टी । हरिहरो नैषधकाव्यान्यक्सरोचितानि पठति । श्रीवस्तुपालः प्रीयते- अहो अश्रुतपूर्वाणि काव्यान्यमूनि ! । एकदाऽऽलाँपितः पण्डिसहरिहरः-कोऽयं प्रन्थः ? । पण्डितो वदति-नैषधं महाकाव्यम् । कः कविः । श्रीहर्षः । श्रीवस्तुपालेन गदितम् --तदादर्श दर्शय तर्हि । पण्डितो ब्रूतेनान्यत्रायं ग्रन्थः, चतुरो यामानर्पयिष्यामि पुस्तिकाम् । अर्पिता पुस्तिका । रात्रौ सयो लेखकनियोगिभिर्लेखिता नवीना पुस्तिका। १५ जीर्णरज्या(ज्ज्वा वृता । वासन्यासेन धूसरीकृत्य मुक्तौ । प्रातः पण्डिताय पुस्तिका दत्ता । गृह्यतां तदिदं खनैषधम् । गृहीता पण्डितेन पुस्तिका । मन्त्रिणा न्यगादि-अस्माकमपि कोशे किलास्तीवेदं शास्त्रमिति स्मरामः । विलोक्यतां कोशः । यावद् विलम्बेनैवं कृष्टा नवीना प्रतिः, यावच्छोध्यते तावत् "निपीय पस्य क्षितिरक्षिणः कथा" इत्यादि नैषधमुदघटिष्ट । दृष्ट्वा पण्डितहरिहरेणोक्तम्- "मन्त्रिन् ! तवैव मायेयम् । 'यदीदृशेषु कार्येषु-नान्यस्य क्रमते मतिः' । युक्तं त्वया दण्डिताः प्रतिपक्षाः, स्थापितानि जैन वैष्णव-शैवशासनानि, उदश्चितः स्वामिवंशः, यस्यैवं प्रज्ञा प्रकाशते । २५ अत्रान्तरे वीरधवलाहितसैन्यचम्पितेन महाराष्ट्र' प्रभुणा घ-राणेश्वरेण' । २ अनुष्टुप् । घ--'लापितो हरिहरः पण्डित(तः) । ब-या-'युक्ता'। ५ ग-'मन्त्रि (1) तवैव' । ग कम्पितेन' । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्ध कोशेत्यपराह ये सपाद कोटिहेमप्रमितो दण्डः प्रहितः । श्रीवस्तुपालेन तु तद् हेम चतुर्दिग्या त्रिकेभ्यो याचक्रेभ्योऽदायि विवेकात् । तद् दृष्ट्वा हरिहरो वर्णयति---- आः साम्यं न सहेऽहमस्य किमपि कोडीकृतैकश्रियो याश्चोत्तानकरेण खर्वितनिजाकारोष्मणा 'शार्ङ्गिणा । येनैता पुरुषोत्तमाधिकगुणोद्गारेण 'युद्धार्णवा दाकृष्यैव तथा श्रियः शकलशः कृत्वाऽर्थिनामर्पिता ॥३॥ तदा वीरधवलस्य 'सपादकोटीकाञ्चनवर्ष ' इति भट्टादिषु बिरुदं ख्यातिमायातम् । अथ हरिहरः सोमेश्वरं नन्तुं गतो 'देवपत्तन' म् । पण्डितसोमेश्वरदेवस्य तत्र तद् दौर्जन्यं स्मृत्वा विषण्णेन काव्यं १ भणितम् -- १२५ क्व यातु क्वायातु क्व वदतु समं केन पठतु ? क्व काव्यान्यन्याजं रचयतु सदः कस्य विशतु ! | खलव्यालग्रस्ते जगति न गतिः क्वापि कृतिना मिति ज्ञात्वा तत्त्वं हर ! हर विमूढो हरिहरः || ४ || १५ आरुक्षाम नृपप्रसादकणिकामद्राक्ष्म लक्ष्मीलबान् किश्चिद् वामयमध्यगीष्महि गुणैः कांश्चित् पराजेष्महि | इत्थं मोहमयीमकार्ष्म कियतीं नानर्थकन्थी मनः स्वाधीनीकृतशुद्धबोधमधुना वाञ्छऽमर्त्यापगाम् ॥२॥ * इत्युक्त्वा धनार्थ दत्त्वा शेषार्ध गृहीत्वा 'धवलकक' मध्ये भूत्वा २० राणक-मन्त्रिणौ आपृच्छष 'कास' प्राप्य स्वार्थमसाधयत् । || इति हरिहरप्रबन्धः ॥ १२॥ *** -- T १ - 'शार्ङ्गिणा', ख- 'शार्द्धिणा' २ग - 'पुर्णिवा'। ३ शार्दूल ०] शिखरिणी । ५- 'कन्ध' । ६ मर्गज्ञाम् । ७ शार्दूल० ८ 'समासः' इत्यधिको ग-पाठः Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चतुर्विंशतिप्रबन्ध 11 मानमरचन्द्र [13] // अथ अमरप्रबन्धः // श्री अणहिल्लपत्तना'सन्नं 'चायटे' नाम महास्थानमास्ते, चतुरशीतिमहास्थानानामन्यतमत् / तत्र परपुरप्रवेशविधासम्पन्नश्रीजीवदेवसूरिसन्ताने श्रीजिनदत्तसूरयो जगर्जुः / तेषां शिष्योऽमरो नाम प्रज्ञालचूडामणिः / स श्रीजिनदत्तसूरिभक्तात् कविराजात् अरिसिंहात् 'सिद्धसारस्वतं' मन्त्रमग्रहीत् / तद्गच्छमहाभक्तस्य विवेकानिधेः कोष्ठागारिकस्य पद्मस्य विशालतमसदनैकदेशे विजने एव विंशत्याचाम्लैनिद्राजया-ऽऽसनजय-कषाय[जय जयादि१० दत्तावधानस्तं मन्त्रमजपत् / विस्तरेण होमं च चक्रे / एक विंशतितम्यां रात्रौ मध्यग्नाप्तायां नभस्युभ्युदिताच्चन्द्रबिम्बानिर्गत्य खरूपेणागत्यामरं भारती करकमण्डलुजलममलमपीप्यत् वरं च प्रादात्- सिद्धकविर्भव, निःशेषनरपतिपूजाँगौरवितश्चैधि / इति वरं दत्त्वा गता भगवती / जातः कविपतिरमरः / रचिता काव्य१५ कल्पलता नाम कविशिक्षा, छन्दोरत्नावली, सूक्तावली च / कलाकलापाख्यं च शास्त्रं निबद्धं, बालभारत च / बालभारते ( स. 11) प्रभातवर्णने ( श्लो. 6) "दधिमथनविलोललोलहग्वेणिदम्मा भवपरिभवकोपत्यक्तबाणः कृपाण श्रममिव दिवसादौ व्यक्तशक्तिर्व्यनक्ति" // 1 // इत्यत्र देण्याः कृपाणत्वेन वर्णनाद् 'वेणीकृपाणोऽमर' इति बिरुदं कविवन्दाल्लन्धं 'दीपिकाकालिदास'चद् 'घण्टामाघ'वच्च / कवित्व १घ-'अथ श्री.' / 2 ग-परकायप्रवेश ग-'प्रज्ञाचूडा'। ग'राज अरि०१५ घ--'तमे सदनैक / 6 ग--'प्राक्षीत् ख-गौरवविता०', प'गौरवतावैधि। 8 घ-पाणः। ९मालिनी / 10 घ-'वन्दान्धममरेण दीपिका Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवन्धः] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये 115 प्रसिद्धेश्च 'महाराष्ट्रा' दिरानेन्द्राणां पूजा उपतस्थिरे / तदा 'वि(वी) सलदेवो राजा 'गूर्जरा' धिपतिर्धवलक्कके' राज्यं शास्ति, तेनाऽमरकवर्गुणग्रामः श्रुतः / ठक्कुरं वइजलं प्रधानं प्रेष्य प्रातराहूतः कवीन्द्रः / आसनादिप्रतिपत्तिः कृता / सभा महती / अमरेण पठितम्वीक्ष्यैतद्भुजविक्रमक्रमचमत्कारं न(नि)कारं मयि ___ 'प्रेम्णो नूनमियं करिष्यति गुणग्रामैकगद्याशया / श्रीमद्वीसलदेव ! देवरमणीवृन्दे त्वदायोधने प्रेक्ष्य प्रक्षुभिते विमुञ्चति परीरम्भान्न रम्भा हरिः // 1 // स्वत्प्रारब्धप्रचण्डप्रधननिधनतारातिवारातिरेक क्रीडत्कीलालकुल्यावलिभिरलभत स्यन्दमाकन्दमुर्वी // दम्भोलिस्तम्भभास्वर्भुज ! भुजगजगभूर्तुराभर्तुरेनां तेनायं मूर्ध्नि रत्तद्युतिततिमिषतः शोभते शोणभावः // 2 // रञ्जिता सभा, प्रीणितः पृथ्वीपालः / ततो राज्ञा प्रोक्तम्- यूयं कवीन्द्राः श्रूयध्वे / अमरोऽभिधत्ते---- सत्यमेव यदि गवेषयति 15 देवः / ततो नृपेण सोमेश्वरदेवे दृष्टिः सञ्चारिता / ततः सोमेश्वरेण समस्याऽर्पिता / यथा'शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवतिरभूल्लोचनानामशीतिः' / अमरेण सद्यः प्रिता - 'कैषा भूषा शिरोऽक्षणां तव भुजगपते ! 'रेखयामास भत्या 20 छूते मन्मूर्ध्नि शम्भुः सदशनवशतानक्षपातान् विजिस / गौरी त्वानञ्ज दृष्टीर्जित खनवभूस्तद्विशेषात् तदित्यं शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवतिरभल्लोचनानामशीतिः॥१॥" ख-'विश्वलदेवो' / 2 घ-'ठक्कुरवइ / क-'प्रेम्णा'। 7 शार्दूल. 5 ग-घ-'भुजगभुजजग.' / 6 स्रग्धरा / 7 'रेषया ' / 8 घ- सन्मूनि ' / 9 910 / 1. 1920 | 11 सरघरा / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रवन्धे [11 मोबमरचनअत्र शिरोऽक्ष्णामिति शिरसा युक्तानामक्ष्णामिति मध्यमपदलोपी समासः कार्यः। द्वन्द्वे तु प्राण्यङ्गत्वादेकत्वं प्राप्नोति / ततो वामन'स्थलीयकविसोमादित्येन समस्या दत्ता 'धनुष्कौटौ भृगस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः' / अमरेणोक्तम्-- भवस्याभूद् भाले हिमकरकराने गिरिमुता ललाटांश्लेषे हरिणमदपुण्ड्प्रतिकृतिः / कपर्दस्तत्प्रान्ते यदमरसरित् तत्र तदहो धनुष्कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः // 2 // 10 ततः 'कृष्ण'नगरवास्तव्येन कमलादित्येन समस्या वितीर्णा ' मशकगलकरन्ध्रे हस्तियूथं प्रविष्टम् ' / अमरेण पुरेतटविपिनविहारोच्चलं यत्र यादो मशकगलकरन्ध्रे हस्तियूथं प्रविष्टम् / 15 बैंक ! बत न कदाचित् किं श्रुतोऽप्येष वार्धिः प्रतनतिमिनि तल्ले कापि गच्छ क्षणेन // 3 // अप 'बीसलनगरी येण नानाकेन समस्या विभाणिता--- ' गीतं न गायतितरां युवतिर्निशाम ' / अमरेणाकम्'श्रुत्वा ध्वनेमधुरतां सहसाऽवतीर्णे भूमौ मृगे विगतलाञ्छन एष चन्द्रः। मा गान्मदीयवदनस्य तुलामितीय गीतं न गायतितरां युवतिर्निशाम // 4 // , 'अत्र' इत्यारभ्य 'प्राप्नोति' इति यावत् पाठः प्रक्षिमा माति, द्वन्द्वे एकवत्वस्य वैभाषिकत्वात् / 1 - 'स्य रेषे' / 3 शिखरिणी / रग-बत बक न',घ-'तब बक ब'। 5 माचिनी / 6 बसन्त / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपरालये एवं अष्टोत्तरं शतं बहुकविदत्ताः पूरिताः समस्याः श्रीअमरेण / ततो राज्ञाऽभिहितम् --- सत्यं कविसार्वभौमः श्रीअमरः / तत्र दिने सन्ध्यावधि सभा निषण्णा स्थिता / राजा लचितः सभ्यलोकोऽपि / 'रसावशे हि कालो झैगच्छन्नपि न लक्ष्यते' / द्वितीयः दिने सद्यः काव्यमयैः प्रमाणोपन्यासैः प्रामाणिका 'जिताः / तृतीय- 5 दिने राज्ञा पृष्टम्- अस्माकं सम्प्रति का चिन्ताऽस्तीति कथ्यताम् / अमरेश भणितम्- देव ! कथं दूरं गताः स्वर्गे ऐरावणस्य दक्षिणकर्णे लुकिताः / भूपतिः स्वसंवादेऽमोदत, शिरोऽधुनोत् / निसं गमनागमने जिनधर्मासन्नः कृतो राजा चैत्येषु पूजाः कारयति / ___ एकदा नृपेण पृष्टम्-- भवतां कः कलागुरुः ? / अमरेण गदितम्- अरिसिंहः कविराज इति / तर्हि प्रातरत्रानेयः / अमरचन्द्रेणानीतः प्रातः कविराज उपराजम् / तदा राजा खड्गेन श्रमयन्नास्ते / राज्ञा पृष्टम् ---- अयं कविराजः / कविराजेन व्याजहे- ओमिति / राजाऽऽह--तर्हि वद कालोचितं किञ्चित् / 15 'अरिसिंहः कवयति त्वत्कृपाणविनिर्माण-शेषद्रव्येण वेधसा / कृतः कृतान्तः सर्पस्तु, करोद्वर्तनवर्तिभिः // 1 // 'अच्छाच्छाभ्यधिकार्पणं किमपि यः पाणेः कृपाणेर्गुणः सश्चक्राम स यद् ददौ धुपदवी प्रत्यर्थिषु मार्थिषु / त्वत्सङ्गान्न स बद्धमुष्टिरभवद् येनारिपृथ्वीभुजां पृष्ठेषु स्वमपि प्रकाममुदितः प्रोदामरोमोद्गमः // 2 // कलयसि किमिह कृपाणं, वीसल ! बलवन्ति शत्रुषु तृणानि / यानि मुखगानि तेषां, ने चैष लयितुमसमर्थः // 3 // " 1 'मोहितम्' / 2 ग-जाताः'। 3 घ. 'अमरसिंहकविः' / घ.-'अमरसिंहः'। 5 अनुष्टुप् / 6 ग-'अत्याभ्यधिका०' / 7 क- मतिप्रकाम' / . शार्दूल / 9 घ-तवैष / * आर्या / चतुर्विशति.. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रवन्धे [13 श्रीअमरचन्द्र देव ! त्व 'मलया'चलोऽसि भवतः श्रीखण्डशाखी भुज स्तत्र क्रीडति कजलाकृतिरसिर्धाराद्विजिह्वः फणी / एष स्वाङ्गमनर्गलं रिपुतरुस्कन्धेषु संवेष्टयेद् दीर्घ व्योमविसारिनिर्मल यशो निर्मोकमुन्मुश्चति // 4 // अद्भुतकवितादर्शनात् कविराजो राजेन्द्रेण नित्यसेवकः कृतः / ग्रासो महान् प्रत्यष्ठायि। एकदा श्रीवीसलदेवेम भोजनान्ते तृणं करे धृत्वाऽरिसिंहोऽभिदधे- इदं तृणं सद्यो वर्णय / यदि रुचितमझ्या वर्णयसि तदा ग्रासद्वैगुण्यम् , अन्यथा सर्वग्रासत्याजनम् / इत्युक्तिसमकाल१० मेवाहतप्रतिमतया स ऊचे---- क्षारोऽब्धिः 'शिखिनो मखा विषमयं श्वनं क्षयीन्दुर्मुधा माहुस्तत्र सुधामियं तु दनुजत्रस्तैव लीना तृणे / पीयूषप्रसवो गवां यंदशनाद् दत्त्वा यदास्ये निजे देव ! त्वत्करवालकालमुखतो निति जातिढेिषाम् // 1 // 15 वनितो भूपाल: / ग्रासद्वैगुण्यं कृतम् / कालान्तरेऽमरेण कोष्ठागारिकपद्मगिरा पद्मानन्दाऽऽख्यं शास्त्रं रचितम् / एवं कविता. कल्लोलसाम्राज्यं प्रतिदिनम् // // इति अमरचन्द्रकविप्रबन्धः // 13 // 1 ग-स्तम्भः क्रीडति' / 1 ग-'त्व गमन ' / शार्दूल / प्रमाण / ५ख-घ-- शिपिनो मषा'। 6 घ-'यवशंशन(१) दस्था' / 7 घ-'वालमुखतो' / 8 शार्दूल / 9 ग- 'चमत्कृतो भू०' / 1. घ-कालान्तरेण भमरेण'। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रवन्धकोशेस्यपराजये [14] // अथ मदनकीर्तप्रवन्धः // 'उज्जयिन्यां' विशालकीर्तिदिगम्बरः / तच्छिष्यो मदनकीर्तिः / स पूर्वपश्चिमोत्तरासु तिसृषु दिक्षु वादिनः सर्वान् विजिल्म 'महाप्रामाणिकचूडामाणि रिति बिरुदमुपाय॑ स्वगुर्वलकृता'मुज्ज- 5 यिनी'मागात् / गुरूनवन्दिष्ट / पूर्वमपि जनपरम्पराश्रुततत्कीर्तिः स मदनकीर्तिः भूयिष्ठमश्लाविष्ट / सोऽपि प्रामोदिष्ट / दिनकतिपयानन्तरं च गुरुं न्यगादीत्- भगवन् ! दाक्षिण्यात्यान् वादिनो विजेतुमीहे / तत्र गच्छामि ? / अनुज्ञा दीयताम् / गुरुणोक्तम्--- वास ! दक्षिणां मा गाः / स हि भोगनिधिर्देशः / को नाम तत्र 10 गतो दर्शन्यपि न तपसो भ्रश्येत् ? / तद् गुरुवचनं विलय विद्यामदामातो जालकुद्दालनिश्रेण्यादिभिः प्रभूतैश्च शिष्यैः परिकरितो 'महाराष्ट्रा' दिवादिनो मृद्नन् 'कर्णाट'देशमाप / तत्र 'विजयपुरे' कुन्तिभोज नाम राजानं स्वयं त्रैविधविदं विद्वत्प्रियं सदसि निषष्णं स द्वास्थनिवेदितो ददर्श तमुपश्लोकयामास--- देव ! त्वद्भुजदण्डदर्पगरिमाद्गारप्रतापानल___ ज्वालापवित्रमकीर्तिपारदघटीविस्फोटिनो बिन्दवः / शेषाहिः कति तारकाः कति कति क्षीराम्बुधिः कत्यपि पालेयाचल-शङ्ख-शुक्ति-करका-कर्पूर-कुन्देन्दवः / // 1 // कीर्तिः कैः कति कुन्तिभोज! भवतः स्ववाहिनीगाहिनी 20 दिक्पालान् परितः परीत्य दधती भास्वन्मयं गोलकम् / लखित्वाऽम्बुधिसप्तमण्डलभुवस्स्वय्येकपत्नीव्रत-- ख्यात्यै विष्णुपदं स्पृशत्यविरतं शेषाहिशीर्षाण्यपि // 2 // 1 घ-'परम्पराछूत०' / 2 तत्त्वज्ञानी। 3 हिमालयगिरिः / / शार्दूल० / 5 क्षारोदक-इक्षुरसोदक-सुरोदक-धृतोदक-दधि-मण्डोदक शुद्धोदक-क्षीरोदक नामानः सप्त समुद्राः / 6 क- ‘ख्यात्यैर्विष्णु०', घ-‘ख्यात्ये विष्णुः' / / 7 शार्दूल / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [14 श्रीमदनकीर्तिचमत्कृतो राजा / स्थापितो दिगम्बरः सौधासनदेशे / राज्ञाऽsदिष्टम् - ग्रन्थमेकं कुरु अस्मत्पूर्वजवर्णनप्रतिबद्धम् / तेनोक्तम्देव ! अहं श्लोकपश्चशती एकस्मिन् दिने कर्तुं क्षमः, तावत् तु लेखितुं न क्षमोऽस्मि / कश्चिल्लेखकः समर्प्यताम् / राज्ञोक्तम्-अस्मत्पुत्री मदनमञ्जरी नाम लिखिष्यति जवनिकाऽन्तरिता सती / दिगम्बरेण अन्यं कर्तुमारेभे / राजपुत्री पञ्चशती लिखति / एवं कत्यप्यहानि ययुः / एकदा राजसुता तस्य स्वरं कोकिलरवजित्वरं शृण्वती सती चिन्तयति- अस्य रूपमपि सुन्दरं भविष्यति / जवनिकाऽन्तरि१० तया कथं दृश्यते ? / करोमि तावदुपायम् / रसवत्यां लवणबाहुल्यं कारयामि / 'सोऽपि राजपुत्री तादृग्विदुषीं सुस्वरां दिदृक्षते / लवणातिशये दिग्पट ऊचे-- अहो लवणिमा!। राजपुत्र्यभिदधे-- अहो निष्ठुरता।। एवमालापप्रत्यालापे दूरे कृता उभाभ्यां मर्यादामयी वनमयी च जवनिका / परस्परं दिव्यरूपदर्शनम् / तावता दिग्१५ वस्त्रेणोक्तम् निरर्थकं जन्मगतं नलिन्या, यया न दृष्टं तुहिनांशुबिम्बम् / राजसुतयाऽपि भणितम् उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलैव, दृष्टा प्रबुद्धा नलिनी न येन // 1 // ततश्चक्षुः प्रीतिमुद्भवन्तीवाऽपराणि कुसमचापचापलानीति 20 वचनानिरर्गले मदने भग्नं कौमारव्रतं तयोः / वर्तते विकथा / अल्पो निष्पद्यते ग्रन्थः / सायं राजा विलोकयति शास्त्रम् / को हेतुरथ स्तोकं निष्पन्नम् ? / दिगम्बरस्तेषु त्रिचतुराणि विषमाणि पद्यानि निक्षिपते / ततो राजाऽग्रे भणति- देव ! ममेयं प्रतिज्ञा-अहमबुध्यमान स्य लेखितुः पार्थान्न लेखयामि / तव तु पुत्र्या इदं स्थानं कृच्छ्रेण 25 बुद्धम् / इति कालविलम्बाद् ग्रन्धाल्पत्वं जायते / राजेन्द्रो विमृ 1 घ-'करोम्युषायं तावत्' / 2 ग-'सोऽपि दिग्वस्त्रः राज.'। 3 लवणस्य भावः, पक्षान्तरे लावण्यम् / चन्द्रबिम्बम् / 5 क-'दृष्ट्वा' / 6 उपजातिः। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रवन्धकोशेत्यपरालये शति- शठोत्तरमेवेदं दृश्यते / एकदा 'हेरयामि किमिमौ समाचरतः। निशायां विभातायां एकदा राजा छन्नरूप एकाकी तयोर्ग्रन्थनिष्पत्तिप्रदेशकुड्यान्तरेऽस्थात् / तदैव दिग्पटो राजपुत्री प्रति प्रणयकलहानुनयगर्भमाह सुभ्रु ! त्वं कुपितेत्यपास्तमशनं त्यक्ता कथा योषितां ___ दूरादेव निराकृताः सुरभयः स्वर्गन्धधूपादयः / रागं रागिणि ! मुश्च मय्यवनते दृष्टे प्रसीदाधुना __ सत्यं त्वद्विरहे भवन्ति दयिते ! सर्वा ममान्धा दिशः॥१॥' एतत्काव्यश्रवणाद् द्वयोर्दोःशील्यं निर्णीय मन्दपदं निर्ययौ / स्थानं गतो वसुधाधिपः / क्रुद्धेन तेन तत्कालमाहूतो दिक्पटः; 10 आगतो भाषितः, यथा-पण्डित ! किमिदं नवीनं पद्यम्-- 'सुभ्र ! वं कुपितेत्यपास्तमशनम्' इत्यादि ? / दिग्वसनेन विमृष्टम् - राज्ञा हेरितोऽहम् / अपराधी लब्धः / तथाप्युत्तरं ददामि यथातथा / इति चिन्तयित्वाऽवनिपतिमभ्यधात्--- देव ! दिनद्वयात् प्रभृति दृग् मे पीडाऽऽत्ता वर्तते / तदुपश्लोकायानुनयपरं पद्यमिदमपाठि- 15 षम् / इति प्रस्तावनां कृत्वा निक्षोभस्तयैव भङ्ग्या सद्यो व्याचचक्षे / तया प्रैज्ञया तुष्टोऽन्तः क्षितिपः, अकृत्यकरणदर्शनात् तु रुष्टः / सभ्रूभङ्ग भृत्यानूचे- बन्नीत रे अमुं कुकर्मकारिणं घातयत च / बद्धस्तैः / तदाकर्ण्य राजपुत्री द्वात्रिंशता सखीभिः शस्त्रिकापाणिभिः समं आगात् / राजदृष्टिमेत्य स्वयमकथयत्- यद्य, 20 मे मनोरुच्यं मुञ्चसे तदा चारु; अथ न मुञ्चसे तदा चतुस्त्रिंशद्धत्या भवितार:- एका दिगम्बरहत्या त्रयस्त्रिंशयुवतिहत्या इति / ततो राजा मन्त्रिभिर्विज्ञप्तः– देव ! त्वयैवेयमस्यासन्नीकृता / यूनां स्त्रीसन्निधानं च मन्मथद्रुमदोहदः / कस्य दोषो दीयते / चित्रस्था अपि चेतांसि, हरन्ति हरिणीदृशः / किं पुनस्ताः स्मरस्मेर-विभ्रमभ्रमितेक्षणाः / // 1 // - चररूपेण पश्यामि (1 / 3 शार्दूल।। 3 ख घ 'सूक्या' घ-पाणिरागात्' / .5 अनुषु / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्ध [ श्रीमदनकीर्ति मुष्यतां प्रसय दिग्वस्त्रः / इयं योऽस्यैव भवतु / इति श्रुत्वा तं मुक्त्वा तो तस्यैव पत्नीमकरोत् / स च राज्यांशभाजनं कृतः / 'दिग्विजयधनानि च श्वशुरसाच्चकार / व्रतं त्यक्त्वा भोगी जातः। तं तादृशं वृतान्तं विशालकीर्तिर्गुरु रुज्जयिन्या'मश्रौषीत् , अध्यासी५ च्च--- अहो यौवनधनकुसङ्गानां महिमा येनायमेवंविधोऽपि व्रती विद्वान् वादी योगज्ञो भूत्वा एवंविधं उग्रदुर्गतिपतनमूलं कुपथ "प्रपनः / हा हा धिक् / परिच्छेदातीतः सकलवचनानामविषयः पुनर्जन्मन्यस्मिन्ननुभवपथं यो न गतवान् / विवेकप्रध्वंसादुपचितमहामोहगहनो। विकारः कोऽप्यन्तर्जडयति च तापं च तनुते // 1 // एवं विमृश्य चतुरांश्चतुरः शिष्यांस्तबोधनाय पाहैषीत् / तैस्तन गत्वोक्तोऽसौविरमत बुधा ! योषित्सङ्गात् सुखात् क्षणभङ्गुरात् कुरत करणाप्रज्ञामैत्रीवधूजनसङ्गमम् / न खलु नरके हाराकान्तं धनस्तनमण्डलं ___ भवति शरणं श्रोणीबिम्ब कणन्मणिदाम वा // 1 // इत्यादि गुरुभिर्बोध्यमानोऽसि / बुध्यस्ख / मा मुहः / सोऽथ नित्रपतया तेषां हस्ते गुरुभ्यः पयानि पत्रे लिखित्वा प्रजिघाय / 20 गतास्ते तत्र / वाचितानि पद्यानि गुरुणा--- "तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना, नासौ गुरुर्यस्य वचः प्रमाणम्। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गतः स पन्थाः॥१॥ प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरैः / / प्राप्यते येन निर्वाण, सरागेणापि चेतसा // 2 // 1 घ-' चास्यैव ' / 2 घ--' दिगजय० / 3 घ- योगिन्या (1) भूरवा' ख. 'गतः।५शिखरिणी।६ग-रणन्मणि' / 7 हरिणी! उपजातिः। ९मनुष्टम् / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमात प्रबन्धकोशेयपराये सन्दष्टाधरपल्लवा सचकितं हस्ताप्रमाधुन्वती मा मा मुश्च शठेति कोपवचनैरानर्तितभ्रूलता / सीत्काराश्चितलोचना सरभसं यैश्चुम्बिता मानिनी प्राप्तं तैरसृतं श्रमाय मथितो मूढैः सुरैः सागरः // 3 // इत्यादि दृष्ट्वा तस्यौ तूष्णी गुरुः / मदनकीर्तिस्तु व्यलासीद् 5 विविधम् // // इति मदनकीर्तिप्रवन्धः // 14 // शाईल. / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [15 श्रीसातवाहन-- [15] // अथ सातवाहनप्रबन्धः // इह 'भारते' वर्षे दक्षिणखण्डे 'महाराष्ट्र देशावतंस श्रीमत् प्रतिछान' नाम पत्तनं विद्यते / तच्च निजभूत्याऽभिभूतपुरन्दरपुरमपि ___ कालान्तरण क्षुल्लकग्रामप्रायमजनिष्ट / तत्र चैकदा द्वौ वैदेशिक द्विजो समागल्य विधवया स्वना साकं कस्यचित् कुम्भकारस्य शालायां तस्थिवांसौ / कणवृत्तिं विधाय कणान् स्वसुरुपनीय तत्कृताहारपाकेन समया कुरुतः स्म / अन्येयुः सा तयोर्विप्रयोः स्वसा जलाहरणाय 'गोदावरी' गता / 10 तस्याः स्वरूपमप्रतिरूपं निरूप्य स्मरपरवशोऽन्तर्हदवासी शेषो नाम नागराजो हृदानिर्गत्य विहितमनुष्यवपुस्तया सह बलादपि सम्भोगकेलिमकलयत् / भवितव्यताविलसितेन तस्याः सप्तधातुरहितस्यापि तस्य दिव्यशक्त्या शुक्रपुद्गलसञ्चाराद् गर्भाधान मभवत् / स्वनामधेयं प्रकाश्य न्यसनसङ्कटे मां स्मरेरित्यभिधाय 15 च नागराज: 'पाताल लोकमगमत् / सा च गृहं प्रत्यगच्छत् / ब्रीडापीडिततया च स्वभ्रात्रोस्तं वृत्तान्तं न खलु न्यवेदयत् / कालक्रमेण सहोदराभ्यां गर्भलिङ्गानि वीक्ष्य सा जातगर्भा इत्यलक्ष्यत / ज्यायसस्तु मनसि शङ्का जाता यदियं खल्ल कनी. यसोपभुक्तति, शङ्कनीयान्तराभावात् / 'यवीयसोऽपि समजनि विकल्पः नूनमेषा ज्यायसा सह विनष्टशीलेति / एवं मिथः कलुषिताशयौ विहाय तामेकाकिनी पृथक् पृथक् देशान्तरमयासिष्टाम् / साऽपि प्रवर्धमानगर्भा परमन्दिरेषु कर्माणि निर्मिमाणा प्राणवृत्तिमकरोत् / क्रमेण पूर्णेऽनेहसि सर्वलक्षणलक्षिताङ्गं प्रासूत सुतम् / स च क्रमाद् वपुषा गुणैश्च वर्धमानः सवयोभिः सह घ-'भ्रात्रोक्तं स्वं वृत्तान्त' / 1 घ-'तस्याश्च रूपः | 2 स्व-स्वं नाम'। - कनीयसः / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधE] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये स्थायी बालक्रीडया स्वयं भूपतीभूय तेभ्यो वाहनानि करिदुरग-रथादीनि कृत्रिमाणि दत्तवान् / इति सनोतेदीनार्थत्वाल्लोकैः सातवाहन इति व्यपदेश लम्भितः / स्वजनन्या पाल्यमानः सुखमवस्थितः / इत श्वोजयिन्या' श्रीविक्रमादित्यस्या ऽवन्ति'नरेशितुः सदसि 5 कश्चिन्नैमित्तिकः सातवाहनं प्रतिष्ठान'पुरे भाविनं नरेन्द्रमादिशत् / अर्थतस्यमिव पुर्यामेकः स्थविरविप्रः स्वायुरवसानमवसाय चतुरः स्वतनयानाहूय प्रोक्तवान् , यथा ----वत्सा ! मयि पुरेयुषि मदीयशय्योच्छीर्षकदक्षिणपादारभ्य चतुर्णामपि पादानामधो वर्तमानं निधिकलशचतुष्टयं युष्माभिर्यथाज्येष्ठं विभज्य ग्राह्यं येन भवतां 10 निर्वाहः सम्पनीपद्यते / पुत्रैस्तु तथेत्यादेशः स्वीचक्रे पितुः / तस्मिन्नुपरते तस्यौदैहिकं कृत्वा त्रयोदशेऽहनि भुवं खनित्वा यथायथं चतुरोऽपि निधिकलशास्ते जग्रहिरे / यावदुद्घाट्य विलोकयन्ति तावत् प्रथमस्य कुम्भे कनकम् , द्वैतेयीकस्य कृष्णमृत्स्ना, तृतीयस्य बुशम् , तुरीयस्य स्वस्थीनि दशिरे / तदनु 15 ज्यायसा साकमितरे त्रयो विवदन्ते स्म-तदस्मभ्यमपि विभज्य कनकं वितरेति / तस्मिश्चावितरति सति ते ऽवन्ति' पतेर्द्धर्माधिकारिणमुपास्थिषत / तत्रापि न तेषां वादनिर्णयः समपादि / ततश्चत्वारोऽपि ' महाराष्ट्र 'जनपदमुपानंसिषुः / सातवाहनकुमारस्तु कुलालमृदा हस्तिरथसुभटानन्वहं नवनवान् विदधानः कुलालशालायां 20 बालक्रीडादुर्ललितकलितस्थितिरनयत् समयम् / ते च द्विजतनुजाः 'प्रतिष्ठान पत्तनमुपेत्य परतो भ्रमन्तस्तस्यामेव चक्रजीविनः शालायां तस्थिवांसः / सातवाहनस्तु तानवेक्ष्योङ्गिताकारकुशलः प्रोषाच-भो विप्राः ! किं भवन्तो वीक्षापन्ना इव वीक्ष्यन्ते / 1 ग--'सानं ज्ञात्वा'। 2 ग-'मयि मृते मदीय' / 3 घ-'खात्वा'। ग'बुशाम्'। 5 घ-'नः कलित.'१६ स्न-'मेत्य' / 7 कुलालस्य / 8 ख-वीतापमा'। चर्विवति... Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [15 श्रीसातवाहनतैस्तु जगदे--जगदेकसुभग ! कथमिव वयं चिन्ताचान्तचेतसस्त्वया ज्ञाताः ? / कुमारेण बभणे-इङ्गितैः किमिव नाव. गम्यते ! / तैरुक्तम्-युक्तमेतत् , परं भवतः पुरो निवेदितेन चिन्ताहेतुना किं स्यात् ? / बालः खलु भवान् / बाल आलपत्यदि परं जातु मत्तोऽपि साध्यं वः सिध्यति, तन्निवेद्यतां स चिन्ताहेतुः / ततस्ते तद्वचनवैचित्र्यहृतहृदयाः सकलमपि स्वस्वरूपं 'निधिनिरयणादि / मालवेशपरिषद्यपि विवादानिर्णयान्तं तस्मै निवेदितवन्तः / कुमारस्तु स्मितीवच्छुरिताधरोऽवादीद्--- भो विप्राः ! अहं यौष्माकं झंगटकं निर्णयामि, श्रूयतामवहितैः-- यस्मै वप्ता कनककलशं प्रददे स तेनैव निवृत्तोऽस्तु / यस्य कलशे कृष्णमृत्स्ना निरगात् स क्षेत्रकेदारादीन् गृह्णातु / यस्य तु बुशं स कोष्ठागारगतधान्यानि सर्वाण्यपि स्वीकुरुताम् / यस्य चास्थीनि निरगुः सोऽश्व-महिषीदासी-दासादिकमुपादत्ताम् / इति युष्मजनकस्याशयः / इति क्षीरकण्ठोक्तं श्रुत्वा सूत्रकण्ठाः 15 छिन्नवियादाः तद्वचनं प्रतिश्रुत्य तमनुज्ञाप्य प्रत्याययुः स्वा नगरीम् / प्रथिता सा तद्विवादनिर्णयकथा पुर्याम् / राज्ञाऽप्याकार्य ते पर्यनुयुक्ताः --- किं नु भो भवतां वादनिर्णयो जातः ? / तैरुक्तम्-- ओम् स्वामिन् ! / केन निर्णीत इति नृपेणोदिते ते सातवाहनस्वरूपं सर्वमवितथमकथयत् / तदाकर्ण्य तस्य शिशो२० रपि बुद्धिवैभवं विभाव्य प्रागुक्तं दैवज्ञेन तस्य प्रतिष्ठाने ' राज्यं च भविष्यतीत्यनुस्मृत्य तं स्वप्रतिपन्थिनमाकलय्य क्षुभितमनास्तन्मारणोपायमचिन्तयच्चिरं नरेश्वरः / अभिघातकरादिप्रयोगैारिते चास्मिन्नयशःक्षात्रवृत्तिक्षती जायेतामिति विचार्य सन्नद्धचतुरङ्गचमूसमूहो ऽवन्ति'पतिः प्रस्थाय 'प्रतिष्ठान'पत्तनं यथेष्टमवेष्टयत् / 1 घ. 'तसंस्तयाऽज्ञासिष्महि' / 2 घ-वरं' / 3 ख-- 'निधिनिर्गमनादि' / / 'झगडा' इति भाषायाम् / 5 क-'महिषीवृषदासी' / 6 बालेन / 7 विप्राः / 8 ख'अभिषात कमििद.', घ-'असिमरघातकरादि। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराये तदवलोक्य ते ग्रामास्वस्ताश्चिन्तयन्ति स्म--कस्योपरि अयमेतावानाटोपः सकोपस्य 'मालवे'शस्य ? / न तावदत्र राजा राजन्यो वा वीरस्तादृग् दुर्गादि वा। इति चिन्तयत्सु तेषु ' मालवे'शप्रहितो दूतः समेत्य सातवाहनमवचित्- भो कुमारक ! तुभ्यं नृपः कुद्धः प्रातस्त्वां मारयिष्यति / अतो युद्धाद्युपायचिन्त- 5 नावहितेन भवता भाव्यमिति / स च श्रुत्वाऽपि दूतोक्तीनिर्भयं निरन्तरं क्रीडन्नेवास्ते / __ अत्रान्तरे विदितपरमार्थी तो तन्मातुलावितरेतरं प्रति विगतदुर्विकल्पौ पुनः 'प्रतिष्ठान'मागतौ / परचक्रं दृष्ट्वा तां स्वभगिनीं प्रोचतुः-हे स्वसर्येन दिवौकसा तवायं तनयो दत्तस्तमेव स्मर 10 यथा स एवास्य साहाय्यकं विधत्ते / साऽपि तद्वचसा प्राचीनं नागपतेर्वचः स्मृत्वा शिरसि निवेशितघटा 'गोदावर्या' नागह्रदं गत्वा स्नात्वा च तमेव नागनायकमाराधयत् / तत्क्षणान्नागराजः प्रल क्षीभूय वाचमुवाच- ब्राह्मणि ! को हेतुरहमनुस्मृतस्त्वया ? / तया च प्रणम्य यथावस्थितमभिहिते बभाषे शेषराजः- मयि 15 पत्यौ कस्तव तनयमभिभवितुं क्षम: ? / इत्युदीर्य तद्धटमादाय ह्रदान्ते निमज्ज्य पीयूषकुण्डात् सुधया घटं प्रपूर्य च तस्यै दत्तः / त्वं चानेनामृतेन सातवाहनकृतमन्मयाश्व-रथ-गज-पदातिजातमभिषिञ्चेः, यथा तत्सजीवं भूत्वा परबलं भुनक्ति / त्वत्पुत्रं च 'प्रतिष्ठान'पत्तनराज्ये अयमेव पीयूषघटोऽभिषेकयिष्यति / प्रस्तावे 20 पुनः स्मरणीयोऽहम् / इत्युक्त्वा स्वास्पदमगमद् भुजङ्गपुङ्गवः / साऽपि सुधाघटमादाय स्वसद्मोपेत्य तेन तन्मृन्मयं सैन्यमदैन्यमभ्युक्षामास / प्रातर्दिव्यानुभवतः सचेतनीभूय तत्सैन्यसम्मुखं गत्वा युयुधे परानीकिन्या सार्धम् / तया सातवाहनपृतनया भग्न मवन्ती'शितुर्बलम् / विक्रमनरपतिरपि पलाय्य यया यवन्ती'म् / तदनु 25 1 ख-घ-'दूतोक्तीनिरन्तर' / 2 ख-- 'प्रतिपतिकस्तव,' घ- 'प्रतपतिकस्तव' / 3 ख- 'सथोपित्पतेन तन्' / 4 सैन्येन / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ___ चतुर्विशतिप्रबन्धे [15 श्रीसातवाहन सातवाहनो राज्येऽभिषिक्तः / प्रतिष्ठान' च निजनिजविभूतिपरिभूतवस्त्याकसाराभिधानं धवलगृह-देवगृह-हट्टपङ्क्ति-राजपथप्राकार-परिखादिभिः सुनिविष्टमजनिष्ट पत्तनम् / सातवाहनोऽपि क्रमेण दक्षिणापथमनृणं विधाय 'तापी'तीरपर्यन्तं चोत्तरापथं 5 साधयित्वा स्वकीयसंवत्सरं प्रावीवृतत् / जैनश्च समजनि / अचीकरच जनितजननयनशैन्यानि चैत्यानि पश्चाशद् वीरा अपि / प्रत्येक स्वस्वनामाङ्कितानि अन्तनगरं कारयाम्बभर्जिनभवनानि / परसमयलोकप्रसिद्ध सातवाहनचरित्रं शेषमपि किञ्चिदुच्यते-- श्रीसातवाहने क्षितिरक्षति सति पञ्चाशद् वीराः 'प्रतिष्ठान'१० नगरान्तस्तदा वसन्ति स्म, पञ्चाशनगराद् बहिः / इतश्च तत्रैव पुरे एकस्य द्विजस्य सूनुर्दोद्धरः शूद्रकाख्यः समजनि / स च युद्धश्रमं दर्पात् कुर्वाणः पित्रा स्वकुलानुचितमिदमिति प्रतिषिद्धोऽपि नास्थात्. / अन्येयुः सातवाहननृपतिर्बापलाखून्दलादिपुरान्तर्वर्तिवीरपञ्चाशदन्वितो द्विपञ्चाशद्धस्तप्रमाणां शिलां श्रमार्थमुत्पाटयन् दृष्टः पित्रा समं गच्छता द्वादशाब्ददेशीयेन शूद्रकेण / केनापि वीरेणाङ्गुलोचतुष्टयं केनचित् षडङ्गुलान्यपरेण त्वङ्गुलान्यष्टौ शिला भूमित उत्पाटिता, महीजानिना त्याजानु नीता / इल्यवलोक्य शूद्रका स्फूर्जदूर्जितमयादीत् / भो भो भवत्सु मध्ये किं शिलामिमां मस्तकं यावन्न कश्चिदुंद्ध मीष्टे ? / तेऽपि 'सेर्प्यमवादिषुर्यथा- त्वमेवोत्पाट्य यदि समर्थमन्योऽसि / शूद्रकस्तदाकर्ण्य तां शिलां वियति तथोच्छालयाञ्चकार, यथा दूरमूर्ध्वमगमत् / पुनरवादि शूद्रकेण-- यो भवत्सु अलम्भूष्णुः स खलु इमां निपतन्ती स्तभ्नातु / सातवाहनादिवीरैर्भयाद् भ्रान्तलोचनैरूचे स एव सानुनयम्- यथा भो महाबल ! रक्ष रक्ष अस्माकी२५ नान् प्राणान् इति / स पुनस्तां पतयालु तथा मुष्टिप्रहारेण १घ-'पदनम्। २क-'खुन्देलादि०', घ. खुदलादि०' / ग-'मही पतिना'। ग-दुद्धर्तु समर्थः। 5 ख-'तदर्थमवा०। 6 क ख-'अलकरिष्णुः' / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराहये प्रहतवान्, यथा सा त्रिखण्डमन्वभूत् / तत्रैकं शकलं योजनत्रयोपरि न्यपतत् , द्वैतीयकं च खण्डं नागह्रदे, तृतीयं तु प्रतोलीद्वारे चतुष्पथमध्ये निपतितमद्यापि तथैव वीक्ष्यमाणमास्ते जनैः। तबलविलसितचमत्कृतचेताः क्षोणिनेता शूद्रकं सुतरां सत्कृत्य पुररक्षकमकरोत् / शखान्तराणि प्रतिषिध्य दण्डधारस्तस्य दण्डमेवायुधमन्वज्ञासीत् / शूद्रको बहिश्चरान् वारान् पुरमध्ये प्रवेष्टुमपि न दत्तवान्, अनर्थनिवारणार्थम् / __ अन्यदा स्वसौधस्योपरितले शयानः सातवाहनक्षितिपतिमध्यरात्रे शरीरचिन्तार्थमुस्थितः / पुराद् बहिः परिसरे करुणं रुदितमाकर्ण्य तत्प्रवृत्तिमुपलब्धं कृपाणपाणिः परदुःखदुःखितहृदयतया 10 गृहान्निरंगमत् / अन्तराले शूद्रकेणावलोक्य सप्रश्रयं प्रणतः पृष्टश्च महानिशायां निर्गमनकारणम् / धरणापतिरवदद् यदयं बहिः पुरपरिसरे करुणकन्दितध्वनिः श्रवणाध्वनि पथिकभावमनुभवन्नस्ति तत्कारणप्रवृत्तिं ज्ञातुं ब्रजन्नस्मि / इति राज्ञोक्ते शूद्रको व्यजिज्ञपत्--देव ! प्रतीक्ष्यपादैः स्वसौधालङ्क- 15 रणाय पादोऽवधार्यताम् / अहमेव तत्प्रवृत्तिमानेष्यामि / इत्यभिधाय वसुधानायकं व्यावर्त्य स्वयं रुदितध्वन्यनुसारेण पुराद् बहिर्गन्तुं प्रवृत्तः / पुरस्ताद वजन् दत्तक! ' गोदावर्याः ' स्रोतसि कञ्चन रुदन्तमश्रौषीत् / ततः परिकरबन्धं विधाय शूद्रकस्तीर्खा यावत् सरितो मध्यं प्रयाति तावत् पयःपूरप्लाव्य- 20 मानं नरमेकं रुदन्तं वीक्ष्य भाषे--- भो कस्त्वम् ? किमर्थ च रोदिषि ? / इत्यभिहितः स नितरामरुदत् / इति निर्बन्धेन पुनः स्पष्टमाचष्ट--- भो साहसिकशिरोमणे ! मामितो निष्कास्य भूपतेः समीपं प्रापय येन तत्र स्ववृत्तमाचक्षे / इत्युक्तः शूद्रकस्तमुत्पाटयितुं यावदयतिष्ट तावन्नोत्पटति स्म सः / ततोऽधस्तात् 25 1 क- 'वक्ष्यमाण.' / 2 ख-'न चेत् शूद्रको' / 3 घ-- 'दुस्थित हदय.' 4 ग- 'रगात्' / 5 पूज्यपादैः / 6 ग-अहमपि प्रवृत्ति' / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 चतुर्विशतिप्रबन्ध [15 श्रीसातवाहन केनापि यादसा विधृतोऽयं भवोदित्याशक्य सधः कृपाणिकामधो याहयामास शूद्रकः / तदनु शिरोमात्रमेव शूद्रकस्योद्धर्तुः करतलमारोहत् / लघुतया शिरः प्रक्षरद्रुधिरधारमवलोक्य शूद्रको विषादमापनचिन्तयति स्म-- धिग् मामप्रहर्तरि प्रहर्तारं शरणागतघातकं च / इत्यात्मानं निन्दन् वज्राहत इव क्षणं मूछितस्तस्थौ / तदनु समधिगतचैतन्यश्चिरमचिन्तयत्-- कथमिवैतत्सुदुश्चेष्टितमवनिपतये निवेदयिष्यामि ? / इति लज्जितमनास्तत्रैव काष्ठश्चितां विरचय्य तत्र ज्वलनं प्रज्वाल्य तच्छिरः सह गृहीत्वा यावदुदर्चिषि प्रवेष्टुं प्रववृत्ते तावत् तेन मस्तकेन निजगदे-भो 10 महापुरुष ! किमर्थमित्थं करोषि ? / अहं शिरोमात्रमेवास्मि सिंहिके यवत् सदा / तद् वृथा मा विषीद / प्रसीद मां राज्ञः समीपमुपनय इति तद्वचनं निशम्य चमत्कृतचित्तः 'प्राणित्ययमिति प्रहृष्टः द्रकस्तच्छिरः पट्टांशुकवेष्टितं विधाय प्रातः सातवाहनमुपागमत् / अपृच्छत् पृथिवीनाथः-शूद्रक ! किमिदम् ? / सोऽप्यवोचत् देव ! 15 सोऽयं यस्य क्रन्दितध्वनिर्देवेन रात्रौ शुश्रुवे / इत्युक्त्वा तस्य प्रागुक्तं वृत्तं सकलमावेदयत् / पुना राजा तमेव मस्तकमप्राक्षीत्कस्त्वं भो किमर्थं चात्र भवदागमनमिति ? / तेनाभिदधे-महाराज ! भवतः कीर्तिमुभाकार्णि(?) समाकर्ण्य करुणरुदितव्याजेनात्मानं ज्ञाप यित्वा त्वामहमुपागमम् / दृष्टश्च भवान्। कृतार्थे मेऽद्य चक्षुषी जाते 20 इति / कां कलां सम्यगवगच्छसीति राज्ञ आज्ञया निरवगीतं गातुं प्रचक्रमे / क्रमेण तद्गानकलया मोहिता सकलाऽपि नृपतिप्रमुखा परिषद् / स च मायासुरनामकोऽसुरस्तां मायां निर्माय महीपतेर्महिषी महनीयरूपधेयामपजिहीर्घरुपागतो बभूव / न च विदितचरमेतत् कस्यापि / लोकैस्तु शीर्षमात्रदर्शनात् तस्य प्राकृत२५ भाषया सीसुला इति व्यपदेशः कृतः / तदनु प्रतिदिनं तस्मिन्न १ग- 'प्रज्वाल्येतच्छिर: / 2 ख- 'व्यवसीयते भवता यावदई शिरो.' 3 भ- 'राहुवत्' / जीवति / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये तितुम्बरौ मधुरस्वरं गायति सति श्रुतं तत्स्वरूपं महादेव्या दासीमुखेन / भूपं विज्ञाप्य तच्छीर्ष स्वान्तिकमानायितम् / प्रत्यहं तमजीगपत् राज्ञी / दिनान्तरे रात्रौ प्रस्तावमासाथ सद्य एवापहरति स्म तां मायासुरः। आरोपयामास च ता 'घण्टावलम्बि'नामनि स्वविमाने / राज्ञी च करुणं क्रन्दितुमारेभे- हाऽहं 5 केनाप्यपहिये / आस्ति कोऽपि वीरः पृथिव्यां यो मां मोचयति ? / तच खून्दलाभिख्येन वीरेण श्रुत्वा व्योमन्युत्पत्य च तद्विमानस्य घण्टा पाणिना गाढमधार्यत / ततस्तत्पाणिनाऽवष्टब्धं विमानं पुरस्तान्न प्राचालीत् / तदनु चिन्तितं मायासुरेण --- किमर्थ विमानमेतन्न सर्पति ? / यावदद्राक्षीत् तं वीरं हस्तावलम्बितघण्टम् / 10 ततः खड्गेन तद्धस्तमाच्छिदत् / पतितः पृथिव्यां वीरः / स चासुरः पुरः 'प्राचलत् / ततो विदितदेव्यपहारवृत्तान्तः क्षितिकान्तः पञ्चाशतमेकोनां वीरानादिशद् यत् पट्टदेव्याः शुद्धिः क्रियतां केनेयमपहृतेति / ते प्रागपि शूद्रकं प्रत्यसूयापरा: प्रोचुः--महाराज! शूद्रक एव जानीते। तेनैव तच्छीर्षकमानीतम् / तेनैव दैवी जहे / 15 ततो नृपतिस्तस्मै कुपितः शूलारोपणमाज्ञापयत् / तदनु देशरीतिवशात् तं रक्तचन्दनानुलिप्ताङ्गं शकटे शाययित्वा तेन सह गाढं बद्ध्वा शूलाय यावद् राजपुरुषाश्चेलः तावत् पश्चाशदपि वीराः सम्भूय शूद्रकमवोचन्- भो महावीर ! किमर्थ रऐडेव म्रियते भवान् / अशुभस्य कालहरणमिति न्यायात् मार्गय नरेन्द्रात् कतिपय- 20 दिनावधिम् / शोधय सर्वत्र देव्यपहारिणम् / किमकाण्डे एव स्वकीयां वीरत्वकीर्तिमपनयसि / तेनोक्तम्--गम्यतां तर्हि उपराजम् / विज्ञाप्यतामेनमर्थ राजा / तैरपि तथाकृते प्रत्यानायितः शूद्रका क्षितीन्द्रेण / तेनापि स्वमुखेन विज्ञप्तिः कृता-- महाराज ! दीयतामवधिः येन विचिनोमि प्रतिदिशं देवीं तदपहरिणं च / 25 1 ख- 'घण्टाविलम्बि'। 2 ख- 'लंबूदलाभिख्यखून्दला.'। 3 घ'विलम्बित०' / / ख- 'प्रचालीत'। 5 'रोडीरांड' इति भाषायाम / Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [15 श्रीसातवाइनराज्ञा दिनदशकमवधिदत्तः / शुद्रकगृहे च सारमेयद्वयमासीत् तत्सहचारि / नृपतिरवदत्- एतद् भषणयुगलं प्रतिभप्रायमस्मत्पार्श्वे मुश्च / स्वयं पुनर्भवान् देव्युदन्तोपलब्धये 'हिण्डतां महीमण्डलम् / सोऽप्यादेशः प्रमाणमित्युदीर्य प्रवीर्यवानुपतस्थे / भूचक्रशकस्तत् कौलेयकद्वन्द्वं शृङ्खलाबद्धं शय्यापादयोरबध्नात् / शूद्रकस्तु परितः पर्यटत् / अट्यमानोऽपि यावत् प्रस्तुतार्थस्य वार्तामात्रमपि क्वापि नोपलेभे तावदचिन्तयत् -- अहो ममेदमयशः प्रादुरभूद् यदयं स्वामिद्रोही भूत्वा देवीमपाजीहरदिति / न च कापि शुद्धिर्लब्धा तस्याः / तस्मान्मरणमेव मम शरणम् / इति विमृश्य 10 दारुभिश्चितामरचयत् / “ज्वलन चाज्वालयत् / यावन्मध्यं प्राविशत् तावत् ताभ्यां शुनकाभ्यां देवताधिष्ठिताभ्यां ज्ञातं यदस्मदधिपतिर्निधनं वाञ्छन्नस्तीति / ततो दैवतशक्त्या शृङ्खलानि भङ्क्त्वा निर्विलम्बौ गतौ तौ तत्र यत्रासीच्छद्रकरचिता चिता / दशनैः केशानाकृष्य शूद्रकं बहिर्निष्कासयामासतुः / तेनापि अक१५ स्मात् तौ विलोक्य विस्मितमनसा निजगदे-रे पापीयांसौ ! किमेतत् कृतं भवद्भ्यामशुभवद्भयाम् ? / राज्ञा मनसि विश्वासनिरासो भविष्यति यत् प्रतिभुवावपि तेनात्मना सह 'नीतौ / भषणाभ्यां बभाषे--- धीरो भव। अस्मद्दर्शितां दिशमनुसर सरभसम्। का चिन्ता तव ? / इत्यभिधाय पुरोभूय प्रस्थिती तेन सार्धम् / क्रमात् 20 प्राप्तौ 'कोल्लापुर'म् / तत्रस्थं महालक्ष्मीदेव्या भवनं प्रविष्टौ / तत्र शूद्रकस्तां देवीमभ्यर्च्य कुशसंस्तरासीनस्त्रिरात्रमुपावसत् / तदनु प्रत्यक्षीभूय भगवती महालक्ष्मीस्तमवोचत्--वत्स ! किं मृगयसे / / शुद्रकेणोक्तम्-स्वामिनि ! सातवाहनमहीपालमहिष्याः शुद्धिं वद / कास्ते केनेयमपहृताः ? | श्रीदेव्योदितम्---सर्वान् यक्ष-राक्षस 1 श्वयुग्मम् / २-'मस्मपार्श्व। 3 गच्छतु। 4 ग-'वान् प्रतस्थे / 5 श्वयुगलम् / 6 ग- 'पादेऽन्नीत्। 7 अमिम् / 8 ख-घ-- 'प्रविशत्' / 1 ख- घ- 'धनायमस्तीति'। घ-नीतावप्ति (1) / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायः प्रबन्धकोशेत्य पराये भूतादिदेवगणान् सम्मील्य तत्प्रवृत्तिमहं निवेदयिष्यामि, परं तेषां कृते त्वया बल्युपहारादि प्रगुणीकृत्य धार्यम् / यावच्च ते कणेहन्य बल्यायुपभुज्य प्रीता न भवेयुस्तावत् त्वया विघ्ना रक्षणीयाः / ततः शूद्रको देवतानां तर्पणार्थ कुण्डं विरचय्य होममारेभे / मिलिताः सकलदैवतगणाः / स्वां स्वां भुक्तिमग्निमुखेन जगृहिरे / तावत् 5 तद्धोगधूमः प्रसृमरः प्राप तत्स्थानं यत्र मायासुरोऽभूत् / तेनापि परिज्ञातलक्ष्म्यादिष्टशूद्रकहोमस्वरूपेण प्रेषितः स्वभ्राता कोल्लासुरनामा होमप्रत्यूहकरणाय / समागतश्च वियति कोल्लासुरः स्वसेनया समम् / 'दृष्टस्तदैवतगणैः / चकितं च तैः / ततो भषणौ दिव्यशक्त्या युयुधाते दैत्यैः सह / क्रमान्मारितौ च तो 10 दैत्यैः / तत् शूद्रका स्वयं योद्धं प्रावृतत् / क्रमेण दण्डव्यतिरिक्तप्रहरणान्तराभावाद् दण्डेनैव बहून् निधनं नीतवानसुरान् / ततो दक्षिणबाहुं दैत्यास्तस्य चिच्छिदुः / पुनर्वामदोषणैव दण्डयुद्धमकरोत् / तस्मिन्नपि छिन्ने दक्षिणांहिणोपात्तदण्डो योद्धं लग्नः / तत्रापि दैत्य ने वामपादात्तयष्टिरयुध्यत / तमपि क्रमादच्छिदन- 15 मुराः / ततो दन्तैर्दण्डमादाय युयुधे / ततस्तैर्मस्तकमच्छदि / अथाकण्ठतृप्ता दैवतगणास्तं शूद्रकं भूमिपतितशिरस्कं दृष्ट्या अहोऽस्मद्भुक्तिदातुर्वराकस्य किं जातमिति परितप्य योद्बु प्रवृत्ताः कोल्लासुरममारयन् / ततः श्रीदेव्याऽमृतेनाभिषिच्य पुनरनुसंहिताङ्गश्चक्रे शुद्रका प्रत्युज्जीवितश्च / सारमेयावपि 20 पुनर्जीवितौ / देवी च प्रसन्ना सती तस्मै खड्गरत्नं प्रादात् / अनेन स्वमजय्यो भविष्यसीति च वरं व्यतरत् / ततो महालक्ष्म्यादिदैवतगणैः सह सातवाहनदेव्याः शुद्धयर्थं समग्रमपि भुवनं परिभ्रम्य प्राप्तः शूद्रको महार्णवम् / तत्र चैकं वटतसमुच्चस्तरं निरीक्ष्य विश्रामार्थमारुरोह यावत् तावत् पश्यति तच्छाखायां लम्बमानमधः- 25 शिरसं काष्टकीलिकाप्रवेशितोर्ध्वपादं पुरुषमेकम् / स च प्रसा 1 तृप्तिपर्यन्तम् / 2 ग- 'दृष्टः स्वदैवत.' / 3 इस्तेन / पतुर्विशति. 19. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे 15 मौसातवाहन. रितजिह्वोऽन्तीरं विचरतो जलचरादीन् भक्षयन् वीक्षितस्तैः / पृष्टश्च शूद्रकेण-कस्त्वं किमर्थं चेत्थं लम्बितोऽसि ! ! तेनोक्तम्अहं मायासुरस्य कनिष्ठो भ्राता / स च मदनोन्मदिष्णुर्मदग्रजः 'प्रतिष्ठाना' धिपतेः सातवाहनस्य नृपतेर्महिषीं 'रिरंसुरपाहरत् सीतामिव देशवदना / सा च पतिव्रता तनेच्छति / तदनुप्रोक्तोऽप्रजन्मा-न युज्यते परदारापहरणं तव / विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि, परस्त्रीषु रिरंसया / कृत्वा कुलक्षयं प्राप, नरकं दशकन्धरः // 1 // इत्यादिवाग्भिनिषिद्धः क्रुद्धो मह्यं मायासुरोऽस्यां वटशाखायां 10 टङ्गित्वा मामित्थं व्यडम्बयत् / अहं च प्रसारितरसनः समुद्रान्तः सञ्चरतो जलचरादीनभ्यवहरन् प्राणयात्रां करोमि / इति श्रुत्वा शुद्रकोऽप्यभाणीत्--- अहं तस्यैव महीभतो भृत्यः शूद्रकनामा तामेव देवीमन्वेष्टुमागतोऽस्मि / तेनोक्तम्- एवं चेत् तर्हि मां मोचय यथाऽहं सह भूत्वा तं दर्शयामि तां च देवीम् / तेन स्वस्थान 15 परितो 'जातुषं दुर्ग कारितमस्ति / तच्च निरन्तरं प्रज्वलदेवास्ति / 'ततस्तदुल्लध्य तन्मध्ये प्रविश्य तं निपात्य देवी प्रत्याहर्तव्या / इत्याकर्ण्य शूद्रकस्तेन कृपाणेन तत्काष्ठबन्धनानि छित्त्वा तं पुरोधाय दैवतगणपरिवृतः प्रस्थाय प्राकारमुल्लड्थ्य तत्स्थानान्तः प्राविशत् / दैवतगणांश्वालोक्य मायासुरः स्वसैन्यं युद्धाय प्रजिघाय / तस्मिन् पञ्चतामञ्चिते स्वयं योद्धमुपतस्थौ / ततः क्रमेण शूद्रकस्तेनासिना तमवधीत् / ततो 'घण्टावलम्बि विमानमारोप्य देवी दैवतगणैः सह प्रस्थितः 'प्रतिष्ठान' प्रति / _इतश्च दशमं दिनमवधीकृतमागतमवगत्य जगत्यधिपतिातवान्-अहो मम न महादेवी, न च शूद्रकवीरः, न चापि तें। क- 'मायामुखस्य' / 2 ग- 'वान्छनपा०' / 3 रावणः / 4 अनुष्टुप् / 5 बया, 'टोगीने' इति भाषायाम् / 6 लाक्षामयम् / 7 ग-'ततो दुर्लक्ष्यं तन्मध्ये' / 8 मृत्यु गते / 9 घ- 'तस्थे' 10 घ-'विलम्बि०। 11 क-ख-'कृत्यमागत.' 12 - 'नापि च तौ'। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये रंसनालिही; सर्व मयैव कुबुद्धिना विनाशितम् / इति शोचनात् सपरिच्छद एव प्राणत्यागचिकीः पुराद् बहिश्चितामरचयच्चन्दनादिदारुभिः / यावत् क्षणादाशुशुक्षणिं क्षेप्स्यति परिजनश्चिताया तावद् वर्धापक एको देवगणमध्यात् समायासीद् व्यजिज्ञपच्च सप्रश्रयम्- देव ! दिष्टया वर्धसे महादेव्यागमनेन / तन्निशम्य श्रवण- 5 रम्यं नरेश्वरः स्फुरदानन्दकन्दलितहृदय ऊर्ध्वमवलोकयन्नालुलोके नभसि दैवतगणं शूद्रकं च / अयमपि विमानादवीर्य राज्ञः पदोरपतत् महादेवी च / अभिननन्द सानन्दं मेदिनीन्दुः शूद्रकम् / राज्याध तस्मै प्रादिशत् / सोत्सवमन्तनगरं प्रविश्य श्रुतशूद्रकचारुचरितः सह महिष्या राज्यश्रियमुपबुभुजे महाभुजः / 10 तस्य च सातवाहनस्य चन्द्रलेख्याद्याः पञ्च शतानि परन्यः सर्वा अपि षड्भाषाकवित्वविदः / राजा पुनरनधीतव्याकरणः / आगत उष्णकालः / आरब्धा जलकेलिः / चन्द्रलेखा तु शीतालुः शीतं न सहते / नृपस्तु प्रेम्णा शृङ्गकजलैस्तामनवरतं सिञ्चति / ततः सा संस्कृतेन प्राह--- देव ! मा मोदकैः पूरय / 15 हालस्तु तत्संस्कृततत्त्वमनवगच्छन् मोदकनाम श्रुत्वा दास्याः पार्थान्मोदकपटलिकामानीनयत् / चन्द्रलेखा तां दृष्ट्वा पतिमतिभ्रमदर्शनादहसीत्-अहो महाराजस्य शास्त्रोत्तेजितमतिव्यापः / / राज्ञाऽप्युपहासो ज्ञातः / पृष्टा राज्ञी - किमर्थं वयमुपहस्यामहे!। राज्ञी जगाद -अन्यार्थस्थानेऽन्यार्थावबोधाद् हसितोऽसि प्रिय!। 20 लज्जितो राजा / सद्यो विद्यार्थ भारती त्रिरात्रोपवासेनाराध्य प्रत्यक्षीकृत्य तद्वरान्महाकविर्भूत्वा सारस्वतव्याकरणादिशास्त्रशतान्यंचीचरत् / तस्येश्वरस्य 'गुणकृत्वो भारती देवताऽवसरेऽवतीर्याह / एकदा भारतीमभ्यर्थयत्--सकलमपि पुरं आधयामा 1 श्वानौ / 2 अमिम् / 3 क- 'पर्जन्यः ' / घ-- 'जनश्च ती ताबद' / 5 क-ख- 'सिञ्चते' / 6 ग- 'श्रम.' / 7 क- 'विद्यावर्ष' / 8 क-घ--'ची कृपत्. ख-'चीपकृत् / 9 ग-'गण'। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 चतुर्विंशतिप्रबन्ध / 15 श्रीसातवाहन अहः कविरूपं भवतु / तथैवं कृतं देव्या / एकस्मिन् दिने दशकोट्यो गाथाः सम्पन्नाः / सातवाहनकशास्त्रं तत्कृतम् / तस्य चोर्वीपतेः खरमुखो नाम दण्डनाथः शूरो भक्तः प्राज्ञः पुण्याढ्य आरम्मसिद्धः। एकदा हालेनादिष्टं खरमुखाय-'मथुरां' लाहि / आदेशः प्रमाणमित्युक्त्वा बहिर्व्यापारिणां पार्श्वमेत्य राजादेशमचीकथत् / व्यापारिभिः प्रोक्तम्-खरमुख ! द्वे 'मथुरे' स्तः / एका 'दक्षिणमथुरा' पाण्डवकृता, अपरा 'पूर्वमथुरा' यद्गोष्ठे कृष्णः समुत्पन्नः यत्र 'वृन्दावना'दीनि वनानि / द्वयोर्मध्यात् का 'मथुरा' ग्राह्येति पृच्छ / खरमुखेनोक्तम्-प्रतापमार्तण्डं तं कः प्रष्टुमीष्टे ? / वक्ष्यति हि रे मम चेतो न जानीथ ? / तस्य च प्रकोपः सद्यः प्राणहरः / द्वे अपि 'मथुरे' ग्रहीष्यामः / सैन्यं द्विखण्डं कृत्वा द्वे 'मथुरे' एकस्मिन्नेव मध्याह्ने खरमुखेन जगृहाते / तत्पुरीद्वयग्रहणवर्धापनिकामुखौ द्वौ नरौ आगमताम् / यावत् प्रमोदात् तौ नृपतिरालपति तावत् तृतीय एक आगात् / स उवाच-देव! भवत्काराप्यमाणजैनप्रासाद१५ भमितलेऽक्षयो निधिः प्रादुर्बभूव दिष्टया / यावत् तदभिमुखमीक्षते तावदेव दासी प्रेममञ्जूषा "शुद्धान्तादायासीत् - स्वामिन् ! देव्या चन्द्रलेखया सर्वाङ्गलक्षणः सुतो जातः / चतस्रोऽपि वर्धापनिका दत्ताः क्षमापालेन / तेन प्रमादेनास्य महोन्माद उत्पन्नः / ततो मेलयित्वा लोकं हयारूढो 'गोदावरी'तीरमुपेत्य तां जगाद 20 तारतरखरम् सञ्चं भण 'गोदावरि !' पुव्वसमुद्देण साहिया संती / सालाहणकुलसरिसं जइ ते कूले कुलं अस्थि ? // 1 // 1 ग--'तत्र चोवी०। 2 ख- 'सुरमुखो'। 3 ख-'सिद्धिः' / / ग-‘आयाती। 5. अन्तःपुरात् / 6 गया-सत्यं भण गोदावरि ! पूर्वस मुद्रेण साधिका सजी। सालिवाहनकुलसदृशं यदि ते कूले कुलमस्ति ? // 7 घ-'सीलाहण' / 8 आर्या / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये उत्तरओ हिमवंतो दाहिणओ 'सालिवाहणो राजा(या)। समभारभरकता तेण न पल्हत्थए पुहवी // 2 // तादृशं तस्य गर्वमीक्षमाणा महामन्त्रिणोऽन्योन्यं मन्त्रयामासु :-- नृपः श्रिय तरलितः / ततः -- जितश्चेत् पुरुषो लक्ष्म्या, हृतं लोकद्वयं ततः। 5 जिता चेत् पुरुषेणैषा, जित लोकद्वयं ततः // 1 // तस्मादस्य दुःखोत्पादनेन मदगदोच्छेदः कर्तुमर्हः / इत्यालोच्य राजानं व्यजिज्ञपन्-देव ! ललाटंतपतपनः काल. भोजनावसरो वर्तते / पादोऽवधार्यतां सौधाय / इत्युदित्वा सौधमानैषुः / तत्रापि मदात् स्तम्भादीनि कुट्टयति / ततो मन्त्रिभिः खरमुखं वीरोत्तंसं 10 छन्नीकृल्य राज्ञे उतम-देव ! खरमुखः सद्यो व्याधिना द्यामगमत् / अथ तच्छ्वणे क्षमापो दुःखाच्छोकान्मदमहासीत् / शोकात् तु वैकल्यमचकलत् / अथामात्यैर्विज्ञप्तम्-प्रजेश्वर ! विदेशादायातैर्मृतजीवनविद्याविदुरैः खरमुखो जीवितः / यद्यादेशः स्यात् तदा पदकमलयुगलतले लोन्यते / इत्युक्ते सुस्थो जातः / दृष्टः खरमुखः / 15 सुष्ठु तुष्टो राजा / एवं तस्योदयः / __ अन्यदाऽसौ 'गोदावरी'तीरे क्रीडति / तदेकमीनेन जलाद् बर्हिमुखं निष्कास्य हसितम् / भीतश्चमत्कृतश्च भूपः / रात्रौ ध्यानाकृष्टाऽऽयाता ब्राह्मी पृष्टा--देवि! मीनः किमर्थं हसति ? / माइम्याह-वत्स ! प्राग्भवे त्वं अत्रैव पुरे काष्ठभारहारक 20 आसीः / स च मध्याह्ने काष्ठकष्टार्जितधनकीतान् सक्तून् उष्णोदकविलोडितान् मासक्षपणिकऋषये मुदा ददे / तेन पुण्येन त्वं छाया-उत्तरतो हिमवान् दक्षिणतः सालिवाहनो राजा / समभारभराकान्ता तेन न पर्यस्यते पृथ्वी // 2 ग-सालवाहणराया' / 3 ग-'पन्थए' / / आर्श / 5 ख-ध-'तादृश्य' / 6 अनुष्टुप् / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 चतुर्विंशतिप्रबन्धे [15 श्रीसातवाहन सम्राडवातरीः / तदेकस्तत्रत्यो व्यन्तरो वेत्ति / तेन मीने सङ्क्रम्य हसितं त्यया दृष्टम् / राजाऽऽह-हासस्य को भावः / ब्राह्मी वक्ति अयं भावः- अयं दानादाप्तर्द्धिः पुनर्दाने मन्दादरः / धिगात्मकार्यमूदं जीवलोकमिति / सातवाहनो जल्पति--तस्य न्यन्तरस्य मञ्चर्चया कि कार्यम् ? / ब्राड्म्याह - प्राग्भवेऽयं तवैव सखाऽभूत् / तेन कृपणत्वात् किमपि न दत्तम् , केवलं त्वरत्तमेव किंश्चिदनुमोदितम् / तेन पुण्येन व्यन्तरत्वे नावतीर्णोऽयम् / ततस्त्वयि हितार्थित्वमस्य / मां च त्वन्मन्त्रशक्तिसमाकृष्टिप्रत्यक्षा त्वन्मातृकल्पां जानाति / ततस्तथाऽहसदिति विद्धि / तवृत्तान्त. 1. ज्ञानादवनीशो वदान्यत्वं सुष्ठाददे / ब्राह्मीश्रीदत्तशम्दवेधरस सिद्धेरिन्छादानी मानी जैनः / इत्थङ्कारं नानाविधान्यवदातानि हालक्षितिपालस्य कियन्ति नाम वर्णयितुं पार्यन्ते ? / स्थापित बानेन 'गोदावरी'तीरे महालक्ष्मीः प्रासादे / अन्यान्यपि च यथार्ह दैवतानि निवेशितानि तत्तत्स्थानेषु / 15 राज्यं प्राज्यं चिरं भुखाने जगतीजानौ अन्यदा कश्चिद् दारु भारहारकः कस्यचिद् वाणिजस्य वीथौ प्रत्यहं चारुकाणि दारुण्याहृत्य विक्रीणीते स्म / दिनान्तरे च तस्मिन्ननुपेयुषि वणिजा तद्भगिनी पृष्टा--किमर्थ भवद्भाताऽद्य नागतो मीभ्याम् ? / तया बभणे श्रेष्ठिश्रेष्ठ ! मत्सोदर्यः स्वर्गिषु सम्प्रति प्रतिवसति / वणिगभणत्-- 20 कथमिव ? / साऽवदत्-कङ्कणबन्धादारभ्य विवाहप्रकरणे दिन-- चतुष्टयं नरः स्वनिष्विव वसन्तमात्मानं मन्यते, तदुत्सवालोकनकौतूहलात् / तच्चाकर्ण्य राजाऽप्याचन्तयत्-अहो अहं स्वर्गिषु किं न वसामि ? | चतुषु चतुर्ष दिनेषु अनवरतं विवाहोत्सवमय एव स्थास्यामि / इति विचार्य चातुर्वण्र्ये यां यां कन्यां युवति २५रूपशालिनी पश्यति शृणोति स्म च तां तां सोत्सवं पर्यणैषीत् / 1 ग- 'भूपोऽभूत्' / 2 'पुनः' इत्यधिको ग-पाठः / 3 घ-'लक्ष्मी प्रासादें / घ-चारपाणि'। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराये एवं च भूयस्यनेहसि गच्छति लोकैश्चिन्तितम्- अहो कयं भाव्यमनपलैरेव सर्ववर्णैः स्थयम् ? / सर्वाः कन्यास्तावद् राजैव विवोढा / योषिदभावे च कुतः सन्ततिरिति / एवं विषण्णेषु लोकेषु 'विवाहवाटिका'नाम्नि ग्रामे वास्तव्य एको द्विजः पीठजां देवीमाराध्य व्यजिज्ञपत्- भगवति ! कथं विवाहकर्माऽस्मदपत्यानां 5 भाषीति ! / देव्योक्तम्-भो वाडव! त्वद्भवनेऽहमात्मानं कन्यारूपं कृत्वाऽवतरिष्यामि / यदा मां राजा प्रार्थयते तदाऽहं तस्मै देया, शेषमहं करिष्ये / तथैव राजा तां रूपवतीं श्रुत्वा विप्रमयाचत / सोऽपि जगाद-- दत्ता मया, परं महाराज! स्वयमत्रागत्य मत्कन्योबोढव्या। प्रतिपन्नं राज्ञा / गणकदत्ते लग्ने क्रमाद् विवाहाय 10 प्रचलितः / प्राप्तश्च तं ग्राम श्वशुरकुलमवनिपतिः / देशाचारानुरोधाद् वधूवरयोरन्तराले जवनिका दत्ता / अञ्जलियुगन्धरीलाजै. भृतः / लग्नवेलायां 'तिरस्करिणीमपनीय यावदन्योन्यस्य शिरसि लाजान् वितरितुं प्रवृत्तौ तदनु किल हस्तमेलापो भविष्यतीति ताबद् राजा लां रौद्ररूपा राक्षसीमिवैक्षिष्ट / ते च लाजाः कठिन- 15 कर्करपाषाणरूपा राज्ञः शिरसि लांगतुं लग्नाः / क्षितिपतिरपि किमपि विकृतमिदमिति विभावयन् पलायितः / तावत् सा पृष्ठलग्नाऽश्मशकलानि वर्षन्ती प्राप्ता / ततो नरपति गहदे प्राविशन्निजजन्मभूमिम् / तत्रैव च निधनमानशे / अद्यापि सा पीठजा देवी प्रतोल्या बहिरास्ते निजप्रासादस्था / शूद्रकोऽपि क्रमेण 20 कालिकादेव्याऽजारूपं विकृत्य वापी प्रविष्टया करुणरसितेन विप्रलब्धस्तनिष्कासनार्थ प्राविशत् / पतितस्य तस्य कृपाणस्य पद्वारे तिर्यपतनाच्छिन्नाङ्गः पञ्चतामानञ्च / महालक्ष्म्या हि वरवितरणावसरेऽस्माद् देवेकौशेयकात् तव दिष्टान्तावाप्तिर्भवित्रीत्यादिष्टमासीत् / ततः शक्तिकुमारो राज्येऽभिषिक्तः / सात- 25 1 घ- भीलव्ये' / 2 जवनिकाम् / 3 घ-'कठिनपाषाणकर्कररूपा' / ख- रति किमपि' / 5 ग 'खगात् तब मरणं भावीया.'। 6 ख-घ-शातवाहनाय'। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [15 श्रीसातवाहन वाहनस्य निसूदनान्तरमथापि राजा न कश्चित् 'प्रतिष्ठाने' प्रविशति, 'वीरक्षेत्रत्वात् / अत्र च यदसम्भाव्यं कचिद् गर्भे तत्र परसमय एन मन्तव्यो हेतुः, यन्नासङ्गतवारजनो जैनः। श्रीवीरे शिवं गते 170 (वर्षे) विक्रमार्को राजाऽभवत् / तत्कालीनोऽयं सातवाहनः,तत्प्रति५ पक्षत्वात् / यस्तु कालिकाचार्यपार्थात् पर्युषणामेकेनाहा अर्वागानाययत् सोऽन्यः सातवाहन इति सम्भाव्यते; अन्यथा नवसयतेणउएहिं समकंतेहिं वीरमुक्ताओ / पज्जोसवणचउत्थी कालयसूरेहिं तो ठविआ // 1 // इति चिरत्नगाथाविरोधप्रसङ्गात् / न च सातवाहनक्रमिकः सात१० वाहन इति विरुद्धम् , भोजपदे बहूनां भोजत्वेन, जनकपदे बहूनां जनकत्वेन रूढत्वात् / // इति 'शातवाहन चरित्रम् / / 15 // THI 1 घ-'वीरक्षेत्रे इति' / 2 ग-यदसद्भाव्यं' / 3 छाया- नवशतत्रिनवत्या समाक्रान्तरिमोक्षात् / पर्युषणचतुर्थी कालिकसूरिभिस्तावत् स्थापिता // आया / 5 ग-शालिवाहनप्रवन्धः' / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रपन्ना] प्रबन्धकोशेत्यपराहये [16] / / अथ वङ्कचूलप्रवन्धः // 'पारेत'जनपदान्त-'श्चर्मण्वत्या' स्तटे महानद्याः / नानाघनवनगहना, जयत्यसौ 'टीम्पुरीति पुरी // 1 // अत्रैव 'भारते' वर्षे विमलयशा नाम भूपतिरभूत् / तस्य सुमङ्गला- 5 देव्या सह विषयसुखमनुभवतः क्रमाजातमपत्ययुगलम् / तत्र पुत्रः पुष्पचूलः पुत्री पुष्पचूला। अनर्थसार्थमुत्पादयतः पुष्पचूलस्य कृतं लोकैर्वङ्कचूल इति नाम / महाजनोप(पा)लब्धेन राज्ञा रुषितेन निःसारितो नगराद् वङ्कचूलः / गच्छंश्च पथि पतितो भीषणायामटव्यां सह निजपरिजनन स्वस्रा च स्नेहपरवशया / 10 तत्र च क्षुत्पिपासार्दितो दृष्टो भिल्लैः नीतः स्वपल्लयाम् / स्थापितश्व पूर्वपल्लीपतिपदे / पर्यपालयद् राज्यम् / अलुण्ठयद् ग्राम-नगरसार्थादीन् / अन्यदा सुस्थिताचार्या 'अर्बुदा'चला'दष्टापद यात्रायै प्रस्थितास्तामेव 'सिंहगुहां' नाम पल्ली सगच्छाः प्रापुः / जातश्च 15 वर्षाकालः / अजनि पृथिवी जीवाकुला / साधुभिः सहालोच्य मार्गयित्वा वङ्कचूला वसतिं स्थितास्तत्रैव सूरयः / तेन च प्रथममेव व्यवस्था कृता-- मम सीमान्तधर्मकथा न कथनीया, यतो युष्मत्कथायां अहिंसादिको धर्मः, न चैवं मम लोको निर्वहति / एवमस्तु इति प्रतिपद्य तस्थुरुपाश्रये गुरवः / वकचूलेनाहूय 20 सर्वे प्रधानपुरषा भणिताः ---अहं राजपुत्रस्तन्मत्समीपे ब्राह्मणादय आगमिष्यन्ति / ततो भवद्भिर्जीववधो मांसमद्यादिप्रसङ्गश्च पछीमध्ये न कर्तव्यः / एवं कृते यतीनामपि भक्तपानमजुगुप्सितं पाल्पत इति / तैस्तथैव कृतं यावच्चतुरो मासान् / प्राप्तो विहार - - - , आर्या / 2 ग. 'भूतपूर्व' / 3 ग-पछया मध्ये' / चतुर्विशति.. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे 16 श्रीवरचूलेसमयः / अनुशापितो वङ्कचूलः सूरिभिः समणाणं सउणाणं भमरकुलाणं गोकुलाणं च / अनिआओ वसहीओ सारईआणं च मेहाण // 1 // इत्यादि वाक्यैः / ततस्तैः सह चलितो वङ्कचूलः / स्वसामां 5 प्रापुषा तेन विज्ञप्तम्-वयं परकीयसीमां न प्रविशाम इति / सूरिभिर्भणितः-- वयं सीमान्तरमुपेताः तत् किमप्युपदिशामस्तुभ्य, दाक्षिण्यात् / तेनोक्तम्-यन्मयि निर्वहति तदुपदेशेनानुगृह्यतामयं जनः / ततः सूरिभिश्चत्वारो नियमा दत्ताः, तद्यथा अज्ञातफलानि न भोक्तव्यानि 1, सप्ताष्टानि पदान्यपसृत्य घातो 10 देयः 2, पट्टदेवी नाभिगन्तव्या 3, काकमांस न भक्षणीयमिति 4 / प्रतिपन्नास्तेन ते / गुरून् प्रणम्य स्वगृहमगमत् / __अन्यदा गतः सार्थस्योपरि धाट्याम् / शकुनकारणान्न गतः सार्थः / त्रुटितं च तस्य पथ्यदनम् / पीडिताः क्षुधा राजन्याः। दृष्टश्च तैः किम्पाकतरुः फलितः / गृहीतानि फलानि / न जानन्ति ते 15 नामधेयमिति तेन न भुक्तानि / इतरैः सर्वैर्बुभुजिरे / मृताश्च ते किम्पाकफलैः / ततश्चिन्तितं तेन-अहो नियमानां फलम् / / तत एकाक्येवागतः पल्लीम् / रजन्यां प्रविष्टः स्वगृहम् / दृष्ठा पुष्पचूला दीपालोकेन पुरुषवेषा निजपल्या सह प्रसुप्ता। जातश्च कोपस्तयोरुपरि / द्वावप्येतौ खड्गप्रहारेण छिनमि / इति यावद२० चिन्तयत् तावत् स्मृतो नियमः / ततः सप्ताष्ट पदान्यपक्रम्य घातं ददतः खोट्कृतमुपरि खड्गेन / व्याहृतं स्वस्रा-जीवतु वङ्कचूलः। 1 छाया--- श्रमणानां शकुनानां श्रमरकुलानां गोकुलानां च / अनियता वसतयः शारदायानां च मेघानाम् // 2 आर्या / 3 दाक्षिण्यात् ' इति पाठः घ-प्रतो नास्ति / 4 ख-घ-'स्व(स.)स्वगृहमगमन् ' 5 घ-'परिपया(?)शकुन.' / 6 क-ख-पथ्यदिनम्',घ-'एण्यदिनम्। 7 'इति तैः' / 8 घ-‘पदान्यपसृत्य / 1 घ-'खाटरकृत / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध प्रबन्धकोशेत्यपराये तद्वचः श्रुत्वा लजितोऽसावपृच्छत्- किमतेदिति ? / साऽपि नटवृत्तान्तमचीकथत् --भ्रातरत्र प्रतिभूपतेनटवेषधराश्चरा आगच्छन् / यदि पल्लयां वकचूलोऽस्ति तदाऽस्माकं नृत्यं पश्यतु इत्यब्रुवन् / तदा मयाऽचिन्ति-- साम्प्रतं भ्राता वङ्कचूलो नास्ति गृहे / तदा मया तव वेषधारिण्या नृत्यमकारि तेषां पार्था- 5 त् / दानमदायि तेभ्यः / गताच ते खस्थानम् / ततो बहुनिशागमनेन निद्रापरवशा तेनैव वेषेण भ्रातृजायापार्श्वे अखपम् / इति वृत्तान्तं श्रुत्वाऽतीव मनसि खेदो दधे तेन / कालक्रमेण तस्य तद्राज्यं शासतस्तत्रैव पल्लयां तस्यैवाचार्यस्य शिष्यौ धर्मऋषि-धर्मदत्तनामानौ कदाचिद् वर्षारात्रमवास्थिषाताम्। 10 तत्र तयोरेकः साधुस्त्रिमासक्षपणं विदधे, द्वितीयस्तु चतुर्मासक्षपणम् / वकचूलस्तु तदत्तनियमानामायतिशुभफलतामवलोक्य व्यजिज्ञपत् -~-हे भदन्तौ ! मदनुकम्पया कमपि पेशलं धर्मोपदेशं दैत्तः, ततस्ताभ्यां चैत्यविधापनदेशना पापनाशिनी विदधे / तेनापि 'शराविका पर्वतसमीपवर्तिन्यां तस्यामेव पल्लयां 'चर्मण्वती'सरित्तीरे 15 कारितमुच्चैस्तरं चारु चैत्यम् / स्थापितं च तत्र श्रीमन् महावीरबिम्बम् / तीर्थतया च रूढं तत्। तत्रायान्ति स्म चतुर्दिग्भ्यः सङ्घाः / कालान्तरे कश्चिन्नैगमः सभार्यः सर्वर्या तद्यात्रायै प्रस्थितः प्राप्तः क्रमेण 'रन्ति' नदीम् / नावमारूढी च दम्पती चैत्यशेखरं व्यलोकयताम् / ततः सरभसं सौवर्णकञ्चोलके कुङ्कुमचन्दन- 20 कर्पूरं प्रक्षिप्य जलं क्षेप्तुमारब्धवती नैगमगृहिणी। प्रमादात् निपतितं तदन्तर्जलतलम् / ततोऽभाणि वणिजा-अहो इदं कञ्चोलकं नैककोटिमूल्यरत्नखचितं राज्ञा ग्रहणकेऽर्पितमासीत् / 1 घ-'कथत् कथं भ्रात.' / 2 'ततो बहु' इसारभ्य 'परवशा'पर्यन्तं पाठाधिक्यं ग-पुस्तके वर्तते / 3 ख-घ-'तेन वेषेण' / ख-घ दत्तम् / 5 ख --शिरोनामिदविका()पर्वत.', घ.- 'शिरानामदंविकापर्वतः'। 6 ख-घ-- तत्र यान्ति' / 7 घ--रतिनदीम्। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 चतुर्विशतिप्रवन्धे 16 श्रीवक चूलततो राज्ञः कथं छुटितव्यम् ? / इति चिरं विषय वचूलस्य पल्लीपतेर्विज्ञापितं तत्, यथा-- अस्य राजकीयवस्तुनो विचितिः कार्यताम् / तेनापि धीवर आदिष्टः तच्छोधयितुं प्राविशदन्तनंदीम् / विचिन्वता 'चान्तर्जलतलं दृष्टं तेन 'हिरण्यमयरथस्थं जीवन्तस्वामि५ श्रीपार्श्वनाथबिम्बं यावत् पश्यति स्म स बिम्बस्य हृदये तत्कच्चोलकम् / धीवरेणोक्तम्-धन्याविमौ दम्पती यद् भगवतो वक्षसि "घुसृणचन्द्रचन्दनविलेपनाहे स्थितमिदम् / ततो गृहीत्वा तदर्पित नैगमस्य / तेनापि दत्तं तस्मै बहु द्रव्यम् / उक्तं च विम्बस्वरूपं नाविकेन / ततो वङ्कचूलेन श्रद्धालुना तमेव प्रवेश्य 10 निष्कासितं तद् बिम्बम् / कनकरथस्तु तत्रैव मुक्तः / निवेदितं हि स्वप्ने प्राग् भगवता "नृपतेः ---यन्त्र क्षिप्ता सती पुष्पमाला गत्वा तिष्ठति तत्र बिम्बे शोध्यमिति / तदनुसारेण बिम्बमानीय समर्पित राज्ञे वङ्कचूलाय / तेनापि स्थापित श्रीवीरबिम्बस्य बहिर्मण्डपे, यावत् किल नव्यं चैत्यमस्मै कारयामि इत्यभिसन्धिमता / कारिते च 15 चैत्यान्तरे यावत् तत्र स्थापनार्थमुत्थापयितुमारभन्ते राजकीयाः पुरुषास्तावद् बिम्ब नोत्तिष्ठति स्म / देवताधिष्ठानात् तत्रैव स्थितमद्यापि तथैवास्ते / धीवरेण पुनर्विज्ञप्तः पल्लीपतिः~-यत् तत्र देव ! मया नद्यां प्रविष्टेन बिम्बान्तरमपि दृष्टम् / तदपि बहिरा. नेतुमौचितीमञ्चति / पूजारूढं हि भवति / ततः पल्लीश्वरेण पृष्टा 20 स्वपरिषत्-भो जानीते कोऽपि अनयोर्बिम्बयोः संविधानकम् / केन खल्वेते नद्यन्तर्जलतले न्यस्ते ! / इत्याकण्यकेन पुराविदा स्थविरेण विज्ञप्तम् देव / एकस्मिन्नगरे पूर्व नृपतिरासीत् / स च परचक्रेण समुपेयुषा साधं योद्धं सकलचमूसमूह सन्नह्य गतः / तस्याप्र२५ महिषी च निजं सर्वस्वमेतच्च बिम्बद्वयं कनकरथस्थं विधाय घ-नंदम्'। 1 घ-'प्रान्तर्जल.' 3 क-घ-'हिरण्मय.| कपूर / ५खवदनः। 6 ख-घ-'तथैव। ७क-ख-घ-'नपेण'। (घ-समूलसमतेन गतः' Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमा प्रवन्धकोशेत्यपराये जलदुर्गमिति कृत्वा 'चर्मण्वत्यां' कौटिम्बिके प्रक्षिप्य स्थिता / चिरं युद्धवतस्तस्य कोऽपि खलः किल वार्तामानषीद् यदयं नृपतिस्तेन परचक्राधिपतिना व्यापादित इति / तच्छुत्वा देवी तत्कौटिम्बकमाक्रम्यान्तर्जलतलं प्राक्षिपत् / स्वयं च परासुतामासदत् / स च नृपतिः परचक्रं निर्जित्य यावन्निजनगरमागमत् 5 तावद् देव्याः प्राचीनवृत्तमाकर्ण्य भवाद् विरक्तः पारमेश्वरीं दीक्षां कक्षीचक्रे / तत्रैकं बिम्ब देवेन बहिरानीतं पूज्यमानं चास्ति / द्वितीयमपि चेन्निःसरति तदोपक्रम्यतामिति / तदाकर्ण्य वङ्कचूलः परमाहतचूडामणिस्तमेव धीवरं तदानयनाय प्रावीविशत् / स च तद् बिम्बं कटीदनयपुर्जलतले तिष्ठमानं बहिस्थशेषाङ्गमधोव- 10 लोक्य निष्कासनोपायाननेकानकार्षीत् / न च तन्निर्गतमिति दैवतप्रभावमाकलय्य समागल्य च विशामीशाय न्यवेदयत् तरस्वरूपम् | अद्यापि तत् किल तत्रैवास्ते / श्रूयते ह्यद्यापि केनापि धीवरस्थविरेण नौकास्तम्भे जाते तत्कारणं विचिन्वता तस्य "हिरण्यमयरथस्थयुगकीलिका लब्धा / तां कनकमयीं दृष्ट्वा 15 लुब्धेन तेन व्यचिन्ति यदिम रथं क्रमात् सर्व गृहीत्वा ऋद्धिमान् भविष्यामीति / ततश्च स रात्रौ निद्रां न लेभे / उक्तश्च केनापि अदृष्टपुरुषेण यदिमं तत्रैव विमुच्य सुखं स्थयाः, नो चेत् सद्य एव त्वां हनिष्यामीति / तेन भयार्तेन तत्रैव मुक्ता युगकीलिका इत्यादि / किं न सम्भाव्यते देवताधिष्ठितेषु पदार्थेषु ! / श्रूयते च 20 सम्प्रत्यपि काले-कश्चिन् म्लेच्छः पाषाणपाणिः श्रीपार्श्वनाथप्रतिमां भक्तुमुपस्थितः स्तम्भितबाहुर्जातः / महति पूजाविधौ कृते सज्जतामापन्न इति / श्रीवीरबिम्बं महत् तदपेक्षया लघीयस्तरं श्रीपार्श्वनाथबिम्बमिति महावीरस्यार्मकरूपोऽयं देव इति 'मेदाश्चेल्लण' 25 1 घ-'ततः श्रुत्वा' / 2 मृत्युत्वम् / 3 नृपाय / क-घ-'हिरण्मय.' / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 चतुर्विशतिप्रबन्धे [16 श्रीवह मूछइत्याख्यां प्राचीकथन् / श्रीमच्चेल्लणदेवस्य महीयस्तममाहात्म्यनिधेः पुरस्ताभ्यां महर्षिभ्यां सुवर्णमुकुटाम्नायः साधितः / प्रकाशितश्च भव्येभ्यः / सा च 'सिंहगुहा'पल्ली कालक्रमाद् 'ढिम्पुरी'त्याख्य या प्रसिद्धा नगरी सञ्जाता / अद्यापि स भगवान् श्रीमहावीरः 5 स च चेल्लणपार्श्वनाथः सकलसङ्घन तस्यामेव पुर्या यात्रोत्सवैराराध्यते इति / अन्यदा वङ्कचूल 'उज्जयिन्यां खातपातनाय चौर्यवृत्त्या कस्यापि श्रेष्ठिनः सपनि गतः कोलाहलं श्रुत्वा चलितः / ततो देवदत्ताया गणिकाया गृहं प्राविशत् / दृष्ट्वा सा कुष्ठिना सह प्रसुप्ता / 10 ततो निःसृत्य गतः श्रेष्ठिनो वेश्म / तत्रैकविंशोपको लेख्यके त्रुटयतीति परुषवाग्भिनिर्भर्त्य निःसारितो गेहात् पुत्रः श्रेष्ठिना / विरराम च यामिनी / यावद् राजकुलं यामीत्यचिन्तयत् तावदुज्जगाम धामनिधिः / पल्लीपतिश्च निःसृत्य नगराद् गोधां गृहीत्वा तरुतले दिनं नीत्वा पुना रात्रावागाद् राजभाण्डागाराद् बहिः / गोधापुच्छे विलग्य 15 प्राविशत् कोशम् / दृष्टो राजानमहिष्या रुष्टया। पृष्टश्च–कस्त्वमिति ? | तेनोचे-चौर इति / तयोक्तम् --- मा भैषीः / मया सह सङ्गमं कुरु / सोऽवादीत्- का त्वम् ? | साऽप्यूचे- अग्रमहिष्यहमिति / चौरोऽवादीत्-- यद्येवं तर्हि ममाम्बा भवति, अतो यामि / इति निश्चिते तया स्वाङ्गं नखैर्विदार्य पूत्कृतिपूर्वमाहूता आरक्षकाः / 20 गृहीतस्तैः / राज्ञा चानुनयार्थमागतेन तद् दृष्टम् / राज्ञोक्ताः स्वपू रुषा:--- मैनं गाढं कुर्वीध्वमिति / तै रक्षितः / प्रातः पृष्टः क्षितिभृता / तेनाप्युक्तम्- देव ! चौर्यायाहं प्रविष्टः, पश्चाद् देवभाण्डागारे देव्या दृष्टोऽस्मि / यावदन्यन्न कथयति तावत् तुष्टो विदितवेद्यो नरेन्द्रः स्वीकृतः पुत्रतया स्थापितश्च सामन्तपदे / 25 देवी विडम्ब्यमाना रक्षिता वकचूलेन | अहो नियमानां शुभं फलमिति अनवरतमयमध्यासीत् / 1 सूर्यः। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमा प्रवन्धकोशेत्यपराहये प्रेषितश्चान्यदा राज्ञा कामरूपभूपसाधनार्थ गतः / युद्धे घातैर्जर्जरितो विजिल्य तमागमत् स्वस्थानम् / व्याहृताश्च राक्षा वैद्याः / यावद् रोगोऽपि घातव्रणो विकसति तैरुक्तम्-देव ! काकमांसेन शोभनो भवत्ययम् / तस्य च जिनदासश्रावकेण साधू प्रागेव मैत्र्यमासीत् / ततस्तदानयनाय प्रेषितः पुरुषः पुरुषाधिपतिना येन तद्वाक्यात् काकमांस भक्षयतीति / तदाऽऽस्तश्च जिनदासो ऽवन्ती'मागच्छनुभे दिव्ये सुदत्यौ रुदत्यौ अद्राक्षीत् / तेन पृष्टे-किं रुदिथः ? / ताभ्यामुक्तम्-अस्माकं भी 'सौधर्मा च्च्युतः / अतो राजपुत्रं वङ्कचूलं प्रार्थयावहे, परं त्वयि गते स मांस भक्षयिता; ततो गन्ता दुर्गतिम् , तेन रुदिवः / तेनोक्तम्-तथा 10 करिष्ये यया तर भक्षयिता / गतश्च तत्र राज्ञोपरोधाद् वङ्कचूलमवोचत्- गृहाण बलिभुपिशितम् / पटूभूतः सन् प्रायश्चित्तं चरेः। बङ्कचूलोऽवोचत्--- जानासि स्वं यदाचर्याप्यकार्य प्रायश्चित्तं ग्राह्यम् / ततः प्रागेव तदनाचरणं श्रेय इति 'प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' इति वाक्यानिषिद्धो नृपतिः। विशेषप्रतिपन्नव्रतनि- 15 वहश्चा'ऽच्युत'कल्पमगमत् / वलमानेन जिनदासेन ते देव्यौ तथैव रुदत्या दृष्ट्वा प्रोक्तम्- किमिति रुदियः ? न तावत् स मांस माहितः / ताभ्यां अभिदधे- स ाधिकाराधनावशा'दच्युतं' प्राप्तः / ततो नाभवदस्मद्भतेति / एवं जिनधर्मप्रभावं सुचिरं विभाव्य जिनदासः स्वावासमाससादेति / अस्य 'ढिम्पुरी'तीर्थस्य 20 निर्मापयिता वचूलः / // इति वकचूलप्रबन्धः // 16 // . 1 घ-'रौद्रोऽपि' / 2 काकस्य मांसम् / Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुविशतिप्रबन्थे [17 श्रीविक्रमादित्य [17] // अथ विक्रमादित्यप्रबन्धः // विक्रमादित्यपुत्रं विक्रमसेनराजानं प्रति पुगेधसाऽऽशीर्दत्ता यत् वं पितुर्विक्रमादित्यादधिको भूयाः / तदा देवताधिष्ठिताभिः सिंहासनस्थाभिश्चतसृभिः काष्ठपुत्रिकाभिर्हसितम् / तदा विक्रमसेनेन पृष्टाः पुत्रिका:- किमिति हस्यते ? | ताः प्रोचुः---- तेन सह समत्वमपि न घटते, कुतो नामाधिक्यम् ? / आद्याह--- 'अवन्त्यां' विक्रमो राजा अपूर्वसत्यवार्ताकथकाय दीनारपञ्च शती दत्ते / एवं श्रुत्वा खप्परचौरेण दीनारपञ्चशती याचिता / 10 वार्ता चैका कथिता, यथा गन्धवत्'स्मशानसमीपे पातालविवरकूपे मया दीफे देवीहरसिद्धिप्रेषितः पतन् दृष्टः / मयाऽपि तत्पृष्ठे झम्पापितम् / पाताले तत्र दिव्यं सौधं दृष्टम् / तत्र तैलकटाहिका ज्वलन्ती दृष्टा / तत्पाघे एको नरो दृष्टः पृष्टश्च- किमर्थं त्वमिह ? / तेनोक्तम्१५ अत्र सौधे शापभ्रष्टा दिव्यकन्याऽस्ति / सा ब्रूते- यस्तैलकटाहि कायां झम्पां दाता स मे वर्षशतं पतिर्भविता | अतोऽहमेतत्पतिस्वार्थमत्र तिष्ठामि, परं साहसं नास्ति / इति वार्तया पश्चशती लब्धा / तेन खर्परेण समं राजाऽपि तत्र गतो विवरेण / तैलकटा हिकायां झम्पा दत्ता / कन्यया सोऽमृतेन जीवितः / यावत् सा 20 राजानं वृणुते तावद् राज्ञोक्तम्- अग्रेतनं नरं वरय / वृतः स तया / एवं यः परोपकारी तदधिकोऽयं कथं भावी ? // 1 // द्वितीययोक्तम् 1 ख-घ-'तदा चतसृभिर्वाराङ्गनामिर्हसितं देवताधिष्ठिताभिःसिंहासनत्वमपि न घटते' / 2 ख-घ-कपरकचौरेण' / ग-ध-गन्धवदश्मः ' / 4 घ-'पातालचरं (3) पे। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये 'कासी'तो द्वौ द्विजो आयातौ / विक्रमार्केण पृष्टौ राजस्व. रूपम् / ताभ्यामूचे- अस्मद्देशे पातालविवरमस्ति / तत्रान्धो राक्षसो वर्तते / अस्मद्देशस्वामी तिलकटाहे झम्पां दत्त्वा स्वमांसेन राक्षसस्य पारणं कारयति स्म / राक्षसोऽपि तं पुनर्नवीकरोति / सप्त अपवरिकाः स्वर्णसम्पूर्णाश्च कुरुते / प्रत्यहं प्रातः सप्ताप्यपवरिकास्त्या- 5 गेन रिक्तीकुरुते / श्रुत्वेदं विक्रमोऽपि तत्र गतः / कटाहे 'झम्पां दत्त्वा रक्षसा भक्षितो जीवितश्च / पुनर्भक्षितो जीवितश्च / रक्षसः शापेनाध्यमस्ति तच्छापान्तोऽभूत् / हरभ्यां पश्यति / दृष्ट्वा चाहकस्त्वं साहसी ? / तेनोक्तम्- विक्रमोऽहम् / तुष्टोऽहं ते; याचस्व / राज्ञोक्तम्-तुष्टश्चेत् तदाऽस्य राज्ञो नित्यं सप्ताप्यपव- 10 रिकाः स्वर्णपूर्णा भूयांसुः / तथाऽस्य पुनरेवं कटाहझम्पापातादियातना मा भूत् / रक्षसोक्तम्- एवमस्तु / अतः कथं विक्रमार्कादधिको भावी ? / समोऽपि न, अतो हसितम् // 2 // तृतीययोक्तम्___ एकदा विक्रमार्को निजपूर्वास्तव्यखल्वाटकुम्भकारयुक्तो 15 देशान्तरं गतः / परकायप्रवेशविद्यावेदी योगी "मिलितः / स आवर्जितः तुष्टश्च विद्या दातुमारेभे / राज्ञोक्तम्-- प्रथमं मम मित्रस्य ( देहि ) / तेनोक्तम्- न योग्योऽसौ / निर्बन्धात् तस्यापि दत्ता "गुणरञ्जितेन योगिना, नृपस्य पश्चाद् बलाद् दत्ता / 'अवन्ती' गतो राजा राज्यं करोति / एकदा पट्टाश्वो मृतः / विद्यापरीक्षार्थ 20 राज्ञा स्वजीवस्तत्र क्षिप्तः / कुम्भकारेण स्वजीवो नृपदेहे / कुम्भकारो राज्यं करोति / तेनाश्वमारणाय चिन्तितः / नपजीवस्तु पूर्वमृतशुकदेहे प्रविष्टः / शुकोऽपि सोमदत्तश्रेष्ठिभार्याप्रोषितभर्तृका 1 ग-घ--'राष्यस्व०' / 2 घ-'राक्षसोऽस्ति' / / क- 'तैलकटाई', ख-घ'तेन(?)कटाहे' 1 4 ग-'झम्पा दत्ता'। ५ग-'राक्षसस्य शापे०'। 6 तेनोकाम्' इत्यघिको ग-पाठः। 7 'तुष्टभेत् राझो' इत्यधिको ग--पाठः / 8 ग-'इसितम्। 9 विगत केश। 10 ख 'मीलितः'। 11 'गुण बलाद् दचा' इत्यधिको ग-या। पर्दिशति. 1 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुधितिप्रबध [17 श्रीविक्रमादिस्य कामसेनागृहं गतः / सा तच्चातुर्येण हृष्टा राज्ञीसमीपं न गच्छति / श्रेष्ठी समागतः / सा राज्ञीसमीपं गता / अनागमनकारणं पृष्टा / शुकचातुर्यकारणं प्रोक्तम् / तया आनायितः शुकः / सा रञ्जिता तेन, यथा राज्ञा पूर्वम् / एकदा 'शुकेन राज्ञीस्नेहपरीक्षार्थ गृहगोधिकादेहे गतम् / राश्या तद्वियोगेन काष्ठभक्षणं कर्तुमारब्धम् / नृपजीवेन शुको जीवापितः / सा राज्ञी व्यावृत्ता / शुकेन सर्वोऽपि वृत्तान्तो राश्य कथितः / राझ्या कुम्भकारस्यावर्जना कृता / तेन कुम्भकारजीवेन तुष्टेन विद्याप्रदर्शनाय मृतबोक्कटदेहे स्वर्जीवः क्षिप्तः / नृपो निजं 10 देहं गतः / अजो भयात् कम्पते / राज्ञा उक्तः—न भेतव्यम् , नाहं त्वत्समो भावी, सकृपोऽस्मि, त्वं सुखं जीव, चर, पिब | ततः कथं तेन समो भविष्यति ? // 3 // चतुर्योक्तम्--- एकदा विक्रमार्केणोत्तमं सौध कारितम् / राजा तत्र गतः विलोकनाय / तत्र चेटकयुग्ममुपविष्टमस्ति / चेटकेनोक्तम्- सुष्ठ सौधमस्ति / चेटिकयोक्तम्-यादृशं स्त्रीराज्ये लीलादेव्या बाह्यगृहमस्ति तादृशमेतत् / राज्ञा तच्छृतम् / तद्गमनौत्सुक्यं जातम् / परं स्थानं तु न वेत्ति / तेन सचिन्तो जातः / भट्टमात्रो नृपाशयं ज्ञात्वा तत्स्थानकज्ञानाय चचाल / तन्मार्गे 'लवण'समुद्रं ततो 'धूली'समुद्रमुत्तीर्य तत्र रात्रौ मदनायतने स्थितः / “निशीथे हयहेषारवसंसूचितं दिव्यालङ्कारभूषितं दिव्यस्त्रीवृन्दमागमत् / तत्स्वामिन्या कामः पूजितः / व्यावृत्तमानानां तासां अश्वपुच्छे लगित्वा 'घ-'चातुर्ये कारणं'। 2 घ-शुकेन भूत्वा राजा स्नेह०' / 3 घ-'गतं तद्वियोगेन' / - बोकडो' इति भाषायाम् / 5 घ-युग्ममस्ति' / 6 घ-सुक्यं, स्थामं तु न बेति, सचिन्तः भट० / 7 रात्रौं / “घ- दिव्यं स्त्री. '।९खसर्वमानाना' / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराये तत्र गतः / दासीभिदृष्टः स्वामिनीपार्श्वे नीतः / तया स्नानादि कारितः / रात्रौ तद्गृह एव स्थितः / त्वया स्वपल्या उक्तम्--- मम विक्रमादित्यो भर्ता भूयात् , किं वा यो मां चतुर्भिः शब्दैर्जागरयति / इत्युक्त्वा सुप्ता / तेन चिन्तितम्--किं चतुर्भिरपि शब्दैन जागर्ति तर्हि एनामहमेव जागरयिष्यामि / 'चत्वारः शब्दाः 5 कृताः / यदा न जागर्ति तदा पादाङ्गुष्ठश्चम्पितः / तया पादेनाहतः यत्र विक्रमादित्यः सुप्तोऽस्ति तत्र पतितः / राज्ञा पृष्टम् - किमिदम् ? / तेन सर्वोऽपि वृत्तान्तः प्रोक्तः / ततो राजाऽग्निसझं वेतालमारुह्य तत्र गतः / वेतालः प्रच्छन्नो जातः / राजा दासीभिस्तत्र नीतः / तया भक्तिः कृता। तद्रूपदर्शनात् सरागा जाता, 10 परं शयानया प्रतिज्ञा कृता / तथैवोक्तम् / राज्ञा दीपस्थितो वेताल उक्तः- भो प्रदीप ! कामपि कथां कथय / स वक्तुमारेभे कश्चिद् विप्रः / तस्य पुत्री / सा चतुर्णा वराणां दत्ता पृथक्पृथगामे / चत्वारोऽप्यागताः / विवादो जातः / तया महान्तमनर्थ दृष्ट्वा काष्ठभक्षणं कृतम् / 'स्नेहादेकेन वरेणापि चितामध्ये 15 झम्पापितम् / एकोऽस्थीनि गृहीत्वा "गङ्गा'यां गतः / एकस्तत्रोटजं कृत्वा स्थितो भस्मरक्षार्थम् / एको देशान्तरं गतः / भ्रमता च तेन सञ्जीवनी विद्या शिक्षिता / पुनरपि तत्रागतः। अपरेऽप्यागताः / सा जीवापिता / पुनर्विवादो जातः / तर्हि चतुर्णा मध्ये कस्य सा पत्नी ? / राज्ञोक्तम्----अहं न वैच्मि, त्वमेव ब्रूहि / स आह- 20 यश्चिताया सहोत्थितः स भ्राता / योऽस्थिनेता स पुत्रः / येन जीवापिता स पिता, उत्पत्तिहेतुत्वात् / यो भस्मरक्षकः स भर्ता, पालकत्वात् / 1 चत्वारः' इत्यधिको ग-पाठः / 2 ग-तत्र' / 3 'दत्ता' अस्यानन्तरं 'पृथक् पुपर ग्रामे' इति ग-पुस्तके आधिक्यम् / 1 क-घ-'एकेन सह काष्ठ०। 5 ग-. पुस्तके स्नेहादेकेनझम्पापितम्' एतदाधिक्यम् / 6 घ-गङ्गां गतः'। 7 घ-वैग्नि'। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 चतुर्विशतिप्रबन्धे [17 श्रीविक्रमादित्य. राज्ञा ताम्बूलस्थगिका द्वितीयकथां पृष्टा / वेतालाऽधिष्ठानात् साऽप्याह कुत्रापि मृतभर्तृका ब्राह्मणी अभूत् / तस्या जारेण सह सुता जाता / तो रात्रौ बहिस्त्यक्तुं गता / इतश्च तत्र कोऽपि 5 शूलाक्षिप्तो जीवन्नस्ति / तस्य पादे स्खलिता / तेनोक्तम् -कः पापी दुःखिनोऽपि दुःखमुत्पादयति ? / तयोक्तम्-- किं दुःखम् ? / सोऽप्याह-देहपीडादिकम् , विशेषतो निष्पुत्रत्वं कथितम् / पुनः शूलानरेणोक्तम्-त्वमपि कथय / का त्वम् ? / निजचरितं तयोक्तम् / 'तन्निशम्य तेनाप्युक्तम्-पुरा हुतं भूनिक्षिप्त अत्रस्थं द्रव्यं त्वं 10 मदीयमादाय सुतां मया सह विवाहय / ब्राह्मणी पाह--स्वमिदानी मरिष्यसि, सुता च लध्वी; कथं पुत्रोत्पत्तिः / तेनोक्तम्-ऋतुकाले कस्यापि द्रव्यं दत्त्वा पुत्रमुत्पादयः / तया तथैव सर्व कृतम् / पुत्रो जातमात्रो राजद्वारे क्षिप्तः / राज्ञः केनाप्यर्पितः / कालेन निष्पुत्रस्य नृपस्य राज्ये स एवोपविष्टः / श्राद्धदिवसे 'गङ्गा'यां 15 पिण्डदानं कर्तुं गतः / जलाद्धस्तत्रयं निर्गतम् / स राजा विस्मितः / कस्य करस्य पिण्डं ददामि ? / तर्हि भो राजन् ! वद कस्य देयः पिण्डः ? / राज्ञोक्तम्- चौरहस्तस्य // राज्ञा स्वर्णपालंकं जल्पितम् / तदपि कथामाह---- कस्मिन्नपि ग्रामे कश्चित् कुलपुत्रः स परिणीतोऽन्यनामे, परं 20 तत्पत्नी श्वशुरगृहे नागच्छति / स स्वजनैर्निर्गुण इति हस्यते / एकदा सर्वजनप्रेरितो मित्रयुतो तत्र गतः / मार्गे यक्षस्य शिरो नामितम् / तत्प्रभावात् सादरा जाता, आगन्तुं प्रवृत्ता / यक्षभवने समीपमागते स एकाकी यक्ष नन्तुमागच्छत् / यक्षेण स्त्रीलोभेन तस्य शिरश्छेदितम् / महत्यां वेलायां मित्रमागतम् / तदवस्थो , 'अभूत्' इत्यधिको ग-पाठः / 2 तन्निशम्य' इत्यधिको ग-पादः / 3 ग-कर्तुः गतः जला.' 1 4 ग-पालन। ५घ-'गृहं नागम्छति' / 6 ख-घ-'यक्षे समीपः। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराहये जातो धनिको दृष्टः / चिन्तितं च तेन- जनप्रवादो भविष्यति यथाऽनेन स्त्रीहेतोहतः; तर्हि ममापि मर्तु युक्तम् / इति विचिन्त्य तेनापि स्वशिरः छिन्नम् / महति वेलायां सा प्यागता / द्वावपि तदवस्था प्रेक्ष्य चिन्तितं तया- जनोऽग्रेऽपि द्वेषिणी कथयन्नस्ति, सम्प्रति पतिघ्नीमिति कथयिष्यति; तर्हि म्रियेऽहम् / इति ध्यात्वा 5 गले शस्त्रिका लगापिता / तावता यक्षेण करे धृता / मा साहसं कुरु / तयोक्तम्- द्वावपि जीवापय | यक्षेणोक्तम्- शिरसी निजनिजकबन्धे योजय / तयोत्सुकयाऽन्यान्यकबन्धयोन्य॑स्ते / तयोर्भार्याविवादो जातः / एको वदति-मदीया; द्वितीयोऽपि तथा / तर्हि कस्य सा? / राज्ञोक्तम् - यस्य कबन्धे शिरः स भर्ता, 'सर्वस्य 10 गात्रस्य शिरः प्रधानम्' इति वचनात् || कर्पूरसमुद्गकोऽपि कथामाह कुतोऽपि ग्रामात् स्वस्वकलाविदश्चत्वारः सुहृदो देशान्तरं चेलुः, एकः काष्ठसूत्रधारः, द्वितीयः स्वर्णकारः, तृतीयः शालापतिः, तुर्यो विप्रः / कापि वने रात्रावुषिताः / प्रथमयामे सूत्रधारः 15 प्राहरके स्थितः / तेन काष्ठपुत्रिका तरुणीसदृशी कृता समग्राऽपि / द्वितीयप्रहरे स्वर्णकारो यामिकः / तेनाभरणैर्विभूषिता / तृतीये शालापतिः / तेन क्षौमाणि परिचापिता / चतुर्थे विप्रेण सजीवा कृता / प्रातः सजीवां दृष्ट्वा सर्वेऽपि तजिघृक्षया मिथो विवदन्त / तर्हि कस्य सा भो विक्रमादित्यनरेन्द्र ! / सा नाम श्रुत्वा चुक्षोभ / 20 राज्ञोक्तम्- तंदयं न वच्मि तयोरकथयतोश्च तया जल्पितम्भो राजन् ! कस्य सा ? / राज्ञोक्तम्- स्वर्णकारस्य / अधुनाऽपि यः स्वर्ण चटापयति स एव भर्ता भवति // 4 // सा पप्रच्छ-- के यूयम् ! / दीपस्थेन वेतालेनोक्तम्-असौ स विक्रमादित्यः / सा हृष्टा व्यूढा च / तां गृहीत्वाऽवन्ती'मा- 25 1 इति विचिन्त्य ' एतदधिको ग पाठः / 2 क- स्व-घ-'तदहं न वेमि'। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [१७मीविक्रमादित्यगमत् / यदीदृग् तत्समकः, आधिक्ये तु का कथेति हसितम् / विक्रमसेनेन गर्वस्त्यक्तः // ततो विक्रमसेनः पुरोधसमप्राक्षीत्- यदि किल एताः काष्ठपुत्रिका मम पितरमद्भुतगुणं वर्णयन्ति तर्हि स एव लोके तत्प्रथमतयोत्तमत्वेनावर्णोि भवि यति / ततः प्राक् तु न कोऽपि ताहगुत्तमोऽभूदिति ब्रूमः / पुरोधाः प्राह- राजन् ! अनादिरियं रत्नगर्भा / अनादिश्चतुर्युगी / युगे युगे नररत्नानि जायन्ते / अहमेव प्रधानमिति गर्वो न हितकारी, न च निर्वहते। यतस्त्वपितुर्विक्र मादित्यस्य मनस्यकदा एवमभूद् यथा रामेण व्यवहृत्य लोकः 10 सुखीकृतः तथाऽहमपि करिष्ये / ततो रामायणं व्याख्यापितम् / तंत्र यथा रामस्य दानं आगारस्थापनं वर्णाश्रमव्यवस्था गुरुभक्तिस्तथा सर्वमारब्धम् / ततोऽभिनवो राम' इत्यात्मानं पाठयति / तद् दृष्ट्वा मन्त्रिभिश्चिन्त्यो स्म- अनुचितकारी अस्मत्प्रभुर्यो गर्वादात्मानं तद्वन्मन्यते / अयं गर्वोऽस्योपायेनोत्तारयितव्यः प्रस्तावे / ___ इतश्च त्वपित्रा विक्रमादित्येन पृष्टम् - लोके स कोऽपि क्वाप्यास्ते योऽनुतपूर्व रामस्याचरणं ज्ञापयति नः ? / तत एकेन ज्यायसा मन्त्रिणाऽपरमन्त्रिप्रेरितेन कथितम्- राजेन्द्र ! 'कोशला'यां विप्र एको वृद्धोऽस्ति / स काश्चित् श्रीरामस्य वार्ताः पार म्पर्यायाताः सम्यग् "विवेद / आहूय पृच्छयते / राज्ञा आहूतः सः / 20 सगौरवमायातः पूजितः पृष्टः-विप्र! वद काञ्चिद् रामकथा नव्याम् / विप्रो बाण --- पृथ्वीनाथ ! यदि 'कोशला'यामागच्छसि तदा रामस्य कमपि प्रबन्धं साक्षाद् दर्शयामि / इह स्थितस्तु वक्तुं न पारयामि / तदा राज्ञा राज्यभारो मन्त्रिषु यस्तः / स्वयं महाचमू सहितो वृद्धद्विजयुक् 'अयोध्यो पशल्यां ययौ / स्कन्धावारे तस्थौ / 25 तदानीं स एव सर्वदिगीश इत्यभी: विप्रो भाषितो क्षमापालेन-- _1 क ख-घ प्रतिषु 'त्यक्तः' अस्यानन्तरं 'इति श्रीविक्रमप्रबन्धः' एतदाधिक्यम् / 2 घ-'यथा तर'। 3 ख--'तथाऽभिनयो'। 4 ख-घ-'वेद'। ५ग-पृष्टब-युद्ध ! बद। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः] प्रबन्धकोशेस्यपराये दर्शय रामदेवचरित्रम् / ततो विप्रः स्थानमेकं दर्शयित्वा भूपालमालपत्- इदं भूखण्डं खानयत / ततः खानयति क्षमापालः / खनयत्सु खनकेषु प्रथमं हेमकलशः / ततो हैमी मण्डपिका प्रकटीबभूव / उपरितनं रजोऽपसारितम् / पश्चानुपूर्व्या प्रथमद्वितीयतृतीयक्षणा हैमा दृष्टा महीभुजा। चतुर्थे क्षणे नीरजे कृते 'विपुला 5 उपानदेका हैमसूत्रकृता ज्योति लजटामाणिक्यखचिता दृष्टा / भपेन विस्मितेन च गृहीत्वा हृदि शिरसि निहिता / अहो मान्या रत्नजातिरियम् ! / ततो विप्रेण विज्ञप्तम्- देव! चर्मकारपल्या उपानदेषा न स्पष्टमर्हति तव विष्टपपतेः / विक्रमेणोक्तम्- सा चर्मकार्यपि धन्या यस्या ईगुपानत् / वद केयं कथा ? / ततो 10 विप्रो ब्रूते- विश्वेश्वर ! श्रीरामे राज्यं कुर्वति सति अत्र चर्मकारसदनादि आसन् / इदमेकस्य चर्मकारस्य सदनम् / तस्य पत्नी लाडबहुला / अतो गर्वमुद्वहति / विनयं न करोति / तेतः सा तेन हक्किता हता च / याहि रे दुःखं गृहीत्वा इत्युक्ता च / ततो रुष्टाऽस्यामेकस्यां उपानहि तटपतितायां अपरिहितायां द्वितीयस्यां 15 तु परिहितायां निजतातस्य सदनं जगाम | गस्वा पत्युः कठोरभाषितं पित्रे बमाण / पित्रा द्विनद्वयं स्थापिता आवर्जिता च / अथोक्ता- वत्से कुलस्त्रियाः पतिरेव शरणम् / तत्रैव याहि / सोचे- न यामि, मानक्षयात् / द्विस्त्रिरुक्तिप्रत्युक्तयो भणिताः / पितृभ्यां भाणिताऽपि यदा पतिगृहं न याति तदा पित्रा भाषितम्- 20 वत्से ! अहमेवं मन्ये-- यदा श्रीरामः सीता-लक्ष्मणसहितः स्वयमत्रागल्यानुनीय स्वां श्वशुरकुले प्रहिता तदा तत्र गन्त्री त्वम् / सायलीकाभिमानिनी प्रवदति- इदमित्थमेव; राम एवागते यामि तत्र, नापरथा / इमं वृत्तान्तं चरत्वनियुक्ताः प्रच्छन्नाः सुरा गत्वा रामं व्यजिज्ञपन्- देव! अयं वृत्तान्तश्चर्मकारपुत्र्याः / ततो देवः 25 घ-'यथः'। 'बहु लाडकी घ-'उपरि हेम.'। 2 ख-घ-विपुले उपा / इति भाषायाम् / ५ग-अत: कारणे सा'।. . Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिधाचे [17 भौविक्रमादित्य श्रीरामः प्रजावत्सलः प्रातः ससीत: सलक्ष्मणः सामात्यस्तञ्चमकारभवनमगात् / तन्मध्यं प्रविष्टः / पूजितः 'कारुभिर्विस्मितैः / विज्ञप्तश्च- देव! अयभस्मान् कीटान् प्रति कियान् प्रसादः कृतः ? | स्वप्नेऽपि नेदं सम्भाव्यते यद् देवोऽस्मानुपतिष्ठते / कि कारणमागमनस्य ? / श्रीरामः प्राह- त्वत्पुत्र्याः श्वशुरकुले प्रेषणायायाताः स्मः / तस्या हि वराक्यास्तथाविधा सन्धाऽऽस्ते / ततो हृष्टस्तजनकः अपवरक गत्या दुहितरमाह स्म- मुग्धिके / तव प्रतिज्ञा पूर्णा / श्रीरामदेवोऽप्यायातः सदेवीकः / एहि, वन्द स्व तं जगत्पतिम् / ततस्तुष्टा रामान्तिकमागता / ववन्दे तम् / 10 आलापिता प्रजातातेन- वत्से ! गच्छ श्वशुरमन्दिरम् / तया भाण तम्- आदेशः प्रमाणम् / ततो गता पतिगृहम् / रामः स्वस्थानमायासीत् / श्रीविक्रम! अस्या द्वितीया उपानत् तत्र पितृगृहे खन्यमाने लप्स्यते / स्वामिन् ! आयाहि तत् खान्यते / गतो राजा तत्र / खानितं तत् / लब्धा द्वितीयाऽप्युपानत् / दृष्टं हैमं गृहम् | 15 एवमन्यान्यपि तेन विप्रेण खायितानि लातं तद्धेम / राज्ञा विप्रः पृष्टः- विप्र! कथमीदृशं सम्यग् जानासि / विप्रेण गदितम्-- पूर्वजपारम्पर्योपदेशाज्ञातं तुभ्यमुक्तं च / परं गर्व मा धाः / स रामः स एव / तस्य ह्याज्ञया जलज्वलनौ स्तम्भेते स्म / पतन्त्यो भित्तयो दत्तायां तदाज्ञायां न पेतुः / छूना द्विचत्वारिंशत् अन्ध२० गडाः सप्तविशंतिः स्फोटिका अष्टोत्तरशतं विड्वराणि दोषाश्च सर्वे व्यनेशन् / या तु तदेवी सीता ये त्रयस्तद्भातरो ये तभृत्या हनूमत्-सुग्रीवादयस्तेषां महिमानं वर्षशतेनापि वाक्पतिरपि वक्तुं न शक्तः / इति श्रुत्वा विक्रमेण गर्यो मुक्तः / बिरुदं निषिद्धम् 'अभिनवराम' इति / पुनरुज्जयिनी'मागात् / यथाशक्ति लोक२५ मुदधरत् / तस्य हि अग्निवेताल-पुरुषकसिद्धिभ्यां सुवर्णसिद्धया ..'चर्मकार' / 2 घ-बानविषत' / 3 क-स्साशया'। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये चोपकारैश्वर्य तदा निरुपममासीत् ततो विक्रमो धन्य एव / ततोऽधिकास्तु परःकोटयोऽभवन् / इत्याकर्ण्य विक्रमसेनो विवेकी अभूत् // // इति विक्रमादित्यप्रबन्धः // 17 // अथ विक्रमचरित्रम् / जैनतत्त्वबाह्य मुग्धजनचित्रमात्रफलं विक्रमादित्यप्रबन्धमेकं ब्रूमः / 'उज्जयिन्यां' राज्य शासति विक्रमादित्ये 'आसन्ने ग्रामे विप्रेणैकेन हलं खेडयता दिव्यं ज्योतिष्मद्रनमेकं भूमौ पतितं जगृहे / तन्मूल्यप्रश्नार्थ 'उज्जयिन्यां' रत्नपरीक्षिनेगमपार्श्वमागमत् / दर्शित तद् रत्नम् / विस्मिता ते ऊचुः—न वयमस्य रत्नस्य 1. मूल्यकरण क्षमाः, ईदृशस्य पूर्वमदृष्टत्वात् अलीकमूल्यकरणे तीव्रदोषाञ्च, केवलं देवः श्रीविक्रमादित्यो यदि वेत्ति मूल्यमस्य, स हि रेखाप्राप्तो रत्नमूल्यज्ञाने / विग्र उपविक्रमं जगाम / रत्नमदीदृशत् / विक्रमेण पृष्टम्-के लन्धमिदम् ? / विप्रेणोक्तम्- देव ! इलं खेटयता स्वक्षेत्रभूमौ लब्धम् / राज्ञा भणितम्-तहि दिन- 15 द्वयेन वक्ष्यामः / रत्नमस्मद्धस्त एवास्तु विन! मा भीः, न वयं परधनबद्धाभिलाषाः / धीरां दत्त्वा स्वसौधमध्य एव स्थापितः सः / __ अथ रात्रौ विक्रमेण विमृष्टा रत्नपरीक्षकाः संसारे। बलिमनु स च पाताले / तत्रापि गन्तव्यम् / कुतूहली बलसो न भवेत् / ततोऽ. ग्निवेतालमारुह्याशु पातालं गतः बलिभुवनद्वारेऽस्थात् / तत्र 20 नारायणो द्वास्थः प्रणतः / नारायणेन पृष्टम्-- किं कार्य तेऽत्रागमने? / विक्रमेणोक्तम्-उपबलि गतः विज्ञापय राजा कार्यगौरवादायातोऽस्ति / यद्यादेशः स्यात् तदा दर्शनं लभेत / गतः कृष्णः। उक्तं बलये-राजा समागतोऽस्ति द्वारे / बलिना निवेदितम्-- राजा चेद् युधिष्ठिरः ? / पृच्छेः कृष्ण ! / गतः कृष्णः पप्रच्छ- 25 1 इदं चरितं नास्ति ग-पुस्तके। 2 ख-'आसन्नग्रामे'। 3 'खेडता' इति भाषायाम्। चतुर्विशति. 22. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iyo चतुर्विंशतिप्रबन्धे [विक्रम किं युधिष्ठिरोऽसि ? / विक्रमेणोक्तम्- राजानं युधिष्ठिरं मन्यते स, तस्मादन्यद् वक्तव्यम् / गच्छ कृष्ण ! मण्डलीक आगतोsस्तीति वद / गतः सः / विज्ञप्तं तत् / बलिरूचे-- मण्डलीकः किं रावणः / पुनरागतः कृष्णः / मण्डलीकश्चेत् किं रावण इति पृष्टोऽसि / विक्रमेणाभाणि- तर्हि गत्वा वद कुमार आगतोऽस्ति / गत्वा तथोक्तम् / बलिराह-किं कार्तिकेयः ? किंवा लक्ष्मणः ? किंवा पातालवासी नागपुत्रो धवलचन्द्रः ? किं वालिपुत्रोऽङ्गादो रामदूत इति ख्यातः ? / पुनरेहिरेयाहिरा कृष्णस्य / विक्रमेण पुनरभाणि-वदेस्त्वं चण्ठ आयातोऽस्ति / पुन१० र्गतः / बलिर्भणति- वण्ठश्चेत् किं हनूमान् ? / पुनः कृष्णो वागरितः / भणितं बलिवचः / पुनर्विक्रमः प्रोचे-गत्वा वद तलारक्ष आगतोऽस्ति / उक्तं तेन तत् तथा तत् / बलिर्जगाद-किं विक्रमकः ? / कृष्णेनैत्य पृष्टम्- किं विक्रमादित्यः ? / ओमि त्युक्तम् / बल्यादेशादुपबलि नीतः / पृष्टो बलिना .. रे विक्रम! 15 रत्नमूल्यं प्रष्टुमागतोऽसि ? / विक्रमादित्यो वदति-इत्थमेव / दन्द शितं रत्नम् / बलिर्बभाण-ईदृशानि अष्टाशीतिं सहस्राणि रत्नानि नित्यं युधिष्ठिरो निर्मूल्यानि अदत्त पात्रेभ्यः / तेषां मध्यादिदं अरु(ग?)लत् / विप्रेण लब्धम् / प्रायो भूमिं गतानि सर्वाणि रत्नानि, कालस्य बहुलत्वात् / ततो राजा युधिष्ठिर एव, त्वं कः / विक्रमे२० णोक्तम्-देव ! सत्यमेतत् 'तुष्ट इच्छामि ईटक्सम्पत्तियुधिष्ठिरस्य कुतः ? / बलिराह-दिग्जयधनानि तस्मै भ्रातृभिश्चतुर्भिराहतानि / पूर्व 'मरु(द)त्तनामा कार्पटिको दारिद्यमग्नो रुद्रमारराध / तेन तुष्टेन तस्मै स्ववाञ्छया 'कैलासा'सन्ना आमूलचूलं हेमरत्नमयी पूर्निष्पाद्य दत्ता / सा तेन भुक्ता / तस्मिन् मृते रुद्रेण पांशुवृष्टया 25 सा पिदधे / यदा युधिष्ठिरबान्धवः सहदेव उत्तरां दिशं साध १घ गच्छ वद'। 2 ख-'मेवेदं दर्शितं'। 3 घ-सन्तुष्टरसा (?)मि ईदृक् / ..घ-'चमकतनामा। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परित्रम् ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये यितुमुपतस्थे तदा रुद्रस्तां पुरं स्वैर्गुणैरुद्धाट्य सर्वां तद्धेमादिविभूतिं युधिष्ठिरगृहप्रविष्टाम करत् / ततो युधिष्ठिरस्य दानेच्छासिद्धिः / ततः स राजा / मण्डलीकस्तु रावण इति लोके तादृग्बलविद्यादयोगात् / कुमारस्तु कार्तिकेयो वक्तुं युक्तः सप्ताहवयाः सन् यस्तारकं जघान / लक्ष्मणोऽपि कुमारः यो 5 मेघनादं ममर्द / तथा धवलचन्द्रोऽपि पीहुलिपुत्रः कुमारो यो विषेण जगद् हत्तु (न्तुं ?) क्षमः / विषममपि विषमभृततां नेतुं समर्थः / अङ्गदोऽपि समर्थः / सन्धौ वा विग्रहे वाऽपि, मयि दूते दशाननी / अक्षिता वा क्षिता वाऽपि, क्षितिपीठे लुठिष्यति // 1 // 10 इत्यादि स्यातश्च वण्ठस्तु सत्यो हनूमान् यः स्वामिनं रामं प्रियावियोगज्वरजर्जराङ्ग सन्धीरयामास मध्येसभम् / देवाज्ञापय किं करोमि ? किमहं 'लङ्का मिहैवानये ? __ 'जम्बूद्वीपमितो नये ? किमथवा वारांनिधि शोषय ? / हेलोत्पाटित विन्ध्य पर्वतहिमस्वर्णत्रिकूटाचल क्षेपक्षोभविवर्धमानसलिलं बध्नामि वा वारिधिम् ? // 1 // इत्यादि चमत्कारिवामिकार्यसिद्धिसारतया वण्ठो हनूमानेव / तलारक्षस्तु भवसि / गच्छ मूल्यं नास्ति रत्नस्येति द्विजाय वदेः / तदाकर्ण्य विक्रमः स्वपुरीं ययौ / रत्नं दत्त्वा बल्युक्तमुक्त्वा स्वग्रामाय विप्रं विसृष्टवान् / चिरं राज्यं चक्रे / इति विक्रमार्कः // ग्रंथ 140 / / 1 इन्द्रजितम् / 2 अनुष्टप / 3 शार्दूल० / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रचन्चे 18 श्रीनागार्जुन [18] // अथ नागार्जुनप्रबन्धः॥ 'टुङ्क'पर्वते 'सुराष्ट्रा(ष्ट्र) भूषण शत्रुञ्जय'गिरिशिखरैकदेशरूपे राजपुत्ररणसिंहस्य भोपालनाम्नी पुत्री रूपलावण्यसम्पूर्णा पश्यतो जातानुरागस्य सेवमानस्य वासुकिनागस्य पुत्रो नागार्जुननामा जातः / स च जनकेन पुत्रस्नेहमोहितेन सर्वासां महौषधीनां फलानि मूलानि दलानि च भोजितः / तत्प्रभावन स महासिद्धिभिरलङ्कृतः। सिद्धपुरुष इति विख्यातः / पृथ्वीं विचरन् 'पृथ्वीस्थान'पत्तने सातवाहनस्य राज्ञः कलागुरुर्जातः / स च गगनगामिनीविद्या१० ध्ययनार्थ पालित्तानक'पुरे श्रीपादलिताचार्यान् सेवते / अन्यदा भोजनावसरे पागलेपबलेन तान् गगने उत्पतितान् पश्यति / 'अष्टापदा'दितीर्थानि नमस्कृत्य स्वस्थानमुपागतानां तेषां पादौ प्रक्षाल्य सप्तोत्तरशतमहौषधीनां आस्वादेन वर्णगन्धादिभिर्नामानि निश्चित्य गुरूपदेशं विनाऽपि पादलेपं कृत्वा कुर्कुटपोत इवोत्पतन्न१५ वटतटे निपतितः / व्रणजर्जरिताङ्गो गुरुभिः पृष्टः-किमेतदिति ? / तेन यथास्थिते प्रोक्ते तस्य कौशल्येन चमत्कृतचित्ता आचार्यास्तस्य शिरसि पद्महस्तं दस्था भणन्ति-- षष्टिकतन्दुलोदकेन तान्योषधानि वर्तयित्वा पादलेपं कृत्वा गगने गरुड इव स्वैरं ब्रेज / ततस्तां सिद्धि प्राप्य परितुष्टोऽसौ ननत / पुनरपि कदाचिद् गुरुमुखादा२० कर्णयति यथा रससिद्धि विना दानेच्छासिद्धिर्न भवति / ततो रसं परिकर्मयितुं प्रवृत्तः स्वेदन-मर्दन-आरण-मारणानि चक्रे / रसस्तु स्थैर्य न बध्नाति / ततस्तु गुरून् पप्रच्छ--कथं रसं(सः) स्थैर्यमाबध्नाति ? / गुरवः प्राहुः, यथा दुष्टदैवतनिर्दलनसमर्थायां श्रीपार्श्व 1 ख-दुः ' / 2 घ-गामिविद्या०' / 3 क-'भणितम्' / / ख-'पादप्रलेपं'। 5 क- 'बजेः' / 6 स-प्रतिष्टोऽसो' / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173 प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपरालये नाथस्य दृशि साध्यमानः सर्वलक्षणोपलक्षितया महासत्या योषिता च मृद्यमानो रसः स्थिरीभूय कोटिवेधी भवति / तच्छत्वा स पार्श्वनाथप्रतिमां समहिमामन्येषयितुमारेभे / परं तादृशीं न कापि पश्यति / इतश्च नागार्जुनेन स्वपिता वासुकिात्वा प्रत्यक्षीकृतः, 5 पृष्टश्च- श्रीपार्श्वनाथस्य दिव्यकलानुभावां प्रतिमां कथय / तेनावोचि- 'द्वारवत्यां' समुद्रविजयदशाण श्रीनेमिनाथमुखान्महातिशयसम्पन्ना ज्ञात्वा श्रीपार्श्वस्य प्रतिमा प्रासादे स्थापयित्वा पूजिता / 'द्वारवत्या' दाहान्तरं समुद्रेण प्लाविता सा प्रतिमा तथैव समुद्रमध्ये स्थिता। कालेन 'कान्ती'वासिनो धनपतिनामकस्य 10 सांयात्रिकस्य यानपात्रं देवताऽतिशयात् स्खलितम् / अत्र जिनबिम्बं तिष्ठतीत्यदृष्टवाचा निश्चित्य नाविकांस्तत्र निक्षिप्य सप्तभिरामसूत्रतन्तुभिर्बयोद्धृता प्रतिमा निजनगर्यां नीत्वा प्रासादे स्थापिता | चिन्तितातिरिक्तलाभप्रहृष्टेन पूज्यते स्म प्रतिदिनम् / ततः सर्वातिशायि तद् बिम्बं ज्ञात्वा नागार्जुनो रससिद्धिनिमित्तम- 15 पहृत्य 'सेडी'नद्यास्तटेऽतिष्ठिपत् / तस्य पुरतो रससाधनार्थं सातवाहनस्य राज्ञश्चन्द्रलेखाभिवां महामती देवीं 'सिद्धयन्तरसान्निध्येनानाय्य प्रतिनिशं रसमर्दनं कारयति / एवं तत्र भूयो भूयो गलागतेन तया वान्यव इति प्रतिपेदेऽसौ / सा तेषामौषधानां मर्दन कारणं पृच्छति / स च कोटीवेवस्य रसस्य वृत्तान्तं सत्यं 20 कथयति / अन्यदा द्वयोनिजपुत्रयोस्तया निवेदितम् , यथा- 'सेडी'नदीतटे नागार्जुनस्य रससिद्धिर्भविष्यति / तौ रसलुब्धौ निजराज्यं मुक्त्वा नागार्जुनान्तिकमागतौ / कैतवेन तं रसं जिघृक्षु प्रच्छन्नवेषौ यत्र नागार्जुनो जेमति तस्य गृहस्य परिसरे भ्रमतः / 1 परं पश्यति' इत्यधिको ग-पाठः / 2 घ-सव्यन्तर० / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे 8 श्रीनागाईगरैन्धनीमालपतः- त्वं नागार्जुनाय रसवती लबणबहुलां कुर्याः / यदा तां रसवती क्षारां कथयति तदाऽस्मभ्यं वदेः / साऽप्योमिति प्रतिशुश्राव / अथ सा तज्ज्ञानार्थ तदर्थ सलवणां रसवती साधयति / षण्मास्यामतिक्रान्तायां रसवती तेन क्षारेति दूषिता / रन्धन्या च राजपुत्रयोरने गदितम्- अघ क्षारत्वं जज्ञे नागार्जुनेन / ताभ्यामपि तस्य रससिद्धिनिश्चिक्ये / अथ तौ तस्य वधोपायं ध्यायतः पृच्छतश्च लोकं तज्ज्ञम् / पृच्छद्भ्यां ज्ञातम् , यथावासुकिना एवास्य दर्भाङ्कुरान्मृत्युः कथितोऽस्ति / नागार्जुनेन सिद्धस्य शुद्धस्य रसस्य कुतपौ द्वौ भृतौ 'ढङ्क पर्वतस्य गुहायां 10 क्षिप्तौ / पृष्ठचराभ्यां ताभ्यां ज्ञातौ / मुक्त्वा पलमानो नागार्जुनस्ताभ्यां सम्मुखस्थो दर्भाङ्कुरेण जन्ने / मृतः सद्यः / आलेख्ये चित्रपतिते, मृते च मधुसूदन! / क्षत्रिये त्रिषु विश्वास-श्चतुर्थो नोपलभ्यते // 1 // तौ कुतपो देवतया सगृहीतौ / राजपुत्रौ नरकपैङ्कगोचरतां 15 गतौ / देवतया क्रुद्धया हतौ / न रसलाभो, न च धर्मस्तयोः / तावपि राजपुत्रौ मरणकाले पश्चात्तापेन देग्धौ --- हा हा येन खटिकासिद्धिवशाद् दशाहमण्डपादिकीर्तनानि रैवतो' पत्यकायां कृतानि येन रसो लोकोपकाराय साधितः तस्य प्राणदोहेणावाभ्यां किं साधितम् ? / एकं तावत् कलापात्रद्रोहः, अपरं च मातुलद्रोहः / एवं दुःखार्ती मृतौ / रसस्तम्भनात् 'स्तम्भनं' नाम तीर्थ तत् पार्श्वदेवस्य / कालान्तरे तद् बिम्बं ततः स्थानात् 'स्तम्भन पुरे पूज्यतेऽधुना // // इति नागार्जुनप्रबन्धः // 18 // 1 'राधनारी' इति भाषायाम् / 2 घ- तदा वदेः / 3 अनुष्टुप / 'पहजगोचर.' / 5 ख-घ-'जग्धौ' / 6 समाप्तः' इलाधिका ख-च-पाठः / घ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये [19] // अथ वत्सराजोदयनप्रबन्धः॥ पूर्वस्यां 'वत्सो' जनपदः / तत्र 'कौशाम्बी' यः / श्रीऋषभघश्यशान्तनु-विचित्रवीर्य-पाण्डु-अर्जुना-भिमन्यु-परीक्षितजनमेजयकुले सहस्रानीको राजा / तत्पुत्रः शतानीकः। 5 तस्य पत्नी महासती चेटकराजनन्द(न्दि)नी मृगाक्षी मृगावती नाम / तयोर्नन्दन उदयनः यः किल 'नादसमुद्रो' विख्यातः, यो गीतशक्त्या 'उज्जायन्यां' 'अनलगिरी'भं 'विन्ध्या' ऽभिमुखं गच्छन्तं पुनरालाने निवेश्य चण्डप्रद्योतराज्यमद्योतयत् / स सुखेन राज्य शास्ति यौवनस्थो भोगी कलासक्तो धीरः ललितो नायकः / 10 इतश्च पाताले 'क्रौञ्चहरणं' नाम पत्तनम् / तत्र वासुकिः सर्पराजः श्वेतो नीलसरोजलाञ्छितफणः / तस्य नामलदेवी नाम दयिता। विपुलो देशः। तक्षको नाम तस्य प्रतीहारो विषमादेवीप्रियः यस्य फणामण्डपे त्रयोदशभारकोटयो विषस्य वसन्तीति श्रुतिः / वासुकेः पुत्री दिव्यरूपा कनी वसुदत्तिनामा / तस्याः 15 सख्यश्चतुर्दश, तद्यथा- धारू(:) 1 वारू(:) 2 चम्पकसेना 3 वसन्तवल्ली 4 मोहमाया 5 मदनमूछी 6 रम्भा 7 विमलानना 8 तारा 9 सारा 10 चन्दनवल्ली 11 लक्ष्मी(:) 12 लीलावती 13 कलामती 14 / सा ताभिः सह वीणा-मृदङ्ग-वंश-सूक्तादिभिः क्रीडति / एकदा तासां मध्यादेकयोक्तम्--- स्वामिनि ! वसुदत्तिके ! अहं सपरिच्छदा सध्रीची नरलोके 'कौशाम्ब्यो' दिव्यरूपं महोद्यानं क्रीडितुमगाम्। दृष्टा तत्र बकुल-विचकिल-दमनक-चम्पक-विरह पुषी / 3 स-'कल्पवती' / 3 सखी / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 चतुर्विशतिप्रबन्धे [19 श्रीवासराजोदयन कादिद्रुमाणां सारणीनां द्रुमालवालानां वाटीकोट्ट(वाटिकोट ?)स्य श्रीः। यदि स्वामिनी तत्केलिं काम्यति तदा तत्र पादमवधारयतु / इदं श्रुत्वा सा वसुदत्तिका ताभिः सर्वाभिः 14 सहेच्छासिद्धया सहसा तद् वनं प्राप्ता / तत्र केलिं कुर्वन्ति ताः। कुसुमानि चिन्वन्ति / तैः करण्डान् पूरयन्ति / धमिल्लानुत्तङ्गयन्ति / हारान् सारान् रचयन्ति / एवं खेलन्तीनां तासां वने कोकिलफुलकलरवकल: कोलाहल उच्छलितः / तदाऽऽकर्णनादुद्यानपालक एत्य ता अद्राक्षीत् / अहो रूपमही स्वरोऽहो प्रभेति विसिष्मिये / भक्त्या श्रीउदयनं ताः समा लोकितुमाहातुमगमत् / उदयनोऽपि कुतूहलादल्पपरिच्छदो वन१० मगात् / वसुदत्तिं ससखीकामालोकिष्ट / अध्यासीच्च---- मनो जन्मनः महाव्याधेः परमरसायनमेतत् / अस्याः रूपसम्पत् जिह्वाभिः कोटिभिः ताभिर्वर्णयितुमशक्या / . अस्याः संविधौ प्रजापतिरभूच्चन्द्रो नु कान्तिप्रदः शृङ्गारैकरसः स्वयं नु मदनो मासो नु पुष्पाकरः / 15 वेदाभ्यासजडः कथं तु विषयव्यावृत्तकौतूहलो निर्मातुं प्रभवन्मनोहरमिदं रूपं पुराणो मुनिः / // 1 // यत् पश्यन्ति झगिल्यपाङ्गसरणिद्रोणीजुषा चक्षुषा गच्छन्ति क्रमलीलितोभयभुजं यन्नाम वामभुवः / भाषन्ते च यदुक्तिभिः सचकितं वैदग्भ्यमुद्रात्मभि स्तद् देवस्य रसायनं रसनिधेर्मन्ये मनोजन्मनः // 2 // तं दृष्ट्वा सा पलायिष्ट / नृपोऽप्यन्वगाद् द्रुतं द्रुतम् / क्षणार्धेन सर्वाः सख्योऽदृझ्याः समपत्सत / साऽपि पातालविवरप्राये गर्त एकस्मिन् प्रविष्टा / राज्ञाऽपि ज्ञातम्- कामरूपिणी गमिष्यत्येव 1 घ-'सिद्धा' / 2 घ-'जग्मुषी' / 3 ग-पुस्त के 'मनोजन्मन: अशक्या' एतदाधिक्यम्'। 4 विक्रमोर्वशीये (1-8) / 5 सर्जनकार्ये / 6 नमा / 7 चाल. / “ग-कोलितो.'। शाल.। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये 177 इति तावत् करे धृत्वा तस्या वेणीदण्डो 'यमुना'जलप्रवाहप्रायः कृपाणिकयाच्छिन्नः। गता सा मृगशावलोचना। वेणी करेऽस्थात् / तां वेणी पश्यंस्तां चमत्कृतचकोरचलाचलाक्षी स मुहुरस्मार्षीत् / नेत्रेन्दीवरिणी मुखाम्बुरुहिमी भ्रूवल्लिकल्लोलिनी बाहुद्वन्द्वमृणालिनी यदि पुनर्वापी भवेत् सा प्रिया / तल्लावण्यजलावगाहनजडैरङ्गैरनङ्गानल ज्वालाज्वालमुचस्त्यजेयमसमाः प्राणच्छिदो वेदनाः // 1 // ततो हतप्रारम्भ उद्वाप्पः सखेदः पू:परिसरमेल्यामात्यानाहूयावादीत्- मया एवं एवं बालिकायाः कस्याश्चिद् वेणी 'छिन्ना / 10 सा तु श्वभ्रमूलमगात् / अतो मम राज्येन न कार्यम् / इभामेव वेणी राज्यं कारयत / तेऽपि तथेति प्रतिपय पूर्बहिर्भण्डपे सोत्सव वेणी राज्यं कारयन्ति रामपादुकावत् / इतश्च सा वसुदत्तिका खिन्ना गत्वा स्वसौधेऽस्वाप्सीत् / तस्याः सख्यस्तत्कबरी छिन्नामीक्षिवा नामलदेवीमाकार्याऽदीह- 15 शत् / जागरितां पुत्री नामलदेवी वत्से ! कि.मेतत् ? तवापि परिभवपदमित्यप्राक्षीत् / तनयाऽपि यथास्थितं मात्रे आख्यत् , साऽपि नागपतये स्वपतये / क्रुद्धः सद्योऽसौ तक्षकमाकार्य कथामुक्त्वाऽऽ. दिक्षत्, यथा- गच्छ, सराष्ट्र उदयनं भस्मीकुरु / सोऽपि तदादेशादचालीत् / 'कौशाम्बी' प्रापत् / तत्परिसरे उत्सवान् दृष्ट्य 2. नररूपः कश्चित् पप्रच्छ-- किमेतदुत्सवसाम्राज्यम् ? / तत्रत्येन जनेनोक्तम्- एवं एवं राज्ञा दिव्यकन्यावेणी छिन्ना / उत्पन्नानुतापेन राज्यं तदायत्तं कृतम् / अतो वेणी राज्ञीह / राज्ञाऽत्रैव एकदेशे तपस्तप्यते / तक्षकेणोत्सवो दृष्टः / मध्ये भ्रमता राजाऽप्या , घ--वापे' / 2 शार्दूल / 3 ग-'प्रारम्भोद्वाष्पः' / ख-घ-'छिनाः' 5 क-घ-- 'किञ्चित्' / पतर्विशति. 23 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [19 श्रीवत्सराजोदयनलोकितः / कुशस्रस्तरगः पनासनी जपमालापाणिः तपःक्षामः जितप्राणायामः मौनी / पृष्टश्च तक्षकेण नरूपेण- कस्त्वम् ? किमर्थ तपश्चरसि / तेनापि दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य गदितम्-- भो पुरुषविप्र! किं पृच्छसि मां मन्दभाग्यम् ? / दृष्टा मयैका पुण्यवती मृगडक् / तामनुसर्पता मया पातकिना यान्त्यास्तस्याः कबरी कृपाणिकया निजपुण्यदशया सह कृत्ता। सा मनीषितं स्थानं ससर्प / अहं तु उदयनो राजा राज्यं तत्सात्कृत्वा स्वयं तपः कुर्वाणोऽस्मि / एवं श्रुत्वा क्षणं स्थित्वा उपद्रवमकृत्वा पातालं यात्वा नागेन्द्रमाललाप– निष्पापप्रज्ञः देव ! दृष्टो मया उदयनः 10 वेणीपुरश्च तथा राज्योत्सवः / स पुण्यात्मा मृदुमना बाढं परित तप्यते। विनयी मानमर्हति। तन्छ्वणादतुषदाशीविषेन्द्रः / तर्हि किं युक्तमिति तक्षकमूचे / तक्षको बभाषे- देव! स एव वसुदत्तिविवाहाहः कुलेन शीलेन विद्यया वृत्तेन पराक्रमेण रूपेण च / किं वर्ण्यते सः / 15 *अमुमकृत यदङ्गनां न वेधाः, स खलु यशस्वितपस्विनां प्रभावः / त्रिजगति कथमन्यथा कथाऽपि, क्षत....तपसां पदं लभेत ? // 1 // विद्या-कन्या-लक्ष्म्यो हि कुस्थाने निवेशिता निवेशयितारं शपन्ति / नामलदेवीमतं कीमतं च लात्वा तक्षकेणैव वत्सराजमाहवत् / प्रवेशमहमचीकरत् / विवाहः प्रारब्धः। प्रथमायां 20 दक्षिणायां सवत्सा गौः कामधेनुर्लब्धा, द्वितीयस्यां विशिष्टा नाग वल्ली, तृतीयस्यां सोपधाना खट्वा सतूलिका, चतुर्थी रत्नोयोतो दीपः / एवं रत्नचतुष्केण सत्कृत्य सजायं जामातरं 'कौशाम्बी'पुरी प्रति प्रेषयत् / गतः स्वपुरं तत्र ऋद्धं राज्यं भुनक्ति / *सुधाधौतं धाम व्ययभरसहश्चार्थनिवहः 25 सकामा वामाक्षी सुहृदपि निवेद्यात्महृदयः / 1 ख-दवाया (!) / * एतबिबाहिते पछे ग-पुस्तके न वतेते / 2 पुग्थिताया। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धको शत्यपराह्नये गुणानामन्वेष्टा प्रभुरपि च शास्त्रव्यसनिता (त: : ) पुराऽऽचीर्णस्यैतत् फलमलघु तीव्रतपसः ॥ १ ॥ यदतत् स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं प्रबन्धः ] १७९ सदाऽऽर्यैः संवासः श्रुतमुपशमैका श्रमफलम् । मनोमन्दस्पन्दं बहिरिति चिरस्यापि विरसन् न जाने कस्यैषा परिणतिरुदारस्य तपसः ॥२॥ क्रमेण स एव वासवदत्तां चण्डप्रद्योत पुंत्री गुणकीर्तिं पर्यणबीत् 'डहाल' देशाधिपपुत्री पद्मावतीं च । 'पञ्चाल ' देशाधिपेनाक्रान्तं 'कौशाम्बी' राज्यं मन्त्रक्षात्राभ्यां पुनरग्रहीत् । इति उदयनप्रबन्धः । इयं च कथा जैनानां न सम्मता, देवजातीयैर्नागैः सह मान - १० वानां विवाह सम्भवतः । विनोदिसभाऽर्हेति नागमतादुद्धृत्यात्रोक्ता । || इति उदयनप्रबन्धः ॥ १९ ॥ 1 १-२ शिखरिणी । ३ ध - पुत्री पद्मावतीं च | ४ घ - 'उदयनवारप्रबन्धः । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ५ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [२०] ॥ अथ लक्षणसेनस्य प्रबन्धः ॥ [ २० श्रीलक्षणसेन मन्त्रिणः कुमारदेवस्य च पूर्वस्यां 'लक्षणावती' पूः । तत्र लक्षणसेनो नाम प्रतापी न्यायी नृपः । तस्य द्वितीयमित्र जीवितं प्रज्ञाविक्रमभक्तिसारो मन्त्री कुमारदेवः । विपुलं राज्यम् । अपारं सैन्यम् । अत्रान्तरे " वाराणस्यां ' गोविन्दचन्द्राख्यनृपपुत्रो जयन्त चन्द्रो राजा । तस्य विद्याधरो मन्त्री । महेच्छानां अन्नदातॄणां सत्यवादिनां च प्रथमः । एकदा जयन्तचन्द्रसभायां वार्तेयमासीद् य लक्षणावती' दुर्गं १० दुर्ग्रहम् । राजा महाचमूसमूहसम्पन्नः तां वार्तामवधार्य 'कासीपतिः प्रतिज्ञां सभासमक्ष मैग्रहीत् इतश्वलित्वाऽस्माभिर्लक्षणावती' दुर्गं ग्रहीतव्यम् ; अथ न गृह्णामि तदा यावन्ति दिनानि दुर्गतटे तिष्ठामि तावन्ति हेमलक्षाणि दण्डे गृह्णामि; अन्यथा न निवर्ते । इति सन्धां निर्माय प्रयाणढक्कामदापयत् । मिलितः समकाल १५ राजलोकः । जाता गजमयीच सृष्टि: । भूपालमालामयीव भूमिः । अश्वममिव जगत् । निर्गतं सैन्यं बहिः । अखण्डितैः प्रयः णैर्भञ्जन् परबलान्, शोषयन् सरांसि पङ्कयन् नदीः, समीकर्बन विषमाणि चूर्णयन् शिखराणि, लेखयन् शासनानि, जीवयन् साधुलोकान्, 'लक्षणावती ' प्राप्तः । दुर्गान्नातिदूरासन्ने भूभागे आवासान् दाप२० यामास । लक्षण सेनस्तु द्वाराणि पिधाय पूर्मध्ये एव तस्थौ । क्षु (क्षो) - भिता पुरी । सङ्कीर्णत्वमापन्नमन्न-पाथो-धूत-तैल-वसन - ताम्बूलादिवस्तूनाम् । स्थाने स्थाने वार्ता आर्ताः प्रवर्तन्ते । ' कासीपतिस्तु मुत्कलं परदेशं ग्रसते । सार्था एहिरेयाहिरां कुर्वन्ति सुभिक्षमक्षामम् । i 3 ४ ख १ ख- 'महोत्थानां' । २ ख-घ - 'दात्रीणां । ३ क ख 'मद्राक्षीत्' । 'ताम्बूल - दलीदलादिवस्तूनाम् । ५ क ख - 'प्रावर्तन्ते' १६ 'मोकळा' इति भाषायाम् Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रन्धकोशेत्यपराये नव्यानि कूपादीनि खनितानि । विचरान्ते खैरं सैनिकाः । वर्धन्ते व्यवसायाद् रिद्धयः । लुटयन्ते ग्रामाः । द्वयोर्नृपयोरुध्वमुखैरधामुखैः शरैर्युद्धानि । गतानि दिनान्यष्टादश । तस्मिन् दिने सायं लक्षणसेनेन कुमारदेवो मन्त्री न्यगादि- मन्त्रिन् ! इदमस्माभिरनुचितमाचरितं यदयं रिपुर्देशं प्रविशन्नेव न प्रतिस्खलितः । अधुना दुर्गरोधे लोको दुःखी, म्लानग्लानिर्नः; तस्मात् प्रातर्योद्धव्यम्, दण्डं न ददामि । आह्वय सामन्ता ऽमात्यादीन् । कुमारदेवः प्राहदेव ! युक्तमेवेदम् । ૩ 3 मृगेन्द्रं वा मृगारिंबा, द्वयं व्याहरतां जनः । तस्य द्वयमपि व्रीडा क्रीडादलितदन्तिनः ॥ १ ॥ त्वयि धृतायुधे वैज्रायुधोऽपि कातर एव । तत्कालं मिलिताः प्रधानयोधाः । उक्तो युद्धाभिप्रायः । प्रीतास्ते पीतामृता इव । } ऊचुश्च- १८९ 玖 १० मित्रस्नेहभरैर्दिग्धो, रूषितो रणरेणुभिः । खड्गधाराजलैः स्नातो, धन्यस्यात्मा विशुध्यते ॥ १ ॥ * उत्तम्भित नेत्रवैजयन्स्यः । निष्पन्ना वीरकरम्बकाः । सम्पन्नानि पन्यादिमुत्कलापमानि । एवं सति कुमारदेवो राजान्तिकाद् गृहं गत्वा मन्त्रयते स्म - अस्माकं प्रभुर्युद्धार्थी, जयन्तचन्द्रस्तु बली । 'अस्थी ने बलमारम्भो, निदानं क्षयसम्पर:' । तस्मात् किं कर्तव्यम् ? | आ ज्ञातम् - जयचन्द्रमन्त्री विद्याधरोऽनुसरणीयः । २० स हि प्रतिपन्नशूरः सकृपो निष्पापो दानी | इति विमृश्य पत्री - मेकां स्वलिखितां सहादाय प्राकारान्नगर खोतोद्वारेणैवैकाकी निर्गत्य मध्यरात्रे बहिः सैन्ये मन्त्रिगृहद्वारेऽस्थात् । तत्र द्वाःस्थैर्मध्ये मन्त्रिप : १५ -- क १ ख- 'खातानि । २ ख-ध- 'व्यवस्यर्द्धग' । ३ अनुष्टुप् । ४ क - 'चक्रायुश्रोऽपि । ५ ख - 'प्रासन ( ? ) योधाः । ६ ख - रूक्षितो ० ' । ७ अनुष्टुप् । 'तास्तत्र वैजयन्त्यः' । ९ क ख 'अन्यथा' । १० घ - 'अप्यधी ( 2 ) बलमररम्भो (१)' । ११ ग - 'आः ! ज्ञातम् | Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे २० श्रीलक्षणसेन. विद्याधरं आत्मानमायान्तमजिज्ञपत् । सध आहूतस्तेन । आसितः खसमीपे, पृष्टश्च- 'के भवन्तः ? । मन्त्रिोक्तम्- अहं लक्षणसेनाऽमात्यः कुमारदेवस्त्वां द्रष्टुमायासिषम् । किञ्चिद् वक्तव्यमस्ति। तत् तु वक्तुं न शक्यते । पत्री तु लिखिला वक्ष्यति । इत्युक्त्वा विद्याधरहस्ते तामापित् । तत्र श्लोको दृष्टः-- उपकारसमर्थस्य, तिष्ठन् कार्यातुरः पुरः। मूर्त्या यामार्तिमाचष्टे, न तां कृपणया गिरा ॥१॥ अस्य श्लोकस्यार्थं चिरं परिभाव्य विद्याधरोऽचिन्तयत्-- अयं महीयान् मदन्तिकमागतः । जयन्तचन्द्रापसारणमीहते दण्डं च १० न दित्सते । मैय्येव भारमारोपयति । तस्मानिस्तार्योऽसौ व्यसनसागरात् । स एव पुरुषो लोके, स एव श्लाध्यतामिह । निर्भयं सर्वभूतानि, यस्मिन् विश्रम्य शेरते ॥१॥ इति ध्यात्वा कुमारदेवं जगाद- मा भैषीः, दण्डं मा दाः, १५ प्रातरत्रास्मत्सैन्यं न स्थास्यत्येव, गच्छ । इत्युक्त्वा कुमारदेवं सत्कृत्य व्यस्राक्षीत् । गतः स स्वस्वामिलक्षणसेनसविधम् । ___इतश्च विद्याधरो जयन्तचन्द्रान्तिकं गत्वा विज्ञप्तवान्--- राजेन्द्र ! अध देवस्यात्रागतस्य दिनाष्टादशकं गतम् । कुमार देवेन स्वयमेत्य ममाष्टादश हेमलक्षाणि प्रवेशितानि, 'अतोऽभयं २० देहि, प्रसीद, स्वस्थानं गच्छ, 'कास्या'मपि मुक्तायां निर्वाहो नास्ति, दुर्ग्रहं च दुर्गम् । इति श्रुत्वा 'कासी'न्द्रः सद्यो रात्राव चलितः, दशक्रोशी गत्वा स्थितः स्वनगर्याभिमुखीभिः पटकुटीभिः । 'लक्षणावती'लोको विस्मितो दृष्टश्च । लक्षणसेनेन कुमारदेवः पृष्टः- किमिति गतो जयन्तचन्द्रः । मन्त्रिणोक्तम्- देव! त्वां १ ग--'कि' । २ अनुष्टुप् । ३ क-'ममाप्येवं सा(भा)र०' । ४ अनुष्टुप् । ५ क'स्वस्थाने' । ६ ग-पुस्तके 'अतः' इत्यधिकः पाठः'। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धको शैत्यपराह्वये ૧ युद्धोद्यतं श्रुत्वा 'कासीन्द्र: सुभीतः प्राणत्राणार्थं गतः । अन्यैव तव पिण्डशक्तिः । गतिरन्या गजेन्द्रस्य, गतिरन्या खरोष्ट्रयोः । गतिरन्यैव सिंहस्य, लीला दलितदन्तिनः ॥१॥ कः सिंहस्य चपेटपाटिन महामातङ्गकुम्भस्थल स्थूलास्थिस्थपुभवत्परिसरां लागुहां गाहते ? | कः काकोदरभर्तुरुद्ध विषज्वालावलीढस्फुरत्फुत्कारावलिधोरमास्य कुहरं साडम्बर श्रम्बति ! ॥२॥ अथ चापल्याौकते कश्चित् तयोः तथापि क्षेमः कुतः ? | अतः स्वकीयमन्तुक्षमणोपायोऽयं तस्य । कास्यासन्नं गतः 'कास्या'धि- १० पोऽपि विद्याधरमादिशत्- 'लक्षणावती' शदण्डधनं चतुर्दिग्मिलितेभ्योऽर्थिभ्यो देहि येन यशांसि प्रैधन्ते । विद्याधरोऽपि स्वामिनं निगदति - देव! कुमारदेवेन मह्यं रत्नमेकं दण्डपदे दत्तम् । तेन सद्यः कथं हेम निष्पद्यते ? | राजोचे - तर्हि रत्नं दर्शय । अथ तेन पत्रीगतः लोकोऽदर्शि कुमारदेवागमन वृत्ता- १५ न्तश्च प्रोक्तः । विद्याधरमुखाच्च तदवधार्य जयन्तचन्द्रो जजल्प अनल्पधी:- मन्त्रिन् ! तदैव किं नेयं पत्री दर्शिता येन तेभ्यो विशिष्टां कृपां कुर्मस्तदैव । त्वया स्वधनार्पणाङ्गीकारेणैव वयं तत उत्थापिताः । प्रापितो दण्डोsस्मभ्यं किल तेन । अथ हेमाष्टादशलक्षाणि कोशादाकृष्यार्थिभ्यो देहि । अष्टादश हेमलक्षास्तु कृपा- २० प्रसादपदे लक्षणसेनाय, अष्टौ हेमलक्षाः कुमारदेवाय प्रेषय । तथैव कृतं विद्याधरेण । प्रविष्टी 'कासी' तौ । स्फीतं राज्यं भुङ्क्तः । षड्विंशतिहेमलक्षेषु तत्र गतेषु लक्षणसेनेन कुमारदेवः पृष्टः १ 'अन्यैव' इत्यारभ्य 'क्षमणोपायोऽयं तस्य पर्यन्तः पाठः ग - पुस्तके नास्ति । २ अनुष्टुप् । ३ शार्दूल० । ४ घ - 'अपचापल्या०' । ५ ग - 'स्माइ' । ६ क- 'दत्तमस्ति' । ७ ख - घ 'तेन' । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [२० श्रीलक्षणसेन I किमिदम् ? । कुमारः स्मितपूर्वकमाचष्ट त्वां विरोध्य कः सुखी तिष्ठेत् ? । ततोऽरिणा दण्डस्तेऽर्पितः । पिप्रिये पृथ्वीपतिः । मुमुदे प्रजाः । ववृते महोत्सवः । एवं मन्त्रिणः कालज्ञाः सुगूढाशयाः लोक - भूपयोः कार्यं कुर्युः ॥ ॥ इति लक्षण सेनकुमारदेवप्रबन्धः ॥ २० ॥ १ क- 'कुर्युरिति' । २ 'समाप्तः इत्यधिको घ-पाठः Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध १८५ प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये [२१] ॥ अथ मदनवर्मप्रबन्धः ॥ 'चौलुक्य वंश्यो मूलराज-चामुण्डराज-बल्लभराज-दुर्लभराज-भीमान्वये कर्णदेवजन्मा मयणल्लदेविकुक्षिभूादशो रुद्र' इति विदितबिरुदः श्रीजयसिंहदेवनामाऽभून्महीपतिः । सोऽणहिलपत्तना'निर्गल्यामितैः सैन्य मलिब'देशराजधानी धारां' द्वादशभिवर्जग्राह । प्रतोलीत्रयं स्फोटयित्वा यशःपटहकुञ्जरेण लौहीमर्गलामन्वभञ्जत् । साऽद्यापि ' देवपत्तने ' सोमनाथाग्रे दृश्यते । यशःपटहो मृत्वा व्यन्तरोऽभूत् । जयसिंहो मध्ये परपुरं प्रविष्टो मालवेन्द्रं जीवग्राहमग्रहीत् । द्वादश वर्षाणि जयसिंहस्य खड्गो १० निष्प्रत्याकारोऽस्थात् , नरचर्मघटितमेव प्रत्याकारं करोमीति प्रतिज्ञावशात्; अत एव हत्यारूढं नरवर्माणं भूमौ पातयामास । वितस्तिमात्रं चाहिसत्कमुदतीतरत् । अत्रान्तरे प्रधानैर्विज्ञप्तम्राजन् ! राजाऽवध्य एव इति नीतिवचः । तस्मान्मोक्तुमर्होऽयम् । ततो मुक्तः सः । काष्ठपिञ्जरे क्षिप्तः । नरवर्मचाऽन्यचर्मभ्यां १५ सिद्धराजेन निजकृपाणे प्रत्याकारः कारितः । ततः कवीश्वरैविविध स्तूयते सः----- एक धारा'पतिस्तेऽद्य, द्विधारणासिना जितः । । किं चित्रं यदसौ जेतुं, शतधारमपि क्षमः ॥१॥ क्षुण्णाः क्षोणिभृतामनेन कटका भग्नाऽस्य "धारा' ततः २० कुण्: सिद्धपतेः कृपाण इति रे मा मंसत क्षत्रियाः । आरूढप्रबलप्रतापदहनः सम्प्राप्तधारश्चिरात् पीत्वा मालवयोषिदश्रुसलिलं हन्ता यमेधिष्यते ॥२॥ १ ग-'राजदुर्लभराज । २ ग-- 'नामा महीपतिरभूत्। ३ लोहमयीम् । ४ अनुष्टुपू । ५ ग-पुस्तके इदं पद्यं नास्ति। ६ शार्दूल. । पविकति १४ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ चतुर्विशतिप्रबन्धे [२१ श्रीमदनवर्मततो दक्षिणापथे ' महाराष्ट्र - तिला '- कर्णाट '-' पाण्डया'दिराष्ट्राण्यसाधयत् । अनन्तं धनं सङ्घटितम् । ततो गूर्जर 'धरां प्रति व्याधुटत् । यावद् देशसीमसन्धौ सैन्यनिवेशं कृत्वा स्मितस्तावत् सायं एकदा महा सभायामुपविष्टोऽस्ति प्रत्यक्ष इव सुत्परिवृढः । तावत् कश्चिद् वैदेशिको भट्ट एत्याशीर्वादं भाणित्वा सभां दृष्ट्वाऽवादीदिदम् , यथा- अहो 'परमार'वंशधूमकेतोः श्रीसिद्धराजस्य सभा मदनवर्मण इव मनोविस्मयजननी । तदाकर्ण्य सिद्धन्द्रस्तमेव भैट्ट पुर उपवेश्य पप्रच्छ-भट्ट ! कोऽसौ मदनवर्मा ? क्क नगरे कं राज्यं करोति ? । भंट्टः प्राह-देव! पूर्वस्यां 'महोबकं' नाम १० पत्तनं स्फारम् । तत्र मदनवर्मा नाम पृथ्वीपालः प्राशस्त्यागी भोगी धर्मी नयी नल इव पुरूरवा इव वत्सराज इव पुनरवतीर्णः पृथ्व्याम् । तं राजानं तच्च पुरं यः खल नित्यं पश्यति सोऽपि वर्णयितुं न पारयति, केवलं पश्यन्नन्तर्मनसं मूक इव स्वादं तद्गुणं जानाति । अस्माकं वचसि प्रायो लोकस्य विश्वासो नास्ति, वावदू१५ कत्वात् ,परं प्रेषय कश्चित् परमाप्तं निज मन्त्रिणं शं येन स तामृद्धिं दृष्ट्वाऽत्रागल्स देवपादेभ्यो निवेदयति । एवं भाट्टी वाचमवधार्य सिद्धराजो मन्त्रिणमेकं कतिपयजनयुतं द्रष्टुं तत्र तेनैव भट्टेन सह प्राहेषीत् । गतौ तौ भट्ट-मन्त्रिणौ । 'महोबक'पत्तनं दर्शित भट्टेन मन्त्रिणा । दृष्ट्वा निर्विलम्ब उपराजमेत्य यथास्थितमभाणीत्अवधारय स्वामिन् ! गतस्तत्राहम् । दार्शतं भट्टेन तत् पत्तनम् । तदा वसन्तोत्सवस्तत्र प्रवर्तते । गीयन्ते वसन्ताऽऽन्दोलकादिरागैर्गीतानि । भ्रमन्ति दिव्यशृङ्गारा नार्यः। मकरध्वजलक्षभ्रान्तिमुत्पादयन्तो विलसन्ति युवानः । क्रियन्ते प्रतिरथ्यं छण्टनानि १ क-घ-'महौं । २ इन्द्रः। ३ ग-'भद्र'। ४ ग-'भद्र'। ५ गभद्र' । ६ग-'भद्रः । ७ ग-पुरुषात्तमे। ८ ग-पृषिम्याम्'। ९ घ-"किवित्' । १० क'भद्रोकां'। ११ क- युक्तं'। ११ ग- भद्रेण' । १३ -घ-'भटेन प्राप्तः'। १४क-'वसन्तमासोत्सपः। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये यक्षकर्दमैः । प्रासादे प्रासादे सङ्गीतकानि । देवे देवे महापूजा । भोजनवारासाराः प्रतिसदनम् । राजकीयसत्राकारे तु दालिकूरास्रावणानि मुत्कलानि न मुध्यन्ते, किन्तु गर्तायां नियन्त्रयन्ते तदा सघण्टो इस्ती निमज्जति । राजाऽश्ववाराः परितः पुरं भ्रमन्तो बीटकानि ददते लोकाय । कर्पूरैर्धूलिपर्वोदयः । रात्रौ विपणीन् ५ 1 वणिजो न संबृणन्ति, उद्घाटान् विमुञ्चन्ति प्रातरागत्योपविशन्ति । एवं नीतिः व्यवसायोऽप्याचारमात्रेणैव सिद्धार्थत्वात् । 'तत्र देशे लोहखानिवत् सुवर्णरूप्यखानीर्वहन्ति तेन सर्वः कोऽपि । राजा तु कीदृगप्यास्ते मया स न दृष्टः । इदं तु श्रुतं स नारीकुञ्जरः सभायां कदापि नोपविशति । केवलं हसितललितानि १० तनोति प्रत्यक्ष इन्द्रः । एवं वचः श्रुत्वा सिद्धराजो सैन्यरक्षायां सैन्यं नियुज्य महता सैन्येन 'महोबकं प्रति प्रतस्थे । "तस्थौ तदासने भूप्रदेशे क्रोशा - टकेन । क्षु (क्षो ?) मितो देश: । स्थानाश्वलितं ' महोबक' म् | प्रधानैमदनवर्मा दिव्योद्यानस्थः स्त्रीसहस्रसमावृत्त एत्योचे - स्वामिन् ! १५ सिद्धराजो गौर्जर उपनगर मागतोऽस्ति, स कथं पश्वान्निवर्तनीयः । । मदनवर्मणा स्मित्वा भणितम् - सिद्धराजः सोऽयं 'धारा'यां द्वादश वर्षाणि निग्रहाय अस्थात् । स ' कबाडी' राजा वाच्यो भवद्भि:यदि नः पुरं भुवं च जिघृक्षति तर्हि युद्धं करिष्यामः । अथार्थेन तृप्यसि तदाऽर्थं गृहाणेति । ततो यद् याचते स वराकस्तद् देयं २० भवद्भिः, न वयं धने दत्ते श्रुंट्यामः । सोऽपि जीवतु चिरं यो वित्तार्थ कृच्छ्राणि कर्माणि कुर्वाणोऽस्ति । राज्ञो वचोऽनुगृहीत्वा मन्त्रिणः परचक्रमगुः । तावता सिद्धसेनेन कथापितम् - दण्डं , - १८७ C १ कर्पूरा-गुरु- कस्तूरी कक्कोलैर्यक्ष कर्दमः" इत्यमरकोशे द्वितीये काण्डे षष्ठे लोके । २ ख - 'वस्त्रवणानि' । 3 ग-पुस्तके 'तत्र ० ४ ' क्रमेण गच्छन्' इत्यधिको ग- पाठः । ६ ख-ध- 'परमगुः । सर्वः कोऽपि' इत्यकिः पाठः । ५ ग - ' सोऽयं यदुद्धारायाँ' | Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [२१ श्रीमदनवर्मदत्त्वा मन्त्रिभी राजवाक्यं दूतमुखेन भाणितम्-- यदि अर्थमीहसे तदाऽथ लाहि; भूमिं चेत् तर्हि युद्धामहे वयम् । मदनवर्मदेवाय ज्ञापितमत्र भवदागमनम् । तेन अस्मत्प्रभुणा उक्तम्- 'कबाडी' राजाऽर्थेन तर्पणीयः सः । सिद्धराजस्तल्लीलया विस्मितः षण्णवति कोटीः कनकस्यायाचीत् । दत्तास्ताः प्रधानैः । सद्यः देशः सुखं तस्थौ । तथापि पश्चान्न याति । तदा प्रधान णितम्-राजन्! अर्थो लब्धस्त्वया, कथमथ न प्रतिगच्छसि ? । 'सिद्धेशेन भणित मन्त्रिपुरः-तं लीलानिधिं भवत्प्रभु दिदृक्षे । तेऽप्येत्य मदनवर्माणमभणत्- अर्थेन तोषितः स क्लेशी राजा, परं भगति राजेन्द्र द्रष्टुमीहे । ततो मदनवर्मणा निगदितम्-तर्हि एतु सः । ततः सैन्य तथास्थमेव मुक्त्वा मितसैन्यस्तत्रोद्याने आगतः सिद्धराजा यत्र महाप्राकारस्थे सौधे मदनवर्माऽस्ति । प्राकाराद् बहिर्योधलक्षास्तिष्ठन्ति । प्रतोली यावदार्गस्य मध्ये अचीकथत् द्वास्थैः आगतमस्माभिः 'महोबक' प्रभुणा भणितम्-- जनचतुष्केण १५ सहागच्छत । आगतो मध्ये सिद्धराजः । यावत् पश्यति काञ्चन तोरणानि सप्तप्रवेशद्वाराणि अग्रे ददर्श रजतमहारजतमयीर्वापी:, 'नानादेशभाषाविचक्षणाः शशाङ्कमुखीविशालनितम्बस्थलास्तारुण्यपुण्यावयवाः स्त्रीः 'पणव-वेणु-वीणा-मृदङ्गादिकलासक्तं परिजनजनम् । स्फीतानि गीतानि शुश्राव । 'नन्दनो'द्यानाधिकमुद्यानं, हिमगृहाणि, हंससारसादीन् खगान् , उपकरणानि हैमानि, कदलीदलकोमलानि वसनानि, जनितानङ्गरागान् उत्तुङ्गान् पुष्पकरण्डांश्चैषत । एवं पश्यन् पश्यन् पुरः पुरो गच्छन् साक्षादिव मदनं मधुरे वयसि वर्तमानं मितमुक्ताफलप्रायभूषणं सर्वानलक्षणं काश्चनप्रभं मधुरखरं तामरसाक्षं तुङ्गाघ्राणं उपचितगात्रं , तथापि० याति' इत्यधिको ग-पाठः । २ ख-घ-सिद्धसेमभाणितं मन्त्रिपुरुहूतास्त'(१)। ३ ग-दर्शयथ' । । स्व-घ-'नामादेशवेश(ष भाषा' । ५ यादित्रविशेषः, नानुं नगारुं। ६ घ-'तुङ्गधोणं' । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये 1 मदनवर्माणमपश्यत् । मदनवर्माऽप्यभ्येत्याश्लिष्य हैमासनं दत्त्वा तमभाणीत् - सिद्धेन्द्र ! पुण्यमद्यास्माकं येन त्वमतिथिः सम्पन्नोऽसि । सिद्धराजः प्राह- राजन् ! आवर्जना वचनमिदं मिथ्या; यत् तु मन्त्रिणामग्रे 'कबाडी' इत्युक्तं तत् सत्यम् । मदनवर्मा जहास - सिद्धेश ! केन वा विज्ञप्तमिदम् । सिद्धेशः प्राह - तैरेव मन्त्रिभिस्तावकैः । कोऽभिप्रायो मन्निन्दाभणने देवस्य ! | मदनवर्मा आह-देव ! कलिरयम्, अल्पं जीवितम् मिता राज्यश्रीः, तुच्छं बलम्, तत्रापि पुण्यैः स्फीतं राज्यं लभ्यते, तदपि चेत् न भुज्यते, रुल्यते विदेशेषु, तत् कथं न कबाडिकस्त्वम् । सिद्धेशेनोक्तम् - सत्यं सत्यम्, एतादृश: कर्नाटिक एवाहम् | त्वमेवायं १० धन्यो यस्येत्थं शर्माणि । स्वयि दृष्टेऽस्माकं जीवितं सफलम् । चिरं राज्यं भुङ्क्ष्व । इत्युक्त्वा तस्थौ । मदनवर्मणोत्थाय निजं परिजनकोशदेवतावसरादि सर्वं दर्शितम् । प्रेमाऽवृधत् । विंशत्युत्तरं पात्रशतं स्वाङ्गसेवकं सिद्धराजाय व्यतरत् । तेन प्रीतो जयसिंहदेवः सैन्यं गृहीत्वा 'धारा' जित्वा पत्तनं 'अणहिलपुरं' प्रविष्टः । १५ तेषां १२० मध्यादर्थं पथि मृतं मार्दवात् शेषं पत्तने प्रविष्टम् । पत्तनप्रवेशोत्सवे श्रीपालकबिना सिद्धराजोपश्लेोकना- 1 काव्यम् - ——— हे विश्वत्रयसूत्रधार ! भगवन् ! कोऽयं प्रमादस्तव न्यस्यैकत्र निवेश यस्य परतस्तान्येव वस्तूनि यत् । पाणिः पश्य स एष यः किल बलेर्वाक् सैव थ या चारित्रं च तदत्र यद् रघुपते' चौलुक्य' चन्द्रे नृपे ॥ १ ॥ * १८२ २० : पुनः मानं मुच 'सरखति' ! त्रिपथगे ! सौभाग्यभङ्गीं त्यज रे 'कालिन्दि' ! तवाफला कुटिलता ' रेवे' ! रयस्त्यज्यताम् । २५ १ विवेक (?) । २ - 'कर्ता टिकत्वम्' | ३ 'सर्व' इत्यधिको ग-पाठः । ४ ख-‘धारामध्ये' । ५ ख - राजा वर्णितः । ६ शार्दूल० । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० चतुर्विशतिप्रबन्धे [१ श्रीमदनवर्मश्रीसिद्धेशकृपाणपाटितरिपुस्कन्धोच्छलच्छोणत-- स्रोतोजातनदीनवीनवनितारक्तोऽम्बुधिर्वर्तते ॥२॥ एवमन्यैरपि भणितानि ॥ ॥ इति मदनधर्मप्रबन्धः ॥ २१ ॥ ST NOO OR १ शार्दूल । २ ग-रापि कविमिर्भणितानि' । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये [ २२ ] || अथ रत्नश्रावकप्रबन्धः || उत्तरस्यां दिशि 'काश्मीरेषु' देशेषु 'नवहुछ' नाम महर्द्धिमत् पत्तनम् । तत्र विक्रमाक्रान्तभूवको नवहंसो नाम भूपाल: । तस्य राज्ञी रूपश्रीहसितरम्भागर्वा विजयादेवीनाम्नी । तत्रैव पत्तने पूर्णचन्द्रः श्रेष्ठिराजोऽभूत् । तन्नन्दनात्रयः रत्नः, मदनः, पूर्णसिंहश्च । त्रयोऽपि जैनाः श्रीमन्तः प्रियंवदाः सात्त्विकाः प्राज्ञाः राजपूज्याः प्रारम्भसिद्धाः । रत्नस्य पत्नी पउमिणिरिति ख्याता । पुत्रस्तु कोमल इति नाम बालो वर्तते । तदा श्री नेमिनाथनिर्वाणादष्टसहस्त्री वर्षाणां व्यतीताऽस्ति । अस्मिन्नवसरेऽतिशय- १० ज्ञानी पट्टमहादेवनामा 'नबहुल' पत्तनपरिसरे समवासार्षीत् । देवैर्भूमिः शोधिता । उदकैरछोटिता । कनकपद्मं मण्डितम् । तत्र पट्टमहादेव उपविष्टः । मध्ये नगरस्य तदागमनं ज्ञापितमुधानपालन लोकाय नृपाय च । प्रथममागतो नृपः सान्तःपुरपरिच्छदः सरत्न- मदन - पूर्णसिंहः । अपरोऽपि छोकस्तथैव । श्रेष्ठिनी १५ पडमिणिरपि सैपुत्रा तत्रागता । एवं सभायां देव-दानव मानवविद्याधरादिवृन्द सुन्दरायां गुरुर्देशनां प्रारेमे --- यास्यामीति जिनालये स लभते ध्यायंश्चतुर्थ फलं प्रबन्धः ] षष्ठं चोत्थितमुद्यतोऽष्टममथो गन्तुं प्रवृत्तोऽध्वनि । श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात् प्राप्तस्ततो द्वादशं मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतौ मासोपवासं फलम् ॥ १॥ * सेयं मज्जणे पुन्न, सहस्सं च विलेवणे | सयसाहस्सिया माला, अनंतं गयिवाइअं ॥२॥ १ घ - 'कस्मीरेषु नव०' । २ क- ख - 'महादेविनामा' | ३ ख-घ -'तत्र सपुत्रा' । ४ शार्दूल० । ५ छाया - शतं प्रमज्जने पुण्यं सहस्त्रं च विलेपने । शतसाहसिका मालाऽनन्तं गीतवादितम् ॥ ६ अनुष्टुप् । १९१ २० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [२२ श्रीरत्नश्रावकपूजाकोटिसमं स्तोत्रं, स्तोत्रकोटिसमो जपः । जपकोटिसमं ध्यानं, ध्यानकोटिसमो लयः ॥३॥ इदं सामान्यतः सर्वजिनसेवाफलम् । 'शत्रुञ्जये' तु सविशेष तदेव, असङ्ख्यानां यतीनां सिद्धत्वेन सिद्धक्षेत्रत्वात् । ५ धूत्रे पक्खोवासो, मासक्खवणं कपूरधूवंमि । कत्तिअमासक्खवणं, साहू पडिलाभिए लहइ ॥१॥ इति वचनात् । 'शत्रुञ्जया'दपि रैवत' सेवा महाफला । 'रैवतो' हि 'शत्रुञ्जयैकदेशत्वात् ‘शत्रुञ्जय' एव, श्रीनेमिकल्याणकत्रय भावादतिशायितमप्रभावश्च । नेमिनाथस्य माहात्म्यं मिथ्यादृशोऽपि १० प्रभासपुराणे एवं प्रवदन्तः श्रूयन्ते--- पद्मासनसमासीनः श्याममूर्तिदिगम्बरः । नेमिनाथः शिवेल्याख्यो, नाम चक्रेऽस्य वामनः॥१॥ वामनावतारे हि वामनेन रैवते' नेमिनाथाने बलिबन्धसाम •र्थ तपस्तेपे इति तत्र कथा । १५ कलिकाले महाघोरे, सर्वकल्मषनाशनः । दर्शनात् स्पर्शनाद् देवि !, कोटियज्ञफलप्रदः ॥२॥ ईश्वरोक्तमिदं प्रभासपुराणे एवम्, तस्माद् येन नेमिनाथो वन्दितो • रैवत'गिरिमारुह्य तेन किल परमपदं श्रद्धालुना गृहीतमेवेति तत्त्व म् । इत्येतां देशनां श्रुत्वा रत्नः श्रावक उत्थाय गुरोरने प्रतिज्ञा २० चके-- मया ससङ्घन यदा ‘रैवते' नेमिः प्रणतो भविष्यति, तदा द्वितीया विकृतिम्रहीतव्या । तदैव एकभक्तं भोक्तव्यम् । तावन्तं च कालं यावद् ध्रुवं भूमिशय्या-ब्रह्मचर्ये धार्ये । वरं प्राणांस्त्यजामि, परं नेमिनाथं नमाम्येवेति । ततः स्वगृहमायातो राजा १ घ-'गुणो जपः' । ६ अनुष्टुप । ३ छाया-धूप पक्षोपवासो मासक्षपणं कर्पूरधूपे । ___ कार्तिकमासक्षपणं साधुः प्रतिलाभितो लभते ॥ ४ आर्या । ५-६ अनुष्टुप् । ७ क-रैवतं'। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध प्रबन्धकोशेत्यपराये लोकश्च । रत्नश्रावकोपरोधात् पट्टमहादेवस्तत्रास्थात् । रत्नस्तूपायनं दत्त्वा राजानमूचे-राजन् ! मां नेमियात्रायैः रैवत'. गमनाय विसृज । राज्ञोक्तम्-स्वैरं धर्मः समाचर्यताम् । अस्माकं मतमेतत् । यद् विलोक्यते तद् गृहाण । रत्नो जहर्ष । सङ्घममेलयत् । गज-रथ-तुरग-पदातिरूपं महत्तमं सैन्यं नृपाल्लेभे। ५ यस्य यन्न्यूनं तस्य तत् पूरयामास । अमारि-चैत्यपरिपाटिशान्तिक-भोजनवार-प्रतिलाभना-बन्दिमोक्ष-लोकसत्कारांश्चकार । गणितं मुहूर्तम् । चलितो देवालयः । राजा महोत्सवकरः परमसखा । करभशतैर्धनानि चेलुः । श्रेष्ठिनी पउमिणिपपत्नी विजयदेवीं बालवयस्यां भेटयितुं जग्मुषी, पादयोस्तस्याः पेतुषी १० आपृच्छे-~~-स्वामिनि ! यात्रायै यान्त्यस्मि । भवद्वियोगदुःखं दिनकतिपयानि धर्मलोभतः सोढुमीहेऽहम् । राज्ञी अपि शास्तुमूचे -- सखि ! तत्र गता धनकृशतया कार्पण्यं कृत्वा मां लज्जापात्रं मा कृथाः । स्वैरं ददीथाः । अनि धनानि भूषणानि वसनानि च गृहाण । इत्युक्त्वा भूरि ददे । पदानि कतिपयानि सम्प्रेषयत् । निवृत्ता १५ राज्ञी। श्रेष्ठिनी सङ्घमध्यमध्यास्त । श्रीपट्टमहादेवो गुरुः सह व्यवहरत् । तेन सनाथः सङ्घः । नित्यं धनस्य स्वैरं व्ययः । कोटीश्वराः सार्मिकाः परःसहस्राः । चन्द्रहासवणाङ्का भटाः शतसहस्राः । के भीः । एवं पथि तीर्थानि बन्दमानो रत्नः सङ्घपतिर्बान्धवद्वययुतः सपुत्रः सपत्नीकस्तावद् ययौ यावद २० 'शेला'-'तोला ख्यौ द्वौ पर्वतौ स्तः । तत्र प्राप्तः । इह किल 'शत्रुञ्जय मध्ये भूत्वा · रैवतं ' गच्छता लोकानां 'रोला'-'तोलौ' गिरी न स्तः, पैर ‘भद्रेश्वर'पथे गच्छतां स्तः । तत्र 'रोला''तोल'योरगर्योर्मुखे मिलित्वा 'तोड़कद्वयमिव जातमास्ते । तत्र परिसरे ... सखीम् । २ क- 'साश्रमूचे'। ३ग-'धनकृन्त या । घ-'धनपतिधनानि । ५ ग- 'यथेच्छं गृहाण' । ६ ग-'तेन क्छ । ग-पुस्तके 'पर' इत्पषिका पार ८ 'तोडो' इति भाषायाम् । चतुर्विशति. ३५ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २२ मरल श्रावक I सब आवासितः । दिनं सर्व स्नात्र चैत्यवन्दना - दान-पूजा भोजनादीनि खैरं ववृतिरे । रात्रौ सुखं स्थितम् । प्रातः पुरो गमनाय संनह्याचलत् सङ्घः । यावदग्रयानं गिरिमुखसङ्कटपथेन चलितुं प्रवृत्तं तावता कश्चिदेको मषीश्यामो व्यात्तवक्त्रो नरसिंहवपुरट्टहासी बहुगव्यूतो दंष्ट्राकरालास्यो नखरैर्लोकं दारयितुं प्रववृते । भक्षयामि भक्षयामि च ऊँचे । तद् दृष्ट्वा भीतो लोकः पश्चानिवृत्य गच्छति । तद् 'राजपुत्रैर्ज्ञातम् । तैर्गत्वा स कालरूपः प्रबभाषे — कस्त्वम् ? कथं जनमुपद्रवसि ? । देवो वा दैत्यो वा राक्षसो वा येन तन्नाम्ना पूजयामः । स कालमूर्तिर्वदति - किं रे १० बाढं वदथ । यदि पुरः पदमेकं वजिष्यथ तदा सर्वान् एकैकशवविष्याम्येव । इति गदति सति तस्मिन् सङ्घरक्षपाल हेन्यघुट्य रत्नो विज्ञप्तः - देव ! एवमेवं वृत्तान्तः । पुरो गन्तुं न लभ्यते, अभाग्यात् । एवं दंष्ट्रा चर्विता लोका: पुरः पतिताः “प्रेक्ष्यन्ताम् । तदाकर्ण्य कर्णकटुकं विषण्णो रत्नः । क उपायः ? । का गतिः ! | १५ का मतिः ? इति कलकलितः सङ्घः । विशेषतः स्त्रीजनः । स्थाने स्थाने वृन्दशो वार्ताः । केचिद् वदन्ति -- पश्चान्निवृत्य गम्यते । अयं सर्व भक्षयिष्यत्येव । जीवन्नरो भद्रशतानि पश्यतीति । अपरे त्वाहु:-- म्रियते चेद् म्रियताम्, गम्यते पुरः, नेमिरेव शरणम् । केचिद् द्रुमलतान्तरितास्तस्थुः । अन्ये ज्योतिषमपश्यन् । इतरे सङ्घप्रस्थान - २० मुहूर्त दातारमनिन्दिषुः । इत्येवं विषमे वर्तमाने सङ्घपतिरत्नेम भट्टाः प्रभाषिताः -गत्वा पृच्छत तं घोरं नरं त्वं कथं प्रसीदसि, येन तत् कुर्मः पुरो व्रजामः । गता भट्टाः । भाषितं रत्नवचनं तदग्रे । तेनोक्तम्- - अहमेतस्या गिरिभुवोऽधिष्ठाता । एकं सङ्घप्रधानमानुषं भक्षयामि ततस्तृप्यामि; अन्येषां नोपद्रवामि; प्रतिज्ञां I * ५ १ क- ख- 'उक्त' । २ 'तद् दृष्ट्वा' इत्यधिको ग-पाठः । ३ 'रजपूत' इति भाषायाम् । 'तमाम्ना' इत्यधिको ग-पाठः । ५ ग 'चर्वयिष्या०' । ६ ग - 'भटै ० ' । " एवं तद्दष्ट्रा' । " ग- 'प्रेक्ष०' । ● Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये ५ च न ल । 'तेन भट्टास्तत् सम्यग् निर्णीय तदाकापं रत्नाय ऊंचुः । रत्नेनैकत्रोपवेशिताः सर्वे लोकास्तथा सन्नद्धा एवं भणिताश्च ते लोका:- पुण्यं मे महद् येनासौ कोऽपि घोरपुरुष एकं मानुषं जिवृक्षति । तद्भक्षणात् तृप्तश्वेच्छेषं न भक्षयति तस्माद् यूयं याता नेमिं वन्दध्वम् । मयाऽस्मै खाङ्गं देयम् । लाभोदयः ! | इयत्कालं विविधयत्नपालितं देहं सङ्घार्थे उपकृतम् । एवमुक्त्वा तुष्णकि सशे राजपुत्राः प्रभणन्ति- नररत्न ! रत्न ! त्वं चिरं जीव । अस्माकं मध्ये एकतरेण स प्रायतु ( 2 ) । वयं हि सेवकाः । सेवकानां च धर्मोऽयं यन्मृत्वाऽपि प्रभुरुद्धरणीयः, अन्यथा धर्म- यशो - वृत्तिक्षयात् । "ते मुग्गडा हराविया ये (जे) परिविद्धा ताहं । अवरस्परजोयं "तह सामिउ गंजिउ जाहं ॥ १॥. सङ्घप्रधान साधर्मिका ऊचुः - हे रत्न ! त्वं चिरं जीव । युवाऽसि राजपूज्योऽसि, सहस्र लक्षजनपोषकोऽसि वयं विनश्वरकलेवरव्ययेन स्थिरं धर्म जिघृक्षामह । जैई रखिज्जइ तो कुहइ, अह डज्झइ तेउ च्छारुं । एयह ट्ठकलेवरह जं वाहियह तं सारु || १ || मदन- पूर्णसिंहभ्रातरौ जगदतुः -- आवयोस्त्वं ज्येष्ठो भ्राता, ज्येष्ठो भ्राता पिता यथा । पितुरायत्तश्च पुत्रप्रा यो किं रामा युद्ध्वा लक्ष्मणेन न प्राणास्तृणीकृताः ! | लघुभ्राता । १ गते भट्टा' । २ क- 'प्रोचुः' ३ ग 'स्थानं' | ४ छाया- ते मृता हरपिता ये परिविद्वास्तेषाम् । अपरप्रयोग तथा स्वामी गञ्जितो येषाम् || ५ छ- 'तय हंसामि' । . ६ छाया - यदि रक्ष्यते तर्हि क्वथ्यते अथ दह्यते तर्हि भस्म । एतस्य दुष्टकलेवरस्य यद् वाह्यते तत् सारम् || घ - 'जह उवप्र तो कहद्द' । तर बारु I ९ घ - ' दट्ठुकले. १९५ १० १५ २. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ & चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २२ श्रीरत्न श्रावक स्नेहो न ज्ञायते देव !, प्रणामान्न मृदूक्तितः । ज्ञायते तु कचित् कार्ये, सद्यः प्राणप्रदानतः ॥ १॥ पउमिणिर्भूते -- कुलस्त्रियः पत्यधीनाः प्राणाः । पक्ष्यौ लोकान्तरिते जीवन्त्यपि मृताः शृङ्गाराद्यभावात् । यथा शशिना सह याति कौमुदी, सह मेघेन तडिद् बिलीयते । प्रमदाः पतिवर्त्मगा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनैरपि ॥ १ ॥ | भरि मृते नार्याऽनुमर्तव्यम् - तावद् यदि मयि मृतायां त्वं जीबसि तदा किं न लब्धं मया ? । कोमलः प्राह - तात ! ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ एकदेव विनिर्माणा - दधमर्णीकृतैः सुतैः । यशोधर्ममयं देह-द्वयं पित्रोर्विनिर्यर्तम् ॥१॥* इस्येवं वदतस्तान् सर्वान् युक्तिभिर्वाढं निषेध्य स्वयं मर्तु स्थिताः । सङ्घो वहन् कृतः । कालपुरुषेणोपद्रवो न कृतः । गते तु स रत्नः श्रीनेमिपरायणः स्थिरः तस्थौ । पउमिणिर्नामे गता । परत्र स्थित्वा कायोत्सर्गमधात्, कोमलोऽपि तथैव । कापुरुषेण रत्नो १५ गिरिगुहायामेकस्यां क्षिप्त । द्वारि शिलां दत्त्वा पुच्छं आच्छोटयति । सिंहनादैः खं बधिरयति । तथापि रत्नो न बिभेति । हृदि स्थिरो जिनरागः । अत्रान्तरे कूष्माण्ड वन्दितं 'वत' शिखरे क्षेत्रपतयः सप्त कालमेघ १ मेघनाद २ गिरिविदारण ३ कपाट ४ सिंह२० नाद ५ खोटिक ६ रैवत ७ नामानो मिलिताः । ते देवीं वन्दित्वा ऊचुः – देवि ! कापि पर्वतो धडधडायते । ईदृशं कापि पूर्व न वृत्तं यादृगधुना वर्तते । ततः पश्य किमिदम् ? । कापि पुरुषो महानेक उपद्रूयमाणोऽस्ति केनापि क्रूरेण । अम्बया १ अनुष्टुप् । २ वियोगिनी वैतालीयसुन्दरीत्यपराया | ३ क 'विनिर्यते', 'वित्तीयते', घ 'वितीयते' | अनुष्टुप् । ५ घ- 'युक्तिभिर्निविष्य' । ६ - 'तथा' । ७ ग- 'जात' । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराहये ज्ञातं ज्ञानेन । तैः सह तत्र गता । पउमिणि-कोमलौ दृष्टौ तथा कायोत्सर्गस्थौ । कृपाभक्ती जाने । गुहाद्वारं गत्वा स आक्षिप्तः क्रूरः । रे किमिदं करोषि ? । युध्यत्व चेत् समर्थोऽसि । रत्नं रक्षामो वयं क्षेत्रपालाः । अहं अम्बा जगदम्बा । तथोक्ते घुघुरितः सः । युद्धं ववृते । यावता सोऽम्बया पादे धृतः शिरः परितो ५ भ्रामयित्वा स्फालयिष्यते ग्रावण्युप्रे तावत् प्रत्यक्षो दिव्यमूर्तिः पुरतो नरो ददृशे । रत्नश्च पुरः दिव्याभरणाङ्गरागी सप्रियः सपुत्रः सुखी। ऊचे च स दिव्याङ्ग:--अम्बे ! क्षेत्रपाः ! श्रीरत्न ! शृणुत । यदा ' रैवत'महिमानं गुरुर्जगौ तदाऽनेन रत्नेन प्रतिज्ञा कृता---मया प्राणव्ययेनापि नेमिर्वन्दनीय एवेति, तदाऽहं वैमानिकः सुरः १.० शङ्करो नाम तत्र उपगुरु विषण्ण आसम् । मया न सोढा साऽस्य सन्धा । 'तेनात्रागल्य एवमुपद्रुतोऽयं रत्नः महासत्त्वः । धन्याऽस्य जाया, पुण्यवानङ्गजः, श्लाघ्या यूयं सङ्घभक्ताः साहाय्यकराश्च । अहं यदि सत्येनैव युध्येयं तदा भवद्भिर्न जीयेय, परं क्रीडामात्रमेतदमलिनमनसा कृतमिति । रत्नैर्वृष्ट्वा रत्नमालिङ्ग्य सङ्घमध्ये १५ मुक्त्वा स्वयं द्यां ययौ । अम्बाद्या गिरिमगुः । सङ्घो ' रैवतक'. मारुरोह । नेमि ननाम । लेप्यमूर्ती नेमौ तथा स्नात्रं जलैस्तेने यथा बिम्बं घटीद्वयेन गलित्वा मृद्भूय भम्या सह मिलितम् । विषण्णाः सर्वेऽपि । विशेषतस्तु रत्नः । अचिन्तयच्च धिग मामाशातनाकारिणं येन एवंविधतीर्थध्वंसवृजिनभाजनं जातोऽस्मि । २० अथ तदा भोक्तव्यं यदा तीर्थ पुनः स्थापितं भविष्यति । इत्युक्त्वा बान्धवौ सङ्घरक्षायै नियुज्याऽम्बां ध्यात्वा तपस्तेपे । षष्टयुपवासान्ते अम्बा प्रत्यक्षीभूय तं 'काञ्चनबलानाख्ये इन्द्रनिर्मिते निशि निनाय । तीर्थे तत्र द्वासप्ततिजिनबिम्बानि महाकायान्यदीदृशत् । तत्राष्टादश हैमानि, अष्टादश रत्नानि, अष्टादश राजतानि, अष्ठा- २५ १ 'सुर:' इत्यधिको ग- पाठः। २ घ- 'अनागत्य' । ३ पत्नी। 'तीर्थविध्वंस: । ५ ग- पुस्तके अथ' इत्यधिकः पाठः ।। ग Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २२ श्रीरत्न श्रावक " दश लिमयानि एवं द्वासप्ततिः । तत्रैकस्मिन् रत्नमये बिम्बे रत्नः स्वनामसाम्यादिव तुष्टो विलग्नः । इदमर्पय मे स्वामिनि ! येन तत्र स्थाने रोपयामीत्यम्बामूचे । अम्बाऽप्याह स्म - वत्सक ! तीर्थ मिदं महत् । आगमिष्यति शनैः शनैः कलिः । तत्र लोको हीन - ५ सवोऽलुब्धः पापकारी सर्वधर्मबाह्यो भावी । तदग्रतो रत्नं बिम्बं न छुटिष्यति । महत्याशातना भाविनी, ततः तस्मादिदमाश्मनं गृहाण | रत्नेन तथेत्यूरीकृतम् । उदितं च- मातः ! कथमिदं महन्मयाऽऽनेयम् ? | देव्योक्तम् - आमसूत्रतन्तुभिरेभिर्वेष्टय । इतचलमाने यत्र तु पश्चाद् विलोकयिष्यसि तत्रैव स्थास्यति । इत्य १० म्बिकागिरा चलितो रत्नो बिम्बं गृहीत्वा यावत् कियतीमपि भुवं पुरो याति तावद् विस्मितः पश्चादालोके किमम्बाऽऽगच्छति न वेति । तत्रैव तस्थौ बिम्बं उदुम्बरोपरि । न चलति स्थानान्मनुष्यलक्षैरपि । ततः परावृत्त्य द्वारस्य प्रासादस्य रचना कृता । साऽद्यापि तथैव तत्रैवास्ते । एवं प्रतिज्ञां सम्पूर्य रत्नः ससङ्घो 'रैवता'द् १५ व्याघुट्य 'शत्रुञ्जये' ऋषभं प्रणम्य अन्यान्यपि तीर्थानि वन्दित्वा 'नवल' पत्तनं प्रविष्टः । राजा स्वयमभ्यागतः । गृहे गृहे मङ्गलानि, साधर्मिक वात्सल्यानि ऋद्धिवृद्धि: । आचन्द्रार्के स्थायि यश ललौ । रत्नस्थापितं नेमिबिम्वमिदं यद् बन्धनानमास्तेऽधुना । तस्य तु स्तुतिरेवं प्राक् कविकृता -- १ २० न खानिमध्यादुदखानि सूत्रैर्नासूत्र टकैरुदटङ्कि नैव । अद्योति न द्योतनकैर्नवा है - रवाहि योऽमन्त्रि न सिद्धमन्त्रैः ॥ १ ॥ अनादिरव्यक्ततनूरभेषः, प्रभामयोऽनन्तबलः सुसिद्धः । तरीस्तरीतुं भविनां भवाब्धि, स नेमिनाथः कृपयाऽऽविरासीत् ॥२॥ V ॥ इति रत्न श्रावकप्रबन्धः ॥ २२ ॥ पश्चिम पश्ि १९८ १ 'उदम्बरोपरि द्वारस्य' इज्यधिको ग-पाठः । २ ग 'च प्रवर्तितानि । ३ इन्द्रबंशा (३) । र उपेन्द्रवज्मा । > Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धक शेत्यपराये [२३] || अथ आभडप्रबन्धः ॥ | 1 I 'अणहिल' पुरे 'श्री माल' वंश्यः श्रेष्ठी नृपनागः । तत्पत्नी सुन्दरी । तज्जः श्री भडः । तस्मिन् दशवर्षदेश्ये मातापितरौ द्यां गतौ ! श्रीर्नष्टा तथाऽप्याभडः सुजनाश्रितो व्यवसायज्ञ इति वृधे । पूर्वजकीय कन्या लब्धा । परिणीतः । वृत्त्यर्थं मणिकारकाराणां गृहे घुर्धरान् धर्षयति । लोोष्टकान् पञ्चोपार्जति । तेषां मध्ये लोष्टिकमेकं धर्मे व्ययति । द्वौ कुटुम्बवृत्तिकार्ये । द्वौ सञ्चये विधत्ते । चतुर्दशेऽब्दे पुत्रो जातः । तस्य स्तन्यप्राप्तिररूपा । अतछागीगवेषणाय आभडो बहिर्ग्रामं गतः । तत्र आवाहे प्रातर्दन्त १० पावनं कुरुते । अत्रान्तरे आगतं अजायूथम् । ता आवाहे सर्वाः पयः पातु लग्नाः । पयः कम्बुधवलमपि सहसा नागवल्लीदलच्छायं जातम् । विस्मित आभडः । छागीषु पयः पीत्वा निवृत्तासु यावद् गवेषयति तावदेकस्याः कण्ठे टोकरकं तन्मर कतरत्नगर्भ ज्ञात्वा तेन सहसा "विक्रिये । बालोऽजीवत् । रैनं तु शिराणे उद्योतितं १५ महातेजःपुञ्जमयम् । परीक्षकाणां दर्शितम् । तैरमूल्यं भणितम् । तदनु जेसिङ्गदेव नृपायार्पितम् । तुष्टेन राज्ञा एका स्वर्णकोटी दापिता । नखपृष्ठमात्रं हि तल्लक्षं लभते । आभडोऽपि तेन महर्द्धिजतिः । सुभिक्षं च तदा । व्यवहारी जातः | श्रीजयसिंहराज्यं तदा ऋद्धम् । आभडस्य वहिकास्तिस्रः एका रोक्यवही, अ- २० परा विलम्वी, तृतीया पारलौकिकवही । को भावः ? | धरणबन्धनयातनाः कस्यापि न करोति कृपाम्भोधिः । ३६ बेलातटेषु धनर्द्धिः महालाभाः । पूगहट्टिका १ निजसदनं २ श्रीहेमसूरिपोषध प्रबन्धः] १ ग - पुस्तकें 'पूर्वजकीय' इत्यधिक पाठः । २ घ - ' तत्र ३ घण्टिकाम्, 'टोकरी' इति भाषायाम् । ग-विक्रीता' । ५ 'रत्नं तु ० दापिता' इत्यधिको ग-पाठः । ६ ग ' एतावता को भावः ?' । १९९ लोष्टिक ० स्वर्ण कोटी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे [२३ मीभाभा. शाला ३ माषपिष्टकेटकचिताऽकारे। अमारिकारकश्रीकुमारपालदेवसमये महाव्यापस्तस्य । एकदा श्रीहेमसूरिभिः साधर्मिकवात्सल्यं महाफलमिति राजे व्याख्यातम् । राज्ञा आभड उक्त:-त्रुटितधनं श्रावककुलं दीनारसहनं दत्त्वोद्धार्यम् । वर्षान्ते लेख्यकं वयमवधाराप्याः । आभडेन वर्षान्ते राज्ञे लेख्यकं दर्शितम् । एका कोटिरायाता । राजा यावद् दापयति तावदाभडेन विज्ञप्तम्-- देव ! भूभुजां कोशो द्विधा-स्थावरो जङ्गमश्च । तत्र स्थावरो हेमादिभाण्डागारः, जङ्गमो वणिग्जनः । वणिग्धनमपि स्वामिधनमेवेति । राजोवाच१० एवं मा वादीः । लोभपिशाचो मां छलयति । तावन्मात्रं तत्काल भवानाय्य दापितम् । राजा तुष्टः । एवं व्रजति काले राजा कुमारपालदेवः श्रीहेमश्च वृद्धौ जात।। श्रीहेमसूरिंगच्छे विरोधः । रामचन्द्र-गुणचन्द्रादिवृन्दभेकतः, एकतो बालचन्द्रः । तस्य च बालचन्द्रस्य राजभ्रातृजेन अजयपालेन सह मैत्री । एकदा १५ प्रस्ताव राज्ञो गुरूणामाभऽस्य च रात्रौ मन्त्रारम्भः । राजा पृच्छति-- भगवन्नहमपुत्रः। कं स्वपदे रोपयामि ? । गुरवो अवन्ति-प्रतापमल्लं दौहित्रं राजानं कुरु धर्मस्थैर्याय । अजयपालात् तु त्वत्स्थापितधर्मक्षयो भावी । अत्रान्तरे आभडः प्राह-- भगवन् ! यादृशस्तादृशः स्वकीय एवोपकारी । पुनः श्रीहेमः२० अजयपालं राजानं मा कृथाः । एवं मन्त्रं कृत्वात्थितास्त्रयः । स मन्त्रो बालचन्द्रेण श्रुतः । अजयपालाय च कथितः । 'हैम'गच्छीयरामचन्द्रादिषु द्वेषः । आभडे तु प्रीतिः । श्रीहेमसूरेः स्वर्गगमनम् । ततो दिनद्वात्रिंशता राजा कुमारपालोऽजयपालदत्तविषेण परलोकमगमत् । अजयपालो राज्ये निषण्णः । श्री१ राजोवाच' इत्यारभ्य दापित पर्यन्तः पाठोऽधिको -पुस्तकेऽस्ति । १ घ'भ्रातृ ग्रेन' । एकदा प्रस्तावे' इत्यधिको ग-पाठः। ४ ग-'आत्मीयो भष्यः' । ५ सर्वथैव' इत्यधिको ग-पाठः । ६ म-कथितः ।अतो हेम.' । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धको शैत्यपराह्नये हेमद्वेषाद् रामचन्द्रादिशिष्याणां तप्तलोह विष्टरासनयातनया मारणं कृतम् । राजविहाराणां बहूनां पातनम् । लघुक्षुलकानाहृाय्य प्रातः प्रातर्मृगयां कर्तुं अभ्यासयति, पूर्वमेते चत्यपरिपाटीमकार्षुरित्युपहासात् । बालचन्द्रोऽपि स्वगोत्रहत्याकार पक इति ब्रुवद्भिर्ब्राह्मणैर्नृपमनस उत्तारितः । लज्जितो 'मालवा'न् गत्वा मृतः । पापं पच्यते हि सद्यः । प्रासादपातनं दृष्ट्वा श्रावकलोकः खिद्यते | आभः पूर्वप्रतिपन्नत्वान्मान्योऽपि वक्तुं न शक्नोति, उग्रत्वाद् राज्ञः । पैरं तेन प्रपचेन तु रक्षा कारिता । कथम् ? एकदा आभडेन नृपवल्लभः कौतुकी "सीलणो नाम भूरिहमदानेन प्रार्थितः -- तथा कुरु यथा शेषप्रासादा उद्धरन्ति । तेनो- १० क्तम् — निश्चिन्तैः स्थेयम्, रक्षिष्याम्येव । सीलणेन साण्ठकसौधमेकं कृतम् । धवलितं चित्रितं च । पुत्राः पञ्च कर्णे एवमेवपराजं कर्तव्यं इति शिक्षिता: । गतो नृपान्तिकं सीलणो वदतिदेव ! जरा मे शिरसि स्थिता । पुत्रपौत्रवान् जातः । अधुना तीर्थयात्रायै विदेशान् यामि यचादेशः स्यात् । राज्ञोक्तम् - यथा १५ रुचिः तथा चेष्टस्व । तदनु तत्सौ पुत्रांश्चादाय महासभास्थे नृपे आगात् । पुत्रा भठापिताः क्षितिपतये । पुत्राश्च भाषिता राज्ञि पश्यति सति - एतन्मे सौंधं यत्नतो रक्ष्यम् । मम यश:शरीरमेतत् । यत्ननिष्पादितमिति । तैस्तथेति प्रतिपेदे । नृपादि सर्वं 1 t आपृच्छ्य पुरस्तात् कियतीमपि भुवं यावत् सीलणो याति २० किल तावत् तैस्तत् सौधं लकुटैरास्फाल्य सद्यो भग्नम् | खटत्कारं श्रुत्वा सीलणो व्याघुटितो वदति – रे इताशाः ! अस्मादपि कुनूपात् कुपुत्रा यूयम् । अनेनात्मीये पितरि मृते सति तद्धर्मस्थानानि २०१ १ - पुस्तके 'जात' इत्यधिकः पाठः । २ क- घ - 'लघुतः । ३ ग-पुस्तके 'परं तेन' इत्यधिकः पाठः । क- 'कारापिता, तदा हा कथम्?' । ५ - 'सीलणो भूरि०' । ६ 'सांठानो' इति भाषायाम् । ७ ग● 'नुपादि सर्व ' इत्यधिको ग-पाठः चतुर्विंशति• २६ - 'बहुचरन ० ' । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २३ श्रीरत्न श्रावक 2 पातितानि भवद्भिः पुनरहं पदशतकमपि गच्छन् न प्रतीक्षितः । राजा ललज्जे । चैत्यानामपातनमादिशति स्म । तस्य कुत्सितस्य राज्ञो माता पुत्रयोर्बलाद् विप्लवं कारयितुं रुचिरुत्पन्ना । वण्ठांस्तथा कारयति । एकदा एकेन वण्ठेन छन्न५ धृतह स्वकङ्कलोहकर्तृ ( त्रिं) कया जघ्ने । दिनकतिपयानि कीर्तिपालनामा राजपुत्रो 'गूंर्जर' धराया लोकरक्षामकरोत् । छत्र-चामरादीनि न तस्य । तस्मिन् 'मालव' सैन्ये मृते 'गुर्जर 'धरायां भीमदेवो राजाssसीत् । स दीर्घजीवी, पैरं विकलः पुण्याधिकः । तस्य सोडू मोडू द्वे गरि । ते द्वे स्नपयति । सर्वाङ्गावयवविभूषिते १० कारयति । सुखासने उपवेशयति । ग्रामेषु ससैन्यो भ्रमयति । ग्रामाः सैन्यकैर्भक्ष्यन्ते । एवं बहुकालो गतः । 1 एकदा देशपालैः सम्भूय राजा विज्ञप्तः - देव ! निरर्थकं किमिति स्वदेशं भक्षापयसि । अन्न घृत बसनादिन्ययो वृथाऽयम् । तदा राजा आह - कथामेकां शृणुत । १५ } क्वचिद् वेलाकूले पूर्वं जलवेगाहतो मीनस्तटे लमः । तदा तत्र दुर्भिक्षं घोरम् | अन्नाभावे क्षुधार्तो लोकः । अतः सर्वोऽपि जनो कुठाराद्यैश्छेदं छेदं तं मीनं भक्षयितुं गृह्णाति तथापि स न म्रियते, महाकायत्वात् । अत्रावसरे क्षुधितः पत्नीप्रेरितः कोऽपि विप्रस्तन्मीनमांसं ग्रहीतुमगमत् । तं अपरलोकैश्छिद्यमानं पश्यतस्तस्य २० स्वभावदयालोर्विप्रस्य दयाऽऽसीत् न छिनभि । तदा व्यन्तरानुप्रवेशात् स मत्स्यो विप्रमाह-भो छिन्द्वि माम् । अन्येऽपि खादन्तः सन्ति । तवोपकृतो भव्यः । विप्रः प्रोचे - दया मे, न छिन । मीनो वदति तर्हि शृणु, अयं पापी लोको मां म्रिययाणं मारयति । अहं तु मृत्वाऽत्र तटे राजा भविष्यामि पुरन्दरो नाम । २५ राजकुलेऽवतरिष्यामि । त्वं ममोपाध्यायो भविष्यसि । अहं प्राग् २०२ १ क- 'कर्दिकया' । २ क- 'गुर्जरधरायां' । ३ 'परं' इत्यधिको ग-पाठः ४ ग 'तेन न छिनति' । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपरालये २०३ वैरादमुं लोकं नवनवभङ्गीमिः कदर्थयिष्यामि । स्वया कस्याप्यर्थे विज्ञप्ति३व करणीया। त्वां तु सत्पुरुषं अहं गुरुबुद्ध्या पूजयिष्यामि । इति जल्पन् मृतः स मीनः यथोक्तो राजा पुरन्दरो नाम समभूत् । विप्रस्तु गुरुः । तं लोकं कृतपरमागसं स राजाऽपीपिडत् । विप्रस्तु तदुक्तं स्मरन् न ऊचे किञ्चित् । तस्माद् भो ग्रामण्योऽहमपि तद्विवः कोऽप्यवतीर्णोऽस्मि | क्रीडया पौडयामि लोकम्, तस्माद् भवद्भिर्न वाच्यम् । वक्ष्यथ चेद् तदा रसनां छेत्स्यामि । एवं श्रुत्वा स्थितस्तूष्णी लोकः । देशोऽयचीयते । एवं राज्ये आभडस्तथैव ऋद्धिमान् । आभडस्य च चाम्पलानाम्नी बालविधवा वाग्मिनी उचितज्ञा सर्वशास्त्रविदुरा १० तनया गृहव्यापारान् करोति कारयति । एकदा लोभात् किश्चिच्चोरयन् भाण्डागारिको रुष्टेनाभडेन निष्कासितः। स कोपादुपभीमभूपं गत ऊचे च राजन् ! आभडस्य अनन्ता ऋद्धिः । एवमेवं तां गृहाण । राजाऽऽह- 'कोऽप्यस्याप्यन्यायोऽस्ति ? । भाण्डागारिक ऊचे नास्ति । तर्हि परधनं कथं वृथा गृह्यते ? । भाण्डागारिकः १५ प्राह छल किमपि क्रियते । राजाऽऽह-तथाऽहं करिष्यामि । इति विचार्य भाण्डागारिक खसौध एव स्थापयित्वा छगीमांसं दासीशिरसि स्थालस्थं कृत्वा प्राहैषीत् । आगता सा दासी मध्याहू आभडसदनद्वारम् । तदा आभडो ध्यानेन जिनमर्चयति । 'चाम्पलया खयं द्वारमुदघाटि । दासी मध्यमागता । स्थालं २० दर्शितम् । चाम्पलया मांसं दृष्ट्वा तदैव भाण्डागारिकविक्रिये यमित्यूहाश्चके । मध्ये आनीता सगौरवं सा पृष्टा-किमेतत् ? । दास्याह-राज्ञा उत्सवे गौरवाय वः प्रस्थापितमदः । एतन्मसिं चाम्पलया स्थालान्तरे लातम् । सपादलक्षमूल्यहारो राजेऽर्पितः । .. १ ग-'चाम्पलदनाम्नी' । २ क-'न कोपि.' । ३ 'इति विचार्य हत्यधिको ग-पाठः । ४-५ ग- 'चाम्पलदेव्या'।। ६ ग-राला महिणीमोत्सवे' । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ चतुर्विशतिप्रबन्धे [ २३ श्रीआभड. दास्यै कण्ठाभरणम् । स्थालं मौक्तिकैवापितम् । दासी हृष्टा उपराजं वबाज । भोजनादनु आभडः पुत्र्या जगदे-तात ! निष्कासितभाण्डागारिकप्रेरितनृपकर्तव्यमेतत् । मया दास्यै रीढा न कृता । यास्यति श्रीः, परं उपायं कुरु । सर्व स्वधन टिप्पयित्वा राज्ञे दर्शय कथय च-गृहाण स्वामिन् ! यदि ते रुचिरस्ति । तथैव चक्रे सः । नृपो विस्मितो लज्जितो हृष्टश्च । भाण्डागारिक तटे धृत्वा राजोचेरे मूढ ! यस्मै विधिद्रव्यं दत्ते तस्मै तद्रक्षोपायबुद्धिमपि दत्ते । ततो मात्र वृथा मत्सरी स्याः । पुनरेव आभडपादयोर्लगितः सः । तृणमपि तत्सत्कं राज्ञा न गृहीतमेव । एवं धनी अखण्डभाग्यः १० चिरायुः नीरक् आभडः मरणावसरे पुत्रोपकाराय स्वसदने चतुष्कोण्या निधिचतुष्कं न्यास्थत् । मृतः स्वयं समाधिना । चाम्पलाऽपि द्यां गता । पुत्रैर्बाह्ये धने गते सति ते निधयः सम्भालिताः, परं न लभ्यन्ते । अञ्जनं च दापितम् । अञ्जनी भणति केऽपि श्यामाङ्गा मुद्गरपाणयोऽधोऽधो वनं नयन्ति । किं मुधा १५ क्लिश्यध्वे ? । जाता निराशाः सामान्यवणिजोऽभवन् । तस्मात् पुरुषाणां पुण्योदय एव धनवृद्धिनिबन्धनं, न कुलम् । ॥ इत्यामडप्रबन्धः ॥ २३ ॥ १ ग-'चाम्पलदेव्यपि' । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः । प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये २०५ [२४] ॥ श्रीवस्तुपालप्रवन्धः' । श्रीवस्तुपाल-तेजः-पालौ मन्त्रीश्वरावुभावास्ताम् । यौ भ्रातरौ प्रसिद्धौ, कीर्तनसङ्ख्यां तयोर्ब्रमः ॥१॥ पूर्व गर्जरधरित्रीमण्डनायां 'मण्डली'महानगर्या श्रीवस्तुपाल- ५ तेजःपालाद्या वसन्ति स्म । अन्यदा श्रीमत् पत्तन वास्तव्य प्राग्वाटा'ऽन्वयठक्कुरश्रीचण्डपात्मजठक्कुरश्रीचण्डप्रसादाङ्गजमन्त्रि- . श्रीसोमकुलावतंसठक्कुर श्रीआसराजनन्दनौ कुमारदेवीकुक्षिसरोवरराजहंसौ श्रीवस्तुपाल-तेजःपालौ श्री शत्रुञ्जय'-'गिरिनारा'दितीर्थयात्रायै प्रस्थितौ । 'हडालक' प्रामं गत्वा यावत् स्वां भूतिं चि- १० न्तयन्तस्तावल्क्षत्रयं जातं सर्वस्वम् । ततः 'सुराष्टा'त् स्खं सौस्थ्यमाकलय्य लक्षमेकमवन्यां निधातुं निशीथे महाश्वत्थतलं खानयामासतुः । तयोः खानयतोः कस्यापि प्राक्तनः कनकपूर्णः शौल्वः कल शो निरगात् । तमादाय श्रीवस्तुपालः तेजःपालजायां अनुपमादेवीं मान्यतया अपृच्छत्- क एतन्निधीयते । तयोक्तम्- १५ गिरिशिखरे एवैतदुच्चैः स्थाप्यते यथा प्रस्तुतनिधिवन्नान्यसाद्भवति । तत् श्रुत्वा श्रीवस्तुपालः तद्रव्यं श्री शत्रुञ्जयो'-'अयन्ता'दो अव्यययत् । कृतयात्रो व्यावृत्तो 'धवलक्व'पुरमगात् । । अत्रान्तरे महणदेवी नाम कन्यकुब्जेश्वरसुता जनकात् प्रसन्नाद् ‘गूर्जर'धरां कञ्चुलिकापदे लब्धां सुचिरं भुक्त्वा कालेन २० मृत्वा तस्यैव 'गूर्जर'देशस्य अधिष्ठात्री महर्द्धिय॑न्तरी जाता । सा १ अस्य सारांशः श्रीवस्तुपालचरित्ररूपकीर्तिकौमुदीप्रस्तावनायामाग्लभाषाय निबद्धोऽस्ति । २ आर्या । ३ ख-'पूर्वे'। ग-'एकदा'। ५ग-'चण्डपस्तदात्मज.' ६ ग-प्रसादस्तदङ्गज०'। ७ ग-'श्रीसोमस्तस्कुलावसंतमन्त्रि श्रीआसराजः तन्नन्दनी कुमरादेवी.' । ८ ग-'सर्व स्वं'। १ ताम्रमयः। १० ग-'अन्ययत्' । ११ ग-'महणलदेवी'। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रव [२४ श्रीवस्तुपाल 'धवलकके' शय्यायां सुखविश्रान्तं राणा श्री वीरधवलं प्रत्यक्षीभूय जगाद - राणक ! इयं 'गुर्जर' धरा वनराजप्रभृतिभिर्नरेन्द्रैः सप्तभि'श्वापोत्कट'वंश्यैः षण्णवत्यधिकं शतं वर्षाणां मुक्ता, तदनु मूलराज- चामुण्डराज वल्लभराज- दुर्लभराज भीम- कर्ण-जयसिंह५ देव कुमारपालदेव - अजयपालदेव-लघुभम अर्णोराजै वौलुक्यैः सनाथीकृता । सम्प्रति युवां पिता-पुत्र लवणप्रसाद - वीरधवलौ स्तः । इयं 'गुर्जर' धरा कालवशादन्यायपरैः पापैः स्वाम्यभावात् 'मात्स्य' न्यायेन कदर्थ्यमानाऽऽस्ते म्लेच्छैरिव गौः । यदि युवां वस्तुपाल-तेजःपालौ मन्त्रिणौ कुर्वीथे तदा राज्यप्रतापधर्मवृद्धिर्भवति । १० अहं महणदेवी सर्वव्यापिभिर्भवत्पुण्यैराकृष्टा वदन्त्यस्मि । इति वदन्त्येव विद्युदिव सहसाऽदृश्या बभूव । राणक श्री वीरधवलः पद्मासनस्थस्तल्पोपविष्टश्चिन्तयति- अहो देव्युपदेशः साक्षात् ! | कर्तव्यमेव तन्मन्त्रिद्वयं यद् देव्योक्तम् । यतःदृष्यद्भुजाः क्षितिभुजः श्रियमर्जयन्ति - २०६ १५ नीत्या समुन्नयति मन्त्रिजनः पुनस्ताम् | रत्नावलीं जलधयो जनयन्ति किन्तु I संस्कारमत्र मणिकारगणः करोति ॥ १ ॥ इत्यादि चिन्तयन् प्रातरुत्थितः । पूर्वोक्तमेवोपदेशं महणदेवी श्रीलवणप्रसादायाप्यदत्त । कृतप्रातः कृत्यैौ मिलितौ पिता-पुत्रावेकत्र । २० कथितं रात्रिवृत्तमन्योन्यम् । तुष्टौ द्वावपि । तदैव च तेषां कुलगुरुः पुरुषसरस्वती सोमेश्वरदेवो द्विजः स्वस्त्ययनयोगात् । ज्ञापितोऽसौ तद् वृत्तान्तं ताभ्याम् । सोऽप्युवाच देवौ ! युवयोः प्राचीनपुण्यप्रेरिता देवता अपि साक्षात् तस्मात् तदुक्तमाचरताम् । मन्त्रिबलं विना न किश्चिद् राज्यपरिकर्मणम् । मन्त्रिणी च यौ भवतोरप्रे २५ प्रतिपादितौ देव्या तावत्रागतौ स्तः । मम मिलितौ राजसेवाधिनौ " I १ - 'राज एवं चौलुक्यैः' । 'श्वरद्विजः' । ५ घ - 'क्रमणम्' । २ ख- 'कु' । ३ वसन्त० । ४ ख Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धा ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये द्वासप्ततिकलाविदुरौ न्यायनिष्ठौ जैन धर्मज्ञौ स्तः । यद्यादेशः स्यात् तदाऽऽनीयते । राणकादेशात् पुरोहितेन हि तेन सद्य आनीतौ नमस्कारितौ आसनादिप्रतिपत्त्या गौरवितौ । उक्तौ च- श्रीलवणप्रसादादेशाद् वीरधवलेन स्वयम्आकृतिर्गुणसमृद्धिशंसिनी, नम्रता कुलविशुद्धिसूचिका । वाक्क्रमः कथितशास्त्रसक्रमः, संयमश्च युवयोर्वयोऽधिकः ।। लाध्यतां कुलमुपैति पैतृकं, स्यान्मनोरथतरुः फलंग्रहिः । उन्नमन्ति यशसा सह श्रियः, स्वामिनां च पुरुषैर्भवादृशैः ॥२॥ यौवनेऽपि मदनान्न विक्रिया, नो धनेऽपि विनयव्यतिक्रमः । दुर्जनेऽपि न मनागनार्जवं, केन वामिति नवाकृतिः कृता ॥३॥ १० आवयोश्च पितृ-पुत्रयोर्महा-नाहितः क्षितिभरः 'परद्रुहा । तद् युवां सचिवपुङ्गवावहं, योक्तुमत्र युगपत् समुत्सहे ॥३॥ येन केन न च धर्मकर्मणा, भूतलेऽत्र सुलभा विभूतयः । दुर्लभानि सुकृतानि तानि यै-लभ्यते पुरुषरत्नमुत्तमम् ।।५।। अथ वस्तुपालः प्राह १५ देव ! सेवकजनः स गण्यते, पुण्यवत्सु गुणवत्सु चाग्रणीः । यः प्रसन्नवदनाम्बुजन्मना, स्वामिना मधुरमेवमुच्यते ॥६॥ नास्ति तीर्थमिह पार्थिवात् परं, यन्मुखाम्बुजविलोकनादपि । नश्यति द्रुतमपायपातक, सम्पदेति च समीहिता सताम् ॥७॥ सप्रसादवदनस्य भूपते-यंत्र यत्र विलसन्ति दृष्टयः । तत्र तत्र शुचिता कुलीनता, दक्षता सुभगता च गच्छति ॥८॥ किन्तु विज्ञपयिताऽस्मि किश्चन, स्वामिना तदवधार्यतां हुँदि । न्यायनिष्ठुरतरा गिरः सतां, श्रोतुमप्यधिकृतिस्तवैव यत् ॥९॥ सा गता शुभमयी युगत्रयी, देव ! सम्प्रति युगं कलिः पुनः । सेवकेषु न कृतं कृतज्ञता, नापि भूपतिषु यत्र दृश्यते ॥१०॥ २५ अतः परं दशमपर्यन्तानां पद्यानां छन्दो रथोद्धता। -'पुरहदात्। स-च-'हृदा। २ क-ख-स्वामिन' । ३ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ श्रीवस्तुपाल दृष्टिर्नष्टा भूपतीनां तमोभि-स्ते लोभान्धान् साम्प्रतं कुर्वतेऽग्रे । तैर्नीयन्ते नातेन यत्र, भ्रामन्त्याशु व्याकुलास्तेऽपि तेऽपि ॥ ११ ॥ 'न सर्वथा कश्चन लोभवर्जितः, करोति सेवामनुवासरं विभोः । तथापि कार्यः स तथा मनीषिभिः परत्र बाधा न यथाऽत्र वाच्यता ॥ ॥१२॥ , पुरस्कृत्य न्यायं खलजनमनादृत्य सहजानरीन् निर्जित्य श्रीपतिचरितमादृत्य च यदि । समुद्धर्तु धात्री मभिलषसि तत् सैष शिरसा धृतो देवादेशः स्फुटमपरथा स्वस्ति भवते ॥ १३ ॥ * किश्व सम्प्रति आवां 'मण्डली' नगरात् सेवार्थिनी वः समीपमागतौ स्तः सकुटुम्बौ । लक्षत्रयी द्रव्यस्य नो गृहेऽस्ति । यदा देवौ पिशुनबचने लगतः तदा एतन्मात्रस्वापतेयसहितौ दिव्यं कारयित्वा आवां मोक्तव्याविति । अत्र काहलिकं मर्यादीकृत्य परिग्रहस्य धीरा देवयोश्च भवतु इति राणकाभ्यां धीरां दत्त्वा दाप१५ यित्वा प्रधानमुद्रानिवेशस्तेजःपालस्य करे कृतः । ' स्तम्भ' तीर्थ'धवलक्क' योस्त्वाधिपत्यं वस्तुपालस्य निवेशितम् । एवं श्रीकरणमुद्रायां लब्धायां अन्यैव तयोः स्फूर्तिरुदलासीत्, देवतासान्निध्यात्, सहजबुद्धिबलोदयाच्च । स्वगृहमायातो वस्तुपालः श्रीजिनराज पूजयामास । अथ तत्त्वं क्षणमचिन्तयत्- ५ , उच्चैर्व समारोप्य, नरं श्रीराशु नश्यति । दैन्यदत्ताऽवलम्बोऽथ स तस्मादवरोहति ॥ १॥ * अन्धा एव धनान्धाः स्यु- रिति सत्यं तथा हि ते । अन्योक्तेनाध्वना गच्छन्त्यन्ये हस्तावलम्बिनः ॥२॥ धनी धनात्यये जाते, दूरं दुःखेन दूयते । दीपस्ता प्रदीपेऽस्ते, तमसा बाध्यतेऽधिकम् ॥३॥ १० २० २५ १ शालिनी । २ ग-पुस्तके पद्यमिदं नास्ति । ३ वंशस्थविलम् । शिखरिणी । ५ अतः परं दशमपर्यन्तानां पञ्चानां छन्दो' अनुष्टुप् । ६ ख - " - 'दीपस्तप्रदीपस्ते' | Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये छत्रच्छायाछलेनामी, धात्रा चक्रे निवेशिताः । भ्रमन्तोऽपि स्वमात्मानं मन्यन्ते स्थिरमीश्वराः || ४ || कालेन सौनिकेनेव, नीयमानो जनः पशुः । क्षिपत्येष धिगासन्ने, मुखं विषयशावले ||५|| कायः कर्मचरोऽयं तन् - मात्रकार्याऽतिलालना | भृतिमात्रोचितो ह्येष प्रपुष्टो विचिकीर्षति ॥ ६ ॥ 1 २०९ प्रयोजकान्यकार्येषु, नश्यन्त्याशु महापदि । दुर्मित्राणी खान्येषु, बन्धुबुद्धिरधीमताम् ||७|| विषयामित्रमुत्सृज्य दण्डमादाय ये स्थिताः । संसार सारमेयोऽसौ बिभ्यत् तेभ्यः पलायते ॥ ८॥ दुःखानि स्मराग्निर्वा, कोधाग्निर्वा हृदि ज्वलन् । न हन्त शान्तिमायान्ति, देहिनामविवेकिनाम् ||९|| विधौ विध्यति सक्रोधे, 'वर्म धर्मः शरीरिणाम् | स एव केवलं तस्मा - दस्माकं जायतां गतिः ॥१०॥ इत्यादि ध्यात्वा वखाणि परावृत्य श्रवस्तुपालः सपरिजनो १५ बुभुजे । गृहीताम्बूल राजकुलमगमत् । एवं दिनसप्तके गते प्रथमं तद्राज्यजीर्णाधिकारी एक एकविंशतिलक्षाणि वृहद्रम्माणां दण्डतः । पूर्वमविनीतोऽभूत् । तदनु विनयं ग्राहितः । तैर्द्रव्यैः कियदपि हयपत्तिलक्षणं सारं सैन्यं कृतं तेजःपालेन । पश्चात् सैन्यबलेन 'धवलक्क’प्रतिबद्धग्रामपञ्चशतीग्रामण्यश्चिरं सञ्चितं धनं हक्कयैव द- २० ण्डिताः । जीर्णव्यापारिणो 'निश्रोतिताः । एवं मिलितं प्रभूतं स्वम् । ततः सबलसैन्यसङ्ग्रहपटुतेजसं श्रीवीरधवलं सहैवादाय सर्वत्र देशमध्येऽभ्रमन् मन्त्री । अदण्डयत् सर्वम् । ततोऽद्भुतऋद्धि। वीरधवलः । तेजःपालेन जगदे-देव ! 'सुराष्ट्र' राष्ट्रेऽत्यन्तधनिन १० १ ख- 'यत्रच्छाया ०' | २ ख- 'धर्मवर्म शरी०', घ - ' वर्म धर्म शरी०' । ३ 'नीचोवाया' इति भाषायाम् । चतुर्विंशति: २७ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि । चतुर्षिशतिप्रबन्धे [मोबस्तुपालष्ठकुरास्ते दण्डअन्ते । ततोऽचलदयम् । 'लब्धावादः पुमान् यत्र, तत्रासक्तिं न मुश्चति' । ___ अथ 'वर्धमान'पुर गोहिल घाट्यादिप्रभन् दण्ड पन्तौ प्रभु-मन्त्रिणा 'वामनस्थली' आगाताम् । तटे चतुरकान् दत्त्वा स्थितो वीरधवला। ५. 'वामनस्थल्यां' तदानीं यो प्रभुसहोदरौ तौ साङ्गण-चामुण्ड राजनामानौ उद्दामस्थामानौ राणश्रीवीरधवलस्य श्यालको । इति सौजन्यमर्यादां पालयस्तद्भगिनी निजजायां नाम्ना जयतलंदेषीं बहुपरिजनपरिवृतां मध्ये प्राहैषीत्। सा गत्वा सहोदरौ अभाषिष्ट भ्रातरौ ! भवतां भगिनीपतिरदण्डदण्डनः अभङ्गभञ्जनः 'गूर्जर'१० धरायां प्रतिग्राम प्रतिपुरं दण्डयन् भवतोर्दण्डनायात्रागतोऽस्ति । दीयतां धना-ऽश्वादि सारम् । एतद् भगिनीवचः श्रुत्वा मदोद्ध्मातौ तौ प्रोचतुः-मन्ये स्वसस्त्वं ततः समायाता सन्ध्यर्थम् ; यतो माऽस्मद्बान्धवयोः समरारूढयोरहं निर्धवाऽभूवम् । एतां मा स्म चिन्ता कृथाः । अमुं त्वत्पतिं हत्वाऽपि ते चारु गृहान्तरं करिष्यावः । न १५ च निषिद्धोऽसौ विधिः, राजपुत्रकुलेषु दृश्यमानत्वात् । ततो जयतल देन्याह-समानोदयौँ ! नाहं पतिवधभीता वः समीपमागाम् ; किन्तु निपितृगृहत्वीता । स हि नास्ति वो मध्ये यस्तं जगेदकवीरं 'ऊ'परवटा ख्यहयारूढं नाराचान् क्षिपन्तं कुन्तं वेल्लयन्त खड्गं खेलयन्तं वा द्रष्टुमीशिष्यते । कालः साक्षादरीणां सः अदृष्टपरशक्तिः सर्वोऽपि भवति बलवान् । इत्येवं वदन्त्येव ततो निर्गत्य सा सती पतिसविधं गत्वा तां वार्तामुच्चैरकथयत् । तन्निशम्य वीरधवलः शोधकरालाक्षो भृकुटीभङ्गभीषणभालानुकृतभीमः सन् सङ्ग्रामममण्डयत् । तौ द्वावपि वीराधिवीरौं ससैन्यौ आगतौ । सङ्घटितो रणः । पतितानि योधसहस्राणि पक्षद्वयेऽपि । रजसाऽऽच्छादितं गगनम् । १ 'साग' इति भाषायाम् । २ ख-घ- 'देवी० मध्ये प्रादेषीत् बहुपरिजनपरिकृत ताम् । ३ क-'सा' । ३ ग-'अपर०' । ४ घ-शस्यं । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्थः ] प्रबन्धकोशेत्यपराद्वये | गतः स्वपरविभागः । वरिधवलो इत इति सैन्यद्वये व्याचक्षे | क्षणार्धेन वीरधवलो दिव्याधिरूढः सारसुभटयुक् साङ्गणचामुण्डराजयोर्मेलापके गत्वा प्रसृतः । ऊचे च-रे सौराष्ट्रौ ! गृहीतं करे शस्त्रं यद्यस्ति तेजः । इत्युक्त्वा तच्चक्रे यद् देवैर्दिव शिरो धतिं कुर्वद्भिर्ददृशे । हतौ साङ्गण चामुण्डराजौ । असि - ५ मुखैः 'शोधितं रणक्षेत्रम् | पालिताः स्वे परे च पालनार्हाः । प्रविष्टो वीरधवलो 'वामनस्थली' मध्यम् । गृहीतं श्मालकयोः कोटिसङ्ख्यं पूर्वजरातसश्चितं कनकम्, चतुर्दश शतानि दिव्यतुरङ्गमाणाम्, पश्च सहस्राणि तेजस्वितुरङ्गमाणाम्, अन्यदपि मणिमुक्ताफलादि । जितं जितमित्युद्घोषः समुच्छलितः । स्थितस्तत्र मासमेकम् । ततो १० बाजामा-नगजेन्द्र- चूडासमा बालाकादिस्वामिनः प्रत्येकं गृहीतधनाः कृताः । द्वीपबेपत्तनेषु प्रत्येकं बभ्राम | धनमकृशं मिलितम् । एवं ‘सौराष्ट्र’जयं कृत्वा समन्त्री राणो 'धवलक' प्राविक्षत् । उत्सवा उत्सवोपर्यपुस्फुरन् । तत्र प्रस्तावे चारणेन दोधकपादद्वयं पठितम् - " जीतउं छहि जणेहिं, सांभलि समहरि वाजिया | १५ एतावदेव पुनः पुनरपाठीत्, नोत्तरार्धम् । गतश्चारणः स्थास्थानम् । तत्र राजवंश्याः षण्णां जनानां मध्ये आत्मीयं नाम न्यासयितुं रात्रौ तस्मै प्रत्येकं लचामदुः । सोऽपि समग्रहीत् । एवं ग्राहं ग्राहं परिपारित एकदा प्रातः सभायां बहुजनाकीर्णायां रणकाग्रे उत्तरार्धमप्यपाठीत् 'बिहुं भुजि वीरतणेहिं चहुँ पगि ऊपरवट तणे ॥ १ ॥ २० १ ख-घ- 'व्याचक्रे' । २ घ 'वारूढः' । ३ ख 'गृहीत' ।४ ग - 'योधितं' । ५ ख - वाडाकादि ० ' । ६. छाया - जितं षड्भिर्जनैः श्रुत्वा समरे गर्जति (?) 1 ७ ग' वाजत' । ८ ख - 'राणा' । ९ छायाभ्यां भुजाभ्यां वीरस्य चर्तुभिः पादैः ऊपर वटस्य | Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ औ स्तुपाल ' इति श्रुत्वा सर्वेऽपि चमत्कृता राजन्यकाः । अहो प्रपचेनानेनास्मान् वचयित्वा निर्यासे तत्त्वमेवोक्तम् । पुनः सविशेषं ददुः, 'स्वामिभक्तत्वात् । तदा 'भद्रेश्वर' वेलाकूले भीमसिंहो नाम प्रती - हारस्तिष्ठति । स आत्मबली कस्याप्याज्ञां न मन्यते धनी च । तस्मै ५ वीरधवलो राजा आदेशमदीदपत् - सेवको भव । सोऽपि प्रत्यदीदपत् - सेवको भव । यद् दीयते तलभ्यते इति न्यायः । वरिधवलस्तद्विग्रहाय ' गुर्जर' धराराजपुत्रान मेलयत् हुसैन्यं च । भीमसिंहोऽपि बलेन प्रबलः । उभयपक्षेऽपि बलवत्ता । २११ अत्रान्तरे 'जावालि' पुरे 'चाहमान' कुलतिलकः श्रीअवराज१० शाखीयः केतुपुत्रसमरसिंहनन्दनः श्री उदयसिंहो नाम राजकुलो राज्यं भुनक्ति । तस्य दायादास्त्रयः सहोदराः सामन्तपालाऽनन्तपाल - त्रिलोक सिंहनामानो दाताराः शूराः तद्दत्तप्रासेन तृप्तिमदधतो 'धवलक्क 'मागत्य श्रीवीरधवलं द्वास्थेनावभाणनू -- देव ! वयं अमुकवंश्यास्त्रयः क्षत्रियाः सेवानिरा आगताः स्मः । १५ यद्यादेशः स्यात् तदा आगच्छामः । राणकेनाहूतास्ते । तेजआकृति - श्रमादिभिः शोभनाः । रुचितास्ते तस्य । परं पृष्टाःको प्रासो नः कल्पते । ते प्रोचुः - देव ! प्रतिपुरुष 'लूणसा'पुरीयद्रम्मायां लक्षं लक्षं ग्रासः । राणकेनोक्तम्- इयता धनेन शतानि भटानां सङ्गच्छन्ते । किमधिकं यूयं करिष्यथ ? । न २० दास्यामीयत् । इति कथयित्वा ते बीटकदानपूर्व विसृष्टाः । तदा मन्त्रिवस्तुपाल - तेजःपालाभ्यां विज्ञप्तम् - स्वामिन् । न एते विमु यन्ते । पुरुषसङ्ग्रहाद् धनं न बहु मन्तव्यम् | बाजि - वारण-लोहानां, काष्ठ- पाषाण - वाससाम् । नारी- पुरुष - तोयानां, अन्तरं महदन्तरम् ॥ १ ॥ २५ एवं विज्ञतमपि राणकेन नावधारितम् । मुक्ता एव ते गताः प्रति १ इति श्रुत्वा' इत्यधिको ग-पाठः । २ 'स्वामिभक्तत्वात्' इत्यधिको ग-पाठः । ३ घ - 'प्रस्यादीवपत्' । 'ग' मुध्यन्ते' | ५ अनुष्टुप् । ५ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्ध कोशेत्यपराह्नये 1 तम् । श्रीभीमसिंह प्रतीहारेण भेटितास्ते । उक्तो वीरधवलकृतः कार्पण्यव्यवहारः । तुष्टो भीमसिंहः । कृतं तदिष्टवृत्तिद्वैगुण्यम् । तैचोक्तम् - देव ! शीघ्रमेव कथापय वरिधवलाय अस्मद्बलेन, यथा-यदि क्षत्रियोऽसि तदा शीघ्रं युद्धायां गच्छेः; अन्यथा अस्मदीयो भूत्वा जीवेः । प्रेषितो भीमसिंहेन भट्टः । उक्तः समेत्य वीरधवलस्तत् । एवं श्रुत्वा वरिधवलः ससैन्यश्चलितः । भहं पुरः प्राहैषीत् । 'पञ्चमीमा 'ग्रे युद्धमावयोः । तत्र क्षेत्रं कारयन्नस्मि । शीघ्रमागच्छेरित्याद्याख्यापयत् । सोऽपि तत्र ग्रामे समेतः सैन्येन सबलः । सङ्घटिते सैन्यद्वयम् । वर्तन्तं भटानां सिंहनादाः । नृत्यन्ति पात्राणि । दीयन्ते धनानि । पूज्यन्ते शस्त्राणि । बध्यन्ते १० महावीराणां टोडराणि । त्रिदिनान्ते युद्धं प्रतिष्ठितम् । उत्कण्ठिता "योधाः । ' नेदीयानिह बाहूना - माहवो हि महामहः ' । सङ्ग्रामदिनादर्वाग् मन्त्रिवस्तुपाल - तेजःपालाभ्यां स्वामी विज्ञप्तः देव ! यो मारवाः सुभटास्त्वया न सङ्गृहीतास्ते परबले मिलिताः । तद्बलेन भीमसिंहों निर्भीर्गर्जति । इति अवधार्यम् । चरैरपि १५ निवेदितमेतन्नौ | राणकेनोक्तम्- यदस्ति तदस्तु किं भयम् ? | 'जयो वा मृत्युर्वा युधि भुजभृतां कः परिभवः ?' । मन्त्रिणा ज्यायसोक्तम्- स्वामिन् ! कार्मुककरे देवे के परे परोक्षा अपि ? | यदुक्तम् 1 : 2 - काल : केलिमलङ्करोतु करिणः क्रीडन्तु कान्तासखाः " कासारे बत कासराः सरभसं गर्जत्विह स्वेच्छया । अभ्यस्यन्तु मयोज्झिताश्च हरिणा भूयोऽपि झम्पागतिं कान्तारान्तरसञ्चरव्यसनवान् यावन्न कण्ठीरवः ॥ १ ॥ २१३ २० Y , १ घ- 'मटम्' । २ घ - 'प्रतीहारः भेटितः स उक्त' । ३ घ 'पतेः । " एवं श्रुत्वा' इत्यधिको ग-पाठः । ५ घ - 'ग्रामामा मे' । ६ • पूज्यन्ते • टोडराणि इत्यधिकः पाठो ग-पुस्तके वर्तते । ७ ग-योद्धाः । 'साका (कासा) रे कनकासरः । १० शार्दूल० 1 • मरुभूमिजाताः । ९ख Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ श्रीवस्तुपाल " कण्ठीरवे तु दृष्टे कुण्डाः सर्वे वन्याः । अन्यच्च - प्रभो ! अस्मदीपसैन्ये 'डोडीया' वंशीयो जेडुलः 'चौलुक्यः' सोमवर्मा 'गुलकुल्यः' क्षेत्रवर्माsस्ति | देवस्तु किं वर्ण्यते कल्यर्जुनः ? । एवं नातीसु बर्तमानासु द्वाःस्थ एस्य व्यजिज्ञपद् राणकम् - देव! पुरुष एको ५ द्वारि वोऽस्ति कस्तस्यादेश: ? । संज्ञया राणकस्तममोचयत् । मध्यममागत्य स उवाच --- देव ! सामन्तपाला - ऽनन्तपाल-त्रिलोकसिंहैस्त्यक्तैर्भीमसिंहमाथितैः कयापितमस्ति —देव ! त्रिभिर्लक्षैर्ये भटास्त्वया स्थापिता भवन्ति तैरात्मानं सम्यग् रक्षः । प्रातः कुमार्या आरेण्यां (?) त्वामेव प्रथमतममेष्यामः । इति श्रुत्वा १० हृष्टेन राणेन ससत्कारं स प्रैषि । कथापितं च-- एते वयमागता एव प्रातर्भवद्भिरपि ढोक्यम् । सर्वेषामपि तत्रैव ज्ञास्यते भुज सौष्ठवम् । गतः स तत्र । प्रातर्मिलितं च बलद्वयम् । वादितानि रणत्र्याणि । अङ्गेषु मटानां वर्माणि न ममुः । दत्तानि दानानि । तैस्तु त्रिभिर्मारवैरात्मीयं वर्षलभ्यं द्रव्यलक्षत्रयं भीमसिंहात् सो १५ लात्वार्थिभ्यो ददे । स्वयमश्वारूढाः । प्रवर्तन्ते प्रहाराः । उत्थितमान्ध्यं शस्त्रैः । पतन्ति शराः कृतान्तदूताभाः । आरूढं प्रहरमात्रमहः । सावधानो वीरधवलः । दत्तावधाना मन्त्रयादयस्तद्रक्षकाः । अत्रान्तरे आगतास्ते त्रयो मरुवीराः । भाषितः स्वमुखेन तैरधवलः - अयं देवः इमे वयम् सावधानीभूय रक्षात्मानम्, २० वयोधा अपि त्वां रक्षन्तु । वीरधवलेनाप्युक्तम्-किमत्र विकत्थध्वे क्रिययैव दो: स्थाम प्रकाश्यताम् । एवमुक्तिप्रत्युक्तौ लग्नं युद्धम् । यत्नपरेषु तटस्थेषु रक्षत्स्वपि तैर्भल्लत्रयं वीरधवलस्य भाले गितम् । एवं त्वां हन्मः परं एकं तब बीटकं तदा भक्षितमस्माभिरिति वदद्भिस्तैरेव श्रीवीरधवलस्य तटस्थाः प्रहरणैः पातिताः । २५ तेऽपि त्रयो मारवाः ब्रेणशतजर्जराङ्गाः सञ्जाताः । राजवरिधवलः I ૨૪ १ म 'लिङ्गितम् ' । २ क- ख - ' बातजर्जराः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः } प्रबन्धकोशेत्मपराह्वये ऊपरवटाsश्चात् पातितः । ऊपरवटस्तै मरिवैः स्योत्तार के बन्धितः प्रच्छन्नः । रजसाऽन्धं जगत् । तदा राजश्रीवीरधवलो भुवि पातितो भद्वैरुत्पाव्य लले । तावता पतिता सन्ध्या | निवृत्तं सैन्यद्वयम् । रात्रौ भीमसिंहीयाः सुभटाः सर्वेऽपि वदन्ति । अस्माभिर्वीरधवलः पातितः पातितः । ततो मारवैरभिहितम् - युष्माभिः पातित इति किमत्राभिज्ञानम् ? । तैरुक्तम्- किं भवद्भिः पातितः ? | मारवैरभिदधे - अस्माभिरेव पातितः । ऊपरवटो वदिष्यति । उत्तरकादानीय ऊपरवटो दर्शितः । तुष्टा भीमसिंहः । उक्तवांश्च 'शुद्धराजपुत्रेभ्यो दत्तं धनं शतधा फलति इदमेव प्रमाणम् | रिपुहयहरणं क्षत्रियाणां महान् शृङ्गारः । एवं वार्ताः १ कुर्वतां भटानां रात्रिर्गता । प्रातवीरधवलो व्रणजर्जरोऽपि पटूभूयाक्षान् 'दीवितुं प्रवृत्तः । भीमसिंह सैन्यहरिकैर्गत्वा तज्ज्ञात्वा तत्रोक्तम् - वीरधवलः कुशली गर्जति । एवं सति यज्जानीथ तत् कुरुथ | अथ भीमसिंहाय तन्मन्त्रिभिर्विज्ञप्तम्- देव ! अयं बद्धमूलो वेशेश: । अनेन विरोधो दुरायतिः, तस्मात् सन्धिः श्रेष्ठः । भीम- १५ "सिंहेन मानितं तद्वचनम्, परं सङ्ग्रामडम्बरः कृतः । अन्योन्यमपि यावद् मिलितौ द्वौ । तावद् भट्टैरन्तरा प्रविश्य मेलः कृतः । ऊपरवटा राणाय दापितः । भीमसिंहेन 'भद्रेश्वर 'मात्रेण धृतिधरणीया । चिरुदानि न पाठनीयानि । इति व्यवस्थाssसीत् । एवं कृत्वा श्रीवीरधवलो दानं तन्वन् 'धवलकक' मागात् । २० शनैः शनैः प्राप्तपरमप्राणो भीमसिंहमपराध्यं तं मूलादुच्छेय एकवीरां धरित्रीमकरोत् । एवं 'धवलकके' कुर्वतस्तस्य क्षुभितैः प्रभूतैः परराष्ट्रनृपतिभिः स्वं दत्तम् । तेन स्पेन सैन्यमेव मिलितम् । चतुर्दश शतानि महाकुलानि राजवंश्यानां राजपुत्राणां मेलितानि । २१५ १ ख- 'सिद्धराज' । २ क- 'देवितुं' - 'वेदितुं', ग कोडितुम् । ३ घ - 'सैन्य कै हैरिकै ०' । ४ ' एवं सति' इति ग-पुस्तकेऽधिकः पाठः । ५ क ख-घ - सेनेन मतं । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ वस्तुपाल तानि समभोजन - वसन - भोग- वाहनानि श्रीतेजःपालस्य सहचारिणी - छायावत् समजीवितमरणत्वेन स्थितानि । तद्बलेन सैन्यबलेन स्वभुजाबलेन च सर्व जीयते । 1 इतश्व 'महीतटा' ख्यदेशे 'गोधा (घरा) ' नाम नगरं वर्तते यंत्र ५ ततत्कार्येषु सङ्ग्रामे मृतानां राजपुत्राणां एकोत्तरशतसङ्ख्यानि स्वयं तु लिङ्गानि उदभूवन् । तत्र घूघुलो नाम मण्डलीकः । स 'गुर्जर 'धरासमागन्तुकसार्थान् गृह्णाति । राणश्रीवीरधवलस्याज्ञां न मन्यते । तस्मै मन्त्रिभ्यां वस्तुपाल- तेजःपालाभ्यां भट्टः प्रेषितः । अस्मत्प्रभोराज्ञां मन्यस्व, अन्यथा साङ्गण चामुण्डराजादीनां १० मध्ये मिल, इति कथापितम् । तच्छ्रवणात् क्रुद्धेन तेन तेनैव भट्टेन सह स्वभट्टः प्रस्थापितः । तेनागत्य राजश्रीवीरधवलाय कज्जलगृह शाटिका चेति द्वयं दत्तम् । उक्तं च--ममान्तःपुरं सर्वोऽपि राजलोक इति नः प्रभुणा ख्यापितमस्ति । राणेन स भट्टः सत्कृत्य प्रहित: गतः स्वस्थानम् । राणेन भाषिताः सर्वे निजभटाः । उक्तं च१५ घूघुलनिग्रहाय बीटक को ग्रहीष्यति ? । कोऽपि नाद्रियते । तदा तेजः पालेन गृहीतम् । चलितः प्रोढसैन्यपरिच्छदः । गतस्तद्देशादर्वाग्भागे । कियत्यामपि मुवि स्थित्वा सैन्यं कियदपि स्वल्पमये प्रास्थापयत् । स्वयं महति मेलापके गुप्तस्तस्थौ । अल्पन सैन्येना मे गत्वा 'गोध्रा 'गोकुलानि बालितानि । गोपालाः शरैस्ताडिताः । २० तैरन्त'र्गेधिकं' पूत्कृतम् - गात्रो हियन्ते वैश्चित् । क्षात्रं धर्मं पुरस्कृत्य ततो धावत धावत । इति शब्दे श्रुते घूघुलां विचिन्तयतिनवीनमिदम् | केनामपिमागत्य गावो हियन्ते ? | वृत्तिच्छेदविधौ द्विजातिमरणे स्वामिग्रहे गोग्रहे सम्प्राप्ते शरणे कलत्रहरणे मित्रापदां वारणे । १ ग-'गोधिरा'। २ 'यत्र' इत्यारभ्य 'उद्भूवन् पर्यन्तः पाठो नास्ति ग-पुस्तके | ३ ख-घ-'स्वे सर्वे । घूघूल० ' । ४ ख - 'गोकुलानि । ५ ग 'ध्यचिन्तयत्' । ६ 'पादर' इति भाषायाम् । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धक शेत्यपराह्नये भर्तत्राणपरायणैकमनसा येषां न शस्त्रग्रह - । स्तानालोक्य विलोकितुं मृगयते सूर्योऽपि सूर्यान्तरम् ॥१॥ इति वदन्नेव ससेनस्तुरङ्गमारूढो गतोऽनुपदं गोइर्तॄणाम् । गोइतीरोऽपि घूघुलाय दर्शनं ददते शरान् सन्दधते । न च स्थित्वा युध्यन्ते । इत्येवं खेदयद्भिस्तैस्तावन्नीतो घूघुलः यावन्मन्त्रि। णो महति वृन्दे प्रविष्टः । ततो ज्ञातमीदृशं छभेदं मन्त्रिणः । भवतु तावत्, घूघुलोऽस्मि । निजाः सुभटाः समराय प्रेरिताः । स्वयं सविशेषमभियोगं दधौ । ततो लग्नः संहर्तुम् । मन्त्रिपूतनाऽपि डुढौके । । चिरं रणरसभरोऽभूत् । भग्नं घूघुलेन मन्त्रिकटकं कान्दिशीक " दिशो दिशं गच्छति । तदा मन्त्रितेजःपालेन स्थिरं अश्व- १० स्थितेन तटस्थाः सप्तकुलीनाः शुद्धराजपुत्र ( भाषिता: अरिस्तावद् बली । आत्मीयं तु भग्नं सकलं बैलम् । नष्टानामस्माकं का गतिः । । किं यशः ? | यशो बिना जीवितव्यमपि नास्त्येव । तस्मात् कुर्मः समुचितम् । तैरपि सप्तभिस्तदूवचोऽभिमतम् । व्याघुटिताऽष्टौ घ्नन्ति नाराचादिभिः परसेनाम् । तावन्मात्रं स्ववृन्दं सङ्घटितं दृष्ट्वा अपरे ऽपि १५ सत्वं धृत्वा वलिताः । तदा तेजःपाल एकत्र निजांसेऽम्बिकादेवीं अपरत्र कपर्दियक्षं पश्यति । अतो जयं निश्चित्य 'प्रहरंस्ताबद् ययौ यावद् घूघुला । गत्वा भाषितः - मण्डलिक ! येनास्मन्नाथाय कज्जलगृहादि प्रहीयते तद् भुजबलं दर्शय । घूघुलोऽपि प्रत्याहइदं तद्भुजबलं पश्य । इत्युक्त्वा निबिडं युयुधे । द्वन्द्वयुद्धं मन्त्रि- २० मण्डलीकयोः सञ्जातम् । अथ मन्त्री सहसा दैवतबलभुजाबलाभ्यां तमश्वादपीपतत् । जीवन्तं बद्ध्वा काष्ठपञ्जरेऽचिक्षिपत् । स्वसेनान्तर्निनाय । स्वयं बहुपरिच्छदो 'गोधा' नगरं प्रविवेश । अष्टादश कोटी म्नां कोश, अश्वसहस्राणि चत्वारि, मूटकं शुद्धमुक्ताफलानी, प्रबन्धः" ] २१७ , १ शार्दूल० । २ ख-घ -' जातोऽनुपदी गो० । ३ ग 'मन्त्रिकटकेनापि । - 'दिशोर्दिशं' । ५ 'बलं' इमधिको ग-पाठः । ६ ख घ - ' प्रसरं । घ - 'स्व सैन्यान्त ० ' । चतुर्विंश•ि २८ ७ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૯ ५ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ श्रीवस्तुपाल दिव्यास्त्राणि दिव्यवस्त्राणि इत्यादि सबै जग्राह । घुघुलस्थाने आस्मीयं सेवकं न्यास्थत् । वलितो मन्त्री गतो 'धवलकक' म् । दर्शिता घूघूल श्री : श्री वीरधवलाय । तत्कज्जलगृहं तद्गले बद्धं शाटिका च वण्ठेः परिधापिता । तदा घूघूल: स्वजिह्वां दन्तैः खण्डयित्वा मृतः । जातं वर्द्धापनं 'धवलकके' । श्रीवीरधवलेन महत्यां सभायामाकार्य श्री तेजःपालः परिधापितः । प्रसादपदे' स्वर्ण भरि ददे । तदवसरे कवीश्वरसोमेश्वरे च दृक् सञ्चारिता श्रीवीरधवलेन । ततः सोमेश्वरदेवः प्राह--- मार्गे कर्दमर्दुस्तरे जलभृते गर्ताशतैराकुले खिन्ने शाकाटके भरेऽतिविषमे दूरं गते रोधसि । शब्देनैतदहं ब्रवीमि महता कृत्वोच्छ्रितां तर्जनी मीदृक्षे गहने विहाय धवलं वोढुं भरं कः क्षमः ॥ १२ ॥ * विसृष्टा सभा | मिलितौ वस्तुपाल - तेजःपालावेकत्र । कृताः कथाचिरम् । तुष्टौ द्वौ मन्त्रयेते स्म -- धर्मे एव धनमिदं पुण्यलब्धं व्यय१५ नीयम् । ततः सविशेषं तथैव कुरुतः । ततः कविना केनाप्यु क्तम् १० पन्थानमेको न कदापि गच्छेदिति स्मृतिप्रोक्तमिष स्मरन्तौ । तौ भ्रातरौ संसृतिमोहचौरे, सम्भूय धर्मेऽध्वनि सम्प्रवृत्तौ ॥१॥ अथ श्रीवस्तुपालः शुभे मुहूर्ते ' स्तम्भ' तीर्थं गतः । तत्र मि२० लितं चातुर्वर्ण्यम् । दानेन तोषितं सर्वम् । तत्र च सदीकनामा 'नौवित्तिको वसति । स च सर्ववेलाकूलेषु प्रसरमाणविभवो महाधनाढ्यः बद्धमूलः अधिकारिणं नन्तुं नायाति । प्रत्युत तत्पार्श्वेऽधिकारिणा गन्तव्यम् । एवं बहुः कालो गतः । पूर्वं मन्त्रन्द्रस्तं भट्टे १ घ - 'भूरि २ बहुसुवर्णं ददे' । २ घ - 'दुस्तरेऽतिविषमे' । ३ शाकटके[न] भरे च विषमे । शार्दूल० । ५ ख - 'मन्त्रयेत तस्माद् धर्मे' । ६ उपजातिः । ७ग'सैदनामा' ८ घ - 'वहाणवटी' इति भाषायाम् । ९ क-ख- 'स्तु' । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान प्रवन्धकोशेत्यपराये नोवाच-अस्मान् नन्तुं किमिति नागच्छसि ।। स प्रतिवक्तितव नवेयं रीतिः । प्रागपि नागच्छामि । यत् तु स्यान्न्यूनं तव तदा तत् प्रयामि स्थानस्थः । तच्छ्त्वा मन्त्री रुष्टः कथापयामास–पुरुषो भूत्वा तिष्ठेः । शास्मि त्वां दुर्विनीतम् । ततस्तेन 'वडू'आख्यवेलाकुलस्वामी राजपुत्रः पन्चाशद्वंशमध्यस्थखादिरमुशलस्य एकखंग- ५ प्रहारेण छेदने प्रभुः प्रभूतसैन्यत्वात् 'साहणसमुद्र' इति ख्यातः शहाख्य उत्यापितः । तेन 'भाणितं मन्त्रिणे--मन्त्रिन् ! मदीयमेकं नौवित्तकं न सहसे? । मदीयं "मित्रमसौ । तस्माद् वचनात् क्रुद्धो मन्त्री ते प्रत्यवोचत्-श्मशानवासी भूतेभ्यो न बिभेति । त्वमेव प्रगुणो भूत्वा युधि "तिष्ठेः । इति श्रुत्वा सन्नद्धबद्धो भूत्वा सोऽप्यागतः । १० मन्त्रिवस्तुपालोऽपि 'धवलक्कका'द् भूरि सैन्यमानाय्याभ्यषेणयत् । रणक्षेत्रे मिलितौ द्वौ । प्रारब्धं रणम् । शङ्खेन निर्दलितं मन्त्रिसैन्यं पलायिष्ट दिशो दिशि । तदा श्रीवस्तुपालेन खस्य राजपुत्रो माहेचकनामा भाषितः-इदं अस्मन्मूलघट्ट वर्तते त्वं च तसे । तत् कुरु येन श्रीवीरधवलो न लज्जते । ततोऽसौ राज- १५ पुत्रः स्वैरेव कतिपयैर्मित्रराजपुत्रैः सह तमभिगम्योवाच--शङ्ख! नेयं 'वडू'आख्या तव ग्रामटिका क्रीडा, क्षत्रियाणां स ग्रामोऽयम् । शङ्खोऽप्याह- सुष्ठ वक्तुं वेत्सि । नायं तव प्रभोः पट्टः, किल परिपन्थिनः प्रदेशः । किं नु सुभटस्य क्रीडाक्षेत्रमिदम् ।। इस्येवं वादे जाते द्वन्द्वरणे माहेचकेन मन्त्रिणि पश्यति मन्त्रिप्रता- २० पाच्छङ्खः पातितः । समरे जातो जयजयकारः । मन्त्रिणा तद्राज्यं गृहीतम् । 'वेला'कूलीनां क्व सङ्ख्याः । ततः 'स्तम्भ'तीर्थ १ ख-घ-स वक्ति-न न चेयं रीतिः'। २ ग-पुस्तके 'तदा' इत्यधिकः पाठः । ३ ख-घ-'खलेन छेदने'। क ख-भणित'। ५ 'ज्ञेयः' इत्यधिको ग-पाठः । ६ घ'प्रत्यवीवचत्' । ७ घ-'तिलेथाः । सन्नद्ध सः । मन्त्रि' ग-'मन्त्रिणा वस्तुपालेनापि'। ९ ग-घटुं त्वमेव वर्तसे । अथ तत्'। १० ग-'प्रामसीम आखेटकझोडा, किन्तु'। ११ ख-'कूलनृपनदीना । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० चतुर्विंशतिप्रबन्धे - २४ श्रीवस्तुपाल• मुत्तोरणमुत्पताकमविशत् । ततो मन्त्री प्रविष्टः 'सदीकसदनम् । तस्य भट्टान् सप्तद्विगुणितशतानि सन्नद्धान् हत्वा तं जीवमाहं जग्राह । विब्रुवाणं तं कृपाणेन जघान । ततो गृहं तदीयमा मूलचूल खानितं पातितं च । हेमेष्टिकानां सङ्ख्या न । तथा मणिमुक्ताफलपदकानां प्रमाणं केनापि न ज्ञातम् । केचिद् वृद्धा वदन्ति ---तत्र तेजनतूरिकायाः करण्डश्वटितः श्रीमन्त्री श्वरस्य । आयातो मन्त्री स्वधवलगृहम् । तोषितः स्वस्वामी वीरः परिग्रहलोकश्च । ततः कवीश्वराणां स्तुति: श्रीवस्तुपाल ! प्रतिपक्षकाल !, त्वया प्रपेदे पुरुषोत्तमत्वम् । १० तीरेऽपि वार्धेरकृतेऽपि मास्ये, रूपे पराजीयत येन शङ्खः ॥ १ ॥ तावल्लीला कवलितसरित् तावदभ्रंलिहोर्मिं- स्तावत् तीव्रध्वनितमुखरस्तावदज्ञातसीमा । तावत् प्रेङ्खत्कमठमकरव्यूहबन्धुः ससिन्धु -- लोपामुद्रासहचरक रोडवत न यावत् ॥ १ ॥ १५ ततश्चक्षवाटि - नौवित्तिकवाटयोः पार्थक्यं कृतम् । मन्त्रिणा आ महाराष्ट्रेभ्यः साधिता भूः । ' वेला ' कूलीयनरेन्द्राणां नरेन्द्रान्तराक्रम्यमाणानां मन्त्री प्रतिग्रहप्रेषणेन सान्निध्यं कृत्वा जयश्रियं अर्पयति । इति कारणात् ते तुष्टाः बोहित्थानि सारवस्तुपूर्णानि प्राभृ विन्ति । अम्बिका - कपर्दिनौ निधानभुवं रात्रौ समागत्य २० कथयतः । ते निधयो मन्त्रिणा खातं खातं गृह्यन्ते । तद्भाग्यात् दुर्भिक्षस्य नामापि नाभूत् । विवराणि दूरे नष्टानि । मुद्गलबलानि वारंवार मागच्छन्ति जघ्निरे एकदा, पुनर्नानयुः । पल्लीवनेषु दुकूलानि नागोदराणि च बद्धानि । ग्रहीता कोऽपि न । ग्रामे प्रामे १ ग - सैदसदनम् । २ ख - घ 'खातं' । ३ घ - 'लोकश्च दर्शनमविप्रलोकश्च । ततः स्तुति:' । ४ उपजातिः । ५ ख - 'वक्त्री' । ६ मन्दाक्रान्ता । ७ नावः । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः प्रबन्धकोशेत्यपरालये मण्डितानि सत्राणि । सत्रे सत्रे मिष्टान्नानि । उपरि ताम्बूलानि च । तत्र ग्लानार्थ वैद्या विविधाः प्रस्थापिताः । मन्त्रिव्यवस्थया दर्शनद्वेषो न । वर्णद्वेषो न । प्रतिवर्ष स्वदेशे सर्वनगरेषु वारतिनस्तिस्रः श्वेताम्बरेभ्यः प्रतिलाभना शेषदर्शनानामप्यर्चा । मन्त्रि श्रीवस्तुपालस्य पत्न्यौ द्वे ललितादेवि(वी)-सोधूनाम्न्यौ कल्पवल्लिकामधेनू इव । ललि- ५ तादेव्याः सुतो मन्त्रिजयन्तसिंहः सूहवदेवि(वी)जानिः प्रत्यक्षचिन्तामणिः । तेजःपालदयिताऽनुपमाऽनुपमैव । पठितं च काविना-- लक्ष्मीश्चला शिवा चण्डी, शंची सापल्यदूषिता । गङ्गा न्यग्गामिनी वाणी, वाक्साराऽनुपमा ततैः ॥ १॥ श्री'शत्रुञ्जया'दिषु 'नन्दीश्वरेन्द्रमण्डपप्रभृतिकर्मस्थायाः प्रारम्भि- १० षत । आरासणादिदलिकानि स्थलपथेन जलपथेन च तत्र तत्र प्राप्यन्ते । तपसामुद्यापनानां च प्रकाशः । ___ एकदा तौ भ्रातरौ द्वावपि मन्त्रिपुरन्दरौ महर्द्धिसधोपेतौ श्रीपार्श्व नन्तुं 'स्तम्भनक'पुरमीयतुः । प्रथमदिने ससधौ तौ श्रीपार्श्वस्य पुरः श्रावकश्रेणिपुरःसरौ स्थितौ । तदा गीतगान- १५ रासादिमहारसः प्रवर्तते । तदवसरे तत्रस्यसङ्घोपरोधात् तत्रल्याध्यक्षाः सूरयो मल्लवादिनः समाकारिताः । ते यावद् देवगृहं प्रविशन्ति तावत् पेठन्ति___ अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारङ्गलोचनाः । मन्त्रिभ्यां श्रुतं चिन्तितं च–अहो मठपतिगृहवद् देवगृहेऽपि २० शृङ्गाराङ्गारगर्भ पैदद्वयं कथयन्नस्तीति । देवनमस्कारादिकमुचितमिह तन्नाधीते; तस्माददृष्टव्योऽसौ । उपविष्टः सूरिः सः । अन्येऽपि सूरयः शतशः पङ्क्तौ निषण्णाः । मङ्गलदीपान्तेऽपरसूरिभिर्मल्लवादिन एवाऽऽशीर्वादाय प्रेरिताः । मन्त्री पुरस्तिष्ठति । 'अस्मिन्नसारे संसारे सारं' इत्यादि पादद्वयं भाणितं तैः व्याख्यातं च तदेव। २५ १ घ-'ताम्बूलानि वैद्याः दर्शन.'१२ घ-'सची। ३ क-गतः। ४ अनुष्टुप् । ५ ग-'तैरेव पठितम्' । ६ ख-'पधं प्रस्तौति' । ७ ग-'तत् किं ना.'। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार्विशतिप्रवन्धे [१४ श्रीवस्तुपाकमन्त्री हस्तेन वन्दित्वा विरक्तो गतः स्वोत्तारकम् । एवं दिनाः पद्यापाठश्च । मन्त्र्यवज्ञा चारोहत् प्रकर्षे । अष्टम्या रात्री मन्त्री मुत्फलापनिकां कर्तुं देवरङ्गमण्डपे निविष्टः । पुरो धनबदरकाणां राशयः । कोऽपि कविराह-- श्रीवस्तुपाल ! तव भालतले जिनाज्ञा __ वाणी मुखे हृदि कृपा करपल्लवे श्रीः । देहे द्युतिर्विलसतीति रुषेब कीर्तिः __ पैतामहं सपदि धाम जगाम नाम ॥१॥ अपरस्तुअनिस्सरन्तीमपि गेहगर्भात् , कीर्ति परेषामसती वदन्ति । स्वैरं भ्रमन्तीमपि वस्तुपाल!, त्वत्कीर्तिमाः कवयः सतीं तु ।२।' इतरस्तुसेयं समुद्रवसना तव दानकीर्तिः पूरोत्तरीयपिहितावयवा समन्तात् । अद्यापि कर्णविकलेति न लक्ष्यते यत् तन्नाद्भुतं सचिवपुङ्गव ! वस्तुपाल! ॥३॥ 'कश्चित् तुक्रमेण मन्दीकृतकर्णशक्तिः, प्रकाशयन्ती च बलिस्वभावम् । कैर्नानुभूता सशिरःप्रकम्पं,जरेव दत्तिस्तव वस्तुपाल!॥४॥ तेभ्यः कविभ्यः सहस्रलक्षाणि ददिरे । एवं गायनभट्टादिभ्योऽपि। यावज्जातं प्रातरेव तदा मल्लवादिभिः स्वसेवकाचैत्यद्वारद्वयेऽपि नियुक्ताः । एकं द्वारं अन्यदिशि एकं च मठदिशि । उक्तं च तेभ्यःमन्त्री चैत्यान्निःसरन् ज्ञापनीयः । क्षणेन वस्तुपालो मठद्वारान्निर्गच्छति यावत् तावता सेवकज्ञापिताः सूरयः समागत्य सम्मुखाः १ ग-'पाठश्चके नवनवभङ्ग्या व्याख्यातः । अष्ट.' । २ वसन्त । ३ उपजातिः। र बसन्तः। ५ग-'पुनः कश्चिदुचुः'। ६ उपजातिः। ७ ग-'चास्ति Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोशेत्यपराये २५॥ स्थिताः । मन्त्रिणा रीढया भ्रूप्रणाम इव कृतः । आचार भिहितम् दूरे कर्णरसायनं निकटतस्तृष्णाऽपि नो शाम्यति । विजीयताम् । तीर्थानि पूज्यन्ताम् । मन्त्री कौतुकात् तथैव तस्थौ, किंपर्यवसानेयं प्रस्तावनेति ध्यानात् । ऊचे च-न विमः परमार्थ किमेतदभिधचे । आचार्यैरुक्तम्-पुरो गम्यतां गम्यताम् । भवतां ५ कार्याणि भूयांसि । मन्त्री सविशेष पृच्छति । सूरयो वदन्तिसचिवेन्द्र ! श्रूयताम्_ 'मरु'ग्रामे कचित् प्रामाराः स्थूलबहुला लोमशाः पशवो वसन्ति । पर्षदि निषीदान्त । कपोलझल्लरी वादयन्ति । तत्रैकदा 'वेला'क्लीयचरः पान्थ आगमत् । नवीन इति कृत्वा ग्राम्यैराहूतः। १० पृष्टः-त्वं कः ? क्वत्यः । तेनोक्तम्-अहं समुद्रतटेऽवासम्। पान्थः पुरो यामि । तैः पृष्टम्-समुद्रः केन खानितः ।। तेनोचे-स्वयम्भूः । पुनस्तैः पृष्टम्-कियान् सः ? । पान्थेनोक्तम्अलग्धपारः । किं तत्रौस्ति इति पृष्टे पुनस्तेनाचख्ये प्रावाणो मणयो हरिर्जलचरो लक्ष्मीः पयोमानुषी मुक्तौघाः सिकताः प्रवाललतिकाः सेवालमभ्भः सुधा । तीरे कल्पमहीरुहाः किमपरं नाम्नाऽपि रत्नाकरः' इति पादत्रयं पठित्वा व्याख्याय पुरो गतः पान्थः । तेषु प्राम्येध्वेकः सकौतुकः पृच्छं पृच्छं समुद्रतटमगात् । दृष्टः कल्लोलमालाचुम्बितगगनानः समुद्रः । तुष्टः सः । अचिन्तयश्च-इतो ऋद्धयः २० सर्वा लप्स्यन्ते । प्रथमं तृषितः सलिलं पिबामि । इति गत्वा पीतं तत् । दग्धः कोष्ठः । ततः पठति इति.. दूरे कर्णरसायनं निकटतस्तृष्णाऽपि नो शाम्यति । .. "ग-'प्रभुप्रणाम' । २ ग-हावभी (?) । ३ क-तत्रास्ते' । ४ शार्दूल• । ५ग-शेन । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ श्रीवस्तुपाल --- विरा ( रा ) जहिं जणु पियइ घुट्टु घुट्टु चुल्लएहिं । .. सायरि अत्थि बहुतुं जल छइ खारं किं तेण ? ॥१॥ तैरेव पदैर्नष्टः स्वास्पदं गतः । तथा वयमपि स्मः । मन्त्रिणोक्तम् - कथं तथा यूयं यथा स ग्राम्यः ? | सूरयस्तारमूचुः - महामात्य ! वयमत्र श्रीपार्श्वनाथसेवकाः त्रैविद्यविदः सर्वर्धयः अत्रस्थाः शृणुमः, यथा – 'धवलक्कके' श्रीवस्तुपालो मन्त्री सरस्वतीकण्ठाभरणी भारतीप्रतिपन्नपुत्रो विद्वज्जनमधुकरसहकारः सारासारविचारवेधास्ते । इति तदुत्कण्ठितास्तत्रागन्तुम् । ईश्वरत्वाच्च न गच्छामः कापि । पुनश्चिन्तितं च कदाचिदत्र तर्थिनत्यै एतात्र १० मन्त्री । तस्य पुरो वक्ष्यामः स्वैरं सूक्तानि । इति ध्यायतामस्माकं मन्त्रिमिश्रा अत्रागताः । यावत् पठ्यते किमपि तावदसत्सम्भावनया - वज्ञापरा यूयं स्थिताः । ततः किं पठ्यते ? । गच्छत गच्छत; उत्सूरं भवति । मन्त्री प्राह- मैम मन्तुः क्षम्यतां किमेतत् पठितुमारेभे भवद्भिः ? । आचार्या जगदुः - देव ! यदा युवां बान्धवौ श्रावक श्रेण्य १५ राजराजेश्वरौ दिव्यभूषणौ श्रावकाश्च धनाढ्या दृष्टाः गतायुच्छ्रयश्व तदा एतन्नश्चित्ते बभूव - जगति स्त्रीजातिरेव धन्या यद्गर्भे जिनचक्रर्यचकिनल-कर्ण- युधिष्ठिर विक्रम-सातवाहनादयो जाताः । सम्प्रत्यपि ईदृशाः सन्ति । तस्मात् श्रीसाम्य - श्री शान्ति ब्रह्मनागआमदत्त-नागडवंश्य श्री आभूनन्दिनी कुमारा देवी श्लाघ्या २० यया एतौ कलियुग महान्धकारमज्जज्जिनधर्मप्रकाशनप्रदीपो ईदृशौ नन्दनौ जातौ । इत्येवं चिन्तयतामस्माकं पद्यपादद्वयं वदनादुद् गतम् | जिननमस्कारादि विस्मृतम् । पश्चार्द्ध तु शृणुत । यस्कुक्षिप्रभवा एते वस्तुपाल ! भवादृशाः ॥ १ ॥ I 3 १ छाया - वरं लघुजलप्रवाह: (१) यत्र जनः पिबति घुट्ट घुट्ट्ट (सहर्ष) चुलकैः । सागरेऽस्ति बहु जलमस्ति क्षारं किं तेन ? ॥ २ ग - पुस्तके 'अवस्था' इत्यधिकः पाठः । ३ घ 'अभ्यागताः । ४ ग 'ममापराधः ' । ५ क - प्रकाशप्रदीप । ६ अनुष्टुप् । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध j प्रबन्धकोशेत्यपरावये २२५ सविस्तरतरं व्याख्यानं कृतम् । लज्जितः सचिवेन्द्रः । पादोलगित्वा सूरीन् क्षमयित्वा 'चलितः । क्रोशान्ते ग्राम एक आगात् । तत्र नातभुक्तविलिप्तः । तदनु स्वभृत्य सचिवमेकमाकार्य आदिक्षत् । इयं वाहिनी हेमसहस्रदशबदरकयुक् सूरिभ्यो मठे देया । गतो मन्त्रिसेवकस्तत्र । भाषिताः सूरयः । मन्त्रिदत्तमिदमवधार्यताम् । ५ आचार्यैर्दृष्टम् । अश्वमारुह्य भटशतोलालितकृपाणजलप्लावितरवास्तत्र गताः यत्र श्रीवस्तुपालः । उदितश्च तैः-मन्त्रिान् ! किमहमुचितभाषी ? किं चारणः ? किं वा बन्दी ? किं नु सर्वसिद्धान्तपारगः सम्यग् जैनसूरिः ? । मया मनःप्रमोदेन यद् 'व उपश्लोकनमुक्तं तन्मूल्यभूतामिमां वो दत्तिं कथं गृह्णामि । न मयेदं बित्ताया- १० भिहितम् । किन्विदं अन्तर्मनस थ्यात्वा भणितं यथाऽद्यापि जयति जिनपतिमतम् । मन्त्री प्राह-भवन्तो निःस्पृहत्वाम्न गृह्णन्ति । वयं तु दत्तत्यान्न प्रतिगृह्णीमः । तर्हि कथमनेन हेम्ना भवितव्यमिति शिक्षा दत्त । ततः सूरिभिर्जगदे जगदेकदानी मन्त्री-स्वगृहाय सम्प्रति गंस्यते भवद्भिस्तीर्थाय कस्मैचिद् वा ? । मन्त्री आह-प्रभो ! १५ 'भृगुपुरं' श्रीसुव्रततीर्थवन्दनार्थं गच्छन्तः स्मः । आचार्याः प्राहुः-- तर्हि लब्ध इदंहेमव्ययोपायः । तत्र लेप्यमयी प्रतिमाऽऽस्ते । तत्र स्नात्रसुखासिका ने पूर्यते श्रावकाणाम् । तस्मादनेन हेममयीं स्नात्रप्रतिमा निर्मापयत । मन्त्रिणो ध्वनितं मनः । तत् तथैव च कृतम् । ततः समायातः स्वसदनं 'गुर्जर'मन्त्री । २० अन्येधुरादर्शे प्रातर्वदनं पश्यता सचिवेन पलितमेकमालोकि अपाठि । अधीता न कला काचित् , न च किञ्चित् कृतं तपः । १ 'चलितः' इत्यधिको ग-पाठः। २ युष्माकम् । ३ 'तीर्थकद्वारकसरणं एवंविधः पुरुषरत्नैः धन' इत्यधिको ग- पाठः। ग- 'दानवीर । मन्त्रिन् !'। ५ घ-निपूर्यते' । ६ स्व-घगर्जरेन्द्रमन्त्री' । चतुर्विशतिः ३९ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्षिशतिप्रवन्धे [२४ भौवतुपाठदत्तं न किश्चित् पात्रेभ्यो, गतं च मधुरं वयः ॥१॥ भायुयॊवनवित्तेषु, स्मृतिशेषेषु या मतिः । सैव चेज्जायते पूर्व, न दूरे परमं पदम् ॥२॥ आरोहन्ती शिरःस्वान्ता-दौन्नत्यं तनुते जरा । शिरसः स्वान्तमायान्ती, दिशते नीचतां पुनः ॥३॥' लोकः पृच्छति मे वार्ता, शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्माक-मायुर्याति दिने दिने ॥४॥ ततोऽधिकं जिनधर्मे रेमे । __ अयैकदा द्वावपि भ्रातरौ राणश्रीवीरधवलं व्यजिज्ञपताम्१० देव ! देवपादैरियं 'गूर्जर'धरा साधिता, राष्ट्रान्तराणि करदानि कृतानि; यद्यादेशः स्यात् तदा राज्याभिषेकोत्सवः क्रियते । राणकेनोक्तम्-मन्त्रिणौ ! ऋजू भक्तिजौ युवाम् । __ अजित्वा सार्णवामुर्वी-मनिष्ट्वा विविधैर्मखैः । अदत्त्वा चार्थमर्थिभ्यो, भवेयं पार्थिवः कथम् ! ॥१॥ १५ ततो राणकमात्रत्वमेवास्तु । इत्युक्त्वा व्यसृजत् तौ । एकदा मन्त्रिभ्यां श्रीसोमेश्वरादिकविभ्यो विपुला वृत्तिः कृता भूम्यादिदानैः । ततः पठितं सोमेश्वरेण-- सूत्रे वृत्तिः कृता पूर्व, दुर्गसिंहेन धीमता । विसूत्रे तु कृताऽस्माकं, वस्तुपालेन मन्त्रिणा ॥१॥ २० श्रीवीरधवलोऽपि सेवकान् सुष्ठ पदवीमारोपयन् जगत्प्रियोऽभूत् । किमुच्यते तस्य । पश्यत पश्यत श्रीवीरधवलो ग्रीष्मे चन्द्रशालायां सुप्तोऽस्ति । वण्ठश्चरणौ चम्पयत्येकः । राणकः पटीपिहितवदनो जाग्रदपि वण्ठेन सुप्तो मेने । ततश्च रणागुलिस्था रत्नाङ्का मुद्रा जगृहे । मुखे च चिक्षिपे । 'राणेन किमपि २५ नोक्तम् । उस्थितो राणः । भाण्डागारिकपार्थाद् गृहीत्वाऽन्या मुद्रा -माप । गराणकेन । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रवन्धकोशेत्यपराये तादृगेव पादाङ्गुलौ स्थापिता । द्वितीयदिने पुनः राणस्तत्रैव चन्द्रशालायां प्रसुप्तः । वण्ठश्वरणौ चम्पयति । राणकस्तथैव पटीस्थगितवदनोऽस्ति । वण्ठः पुनः पुनः मुद्रामालोकते । अहो प्राक्तनी चेयम् । ततो राणेन्द्रः प्राह - भो वण्ठ ! इमां तु मुद्रां मा प्रहीः; या कल्ये गृहीता सा गृहीता । एतद्वचनाकर्णन एव वण्ठो भीत्या वज्राइत इवास्थात् । यतः- हसन्नपि नृपो हन्ति, मानयन्नपि दुर्जनः । स्पृशन्नपि गजो हन्ति, जिघ्रन्नपि भुजङ्गमः ॥ १ ॥ ' तां तस्य दीनतां दृष्ट्वा 'राणेन भणितम् - वत्स ! मा भैषीः । अस्माकमेवायं कार्पण्यजो दोषो येन तेऽल्पा वृत्तिः । इच्छा न पूर्यते । १ ततो बहृपाये चौर्ये बुद्धिः । अतः परं हृय आरोहाय दीयमानोऽस्ति, लक्षार्धं वृत्तौ । इत्याश्वासितः सः । अतो वरिधवलः क्षमापरत्वाज्जगद्वल्लभः सेवकसदाफलत्वेम पप्रथे । स सहज दयाई इति कारणान्मन्त्रिभ्यां रहः कथान्तरे 'शान्ति'पर्वणि द्वैपायनो भीष्मयुधिष्ठिरोपदेशद्वारायातं द्वैपायनोत- १५ द्वात्रिंशदधिकारमयेतिहासशास्त्रीयाष्टाविंशाधिकारस्थं शिवपुराणमध्यगतं च मांसपरिहारं व्याख्याय व्याख्याय प्रायो मांस-मद्य-मृगयाविमुखकृतः । पुनर्मलधारि' श्रीदेवप्रभसूरिसविधे व्याख्या श्राव श्रावं सविशेषं तेन तत्वपरिमलितमतिर्विरचितः । अन्येद्युर्वस्तुपाला मुहूर्ते विमृशति - यद्यईयात्रा विस्तरेण २० क्रियते तदा श्रीः फलवती भवेत् । वैचयित्वा जनानेतान् सुकृतं गृह्यते श्रिया । 3 ५ तत्त्वतो गृह्यते येन स तु धूर्तधुरन्धरः ॥ १ ॥ " १ ग- पुस्तकें ' स एव ' इत्यधिकम् । २ अमुष्टुप् । ३ ग ' राणकेन । ग- पुस्तके तु पद्यमिदम् - 'श्रीणां स्त्रीणां च ये वश्या - स्तेऽवश्यं पुरुषाधमाः । श्रियः श्रियम यद्वश्या - स्तेऽवश्यं पुरुषोत्तमाः ॥ १॥' ५ अनुष्टुप् । હ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ श्रीवस्तुपाल " नृपव्यापारपापेभ्यः, सुकृतं स्वीकृतं न यैः । तान् धूलिधावकेभ्योऽपि मन्ये मूढतरान् नरान् ॥ २ ॥ इत्यादि विमृश्य तेजःपालेन नित्यभक्तेन साम्मत्यं कृत्वा 'मलधारि ' श्रीनरचन्द्रसूरिपादानपृच्छत् - भगवन् ! या मे चिन्ताऽधुना सा ५ निष्प्रत्यूहं सेत्स्यति ? | प्रभुभिः शास्त्रज्ञकिरीटैरुक्तम्-- जिनयात्राचिन्ता वर्तते सा सेत्स्यति । वस्तुपालेन गदितम् - तर्हि देवालये 'वासनिक्षेपः क्रियताम् । श्रीनरचन्द्रसूरयः प्राहु:- मन्त्रीश ! वयं ते मातृपक्षे गुरवः, न पितृपक्षे । पितृपक्षे तु 'नागेन्द्र'गच्छीयाः श्रीअमरचन्द्रसूरि श्री माहेन्द्रसूरिपदे श्रीविजयसेनसूरय उदय१० प्रभसूरसञ्ज्ञकशिष्ययुजो विशालगन्छाः 'पीलूआई' देशे बर्तन्ते ते वासनिक्षेपं कुर्वन्तु, परं न वयम् । यदुक्तम्ज जस्स ठिई जा जस्स संतई पुब्वपुरिसकयमेरा | कंठट्टिए वि जीए सा तेण न लंघियव्व त्ति ॥ १ ॥ * अथ मन्त्रयाह - अस्माभिर्भवदन्तिके त्रैविद्यषडावश्यक कर्मप्रकृत्या१५ अधीतम् । यूयमेव गुरवः । प्रभुभिरुक्तम् - नैवं वाच्यम्, लोभपिशाचप्रवेशप्रसङ्गात् । ततो मन्त्रिभ्यां 'मरु' देशाद् गुरवः शीघ्रमानायिताः । मुहूर्त प्रतिष्ठादेवालय प्रस्थापनं वासनिक्षेपणं कुलगुरुभिः कृतम् । साधर्मिक वात्सल्यं शान्तिकं मारिवारणं स्वामिपूजनं लेोकरञ्जनं चैत्यपरिपाटीपर्यटनं च विहितम् । अथ प्रतिलाभना । तत्र २० मिलिताः कवीश्वराः नरेश्वराः सङ्घेश्वराः । दत्तानि कौशेय-कटककुण्डल - हारादीनि लोकेभ्यः । यतिपतिभ्यस्तु तदुचितानि वस्त्रकम्बल-भोज्यादीनि । तद। श्रीनरचन्द्रसूरिभिः सङ्घानुज्ञातैर्व्याख्या कृता । २२८ १ अनुष्टुप् । २ ग - 'वासक्षेप : ' । ३ छाया-या यस्य स्थितियां यस्य सन्ततिः पूर्वपुरुषकता मर्यादा । कण्ठस्थितेऽपि जीवे सा तेन न लङ्घितव्येति ॥ ५ ग - 'कौशवकटक०' । ४ आर्या । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये : चौलुक्यः परमार्हतो नृपशतस्वामी जिनेन्द्राज्ञया निर्ग्रन्थाय जनाय दानमनघं न प्राप जानन्नपि । स प्राप्तस्त्रिदिवं स्वचारचरितैः सत्पात्रदानेच्छया त्वद्रूपोऽवतार 'गुर्जर' भुवि श्रीवस्तुपालम् ॥१ ध्वनितः सङ्घः । अथ चलितः सुशकुनैः ससङ्घो मन्त्री । मार्गे सप्तक्षेत्र युद्धरम् श्री वर्धमान' पुरासन्नमावासितः । 'वर्धमान' पुरमध्ये तदा बहुजनमान्यः श्रीमान् रत्ननामा श्रावको वसति । तद्गृहे दक्षिणावर्तः शङ्खः पूज्यते । स रात्रौ करण्डान्निर्गत्य स्निग्धगम्भीरं घुमघुमायते नृत्यति च । तत्प्रभावात् तस्य गृहे चतुरङ्गा लक्ष्मीः । शङ्खेन रात्रौ रत्न आलेपे - तव गृहेऽहं चिरमस्थाम् । १० इदानीं तव पुण्यमल्पम् । मां श्रविस्तुपालपुरुषोत्तमकरपङ्कजप्रणयिनं कुरु । सत्पात्रे मद्दानात् त्वमपीह परत्र च सुखी भवेः । व्यक्त तज्ज्ञात्वा रत्नो विपुलसामग्न्याऽभिमुखो गत्वा मन्त्रीशं ससङ्घ निमन्त्र्य स्वगृहे बहुपरिकरं भोजयित्वा परिधाप्योचे - एवमेवं शखादेशो मे । गृहाणमम् । मन्त्रयाह-न वयं परधनार्थिनः । १५ पिशुना सत्तां ज्ञात्वा तं ग्रहीष्यति स्वयं मन्त्री, तस्मात् स्वयमेव ददामीत्यपि मा शङ्किष्ठाः, निलभत्वादस्माकमस्मत्प्रभूणां च । इत्युक्त्वा विरते मन्त्रिणि रत्नेन गदितम् - देव ! मद्गृहावस्थानमस्मै न रोचते । ततः किं क्रियते ? गृहाणैव । ततो गृहीतो मन्त्रिणा शङ्खः । तत्प्रभावोऽनन्तः । शनैः शनैः सङ्घः श्रीश- २० ञ्जय' तेलकामा । तत्र ललितासरः प्रासादादिकीर्तनानि पश्यन् प्रमुदितः ससङ्घः सचिवः । आरूढः 'शत्रुञ्जया' दिं विवेकं च भावं च । तत्र मन्त्री प्रथमं ऋषभं वन्दते । तदा काव्यपाठः 3 शार्दूल० । २ - गेहूं ४ ग - 'भव तस्याभिप्रायं व्यक्त' । प्राप्तः । " -- २२९ । ३ ख - ' घुमुधुमा०', घ-' घुलघुमा० । ५ 'तळेदी' इति भाषायाम् । ६ ग - 'हट्टिका Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [२४ भीमस्तुपाक आस्यं कस्य न वीक्षितं ? क न कृता सेवा ! न के वा स्तुताः ! तृष्णापूरपराहतेन विहिता केषां च नाभ्यर्थना ! | तत् त्रात' र्विमला' द्विनन्दनवना कल्यैककल्पदुम | स्वामासाद्य कदा कदर्थनमिदं भूयोऽपि नाहं सहे ॥ १ ॥ अथावारित सत्र मेरुध्वजारोपणेन्द्रपदार्थिरञ्जनादीनि कर्तव्यानि विहि तानि । देवेभ्यो हैमानि आरात्रिक- तिलकादीनि दत्तानि । कुकुमकर्पूरा-गुरु-मृगमद-चन्दन- कुसम परिमैल मिलदलि कुलशङ्कारभारपूरितमिव गगनमभवत् । गीतरासध्वनिभिर्दिक्कुहराणि अश्रियन्त । पूर्वं मन्त्रिश्रीउदयनदत्ता देवदायाः सर्वेऽपि सविशेषाः १० कृताः । देवद्रव्यनाशनिषेधार्थं चत्वारि श्रावककुलानि अदौ मुक्तानि । अनुपमा दानाधिकारिणी । तस्याः साधुभ्यो दानानि ददत्याः किल महति वृन्दे पतता घृतकडहट्टकेन क्षौमाण्यभ्युक्तानि । तदा याष्टिकेन कडहट्टभृते साधवे यष्टिप्रहारलेशो दत्तः । मन्त्रिण्या देशनिर्वासनं समादिष्टम् । भणितं च-रे न वेत्सि यद्यहं तैलिकपनी १५ कान्दविकपत्नी वा भविष्यं तदा प्रतिपदं तैलघृताभिष्वङ्गान्मलिनान्येव वासांस्यभविष्यन् । एवं तु वस्त्राभ्यङ्गो भाग्यलभ्यः दर्शनप्रसादादेव स्यात् । य इदं न मन्यते तेन नः कार्यमेव न । इत्युक्तं च । अहो दर्शन भक्तिरिति ध्वनितं सर्वम् । एकदा मन्त्रीश्वरो नाभेयपुर आरात्रिके स्थितोऽस्ति दिव्यधवल२० यासाश्चान्दन तिलको दिव्यपदकहारभूषितोरस्थलः | सूरीणां कवीनां श्रावक श्राविकाणां च नैतिः । तिलकं तिलकोपरि । पुष्पत्रक् पुष्पस्रगुपरि । तदा सूत्रधारेणैकेन दारवी कुमारदेव्या मातुर्मूर्त्तिर्महन्त(?)काय नवीन घटिता दृष्टौ कृता । उक्तं च तेन-मातुर्मूर्त्तिरियम् । तदा मन्त्री श्वरेणाशिखानखं दृष्टा मूर्तिः । दृष्ट्वा च २३० १ म 'ब्रुम-', घ 'द्रुमः' । २ शार्दूल० । ३ ग - आभरणानि तिलका ० ' । नघ- ' मलदलि० । ५ ' कृताऽस्ति' इत्यधिको ग-पाठः । ६ घ - 'कान्दविका वा' । ७ - 'मतः । • काष्ठमयी । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धा] प्रबन्धकोशेत्यपराइये रुदितं प्रथममश्रुमात्रं, ततोऽव्यक्त इतरो ध्वनिः, ततो व्यक्ततरः । सर्वे तटस्थाः पृच्छन्ति-देव ! किं कारणं रुयते ! ! हर्षस्थाने को विषादः ? । श्रुतशील इव नलस्य, उद्धव इव विष्णो:, अभय इव भेणिकस्य, कल्पक इव नन्दस्य, जाम्बक इव वनराजस्य, विद्याधर इव जयन्तराजस्य, आलिग इव ५ सिद्धराजस्य, उदयन इव कुमारपालस्य त्वं मन्त्री वीरधवलस्य । विपद्धीताः पर्वता इव सागरं त्वामाश्रयन्ति भूपाः। तायेणेव पनगास्त्वया हताः सपत्नाः पृथिवीपालाः । चन्द्राय इव चकोरास्तुभ्यं स्पृहयन्ति स्वजनाः। हिमवत इव गङ्गा त्वत्प्रभवति राजनीतिः । भानोरिव पास्तवोदयमीहन्ते सूरयः । १० विष्णाविव त्वयि रमते श्रीः । तन्नास्ति यन्नास्ति ते । एवं सति किमर्थ दुःखं ध्रियते ! । ततो मन्त्रिणोक्तम्-इदं दुःख पन्मे भाग्य सङ्घाधिपत्यादिविभूतिर्मात्मरणादनन्तरं सम्पन्ना, यदि तु सा मे माता इदानीं स्यात् तदा खहस्तेन मङ्गलानि कुर्वल्यास्तस्या मम च मङ्गलानि कारयतः पश्यतश्च लोकस्य कियत् सुखं भवेत् ! । परं १५ किं कुर्मः ? । धात्रा इताः स्मः, एकैकन्यूनीकरणेन । ततः श्रीनरचन्द्रसूरिभिर्मलधारि'भिरभिहतम्-मन्त्रीश्वर! यथा स्वं सचिवेषु तथाऽत्र देशे प्रधानराजसु सिद्धराजो 'व्यजीयत । स मालवेन्द्र जित्वा 'पत्तन'मागतो मङ्गलेषु क्रियमाणेष्वपाठीद्, यथा माऽस्म सीमन्तिनी कापि, जनयेत् मुतमीदृशम् । २. बृहद्भाग्यफलं यस्य, मृतमातुरनन्तरम् ॥१॥ तस्मात् हृदयं अधःकृत्वा स्थीयते विवेकिभिः । न सर्वेऽपि तृणां मनोरथाः प्रपूर्यन्ते । इत्याद्युक्त्वा मन्त्री बलादारात्रिकमङ्गलदीपादिः कारितः । ततो चैत्यवन्दना गुरुवन्दनं च । तदा श्रीनरचन्द्रसूरिभिराशार्दत्ता २५ १ घ-कल्यक'। ३ ' एवं• प्रियते' इति ग-पाठः।। घ- व्यजयत'। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ १० १५ चतुर्विंशतिमबन्धे तवोपकुर्वतो धर्म, तस्य त्वामुपकुर्वतः । वस्तुपाल ! द्वयोरस्तु, युक्त एव समागमः ॥ १ ॥ इत्यादि । अथ रात्रौ तन्मयतया नाभेयपूजाध्यानदानपूजाः । तदा कवयः पठन्ति । एकः कश्चित् --- पावणाः स्वभावकृपणा: स्वामिप्रसादोल्बणास्तेऽपि द्रव्यकणाय मर्त्यभषणा जिद्वे भवत्या स्तुताः । तस्मात् त्वं तदघापघातविधये बद्धारा सम्प्रति श्रेयःस्थानविधानधिक्कृतकलिं श्रीवस्तुपालं स्तुहि ॥१॥ ' अपरस्तु अन्यस्तु (२४ श्रवस्तुपाल "सूरो रणेषु चैरणप्रणतेषु सोमो Essaचरितेषु बुधोऽर्थवोधे । नीत गुरुः कविजने कैविरक्रियासु । मन्दोऽपि च ग्रहमयो न हि वस्तुपालः ||२|| श्री भोजवदनाम्बोज - वियोगविधुरं मनः । श्रीवस्तुपालवक्त्रेन्दौ, विनोदयति भारती ॥३॥ " इतरस्तु -- श्रीवासाम्बुजमाननं परिणतं पञ्चाङ्गुलिच्छतो जग्मुर्दक्षिणपञ्चशाखमयतां पञ्चापि देवद्रुमाः । २० वाञ्छा पूरणकारणं प्रणयिनां जिहैव चिन्तामणि जता यस्य किमस्य शस्यमपरं श्रीवस्तुपालस्य तत् ॥ ४ ॥ सर्वत्र लक्षदानम् । अष्टाहिकायां गतायां ऋषभदेषं गगवोक्त्या मन्त्री आपृच्छत- त्वरप्रसादकृते नीडे, वसन् शृण्वन् गुणांस्तव । १ ग - 'कुर्वते' । २ अनुष्टुप् । ३ शार्दूल० । ६ मङ्गुलः । ७ शुक्रः । - शनिः । ९ वसन्त० । १० सन्तान - कम्प- हरिचन्द्रनेति । सूर्यः । ५ ख - ' चरणे प्रणते' । अनुष्टुप् । ११ मन्दार पारिजातक Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेः ] reporteryear I सङ्घदर्शनसुष्टात्मा, भूयांसं विहगोऽप्यहम् ||५|| यद् दाये द्यूतकारस्य, यत् प्रियायां वियोगिनः । यद् राधावेधिनो लक्षे तद् ध्यानं मेऽस्तु ते मते ॥६॥' इत्याद्यकथयत् । एवं सोऽपि चलितः । ससङ्घः सचिवः मरुदेवाशिखराद यावत् कियदपि याति तावत् श्रमवशविगलत्स्वेदक्किन्नगात्रवसनान् कत्यपि मालिकान् पुष्पकरण्डकभारितशिरसोऽपश्यत् । पृष्टास्ते - कथमुत्सुका इव यूयम् ! । तैर्विज्ञतम् - देव ! वयं दूरात् पुष्पाण्याहार्भः । सङ्घः किल 'शत्रुञ्जय' शिखरेऽस्ति । प्रकृष्टं मूल्यं लप्स्यामहे । तत् पुनरन्यथा 'वृत्तम् । सङ्घश्चलितः । तस्मादभाग्या वयमिति । तेषां दैन्यं दृष्ट्वा मन्त्रिणाऽमाणि - अत्रैव स्थीय १० तामूर्ध्वेः क्षणम् । तावता पाश्चात्यं सर्वमायातम् । श्रीवस्तुपालेन स्वकुटुम्बं सङ्घश्चाभाण्यताम्, यथा-भो धन्याः । सर्वेषां पूर्णस्तीर्थवन्दनपूजाभिलाषः ?। लोकेनोक्तम् - भवत्प्रसादात् पूर्णः । मन्त्रयाहकिमपि तीर्थमपूजितं स्थितमस्ति । लोकः प्राह- प्रत्येकं सर्वाणि तीर्थानि पूजितानि ध्यातानि । मन्त्रिमहेन्द्रः प्राह-यद् विस्मृतं तन्न १५ जानीथ यूयम् ; वयं स्मारयामः । सङ्घो वदति - किं विस्मृतम् !! मन्त्री गदति-भो लोकाः ! पूर्वं तीर्थमयं पर्वतः यत्र स्वयमृषभदेवः समवासार्षीत् । ततो नेमिवर्जिता द्वाविंशतिर्जिनाः समवासार्षुः । असङ्ख्याः सिद्धाश्व यत्र सोऽद्रिः कथं न तीर्थम् । लोकोऽप्याह- सत्यं तीर्थमयं पर्वतः । तर्हि पूज्यताम् । पुष्पादीनि स्वेति २० चेदकथयिष्यन् तदा इमे मालिका इमानि पुष्पाणि वः पुण्यैरुपास्थिपतेति । ततः सङ्घेन तानि पुष्पाणि गृहीत्वाऽद्रिपूजा कृता । द्वैम्मेण पुष्पं जातम् । नालिकेरा स्फालनवस्त्रदानादिव्यश्च । तुष्टा मालिकाः । एवं पराशाभङ्गपराङ्मुख आसराजभूः । ततः शनैः शनैः पशुतुरङ्गशिश्वाद्यपीडया सङ्घो 'रैवतक'मारुरोह च । नेमिनि २५ I १-२ अनुष्टुप् । ३ ग - 'जातम्' । ४ ग - ' वदति' । ६ 'द्रम्मे० जातम्' इविको ग-पाठः । ७ बालकप्रमुख० । चतुर्विंशति २० २३ - ५. ५ क - ' त्रयोविंशति । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रवन्धे दृष्टे मन्त्री ननर्त । पपाठ च आनन्दानुनिर्झरिताक्षः कल्पद्रुमतरुरसौ तरवस्तथाऽन्ये चिन्तामणिर्मणिरसौ मणयस्तथाऽम्ये । धिग जातिमेव ददृशे बत यत्र नेमिः श्री 'ते' स दिवसो दिवसास्तथाऽन्ये ॥ १॥ भ्रभङ्गवैराग्यतरङ्गरंङ्गे, चित्ते त्वदीये 'यदु वंशरत्न || कथं कृशाङ्गोऽपि हि मान्तु हन्त, यस्मादनङ्गोऽपि पदं न लेभे ||२|| तत्राऽप्यष्ट्रहिकादिविधि: प्रागिव । नाभेयभवन- कल्याणत्रयगजेन्द्रपद कुण्डान्तिकप्रासाद- अम्बिका शाम्ब-प्रद्युम्नशिखरतोर१०. णादिकीर्तन दर्शनैर्मन्त्री सङ्घस्य नयनयोः स्वादुफलमार्पिपताम् (!)। आरात्रिकेऽर्थिनां ससम्भ्रमं मन्त्रिमध्ये झम्पापनं दृष्ट्वा श्री सोमेश्वरकवि : "कवित्वं चकार २३४ [१४] श्रीवस्तुपाठ. इच्छा सिद्धिसमुन्नते सुरगणे कल्पद्रुमैः स्थीयते पाताले पवमानभोजनजने कष्टं प्रनष्टो बलिः । १५ नीरागानगमन् मुनीन् सुरभयश्चिन्तामणिः क्वाप्यगात् तस्मादर्थिकदर्थनां विषहतां श्रीवस्तुपालः क्षितौ ! ॥ १ ॥ "लक्षः सपादोऽस्य दत्तौ मन्त्रिणः । दानमण्डपिकार्या निषण्णो निरर्गलं ददत् एवं स्तुतः केनापि कविनापीयूषादपि पेशला : शशधरज्योत्स्नाकलापादपि स्वस्था नूतन चूतमरिभरादप्युल्लसत्सौरभाः । वाग्देवीमुख सामसूक्त विशदोद्वारादपि प्राञ्जलाः केषां न प्रथयन्ति चेतसि मुदं श्रीवस्तुपालोक्यः ! ॥ १२ ॥ * वस्तुपाल ! तब पर्वशर्वरी - गर्वितेन्दुकर जित्वरं यशः । क्षीरनीरनिधिवाससः क्षिते - रुत्तरीयतुलनां विगाहते ॥ २ ॥ । १ बसन्त । २ घ - ' पूर्णे ५ गं- 'प्राह' । ६ शार्दूल० । ७ ३ उपजातिः । कप्र- 'लक्षास० । ८ शार्दूल 'वाहिकादि०' । ।९ स्वोता । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये एवं भावं सम्पूर्य देवोत्तमं श्रीनेमिमापृच्छय सर्वास्तीर्थचिन्ताः कृताः। निर्माल्यपदं दत्त्वा पर्वतादुदतारीत् , न सता हृदयात् , नापि महत्वात् । अथ खङ्गारदुर्गाद्रि-देवपत्तनादिषु देवान् ववन्दे । तेजःपालं ' खङ्गारदुर्गे ' स्थापयित्वा स्वयं ससयो वस्तुपाला श्री धवलकके' श्रीवीरधवलमगमत् । स्वागतप्रश्नः स्वामिना ५ कृतः । आरम्भसिद्धिप्रश्नश्च । ततो मन्त्र्याह-~ कामं स्वामिप्रसादेन, प्रेष्याः कर्मसु कर्मठाः । तद् बैभवं बृहदानोः, कचिदूष्मा जलेऽपि यत् ॥१॥ राणकेन ससबः सचिवः स्वसदने भोजितः परिधापितः स्तुतश्च । तेजापालस्तु 'खजारदुर्ग'स्थो भूमिं विलोक्य २० 'तेजलपुर ममण्डयत्, सत्रा-ऽऽराम-पुर-प्रपा-जिमगृहादिरम्यम् । प्राकारश्च 'तेजलपुरं ' परितः कारितः । पाषाणबद्धस्तुङ्गः । अय वस्तुपाला श्रीवीरधवलपार्थे सेवां विधत्ते । देशः मुस्थः । धर्मो वर्तते । एवं सत्येकदा 'दिल्ली नगरादेत्य चरपुरुषैः श्रावस्तुपालो विज्ञप्त:- देव | "दिल्ली'तः श्रीमोजदीन- १५ मुरत्राणस्य सैन्यं पश्चिमी दिशमुद्दिश्य चलितम् । चत्वारि प्रयाणानि व्यूढम् , तस्मात् सावधानैः स्थेयम् । मन्ये 'अर्बुद'मध्ये भूत्वा 'गूर्जर'धरां प्रवेष्टा । मन्त्रिणा सत्कृत्य ते चरा राणपार्श्व नीताः । कथापितः स प्रबन्धः । ततो राणकेनामाणि-- वस्तुपाल ! म्लेच्छगर्दभिल्लो 'गर्दभी' विद्यासिद्धोऽप्यभिभूतः । २. नित्यं सूर्यबिम्बनिर्यत्तुरङ्गमकृतराजपाटीकः शिलादित्योऽपि पीडितः । सप्तशतयोजनभूनाथो जयन्तचन्द्रोऽपि क्षयं नीतः । विंशतिवारबद्धसहावदीनपुरत्राणमोक्ता पृथ्वीराजोऽपि बद्धः । तस्माद् दुर्जया अमी । किं कर्ताऽसि ? । वस्तुपाल उवाचखामिन् ! प्रेषय मां यदुचितं तत् करिष्यामि । ततः साराच- २५ ग-'सर्वासा तीर्थचिन्ताकृता' । २ अमेः । ३ अनुष्टुम् । । ग-'पालोऽपि'। ५--घ-'बईदिशा गर्जर'। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ श्रीवस्तुपाल लक्षण सह चलितो मन्त्री । तृतीयप्रयाणे महणलदेवीं कर्पूरादिमहापूजापूर्व सस्मार । सा तद्भाग्यात् प्रत्यक्षीभूयोवाच - वत्सक 1 मा भैषीः : । 'अर्बुद 'दिशा यवनाः प्रवेक्ष्यन्ति । तब देशं यदाऽमी प्रविशन्ति तदैतलहिता घण्टिकाः स्वराजन्यै रोधयेथाः । ५ तेऽय यत्रावासान् गृह्णन्ति तत्र स्थिरचित्तः ससैन्यो युद्धाय सरभसं ढोकेथाः । जयश्रीस्तव करपङ्कजे एव । इदं श्रुत्वा धारावर्षाय । 'ऽर्बुद 'गिरिनायकाय स्वसेवकाय नरान् प्रेषयत् अकथापयन्च - म्लेच्छसैन्य ' मर्बुद' मध्ये भूत्वा आजिगमिषदास्ते; 'वमेतानागच्छतो मुक्त्वा पश्चाद् घण्टिका रुन्ध्या: । तेन १० तथैव कृतम् । प्रविष्टा यवनाः यावदावासान् ग्रहीष्यन्ति तावत् पतितो वस्तुपालः कालः । इन्यन्ते यवनाः बच्छलितो बुम्बारवः । केचिद् दैतान्तरं (रे) अङ्गुलीं गृह्णन्ति । अपरे तोबां कुर्वन्ति । तथापि च्छ्रेटन्ति । एवं तान् हत्वा तच्छीर्ष लक्षैः शकटानि भूत्वा 'धवलक' मेत्य मन्त्री स्वस्वामिनं प्रत्यदर्शयत् । १५ श्लाघितश्च तेनायम् २३६ न ध्वानं तनुषे न यासि विकटं नोचैर्बहस्याननं दर्पानो लिखा क्षितिं खरपुटैर्नाज्ञया वीक्ष्यसे । किन्तु त्वं वसुधातले कधवलस्कन्धाधिरूढे भरे 19 तीर्थान्युच्च तटी विटङ्कविषमाण्युल्लङ्घयन् लक्ष्यसे ॥ १ ॥ २० ततः परिधापितः । विसृष्टः स्वगृहाय । तत्र मङ्गलकरणाय लोकागमः । द्रम्मेण पुष्पं लभ्यते । एवं पुष्पस्रकुव्ययो लोकैः कृतः । इतश्च 'नागपुरे' साधुदेल्हासुतः सा०पूनडः श्री मोजदीनसुरत्राणत्नीबीबीप्रतिपन्नबान्धवः अश्वपति गजपति - नरपतिमान्यो विजयते । तेन प्रथमं 'शत्रुञ्जये' यात्रा त्रिसप्तत्यधिकद्वादशशतI १ घ - ' महणकदेवा' । २ ग - खयैताना० ' । ३ ख - घ - 'दन्ताङ्गुलीं । ४ घ'न तु टन्ति' । ५ ख ध- ' खामिनमद०' । ६ घ 'तीर्थान्यदितटी' ! ७ शार्दूल० । • ' तदवसरेऽपि' इत्यधिको ग-पाठः । ९ग-'पत्नीबीबी प्रेमकमलाप्रति ०' | - Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० प्रवा ] प्रवन्धकोशराये 'वर्षे विक्रमात् १२७३ वर्षे 'बब्बेर'पुरात् कृता । द्वितीया सुरत्राणादेशात् षडशीत्यधिके द्वादशशतसङ्ये १२८६ वर्षे 'नागपुरा'त् कर्तुमारब्धा । तत्सधेऽष्टादश शतानि शकटानि । बहवो महाधराः । कुमारः तेन सहितो 'माण्डल्य'पुरं यावदायातः ततः सङ्घसम्मुखमागत्य 'तेजःपालेन 'धवलक्क'मानीतः । श्री- ५ वस्तुपालः सम्मुखमागात् । सकस्य धूली पवनानुकूल्याद् यां यां दिशमनुधावति तत्र तत्र स गच्छति । तटस्थैनरैर्मणितम्मन्त्रीश ! इतो रजः । इतः पादोऽवधार्यताम् । ततः सचिवेन क्मणे-- इदं रजः स्पष्टुं पुण्यैर्लभ्यते । अनेन रजसा स्पृष्टेन पापरजांसि दूरे नश्यन्ति । यतःश्रीनाथपान्थरजसा विरजा भवन्ति तीर्थेषु बम्भ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । द्रव्यव्ययादिह नरा स्थिरसम्पदः स्युः पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ १ ॥ ततः सङ्घपतिपूनड-मन्त्रिणोगाढीलिङ्गन-प्रियालापौ संवृत्तौ । सर- १५ स्तीरे स्थितः सङ्घः । पूनडः कुलगुरुमलधारिश्रीनरचन्द्रसूरिपादान् ववन्दे । रात्रौ श्रीवस्तुपालेन कथापितं पूनडाय पुण्यात्मने-प्रातः सर्वसङ्घनास्मद्रसवल्यतिथिना युष्मता च भवितव्यम् , धूमो न कार्यः । पूनडेन तथेति प्रतिपन्नम् । रात्रौ मण्डपो द्विद्वारो रसवतीप्रकारश्च । सर्व निष्पन्नम् । प्रातरायान्ति नागपुरीयाः । सर्वेषां चरणक्षालनं तिलकरचनां च श्रीवस्तुपालः स्वहस्तेन करोति । एवं लमा द्विग्रहरी । मन्त्री तु तथैव निर्विण्णः । तदा तेज: १ ख- ' वर्षे वत्सरे पुराद विहिता। द्वितीया '। २ ग-बिम्बर ०' । ३ घ'महामधराः' । ग-'तदनुसारेण शेषः परिवारः । माण्डलिग्रामासन्नी यावदायातः स सधः तावत् सन्मुख.'। ५ घ-महन्तकतेजःपालेन' । ६ वसन्त । ७ ग'प्ठमालिझन.' । ८ ग-'नास्मदावासे भोक्तव्यम्, धूमो' । ९ घ-'आदृष्टम्' । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ श्रीवस्तुपाल पालेन विज्ञतम् - अन्यैरपि देव ! वयं सङ्घपदक्षालनादि करिष्यामः, यूयं भुग्ध्वम्, तापो भावी । 'मन्त्री भणति - मैवं 'वादीः । पुण्यैरयमवसरो लभ्यते । गुरुमिरपि कथापितम् - यस्मिन् कुले यः पुरुषः प्रधानः, स एव यत्नेन हि रक्षणीयः । तस्मिन् विनष्टे हि कुलं विनष्टं, न नाभिभङ्गे त्वरका वदन्ति ॥ १ ॥ * तस्माद् भोक्तव्यं भवद्भिः । तापो मा भूत् । 'मन्त्रिणा गुरून् प्रति पुनरिदं काव्यं प्रहितम् - 4 अद्य मे फलवती पितुराशा, मातुरशिषि शिखाङ्कुरिताऽथ । यद् युगादि जिन यात्रिक लोकं, पूजयाम्यहमशेषमखिन्नः ||२|| १० भोजयता मन्त्रिणा नागपुरीयाणामेकपडिवं दृष्ट्वा शिरो धूनि - तम् । अहो शुद्धा लोका एते ! । एवं भोजयित्वा परिधाप्य च रञ्जितो 'नागपुर' सङ्घः । गतौ वस्तुपाल - पुनडौ श्री 'शत्रुञ्जयं' सङ्घौ । वन्दितः श्री ऋषभः । एकदा स्नात्रे सति देवार्चको देवस्य नासां पिधत्ते पुष्पैः किल कलसेन नासां मा पीडीदिल्या१५ शयतः । तदा मन्त्रिणा चिन्तितम् - कदाचिद् दैवाद् देवाधिदेवस्य कलसादिना परचक्रेण वाऽवक्तव्यमङ्गलं भवेत् तदा का गतिः सहस्य इति चिन्तयित्वा पूनड आलेपे - भ्रातः ! सङ्कल्पोऽयमेवं मे संवृत्तः- यदि बिम्बान्तरमैश्ममम्माणमयं क्रियते तदा सुन्दर - तरम् । तत् तु सुरत्राणमोजदीनमित्रे त्वयि यतमाने स्यान्नान्यथा । २० पुनडेनोक्तम्- 'तत्र गतैश्चिन्तयिष्यतेऽदः । इत्यादि वदन्तौ 'रैवता' दितीर्थान् वन्दित्वा व्यावृत्तौ तौ । गतः पूनडो 'नागपुर' म् । मन्त्री धवलके राज्यं शास्ति । एवं स्थितेऽन्येद्युः सुरत्राणमोजदीनमाता वृद्धा हजयात्रार्थिनी ----- १ गदेव ! अन्यरपि पद्मभक्तिः कारयिष्यते । २ घ - मन्त्रिनरेन्द्रेण उक्तम्बदन | पुण्यं । ३ ख - 'दित' । ४ उपजातिः । ५ ख - घ - 'मंत्रिणा पत्रीं गुरुमिः प्रैषि । तत्र काव्यम्' । ६ स्वागता । ७ क - ' मस्य' । ८ ग - 'सुन्दरम्' । ९ ग- 'ततः ' । १० ग - ' स्तम्भतीर्थे' । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवन्धकोशेत्यपराये 'स्तम्भपुर'मागता । नौवित्तगृहेऽतिथित्वेनास्थात् । सा समागता सचिवेन चरेभ्यो ज्ञाता | चराः प्रोक्ताः श्रीमन्त्रिणा-रे यदा इयं जलपथेन याति तदा मे ज्ञाप्या । गच्छन्ती ज्ञापिता तैः । मन्त्रिणा निजकोलिकान् प्रेष्य तस्याः सर्व कोटीम्बकस्थं वस्तु माहितम् । सुष्ठ रक्षापितं च क्वचित् । तदा नौवित्तैः पूत्कृतमुप- ५ मन्त्रि- देव ! जरत्येकाऽस्मयूथ्या हजयात्रायै गच्छन्ती त्वत्पद्रे तस्करै ण्टिता । मन्त्रिणा पृष्टम्- का सा जरती ? । तैरुक्तम्देव ! किं पृच्छसि । सा मोजदीनसुरत्राणमाता पूज्या । मन्त्रिणा भणितं मायया अरे वस्तु विलोकयत विलोकयत । दिनद्वयं विलम्न्यानीयार्पितं सर्वम् । जरती तु स्वगृहे आनिन्थे । विविधा भक्तिः १० क्रियते । पृष्टा च किं हजयात्रेच्छा वः । तयोक्तम्- ओमिति । तर्हि दिनकतिपयान् प्रतीक्षध्वम् । प्रतीक्षाञ्चके सा । तावताऽऽरासणाऽऽश्मीयं तोरणं घटापितम् । आनायितं च । मेलयित्वा विलोकितं च । पुनर्विघटितम् । रूतेन बद्धम् । सूत्रधाराः सह प्रगुणिताः । मन्त्रिणश्च मार्गश्चान्तरे त्रिविधोऽस्ति-एको जलमार्गः, १५ अपरः करभगम्यः, इतरस्तु अश्वलद्ध्यः । यत्र ये राजानोऽयोध्वा() यषोल्लध्यन्ते तथा सूत्रं कृतम् । राज्ञां उपदाय द्रव्याणि प्रगुणीकृतानि । एवं सामग्य सा प्रहिता तत्र रचितं तोरणं मसीति - द्वारे । तत्र दीपतैलादिपूजाचिन्ता तद्राजपार्श्वद् शाश्वती कारिता । दत्तं भूरि भूरि तत्र । उदद् भूरि यशः । व्यावृत्तां जरती । २० आनीता 'स्तम्भपुर'म् । प्रवेशमहः कारितः । स्वयं तदंहिक्षालनं चक्रे । एवं भक्त्या दिनदशकं स्थापिता खगृहे । तावता धवलकिशोरशतपश्चकं अन्यदपि दुकूलगन्धराजकर्पूरादि गृहीतम् । वृद्धा प्रोक्ता-मातश्चलसि ! । यद्यादिशसि तत्र मानं च दापयासि तदाऽ. हमप्यागच्छामि । तया भणितम्- तत्राहमेव प्रभुः । स्वैरमेहि । पूजा २५ ख-'काटीनकस्थं । ३ 'स्वयं सह भूत्वा ' इत्यधिको ग-पाठः। । घ'मशीति'. । ४ 'मसीद' इति भाषायाम् । ५ घ-'दाससि । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशसिमबन्धे [२४ श्रीवस्तुपालते तत्र बहुतरी । श्रीवीरधवलानुमल्या चलितो मन्त्रिमहेन्द्रः । गतो 'दिल्ली' तटं, राजमातृवचनात् । क्रोशईयेऽर्वाग् तस्थौ । सुरत्राणः सम्मुखमागान्मातुः | माता प्रणता पृष्टा च सुखयात्राम् । जरत्या प्रोक्तम्-कथं न मे भद्रं यस्या 'ढिल्लयां' त्वं पुत्रः, 'गूर्जर'धरायां तु वस्तुपालः ? । राज्ञा पृष्टम्--कोऽसः ? । जात्या वृत्तान्तः प्रोक्तः तद्विनयख्यातिगर्भः । राजाऽऽह-स किमिति नात्रानीतः । वृद्धाऽऽहआनीतोऽस्ति । 'दृश्यतां तर्हि | अश्ववारान् प्रहित्य आनाय्य दर्शितो वस्तुपालः । दत्तोपदा मन्त्रिणा । आलापितश्च राज्ञा--- मात्रा मदधिकस्त्वं पुत्रो मतः, तेन मम बान्धवस्त्वम् । अस्मन्मात, त्वां स्तौति । एवं सुखवार्ता कृत्वा महतोत्सवेन स्वमातुरप्रेसरः कृत्वा श्रीवस्तुपालो ढिल्ली'पुरं नीतः आवासितश्च साधुपूनडस्यावासे । स्वमुखेन सुरत्राणेन निमन्त्र्य साधुपूनडसदने भोजयित्वा निजधबलगृहे आकारितः सचिवेन्द्रः । सविनयं सत्कृत्य परिधापितः । सुवर्णकोटिमेकां प्रसादपदे दत्वा १५ उक्तश्चेति किञ्चिद् याचस्व । वस्तुपालेनाभिहि तम्-देव ! 'गूर्जर'धरया सह देवस्य यावज्जीवं सन्धिः स्तात् । उपलपञ्चकं 'मम्माणी'खनीतो दापय । राज्ञा मतं तत् । दत्ता धीरा । तत्फलहीपञ्चकं 'नृपादेशात् पूनडेन प्रेषितं 'शत्रुञ्जया'दौ । तत्रैका ऋषभफलही, द्वितीया पुण्डरीकफलही, तृतीया २० कपर्दिनः, चतुर्थी चक्रेश्वर्याः, पञ्चमी 'तेजलपुरे' श्रीपार्श्व फलही । वलितः पश्चान्मन्त्रीश्वरः स्वपुरं गतः । प्रणतः स्वस्वामी तेन चिरदर्शनोत्कण्ठाविह्वलेन । पूर्वमपि कर्णाकर्णिकया श्रुतं 'ढिल्ली गमनवृत्तान्तम् । पुनः सविशेष मन्त्रिणं पप्रच्छ । सोऽपि निरवशेषमगर्वपरः पँचख्यौ । तुष्टो वीरधवलः । दत्ता दश १ ख-दूगेन'। २ घ-दर्शता' । ३ घ-'वार' । ४ एवं• उक्तश्चेति' इति पाठो घ-प्रतौ न वर्तते । ५ घ-'तु पूनडेन प्रैषि' । ६ ग-'शत्रुक्षयात्रौ' । ७ गख-'प्राचख्यौं। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध प्रबन्धकोशेत्यपराये लक्षी हेम्नां प्रसादपदे सा तु गृहादागेव दत्ता बहुमिलितयाचकेभ्यः । मिलितो मन्त्रिगृहे सर्वोऽपि लोकः । स सत्कृस्य प्रेषितः । कवयस्तु पठन्ति-- श्रीमन्ति दृष्ट्वा द्विजराजमेकं, पमानि सङ्कोचमहो भजन्ति । समागतेऽपि द्विजराजलक्षे, सदा विकासी तव पाणिपनः ॥१॥ ५ उच्चाटने विद्विषतां रमाणा-माकर्षणे स्यामिहदश्च वश्ये । एकोऽपि मन्त्रीश्वर । वस्तुपाल, सिद्धस्तव स्फूर्तिमियर्ति मन्त्रः।२।' एवं स्तूयमान उत्तमत्वाल्लज्जमानो वस्तुपालोऽधो विलोकयामास । ततो 'महानगर वासिना नानककविना भणितम्--- एकस्त्वं भुवनोपकारक इति श्रुत्वा सता जल्पितं लज्जानम्रशिराः स्थिरातलमिदं यद् वीक्षसे बेनि तत् । वाग्देवीवदनारविन्दतिलक ! श्रीवस्तपाल ! ध्रुवं पातालाद् बलिमुद्दिधीर्षरसकृन्मार्ग भवान् मार्गति ॥३॥ तदैव 'कृष्ण'नगरीयकविकमलादित्येम भङ्ग्यन्तरमुक्तम्--- लक्ष्मी चला त्यागफलां चकार यां साऽर्थिश्रिता कीर्तिमसूत नन्दिनीम् साऽपीच्छया क्रीडति विष्पाग्रत स्तद्वार्त्तयाऽसौ त्रपते यतो महान् ॥४॥ तेषां कवीनां भूरि दानं दत्तम् । ___ अथ कदाचन मन्त्रिणा श्रुतम् , यथा-- रैवतका'सन्नं गच्छता २० लोकानां पार्श्वतो भरटकाः पूर्वनरेन्द्रदत्तं करमुद्ग्राहयन्ति । पोट्टलिकेभ्यः कणमाणकमेकं १ कूपकात् कर्ष एकः, एवं उपद्यते लोकः । तत आयतिदर्शिना सचिवेन ते भरटकाः ‘कुहाडी' नामानं ग्राम दत्त्वा तं करमुग्राह्यन्तो निषिद्धाः । 'अङ्केवालियाख्यो प्रामस्तु ऋषभनेमियात्रिकाणां क्षीणधनानां स्वगृहाप्तियोग्यपाथेय- २५ . १ ख-घ-'प्रसादेन' । २ उपजातिः । ॐ इन्द्रवजा । पृथ्वीतलम् । ५ शार्दूल.।। घ-'नन्दमीम्'। ५ स्व-'सा पीच्या' । ८ इन्द्रवंचा ! पतुर्विधति.. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे ] [ १४ श्रीवस्तुपाल 'इम्मपदे दत्तः । 'शत्रुञ्जय'- ''रैवतक' तलहट्टिका नगरयोः सुखासनात कृत्वा मुक्तानि अन्धज्वरितादीनां यात्रिकाणां तीर्थारोहणार्थम् । तदुत्पाटकनराणां तु प्रासपदे शालिक्षेत्राणि प्रतिष्ठितानि । तीर्थेषु सर्वेषु देवेभ्यो रत्नखचितानि हैमभूषणानि कारितानि । विदे५ शायातसूरिशुश्रूषार्थ सर्वदेशग्रामण्यो नियुक्ताः । कृतं लौकिकतीर्थकरणमपि स्वामिरञ्जनार्थम् न भक्त्या स्वयं तु सम्यग्दृष्टित्वात् । एवं तस्योपकाराः कियन्त्युच्यन्ते विवेकशिरोमणेः ? | I " एकदा 'स्तम्भ' पुरं गतो मन्त्री 'धवलका 'त् । तत्र समुद्रतीरे यानपात्रात् तुरङ्गा उत्तरन्तः सन्ति । तदा सोमेश्वरः कवीन्द्र ● आसन्नवर्ती । मन्त्रिणा समस्या पृष्टा--- प्रादृट्काले पयोराशि –रासीद् गर्जितवर्जितः । ४२ सोमेश्वरः पूरयति स्म - अन्तःसुप्तजगन्नाथ-निद्राभङ्गभयादिव ॥ १ ॥ * तुरङ्ममषेोडशकमुचितद्दानेऽत्र दत्तम् । पुनः कदाचिन्मन्त्रि१५ णोक्तम्- काकः किं वा क्रमेलकः ? । सोमेश्वरेण पूरितं पथम् - येनागच्छन्ममाख्यातो, येनानीतश्च मत्पतिः । प्रथमं सखि ! कः पूज्यः, काकः किं वा क्रमेलकः १ ॥२॥ अत्रापि षोडशसहस्त्रा द्रम्माणां दत्तिः । एवं लीला तस्य । एका वृद्धेभ्यः श्रुतमेवंविधम्, यथा 'प्रावाट ' वंशे श्रीविमलोदण्डनायकोऽभवत् । नेद - वाहिलयो - श्रताऽभवत् । स चिर' मर्बुदा 'धिपत्यमभुनक्, गुर्जरेश्वरप्रसत्तेः । तस्य विमलस्य विमलमतेर्वाञ्छाद्वयमभूत् पुत्रवान, प्रासादमाछा च । तत्सिद्धयै स्वगोत्रदेव्यां अम्बिकामुपवासत्रयेणारराध । I २५. पक्षीभूय सा प्राह-वत्स ! वाञ्छ ब्रूहि । विमलो जगौ - पुत्रेच्छा १ - 'धर्म्मपदे' । २ क- घ- रैवतोपत्यकान गरयो । ३ ध 'सदुम्य (?) नरा ० ' । * था- 'तस्य स्वामि ० ' । ५ ग स्तम्भतीर्थपुरं । ६ ग - शशिः कस्माद् गर्जित०' | ७-८ अनुष्टुप् । ९ न- 'तत्सिद्धं वै बाप ० ' । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराये प्रासादनिष्पत्तीच्छा चाऽर्बुदशृङ्गे मे वर्तते । अम्बया प्रोक्तम्-दे प्राप्ती न स्तः । एका ब्रूहि । ततो विमलेन संसारवृद्धिमात्रफलामसारां पुत्रेच्छां मुक्त्वा प्रासादेच्छैव सफलीकर्तुमिष्टा । अम्बयोक्तम्--- सेत्स्यति तवेयम् , परं क्षणं प्रतीक्षस्व यावताऽहं गिरिवरा'ऽर्बुदा'धिष्ठात्र्याः सख्याः श्रीमातुर्मतं गृह्णामि । इत्युक्त्वा गता देवी । तावद् ५ विमलो ध्यानेन तस्थौ । श्रीमातृमतं लात्वा देव्यायाता अभाणीच्च पुष्पसक्दामरुचिरं, दृष्ट्वा गोमयगोमुखम् । प्रासादाई भुवं 'विद्याः, श्रीमातुर्भवनान्तिके ॥१॥' तत् तथैव दृष्ट्वा चम्पकद्रुमसन्निधौ तीर्थमस्थापयत् । पैत्तलप्रतिमा तत्र महत्ती विक्रमादित्यात् सहस्रोपरि वर्षाणामष्टाशीती १० गतायां चतुर्भिः सूरिभिरादिनाथं प्रत्यतिष्ठिपत् । 'विमलवसतिः' इति प्रासादस्य नाम दत्तम् | तस्मिन् दृष्टे "जन्मफलं लभ्यते । एतत्कथाश्रवणान्मन्त्री दध्यौ—वयं चत्वारो भ्रातरोऽभूम | तन्मध्ये द्वौ स्तः। द्वौ तु मालदेव-लूणिगावल्पवयसौ दिवमगाताम् । मालदेवनाम्ना कीर्तनानि प्रागपि अकारिषत । कियन्त्यपि लूणिग- १५ श्रेयसे तु 'लूणिगवसति रर्बुदे' काराप्या । एतत् तेजापालाय प्रकाशितम् । तेन विनीतेन सुतरां मेने । अथ तेजःपालो 'धवल. क्कका'द'ऽर्बुद'गिरिभूषणं 'चन्द्रावती' पुरीं गत्वा धारावर्षराणकगृहमगात् । तेनात्यर्थ पूजितः । किं कार्य आदिश्यतामित्युक्तं च । मन्त्रिणोक्तम्-~-'अर्बुद शिखराने प्रासादं कारयामहे यदि यूयं २० साहाय्याः स्यात । धारावर्षेण भणितम्--तव सेवकोऽस्मि । अहं सर्वकार्येषु धुरि योज्यः । ततो राष्ट्रिकैगोर्गलिकादयो महादानवशीकृतास्तथा, यथा 'निष्पत्स्यमानं चैत्यं करैर्न भारयन्ति, 'दानेन भूतानि वशीभवान्त' इति वचनात् । ततश्चन्द्रावती महा १ भार्याश्रीदेव्या वचा' इत्यधिको ग-पाठः । २ ग-'विन्याः। ३ अनुष्टुप । ४ ग-'जन्म सफलं ऋथ्यते । ५ घ-सौग्गलिका'। ६ ग-'निष्पधमानचैत्योपरि प्रद्वेष न भजन्ते दानेन' । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [२४ श्रीवस्तुपाल जनमुख्यं श्रावकं चाम्पलनामानं गृहे गत्वाऽऽललाप । वयं चैत्य'मर्बुदे' कारयामहे यदि पूजासान्निध्यं कुरुध्वे । चाम्पलेनापि स्वस्य कुटुम्बान्तराणामपि देवपूजार्थं नित्यधनचिन्ता कृता । ततो मन्त्री 'आरासणं' गत्वा चैत्यनिष्पत्तियोग्यं दलवाटकं निरका५ शयत् । तद्युग्यैरहकलै (?) श्वार्बुदोपत्यकमानीमयत् । अर्धक्रोशार्धक्रोशान्तरे हट्टानि मण्डापितानि । तत्र सर्व लभ्यते, पशूनां नराणां क्षुधादि कृच्छ्रं मा भूदिति । 'उम्बरिणी' पथेन प्रासादनिष्पत्तियोग्यं दल द्विगुणमुपारे गिरेः प्रवेशयामास । पुनस्तां पद्यां विषम चकार यथा परचऋप्रवेशो नो भवेत् । एवं सिद्धे पूर्वकर्मणि १० शोभनदेवं सूत्रधारमाहूय कर्मस्थाये न्ययुङ्क्त । ऊदलाख्यं शाल उपरिस्थायिनमकरोत् । अर्थव्यये स्वैरितां च समादिशत् । एवं सूत्रं कृत्वा तेजःपालो 'धवलक्कक 'मागमत् । निष्पद्यते प्रासादः । श्रीमिबिम्बं कषोपमयं सज्जीकृतं विद्यते । सूत्रधाराणां सप्तशती घटयति घाटम् । ते तु दुःशीलाः पुरः पुरोऽर्थं गृह्णन्ति । कार्यकाले १५ पुनः पुनर्याचन्ते । तत ऊदलो मन्त्रितेजःपालाय लिखति देव ! इम्मा विनश्यन्ति । सूत्रधाराः कर्मस्थायात् प्रथमं प्रथमं गृह्णन्ति । ततस्तेजःपालेन कथापितम् - द्रम्मा विनष्टा इति किं बूषे ? । विनष्टा किं कुथिता: ? । न तावत् कुथिताः, किन्तु मनुष्याणामुपकृताः । उपकृताश्चेद् विनष्टाः कथं कथ्यन्ते ? | माता मे वन्ध्येति वाक्यवत् २४ परस्परं विरुद्धं ब्रूषे । तस्मात् तत्त्वमिदम् - सूत्रधाराणामिच्छाच्छेदो न कार्यः, देयमेवेति । ततो दत्ते ऊदलः । तावन्निष्पन्नं यावद् गर्भगृहं मध्ये श्री नेमिनाथविम्बं स्थापितम् । एतच्च कृतं श्री तेज:पालाय विज्ञप्तम् । तुष्टौ द्वौ मन्त्रिणौ । श्रीवस्तुपालादेशात् तेजः पालोऽनुपमया सहानल्पपरिच्छदो' ऽर्बुद' गिरिं प्राप्तः । प्रासादं २५. निष्पन्नप्रायं ददर्श तुतोष (च) । स्नात्वा सद्वस्त्रप्रावरणः सपत्नीको ग - निरवकाशयति' । २ ख - 'उबरणी०', घ- 'उम्बरणी० । ३ ग - 'आत्म शालकं । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराह्वये मन्त्री नेमिं पूजयति स्म । अथ कायोत्सर्गे ध्याने नोर्ध्वस्तस्थौ चिरम् | क्षणार्धेनाऽनुपमा पतिं तथास्थं मुक्त्वा प्रासादनिष्पत्तिकुतूहलेन बहिरागात् । तत्र सूत्रधारः शोभनदेवो मण्डपचतु:स्तम्भ ऊर्ध्वयितुं उपक्रमते । तदा मन्त्रिण्या उक्तम्सूत्रधार ! मम पश्यन्त्याश्विरं बभूव । अद्यापि स्तम्भा नोत्तभ्यन्ते । शोभनदेवेनोक्तम्- स्वामिनि ! गिरिपरिसरोऽयम्, शीतं स्फीतम्, प्रातर्धटनं विषमम् । मध्याह्नोद्देशे तु गृहाय गम्यते । स्नायते, पच्यते, भुज्यते । एवं विलम्बः स्यात् । अथ विलम्बात् किं भयम् ?, श्रीमन्त्रिपादाश्विरं राज्यमुपभुञ्जानाः सन्तीह तावत् । ततोऽनुपमया जगदे — सूत्रधार ! चाटुमात्र १० मेतत् । कोऽपि क्षणः कीदृक् भवेत् को वेत्ति ? । सूत्रधारो मौनं कृत्वा स्थितः । पत्नीवचनमाकर्ण्य सचिवेन्द्रो बहिर्निः सूक्ष्य सूत्रधारमवोचत् — अनुपमा किं वावदीति । सूत्रधारो व्याहार्षीत् -- यद् देवेन अवधारितम् । मन्त्री दयितामाह-किं स्वयोक्तम् । अनुपमाऽऽह - देव ! वदन्त्यस्मि - कालस्य १५ को विश्वासः ? । काऽपि कालवेला कीदृशी भवति । न सर्वदा - sपि पुरुषाणां तेजस्तथा । यथा- श्रियोर्वा स्वस्य वा नाशो, येनावश्यं विनश्यति । श्री सम्बन्धे बुधाः स्थैर्य - बुद्धिं बनन्ति तत्र किम् ॥१॥ वृद्धानाराधयन्तोऽपि तपयन्तोऽपि पूर्वजान् । " पश्यन्तोऽपि गतश्रीकान्, अहो मुह्यन्ति जन्तवः ॥ २ ॥' भूपभ्रपल्लवप्रान्ते, निरालम्बाऽविलम्बनम् I स्थेयसी बत मन्यन्ते, सेवकाः स्वामपि श्रियम् ॥ ३ ॥ इति विपदितो मृत्यु - रितो व्याधिरितो जरा । जन्तवो हन्त पांड्यन्ते, चतुर्भिरपि सन्ततम् ॥४॥ Ε મ २० २५ १ ख- 'मौनेनातिष्ठत्' । २-३ अनुष्टुप् । ४ ग - ' स्वरुपाव स्थायिनी लक्ष्मी, मन्यन्ते मन्त्रिणो बुधाः । ५--६ अनुष्टुप् । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ चतुर्विशतिप्राधे [ीवरलपाकएतत् तत्त्ववचः श्रुत्वा मन्त्रिवरः प्राह-अयि कमलदलदीर्घलोचये ! त्वां विना कोऽन्यः एवं वक्तुं जानाति । 'ताम्रपर्णी'तटोत्पन्नै मौक्तिकैरिक्षुकुक्षिजः बद्धस्पर्धभरा वर्णाः, प्रसन्नाः स्वादवस्तव ॥५॥ गृहचिन्ताभरहरणं, मतिवितरणमखिलपात्रसत्करणम् । किं किं न फलति कृतिनां गृहिणी गृहकल्पवल्लीव ? ॥६॥' राज्यस्वामिनि ! वद केनोपायेन शीघ्रं प्रासादा निष्पत्सन्ते । देव्याह----नाथ ! रात्रीयसूत्रधाराः पृथक् दिनीयसूत्रधाराः पृथग् व्यवस्थाप्यन्ते । कटाहिश्चटाप्यते । अमृतानि भोज्यन्ते । सूत्र१० धाराणां च विश्रामलामाद् रोगो न प्रभवति । एवं चैत्यसिद्धिः शीघ्रा । आयुर्यात्येव, श्रीरस्थिरैव । यतः-- गृहीत इव केशेषु, मृत्युना धर्ममाचरेत् । अजरामरवत् प्राज्ञो, विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ॥१॥ इत्यादि सरस्वतीवीणाक्वणितकोमलया गिरोक्त्वा निवृत्ता सुलक्षणा सा । मन्त्रिणा सर्वदेशकर्मस्थायेषु सैव रीतिः प्रारब्धा । निष्पन्नं च सर्व स्तोकैरेव दिनैः । गतो मन्त्री 'धवलकक'म् । दिनैः कतिपयैर्वर्धापनिकानर आयातः-देव ! 'अर्बुदा'द्रौ नेमिचैत्यं निष्पन्नम् । हृष्टौ द्वौ बान्धवौ । पुनः प्रासादप्रतिष्ठार्थ गतौ ससङ्घौ तत्र । तत्र च जावालि'पुरात् श्रीयशोवीरो नाम भाण्डागारिकः सरस्वतीर्कण्ठाभरणत्वेन ख्यातः स आहूत आगात् । मिलिता वस्तुपाल-तेजःपाल-यशोवीरा एकत्र न्याय-विक्रम-विनया इव साक्षात् । चतुरशीती राणाः । द्वादश मण्डलीकाः । चत्वारो महीधराः। चतुरशीतिमहाजनाः । एवं सभा । तदा वस्तुपालेन यशोवीर: प्रोचे- भाण्डागारिक ! त्वं नृपउदयसिंहस्य मन्त्री यौगन्धरायण २५ इव वत्सराजस्य । तब स्तुतीः स्वस्थानस्थाः शृणुमः, यथा--- २० १ग-'बधस्पर्थ.' । २ अनुष्टुप् ! , आर्या । ४ अनुष्टुप् । ५ ग-बालहुरपुरात्' । ६ घ-कण्ठभूषणत्वेन'। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रवन्धकोशेत्यपराये बिन्दवः श्रीयशोवीर !, मध्यशून्या निरर्थकाः । सावन्तो विधीयन्ते, स्वयैकेन पुरस्कृता ॥१॥ यशोवीर | लिखत्याख्यां यावच्चन्द्रविधिस्तव । न माति भुवने ताव - दायमध्यक्षरद्वयम् ॥२॥ ' अंत एव नः सदा भवद्दर्शन रणरणका कान्तमेव स्वान्तमासीत् । इदानी चारुसम्पन्नं भवदीयसाङ्गत्यम्, तदपि विशेषतः श्रीमन्नेमिटयै । ततो यशोवीरो व्याहरति श्रीमत्कर्णपरम्परागतभवत्कल्याण कीर्तिश्रुतेः प्रीतानां भवदीयदर्शन विधावस्माकमुत्कं मनः । श्रुत्वा प्रत्ययिनी सदा ऋजुतया स्वालोकविस्रम्भणी दाक्षिण्यैकनिधानकेवलमियं दृष्टिः समुत्कण्ठते ॥१॥ इत्याद्याः सङ्कथाः पप्रथिरे । प्रासादबिम्बप्रतिष्ठोत्सवाः संवृत्ताः । श्रीवस्तुपालन एकदा चैत्यस्य दूषणभूषणानि पृष्टो यशोवीरः प्रोचे - देव ! शोभनदेवः सूत्रधारः शोभनः, ततो युक्तं एतदम्बा कीर्तिस्तम्भोपरिस्थिता एकामङ्गुलीमूर्ध्वोकृत्य वर्तमाना घटिता । १५ स तु कर्मकर एव द्रव्यलोलुपः । अत्र तव मातुर्मूर्तिर्विलोक्यते येन दाता दुर्लभः । शतेषु जायते शूरः, सहस्रेषु च पण्डितः वक्ता शतसहस्रेषु, दाता भवति वा न वा ॥१॥" RUG १. ० इत्यादि किमुच्यते ! | प्रासादः परमतमः । परं दोषा अपि सन्ति । २० प्रासादापेक्षया सोपानानि हस्वानि १ स्तम्भे विम्बान्याशानाभाजनं स्युः २ द्वाप्रवेशे व्याघ्ररूपाणि पूजाऽल्पत्वाय स्युः ३ जिनपृष्ठे पूर्वजारोपणात् पाश्चात्यानामूर्द्धिनाशेो भविता 7 १ अनुष्टुप् । २ घ 'यावच्चिन्द्रे विधि०' । ३ अनुष्टुप् । ४ घ - श्रीनेमि० । ५६'विधौ नास्माकमुत्कं मनः' । ६ शार्दूल० । ७ ख - 'ततोऽपि न युक्त' । ग-पुस्तके 'तु' एतदारभ्य 'किमुध्यते' इति पाठाधिक्यम् । ९ अनुष्टुप् । १० ख- 'प्रदेशे' । ११ - 'नाशिनी' । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૮ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ श्रीवस्तुपाल ४ आकाशे जैनमुनिमूर्तिरोपणात् त्वत्परं दर्शनपूजाऽल्पत्वाय ५ हलीकृष्णा न मङ्गलाय ६ भारपदा: द्वादशहस्तप्रलम्बाः कालेन स कोऽप्येवंविधो न भविष्यति यः विनाशे ईदृश: प्रक्षेपयिष्यति ७ । इत्यादि श्रुत्वा सत्यं मत्वा न चुकोप कोऽपि । भवितव्यतां चाप्रतिकारां निश्चिये । विविधदानैर्विक्रमादित्य इव प्रकाश्य महिमानं विसृज्य स्वस्थाने लोकं सपरिजनो 'धवलकं' गत्वा प्रभुं नत्वा सुखं तस्थौ । इत श्रीवीरधवलस्य द्वौ पुत्रौ स्तः । एको वीरमः, अपरो वीसलः । तत्र वरिमो यौवनस्थः सूरेषु 'रेखां प्राप्तः यो वर्षा१० काले कस्मादुपरि पतन्त्या विद्युत उद्देशेन कृपाणीमाकृषत् । स एकदा चिदेकादशीपर्वणि 'धवलकक'मध्ये तरुतलमगमत् । तत्र पर्वण्यसौ रीति:- वैष्णवैः सर्वैरष्टोत्तरशतं बदराण वा आमलकानां द्रम्माणां वा मोक्तव्यं तरोरधः | वरिमेनाऽष्टोत्तरं शतं द्रम्मा मुक्ताः । एकेन तु वणिजा तैस्यामेव सभायां स्थितेना१५ ष्टोत्तरशतं आबूनां मुक्तम् । वीरमेण तस्योपरि कृपाणिका कृष्टा । रे अस्मत्तः किमधिकं करोमीति वदन्नसौ वणिजं हन्तुमन्वधावत् । वणिग् नष्ट्वा वीरधवलाप्यासितां सभामाविशत् । जातः कलकलः । ज्ञातं पारम्पर्यं वीरधवलेन । वणिजि पश्यति वीरम आकार्य हक्कितः -- का ते चर्चा यद्ययं स्वदधिकं २० करोति ? । अस्माकं न्यायं न वेत्सि ? । दूरे भव, पुनर्मदृष्टौ नागन्तव्यम् । वणिजो मम जङ्गमः कोशः । मयि जीवति सति केनाभिभूयन्ते । इत्युक्त्वा तं 'वीरमग्रामा'ख्ये आसन्नग्रामे - प्रतिष्ठित् । स तु कोणिककुमारवत् कंसवत् पितरि द्विष्ट जीवन्मृतंमन्योऽस्थात् । वीसलस्तु राणश्रीवीरधवलस्य वल्लभः २५ श्रीवस्तुपालस्य च । 11 १ ग - पुस्तके 'हली कृष्णा' एतदारभ्य 'प्रक्षेपयिष्यति' एतावत् पाठाधिक्यम् । २ क- ' ' । ३ ग - 'तत्र स्थितेनाष्टोत्तरशतं दुष्कता मुक्ता' । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोशेत्यपराये प्रचम् ] अत्रान्तरे श्रीवीरधवलोऽचिकित्स्येन व्याधिना जयसे । तदा वीरमः स्वसहायैर्बलवान् भूत्या राज्यार्थ राणकमिलनमिषेण 'धत्रलक्क' मागात् । तदैव श्रीवस्तुपालेन तं दुराशयं ज्ञास्या प्रत्युत्पन्न - मतित्वादश्व गज- हेमादिषु परमात्ममानुषैः परमो यत्नः कृतः । बीरमः प्रभवितुं न शशाक । 'वक' एव स्वसौधे विपुलेSaतस्थौ । दिनैनिभिर्बीरधवलो दिवं गतः । लोकः शोकसमुद्रे पतितः । बहुभिर्श्वितारोहणं कृतम् । मन्त्री तु सपरिजनः काष्ठानि भक्षपत्रपरापरैर्मन्त्रिभिर्निषिद्धः । उक्तं च-देव ! त्वयि सति राणपादाः स्वयं जीवन्तीय लक्ष्यन्ते । स्वयि तु छोकान्तरिते परिपूर्णाः पिशुनानां मनोरथाः । गता 'गुर्जर 'धरा इति ज्ञेयम् । ततो न भूतो १० मन्त्री । उत्थापनदिने मन्त्री श्रीवस्तुपालः सभासमक्षं पठति खायान्ति यान्ति च परे ऋतवः क्रमेण सञ्जातमेतदृतुयुग्ममगत्वरं तु । वीरेण वीरधवलेन विना जनानां वर्षा विलोचनयुगे हृदये निदाघः || १ || २४५ १ - 'चिन्तारोपणं कृतम्' । २ वसन्त० । ३ ख - 'जालडुरपुरं । चतुर्विंशति ३२ १५ अतीव निःश्वस्य गताः सर्वेऽपि स्वस्थानम् । ततश्च मृते वीरधवले तद्राज्य लिप्सुवरमः सन्नध गृहान्निर्गमिष्यति यावता तावता श्रीवस्तुपालेन वीसलः कुमारो राज्ये विनिवेशितः । वीसलदेव इति नाम प्रकयापितम् । सर्वराज्याङ्गेष्वासनरैः रक्षा कारिता । स्वयं बीसलं गृहीत्वा साराऽश्वखुरपुटक्षुण्णक्षमापीठोच्छलद्रजःपुञ्जस्थगि- २० तव्योमा राजन्यककूरकरवालशल्लभल्लकिरणद्विगुणयोतितरविकिरणो वीरमसम्मुखं यथैौ । दारुणः समरो जज्ञे । वीरमः स्वस्य तेजसोऽनवकाशं मन्यमानो नष्टा श्वशुरेण राजकुलेन उदयसिंहेनाधिष्ठितं 'जाबालि ' पुरं प्रत्यचालीत् । मन्त्री तस्याशयं दक्षतया ज्ञात्वा षोडशयोजनिकान् नरानुदयसिंहातिके प्रेषत् िआदयापयत्, यथा- २५ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्ध [२४ श्रीवस्तुपाल-अमुं राजद्विष्टकारकं जामातृसम्बन्धेन यदि स्त्रान्तिके स्थापयिष्यसि तदा ते न राज्यं, न जीवितव्यं च । हन्याश्चैवैनम् । ततो यदा वीरमो 'जानालिपुरो'द्यानं प्राप्तस्तदा विश्राम्यनगरक्षिकामुत्तारयनलसायमान उदयसिंहनियुक्तैर्धनुधेरैः शरैः शतमितैर्जर्जरश्वालनीयणायकायः कृतः मृतस्तत्र । तस्य शिरो वीसलदेवाय प्रहितं उदयसिंहेन । ततो जातं निष्कण्टकं वीसलदेवराज्यम् । यावन्मानं चरिधवलेन साधितं तावन्मात्राम्न किमपि न्यूनमात्।ि केवलं लब्धप्रसरेण वीसलेन श्रीवस्तुपालो लघुतया दृष्टः । पुरुषः सम्पदामप्र-मारोहति यथा यथा । गुरूनपि लघुत्वेन, स पश्यति तथा तथा ॥१॥ राज्ञा नागडनामा विप्रः प्रधानीकृतः । मन्त्रिणोः पुनर्लघुश्रीकरणमात्रं दत्तम् । ऐकश्च समराफनामा प्रतीहारो राज्ञोऽस्ति । स प्रकृत्या नाचः । पूर्वमन्यायं कुर्वाणो मन्त्रिश्रीवस्तुपालेन पीद्धि तोऽभूत् । स लब्धावकाश उपराजं ब्रूते-देव ! अनयोः पार्थेऽनन्तं १५ धनमास्ते तद् याच्यताम् । राजाऽपि तावाहूयावादीत्-अर्थों दीय ताम् । ताभ्या मुक्तम्-अर्थः 'शत्रुनया'दिषु व्ययितत्वान्नास्ति नः पार्थे । राज्ञोक्तम्-तर्हि दिव्यं दीयताम् । मन्त्रिभ्यामभिहितम्-य दिव्यं भवद्भयो रोचते तदादिश्यताम् । राज्ञा घटसर्पः पुरस्कृतः । लवणप्रसादो तदा जीवनभूत् । स निषेधयति तदकृत्यम्, न तु २० तरचनं राजा शृणोति, अभिनषदर्पवशात् । तदा सोमेश्वरेणोक्तं काव्यमेकं वीसलं प्रतिमासान्मांसलपाटलापरिमलव्यालोरोलम्बतः प्राप्य प्रौढिमिमां समीर ! महतीं हन्त स्वया किं कृतम् । घ-शातेयेन' १२ ग-तदनु जातं' । ३ अनुष्टप् । 'वृद्धनगरीय' इत्यधिको ग-पाठः । ५ ग-'अस्मिन् प्रस्तावे एकः समराक०' । ६ ग-'कृतथ्येन राक्षाऽपि'। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबम्धा प्रबन्धकोशेत्यपराये सूर्याचन्द्रमसौ निरस्ततमसौ दूरं तिरस्कृत्य यत् ___ पादस्पर्शसह निहायसि रजः स्थाने तयोः स्थापितम् ॥१॥ निवर्तितं दिव्यं राहा। अथ कदाचिद् 'धवलकके' मन्त्रिणि वसति सति पौषधशाला एका आस्ते । तस्या उपरितनं पुञ्जकं क्षुल्लकोऽधः क्षिपन्ना- ५ सीत् । तस्याज्ञानात् स पुञ्जको वीसलदेवमातुलस्य सिंहनाम्नो यामाधिरूढस्याधो रथ्यायां गच्छतः शिरसि पतितः । क्रुद्धः सः । मध्ये आगत्य क्षुल्लक दीर्घया तर्जनकेन पृष्ठे दृढमाहत्य रे मां 'जेठुआकं' 'सिंहनामानं राजमातलं न जानासीति वदन् स्वगृहं गतः । तं वृत्तान्तं मध्याहे मन्त्रिवस्तुपालं भोजनारम्भे उत्क्षिप्तप्रथम- १० कवलं आगत्य रुदमुद्घाटितपृष्ठोऽभिजिज्ञपत् क्षुल्लकः । मन्त्रिणाऽभुक्तेनैव उत्थाय क्षुष्ठकः सन्धार्य प्रस्थापितः, शालायां प्रेषितश्च । तदनु स्वयं स्वकीयः परिग्रहो भाषितः-भो क्षत्रियाः ! स कोऽप्यस्ति युष्मासु मध्ये यो मम मनोदाहमुपशमयति ।। तन्मध्ये एकेन राजपुत्रेण भूणपालाख्येनोक्तम्-देव ! ममादेशं देहि; प्राणदानेऽपि १५ तष प्रसादानां नानृणीभवामः । स एकान्ते नीत्वा मन्त्रिणा छन्नं कर्णे प्रविश्य समादिष्टम्-याहि, 'जेठुआ'वंशस्य राजमातुलस्य सिंहस्य दक्षिणं पाणिं छित्त्वा मे ढोकय । स राजपुत्रस्तथेत्युक्त्वा एकाकी मध्याहोदेशे सिंहावासद्वारे तस्थौ । तावता राजकुलात् सिंह आगात् । राजपुत्रेणाने भत्वा प्रणिपत्य सिंहाय उक्तम्-मन्त्रिणा श्रीवस्तु- २० पालदेवेनाहं वः समीपं केनापि गूढेन कार्येण प्रेषितोऽस्मि । तेन इतो भूत्वा प्रसद्याऽवधार्यताम् । इत्युक्तः स किञ्चिद् गत्वा पैराङ्मुखो भूत्वा यावद् वार्ती श्रोतुं यतते तावन्मन्त्रिभृत्येन सिंहस्य करः स्वकरे कृतः सहसा छुर्याच्छिन्नश्च । छिन्नं तं करं गृहत्विा रे वस्तुपालस्य भृत्योऽस्मि, पुनः श्वेताम्बरं परिभवेरिति वदंश्चरणबलेन पलाम्य २५ १ शार्दूल० । २ घ-सिंहं राज.' । ३ ग- ‘गूढेकार्येण' । र घ-'परागभूत्वा' । ५ ग-‘सहसा कङ्कलोहर्छर्यो । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [२४ भीमस्तुपाक 1 भ्रूणपालो मन्त्रयन्तिकमगमत, करमदीदृशत् । मन्त्रिणा शा ऽसैौ । स करः स्वसौधाग्रे बद्धः । स्वमानुषाणि परमाप्तनरगृढे मुक्तानि । आत्मीयपरिग्रहो भाषितः - यस्य जीविताशा स स्वगृहं यातु, जीवतु चिरम् । अस्माभिर्बलवता सह बैरमुपार्जितम् । मरणं करस्थमेव, जीविते सन्देहः । तैः सवरेप्युक्तम् - देवेन सह मरणं जीवितं च । स्थिताः स्मो वयं । एतदर्थे निश्चयो ज्ञातव्यः । ततो गोपुराणि दरवा गृहं नरैः खावृत्तं कृत्वा स्वयं स्वसौधोपरि सज्जीभूय तस्थौ निपङ्गी कवची धनुष्मान् । ततः सिंहस्यापि परिच्छदो मिलितो बान्धवादिर्भूयान् । तैः सर्वैरभाणि गत्वा श्रीवस्तुपालं सपुत्रपशुबान्धवं १० इनिष्याम इति प्रतिज्ञा जज्ञे । चलितं " जेठुआक' सैन्यम् । यायद् राजमन्दिराप्रे आयातं कलकलायमानं तत् तावदेकेन ज्यायसोक्तम् - एवंविधं व्यतिकरं यदि राजा विज्ञप्यते तदा वरम्; माऽस्मत्सहसाकारित्वे तस्य कोपोऽभूत् । ततो विज्ञतं राज्ञे । राज्ञा वार्ता ज्ञास्वा विमृश्य भणितम् - अनपरा वस्तुपालो न १५ पीडयति किश्चित् । युष्माभिरन्यायं कृतं भावि । तैरुक्तम्मन्त्रिणो गुरुः पीडितः । राजा प्राह-यदीत्थं कृतं तस्मात् तिष्ठतामंत्रैव । वयं स्वयं करिष्यामो यदुचितम् । ततः सोमेश्वरदेवः पृष्ठःगुरो ! किमत्र युक्तं स्यात् ? । गुरुणोक्तम्- मां तत्पार्श्वे प्रहिणुत । आयतिपथ्यं करिष्ये । प्रहितः सः । प्राप्तो मन्त्रिसौधद्वारम् । प्राप्तो २० मन्त्र्यनुज्ञया मन्त्रिपार्श्व पुरोहित आह- मन्त्रिन् ! किमेतदल्पे कार्ये कियत् कृतं भवद्भिः । 'जेठुयका' मिलिताः सन्ति । राजाऽपि तद्भागिनेयः । क्रेद् वः शम्यतां येन सन्धि कारयामि । अप मन्त्रीशः प्राह-मरणात् किं भयम् ? | ક્ - 'जिते च लभ्यते लक्ष्मी- मृते चापि सुराङ्गना । क्षणांनी काया, का चिन्ता मरणे रणे ! ॥ १ ॥ २५ १ घ- 'जेठुमके' । २ - 'अनपराधे' । ३ ग - 'जेठअक्का' । ४ घ' तद्भामेयः' । १ ग - 'सेम क्रोधः । ३ इदं पद्यं नाहित ख-घ- प्रश्योः १७ अनुष्टुप् । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] प्रबन्धकोशेत्यपराक्षये परं गुरुपरिभवो दुःसहः । अथ किं व्यापृतं जग्धं पीतं दत्तं गृहीतं विलसितं यदा तदा यथा तथा मर्तव्यमेव । इदमेषं मरणमिस्थं भवतु | 2 जीवितैक फलमुद्यमार्जितं, लुण्टितं पुरत एव यद् यशः । ते शरीरकपलालपालनं कुर्वते बत कथं मनस्विनः १ ॥ १ ॥ इत्यादिगीर्भिर्मृतिकृतनिश्वयं मन्त्रिणं ज्ञात्वा गुरुर्गस्वा राजानमूचे - राजेन्द्र ! म्रियत एवात्र झगटके मन्त्री । सः अप्रेsपि युद्धशूरः तेषु तेषु स्थानेषु जयश्रीवरो जातः । तत्र वक्तुं न पार्यते । अपि च 'तृणं शूरस्य जीवितम्' इति वचनात् ईदृशो योध: कचिद् विषमे कार्येऽग्रे धृत्वा घास्यते नैवं वृथा । बहुधा भवतामुप- १० कारी । अन्यच्च स किं प्रभुर्यो जीर्णभृत्यानां द्वित्रानपराधान् न सहते ? | अस्मदादीनामपि मनसि देवस्य कीदृशी आशा भाविनी ! | इत्यादि दृढं मृदुसारं निगध हस्ते कृतो राजा । यदुक्तम्--- 1 १५ वल्ली नरिदचित्तं वक्खाणं पाणियं च महिलाओ । तरथ य वचंति सपा, जत्थ य धुत्तेहिं निज्जति ॥ १ ॥ * राजा प्रोवाच मन्त्री धीरां दत्त्वा सम्मान्य समानीयताम् । गतो गुरुस्तत्र । राज्ञेोक्तमुक्त्वा नीतो मन्त्री । परं सन्नद्धबद्ध एव मिलितः । राज्ञा विविधतदुपकृतिस्मृत्या आईनयनमनसा पितृवदुपशमितो मन्त्री | मातुलाः पादयोर्लगापिताः । स मन्त्रिच्छेदितः सिंहहस्तो लोके दर्शितः । बहुराजलोकसमक्षं शब्दः प्रयापितः - यो मन्त्रिदेव - २० गुरुहन्ता तस्य प्राणान् हनिष्यामः । इत्युक्त्वा जिनमतस्य मन्त्रिणश्च गौरवमवीवृधद् वीसलदेवः । 4x - १ स्वागता । २ ख- प्रथट्टके' (?) । ३ ग - पुस्तकें एवेदं पद्यं दृश्यते । अस्य छाया चैत्रम् वी नरेन्द्र चित्तं व्याख्यानं पानीयं च महिलाः । तत्र च वर्त्मन्ते सदा यत्र च धूर्तेनायन्ते ॥ आय। ५ घ - पदयोर्लेगिता' । ६ घ 'हरिष्यामः' । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ १४ श्रीवस्तुपाठ अथ विक्रमादित्यात् १२९८ वर्ष प्राप्तम् । श्रीवस्तुपालो ज्वररुक्क्लेशेन पीडितः तदा तेजःपालं सपुत्रपौत्रं स्वपुत्रं च जयन्तसिंहमभाषत - वत्साः । श्रीनरचन्द्रसूरिभिर्मल्लधारिभिः संवत्१२८७ वर्षे भाद्रपदवदि १० दिने तेषां देवगमनसमये वैयमुक्ताःमन्त्रिन् । भवतां १२९८ वर्षे स्वर्गारोदो भविष्यति । तेषां वचांसि च न चलन्ति, गीः सिद्धिसम्पन्नम्मात् । ततो वयं श्री 'शत्रुञ्जयं' गमिष्याम एव । १० गुरुर्भिषग् युगादीश- प्रणिधानं रसायनम् । सर्वभूतदयापथ्यं सन्तु मे भवरुग्भिदे ॥ १ ॥ * " लब्धाः श्रियः सुखं स्पृष्टं, मुखं दृष्टं तनूरुहाम् | पूजितं दर्शनं जैनं, न मृत्योर्भयमस्ति मे || २ || कुटुम्बेन तन्मतम् । 'शत्रुञ्जय' गमनसामग्री निष्पन्ना | वीसलदेवो मन्त्रिणा साश्रुलोचनः समापृष्टः मुत्कलापितश्च कतिपयपदानि सम्प्रेषणायायातः । ततो नागडप्रधानगृहं मन्त्री स्वयमगात् । १५ तेनासनादिभिः सत्कृत्य पृष्टः कार्यविशेषं मन्त्री बभाषे — वयं भवान्तरशुद्धाय 'विमल' गिरिं प्रति प्रतिष्ठामहे । भवद्भिजैनमुनयोऽमी ऋजवः सम्यग् रक्षणीयाः, क्लिष्टलोकात् । यतः — " गौर्जराणामिदं राज्यं, वनराजात् प्रभृत्यपि । स्थापितं जैनमन्त्री - स्तद्वेषी नैव नन्दति ॥ १॥' २० इति ज्ञातव्यम् । मन्त्रिनागडे नोक्तम् - श्वेताम्बरान् भक्त्या गौरवयिष्यामि । चिन्ता न कार्या । स्वस्त्यस्तु वः । इति तद्वचसा समतुषत् । अथ चचाल वस्तुपालः | 'अङ्केवालिआ ' ग्रामं यावत् प्राप तत्र शरीरं बाढमसहं दृष्ट्वा तस्थौ । तत्र सहायाताः सूरयो १ ग~' एवं काले गच्छति' । २ क- १२२८ वर्षे ' । ३ ४-५ अनुष्टुप् । ६ ग - 'तन्मानितम्' | 'गौर्जरात्रमिदं' । अनुष्टुप् । ग - ' वधमेवमुक्ताः' । ग - 'मन्त्रैस्तु' । ९ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणमा प्रबन्धकोशेवपराहये निर्यामणां कुर्वन्ति । मीश्वरोऽपि समाधिना सर्व शृणोति, श्रद्दधाति च । अनशनं प्रतिपद्य यामे गते स्वयं भणति न कृतं सुकृतं किञ्चित्, सतां संस्मरणोचितम् । मनोरथैकसाराणा-'मेकमेव गतं वयः ॥१॥' यन्मयोपार्जितं पुण्यं, जिनशासनसेवया । जिनशासनसेवैव, तेन मेऽस्तु भवे भवे ॥२॥ या रागिणि विरागिण्यः, स्त्रियस्ताः कामयेत् कः ? । तामहं कामये मुत्तिं , या बिरागिणि रागिणी ॥२॥ शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः सङ्गतिः सर्वदाऽऽयैः सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदाप्तोपवर्गः ॥४॥ इति भणन्नेवास्तमितो जैनशासनगगनमण्डनमृगाङ्कः श्रीवस्तुपाला । तदा निर्ग्रन्थैरपि तारपूत्कारमरोदि । का कथा सोदरादीनाम् ! । मन्त्रिणि दिवं गते श्रीवर्धमानसूरयो पैराग्यादा- १५ म्बिलवर्धमानतपः कर्तुं प्रारेभुः । मृत्वा शर्केश्वराधिष्ठायकतया जाताः । तैर्मन्त्रिणो गतिर्विलोकिता, परं न ज्ञाता । ततो 'महाविदेहे' गत्वा श्रीसीमधरो नत्वा पृष्टः । खाम्याह-अत्रैव 'विदेहे' 'पुष्कलावत्यां' 'पुण्डरीकिण्या' पुरि कुरुचन्द्रराजा सञ्जातः । स तृतीये भवे सेत्स्यति । अनुपमदेजीवस्तु अत्रैव श्रेष्ठिमुताऽ- २० वार्षिकी मया दीक्षिता पूर्वकोट्यायुः । प्रान्ते केवलं मोक्षश्च । सा एषा साध्वी व्यन्तरस्य दर्शिता । तदनु तेन व्यन्तरेणात्रागस्य तयोर्गतिः प्रकटिता । सत्र तेजःपालो विलपति आह्लादं कुमुदाकरस्य जलधेर्वृद्धिः सुधास्यन्दिभिः प्रद्योतैर्नितरां चकोरवनितानेत्राम्बुजप्रीणनम् । १ ग-'मते । २ घ-'मेवमेव' १३-५ अनुष्टुप् । ६ घ-'पदनतिः' । ७ मन्दाक्रान्ता । मन्त्रिणि' इमारभ्य 'प्रकटिता' प्रान्तः पाठः क-प्रतौ नास्ति । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ चतुर्विशतिप्रबन्धे [r पाकएतत् सर्वमनादरादहृदयोऽनादृस्य राहुईहा कष्टं चन्द्रमसं ललाटतिलकं त्रैलोक्यलक्ष्म्याः पपौ ॥१॥ जयन्तसिंहो वदति खपोतमात्रतरला गगनान्तराल - मुच्चावचाः कति न दन्तुरयन्ति ताराः । एकेन तेन रजनीपतिना विमाऽछ ___ सर्वाः दिशो मलिनमान नमुवन्ति ॥२॥ कषयः प्राहु:--- मन्ये मन्दधियां विधे ! त्वमवधिराय सेयार्थिना १० यद् वरोचन-सातवाहन-बलि-श्वता-ऽब्ज-भोजादयः । कल्पान्तं चिरजीविनो न विहितास्ते विश्वजीवातयो मार्कण्ड-ध्रुव-लोमशाश्च मुनयः तृप्ता: प्रभूतायुषः ॥३॥ कोकास्तु वदन्तिकिं कुर्मः ! कमुपालमेमहि ! किमु ध्यायाम ! कं वा स्तुमः ! कस्याने स्वमुखं स्वदुःखमलिनं सन्दर्शयामोऽधुना ? । शुष्कः कल्पतर्यदङ्गणगतश्चिन्तामणिश्चाजरत् क्षीणा कामगयी च कामकलशो भग्नो हहा दैवतः ॥ ४ ॥ ततस्तेजःपाल-जयन्तसिंहाभ्यां मन्त्रिदेहस्य 'शत्रुञ्जयकदेशे संस्कारः कृतः। संस्कारभूम्यासन्नः 'स्वर्गारोहण'नामा प्रासादो नमिविनमियुतऋषभसनाथः कारितः । मन्त्रिण्यौ ललितादेवी-सोधू अनशनेन ममृतुः । श्रीतेजःपालस्त्वऽनुपंमासहितो मध्यमव्यापारभोगभाग लेशतोऽपि तथैव दानं तैन्धानः १३०८वर्षे धामगमत् । शनैः शनैः श्रीजयन्तसिंहोऽपि परलोकमभजत् । श्रीअनुपमाऽपि तपसा स्वर्गमसाधयदिति भवम् । १ शार्दूल । २ वसन्त । ३ घ-श्वेतामभोजा' । ४ क्लृप्ताः' । ५-६ शार्दूल• । ७ ध-कलतादेवी सोचौं'। ८ क-'सौष्यो', स-सोष्टी' । ९ ख-घ'तम्पन् ।.ग-'ततः भी.'। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धः ] एतयोश्च श्रीवस्तुपाल- तेजः पालयोर्धर्मस्थानसख्याँ कर्तुं क ईश्वरः ! | परं गुरुमुखश्रुतं किञ्चिल्लिख्यते लक्षमेकं सपादं जिन बिन विधापितम् । अष्टादश कोट्यः षण्णवतिर्लक्षाः श्री 'शत्रुञ्जय'तीर्थे विणं व्ययितम् । द्वादश कोट्योऽशीतिलक्षाः श्री 'उज्जयन्ते' । द्वादशकोप त्रिपञ्चाशल्लक्षा 'अर्बुद 'गिरिशिखरे 'लूणिग' वसल्याम् । नव शतानि चतुरशीतिश्च पौषधशालाः कारिताः । पञ्च शतानि दन्तमयसिंहासनानां कारापणम्, सूरीणां प्रत्येकमुपवेशनार्थमर्पणम् । पश्च शतानि पश्चोत्तराणि समवसरणानां जादरम्यानां कारणं श्री कल्पवाचनाक्षणे मण्डनार्थम् | ब्रह्मशालाः सप्त शतानि । सप्त शतानि सत्रागाराणाम् । सप्तशती तपखि कापालिकमठानाम् । सर्वेषां १० भोजननिर्वापादि दानं कृतम् । त्रिंशच्छतानि द्वयुत्तराणि महेश्वरायतनानाम् । त्रयोदश शतानि चतुरुत्तराणि शिखरबद्ध जैनप्रासादानाम् । त्रयोविंशतिः जीर्णचेत्योद्धाराणां, अष्टादशकोटिव्ययेन सरस्वतीभाण्डागाराणां त्रयाणां स्थानत्रये करणं 'धवलक' - ' स्तम्भतीर्थ' - 'पत्तना' दौ । पञ्चशती ब्राह्मणानां नित्यं वेदपाठं कारयति स्म । तेषां १५ गृहमानुषाणां निर्वाहकरणम् । वर्षमध्ये सङ्घपूजात्रितयम् । पञ्चदशशती श्रमणानां नित्यं गृहे विहरति स्म । तटिककापटिकानां सहस्रं समधिकं प्रत्यहममुक्त । त्रयोदश यात्राः सङ्घपतीभूय कारिता लोकानाम् । तत्र प्रथमयात्रायां चत्वारि सहस्त्राणि पश्च शतानि शकटानां सशय्यापालकानाम्, सप्तशती २० सुखासनानाम्, अष्टादशशती वाहिनीनाम् एकोनविंशतिशतानि श्रीकरीणाम्, एकविंशतिः शतानि श्वेताम्बराणाम्, एकादशती दिगम्बराणाम्, चत्वारि शतानि सार्धानि जैनगायनानाम्, त्रयत्रिंशच्छती बन्दिजनानाम्, चतुःसहस्रतुरगाः, द्विसहस्रोष्ट्राः चतु प्रवन्धकोशेत्यपराये ३५७ १ - व्ययकृतम्' । २ ख - 'मथाना' । ३ ग 'पश्चविंशतिशतानि हरिहरनसादि०४ - 'कुर्वन्ति स्म', घ- 'करोति स्म । ५ 'सर्वदर्शनिनां इमधिको ग पाठः । ६ ख - 'विरमति स्म ।७ ग -'मङ्कककटिया कार्प " । चतुर्विंशति ३३ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिप्रबन्धे [ २४ भीमस्तुपाठ चत्वारिंशदधिकशतं देवार्याः, सप्तलक्षमनुष्याः, इदं प्रथमयात्राप्रमाणम् । अग्रेतना तदधिका ज्ञेया । यथा चतुरशीतिस्तडागाः सुबद्धा: । चतुःशती चतुःषष्ट्यधिका वापीनाम् । पाषाणमयानि द्वात्रिंशद् दुर्गाणि । चतुः षष्टिर्मशीतयः । एवं लौकिकमपि कृतं मनो विनाऽपि । तथा दन्तमय जैनरथानां चतुर्विंशतिः । विंशतिशतं शाकघटितानाम् | एकविंशत्याचार्यपदानि कारितानि । सरस्वतीकण्ठाभरणादीनि चतुर्विंशतिबिरुदानि भाषितानि कविजनैः । श्रीवस्तुपालस्य दक्षिणस्यां दिशि 'श्री' पर्वतं यावत् पश्चिमायां 'प्रभासं' यावत् उत्तरस्यां 'केदार' पर्वतं यावत् पूर्वस्यां 'बाराणसी' १० यावत् तयोः कीर्तनानि श्रूयन्ते । सर्वाप्रेण त्रीणि कोटिशतानि चतुर्दश लक्षा अष्टादश सहस्राणि अष्ट शतानि द्रव्यव्ययः पुण्यस्थाने । त्रिषष्टिवान् सङ्ग्रामे जैत्रपदं गृहीतम् । अष्टादश वर्षाणि तयोर्व्यावृत्तिः । २५८ - 'बिरुदानि २४ वस्तुपालस्य, तद्यथा- प्राग्वाटज्ञात्म१५ लङ्करण १ सरस्वतीकण्ठाभरण २ सचिवचूडामणि ३ कूर्चाकसरस्वती ४ सरस्वतीधर्मपुत्र ५ लघुभोजराज ६ षण्डेरातु ७ दातारचक्रवर्ति ८ बुद्धि अभयकुमारु ९ रूपि कंदर्पु १० चतुरिमा चाणाक्यु ११ ज्ञाति वाराहु १२ ज्ञाति गोपाल १३ सैदवंशक्षयकालु १४ सांखुला रायमाद मर्दनु १५ मज्जाजैन १६ गम्भीरु २० १७ धीरु १८ उदार १९ निर्विकारु २० उत्तमजनमाननीयु २१ सर्वजनमाननीयु २२ शान्तु २३ ऋषिपुत्रु २४ ॥ ॥ इति 'श्रीवस्तुपालप्रबन्धः ॥ २४ ॥ श्री ' प्रश्नवाहन 'कुले 'कोटिक' नामनि गणे जगद्विदिते । श्री ' मध्यम' शाखायां 'हर्षपुरीया' ऽभिघे गच्छे ॥१॥ १ ग - 'पवनदे' । २ 'बिरुदानि० ऋषिपुत्रु २४ इति पाठाधिकता - प्रतामेव । ३ - ' पाळतेजःपालयोः प्रबन्धः । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धकोशेत्यपराहये 'मलधारि बिरुदविदितश्रीअभयोपपदसूरिसन्ताने श्रीतिलकसूरिशिष्यः सूरिः श्रीराजशेखरो जयति ॥२॥ तेनायं मृदुगधैर्मुग्धो मुग्धावबोधकामेन। रचितः प्रबन्धकोशो जयताजिनपतिमतं यावत् ॥ ३॥' तथा'कट्टारवीरदुस्साध'वंशमुकुटो नृपौघीतगुणः । बब्बूलीपुरकारितजिनपतिसदनोच्छलत्कीर्तिः ॥ ४ ॥ बप्पकसाधोस्तनयो गणदेवोऽजनि 'सपादलक्ष'भुवि । तनकनामा तत्पुत्रः साढको दृढधीः ॥ ५ ॥ तत्सूनुः सामन्तस्तत्कुलतिलकोऽभवजगत्सिंहः । दुर्भिक्षदुःखदलनः श्रीमहमदसाहिगौरवितः ॥ ६॥ १. तज्जो जयति सिरिभवः षड्दर्शनपोषणो महणसिंहः । 'दिल्लयां' स्वदत्तवसतौ ग्रन्थमिमं कारयामास ॥ ७ ॥ शरगगनमनु(१४०५)मिताब्दे ज्येष्ठामूलीयधवलसप्तम्याम् । निप्पममिदं शास्त्रं श्रोत्रध्येत्रोः सुखं तन्यात् ॥ ८ ॥ इति चतुर्विंशतिप्रबन्धाः सम्पूर्णाः ॥ १५ घ-श्रीमलधारिंगच्छे श्रीअभयसूरिसन्ताने । २ घ- 'राजशेखरसूरीन्द्रवादीन्द्रकृतिरियम्' । ३ अतः परं सप्तमपर्यन्तानि पचानामभावो घ-प्रती । स'वश्छलीपूर ' । ५ घ-'श्रीः ॥ संवत् १५२० वर्षे वैशाखदि त्रयोदश्यां भगुवारे ।। श्री'तपागच्के श्री ४ सोमसुन्दरसूरिश्रीमुनिसुन्दरसूरि श्रीजयचन्द्रसूरिशिष्यः चतुर्विंशतिप्रबन्धानां प्रतिमेतामलीलिखत् ॥ लेखकवाचकयोः शुभं करुबाएं भूयात् भवतु इत्यादि पण्डितमेरुरत्नमणिना लिखापिता ॥ ॥ श्रीः ।।' Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ་་ चतुर्विंशतिप्रबन्धे क- परिशिष्टम् । | 'सपादलक्षीयचाहमानवंशः ॥ 'श्रीर्भवतु | सपादलक्षीयचाहमानवंशो लिख्यतेसं० ६०८ राजा वासुदेवः १ सामन्तराजः २ नरदेवः ३ अजयराजः 'अजयमेरु' दुर्गकारापकः ४ विग्रहराजः ५ विजयराजः ६ चन्द्रराजः ७ गोविन्दराजः ८ सुरत्राणस्य वेगबरिसनाम्नो जेता ९ दुर्लभराजः १० वत्सराजः ११ सिंहराजः सुरत्राणस्य हेजवदनिनाम्ना जेठाणाकजेता १२ दुर्योजनो निसरदीनसुरत्राणजेता १३ विजयराजः १४ बप्पयिराजः १० ' शाकम्भय' देवताप्रासादाद् हेमादिखानि सम्पन्नः १५ दुर्लभराजः १६ गंडू महमदसुरत्राणजेता १७ बालपदेवः १८ विजयराजः १९ चामुण्डराजः सुरत्राणभङ्का २० दुसलदेवः तेन 'गूर्जरत्रा 'ऽधिपतिर्बद्ध्याऽऽनीतः 'अजयमेरु' मध्ये तक्रविक्रयं कारापितः २१ वीसलदेवः स च स्त्रीलम्पटः महासत्यां ब्राह्मण्यां बिलग्नो १५ बलात् तच्छापाद् दुष्टत्रणसङ्क्रमे मृतः २२ बृहत्पृथिवीराजः वगुलीसा हसुरत्राणभुजमर्दी २३ आल्हणदेवः सहावदीनपुरत्राणजितः २४ अनलदेवः २५ जगद्देवः २६ वीसलदेवः २७ 'तुरुष्क'जित् अमरगाङ्गेयः २८ पान्थडदेवः २९ सोमेश्वरदेवः ३० पृथ्वीराजः ३१ सं० १२३६ राज्यं वीरः १२४८ मृतः २० हरिराजदेवः ३२ राजदेवः ३३ वालणदेवः ३४ 'बावरीयाल' -- १ ग - पुस्तकेऽस्याभावो वर्तते, अन्यत्र तु सद्भावः । एवं सत्यपि न चास्य श्रीचतुर्विंशतिप्रबन्धेन सहाङ्गाङ्गिभावोऽवगम्यते । अतः परिशिष्टरूपेणात्रास्य निर्देशः क्रियते मया । २ एतत्सम्बन्धार्थं विलोक्यतां १०३तमं पृष्ठम् । ३ ग - 'श्रीमत्तपागच्छे पं० सागरधर्मगणयः तच्छिष्य पं० कुलसारगणयस्तेनैषा प्रतिः सम्पूर्णीकृता स्वपरोपकारार्थ | मणूंद्रमा मे लिखिता, एषा प्रतिवध्यमानाऽविचलकालं नन्दतात्' ! Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स-परिशिष्टम् बिरुदं तस्य वीरनारायणः तुरुष्कसमसदीनयुद्धे मृतः ३५ वाहडदेवो 'मालव'जेता ३५ जैत्रसिंहदेवः ३६ श्रीहम्मीरदेवः ३७ सं० १३४२ राज्यं १३५८ युद्धे मृतः; हस्ती ४ हस्तिनी ४ अश्वसहस्र ३० दुर्ग १० एवं प्रभुः सत्ववान् । शुभं भवतु ॥ संवत् '१५२७ कार्तिकमासे शुक्लपक्षे पञ्चम्यां तिथौ सोमे लिखित॥ ५ ख-परिशिषम् । श्रीआर्यनन्दिलसूरिसन्हन्धो ॥ वैराव्यास्तवः ॥ नमिऊण पासनाहं असुरिंदसुरिंदवंदिअदेवं । बहरुबाए थुत्तं अहयं समरामि भत्तीए ॥१॥ जा धरणोरगदइआ देवी पउमावई य वइरुट्टा । सप्पसहस्सेहि जुआ देवा किर किंकरा जाया ॥२॥ नागिणि नागारूढा नागकरा नागभूसियसरीरा । नागेहिं सिरमाला नागमुहा सा जए जयउ ॥ ३ ॥ धरणिदपढमपत्ती वइरुट्टा नाम नागिणी विज्झा । सप्पकरंडगहत्था सप्पाभरणा य जा निच्चं ॥ ४ ॥ वासुगि१ अणंतर तक्खग३ कंकोलयं ४ नाम पउम ५महपउमा६ । संखकुली७ ससिनामा ८अट्ट कुलाई च धारेह ॥५॥ विछिअ-कन्न-सिआली-कंकाही-गोरसप्पसप्पे अ। १- १५१३ वर्षे आषाढ वदि ८ शुक्रे श्री उन्नतदुर्ग' ओशङ्करलिखितम् ॥ श्री'तपा'पक्षपं.चारित्रहंसगणीनां पुस्तिका । मङ्गलमस्तु । श्रीरस्तु । शिवमस्तु । नेमिनाथमस्तु ॥ श्रीः। छ।। जैनमस्तु ॥ ॥ श्रीः ॥छ । २ प्रेक्ष्यता द्वादशं पृष्टम् । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतुर्विशतिप्रवन्धे गोहे उंदुर चित्ती किकिंडूअ हिंडु अ वसे अ॥ ५॥ वंतरगोणसजाई सत्तवा अहिवडा य परडा य । भमरसिराहिघिरोलियघिरोलियाणं च नासेइ ॥ ७ ॥ हुंकारंतं च विसं अविसट्टविसपल्लवे चरह । पारस्सनाम श्रा हाँ पउमावइधरणराएणं ॥ ८॥ सप्प ! विसप्प ! सरीसव ! धराणिं गच्छाहि जाहि रे तुरिकं । जंभिंणि धंभिणि बंधणि मोहणि हुं फुटकारेणं ॥ ९ ॥ जो पढइ जो अ निसुणइ वहरुट्टामंतसंपवं पुरिसो । तस्सासेसविसाइं कायं न फुसंति भत्तिजुत्तस्स ॥ १० ॥ घयगुलखीरविमिस्सं महुरं परं च जो बलिं दा। साहूण भत्तपाणं वइरुट्टा तं परिक्खेइ ॥ ११ ॥ इअ धरणोरगदइआ अन्नेहि वि निअकुलेहिं विउलेहिं । देवी करेउ रक्खं वारुड्डा भविश्लोअस्स ॥ १२ ॥ नागिणि नागलोइ वहरुट्ट सरावी जो तसु नाम लेइ तसु असुहनिवारी । अजाणंदिलेण संदिटुं एहिं थंहिलिमाहिवसेव ॥ १३ ॥ अहववसेवं नाहिडसेवं जाहि जाहि आसीविसमंडल | . नागिणिपुत्तह एह कहिजउ एह आण म न लंधिज्जउ ॥१४॥ जीवउ नागिणि नागलोउ अहव अलंजरवाउ । जिणि अणाह सणाह किउ नेउरि छुटउ पाउ ॥ १५ ॥ दिसि बंधउ अह दिसि बंधउ बंधउ नइ लळलु । अम्हि अरिहंत दिक्करा घोल खंधिहि लळल ॥ १६ ॥ देवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स जो झओ । तेण छाएमि अप्पाणं मा मे हिंसंतु पन्नगा ॥ १७ ॥ उँ ठः ठः ठः स्वाहा । एवं दवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स जो झओ । तेण काएमि अप्पाणं मा मे हिंसंतु भूअगा ॥ १८ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स-परिशिष्टम् देवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स मोमओ। तेण छाएमि अप्पाणं मा मे हिंसंतु रक्खगा ॥ १९ ॥ देवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स जो झओ । तेण छाएमि अप्पाणं मा मे हिंसंतु जोदणी ॥ २० ॥ देवदेवस्स जं छत्तं तस्स छत्तस्स जो झओ । तेण छाएमि अप्पाणं मा मे हिंसंतु साइणी ॥ २१ ॥ देव०,, ,, ,, मा मे हिंसंतु डाइणी ॥ २२ ॥ " , , , मा मे हिंसंतु चोरगा ॥ २३॥ मा मे हिंसंतु वालगा ॥ २४ ॥ मा मे हिंसंत हिंसगा ॥ २५ ॥ " , " , मा मे हिंसंतु मूसगा ॥ २६ ॥ , , , , मा मे हिंसंतु मुग्गला ॥ २७ ॥ "" " " मा मे हिंसंतु गुज्झगा ॥ २८ ॥ पाससामि जो नमइ तिसंझं हलिसहि जम्म वि जाइ अझं । कमठमहासुरकयउवलग्ग झाडिअकोवं वझं इस ॥ २९॥ मुहि चंदप्पह हियइ जिणु मत्थइ पारिसनत्थ । इणि मुन्भिहिं मुभिउ को फेडणइ समस्थ ? ॥३०॥ उरि मुद्रि सिरिमुद्र पायमुद्र । इणि मुद्रि मुदिउ हिंसइ चारि समुद्र ॥ ३१ ॥ संखिहि तरिहि आहविध सामि ! दिनिअमुद्र : एअ दुलंधी कोइ न लंघइ पारसनस्थि अमुद्र ॥ ३२॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिमबन्ध ग-परिशिष्टम् । ॥ उक्सग्गहरं स्तोत्रम् ॥ Co उवसग्गहरंपासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहरविसनिन्नासं मंगलकल्लाणआवासं ॥ १ ॥ [ उपसर्गहरपावं, पार्श्व वन्दे कर्मधनमुक्तम् । विषधरविषनिर्णाशं मङ्गलकल्याणावासम् ॥ १ ॥ विसहरफुलिंगमंतं, कंठे धारेइ जो सपा मणुओ । तस्स गहरोगमारी-दुहजरा जंति उवसामं ॥ २ ॥ [ विषहरस्फुलिङ्गमन्त्रं कण्ठे धारयति यः सदा मनुजः । तस्य ग्रहरोगमारिदुष्टज्वरा यान्त्युपशमम् ॥ २ ॥ ] चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नरतिरिएन वि जीवा, पावंति न दुक्खदोगच्चं ॥ ३ ॥ [तिष्ठतु दूरे मन्त्रस्तव प्रणामोऽपि बहुफलो भवति । भरतिर्यक्ष्वपि जीवाः प्राप्नुवन्ति न दुःखदौर्गत्यम् ॥ ३ ॥ ] तुह संमत्ते लद्धे, चिंतामणिकप्पपायवन्भहिए। पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॥ ४ ॥ [ तव सम्यक्त्वे लब्धे, चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिके । प्राप्नुवन्त्यविघ्नेन जीवा अजरामरं स्थानम् ॥ ४॥ इअ संथुओ महायस!, भत्तिभरनिन्भरण हियएण । ता देव ! दिज बोहिं, भवे भवे पासजिणचंद ! ॥५॥ [इति संस्तुतो महायशो, भक्तिभरनिर्भरण हृदयेन । तद् देव ! देहि बोधिं भवे भये पाजिनचन्द्र ! ॥ ५॥ १ दृश्यतां सप्तमं पृष्ठम् । २ इदं स्तोत्रमनामतश्रीपार्श्वनाथसनिधिमिः श्रीपार्श्व. यक्ष-पद्मावती-धरणेन्द्ररधिष्ठितमतस्तत्पशानुसारिण्यपि व्याख्या वर्तते । एत. जिज्ञासुभिरवलोक्यतामस्य श्रीजिनप्रभसूरिकता वृतियां मया सम्पादिता श्रीदेवचमबालभाइबैनपुस्तकोद्वारमन्यमालायो 'सप्तस्मरणानि' इति प्रचाके प्रन्चे प्रसिध्यमानेऽस्ति। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ-परिशिष्टम् घ-पारीशष्टम् । ॥ श्रीपादलिप्तसूरिकृता वीरस्तुतिः ॥ गाहाजुअलेण जिणं मयमोहविवजिभ जिअकसायं । थोसामि तिसंझाए तं निस्संग महावीरम् ॥ १॥ [ गाथायुगलेन जिनं मदमोहविवर्जितं जितकषायम् । स्तोष्ये त्रिसन्ध्यं तं निःसङ्गं महावीरम् ॥ १॥] सुकुमालधीरसोमा रत्तकसिणपंडुरा सिरिनिकेया । सीयकुसगइभीरू जलथलनहमंडणा तिन्नि ॥ २ ॥ न चयंति वीरलीलं हाउं जे सुरहिमत्तपडिपुन्ना । पंकयगयंदचंदा लोअणचक्कमियमुहाणं ॥ ३ ॥ [सुकुमारधीरसौम्या रक्तकृष्णपाण्डुराः श्रीनिकेताः । शीताङ्कुशग्रहभीररो जलस्थल नभोमण्डनास्त्रयः ॥ २ ॥ न च्यवन्ते वीरलीला हातुं ये सुरभिमत्तप्रतिपूर्णाः । पङ्कजगजेन्द्रचन्द्रा लोचनचङ्क्रमितमुखानाम् ॥ ३ ॥ ] एवं वीरजिाणदो अच्छरगणसंघसंथुओ भयवं । पालित्तयमयमहिओ दिसउ खयं सव्वदुरिआणं ॥ ४ ॥ [ एवं वीरजिनेन्द्रोऽप्सरोगणसङ्घसंस्तुतो भगवान् । पादलिप्तयमकमहितो दिशतु क्षयं सर्वदुरितानाम् ॥ ४ ॥] एतत् पद्यचतुष्टयं निम्नलिखितपद्ययमलपूर्वकं तृतीयस्मरणरूपेण स्मयतेऽश्चलगच्छानुयायिभिःजयई नवनलिणकुवलयविअसियसयवत्तपत्तलदलच्छो । वीरो गयंदमयगलसुललिअगइविक्कमो भयवं ॥१॥ [जयति नवनलिनकुवलययिकसितशतपत्रपेलवदलाक्षः। वीरो गजेन्द्रमदकलसुललितगतिविक्रमो भगवान् ॥ १ ॥] प्रेक्ष्यता सप्तविंशं पृष्टम् । २ अस्याः सुवर्णसिद्धिप्रतिपादनव्याख्यापुरस्सरा टीका समस्ति, परन्तु सा नायापि प्राकाश्यं नीता केनापि । पर्षिशति ३४ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ५ १० १५ चतुर्विंशतिप्रबन्धे अज्ज oि aes सुतित्थं अखंडियं जस्स 'भरह' वासंमि । सो वद्धमाणसामी तिअलुक्क दिवायरो जयउ ॥ २ ॥ [ अथापि वहति सुतार्थमखण्डितं यस्य 'भरत' वर्षे । स वर्द्धमानस्वामी त्रैलोक्यदिवाकरो जयतु ॥ २ ॥ ] ङ–परिशिष्टम् । | 'शान्तो वेष : ' स्तवनम् ॥ शान्तो वेषः शमसुखफलाः श्रोतृरम्या गिरस्ते कान्तं रूपं व्यस्तनिषु दया साधुषु प्रेम शुभ्रम् । इत्थम्भूते हितकृत परेस्त्वय्यसङ्गाविबोधे प्रेमस्थाने किमिति कृपणा द्वेषमुत्पादयन्ति ? ॥ १ ॥ ' अतिशयवती सर्वा चेष्टा वचो हृदयङ्गमं शमसुखफलः प्राप्तो धर्मः स्फुट: शुभसंश्रयः । मनसि करुणा स्फीता रूपं परं नयनामृतं किमिति सुमते ! त्वय्यन्यत् स्यात् प्रसादकरं सताम् ? ॥२॥ * निरस्तदोषेऽपि तरीव वत्सले कृपात्मनि त्रातरि सौम्यदर्शने । तोन्मुखे स्वय्यपि ये पराङ्मुखाः पराङ्मुखास्ते ननु सर्वसम्पदाम् ॥ ३ ॥ * सर्वसत्त्वहितकारिणी नाथे, न प्रसीदति मनस्त्वयि यस्य । मानुषाकृतितिरस्कृतमूर्त्तेरन्तरं किमिह तस्य पशोर्वा ? ॥ ४ ॥ * त्वयि कारुणिके न यस्य भक्ति - जगदभ्युद्धरणोद्यतस्वभावे । न हि ते समोऽधमः पृथिव्या-मथवा नाथ ! न भाजनं गुणानाम्। ५ । ' Y १ विलोक्यत षट्सप्ततितमं पृष्ठम् । २ मन्दाक्रान्ता । ३ हरिणी । वंशस्थविलम् । ५ शालिनी । ६ मालमारिणी, "साज्यगाः स्मर्या मालभारिणीत्यस्या लक्षणं छन्दोऽ. नुशासने । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च - परिशिष्टम् एवंविधे शास्तरि वीतदोषे, महाकृपालौ परमार्थवैद्ये । मध्यस्थभावोऽपि हि शोच्य एव, प्रद्वेषदग्धेषु क एष वादः १ ॥ ६ ॥ * न तानि चक्षूंषि न यैर्निरीक्ष्यसे न तानि चेतांसि न यैर्विचिन्त्यसे । न ता गिरो या न वदन्ति ते गुणान् न गुणा ये न भवन्तमाश्रिताः ॥७॥ तचक्षुर्दृश्यसे येन, तन्मनो येन चिन्त्यसे । सज्जनामन्दजननी, सा वाणी स्तूयसे यया ॥८॥ न तव यान्ति जिनेन्द्र ! गुणा मिति शक्तिरुपैति परिक्षयम् । मम तु निगदितैर्बहुभिः किमिहापरै परिमाणगुणोऽसि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥ * च - परिशिष्टम् । ॥ श्रीवस्तुपालकृतपुण्यकृत्यस्तुतिः ॥ २६७ १० सपञ्चशतमानकं निजपदोत्थधूलीकण प्रणुन्नजनतैनसं जलधिसङ्ख्य साहस्रकम् ( ४५०० ) । सुखासन - सुवाहिनी प्रमुखरूपसच्छ्रीकरी शताष्टदश (१८००) सख्यया समजनि मानमेषां क्रमात् ॥ १॥ * करणपक्षशर (५२५) प्रमितो युतो, विविधदन्त विनिर्मितयुक्तिभिः । सह बभूव सुकर्मपथे रवि-- गण इवामरयानचयः क्षितौ ॥२॥ २० १५ १ उपजाति: । २ उपेन्द्रवज्रा । ३ अनुष्टुप् । ४ दुतविलम्बितम् । ५ सन्तुल्यता यत् प्रोक्तं २५७तमे पृष्ठे । ६ पृथ्वी, चतुर्थे चरणे त्वष्टादशाक्षराणि । ७ देवालय समूहः । * तविलम्बितम् । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चतुर्विशतिप्रबन्धे विश्वाग्निविश्वोन्मित( ३३३ )सरिवर्ग श्चतुःसहस्री द्विशती (४२००) युता च । सङ्ख्या मुनीनां च दिगम्बराणा__ मेकादशानीह शतानि ( ११०० ) सङ्घ ॥३॥' त्रयः सहस्रास्त्रिशती ( ३३०० ) च भट्टाः शतं च साई ( १५० ) वरनर्तकीनाम् । अश्वास्तु वेदाङ्कसहस्र( ४००० )सङ्ख्याः साशीति चत्वारि शतानि( ४८०) तूष्ट्रयः ॥४॥ विक्रमार्कसमये सुरगर्षि-बध्न( १२६१ )वत्सरकृतादिमयात्रः । १० इत्थमद्भुतसमृद्धिसुकीर्ति-वस्तुपालसचिवः स मुदेऽस्तु ॥५॥ कोटीनां त्रिशतानि सप्ततिरहो कोटयस्त्रिभिः साधिका लक्षाः सप्ततिरद्भुतैकसुकृतेष्वासन् व्ययैः सर्वतः । मात्रा द्वादश यस्य सार्द्धसहिताः पूर्वोक्तसामग्रिका इत्थं कल्पतरुः श्रितातिहरणे श्रीवस्तुपालः कलौ ॥६॥ १५ जैनागारसहस्रपञ्चकमिति स्फारं च पादाधिक लक्षं श्रीजिनमूर्तयः सुविहिताः प्रोत्तुङ्गमाहेश्वराः । प्रासादाः पृथिवीतले ध्वजयुताः सार्धं सहस्रद्वयं प्राकाराः परिकल्पिता निजधनैर्द्वात्रिंशदत्र धुवम् ॥७॥ सत्रागारशतानि सप्त विमला वाप्यश्चतुःषष्टयः प्रोच्चैः पौषधमन्दिराणि सुमहज्जैनाश्च शैवा मठाः । विद्यायाश्च तथैव पञ्चशतिकाः प्रत्येकतः प्रत्यहं पश्चत्रिंशशतानि जैनमुनयो गृहन्ति भोज्यादिकम् ॥८॥ १-२ उपजातिः। 3 स्वागता । ४-६ शार्दूल. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतत्रयं षष्टियुवं प्रपाणां सरोवराणां हि शतद्वयं च। स्नानार्थकुम्भाक्षतपसूरि सिंहासनानां न हि काऽपि सङ्ख्या ॥९॥ दत्ताश्चतुर्विंशतिवास्तुकुम्भा, हैमारविन्दोज्ज्वलजादराणाम् । वर्षाशनानां हि सहस्रमेकं, तपस्विनां बेदमिताः सहस्राः ॥१०॥ इत्थं कृतज्ञेन कृतः कुकर्म-मर्मप्रहाराय महोत्सवेन । धर्मव्ययो धर्मधुरन्धरेण, श्रीवस्तुपालन जिनप्रसादात् ॥११॥ ला छ-परिशिष्टम् । ॥ श्रीचतुर्विंशतिप्रबन्धगतपद्यानामकाराद्यनुक्रमः॥ - का अ २३८ | अनादिरम्यक्त. १९० अग्घायंति महुयरा ६६ | अनिःसरन्तीमपि २३२ "अग्रे गीतं सरसकवयः ३ अनेकयोनिसम्पाताअच्छाच्छाभ्यधिका. १२९ अन्धा एवं धनान्धाः स्यु- २०८ अजित्वा सार्णवामुवी- २२६ अपूर्वेयं धनुर्विद्या अञ्च विसा परितप्पड़ | अमनवैराग्य. अछ विसा सुमरिजा १५/ अमुमकत यदाना १७८ अणफूल्लिय फुल्ल अंबं तंवच्छीए अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा ६३ अयसाभिओगसंदूअद्य मे फलवती २३० ये मेक ! च्छेको भद्य मे सफला प्रीति ६७ | अर्थेन प्रथमं कृतार्थ. अधीता न कला काचित् . २२५ अईतलिजगन्द्यान् अध्यापितोऽसि पदवी. ७.) अवधारणशक्तयों तं १-7 उपजातिः। अत्र धरणादीनामपि समावेशः क्रियते । ५ श्रीभर्तृहरि ते वैराग्यशतके (भो. ६६)। २२ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अपवर्ष निजं बालअष्टौ हारककोडय. अस्थाने बकमारम्भो अस्माम् विचित्रकपुष. अस्माभियेदि वः कार्य मस्माभिवतुरम्बु. अस्मिनसारे संसारे अस्याः सर्गविधौ प्रजा अहयो बहवः सन्ति चतुर्विशतिप्रवन्धे ४५ ] इण्यासिद्धि समुनते ३१ | इतश्च सा शिलादिन१८१ इति दुःखौघसमष्टाद ६२ इति विपदितो मृत्यु६५ | इति श्रुत्वाइकुपद् बाल इत्यं वदन् महीपाल२२१ इत्युक्तोऽपि विषण्णारमा १४६ | इत्युक्त्वा कर्करं सूक्ष्म-- ३९) इत्युक्त्वाऽम्यां समापृच्छय | इह लोए च्चिय कोवो २०५ ४३ | उक्तबर कथ इंसि १२३ | उच्चाटने विद्विषता ४३ उच्चगव समारोप्य ४३ | उजितसेलसिहरे २९ | उत्तरओ हिमवंतो २२६ । उत्तिष्ठन्स्या रतान्ते ५९ उपकारसमर्यस्य उपद्रवस्सु मुद्रेषु २२६ उवयारह उक्यारखड ९. एकदा मातरं सार्थी एकदेहविनिर्माणा एकधारापतिस्तेऽद्य एक ध्याननिमीलना. एकादशाधिके तत्र एकस्त्वं भुवनो. २५५ एतच्च प्रथमं ज्ञात्वा २०८ आकतिर्गुणसमृद्धि आकृष्टस्तेन मन्त्रण आगतस्य निजगेमप्यरे आगत्य बलभीत्र भापाण्डुगण्डफलका आयान्ति यान्ति च परे आयुर्योवनवितेषु आरम्भगुवी क्षयिणी आरक्षाम नृप. आरोहन्ती शिरःखान्ताआलब्धा कामधेनुः आलेख्ये चित्रपतिते आलोकवन्तः सन्त्येव आवयोश्च पितृपुत्र. आसनग्रामभक्षण आस्य कस्य न वीक्षित आः साम्यं न सहे आहादं कुमुदाकरस्य १४९ १२५ १८५ N० २४१ ४ इक्केण कुच्छ्रहेणं ६६ | "कः कण्ठीरवकण्ठ. १ इद पद्य भोजप्रबन्धे (पृ. ५१) शार्ङ्गधरपद्धत्यां च दृश्यते । ३ विक्रमोर्वशीये (१-८)। ३ सिद्धस्तवसूत्रे ( श्लो. ४)। वेणीसंहारनाटके प्रथमेधे (लो. ३) । ५ मुद्रितकुमुदचन्द्रनाटके (अ. 1, को. २२) । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ-परिशिष्टम ८७ १२९ २५ २४६ ० २५४ कथासु ये लष्वरसाः कदाचिदागतास्तम or TESन्तर्मागधे ती कलयसि किमिह रूपाणं गतिरन्या गजेन्द्रस्य कालिका महाघोरे गुणसेण अग्गिसमा कल्पदुमतहरसौ २३४ गुणमेणवाणवतर कवाडमासच वर. । गुरुभिषग् युगादीशकः सिंहस्य चपेट. १८ गुलसिउंचावई तिल. कामं खामिप्रसादेन २३५ गृहचिन्तामर. कायः कर्मचरोऽयं तम्- २०९ | गृहीत इव केशेषु कालउ कंबलु भवनी ३१ गोविन्दनन्दनतया कासः केलिमलकरोतु २१७ | गौरवाय गुणा एव कालान्तरेण तत्र पुरे गौर्जराणामिदं राज्यं कालेन तत्र साऽसूत ४३ मावाणो मणयो हरि. कालेन सौनिकैनैव २०९ कि कुर्मः कमुपालभेमहि २५६ चकिदुगं हरिपणगं किन्तु विज्ञपयिताऽस्मि २०७ चतुर्दश तु वैकुण्ठाः १२१ कियती पञ्चसहनी ७७ चाटुकारगिरा गुम्मः कीर्तिः कैः कति १३१ चित्रस्था अपि चेतासि कीर्तिस्तै जातजाव्येव ५१ | चिन्ताचक्रहते चित्ते कुमारपाल ! मन १०६ चेतः साईतरं वचः कुमारपाल रणहि ५०८ | चौलुक्यः परमाईतो २२९ कैषा भूषा शिरोणां क्रमेण मन्दीकृत. २२२ छत्रछायालेनामी क्रमेण ववृषाते तो ४३ छायाकारणि सिरि क यातु कायातु १२५ क्षारोऽब्धिः शिखिनो जई रक्खिज्जा क्षिपया वारिनिधि० जं दिट्ठी करुणातरंगियपुडा ५०, ८३ शुषणाः क्षोणिभृता० जन्मस्थानं न खलु जयविजया य सहोयर खद्योतमात्रतरला | जयो वा मृत्यु! सवमना गतान्यईद जलधेरपि कलोलाखेयभिधं महास्थान ४३ जह जल जलउ लोए १-२ समरादित्यकथाया भूमिकायां (पृ. १०)। ३ आवश्यकनियुक्तौ ! 7 समरादित्यकथाया भूमिकायां (पृ. १०)। १९५ - r Ki Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जह जह परसिणि जा जस्स ठिई जा जितश्चेत् पुरुषो लक्ष्म्या जिते च लभ्यते लक्ष्मी जीत छहिं जणेहिं जी जलबिंदुस जीवितै फलमुद्यमार्जितं जे के वि पहू त तं लब्ध्वा पुस्तकं महतझ्या मह निग्गमणे तह वि वरनिग्गयदलो तट विपिन विहारो • ततोऽथाकृष्य वणिना तत्तीसीयाली मेलावा तद् गत्वा तत्र तैरुकं तगिरा विद्यमानोऽर्भ प्रतिष्ठः श्रुतयेो ततो धर्म तारप्रभावनावीर तां न दत्ते पुना रो ताम्रपर्णीतोत्पलैतावटिम घोषण तावदध्यापकस्यान्तं - तावडीला कवलित० तीर्थ शत्रुनयाहं यद् तृणं शूरस्य जीवितम् तेजसां न हि वयः तेन कर्करशस्त्रेण ते मुग्गडा हराविया स्वस्कृपाण विनिर्माण स्वत्प्रसादते नीडे चतुर्विंशतिप्रबन्धे २५ स्वत्प्रारब्धप्रचण्ड २२८ १४९ | दरापाणं पुफफलं २५२ दानि दश लक्षाणि २११ दधाति लोभ एवैको ८. दधिमथन विलोल • २५३ दानेन भूतानि ६७ | दिक्षा कग्गीवादिक्षुरायातो ४६ | दुःखाग्निर्षा स्मराग्निर्वा ૪ दप्यद्भुजाः क्षितिभुजः ७२ दृष्टस्तेन शरान् ५२८ दृष्टिष्टा भूपतीन ४८ या सर्वामयं मे ६८ देव ! त्वभुजदण्ड • देव ! त्वं मलया देव | सेवकजनः स I r १३४ २३२ ४५ ** २४६ १८ देव ! स्वर्नाथ ! कष्टं देवाज्ञापय किं करोमि * देवी पवित्रितचतु • दैवयोगाजितं मः • दो विगहि (हा द्वादशार्क east ४३ ध २२० | धनी धनात्यये जाते ४५ धन्यास्त एव धवलायत • २५३ | धन्यास्ते ये न पश्यन्ति ५५ धर्मलाभ इति प्रोके YY १९५ १२९ न २३२ न कृतं सुकतं किमित् विग्वृत्तनृसमुचित पोवास १२८ ३५ १०५ १२६ ૧૪૨ ७३ ४१ २०९ २०६ ११९ १०८ १ १३१ १.३० २०७ १२९ १७१ ११४ 84 * १२० २०८ ७२ દ્ IY ५९ १९२ १५५ १ निशीथभाष्ये । २ रघुवंशे ( स. ११, श्लो. १ ) । ३ बालभारते ( स. ११, को. ६) पधीयचरित्रे (स. ११, को. ६४ ) । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ-परिशिष्टम् ६ ३२ २.९ न खानिमभ्यादुद. १९८ परिसेसियईसलं न गहा गानयं २१ पस नेम पुलिंदउ न प्वानं तनुषे २०६ पालित्तय ! कहसु फुलं न नाम्ना नो वृश्या ३९ पारेतजनपदान्तनमोऽस्तु हरिमद्राय ५. पीसुद्धक्षमहाजाल्या नयचक्रस्य तर्कस्य पीयूषादपि पेशलाः नवसयतेणउएहिं १५२ पुण्यलक्ष्म्याश्र कीर्तेष नवि मारियइ नदि पुमे वाससहस्से न सर्वथा कश्चन | पुरस्कृत्य न्याय २. नव्योद्वाहविधी पुरुषः सम्पदामग्रनागेन्द्रगच्छ सत्केषु पुष्पस्रग्दामरुचिरं नास्ति तीर्थ मिह पूजाकोटिसमं स्तोत्रं निजां स्वसारं स ददौ पूर्वाहे प्रतिबोय निपाय यस्य क्षिति प्रक्षालमाद्धि पङ्कस्य निरर्थकं जन्म गतं १३३ प्रभुप्रसादस्तारुण्यं निवपुच्छिएण गुरुणा २६ प्रयोजकान्यकार्येषु नृपव्यापारपापेभ्यः २२८ ! प्रावृट्काले पथौराशि. नेत्रेन्दीवरिणी १७. प्रियं वा विप्रियं वाऽपि १२४ नेदीयानिह बाहूना २१३ ! प्रियादर्शनमेवास्तु ७१, ३४ नोद्घाटयन्ति तस्चिम्या नोन्मूलयामि चेद् बौद्धान् ४५ बाला चंकमंती पए पए न्युम्छने यामि वाक्यानां ७२ | बालो मे वृषभो बिन्दवः श्रीयशोवीर ! पई मुक्काण वि तस्वर! | बुभुक्षितः किं न करोति पत्तमवलंबियं ३१ बौद्भर्मुधर जगज्जग्धं पदं सपदि कस्य न पद्मासनसमासीनः १९२ मग्ना पूर्वलभी तेन । पन्थानमेको न कदापि २१८ | भजते विदेशमधिकेन १११ परिच्छदातीतः १३. भवस्याभूद् भाले १२८ ५ पाठभेदविका गाथेयं दृश्यते श्रीधर्मघोषसूरिकृतकालसप्ततिकायामेकचत्वारिंशत्तमगाथारूपेण । सन्देहविषौषध्या श्रीजिनप्रभसरिभिः प्रोक्तं यदस्या मूलस्थानं तित्थोगालीपइन्नयनन्जको ग्रन्थः । प्रथमानुयोगसारोद्धारद्वितीयोदये गाथेयं समस्तीति धीमेरुतुबसूरयः । २ नैषधीयचरित्रे ( स. १, श्लो. १)।३ विशेषावश्यकभाष्ये (गा. ९३४ )। ४८ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ चतुर्विशतिप्रबन १४ भरमा काचन भूरि. ८. मृगेन्द्र वा मृगारि बा भिक्खयरो पिच्छह ८५ मृत्वाऽपि पञ्चमो गेयः भुंजर आहाकम्म भूत्वा व्योमनि साइवादीत् यच्चिन्यते परस्य भूपभ्रूपल्लवप्रान्ते यको रषदो भूमौ मुमोच तं तर्क । यत् पश्यन्ति अगि० मोगा भन्शुवृत्तयो यथा यूनस्तद्वत्परम भोगे रोगभयं सुखे यथा नदी विनाऽम्भोदाद यदीदृशेषु कार्येषु १२४ मग्नः कुटुम्बजम्बाले यदेतत् स्वच्छन्द १७९ भदैन मानेन मनोभवेन यद् दाये द्यूतकारस्य २३३ मोशृङ्गं शक्रयष्टि० ३१ | यद् दूरं यद् दुराराध मनसा मानसं कर्म ८१ यन्मयोपार्जितं पुण्यं २५५ मन्ये मन्दधियां विधे। २५६ यस्मिन् कुले यः मयनाहिसुरहिए यस्मै स्वयंवरगत. मर्दय मानमतङ्गज. | यशोवीर ! लिखत्याख्या मलओ सचंदणु चिय याचको वञ्चको व्याधिः मलमूत्रादिपात्रेषु ७१ | यामः स्वस्ति तवास्तु मल्लवादिनमाचार्य या रागिणि विरागिण्यः मल्वादिनि जल्पाके | यास्यामीति जिनालये महाजनाचारपर० ५७ युष्मादृशाः कृपणकाः महाव्रतानि पञ्चैव येनागच्छन्ममाख्यातो माणसरहिएहिं येन केन न च माता जगाद नो वेनि येनेदं भक्षितं भक्ष्य मानं मुख सरस्वति ! ये पापप्रवणाः स्त्र २३२ मार्गे कर्दमदुस्तरे योग्यं सुतं च शिष्यं च मा स्म सीमन्तिनी काऽपि यौवनेऽपि मदनाम मासान्मांसलपाटला. २५० मिता भूः पल्याऽपा स खेरेवोदयः श्लाघ्यः मित्रस्नेहभरैदिग्धो १८१ ! रसावेशे हि कालो झै १२९ मुधा मधु मुधा सीधु १२० । रसेन तेन स्पृष्टस्य १-२ वैराग्यशतके ( श्लो. २९, ३१)। ३ अयोगध्यवच्छेदिकाहानिशिकायां ( श्लो. २५)। ४ अयं पाशो न वेति शङ्का समरित। د وه ش * २०७ بلع YW Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभिः पूज्यते यच राज्याभिषेके कनका० राज्ये सारं वसुधा राम्रो नाम बभूव ष्ट शासनदेव्यूचे कदिः किलैव वृषभः रूपं रहो धनं तेजः ल लक्ष्मीं चलां त्याग ० लक्ष्मीवला शिवा चण्डी लज्जिज्ज जेण नणे लग्धाः श्रियं सुखं स्पृष्टं लब्ध्याऽऽस्वादं पुमान् यत्र लावण्यामृतसार • लोकः पूजित पूजकः लोकः पृच्छति मे वार्ता व वक्त्रं पूर्णशशी सुधाक वचयित्वा कार्पेटिक वञ्चयित्वा जनानेतान् पुरेव तवाचष्टे वरं सा निर्गुणावस्था वरं प्रज्वलिते वहा । वरि वियरा ( रया ? ) जहिं बलभीपुर भूपेन वी नरिंदचित्तं वस्तुपाल ! तव पर्व • वाजिवारण लोहाना वादे जयन्ति यद्यस्मा विक्रमाकान्त विश्वोऽपि "विकारहेती सति विक्रमादित्यभूपालात् -परिनि | विण विणा वि गया १ | विदेशवासिनः श्वेताविद्वान् सर्वत्र पूज्यते ७१ * विधौ विष्यति सक्रोधे विरमत बुधा ! योषित् • ४६ १०१ | विवेकमुच्चैस्तर • विषयामिषमुत्सृग्य वीक्ष्यैतद्भुजविक्रम • २४१ वृचिच्छेदविधौ २१ वृद्धानाराधयन्तोऽपि ८ १ | वेश्यानामिव विद्याना २५* वैक्रियेभ्यः सुराङ्गेभ्यो रा २१० ४७ | शताष्टके वत्सराणां २२६ १० | तेषु जायते शूरः शत्रुनये गिरौ चैत्योशत्रुज जिनाधीशं ७९ शम्भुर्मानससन्निधौ ४८ शशिना सह याति २२७ शस्त्रं शाखं कृषिर्विद्या ४९ शाणोत्तीर्णमित्रोज्ज्वल. 10 ११६ | शास्त्रज्ञाः सुवचस्विनो ११६ शास्त्राभ्यासो जिनपति • २२४ | शिलादित्य इति ख्यातः ४४ | शिलादित्य नृपोपान्ते २५३ | शिलादित्यनृपो बौद्धान् २३४ | शूराः सन्ति सहस्रशः २१२ | शैत्यं नाम गुणस्तवैव ४५ श्रियो वा स्वस्य वा नाशो १४६ | श्री इन्द्रभूतिमानम्य ६० श्री चौलुक्य । स दक्षिण ० श्रीनाथपान्थरजसा 76 १ रुद्रटालङ्कारे । २ कुमारलम्भवे ( स. १, लो. ५९ ) । सम्भवे (स., . ३३ ) । १५ ४५ ७७ २०९ १३८ १ २०९ १२७ ૨૦૬ २४५ ६४ *ર્ ५६ २४७ ४४ YU ११९ १९६ ६३ * ९३ २५५ ४४ ४६ ૧ ९९ .. २४५ ४३ 909 २३७ ३ कुमार Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ ३५ चतुर्विशतिप्रवन्ध भीमकर्णपरम्परा. | सर्वस्य गात्रस्य श्रीमोजवदनाम्मोज सम्बो पुष्पकयाण श्रीमन्ति रष्ट्वा द्विज. साक्षादागत्य तं भानुश्रीमल्लबादिचरितं जिन. साङ्ख्या निरीश्वराः केचित् श्रीरियं प्रायशः पुसा सा गता शुभमयी श्रीवस्तुपाल! तव साऽप्युदश्रुरभाषिष्ट श्रीवस्तुपालतेजःपालौ सा प्राह स्म पितर्नेयं श्रीवस्तुपाल! प्रतिपक्ष. सा बुद्धिपिलयं प्रयातु श्रीवासाम्युजमाननं साहसजुत्तह हल श्रीवीरे परमेश्वरेऽपि साहित्ये सुकुमार. श्रुत्वा वनेमधुरता सिद्धततत्तपारं भ्रूयते यन्न शास्त्रेषु सीसं कह दि न फुटुं वेताम्बरस्फुलिङ्गस्य श्लाध्यता कुलमुपैति सुबह गुरु निस्चितो सुधाधोतं धाम १७८ पत्रिंशदाधिके माहा सुभगाख्या सुता तस्य पण्मासान्तनिशायां स मुच ! त्वं कुपिते. षण्मास्यन्ते पुनः सोचे | सूत्रे वृत्तिः कृता पूर्व २२६ सूरो रणेषु चरण. २३२ स एव पुरुषो लोके सेयं समुद्रवसना . २२२ सच्चं मण गोदावरि । १४८ स्नेहो न ज्ञायते देव ! सद्वत्तसगुणमहीह. स्फुरन्ति वादिखथोताः सन्दष्टाधरपका १३५ स्वयं गत्वा शिलादित्यसन्ध्या यत् प्रणिपत्य । स्वयम्भुवं भूतसहस्र० सन्धौ वा विग्रहे वाऽपि सप्रसादवदनस्य २०७, हंसा जहिं गया तहिं समणाणं सउणाणं १५४ | इसन्नपि नृपो हन्ति । २२७ संपइ पहुणो पहुणो ६. | हिंसाः सन्ति सहस. ११३ सयं पमजणे पुनं १९१ हित्वा जीर्णमयं देहं सरस्वती स्थिता वक्त्रे १ हे विश्वषयसूत्रधार ! १८९ सर्वदा सर्वदोऽसीति .. | हैमी कतिकामेका " मा १ उपदेशरत्नाकरस्य १५३तमपृष्ठानुसारेण इद पद्यं वर्ततेऽलङ्कारचूडा. मणौ। २ श्रीहरिभद्रमरिहते षड्दर्शनसमुचये (मो. ३) । द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकागम् । ४३ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ- परिशिष्टम् । विशिष्टग्रन्थनगरादिनाम्नामकारादिक्रमेण सूचिः । अ अग्गिम ५१, ५२ अभि १६३, १६८ अवालिग्राम २५४ अवालिय २४१ अङ्गद १००, १७१ अच्युत १५९ अजयपाल २००, २०६ अजनी २०४ अपिसन ११६, १२६, १८५ अहिलपुर ८६, १८९, १९९ अनन्तपाल २१२, २१४ अनलगिरि १७५ अनुपमदे २५५ अनुपमा २०५, २२१, २३०, २४४, २४५, २५६ अनेकान्तजयपताका ५२ अन १०३ अन्ज २५६ समय १००, २१, २५९ अमिनदराम १६६, १६८ अभिमन्यु १७५ अमर (चन्द्र) २, १२६-१२०, २२८ अम्बर १०० अम्बा ८९, १९६ - १९८, २४३ अम्बिका ८८, ८९, २१७, २२०, २३४, २४१ अयोध्या १६६ चतुर्विंशति सूचि १ अरिनेमि ८९ अरिसिंह १२६, १२९, १३० अर्जुन १७५ अर्णोराज २०६ अर्बुद १५३, २३५, २३६, २४२, २४४, २४६, २५७ अलिम्बर ९, १०, ११ अवन्ती ३१,३३,३८,४१,१३७ – १३९, १५९, १६०, १६१, १३५ अवन्त्री सुकुमाल ३८ अश्वराज २१२ अष्टक ५२ अष्टापद १००, १५३, १७२ आ आचार (अ) इ आनंद ५१ आदिनाथ १४३ आमाक १०३-१०८ आमचं २, १००, १९९-२०१, ३०३. २०४ आभू २१४ आम ५७-६२, ६३, ६५, ६७-७, ८१-९०, ९४ आमदस २२४ आसण २४४ आलिग २३१ आवश्यक ३, ५० आसराज १०५ ११३ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ चतुर्विशतिप्रवन्धे | कण्टेश्वरी १८ इन्द्रभूति ३ कन्थारकुडङ्ग ३० कन्यकुम्ज १६, ४०, ५७, ६५, ७१ ईशान २९, ९३ २०५ कपर्दिन् १०-१०२, २१७, २२. उप्रसेन २७ २४० उजयन्त २४, ८७, ८८, १००,२०, | कपाट १९६ कबाडी १८७-१८९ उज्जयन्ती १२२ कमला दिल्य १२८, २१ उज्जयिनी १५, ३७, १३१, १३४, | कर्ण ७५, १०, २०६, २२४ १५८, १६०, १६९, १७५ कर्णदेव १८५ उत्तराष्पयन ३ कर्णमेरु(प्रासाद ) १०४, १०५ उदयन २, ९९, १००, १७५-१७९, कर्णाट १३१, १८६ २३०, २३१ कर्मप्रकृति २२८ उदयप्रभ २२८ कलहपश्चानन १०६, १०७ उदयसिंह २१२, २४६, २४९, २५० कलाकलाप १२६ उपमितिभवप्रपञ्चा ५० कलाकेलि ९१ उम्बरिणी २४ कलामारती ११६ उराल(पुर ) ११०, १११ कलावती १७५ कलिकालसर्वज्ञ ५० ऊदल २४ उपरवट २१०, २११, २१४ कल्पक २३१ कल्प( सूत्र?)३ अषम(देव) २, ४५, १००, १०२, कल्यर्जुन २१४ १७५, १९८, २३०, २३२, कल्याणमन्दिरस्तव ३८ २३३, २३८, २४०, २४, कविशिक्षा १२६ काञ्चनवल १९७ ऋषिमाषित ३ कात्यायन " ओ कान्ती(पुरी) २७, १७३ ओहारनगर ४०, ४२ काब( वेरी १२३ ओटर ११०, १११ कामरूप १५९ | कामसेना १६२ कंस २८ कार्तिकेय १७०,१७ कण्टिका ९१, १२, १४ कालय १५२ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालमेच १९६ कालिक( सूरि ) २३, १५२ कालिका १५१ कालिवर ( गिरि ) ८४ कालिन्दी ७८, १८९ काव्यकल्पलता १२६ काश्मीर ११४, १९१ कासी ११३, ११६, ११७, १२५, १६१ १८०, १८२, १८३ कीर्तिपाल २०२ कुछ ६६ कुन्तिभोज १३१ कुमर ३४ कुमार (देव) १८० - १८४ कुमारदेवी २०५, २२४, २३० कुमार (पाल) १७, १८, १००, १०३, १०६, १०७, १०९, १११, ११६, २००, २०६, २३१ कुमुदचन्द्र ३३ कुड़चन्द्र २५५ कुहाडी २४१ कूर्चीलसरस्वती १०० छ-परिशिष्टम् कूर्मारपुर ३५ कूष्माण्डी ८८, १९६ कृष्ण ( नगर ) १२८, २४१ कृष्ण १४८, १६९, १७० केतु २१२ केदार २५८ केल्हण १०५ कैलास १७० कोणिक २४८ कोमल १९१, १९६, १९७ कोठापुर १४४ कोलासुर १४५ कोशल ( १ ) ३० कोशला १६६ कौशाम्बी १७५, १७७-१७९ कौश्वहरण १७५ क्षेत्रवर्मन् २१४ ख खगमनविद्या २७ स्वङ्गारदुर्ग २३५ खपट (आर्य ) २, १८-२२, २७ खरमुख १४८, १४९ खर १६० खून्दला १४०, १४३ खेटा ( ? ) ४ खोटिक १९६ r3 गणदेव २५९ ग गगनगामिनी विद्या १७२ गङ्गा २५, २६, ६४, ६७, ८७, ८९० ९५, ११२, ११७, ११८, १६३, १६४, २२१, २३१ २७९ गन्धवत् १६० गर्दभट्ट २३५ गर्दभीविद्या २३५ गिरिनार २०५ गिरिविदारण १९६ गिरिसेण ५१ गड शस्त्रपुर १९ गुणचन्द्र २०० गुणसेण ५१, ५२ गुणसेन सूरि ९७ गुलकुल्य २१४ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे गुर्जर १२, १५, १६, ४, ५५, ७७, | चन्द्रप्रम ८९, १०१, १०२ ८९,९७, १०३, १०४, ११९, चन्द्रलेखा १४७, १८, १७) १२७, १८६, २०२, २०५, चन्द्रावती २३ २०६, २१०, २१२, २१६, चम्पकसेना १७५ २२५ २२६, २२९, २३५,२४०, चर्मण्यती १५३, १५५, १५७ २१२, २४९. चाङ्गदेव ९७ गोदा ६७ | चाचिग ९७ गोदावरी २८.६५, १३६, १३९,171, | चापोत्कट २०६ १४०-१५. चामुण्डराज १८५, २६, २१०, २११, गोत्रक २१६ गोधा २१६, २१७ चाम्पल १००, २४४ गोपगिरि ६०,६१,६९,७६, ७८, ४४, | चाम्पला २०३, २०४ ८६, ८९ ९०, ९५ चाइड १.७ गोपगिरीय ६३ चाहमान १०३, २१२ गोपालगिरि ५५, ५९,७० चित्रकूट ३४, ३५, ४२, १९,५१, ५२ गोमती ११२ चिन्तामणिमन्त्र ११२ गोविन्द(सूरि) ७०, ७७, ७९ १२, १५ चिन्तामणिविनायक ११५ गोविन्द ८५, ११३ । चेटक १७५ गोविन्दचन्द्र ११२, १८. चेल्लण १५७ गोहिल २१० चेल्लणपार्श्व १५८ गौड ३०, ३१-६, १९ चौलुकीय १०७ गौरवध(महाकाव्य) ७७ चौलुक्य १.०, १०१, १०-१५८, गौरी ८२ १२., १८५, २०६, २१४, गोर्जर 140 २२९ घण्टामाष २६ घण्टावलम्बिन् ११३, १६ पुल २१६-२१० छम्बोरत्नावली १२६ छामक १.. बकेश्वरी(विधा) १३, २४. चण्डप २०५ चण्डप्रयोत १७५, १७९ चण्डप्रसाद २०५ चन्दनबही १०५ जगष्ट १०२ जगत्सिंह २५९ जगडक १०३, १०५ जनक १५२ जनमेजय १७५ जम्बूद्वीप ७१ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामिन् १०९ जय ५१ जयतलदेवी २१० जयताक १०९-११९ जयद्रथ १२० जयन्तचन्द्र ११२, १८०-१८३, २३५ जयन्तराज २३१ अयन्तसिंह २२१, २५४, १५६ जयसिंह ( देव ) १०७, ११०, १८९, १९९ माम्बक २३१ जालिणि ५१ जाबालिपुर २१२, २१४६, २४९, २५० जाह्नवी ११८ जितशत्रु ५५ जिनदत्त ( सूरि ) १३, १२६ जिनदास १५९ १६, १७, १२६ जेटुआ ( क ) २५१, २५२ जेठुयक २५२ सिङ्गदेव १९९ जेडुल २१४ ठक्कुर ९७, ११७ ठाणांग ९७ १३, ११५, ११६, तक्षक १७५, १७७, १७८ तक्षशिला ११७ तरङ्गलोला १८, २९ तापी १४० ताम्रपर्णी २४६ जिन भट्ट ( सूरि ) ५० जीवदेव ( सूरि ) २, १३, १४, १५, डहाल १७९ छ-परिशिष्टम g आक( पुर ) ९६. डुम्बाउधी ५५, ५६ डोडीया १२२, २१४ १८५, द ढक २७ १७२, १७४ हिं ( दी ) पुरी १५३, १५८, १५९ दिल्ली २३५, २४०, १५९ त तारक १७१ तारा १७५ तालारस ३३ तिलङ्ग ११०, १११, १८६ तिलोत्तमा ६८ तिहुअणपाल १०८, १११ तेजःपाल २०५, २०६, २०८, २०९, २१२,२१३,२१६–२१८, २२१, २२८, २३५, २३७, २४३, २४४, २४६, २५४, २५६ २५७ तेजलपुर २३५, २४० तोला १९३ त्रिकूट ( गिरि) १७१ त्रिपथगा १८९ त्रिपुरा ११२ २८९ त्रिलोकसिंह २१२, २१४ त्रैलोक्यजयिनी विद्या १५ द दत ( सूरि ) ९६ दशकन्धर १४६ दशवदन १४६ दर्शकालिक ३ दशाननी १७१ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ चतुर्विशतिप्रवन्धे दशाश्रुतस्कम्ब ३ | धर्माप १५५ दाशरवि. धर्मदत्त १५५ दाइह २१ धर्मदेव १३ दीपिकाकालिदास १२६ धवल २१८ दुन्दुक ११,०९-९ धवलक(क) १७९, ११५, १२७, दुर्गसिंह २२६ २०५, २०६, २०८, २०१६ दुर्लभराज १८५, २०६ २११, २१३, २१५, २१८, देव्हा २३६ २१९, २२४ देवचन्द्रसूरि ९५ अवलचन्द्र, १७०,७१, २३५,-२३८, देवदत्त १५० २४१-२४, २४६, २८, देवपत्तन १.१, १२५, १८५, २३५ २४९, २५१, २५० देवपाल ३५ धारा १८५, १८५, १८९ देवप्रम २२. धारावर्ष २३६, २४३ देवबोधि ९७ धारु १०३ देवर्षि ३० धारू १७५ देवसिका ३१ धिन्दिणि ३२ देवसूरि १०० धूलीसमुद्र १६२ देवादित्य ४३ ध्रुव २५६ देवीहरसिद्धि १६० द्रोणपर्वन् . नगरपुर १०० द्वात्रिंशद्वात्रिशिका ३७ नइलीय १०५ द्वादशरुद्र १८५ नन्द २३१ द्वारवती १७२ नन्दन १२२, १८८ द्वारिका ८७ नन्दिल ( आर्य ) २, ८, ११, १२ द्वैपायन २२७ नन्दीश्वर २२१ नम( सूरि)७०,७७-७९, ९२-९५ धण ५१ नमि २५६ धणसिरि ५१ नयचक्र ६ धनपति १५, १७३ | नरचन्द्र २२८, २३१, २३७, २५४ धन्धुकपुर १७ नरभारती ११७ धरण ५१ नरवर्मन् १८५ धरण (इन्द्र ) १२ | नेल ९०, १८६, २२, २३१ धर्म ६३, ६५, ६७-६९, ७३-७७, नलिनीगुल्म ८, ३९ | नवइंस १९, Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ-परिशिष्टम् २८३ नवहुध १९१, १९८ | पचलिङ्गी ५२ नागड २२४, २५०, २५४ पञ्चवस्तुक ५२ नागदत्त ११ | पञ्चसूत्रक ५२ नागपुर १३६-२३८ पश्चाल ५५, १७९ नागपुरीय २३० पञ्चाशत् ५२ नागइस्ती२३ पचासर(पुरी) ८ नागार्जुन २, २७, २८, १५-१७४ पहमहादेव १९१, १९३ नागेन्द्र २३, १४ । पत्तन १०८, ११२, २०५, २३५ २५७ नागेन्द्र (गक), २२९ पद्म ८, १२६, १३. नाणायत्तक ५२ पवदत्त ८, ११, १२ नादसमुद्र १७५ पप्रम ८ नानक २४१ पपयशस् ८, ९, १२ नानाक १२८ पद्मा ११, १४ नाभि १०१ पनाकर १६ नाभय ३२, २३०, २३२,२३४ पप्रानन्द . नामल १७५, १७७, १०८ पमावती ८, १९ नारायण ११५, १६९ पमिनीखण्डपतन ८ निम्ब १५ परकायप्रवेशविघा १६१ निर्वाणकलिका २८ परपुरप्रवेशविषा १२६ नूनक २५९ परमहंस ५०, ५१, ५३ नृपमाग १००, १९९ परमार ७४, १.., १.९, १८६ नेट २४२ परीक्षित् १५५ नेमि(नाथ) १, ८७-८९, ६७, १०१, पही १०९ १५३, १७, १९१-१९८, पडीकोट 1.0 २३३-२३५, २४१,२४४-२४७ नेमिनाग १७ पाटलिपुत्र २६, २७ नेमिन् २३३ पाटलीपुर १ नैगम १५५, १५६ पाडलीपुत्र ११, ९२ नैषध ११४, ११६, १२४ पाडलीपुर ५५ न्यायावतार ५२ पाण्डव १८ पाण्दु १६, १७५ पउमिणि १९१, १९३, १९६, १९७ पाण्य ३१, १४६ पगुल ११२ पाताल १३६, १६९, १०, १७६, पथग्राम २१२ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ चतुवैिशतिषन्धे पादलिप्त ( क ) २, २३-२५, ११, १८, २३४ ३०, १७२ पादलिप्तकपुर २७ पादप विद्या २४ पारेत १५३ पार्थ ७५ पार्वती ८२ पार्श्व (नाथ) २७, २८, ३८, ३९, ८३, १०८, १५६, १५७, १७२१७४, १२१, २२४, २४० पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका ३८ पालित(य) २५, २६, २९ पालिचानकपुर १७२ पिप्पलानक १६ पीठजा १५१ पीलूआई २२८ पीहुलि १७१ पुण्डरीक ९, २४० पुण्डरीकिणी २५५ पुरन्दर २०२, २०३ पुरूरवस् १०६ पुष्कलावती २५५ पुष्पचूल १५३ पुष्पचूला १५३, १५४ पूनम २३६-२३८, २४० पूर्णचन्द्र १९१ पूर्णत ९६ पूर्णसिंह १९१, १९५ पृथ्वीपाल २३५ पृथ्वीस्थान (पुर) ४२, १७२ प्रतापमझ १००, २०० प्रतिमाणा २२ प्रतिष्ठान (पुर) २, ४, २४, १३६-१४०, १४६, १५२ प्रबुकसूरि ९७ प्रबन्धको २५९ प्रबन्धचिन्तामणि ९८ प्रभास ८९, २५८ प्रभासपुराण १९२ प्रमप्रकाश २८ प्रहलादन १०० प्रह्लादनपुर १०० प्राग्वाट २०५, २४२ प्रेममजूदा १४० फुड १३ धप्प ५५, ५६ गप्पक २५९ बप्पी २, ५५-६०, ६३, ६४, १९, ७०, ७४, ७५, ७७, ०९-०५, ८०, ८९, ९२,९३,९५ बडमेर २३७ मलमित्र १८ बलि १६९ - १७१, १९२, २३४, २४१, १५६ चापका १४० बालचन्द्र २०, २०१ बाहुबलिन् ७८ विभीषण ६ बुद्ध २१, ५० महानाग २१४ शान्ति •• माझी ३१, १४९, १५० भ भगदत १०७ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टि ५५, ५६ भद्रबाहु २, ३, ५, ६, ७ भद्रा ३८ भद्रेश्वर १९३, २१२, २१५ भरत (क्षेत्र) १, ३ भरत ६७, ७८, ९९, १०० १०९ भाद्रबाहवी (संहिता) ३ भारत १३६, १५३ भारती ७४, ७५, ७९, ८४,९३, ९५, १००, ११३-११५, १२०, १२२, १२३, १२६, १४७, २२४, २३२ भार्गव ११९ भीम १८५, २०३, २०६, २१० भीमदेव १२२, २०२ भीमसिंह २१२, २१५ भीमसिंहीय २१५ भीष्म २२७ भुवन १८, १९, २२ भूपाल २५१, २५२ भृगुकच्छ १८, २२ ज-परिशिष्टम् १२२, १५२, २३२, २५६ भोपाल १७२ भोपाल (राशी) १०० R महासह २५९ मण्डन २३ मण्डली २०५, २०८ मदनकीर्ति २, १३१, १३५ मदनमञ्जरी १३२ मदनमूर्च्छा १७५ मदनवर्मन् २, १८६ - १९० मथुरा ८१, ८१, ८४, ८६, ९५, १४८ मदन १९१, १९५ चतुर्विंशति सूचि २ मधुसूदन १७४ मम्माणी २४० मयणल १८५ महण २०५, २०६ महणलदेवी २३६ महणीक १६ महमदसादि २५९ भृगुपूर १९, २०, २१, २७, ३० - ३३, ४४, २२५ महाकाल ३७, ३९ महानगर २४१ भोज (देव) ८६, ८७, ९१ - ९५, १२०, महाप्रामाणिकचूडामणि १३१ महामविजय ( काव्य ) ७७ गरु २१४, २२३, २२८ मरु( द )त्त १७० मरुदेवा १०१, २३३ मलअ ६६ मलधारिन् २२७, २२८, २३१, २३७, २५४, २.९ मलय १३० २८५ मढ ४६, ४७ मल्लवादिन् २, ४३, ४६-४८, २२१, २२२ महाराष्ट्र ८९, १२५, १२७, १३१, १३६, १३७, १८६, २२० महालक्ष्मी १४४, १४५, १५०, १५१ महाविदेह २५५ महावीर १५, ५५, ७६, ११, १५५, १५७, १५८ महीतट २१६ महीधर १३ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रवन्धे महीपास मामक १० महेन्द्र २१, २२, २७ महोबक १६-१८ | मोदेरपुर ५५, ४१ मोडेरवसहिका ६ मोहमाया १७५ मौर्य ३० मागध ८७, ८९ यहु २३४ माणस ६६ यमुना ११२, १७७ माण्डल्य २३७ यशःपटह १८५ मातुलिगोविया १४ यशोधर्म ५५, ५९, ७७ माधवदेव ११५ यशोभद्र २,३,९६,९५, ११. भायावर १४३, १४३, १४५, १४६ । यशोवीर २४६, १४७ मारव २१३-२१५ याकिनी ४९, ५२ मार्कण्ट २५६ युधिष्ठिर ७४, ९०, १९९-१७१,२२, मालदेव २४३ २२७ मालय ४०, १०९, ११०, १३८, १३९, यौगन्धरायण २४६ १८५, २०१, २२, २३.। मालषीय १०७, १००,१२२ मारचक २१९ | रक्षित ( आर्य) २, ८ माईन्द्र २२८ रघु ११९ रङ्क ४५, ४८ मुरुण्ड २४,२५ रणसिंह १२ मूलराज १११, १८५,२०६ रत्न २, १९१-१९८, २२९ मृगावती १५५ रन्ति १५५ मेषचन्द्र"२,१७ रम्मा ६८, १७५ मेघनाद ११,१९६ राजगिरि ८६ मेन्तक १०८ राजगृह( पुर) १५ मेवपाट ... राजशेखर २५९ भेदाभेडण(!) १५७ राजीमती १०१ मेरु, १.२ (१) | राम ५७, ७६, ८२, १६६-१६८, मोजदीन २३५, २३६, २३०, २३९ १७०-१५२, १७५, १७५ मोड ९७ रामचन्द्र २००,२०१ मोह २०३ . रामसैन्य ५७ मोडेर(क) ५६, ६०, ७७-७९, रामायण १६६ रावण २, 100, 10 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज-परिशिष्टम् २८७ राशिक(सरि) रुद्र ११५, १७०, १७१ वाजल १३७ रेका १८९ वकचूल २, १५-१५९ रैवत(क) ८५-८९, ९५, १००, ११, वजकुमार ९० १७४, १९२, १९३, १९६ वनस्वामि (आर्य) १०९ १९९, २३३, २३, २३८, | वरपद(पुर ) ९६ २१, २२ वडू २१९ रैवतिक ८७ वत्स १७५ रोला १९३ वत्सराज 100,१०६,२४६ रोहण (गिरि) ६२, ९९ वनराज २०६, २३. वरदत्ता ८ लक्षणसेन ३,१८०-१८ वराह २, ३, ५-७ लक्षणावती(पुरी) ६१, ६५, ६९, ७५, | वराहमिहिर ४, ५, . ७, १८, १८२, १७ | वधनकुार ७३, ७r, . लक्ष्मण १६५, १६८, १०, ११, वर्धमान २, ६१,२५५ १९५ वर्धमानपुर २१०, २२९ लक्ष्मी ८२, १५, १७५, २२१ वलभी(पुरी) ४३, ४४, ४६ लघुभीम २०६ वलमराज १८५,२०६ लघुयुधिष्ठिर ११७ वसन्तवही १७५ लका १७१ | वसुदत्ति(का) १७५-१७८ लन्छी ५१ वस्तुपाल २,१९१२२-१२५, २०५-- २०९, २१२, २१३, २१६, ललितविस्तरा ५३, ५४ २१८--२२२, २२--२२९, ललिता २२१, २२९, २५६ २३३-२३८, २४०, २१, लल्ल १५, १६, १७ २४४, २१६--२५२, २५, लवण १६२ २५५, २५७, ३५८ लवणप्रसाद २०६, २०७, २५० वापति ६३, ४, ७५, ७७, १-४ लाट २६ वागड ९६ लीला १६२ वाग्मट १००, १०२ लीलावती १५ वाचक३ लील.. वात्स्यायन ७८, ७९ लूणसापुरी २१२ वादिकुमरकेसरिन् ७५ लूणिग २३ | वामन १२०, १९२ लूणिगवसति २१३, २५७ वामनस्थली २१०, २११ लोमश २५६ बामा Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ वाट १३, १५, १२६ वायु १३ वाराणसी ११२, १८०, २५८ वाराहसंहिता वारू १७५ बालि १७० वासवदत्ता २७९ वासुकि २७ १७२ - १७५ वाहिल २४२ विक्कम ३४ चतुर्विंशतिप्रबन्धे विक्रम १५, ३४, ४१, ४२, ५६, ६०, ८९, १३९, १६०, १६१, १६७-१७१, २२४, २३६ विक्रमक १७० विक्रमसेन २६०, १६६, १६९ विक्रमादित्य २, १४, १५, ३१, ३३, ३७, ३८, ४१, ४८, ९०, ९२, १३७, १६०, १६३, १६५, विकमार्क १५२, १६१, १६२ विचित्रवीर्य १७५ विजय ५१ विजयपुर १३१ विजयवर्मन् २३ विजयसेन २२८ विजया (देवी) १९१, १९३ विंझ ६५ विमल (गिरि) ८८, २३० विमलयशस् १५३ विमलवसति २४३ विमलाचल १०१ विद्याधरेन्द्र ३० विनमि २५६ विनय १७१, १७५ बिमल २४२, २४३ विमलानना १७५ विवाहवाटिका : ५१ विशालकीर्ति १३१, १३४ विषमा १७५ विष्णु ११४, ११५, १३१, २३१ विसेण ५१ २४८, २५४ १६६, १६९, १७०, २४३, वीरनारायण १२२ वीरम २४८-२५० वीरमग्राम २४८ वीर १, ७०, ७६, १००, १०९, १५२, १५६, १५७ वीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका ३७ वीरधवल ११९, १२४, १२५, २०६, २०७, २०९-२१६, २१८, २२६, २२७, २३१, २३५, २४०, २४८, २४९ - २५१ बीसलदेव ) १२७, १२९ २४८-२५१, २५३, २५४ वीसल (नगरी) १२८ वृद्धकर १९ वृद्धवादिन् २, ३०-३३, ३६, ३७ वृन्दावन १४० वृषभ १०१, १०२ विदेह २५५ वृषभध्वज ८८ विद्याधर २२, २३११७, १८० - १८३, वृषभध्वजचरित्र ७८ २३१ १३०, वेणीकृपाण १२६ वेशीपुर १७८ | वेला कूल २१९ वेलाकूलाय २२०, वैरोचन २५६ २२३ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज-परिशिष्टम् | शौरिन् ८२ बैरोट्या ८,१०-१२, २३ शीलवती १३ वैरोख्यास्तव १२ शूद्रक १४०-१५, १५१ व्याघराज १०३-१०५ शेफालिका ३७ शेष ३९, १३६, १३९ शोभनदेव २४, २५, २४ शक्तिकुमार १५१ शङ्कर १९७ श्यामल १०६, १०७ शङ्ख २१९, २२० धावकंप्रज्ञप्ति ५२ शखेश्वर २५५ श्री १४४ शची २२१ श्रीतिलक १, २५९ शतक १२ श्रीपत्तन १०३ शतानीक १७५ श्रीपर्वत २१८ शत्रुजित् ४ श्रीपाल ९९, १००, १८१ शत्रुञ्जय २५, २६, ४४, १५, ७, श्रीमात २४३ ९५, १००, १०१,१७०, १९२, | श्रीमाल १९९ १९३, १९८, २०५, २२१, श्रीमालपुर ५२, १०० २२९, २३३, २३६, २३८, | श्रीहर्ष २, ११२-११७, ११९, १२४ २४०, २४२, २५०, २.४, श्रुतकीर्ति १३ २५६, २५७ | श्रुतशील २३१ शम्भु ८२, ११९ श्रेणिक ४४, ९०, १००, २३१ शराविका १५५ श्वेत २५६ शाकम्भरी १०३, १०५, १०८ शातवाहन ९. पण्डेर ११० शान्तनु ७५ षोडशक ५२ शान्ति २२४ शान्तिनाथचरित ९७ सतारकाक्षपुर ८६ शान्तिपर्वन् २२७ सदीक २१८, २१९ शाम्ब ३३४ सपादकोटीकाश्चनवर्ष १२५ शाल ८४ . सपादलक्ष १०५, १०८, २५६ शालिमद्र ३८ सपादलक्षीय १०४ शिलादित्य ४-४८, २३५ समरसिंह २१२ शिव ०, १२, १९२ समराइच्च ५१ शिवपुराण २२७ समराक २५० शिवा ८७, २२१ समरादित्यचरित्र ५२ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० समुद्रविजय ८७, १७३ समुद्रसेन ८६ सम्प्रति ३०,९० सम्भूतिविजय ३ सिद्धसेन दिवाकर ३३ सरस्वती ५४, १०९, ११४, १८९, सिद्धन्द्र १८६, १८९ सिद्धेश १८८-१९० ૨૪૬ सरस्वतीकण्ठाभरण १२२, २२४, २४६ सर्वज्ञपुत्रक ३३, ८५ सिहि ५१ सीता ८२, १४६, १६७, १६८ सर्पविद्या ३८ सहदेव १७० सहस्रानीक १७५ सहावदीन २३५ साक्षण २१०, २११, २१६ सादक २५९ सातवाहन २, २८, सामन्तपाल २१२, २१४ साम्ब २२४ सारस्वतमन्त्र १२३ सारस्वत ( व्याकरण ) १४७ सारा १७५ सालाइण १४८ सालिवाहन १४९ साइणसमुद्र २१९ चतुर्विंशतिप्रबन्धे १४४-१४८, १५० - १५२, १७२, १७३, २२४, २५६ सिंह २५१-२५३ सिंहगुहा १५३, १५८ सिंहनाद १९६ सिद्ध ५२ सिद्धपाल ९९, १०० सिद्धपुर १०९ सिद्धसारखत ४२, ६३, ११९, १२६ सिद्धसेन २, ३०-३८, ४०, ४२, ५५, ५६, ६०, ७०, १११, १८७ सीमन्चर २५५ सीलण २०१ सीसुला १४२ खीह ५१ सुग्रीव ७६, १६८ सुधर्मा १२० १३६-१४२, | सुन्दर ४० सुन्दरी १९९ सुभगा ४३ सुभद्रा १२० सुमङ्गला १५३ सुयशस् ५७ २०९ सुराष्ट्र २०५, सुराष्ट्रा ४४, ४६, ८९, १७, १७२ सुवर्णकीर्ति १३ सुवर्णाचल ९९ सुव्रत २२५ सुस्थित ( सूरि) ४५१५३ सुहस्ति (आर्य ) ३८ सूक्तावली १२६ सूत्रकृत ३ सूरपाल ५५,५६ सूरिमन्त्र १४ सिद्धराज ९७, १११, १८५- १८९, सूर्यप्रज्ञप्ति ३ २३१ सूहवदेवि (बी) ११७- ११८, १२१ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेडी २८, १७३ सेण ५१ सोडू २०२ सोपारक १०० सोम ९०५ ज-परिशिष्टम् सोमदत १६१ सोमनाथ ११६, १८५ सोमवर्मन् २१४ सोमादि १२० सोमेश्वर (देव) ११९, १२० १२२-१२५, १२७, २०६, २१८, २२६, २३४, २४२, २५०, २५२ सो २२१, २५६ सौधर्म ०५९ सौराष्ट्र २११ स्कन्दिल (सूरि) ३०, 39 स्तम्भन (क) २८, ४८, ८८, २०८, ३१८, २१९, २५७ स्तम्भन (पुर) २८, १०८, २४२ स्तम्भपुर २३९ स्थिरदेवी १११ स्थूलभद्र ७, १४, २२१, स्पर्श पाषाण ११७, ११० स्वर्गारोहण २५६ स्वर्णकीर्ति १३, १४ स्वर्ण (गिरि) १७१ स्वामिन् ३३ हंस ५०, ५१, ५३, १०२ हडालक २०५ हनूमत २०, १६८, १७०, १७१ हर ८२ हरिभद्र २, ४९, ५१, ५३, ५४ | हरिहर २, ११९, १२२-१२५ हारिभद्र ५२ | हारिहर १२० हाल १४७, १४८, १५० हिम (पर्वत) ९५, १७१ हिमवत् २३१ हीर ११२-११४ | हेम (चन्द्र) २,९७ - १००, १०२, १०८, १९९, २०१ २९१ | हेमविद्या ३४ | हेमसिद्धिविद्या २७ हम २०० Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ चतुर्विशतिप्रबन्धे झ-परिशिष्टम् । प्रकीर्णकटिप्पनकानि। १-२ । एतस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतिरहन्तः-तीर्थङ्कराः- जिनेन्द्राः २३२,१८ / सञ्जाताः । तन्नामानि यथा-(१) ऋषभः, (२) अजितः, (३) सम्भवः, (४) अभिनन्दनः, (५) सुमतिः, (६) पद्मप्रभः, (७) सुपार्श्वः, (८) चन्द्रप्रमः, (९) सुविधिः, (१०) शीतलः, (११) श्रेयांसः, (१२) वासुपूज्यः, (१३) विमलः, (१४) अनन्तः, (१५) धर्मः, (१६) शान्तिः, (१७) कुन्थुः, (१८) अरः, (१९) मल्लिः, (२०) मुनिसुव्रतः, (२१) नमिः, (२२) नेमिः, (२३) पार्श्वः, (२४) वीरः । अतः प्रथमजिनेन्द्रेण को ज्ञेयो नेमिवर्जिता द्वाविंशतिर्जिनाः के इत्यपि स्फुटीभवति । एतच्चरित्रजिज्ञासुभिर्विलोक्यतां पद्मानन्दमहाकाव्यम् । १,४ परं ज्ञानम् = केवलज्ञानम् ; उत्तमं पदम् = मोक्षम् । १,५ जीवा-ऽजीवा-ऽऽसव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षेति तत्त्वसप्तकम् । विशेषार्थिनाऽवलोक्यतां तत्त्वार्थाधिगमसूत्र( अ. १, सू. ४ ) भाष्यानुसारिणी टीका (पृ. ४१-४३)। १, ८ वामाऽङ्गभूः = वामानन्दनः = अश्वसेनपत्नीवामापुत्रः - श्रीपार्श्व नाथः = त्रयोविंशतितमस्तीर्थङ्करः । १,११ आगमबीजम् = त्रिपदी = उपज्जेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा । २, १ जैनदर्शने मति-श्रुता-ऽवधि-मनःपर्याय-केवलेति पञ्चविधानि ज्ञानानि । एतत्स्वरूपार्थ प्रेक्ष्यतां तत्त्वार्थाधिगम( अ. १, सू. ९-३३)टीका । २.२ भन्यजीवः = अवश्य मोक्षगामी जीवः । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झ-परिशिष्टम् २. ५ कायिक- वाचिक-मानसिकक्रियानिग्रहो गुप्तिः । एतत्स्वरूपार्थिना प्रेक्ष्यतां तत्त्वार्थ (अ. ९ सू. ४) टीका ( पृ. १८३ - १८६)। २, ६ चक्री = चक्रवर्ती | २, ६ चरमतीर्थङ्करस्य विविधानि नामानि । तानि चैवम् - वर्धमानः, वीरः, महावीरः, ज्ञातनन्दनः, देवार्यः, सन्मतिः । ३, १ चतुर्दशपूर्वी । श्रुतज्ञानं द्विविधम् - अङ्गबाह्यमङ्गप्रविष्टं च । प्रथममनेकविधम्, द्वितीयं तु द्वादशभेदम्, तद् यथा - आचारः, सूत्रकृतः, स्थानम्, समवायः, व्याख्याप्रज्ञप्तिः, ज्ञातधर्मकथाः, उपासकाध्ययनंदशाः, अन्तकृदशाः, अनुत्तरोपपातिकदशाः, प्रश्नव्याकरणम्, विपाकसूत्रम्, दृष्टिपातो दृष्टिवादो वा । अन्तिमस्य परिकर्मसूत्र - पूर्वानुयोग- पूर्वगत- चूलिकेति पच प्रकाराः । तत्र पूर्वगतस्य चतुर्दश प्रकारा ये पूर्वेति प्रसिद्धाः । एतेषां संस्कृतप्रायाणां समस्तानां ज्ञाता चतुर्दशपूर्वी चतुर्दशपूर्वधरः कथ्यते । पूर्वस्वरूपजिज्ञासुभिः दृश्यतां नन्दीसूत्रं (सू. ५७ ) प्रवचनसारोद्धारो (गा. ७११-७१८) वा । ३, १३ पञ्चेन्द्रियसंवरः, नवविधं ब्रह्मचर्यम्, चतुर्विधकषायमुक्तता, महाव्रतपञ्चकम्, पश्चविधाचारपालनसमर्थता, पञ्च समितयः, तिस्रो गुप्तय इति षट्त्रिंशद् गुणाः सूरेः -- आचार्यस्य । ३, १६ निर्युक्ति: जिनप्रवचनस्य पचात्मिका प्राकृतभाषानिबद्धा - ९, १३ व्याख्या । (6 सप्त वर्षाणि वर्ष वा, पूर्णिमायां यथाबलम् । तपः प्रकुर्वतां 'पुण्ड - रीका' ख्यं तप उच्यते ॥ " इति तपोरत्नमहोदधौ ६६ तमे पत्रे । ९, १५ ९९,१८ २००, ३ समस्ति उपदेशतरङ्गिण्यां (पृ. १६० - १६१) । ११, ९ अवधिना = तृतीयेन प्रकारेण ज्ञानेन । चर्षियति-सचि २९३ साधर्मवात्सल्यम् = समानधर्मिणः प्रति प्रीतिः । एतत्स्वरूपं Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ चतुर्विंशतिप्रबन्धे १२, ९ धरणेन्द्रः = नागकुमाराणामिन्द्रः । प्रेक्ष्यतां तत्वार्थ (अ. ४, सू. ७ )भाष्यं ( पृ. २७७ ) स्थानाङ्गसूत्रं वा । १३, १० चक्रेश्वरी विद्या । अस्या विस्तृतं स्वरूपं नाद्यावधि मे दृष्टिपथमागतम् । १३,१० परकायप्रवेशविद्या स्वरूपं दरीदृश्यते योगशास्त्रे ( प्र. ५, श्लो. २६४ - २७२ ) तद्विवरणे च । परकायप्रवेशविधि१६१,१६ | वैधावधिरित्युच्यते । १२६, ४ ff १४,५ आधाय विकल्प्य यतिं मनसि कृत्वा सचित्तस्याचित्तीकरणमचित्तस्य वा पाको निरुक्तादाधाकर्म " इति योगशास्त्र ( प्र. १, लो. ३८ ) विवरणे । १४, १४-१५ त्रैलोक्यजयिनी विद्या किस्वरूपेति न स्पष्टं ज्ञायते । १४,१५ द्वात्रिंशत् लक्षणानि कानीति जिज्ञासुभिर्दृश्यतां चतुर्विंशतिकाया मदीयं स्पष्टीकरणं (पृ. ५८-५९ ) । १४, १९ ५३, ६ } 1 " पाठमात्र प्रसिद्धः पुरुषाधिष्टानो वा मन्त्रः" इति योगशास्त्र (प्र. १, श्लो. ३८ ) विवरणे । जैनमन्त्रेष्वतिप्राचीनः सूरिमन्त्रः । एतस्य जापो निर्जराफलकः । एतदधिकारिण आचार्याः सन्ति । एतस्य कल्पोऽपि वर्तते । १८, ३ मानालब्धिस्वरूपं वर्णितं श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणसन्दृब्धविशेषावश्यक ( गा. ७९९-८०१ ) टीकायां मलधारिश्री हेमचन्द्रसूरिभिः । I १९, १३ अनशनं तपोविशेषः । जिज्ञासुभिः प्रेक्ष्यतां तत्त्वार्थ (अ. ९. सू. १९ ) टीका ( पू. २३६ - २३७ ) = २४, ८ " मन्त्रजपहोमादिसाध्या स्त्रीदेवताधिष्ठाना वा विद्या" इति योगशास्त्र (प्र. १, श्लो. ३८ ) विवरणे । पादलेपविद्या कथं सिध्यत इति न स्पष्टं ज्ञायते । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स-परिशिष्टम् २९५ २७, १३ 1 हेमसिद्धिविधाऽवतारिता पउमाभ वासुपूज्जेति गाथायामपि । ३४, १३ । एतजिज्ञासुभिर्विलोक्यतामनेकार्थरलमञ्जूषा नाम म१६८,२५) दीयाऽऽवृत्तिः । २९,१४-१५ ईशानेन्द्रसामायिकविषयस्वरूपार्थिना विलोक्यतां तत्त्वार्थ (अ. ४, सू. ४, ६)टीका । ३०,१४ । नमो अरिहंताणमित्यादि नमस्कारसूत्रम् । एतदर्थ विलोक्य८४, ६ ) तामनेकार्थरत्नमञ्जूषा । अर्हत-सिद्धा-ऽऽचार्यो-पाध्याय साध्विति पश्च परमेष्ठिनः । ३३, १२ दिवाकरसञ्ज्ञा पश्चवस्तुनामके ग्रन्थे (गा. १०४८) दृश्यते । ३४, १३ सर्षपविद्याया विशिष्टं स्वरूपं न कुत्रापि मे दृष्टिपथमागतम् । ३७, ७ अर्धमागधी भाषामाश्रित्य न्या. व्या.तीर्थपं. हरगोविन्ददास प्रणीतः 'पाइअ-सह-महण्णव'नाम्नः कोशस्योपोद्घातो (पृ. १६-३१) द्रष्टव्यः ३७, १० पाराश्चिकं दशमं प्रायश्चितं समस्ति । प्रायश्चित्तदशकस्य स्वरूपं वर्णितं जीतकल्पे (गा. ९४-१०२)तत्त्वार्थ(अ. ९, सू. २२) च टीकायां (पृ. २५३)।। ३८, १ पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका न मे नयनगोचरतां गता । ३८, १५ नलिनीगुल्मविमानमष्टमदेवस्थान इति निर्देशः समवायाने समस्ति । ३८, २३ सामायिकं नाम प्रथमं शिक्षाव्रतम् । एतदुद्दिश्य प्रोक्तं योग शास्त्रे (प्र. ३)"त्यक्तातरौद्रध्यानस्य, त्यक्तसावद्यकर्मणः । मुहूर्त समता या तां, विदुः 'सामायिक' व्रतम् ॥८२॥" विशेषार्थिनाऽवलोक्यतामेतस्य विवरणम् । ३८,२३,२४ । आवश्यकचूर्णी श्रीहेमचन्द्रसूरिकृते च परिशिष्टपर्वणि (स. ११, श्लो. १५१-१७१) श्रीअवन्तीसुकुमालस्य मृत्यु: 'कन्थारिकाकुडङ्गे जातः, तत्र तस्य पुत्रेण महाकालाभिधं जिनभवनं श्रीपार्श्वप्रतिमापरिष्कृतं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ चतुर्विंशतिप्रब कारितमित्याद्युल्लेखा वर्तते । जैनपरम्परानुसारेणैतस्योत्पत्तिः विक्रमसंवत्सराद् द्विशताब्दीपूर्विका यतोऽवन्तीसुकुमालः श्रीआर्य सुहस्तिसूरेः शिष्यः । एतत् स्थानं सिप्रानदीसमीपेऽस्तीति निर्देशः प्राचीनग्रन्थेषु । “कुडङ्गको वृक्षलतागहनं" इत्यमरकोशे तृतीये काण्डे (लो. १७ ) । अनेनानुमीयते यदुतैतद् वृक्षलतामयं सम्भवति । अधुना महाकालेति प्रसिद्धं स्थानं सिप्राः पूर्वे तटे पिशाचमुक्तेश्वरेऽस्ति । प्राचीन समयान्महाकालस्य महिमा वर्तते, यतः स्कन्द-मत्स्य- नारसिंहपुराणेषु रघुवंशे ( स. ६, श्लो. ३४ ) मेघदूते (लो. ३४ ) चैतस्य भावनामय निर्देशो वरीवर्ति । ३६, ६-७ प्रभावकचरित्रे ' मा रोव मोडहिं ' स्थाने ' मन आरामा म मोड' इति विशिष्टं पाठान्तरम् । तत्रास्य पद्यस्यार्थत्रितयमेव दर्शितम्, अधिकार्थसूचनसामर्थ्याभावात् । श्रीवृद्धवादिना स्वनेकेऽर्था सूचिता इति श्रीप्रभाचन्द्रसूरेरभिप्रायः । ३९, १२ जीवादितत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वमुच्यते । अस्य विवेचनं विद्यते तत्त्वार्थ ( अ. १, सु. २, ३, ७, ८ ) टीकायाम् । ३९, १२ द्वादशवतीनामार्थं प्रेक्ष्यतां ७६तमे पृष्ठेऽष्टमं टिप्पणकम् | ४२, ११ सिद्धसारस्वतस्य विस्तृतं स्वरूपं न मे नयनगोचरतां गतम् । ४३, ८ सौरमन्त्रः कीदृगिति निवेदने नाहमलं, साधनाभावात् । ४३, ११ वैक्रियं शरीरं द्वितीयं, शरीराणां पञ्चविधत्वात् । एतत्स्वरूपं समस्ति तत्त्वार्थ (अ. २, सू. ३७-३९, ४१) टीकायाम् । ४४, ७ सूक्ष्मकर्करस्य स्वरूपं स्पष्टं नावगम्यते । ४६, ११ ( द्वादशार) नयचक्राभिधो ग्रन्थो न कुत्राप्यधुना दृश्यते । ५७, १० 'डीसा' तो वायव्याकोणे दश क्रोशान् यो ग्रामोऽस्त्यधुना स रामसैन्याभिध इति सम्भावना क्रियते । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झ-परिशिष्टम् ५८, ६ ( द्वासप्ततिकळानामुल्लेतो वर्तते समवायाने द्वासप्ततितमे सम२०७, १ वाये राजप्रश्नीये दृढप्रतिज्ञशिक्षाप्रकरणे च । सन्तुलनार्थ प्रेक्ष्यतां कामसूत्रम् । स्त्रीविषयकचतुष्षष्टिकला निर्देशोऽस्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञतिवृत्तौ प्रमेयरत्नमञ्जूषाभिधायाम् । ५९, १३ त्रिधा = मनसा वचसा कर्मणा च । ५९, २४ निर्ग्रन्थशब्देन जैन मुनिर्ज्ञेयः । एतत्स्वरूपजिज्ञासुभिः प्रेक्ष्यतां तत्त्वार्थ(अ. ९, सू. ४८ ) टीका (२८२ - २८५) । ७०, १८ अर्हत् - सिद्ध- साधु- धर्मेति चत्वारि शरणानि । प्रेक्ष्यतां ९३1 तमे पृष्ठे प्रथमं पद्यम् | ७१, २३ सम्भाव्यतेऽसौ सूरि : 'धम्मविहि' प्रकरणप्रणेता । एतत्प्रकरणस्य प्रणयनकालादि त्वेवम्--- "धम्मविहिपगरणमिमं विसोहगं नाणदंसणगुणाणं । दसदिट्ठतेहि जुअं सम्मत्तं देउ सिवसौक्खं ॥ एकारस नवएहिं कतियपडिवइयाए निप्पन्नं पगरणं एयं ॥ X X X सम्मत्तं प्र. ६९५० नहमुहरुदंक (१११०) जुने काले सिरि विक्कमस्स बहु॑ते । पोसासियत आए लिहियमिणं सुक्कधारंमि ॥ " ७४,१६ चतुर्दश काव्यानि मदीयगूर्जरानुवादपूर्वकाणि मुद्रापितानि चतुर्विंशतिकायां (पृ.१८१ - १८५) । ७४, २० अक्षयवचना गुटिका किंस्वरूपेति न ज्ञायते । ७८,१८ वर्णस्वरपरावर्तनकारिणी गुटिका केति नावगम्यते । ८४, ६ प्राणातिपात - मृषावादा ऽदत्तादान- मैथुन - परिग्रह - कोध - मानमाया - लोभ - राग-द्वेष - कलहा -ऽभ्याख्यान - पैशुन्य-रक्ष्यारतिपरपरिवाद - मायामृषावाद - मिथ्यात्वशल्येति पापस्थाना-ष्टादशकम् । ८७,२० रैवतकतीर्थमहिमजिज्ञासुमिः प्रेक्ष्यतां 'श्रीभक्तामरपादपूर्तिरूपकाव्य सङ्ग्रह 'स्य प्रथमे विभागे श्रीगिरिनारकल्पः (पृ. ११५ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिप्रबन्धे १८०)। श्रीधर्मघोषसूरिप्रणीतो मदीयानुवादेन सह मया सम्पादितश्च । ९३, ८ हिंसा - ऽनृत- स्तेया - ऽब्रह्म - परिग्रहेभ्यः सर्वांशिकविरति रूपाणि पञ्च महाव्रतानि । ९४, ७ मातुलिङ्गीविद्याया विस्तृतं स्वरूपं न ज्ञायते । ९९,११ दोगेन्दुकदेवमाश्रित्य प्रोक्तमुत्तराध्ययनसूत्रस्य श्रीभावविजय विरचितायां टीकायाम्"दोगुन्दुकाश्च त्रायास्त्रिंशाः तथा च वृद्धाः त्रायस्त्रिंशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुन्दुका इति भण्यन्ते ।" १००, ८-९ चतुरङ्गचमूः = अश्व - गज - रथ - पदातिसम्हात्मिका सेना । १०८, २२ पौषधं तृतीय शिक्षाव्रतं समस्ति । अस्य स्वरूपं योगशास्त्रे (प्र. ३) यथा"चतुष्पा चतुर्थादि-कुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचर्यक्रियास्नानादित्यागः 'पाषेध' व्रतम् ॥८५॥" विशेषार्थिना वीक्ष्यतामेतस्य विवरणम् ।। १०९, ४ पुलाकलब्धिरष्टाविंशत्यां लब्धिघूत्तमा । एतल्लब्धिशाली चक्रिसैन्यमपि चूर्णाकर्तुं समर्थः । क्षपकणेरुपशमश्रेणेश्व वर्णनजिज्ञासुभिः समक्ष्यितां तत्त्वार्थ( अ.९, सू. १८)टीका (पृ. २३४-२३५)। उपशमश्रेणेविवरणं वर्तते कम्पपयडी(क. ६, गा. ३३-६५) नामके ग्रन्थे तट्टीकायां च । १०९,५ जिनकल्पस्य स्वरूपं वर्तते तत्वार्थ (अ. ९, सू. ९)टीकायां (पृ. २२५-२२६)। १०९,५ परिहारविशुद्धयादिचरित्रस्वरूपं तत्वार्थ( अ. ९, सू. १८) टीकायां( पृ.२३३-२३४) समस्ति । १०९,८ संस्थानषट्कस्य स्वरूपार्थिना दृश्यतां तत्वार्थ (अ. ८,सू.१२) .. टीका( पृ. १५४)। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श-परिशिवन १०९,८ संहननषट्कस्य स्वरूपं वर्तते तत्त्वार्थ ( अ. ८, सू. १२ )टीकायां (पृ. १५३-१५४ ) । ११४, ४ पर्युषणं नाम जैनानामत्युत्तमं पर्व । एतन्महिमादिवृत्तान्तो वर्तते कल्पसूत्रस्य श्री विनयविजयोपाध्यायविरचितायाः सुबोधकाख्याया वृत्तेः प्रारम्भे । ११२, २१ चिन्तामणिमन्त्रस्य विस्तृतं स्वरूपं न भया कस्मिंश्चिद् ग्रन्थे दृष्टम् । १२०, ७ “कुप्यं रूप्यसुवर्णव्यतिरिक्तं कांस्य - लोह -ताम्र-त्रपु-सीसकमृद्भाण्ड-वंश-काष्ठ-हल-शकट- शस्त्र -भश्चक- मचिका-मसूरकादिगृहोपस्कररूपं" इति श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र ( गा. १८ )वृत्तावर्थदीपिकाभिधायाम् । ० धत्ता = छन्दोविशेषः । १२३, २० १२६, ९ आचाम्लम् = आचामाम्लम् = विकृतिषट्कादिल्यागपूर्वकमेकाशनम्। आचाम: - अवश्रावणम्, अम्लम् - चतुर्थो रसः, त एव प्रायेण व्यञ्जने यत्र भोजने ओदनकुल्माषसक्तुप्रभृतिके तदाचामाम्लम् । विशेषविवरणार्थिना प्रेक्ष्यतां प्रत्याख्यानभाष्य (गा. ३) वृत्तिः । १३६, १२ रसा - ऽसृङ्- मांस- मेदोऽस्थि-मज्जा-शुक्रेति धातु सप्तकम् । १५९,१६ अच्युतकल्पम् = द्वादशं स्वर्गम् | १६८,२५ पुरुषकसिद्धिः कथं भवतीति न विस्तारेण ज्ञायते । १८६, १ रघुवंशे ( स. ४, श्लो. ४९, स. ६, श्लो. ६० ) पाण्ड्येति निर्देश: । पाण्डूनां जनपदानां राजा 'पाण्ड्यः' इति महिनाथकृतायां सञ्जीवनीवृत्तौ । १९६,१४ कायोत्सर्गः = आसनविशेषः । उक्तं च योगशास्त्रे २४५, १ } (प्र. ४ ) - “प्रलम्बितभुजद्वन्द्व-मूर्ध्वस्थस्यासितस्य वा । स्थानं कायानपेक्षं यत्, 'कायोत्सर्गः' स कीर्तितः ॥ १३३॥ " Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० चतुर्विंशतिप्रबन्धे सप्त २२९, ६ जैनबिम्ब-भवना-ऽऽगम-साधु-साध्वी श्रावक-श्राविकेति क्षेत्राणि । विशेषार्थिना विलोक्यतां योगशास्त्र (प्र. ३. लो. १२ ) स्य स्वोपज्ञं विवरणम् । २३१,२४ चैत्यवन्दन- गुरुवन्दनविधिस्वरूपादिजिज्ञासुभिर्विलोक्यतां योगशास्त्रस्य तृतीयः प्रकाशस्तस्य विवरणं च । २३५, २० गर्दभीविद्यार्निर्देशः समस्ति विशेषावश्यक ( गा. २४५४)टीकायाम् । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ-परिशिष्टम् । ॥ शुद्धिपत्रकम् ॥ पृष्ठम् चार्यों 'मशुद्धिः शुद्धिः ० एभिनषद्विशिकाऽपि निरमायि उवसग्गहरं पासम् ___ उवसग्गहरंपासम् पीत् गृहलक्ष्म्या गृहं लक्ष्भ्या चार्यो स्वणकीर्तिर्मातृ० स्वर्णकीर्तिर्मात साध्ठयो साळ्यौ 'गूर्जरधरादिशि 'गूर्जर'धराादीश विक्रमेण विक्रमेण क्रुद्घो क्रुद्धो बौद्धभक्तो बौद्धभक्तो बौद्धानां बौद्धानां भुवनस्य भुवनस्य नारीश्वरः नारीश्वरस्वर्गस्य स्वर्गस्य • कूटमटति • कूट'मटति शके शते आयान्ति आयन्ति अणफुल्लियफुल्ल अणफुल्लिय फुल्ल क्षामिताः। क्षामिताः, प्रथमां प्रथमां(? मं) S24222 vxx ww vur " ३ ३.४ पुण्यादिप्रणयनप्रसङ्गे दृष्टिपथमागता अशुद्धयोऽत्र दीयन्ते । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति ॥२॥ राजे * wor * ३०२ चतुर्विशतिप्रबन्धे अशुद्धिा যুক্তি पृष्ठम् ॥२॥ राजे ३ अनुष्टुप् ४ अनुष्टुप् ई(य? तो हतो केसव-दुचक्किकेसी . केसव, दु चक्कि केसी ४९ केशवो द्विचक्रिकेशिनौ केशवो द्वौ चक्रिणौ केशी ४९ विवृत्तम् विवृतम् गतम् गतम् श्रावकप्रज्ञ-प्ति श्रावकमज्ञप्ति•लक्षण लक्षणछायैव छायेव आमराजा आमराजः सम्यग् दृशां सम्यग्दृशां रोहिणगिरे! राहणगिरे! पृष्टलग्नान् • पृष्ठलग्नान् रिणा रिणा। तेन विना तैर्विना कृतस्तैः कृतास्तैः धर्माय धर्माय दृष्टौ ?। दृष्टौ निरवैषीत् निरणैषीत् पूर्वत् पूर्ववत् महाव्रजमयो महावज्रमयो यामि ।" यामि। तुङ्गास्तु रङ्गाः तुङ्गास्तुरङ्गाः बप्पभाट्टिाह बप्पभट्टिर्हि n ran eme Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिः प सहस्री • ऽमित सैन्य • रणाकारवीर • सम्मुस्वीभूय मिथ्यात्ववेष. भिकूखयरो 'स्वस्ति मद् भगिनी ० तदाकर्ण्य 'च 'चतुरङ्ग' सवित्रीरति स्तत्त्वं • मनुष्य किरण पुष्पकलम्बक प्रेषितोऽसि ? । आनकोऽपि आर्दकमुप्तम् बीसलक्सउ ( ? ) गृहीत- 'सपादलक्षा' 'बलीवर्दाधि० विहरन् पश्चाद् • प्रसाद • ओढेरगृहे तरुण्यः । प्रतिवादीनां अ- परिशिष्टन शुद्धिः पञ्चसहस्री • मितसैन्य • रणत्कार - वीर ० सम्मुखीभूय मिध्यात्ववे (वि) ष० भिक्खयरो स्वस्ति मद्भगिनी ० तदाकर्ण्य चतुरङ्ग-सवित्री रति स्तत् खं • ममुष्य किरण पुष्पकदम्बक प्रेषितोऽसि । आनाकोsपि आर्द्रकमुप्तम् वीस लक्खउ (?) गृहीत' सपादलक्षा' बलीवर्दाधि० विहरन् ( तो ) पश्चाद् • प्रासाद० ओढरगृहे तरुण्यः । । प्रतिवादिनां पृष्टम् ७७ ७७ ७८ ८२ ८३ ८५ ९५ ९८ १०० १०१ १०१ १०२ १०४ १०५ १०५ १०८ १०८ १०८ १०९ ११० ११० १११ १११ ११३ ११४ ३०३ पक्तिः १८ २४ २३ २३ २२ १५ १ १२ ८ १८ २१ २३ ११ ३ १४ ८ १० २० २९ १५ २५ २ १८ ११ २ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ अशुद्धिः भारत्याह राज्ञाऽभाणि श्रीवीर ० हरिहर: तत्र भवन्तो 'मन्त्रिन् ! एव विंशत्या 'कैषा कृपाणेर्गुणः जन्मगतं राजाऽये शुद्रके ० स्थापित श्रीमन् महावीर सुराष्ट्रा ( ष्ट्र ) ० दुर्ब्रहम् । तर्हि दधमर्णीकृतैः निर्जित्य निर्भीींर्गर्जति घूघूलश्रीः कुमारा देवी त्रैविघषडा० ॥ ४ ॥ • e नभणे चतुर्विंशतिप्रबन्धे शुद्धिः भारत्याह ११४ राज्ञा ( ? राश्वा ) sभाणि ११७ श्रीवीर ० हरिहर: तत्रभवन्तो मन्त्रिन् ! एकविंशत्या ० कैषा कृपाणे गुणः जन्म गतं राजा शूद्रके स्थापिता ० श्रीमन्महावीर - सुराष्ट्रा ० दुर्ब्रहम् । त दधमर्णीकृतैः निर्जित्य निर्भीर्गर्जति घूघुलश्रीः कुमारदेवी त्रैविध षडा० १२ 1181122 १२ शार्दूल' बभणे पृष्ठम् ११९ ११९ १२२ १२४ १२६ १२७ १२९ १३२ १३२ १४४ १५० १५५ १७२ १८० १८८ १९६ २०८ २१३ २१८ २२४ २२८ २३२ २३२ २३७ १६. १६ १४ 30 eve २१ 70 २० १९ १६ २३ २३ १२ १६ ३ १० 620 १५ ३ १९ १४ २१. २१ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ-परिशिष्टम् अशुद्धि पुनडौ पृष्ठम् २३७ २४१ शुद्धिः पूनडौ श्रीवस्तुपाल ! ऋषभ-नेमिः श्रीविमलो दण्ड पुष्पस्त्रग्दाम० २४१ श्रीवस्तपाल ! ऋषभनेमि० श्रीखिमलोदण्ड सक्दाम० पैराग्यादापारस्सनाम छ-परिशिष्टम् २४२ २४३ वैराग्यादा २५५ २६२ पारसनाम ज-परिशिष्टम् चतुर्विंशतिप्रबन्धे परिशिष्टानि समाप्तानि । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- _