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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
सिंह
श्री हेमचन्द्राचार्य
राधाविनरागा डाध्याश्ते राधाइनो काडा तननुसास्ती रयतुऊनमुन पदवावका दास साहस हावासकाध वलेस वापश्च रुपदेस ४कप सनिदेवानाइ
संपादक
विजयशीलचन्द्रसूरि
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य - विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
१९
संपादक विजयशीलचन्द्रसूरि
श्री हेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद
२००२
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अनुसंधान १९
प्रणेता :
डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
संपर्क:
C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद-३८०००७
प्रकाशक:
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामंदिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१
मुद्रक:
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन : ०७९-७४९४३९३)
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निवेदन 'अनुसन्धान ना प्रणेता सद्गत हरिवल्लभ भायाणीनी अनुपस्थितिमां, तेमना स्मरणांक पछीनो आ प्रथम अंक छे. अमना देश-परदेशना व्यापक अने जीवंत संपर्कोनो आ पत्रिकाने पण मळतो लाभ हवे शक्य नथी रह्यो, ए वास्तविकता छे. परिणामे अनेक स्थानोए थतां शोध-कार्योनी माहिती जेम नहि सांपडे, तेम विविध शोधकोना लेखो पण हवे जरा वधु दुर्लभ थवाना.
आ संयोगोमां पण आ पत्रिका चाल राखवानो निर्णय छे ज. एवी श्रद्धा छे के आ चालु रहेशे तो आपोआप प्रतीति थतां लेखादि मळवा लागशे. एक ज रस छे के आ निमित्ते केटलीक रचनाओ प्रकाशित थाय अने कोई जिज्ञासुने आवी प्रवृत्तिमां भाग लेवानुं क्यारेक मन थाय.
विद्वान मुनिवरोने अने जैन-अजैन, देशना तथा परदेशना विद्वानोने, संशोधकोने, अभ्यासुओने, आ पत्रिकानां धोरणोने अनुरूप एवा शोध-लेखो, कृति-संपादनो, ढूंक नोंधो, संशोधन अने प्रकाशनने लगती माहितीओ मोकलवानो हार्दिक अनुरोध तथा आमंत्रण छे.
एक आनुषंगिक स्पष्टता ए करवानी के 'अनुसन्धान', प्रकाशन करनारुं ट्रस्ट मात्र दान उपर नभतुं ट्रस्ट छे; व्यक्सायी ट्रस्ट नथी. पत्रिकानी देश-परदेशमां जती नकलो (लगभग १००/-) विना मूल्ये भेट मोकलाय छे; पोस्टिंगनो खर्च पण ट्रस्ट भोगवे छे. तेथी आ पत्रिकामा छपाता लेखो-बदल पुरस्कार आपवानुं ट्रस्ट माटे अशक्य छे. फक्त संशोधन-क्षेत्रनी सेवा ए ज आ प्रवृत्तिनो हेतु अने आशय छे. आ उमदा प्रवृत्तिमा सहुनो सहयोग मळशे तेवी आशा सह
. विजयशीलचन्द्रसूरि
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अनुक्रम
१. कवि ऋषभदास कृत व्रतविचाररास -सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 1 २. श्रीहीरसागर कृत स्तवन चोविशी -सं. मुनि जिनसेनविजयजी 113 ३. श्री गौतमस्वामीनुं स्तवन -सं. मुनि जिनसेनविजयजी 132 ४. श्री गौतम सुधर्म गणधर भास -सं. मुनि जिनसेनविजयजी 133 ५. ट्रंक नोंध .
भगवान महावीरना आहार संबंधी भ्रमणा ६. उपयोगी माहिती ७. विहंगावलोकन
-मुनि भुवनचन्द्र
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८. सांकळियु : "अनुसंधान" - १३ थी १८ अंकोर्नु
-साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री -साध्वी चारुशीलाश्री
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कवि ऋषभदास कृत व्रतविचाररास सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
'कवि ऋषभदास'ए मध्यकालीन जैन कविओमां प्रतिष्ठित श्रेष्ठ गृहस्थ कविनुं नाम छे. तेमणे पोते ज निर्देश्युं छे ते प्रमाणे, चोंत्रीस रास अने ५८ स्तवननी रचना करी छे. (हीरविजयसूरि रास, अंतिम ढाल - कडी ३२, जै. गू. क. ३, पृ. ६८). १६ - १७मा शतकमां थई गयेला आ कविनी केटलीक कृतिओ ज प्रगट छे; मोटा भागनी तो अद्यावधि अप्रगट ज रही छे. केटलीक रचनाओनी तो हस्तप्रतिओ पण अप्राप्य छे (गु.सा.कोश, पृ. ३७). कविनी प्राप्य परंतु अप्रगट एक दीर्घ रास- कृति "व्रतविचार रास" नुं संपादन यथामति अत्रे प्रगट करवामां आवे छे. कविनी स्वहस्त लिखित प्रति उपरथी ज आ वाचना तैयार करवामां आवी छे, छतां पण, क्यांक क्यांक पानां फाटी गयेल होई तथा एकाद बे स्थळे अक्षरो पर बीजां पानांना अंश चोंटी गयेला होई, तेमज आ रासनी बीजी प्रति प्राप्त करवानुं अशक्यप्राय होईने केटलेक स्थाने जराजरा पाठ त्रुटित रही गयो छे.
८१ ढाळो अने ८६३ कडीओमां पथरायेला आ रासनो स्थूल परिचय आ प्रमाणे छे :
दुहा : १४४
कवित: ४
चौपाई : २७२ समस्यागीत : २
प्रस्तुत कृतिनो विषय जैन श्रावक-श्राविकाए पालन करवा लायक १२ व्रतोनुं स्वरूपदर्शन छे. सम्यक्त्व अने १२ व्रतो ते जं श्रावक - धर्म, अने प्रत्येक जैनधर्मी गृहस्थे आ श्रावकधर्मनुं ग्रहण अने आचरण करवुं ज जोईए एवो बोध आपवानो कर्तानो प्रधान आशय छे. रासनो आंतरिक अछडतो परिचय मेळववा माटे आपणे ढाळ- क्रमे अवलोकन करीए.
कड़ी : ४४३ श्लोक : १
रासनो प्रारंभ मंगलाचरणना दूहाथी थाय छे. इष्टदेव श्रीपार्श्वनाथने तथा पांच परमेष्ठीने स्मर्या पछी कवि सरस्वती देवीनुं स्तवन अने वर्णन लंबाणथी करे छे. पांचथी अग्यार एम ७ दूहा अने पछी बे आखी ढाळ
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कविए सरस्वती-वर्णनमां रोकी छे, (कडी क्र. १२ - २८) जे तेमनी शारदा प्रत्येनी अनुपम आस्थानो संकेत आपी जाय छे. विख्यात इतिहासलेखक श्री मोहनलाल दलीचंद देशाईए नोंध्युं छे के "सरस्वती देवी प्रत्ये संपूर्ण भक्ति होई तेमनी हंमेशां स्तुति करी पोतानी कृतिओनो प्रारंभ करेल छे. अने जनश्रुति प्रमाणे तेमणे ते देवीने आराधन करी प्रसन्न करी हती अने देवीनो प्रसाद मेळव्यो हतो. (जैगूक ३, पृ. २४) " विशेष रसप्रद वात ए छे के प्रस्तुत रासनी प्रति कविए जाते लखेली छे, अने तेना प्रथम पत्र पर कविए स्वहस्ते ज वीणापुस्तकधारिणी अमृतपूर्णकमण्डलुहारिणी जपमालिकाविलसितहस्ता मयूरवाहिनी सरस्वती देवीनुं चित्र पण आलेखेलुं छे. चित्रकलानी दृष्टिए स्हेज पण आकर्षकता के विशेषता न होवा छतां, एक चोपडा चीतरनार वृद्ध वाणियाए पोतानी ऊर्मिओने जे भावसभर रीते अभिव्यक्त करी छे, ते ज आ चित्रनी अने तेना आलेखकनी ध्यानार्ह विशेषता छे. आ चित्र आ अंकमां अन्यत्र (टाईटल - १ पर) मूकवामां आव्युं पण छे.
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कर्ता दूहाओने प्रथम अंश गणतां हशे तेथी तेमणे प्रथम ढाळने सीधो (२) क्रमांक ज आप्यो छे. अहीं मूल क्रमांकनी जोडे, सुगमता खातर, १ थी क्रमांक लखी उमेर्या छे. एक महत्त्वनी वात अहीं स्पष्ट थवी जोईए. कर्ता जैनधर्मी छे. तेमणे निरूपण करवा धारेलो विषय प्रणालिकागत रीते जैन धर्म अने शास्त्रो साथै संबद्ध छे. तेथी स्वाभाविक रीते ज तेमां जैन आचारशास्त्रीय परिभाषाना शब्दो - शब्दजूथ वारंवार आववाना ज. ते तमामनुं अर्थविवरण आपवानो अर्थ कृतिनुं (गुजराती) विवेचन ज थाय, जे अप्रस्तुत छे. आ माटे तो जिज्ञासुओए पद्धतिसर जैन परिभाषा शीखवी रहे, कां तेना जाणकारो पाथी ते शब्दो - अर्थोनी जाणकारी मेळवी लेवी पडे.
ढाल ४(३) मां दशविध - दश प्रकारना यतिधर्मनो अने तेना अनुषंगे बार भेदे तपश्चर्यानो अछडतो निर्देश थयो छे. तो ढाल ५ (४) मां धर्मरत्नने माटे योग्य बनावनारा श्रावकोचित २१ गुणोनां नाम आप्यां छे. ढाल ६ (५) मां व्रतो लेवा माटे उत्सुक गृहस्थने थोडीक पूर्व भूमिकारूप शिखामणो आपीने अढार दोषोनां नामो लेवापूर्वक जिनेश्वर - अरिहंत ते १८ दोषरहित एवा देव होवानुं जणावे छे. ढाल ६मां अरिहंतना ३४ अतिशयोनो परिचय मळे छे,
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अनुसंधान-१९ ढाल ८(७)मां जिनवरे जीतेला आठ मदनां अने ढाल ९(८) मां तेमणे क्षय पमाडेलां ८ कर्मोनां नाम दर्शाव्यां छे. ढाल १०(९)मां जिनेश्वरे पूर्वभवमां आराधेलां वीसस्थानक पदोनां नाम आप्यां छे. ते पछीना दूहाओमां जिनना चार निक्षेप (८६-८७) दर्शावीने प्रतिमानी तथा मंदिरनी पण आशातना (अवमानना) करवानो निषेध (८८) कह्यो छे. ढाल ११(१०)मां तेवी १० मुख्य आशातनाओ बतावी छे. अहीं 'देव'तत्त्व- वर्णन आटोपाय छे.
९२मी कडीथी 'गुरु' तत्त्व- वर्णन चालु थाय छे. गुरु ते आचार्य, तेमना गुण ३६ छे, तेनुं स्वरूप ९३-९५मां प्ररूप्युं छे. ढाल १२-१३-१४ (११-१२-१३)मां शास्त्र वणित 'प्रतिरूपता' आदि ३६ गुणो, तेना अनुषंगे बार भावना अने २२ परिषहोनुं स्वरूप वर्णवायुं छे. पछी ढाल १५(१४)मां परीषह समभावे सहन करनार महान मुनिराजोनां नाम-वर्णन छे. ढाल १६(१५)मां आचार्यनी पछी आवनारा 'मुनि'रूप गुरुतत्त्वना २७ गुणो गणाव्या छे. १६६मा दूहामां 'धर्म' तत्त्व- स्वरूप खूब ट्रॅकाणमां पण स्पष्ट शब्दोमां दर्शावेल छे.
ढाल १७(१६)थी मिथ्या देव (कुदेव)ना स्वरूपनी ओळखाण शरु थाय छे. ते ढाळ, दूहा, कवितनो सार एटलो ज छे के जेमां राग-द्वेष-मोहकाम-क्रोध वगेरे प्रत्यक्ष देखाता-अनुभवाता होय ते 'कुदेव' छे; तेवाने 'देव' लेखे स्वीकारवा ते मिथ्यात्व गणाय. क्र.७८ थी ८५ सुधी (ढाल १८(१७) सहित)मां ते ते देवोने इष्टदेव माननार प्रतिपक्षीनी 'जैन' सामे दलीलो आपवामां आवी छे. ढाल १९(१८)मां जैन द्वारा अपातो तेनो प्रतिवाद छे. तेमां जैनो ईश्वरना कर्तृत्वनो परिहार करीने बधुंज कर्मकृत होवानो सिद्धांत स्थापे छे. ९३मुं कवित्त, दूहो अने ढाल २०(१९)मां कर्मनी अदम्य ताकातनुं बयान थयुं छे. छेल्ले निष्कर्षरूपे देव-कुदेवनो विवेक निरूप्यो छे.
२०४मा दूहाथी कुगुरुनो त्याग करी सद्गुरुने अपनाववानुं अने पछी (२०८) मिथ्याधर्मने त्यागवानुं शीखवे छे. ढाल २१(२०)मां पांच प्रकारनां मिथ्यात्वनुं वर्णन अने तेना सेवनथी भवभ्रमण दर्शावायुं छे. ढाल २२(२१)मां "सम्यक्त्व व्रत"ना चार आगार अने छ छींडी (छूटछाट) समजावेल छे. अने ते पछी विनोदात्मक शैलीमां कविए 'मूर्ख'नां केटलांक लक्षणो बताव्यां छे.
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'छप्पय' छंद कविने केवो सिद्ध हशे ते आवां कवित्त वांचतां समजी शकाय छे. याद रहे के कवि, प्रेमानंद, शामळभट्ट अने अखाना पूर्वकालीन छे.
ढाल २३(२२)थी समकित प्राप्त करनार श्रावकनी नित्यकरणीनुं विस्तृत वर्णन प्रारंभाय छे. छ आवश्यकनां नाम बाद रात्रिभोजन त्यजवा अंगे वेद, पुराण, आगम, गीताना तथा मार्कन्डेय ऋषिना हवाला आपवापूर्वक रात्रिभोजनथी थतां दोषो-रोगो विशे वात समजावे छे. प्रसंगोपात्त, सात वखत क्यारे/क्यां पाणी न पीयूँ तेनी शीख लखी छे (२३४-३७). त्यारबाद जिनपूजा आदि कृत्यो करवानां कहे छे. ज्ञान अंगे पुस्तकलेखन उपर भार आपीने सात क्षेत्रे धन वापरवानुं सूचन आपे छे. तेना प्रसंगे धन संचय करी राखनार कृपण थवाने बदले दान आपवानो आग्रह करतां कवि दाननो महिमा अने कृपणतानी लघुता पण वर्णवे छे (ढाल २४(२३)- तथा तेना दूहा). २६० क्र.नो दूहो
"ल्यख्यमी मंदिरमाहां छतां, मागण गया नीरास । ___ तेहनी जनुनी भारि मुई, ऊदरी वा दस मास ॥" वांचतां ज, सौराष्ट्रना लोकसाहित्यमां बोलातो दूहो
"जेनो वेरी घाथी पाछो गयो, अने मागण गयो नीराश,
एनी जननी भारे मरी, एने उपाड्यो नव मास" याद आवी जाय छे. क्र. २६१ मांनी 'गाहा' अशुद्धप्राय छे. ढाल २५(२४)मां सम्यक्त्वनी आवश्यकता अने महिमा वर्णवी क्षायिकसम्यक्त्वनुं स्वरूप समजाव्यु छे. ढाल २६-२७(२५-२६)मां जीवे संसारमा करेली रझळपाटनुं वर्णन अने तेमां महाभाग्योदये मनुष्यजन्म तेमज सम्यक्त्व मळ्यां होई तेने वेडफी न देवानी शीख अपाई छे. ढाल २८(२७)थी ढाल ३५(३४) सुधी सम्यक्त्वना पांच अतिचारोनुं विस्तृत स्वरूप दर्शावेल छे.
अहीं प्रसंगतः प्रतिमानिषेधक मतनो उल्लेख करीने तेमनी समक्ष प्रतिमानी सिद्धि करी आपनारां आगम-ग्रंथोना संदर्भ पेश करवामां आव्या छे (ढाल २८(२७)). बन्ने पक्षे सामसामे करेली दलीलो-खंडनमंडन पण विस्तारथी जोवा मळे छे. तेमां एक तबक्के "मूर्ति पथ्थररूप जड होवाथी
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फल देवा समर्थ नहि बने" (कडी ३२४) एव प्रतिपक्षनी दलीलनो छेद एवा ज धारदार तर्क वडे उडाडतां कवि कहे छे के "सरकारी नाणांनो सिक्को निर्जीव होवा छतां ते देखाडीए के आपीए तो धारी वस्तु फलरूपे मेळवी शकाय छे, जे बतावे छे के जड पदार्थ पण सर्वदा निष्फल नथी होतो " ( क्र. ३२७). आवी अन्य दलीलो पण रसप्रद छे.
ढाल २९(२८)मां "आजे साधु नथी, अथवा छे ते शुद्ध- - निर्दोष नथी" एवो मत अने तेनुं निराकरण छे. ढाल ३० (२९) मां मुहपत्तिनो त्याग करनार ( प्रायः तो आंचलिको) नो, चोथने त्यजी पांचमना पजूषण तथा चौदशने त्यजी पूनमनी पाखी करनारा मतनो, षट्कल्याणकवादी ( खरतरो) ना मतनो उल्लेख थयो छे, अने जरा कडक बानीमां ते मतोना कविए लीला ऊधडा पण वांचवा मळे छे. ढाल ३५ (३४) मां अयोग्यनी संगतिथी थती हानिनां घणां उदाहरणो आप्यां छे, अने ए द्वारा मिथ्यासंगनो परिहार करवानुं सूचव्युं छे.
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ढाल ३६(३५)मां पहेला अणुव्रत स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत' नुं स्वरूप शरु थाय छे. तेनो प्रधान सूर जीवदयानो छे. दया विना, दुर्लभ आ मानवजन्म हारी जवानी दहशत बतावीने कवि प्रसंगत: दश दृष्टांतो ते अंगेनां विगते वर्णवे छे. ढाल ३७ ( ३६ ) मां दयारहित धर्मनी अनेक वस्तुओ साथे तुलना करीने ते बधांनी जेम दयाविहीन धर्मनो पण त्याग करवानुं कवि कही दे छे. ढाल ३८-४१ (३७ - ४०) मां पण विधविध प्रकारथी दयाधर्मनो ज महिमा गवायो छे. ढाल ४२ ( ४१ ) मां गृहस्थे दयापालन अर्थे बांधवाना दश चंदवानी विगत आपी छे, ढाल ४३ (४२) मां पाणी गळवानो विधि दर्शाव्यो छे, एमां गलणांनुं माप पण वर्णवेल छे. ढाल ४५ - ४९ (४४-४८) मां, जीवहिंसा करनारा मनुष्योनी रीत, तेमने मळनारां कटु फल प्रत्ये ध्यानाकर्षण अने हिंसा नहि करवानी शीख, दया पाळीने मेघकुमार बनेला हाथीनी कथा, हिंसानां फल पामनार मृगापुत्र लोढियानो प्रसंग, अने रोजिंदा जीवन-व्यवहारमां आवनारा हिंसाना अवसरो तरफ ध्यान दोरी ने तेथी बचवानो उपदेश बधी वातो थई छे.
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ढाल ५०(४९)मां बीजा 'मृषावाद-विरमण'नामना अणुव्रतनो अधिकार छे, तेमां पांच मोटां जूठनो आ व्रत लेनार माटे सदंतर निषेध कह्यो छे. ते उपरांत जूठं बोलवानां नुकसान तथा सत्य बोलनाराना सदृष्टांत अवदात, पण रोचक वर्णन थयुं छे. ढाल ५१(५०)मां आ व्रतना पांच अतिचारो तथा तेने टाळवानो उपदेश अपायो छे. ढाल ५२(५१)मां त्रीजा 'अदत्तादान-विरमण' अणुव्रतनो संबंध छे. चोरी केर्बु महापाप छे, अने ते करवाथी केवी हानि थाय तेनुं वर्णन आमां मळे छे. चोरी द्वारा मेळवेला धनथी अत्यारे भले लहेर वर्तती होय, पण कालांतरे-भवांतरे पाडो के गधेडो थईने तेनुं देणुं चूकवq ज पडशे (दूहा-क्र.५६९) ते वात वेधक शब्दोमां कविए मूकी आपी छे. कवित (५७१)मां देवादारनी स्थिति केवी माठी थाय तेनुं बयान सुभाषितछप्पारूपे आप्युं छे, ढाल ५३(५२)मां त्रीजा व्रतना पांच अतिचारो समजावेल
अने हवे आवे छे चोथा व्रतनी वात. ढाल ५४(५३)मां चतुर्थ अणुव्रत 'स्वदारा-संतोष-परस्त्रीगमन-विरमण व्रत'नो महान महिमा कविए गायो छे. आ ब्रह्मचर्य व्रत छे. तेना पालनना लाभ अपार छे. ढाल ५५(५४)मां केवा केवा महान गणाता लोको पण आ व्रत चूकीने परनारीमां तथा विषयवासनामां अटवाया तेनी वात घणा विस्तारथी वर्णवाई छे. एज वातने फरीथी ४ कडीओ (चौपईओ)मां 'समस्या' नामक काव्यप्रकारमां पण कही छे. ढाल ५५, ५७(५६), ५७ मां शीलनो महिमा गायो छे अने शीलवंत महात्माओनां नामो तथा गुणगान गायां छे. ढाल ५८मां आ व्रतना पांच अतिचारो समजाव्या छे.
ढाल ५९मां पांचमा 'परिग्रहपरिमाण' नामे अणुव्रतनुं स्वरूप छे. परिग्रह केवो अनर्थकारी छे ते, अने लोभवश थईने परिग्रह-काजे केवा केवा लोको केवां भयंकर काम करी गया तेनां दृष्टांतो वर्णवायां छे. पछी आवे छे समस्याकाव्य. तेमां परिग्रह भेगो करनारा पण छेवटे तो बधुं छोडीने चाल्या ज जाय छे ते वात पर भार मूकी परिग्रहनी व्यर्थता बतावी छे. ढाल ६० तथा ६१मां एवी महान विभूतिओनां नाम गणाव्यां छे के तेमना जेवाने पण आखरे तो परिग्रह पड्यो मूकीने जवू ज पड्युं छे. अर्थात् आवा महान
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लोकोनी पण आ स्थिति होय, तो आपणे शा माटे 'मारुं मारूं' एम करतां वळगी रहेवुं ? एम कवि सूचवे छे. ढाल ६२मां ते व्रतना पांच अतिचारनी वात छे.
ढाल ६३मां छठ्ठा 'दिशापरिमाण' नामे गुणव्रतनुं तथा तेना पांच अतिचारोनुं स्वरूप वर्णव्युं छे. ढाल ६४ मां सातमा 'भोगोपभोगपरिमाण' नामे गुणव्रतनी वात आवे छे. दिशापरिमाण एटले रोज, महिनामां, वरसमां के आखा जीवनमां, कई कई दिशामां केटला विस्तार सुधी जवुं के न जवुंते अंगेनी मर्यादा आंकवानी छे. ज्यारे सातमा व्रतमां पोते आहार वगेरे तमाम बाबतोमा केटला पदार्थो भोगवी तथा राखी शके तेनी मर्यादा निश्चित करवानी छे. एमां मूळ चौद नियमो नित्य लेवाना - पाळवाना होय छे, तेनी वात ढाल ६४मां छे. ते पछीनी छ ढालो (६५-७०) मां आ व्रतना पांच अतिचारोनुं विस्तृत अने बारीक वर्णन थयुं छे. ढाल ६५मां सचित्त (सजीव) भक्षण अने सचित्त- प्रतिबद्ध - भक्षणरूप अतिचारना प्रकारो तथा तेनो निषेध बताव्यो छे. ढाल ६६मा २२ प्रकारना अभक्ष्य पदार्थोनी तथा ढाल ६७मां ३२ जातना अनंतकायनी गणतरी आपी छे, जे त्याज्य छे. ढाल ६८७०मां पंदर कर्मादानो (घोर पापमय - हिंसामय कार्यो) नुं विगते स्वरूप आप्युं
छे.
आठमा 'अनर्थदंड विरमण' नामना गुणव्रतनुं विगतवार स्वरूप ढाल ७१मां छे. वगर कारणे अने वगर लेवा देवाए मनुष्य जे पापाचरण करे ते अनर्थदंड. तेनाथी बचावनार आ व्रत छे. ढाल पछीना दूहाओमा आ व्रतना पांच अतिचार दर्शावेल छे. ढाल ७२मां नवमा 'सामायिक' नामे शिक्षाव्रतनी वात छे; ते पछीना दुहाओमां पांच अतिचारो, चार प्रकारनां सामायिक, तथा आ व्रतना आराधकोनुं वर्णन थयुं छे. ते पछी ढाल ७३मां दशमा व्रत 'देशावकाशिक' नामे बीजा शिक्षाव्रतनी वात आवे छे. शेष तमाम व्रतोना नियमोनो संक्षेप-संकोच आ व्रतमां करवानो होय छे. तेमां पाळवानी मर्यादा वर्णवीने साथे ज तेना पांच अतिचारो पण देखाड्या छे.
ढाल ७४मां अग्यारमा ‘पौषधोपवास' नामे शिक्षाव्रतनुं वर्णन थयुं छे. 'पौषध' ए जैन श्रावकनी १२ के २४ कलाक सळंग करवानी एक
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धर्मक्रिया छे, जेमां श्रावक महदंशे साधुतुल्य जीवन जीवे छे. पौषधमां करवानी करणी अंगेना विधि-निषेधो तथा ते व्रतना पांच अतिचार आमां बताव्या छे. ढाल ७५मां बारमा ‘अतिथिसंविभाग' नामना शिक्षाव्रतनुं स्वरूप आलेखायुं छे. पौषधोपवास करनारो श्रावक साधु आदिकने दान दीधा विना भोजन न करे-एवी आ व्रत लेनारानी प्रतिज्ञा होय. साथे ज व्रतना पांच अतिचारो पण कही दीधा छे.
ढाल ७६मां सुपात्रदान, सार्मिकभक्ति, दीनोना उद्धार वगेरे कार्यो, मळेला धन थकी, करवानो उपदेश अपायो छे. ढाल ७७मां दानादि वडे पुण्य करनार अने न करनार मनुष्योनी सुख-दुःखादि स्थितिनो तफावत समजाव्यो छे, जे खूब मनन करवा लायक छे.
अने हवे कवि उपसंहार करवा भणी वळे छे. ७३३मी कडी (दूहो) थी ते शरु थाय छे. कवि कहे छे के में बार व्रत गायां तेमां क्यांय भूल रही होय तो ते माटे कविने-मने दोष न आपशो; केम के हुं तो छु ज मूढ अने गमार ! में तो माता-पिता समक्ष बालक बोले ते प्रकारे अहीं मनमां ऊग्युं ते बोली दीधुं छे. सांखी लेजो अने भूल होय तो सुधारजो..
आ पछी, ढाल ७८मां कवि गुणदेखा अने दोषदेखा एम बे जातना पुरुषोनुं स्वरूप जरा निरांते वर्णवे छे, अने पछीना दहाओमां दोषदर्शीने दुःख अने गुणदर्शीने सुख-एवो निष्कर्ष पण आपी दे छे. ढाल ७९मां कवि, बार व्रत लेनार अने पाळनारने केवां श्रेष्ठ सुख सांपडे छे तेनुं लोभामणुं वर्णन करे छे, अने छेल्ले कडी ८५२मां जिनधर्म अने पास एटले पार्श्वनाथना पसायथी पोतानां सर्व कार्य सिद्ध थयां होवानो परितोष कवि दर्शावे छे.
ढाल ८०मां कवि पोताना धर्मगुरु विजयसेनसूरि महाराजनो तथा तेमना विशिष्ट प्रभावनो उल्लेख करीने, अकबर बादशाह द्वारा तेमने 'सवाई'नुं बिरुद मळेलु ते ऐतिहासिक घटनानो निर्देश करे छे. तेमना शिष्य विजयदेवसूरिनो नामोल्लेख वगेरे करीने कवि एम सूचवे छे के अमना धर्मसाम्राज्यमां आ रास पोते रच्यो छे.
ढाल ८१मां कवि 'कलश' समान गीत गाय छे. तेमां १६६६
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अनुसंधान-१९ वि.सं.ना कार्तक वदी अमास (गुजराती आसो वदी अमास)ना दिवसे त्रंबावतीखंभात मध्ये आ रास रच्यो होवानुं जणावे छे. कार्तकी अमासे दीपकदाढो होवानुं जणावीने, ते समये गुजरातमां पण राजस्थाननी जेम दिन-मासव्यवस्था हती तेम सूचवी दे छे. आ पछी पोतानो परिचय आपतां कवि कथे छे के जंबूद्वीप, भरतक्षेत्र, गुजरात देश, तेमां वीसल चावडाए वसावेल वीसलपुर नगर (वीसनगर). त्यांनी निवासी वीशा पोरवाड ज्ञातीय महीराज हतो. तेना पुत्र संघवी सांगण खंभातमां आवी रहेला. तेमना पुत्र ऋषभदासे त्रंबावतीमां आ रास रच्यो.
प्रांते पुष्पिका छे, ते उपरथी जणाय छे के १६६६मां रचेला आ रासने कविए छेक १६७९मां एटले के १४-१५ वर्ष पछी लिपिबद्ध कर्यो हतो.
८१मी ढाल-कलशगीत स्वरूप छे. आश्चर्यजनक रीते थोडाक शाब्दिक फेरफारने बाद करतां, आ गीत अने कविए रचेल 'कुमारपाल रास'नुं कलशगीत बिल्कुल समान छे. आनी रचना १६६६मां छे, कुमारपाल रासनी रचना १६७०मां छे- ए मुख्य फेर. (जुओ जैगुक. ३ पृ. ३६-३७). आ अंतिम ढालमां बे स्थाने [-]मां मूकेलो पाठ ते जैगूक ३, पृ. २९मां छपायेला पाठने आधारे छे, तेनी नोंध लेवी.
कवि ऋषभदास स्वयं व्यापारी वणिक होईने तेमनी भाषा तथा लखावट अने जोडणी लगभग बोलचालनी शैलीमा छे. आ संपादनमा ते बधुं जेमनुं तेम रहेवा दीधुं छे. आनी बीजी प्रतिओ क्यांक हशे ज, अने तेनी साथे मेळवतां जोडणीनी दृष्टिए मोटा फेरफारो पण जोवा मळे खरा. अथवा आपणे पण तेवा फेरफार करी शकीए. परंतु अहीं तेम करवानुं नथी स्वीकार्यु. कविनी अने ते समयनी बोलचाल, लखावट तथा जोडणी केवी हशे तेनो अणसार तथा अंदाज आमांथी अवश्य मळी शके, जे संशोधननी दृष्टिए बहु उपयोगी बने. कविए , आपणे आजे ज्यां 'ज' नो प्रयोग करीए छीए, त्यां घणे भागे 'य' ज वापरेलो छे. दा.त. 'यम' - जेम, 'यगनाथ' जगनाथ, 'काय'- काज इत्यादि. तो ज्यां शब्दमध्ये 'र' आवे त्यां कवि 'य' उमेरीने ते शब्द मूके छे. जेमके -. मुरख - 'मुर्यख', कारमी - 'कार्यमी'
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वगेरे. रथनुं 'रर्थ', घृतनुं 'घ्यर्त', कारणनुं 'कार्ण्य', व्रतनुं (क्यांक) 'व्रर्त' आवा आवा अनेक प्रयोगो भाषाविदो अने ध्वनिविदो माटे अत्यंत उपयोगी गणाय. आवा विषयमां ऊंडो अने व्यापक अभ्यास तथा रस धरावता बे मूर्धन्य विद्वानो, डो. भायाणी अने प्रा. कोठारी, जो हयात होत तो आपणने घणाबधां संशोधनो पण मऴत अने अभ्यासलेखो पण मळत.
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केटलाक शब्दोना अर्थ पाछळ आपवामां आव्या छे. ते अंगे फरीथी स्पष्टता करवानी के पारिभाषिक शब्दोनो आ रासमां एटलो मोटो समूह छे के तेनी सूचि ने अर्थ आपवा करतां तो रासनुं विवेचन करवुं ज वधु सुगम पडे. एटले ते शब्दोना अर्थ आपेल नथी. केटलाक शब्दोना अर्थ - संदर्भो मेळववामां प्रा. कान्तिभाई शाहे सहाय करी छे.
प्रांते एक पारंपारिक जनश्रुति उमेरुं के ऋषभदास खंभातमां माणेक चोकमा रहेता हता ते मकान तथा तेमांनुं लाकडानुं कलाखचित घरदेरासर आजे पण त्यां विद्यमान छे. ते मंदिरने ते मकानमांथी काढी लईने नजीकमां
ज नवनिर्मित शंखेश्वरपार्श्वजिनालयमां सुचारु रीते गोठवेलुं छे. तेमज केटलांक
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वर्षो पूर्वे, नगरपालिका द्वारा, आ लखनारना प्रयासोथी, ते विभागने "श्रावक कवि ऋषभदास शेठनी पोळ" एवं नाम पण अपायेलुं छे.
संपर्कसूत्र :
अतुल एच. कापडिया
ए / ९, जागृति फ्लेट्स महावीर टावर पाछळ, पालडी, अमदावाद - ३८०००७
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कवि ऋषभदास कृत व्रतविचारास
श्रीवितरागाय नम ॥
दूहा ॥ पास जिनेस्वर पूजीइ, ध्याईइ ते जिनधर्म । नवपद धरि आराधीइ, तो कीजइ स्युभ कर्म ॥१॥ देव अरीहंत नमुं सदा, सीद्ध नमु त्रणी काल । श्रीआचारय तुझ नमुं, शाशननो भुपाल ॥२॥ पूण्यपदवी ऊवझायनी, सोय नमु नसदीस । साद्ध सवेनि नीत नमुं, धर्म विसायांहा वीस ॥३॥ क्रोध मांन माया नही, लोभ नही लवलेस । वीषइ वीषथी वेगला, भवीजन दइ ऊपदेस ॥४॥ उपदेशि जन रंजवइ, महीमा सरसति देव । तेणइ कार्ण्य तुझनि नमुं, सार्द सारू सेव ॥५॥ समर सरसति भगवती, समर्या कर जे सार । हु मुर्यख मती केल, ते माहारो आधार ॥६॥ पीगल-भेद न ओल, विगति नही व्याकर्ण । मुर्यख-मंडण मानवी, हु सेवू तुझ चर्ण ॥७॥ कवीत छंद गुण गीतनो, जे नवी जाणइ भेद । तु तूठी मुख्य तेहनि, वचन वदइ ते वेद ॥८॥ . मुर्यख मोटो टालीओ, कवी कीधो कालदास । जगवीख्याता तेहवो, जो मुख्य कीधो वास ॥९॥ कीर्ति करु तुझ केटली, मूझ मुख्य रसना एक । कोड्य जिह्वाइं गुण स्तवं, पार न पामुं रेख ॥१०॥
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तोहइ तुझ गुण वर्णवुं, मूझ मती सारू माय । नख मुख वेणी शीर लगई, कवी ताहारा गुण गाय ॥ ११ ॥
ढाल ॥२॥ (१)
दि (दे) सी - एक दीन सार्थपती भणइ रे० । राग गोडी० ॥
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नखह नीरूपन (म) नीरमला रे, चलकइ यम रवी चंद । रेखा सुदर साथीआ रे, देखत होय आनंदो रे | १२ | तूझ गुण गाईइ, कविजन कीरितु मायु रे, सार्द ध्याईइ ० आचली ॥
पदपंकजनुं जोडलु रे, नेवरनो झमकार ।
ओपम जंघा केलिनी रे, सकल गुणेअ सहइकारो रे ||१३|| तू०||
गजगत्य-गमनी गुणभरी रे, सीह हराव्युं रे लंक । ते लाजीनि वनी गयुं रे, हुतो सो य सुसंको रे || १४ | ० ||
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ऊदर पोयणनुं पनडु रे, नाभीकमल रे गंभीर । कंचुकचर्णा चुनडी रे, चंपकवणुं ते चीरो रे ॥१५॥०॥
रीदइकमल वन दीपतु रे, कुंभ पयुधर दोय । प्रेमविलुधा पंखीआ रे, भमर भमंत ते जोयो रे ॥१६॥०॥
कमलनाल जसी बांहुडी रे, करि कंकणनी रे माल । बाजुबंधन बइहइरखा रे, विणानाद वीसालो रे ||१७|| तु० ॥
करतल जासु- फूलडां रे, रेखा रंग अनेक ।
उंगल सरली सोभती रे, वर्णव करूंअ वसेको रे ||१८|| तु०॥
नख गुजानी ओपमा रे, झलकइ यम आरीस ।
नाशा शमइ 'यम दाम्यनी रे, त्यम चलके नशदीसो रे ||१९|| तुझ०॥
ढाल ३ ॥ (२)
देसी । भोजन द्यो वरभामनि रे ॥ राग० केदार गोडी ||
ऊर मुगताफल कनकनो रे, कुशमतणो वली हार । कोकीलकंठि काम्यनी रे, वदती जइ जइकार ||२०||
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ब्रह्मांणी तुं समर्यां करजे सार, तुझ नामि जइ जइकार, ताहारइ कंठि रयणनो हार, . चरणे नेवरनो झमकार, ब्रह्माणी तुं समर्यां करजे सार ॥आंचली०॥ चंदमुखी मृगलोयणी रे, कनककचोलां गाल । नाशक ओपम कीर्नी रे, अष्टम ते ससी भाल ॥२१॥ भ्र०॥ जीम अमीनो कंदलो रे, अधु(ध)र प्रवाली रंग । दंत जशा डाडिम-फुल रे, अकल अनोपम अंग ॥२२॥ भ्र०॥ भमरि वंक जिम वेलडी रे, धनुष चढाव्यु बाण । मुर्यख सहि वही चालीआ रे, वेध्या जाण सुजाण ॥२३।। भ्र०॥ श्रवण ते काम हीडोलड्या रे, नाग नगोदर झालि । वेणी वाशग जीपीओ रे, हंस हराव्युं चालि ॥२४॥ भ्र०॥ फूली सइंथो राखडी रे, षीटली खंति भालि । ऊपरि सोहइ मोगरो रे, जिम स्युक अंबाडालि ॥२५॥ भ्र०॥ 'मुगताफल भखी जेहनुं रे, तेणइ वाहनी चढी माय । कवीजन समरइ सारदा रे, तस मुख्य रमवा जाय ॥२६॥ भ्र।। रमती रंगि एम भणइ रे, कवी कवयु गुणमाल । एह वचन श्रवणे सुणी रे, नर हा ततकाल ॥२७॥ भ्र०॥ हु हो कवीजन कईं रे, ऊत्तम कुल आचार । नरनारी सहु संभलु रे, वरत कहुं जे बार ॥२८॥ भ्र०॥
. दूहा० ॥ एणइ जगी धर्म-युगल कह्या, भाख्या श्रीजिनराय । श्रावक धर्म यती तणो, सुणयु एकचीत लाय ॥२९॥
__ ढाल०४ (३) चोपई० ॥ लाई चीत सुणयु सहु कोय, दसवीध्य धर्म यतीनो होय । ख्यमावंत निं आर्जवपणुं, मांन न राखइ मनम्हां घणुं ॥३०॥
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लोभरहीत मुनी लागुं पाय, जिम आतमदूख सघलां जाय । बारे भेदे जे तप तपइ, अष्ट कर्म ते हेलां खपइ ॥३१॥ बारइ भेद मुनी एम आदरइ, उपवास अणोदर बहु तप करइ । द्रव्यसंखेपण रसनी ताय, कायकलेश करइ मनदाहाझि ॥३२॥ संवरइ अंदी पोतातणां, तो तस कर्म खपइ अतीघणां । गुरु पासइ आलुअणी लीइ, आतम सीख एणी परि दीइ ॥३३॥ वीनो वा(व)डानो सरावइ जेह, वयावछादीक करतो तेह । वली तप भाख्युं जे सझाय, ध्यान करंतां पात्यग जाय ॥३४॥ काओसर्ग तो एम करवो कह्यु, जिम थीर पासकुंमारह रह्यु । ते जिनवरतुं नाम ज जपइ, बारे भेदे एम तप तपइ ॥३५॥ संयम चोखं पालइ जेह, सत्यभाषा मुख्य भाखइ तेह । नीर्मल आतम राखइ अस्यु, तेहनि दोष न लागइ कस्यु ॥३६॥ कोडी एक न राखइ कनई, ते मुनीवर पणि तारइ तनइं । ब्रह्मचरय नवविध्यस्यु धरइ, ते मुनिवर जगि तारइ तरइ ॥३७॥
दूहु०॥ दसविधि धर्म यतीतणो, कह्यं ते सुणयु सार । नर ऊत्तम ते सांभलो, श्रावक कुल आचार ॥३८॥ बारइ व्रत श्रावकतणां, श्रावक सो गुणवंत । गुण एकवीसइ तेहना, सहु सुणज्यु एकच्यंत ॥३९॥
ढाल० ५(४)॥ देसी० नंदनकु त्रीसला हुलरावइ ॥राग० असाउरी०॥ धर्मरत्ननि युगि कहीजइ, जस गुण ए एकवीसो रे । छिद्ररहीत जे श्रावक होइ, तस चणे मुझ सीसो रे ॥४०॥
धर्मनि युगि कहीजइ० आंचली० ॥
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अनुसंधान-१९
रुपवंत जोईइ गुण बीजइ,सोमप्रगति नर सोहीइ रे । लोक सकलनि होइ नर वलभ, करुर द्रीष्ट नवि जोईइ रे ॥४१॥ धर्म०।। पापभीर श्रावकपणि होइ, छठो गुण ए जांणो रे । पंडीत नर पभणीजइ, श्रावइ (क?) ए गुण सात वखांणो रे ॥४२॥ ध०॥ दाख्यण, लज्या अनि दयालं, मध्यशवरती वंदो रे । सोमद्रीष्ट जोईइ श्रावकनी, जिम पून्यमनो चंदो रे ॥४३॥ धर्म०॥ गुणांणरागी नर गुणवंतो, कथा कहइ नरतारू रे । भला पक्षनो जे नर होइ, सो श्रावकपणि वारू रे ॥४४॥ धर्म०॥ दीर्घद्रीष्टी सोलसमो गुण, वसेखतणो वली जाणो रे । वीनो वडानो राखइ रंगि, श्रावक सोय वखाणो रे ॥४५॥ धर्म०॥ कीधा गुणनो जे जगी जांणो, सो श्रावक नीत्य वंदो रे । पर-ऊपगारी जे नर होसइ, सो पणि सुरतरु कंदो रे ॥४६॥धर्म०॥ लभधिलखी ते श्रावक साचो, रहीइ तेहनि संगि रे । ए गुण एकविसइ सहु सुणयु, नर धर्यो नीत अंगिं रे ॥४७॥ धर्म०॥
दूहा० ॥ एकवीस गुण अंगि धरी, ध्याओ ते जिनधर्म । ग्रही व्रत चोखं पालीइ, पद लहीइ यम पर्म ॥४८॥ बारइ बोल सोहामणा, सुणज्यु सहु गुणवंत । लीधु व्रत नवि खंडीइ, भाखइ श्रीभगवंत ॥४९॥
ढाल० ६ (५) ॥ देसी० भवीजनो मती मुको जिनध्यानि०॥ राग-शामेरी ॥ गुरु ग्यरुआ मुनीवर कनि, जे कीधु पचखांणो रे । ते नीसचइ करी जन पालु, जिहा घट धरीइ प्रांणो रे ॥५०॥
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कवीजनो गुण गाओ जिनकेरा, आलपंपाल म म ऊचरो, जस म म बोलो अनेरा रे । कवीजनो गुण गाओ जिन केरा, ..... आंचली० ॥ तत्त्व त्रणे आराधीइ, श्रीदेव गुर नि धर्मो रे । समकीत सुधु राखि समझो, जईन धर्मनो मर्मो रे ॥५१॥ क०॥ देव श्रीअरीहंत छइ, जस अतीसहइ चोतीसो रे ।। दोष अढार जिनथी पणि अलगा, वांणी गुण पांतीसो रे । क० ॥५२॥ दोष अढार जे जिन कह्या, ते नही अरीआ पासइ रे । यु मृगपति दीठइ मदि मातो, मेगल ते पणि नाहासइ रे । क० ॥५३।। दांन दीइ जिन अतीघj, को न करइ अंतराइ रे । लाभ घणो जिनवर तुझ जाणुं, बहु प्रतिबोध्या जाइ रे । क० ॥५४॥ अंतराय जिननि नही, वीर्याचार वसेको रे । तप जप तुं संयम जिन पाल[त], आलस नही जस रेखो रे ।
क०॥५५॥
भोग घणो भगवंतनि, अनि वली अवभोगाइ रे । सूर नर कीनर गुण तुझ गाइ, वंदइ प्रभुना पाइ रे । क०॥५६॥ हाशविनोद क्रीडा नही, रती अर्ती नही नामो रे । भय दूगंछा जिन नवी राखइ, शोक अनि नही कामो रे । क० ॥५७॥ मीथ्या मुख्य नवी बोलवं, जिननि नही अज्ञानो रे । नीद्रा नही नीसचइ सहु जाणो, अवर्तीनि नही मानो रे । क० ॥५८॥ राग द्वेष जिन जीपीआ, लीधो सीवपूरवासो रे ।। ते जिनवर पूजंतां पेखो, पोहइचइ मननी आसो रे । क० ॥५९।।
दुहा० ॥ आशा पोहोचइ [मनत]णी, जपता जिनवर नाम । अतीसहइ चोतीस जिनतणा, ते बोलु गुणग्राम ॥६॥
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अनुसंधान-१९
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ढाल० ॥ [६] ॥ देसी० अंबरपूरथी तिंवरी० ॥राग-गोडी।। अतीसहइ चोतीस जिनतणा, प्रथमइ रूप अपारो । रोगरहीत तन नीरमखें, चंपकगंध सुसारो ॥
त्रुटक० ॥ सार चंपक तन सुगंधी, भमर भंगि तिहां भमइ । सास निं ऊसास सुंदर कमलगंधो मुख्य रमइ ॥ रुधीर मंश गोखीर-धारा, अद्रीष्ट आहार नीहार रे । सहइजना ए च्यार अतीसइ, कर्म-घाति अग्यार रे ॥६१॥ समोवसणि बार परखधा, योयनमांहिं समायु रे । वाणी जोयनगाम्यणी, बूझइ सूर-नररायो ।
राय बुझ[इ] रवि सरीखु, भामंडल पूठिं सही । जोअण सवासो लग पलाई, रोग नीसचइ ते...(?) । सकल वइर पणि विलइ जाइ, सातइ ईत समंत रे । मारि (म)रगी नही, अना(वृष्टी) अतीव्रीष्टी नवी हंत रे ॥६२॥ अनवृष्टी नही जिन थकई, दुर्भाग्य नहीअ लगारो रे । [निजच]क परचक्र भइ नही, ए गुण जुओ अग्यारो ॥
अग्यार गुण ए केवल पांमि, सुर कीआ ओगणीस रे । धर्मचक्र आकाश चालइ, चामर दो नशदीस रे ।। रत्नसीघासण पादपीठह. च्छत्र वणि सही सीस रे । अंद्रधज आकाश ऊचो, जुओ जिनह जगीस रे ॥६३|| परमेस्वर पग जिहा ठवइ, कमल धरइ नव खेवो । रूप-कनक-मणि-रत्नमइ, तीन रचइ गढ देवो ॥ देव गढ त्रणि रचइ रंगिं, समोसर्ण्य चोरूप रे । अस्योख तरु तलि वीर बइसइ, जुओ जिनह सरूप रे ।।
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त्रु०
अधोमुख्य त्याहा कहु कंटीक, सकल विर्ष नमंत रे । दूदभी आकाश वाजइ, शब्द[स]हुअ रचंत रे ॥६४॥ पवन फरुकइ कुअलु, अतिझीणो अनुकुलु । पंखी दइ परदक्षणा, स्युक[ न बोलइ ] मुख्य मुलु ॥
मुल मुख्यथी स्युकन बोलइ सुगंधव्रीष्ट सोहांमणी । सूर सोभागी सोय वरसइ पूफव्रिष्ट होइ घणी ॥
समोसरणि पंचवर्णां पूफ ते ढीचणसमइ । नख केस रोमह ते न वाधइ सुरकोड्य त्याहां रंगि रमइ ॥
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अंद्रीनिं अनुकुल होइ षट सोय रत्ती सोहामणी । चोत्तीस अतीसह एह च्यंतइ लहइ संपति सो घणी ||६५ ||
दूहा० ॥
संपइ सुख बहु पामीइ,
धन कण कंचन हाट ।
ते जिन कां नवि समरीइ, जिणइ मद जी [ प्या] आठ ॥ ६६ ॥
ढाल० ८॥ ( ७ ) ॥
देसी० नंदनकु त्रीसला हुलरावइ० ॥
आठइ मद जे मेगल सरीखा, जिन जिपी जिन वारइ रे । मान[ थकी] गति लहीइ नीची, पंडीत आप वीचारइ रे ॥६७॥ आठइ मद जे मेगल सरीखा० अंचली० ॥
जाति [ मद] नवि कीजइ भाई, लाभतणो मद तजीइ रे । ऊंच कुलांनुं मांन क[रीनइ ] [ नीच] कुलां जई भजीइ रे || आठइ०॥६८॥
प्रभुताने ए बलमद वारो, रूपमान एकमन्नो रे । स[नतकु]मार जुओ जगी चक्रवइ, अंगिं रोग ऊपनो रे || आठइ० ||६९॥
तपमद करतां पूण्य पलाइ, श्रुतमद मुर्यख थई रे । कहइ जिनराज सुणो रे लोगा, चोखइ च्यंति रहीइ रे | आठइ० || ७०||
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दूहा० ॥ चीत चोखुं नीत राखीइ, हईइ सुजिनवर ध्यान । कर्मरहीत जिन ध्याईइ, तो लहीइ बहुमांन ॥७१||
ढाल० ९ (८)॥
देसी० एणी परि राय करता रे० ॥ हु जपुं जिन सोय रे कर्मई मुकीओ, सीवमंदिर जई ढूंकीओए ॥७२।। यलि आठइ कर्म रे नाणांवर्णीअ, कर्म कठण जे दंसणा ए ॥७३॥ मोहनी नि अंतराय रे ए पणि खइ करइ, तव अरीहा केवल वरइ ए ॥७४॥ आऊखुं निं नामकर्म रे [भे]गी वेदनी, गोत्रकर्म जिन खइ कोउं ए ॥७५।।
दूहा० ॥
आठि कर्म जेणइ खेपव्यां, कीओ सु परऊपगार । नर उत्तममां ते का, तीर्थंकर अवतार ॥६॥ अंद्रतणी पदवी लही लद्यु चक्री भोग । तीर्थंकर पद नांमनो एह लहो संयोग ॥७७॥ पूर्व पूण्य कीआ व्यनां, ए पदवी किम होय । विसथानक विण सेवीइ, जिन नवि थाइ कोय ॥७८॥
__ढाल १० । (९)॥ देसी० राम भणइ हरी उठीइ० ॥ राग-रामग्यरी ॥ [वीसथानक] एम सेवीइ, अरीहंत पूजि ते पाय रे सीधस्यु सही चीत लाय रे, प्रवच[न] ...... रे, आचारय गुणगाय रे, ........................... ॥७९॥
.......... वीसथानक एम सेवीइ । आचली० ॥ थीवर यती रे आराधीइ, ........ उवझाय रे । साध सकलनि सो ध्याय रे, आठमई न्यान लखाय रे,
ते नर अरीहंत थाय रे ॥८०।। वी०॥
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नवमइ दंसण जांण जे, दसमइ विनओ ते भाख्य रे । आवसग नीर्मल राख्य रे, भ्रमव्रत ते जिन साख्य रे,
तेरमइ क्यरीआ तु दाख्य रे..... वी० ॥ ८१ ॥
तप त्रविधिं रे आराधीइ, गणधर गऊतमस्वाम्य रे । जिनवर भगति भली परिं, पूजी प्रणमो ते पाय रे.... वी० ॥८२॥
चारीत्र चोखुं रे सेवीइ, न्यान नवुं अवडाय रे । श्रुतपूजा सोय कराव्य रे, चतुर्वीय संघ पइहइराव्य रे,
दूहा० ॥
वीस थानक सेवी करी, जे समर्या गुणवंत । तास तणा पद पूजीइ, ते भजीइ भगवंत ॥८४॥
एम वीसथानक भाव्य रे..... वी. ॥ ८३ ॥
पूयि पातिग छूटीइ, जपीइ जिनवर सोय । च्यार प्रकारि सधहता, शमकित नीर्मल होय ॥ ८५ ॥
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च्यार नखेपा जिनतणा, त्रीजइ अंगि जोय । एणी पर जिन आराधता, आतम नीर्मल होय ॥८६॥
नांमजिन पहइलुं नमुं भावजिना भगवंत । द्रव्यजिन चोथइ थापना, सहु सेवो एकच्यंत ॥८७॥
जिनप्रतिमा जिनमंदिरई प्रेम करीनिं जोय । आशातना भगवंतनी, नर म म करयो कोय ॥८८॥
ढाल ११ । ( १० ) ॥
देसी० गुरनि गालि सुणी नृप खीयु० ॥ राग - मारु ॥ जिनमंदिरमाहिं जिन आगलि, आशातना नवी कीजइ रे । तंबोल वांणही अनइ थुकवुं, जिनमंदिर जल नवी पीजइ रे ॥ ८९ ॥ भगति करीजइ रे, कर्म खपीजइ रे || आंचली० ॥
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अनुसंधान-१९
मईथन त्याहा नरि कीजइ नीसचइ, ए उपदेसनु झ सारो रे । लोढी नीत नषेधो मानव, वडी सो वेगी नीवारो रे..... ॥९०॥
भगति क० ॥ भोजन सूअण अनि जुवटु, जिनमंदिर ते म म खेलो रे । आशातना जो कीजइ त्याहिं, जिव होइ अतिमइलो रे ॥९१॥ भ० ॥
दहा० ॥ देव अरीहंत अस्या कहू, गुरु भाख्यु नीग्रंथ । गुण छत्रीसइ तेहना, भवीजन देयो च्यंत ॥९२।। पांचइ अंद्री संवरइ, नववीध्य भ्रह्म सार । च्यार कषाइ परीहरइ, पंच माहाव्रत धार ॥९३।। मूनीवर मोटो ते कहुं, पालइ पंचाचार । पंच सुमति रखि राखतो, वणि गुपति नीरधार ॥९४।। गुरुगुण छत्रीसइ कह्या, सुत्र सीधांतिं जेह ।। वलि गुण आचार्य तणा, नर सुणयो सहु तेह ॥९५।।
ढाल १२ । (११) ॥
देसी० सासो कीधो सांमलीआ. || आचार्यना गुण छत्रीसइ, ते कहइसु मनरंगि । ते मुनीवरखें ध्यान धरीस्यु, रइहइस्यु तेहनि संगि ॥१६॥ रूपवंत जोईइ आचार्य, सूदर (?) सोभीत देह । ते देखीनिं राजा रंजइ, लोक धरइ बहु नेह ॥९७।। कुमर अनाथी देखी समकीत, पाम्यो ते श्रेणीक राय । जईन धर्म भुपति जे समज्यु, रूपतणो महीमाय ॥९८॥ तेजवंत जोईइ आचार्य, को नवी लोपइ लाज । जईन धर्म नइं ओर वली दीपइ, स्युभकर्णिनां काज ॥९९॥
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युगप्रधान युगवलभ जोईइ, त्रीजो गुण तु जांण्य । पीस्तालीस आगम जे कहीइ, ते बोलइ मूख्य वांण्य ॥१००। मधुर वचन मूनीवरनुं जोईइ, उपजइ सहु संतोष । गंभीरो यम सायर साचो, न कहइ परनो दोष ॥१॥ च्यतुरपणि बुध्य चाखी जोईइ, रंगि दइ उपदेस । धर्म देसना देतां मूनीवर, आलस नही लवलेस ॥२॥ कोहोर्नु वचन न सर्वइ साचइ, सोमप्रगती मुनी होई । सकल शाहास्त्रनो संघरइ करतो, शील धरइ रखी सोही ॥३॥ अग्यारमो गुण अभीग्रहइ धारी, आपथुई न करंत । चपलपणुं ते चतुर न राखइ, प्रशन-रीदइ मूनी हंत ॥४॥ प्रतिरूप आदी देइनिं जाणो, ए गुण चऊद अपार । दस गुण मुनीवरना हवइ कहइस्यु, तेहमां घणो वीचार ॥५॥ ख्यमावंत ते मूनीवर मोटो, जेहनिं नही अभीमांन । मायारहीत जोईइ आचार्य, नीरलोभी तप ध्यान ॥६॥ संयमधारी नि सतवादी, नीरमल जस आचार । कोडी एक कनि नवी राखइ, नववीध्य भ्रह्म सार |॥७॥
ढाल १३ । (१२)॥
देसी० मनोहर हीरजी रे ॥ राग- परजीओ ॥ बार भावनाना गुण बारइ, आतमभावीत होसइ । सकल पदार्थ ते नर लहइशइ, सीवमंदीरनिं जोसइ ॥८॥ गुण ते नरतणा रे, जे मुनी अती गुणवंतो ।। क्रोध मांन माया मद मछर, आण्यु कांम ज अंतो ॥ गुण ते नरतणा रे, जे मुनी अतीगुणवंतो० ॥ आचली ॥ अनीत भावना नर एम भावइ, ध्यन यौवन परीवारो । गढ मढ मंदीर पोलि पगारा, को नवी थीर नीरधारो ॥९॥ गुण०॥
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अनुसंधान - १९
असर्ण भावना नर एम भावइ, नही मुझ कोय सखाई । मात-पिता कंता निं भगनी, को नवी राखइ भाई ॥ १० ॥ गुण० ॥
ध्यान धरो तो ऋषभदेवनुं, अवर सहु जंजालो ।
जिनना सर्ण विनां नवी छुटइ, सूरपति को (के) भुपालो ॥११॥ गुण० ॥
संसारनी ते भावइ भावना, जगि दीसइ जंजालो ।
एक नीर्धन निं एक धनवंता, चाकर निं भुपालो ॥१२॥ गुण० ॥
एक मंदिर बहु बालीक दीसइ, एक घरि नही संतांनो | एक मंदिर बहु रदन करंता, एक मंदिर बहु गांनो ||१३|| गुण० ॥
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एकत्व भावना मुनी एम भावइ, नही मुझ कोय संघांतो । आव्यो एकलो जाईश एकलो, ए जगमांहां वीख्यातो ॥१४॥ गुण० ॥
अनत्व भावना कहीइ पांचमी, तेहनो एह वीचारो । जीव अनि ए काया जुजूई, कांई नवी दीसइ सारो ॥ १५ ॥ गुण० ॥
जीव मुकी जाशइ कायानिं, काया केड्य न जायु । फोकट भारे थायु ||१६|| गुण० ॥
तुस्युनी गणी निं सहु पोषो,
अस्युच भावना भेद कहु छु, सुणयो सहुअ सुजांणो । देही सदा ए छइ दूरगंधी, म करो कोय वखांणो ||१७|| गुण० ॥
आश्रव भावना भेद भणीजइ, जेणइ आवइ बहु पापो । माहामुनी वरते वेगी नीवारइ, न करइ आप संतापो ||१८|| गुण० ॥
संवर भावना भली वखाणुं, पातीग जेणइ रुधाइ ।
पांचइ अंद्री मुनी वश राखइ, तो घट नीर्मल थाइ ॥ १९ ॥ गुण० ॥
नोमी भावना कहु नीर्जरा, जे एव-इ त - हु- थाइ । कर्मु खपइ नर कईअ कालनां, वइहइलो मुगतिं जाइ ||२०|| गुण० ॥
लोक भावना चऊद राजनी, भावइ आपसरूपो ।
ए जीविं ते सहुइ फरस्यु, कीधां नव नव रूपो ||२१|| गुण० ॥
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धर्मभावना एणी[परि] भावइ, संसारं ए सारो । धर्म विनां जीव मुगत्य न पावइ, ते नीसच्यइ नीरधारो ॥२२॥ गुण०॥ बोध्य भावना कहुं बारमी, भावो सो रषिराजो । समकीत सुधुं राखो रंगिं, जिम सीझइ भवकाजो ॥२३॥ गुण० ॥
दूहा० ॥ काज सकल सीझइ सही, जे गुरु वंदइ प्राय । गुरु गुणवंतो ते कहु, परीसइ न दोहोल्यु थाय ॥२४॥ परीसा बावीस जीपतो, परीसइ न जीत्यो तेह । ऋषभ कहइ गुरु ते भलो, सहु आराधो तेह ॥२५।।
ढाल १४ । (१३)॥
देसी० त्रपदीनी० ॥ जे मुनी चात्र रंगि रमसइ, ते नर बावीस परीषह खमसइ ।
काल सुखि ते गमसइ, हो रख्यजी, का० ॥२६।। ख्यध्या तणो परीसो ते पइहइलो, माधवसूत मन न कीउ मइलो ।
ढंढण मुगतिं वइहइलु, हो रख्यजी० ॥२७॥ त्रीषा तणो परीसो अ वीचारो, जल ऊतरतो रषि संभारो ।
एम आतम तुम तारो, हो रख्यजी० ॥२८॥ सीतकालनो परीसो साचो, जीव खमत म होईश काचो ।
सुख लहीइ अती जाचो, हो रख्यजी० ॥२९॥ उष्णकाल आविं म म धुजो, सोय संघाति साहामा जुझो ।
जो जिनवचनां बुझो, हो र० ॥३०॥ डंस-मसा म म दूहुवो हाथि, ते परीसो खमीइ नीज जाति ।
पूत्र चलाची भाति, हो० ॥३१॥ वस्त्र तणो परीसो पणी जाणो, मइला फाटां मनि म म आंणो ।
को म म वस्त्र वखाणो, हो रख्यजी० ॥३२॥
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अनुसंधान-१९ रती परीसो ख्यमीइ नीज खांति, ए त्यम अरती सोय एकांति ।
स्त्रीपरीसो ऊपसांति, हो० ॥३३॥ चालतां पंथिं म म चुको, जीव जतन पूंजी पग मुंको ।
जिम सिवमंदिर ढुंको, हो० ॥३४॥ ऊपाशरानो परीसो सहीइ, दीनवचन मुख्यथी नवि कहीइ ।
तो गति उची लहीइ, हो० ॥३५॥ सेयानो परीसो अतीसारो, ए तारइ छइ मुझह बीच्यारो । .
अस्यु मनि आप वीचारो, हो० ॥३६।। वचनतणो परीसो वीकराल, अं(अ)ग्यन वीनां उठइ छइ झाल ।
. क्रोध चढइ ततकाल, हो० ॥३७॥ वचन खमइ ते जगवीख्यात, यम खमीओ शकोशल तात ।
कीर्तधर नरनाथ, हो० ॥३८॥ . वध-परिसो ते वीषम भणीजइ, जे खमसइ नर सो थुणीजइ ।
तास कीर्ति नीत्य कीजइ, हो० ॥३९॥ मारं न चल्यु द्रढह-प्रहारी, समता आणइ संयमधारी ।
ते नर मोक्षदूआरी, हो० ॥४०॥ जाच्यनानो परीसो पणि खमीइ, मधुकरनी परि मुनीवर भमीइ ।
संयमरंगि रमीइ, हो० ॥४१॥ थोडइ लाभिं रोस न कीजइ, ऊशभ कर्मनि दोसह दीजइ ।
पर अवगुण नवि लीजइ, हो० ॥४२॥ रोग परीसो खमसइ जे खांति, ऊची पदवी लहइ एकातिं ।
सीधतणी ते पाति, हो० ॥४३|| सनतकुमार सह्या सही रोगो, ओषधनो हुतो तस युगो ।
कहइ मुझ कर्मह भोगो, हो० ॥४४॥
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वर्ण तणो परीसो जे सइहइसइ, अष्टकर्म ईधण परि दइहसइ ।
सकल पदार्थ लइहइसइ, हो० ॥४५॥ मल परीसइ जे मुनीवर मातो, सुंदर दीसइ पंथि जातो ।
लोक सकल तीहा रातो, हो० ॥४६॥ जो सतकार न दइ शनमानो, तो तु म करीश मनि अभीमानो ।
__ हईडइ करजे सानो, हो० ॥४७॥ विद्यातणुं अभीमान न कीजइ, मुर्यख तेहनि गाल्य न दीजइ ।
संयम, फल लीजइ, हो० ॥४८॥ करमि तुझ कीधो अग्यनांन, भणता देखी मइलुं ध्यान ।
म करीश जो तुझ सान, हो० ॥४९॥ समकीत सहु राखो मन साखि, को म म चुको कोटल लाखि ।
__ रहीइ जिनवर-भाखि, हो० ॥५०॥ .. ए बाविसइ परीसा जाणुं, जे खमसइ नर सोय वखाणुं ।
नाम रीदइम्हां आ[, हो० ॥५१॥
दूहा० ॥ नाम रीदइम्हां आणीइ, आतम नीर्मल थाय । परीसइ जे नर नवी पड्या, कवी तेहना गुण गाय ॥५२।।
ढाल १५ । (१४) ॥ देसी० ए तीर्थ जाणी पूर्वनवाणु वार० ॥ बहु परीसइ सबलु, वर्धमान जिन वीरो । जस श्रवणे खीला, चणे रांधी खीरो ॥५३।। खंधक सूरयना सष्य, पंचसया मुनी जेहो । घाणइ पणि पील्या, मनि नवि डोल्या तेहो ॥५४॥ मुनीवर नीत्य वंदो ग्यरुओ गजसुकमालु । शरि अग्यन धरंतां, जे नवी कोप्यो बालु ॥५५॥
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अनुसंधान-१९
रषि श्रीशकोसी, कर्म त्यणि सांहामो जायु । परीसइ नवि कोप्यु, ते वंदो रषीरायु ॥५६॥ जुओ अ... ली, जेणइ जगी राखी लीहो । लोकि बहु दमओ, पणि नवी कोप्यु सीहो ॥५७॥ वली पूत्र चलाची, कीडी तास शरीरो । अढी दिवश लगि वली, फोलि न चलु धीरो ॥५८॥ वाधर पणि वीट्यु, मुनी मेतारज सीसो । तोहइ पणि नावी, दूर्जन ऊपरि रीसो ॥५९॥ जंबुक घरि घर्णी, अती मुखी वीकरालु । तेणइ मुनी भखीओ, कुमर अवंती बो(बा)लो ॥६०॥
दूहा० ॥ एम मुनीवर आगइ हवा, सो समरिं सूख थाय । गुण सतावीस जेहमां, ते वंदू रषीराय ॥६१॥
ढाल १६ । (१५) ॥
देसी० सांमि सोहाकर श्रीसेरीसइ० ॥ गुण सतावीस सुणयु साधुना, मुनीवर मोटो न करइ विराधना ॥ त्रुटक० वीराधना मुनी मन्य न करतो, सोय गुरु मनमां धरी,
कांम क्रोध माया मछर भरीआ, तेह मुकु परहरी । जीव न परनो हणइ मुनीवर, नीषा मुख्य बोलइ नही, दांन-अदिता न लहइ रख्यजी, भ्रह्म न चुकइ ते कही ॥२॥
परिग्रहइ ते पणी मुनीवर परीहरइ, रात्रीभोजन सो मुनी नवी करइ ॥ त्रु० नवी करइ मुनीवर आहार राति, छइ कायनि राखतो,
वलि पांच अंद्रीअ नि दमतो, वचन-अमृत भाखतो । क्रोध मांन माया लोभ टालइ, भाव सहीत पडिलेहणा कर्णसीत्यरी चर्णसीत्यरी, धरनार होइ तेहतणा ॥६३।। संयमयुगता रे मधुरु भाषता, मन निं वचनां काया थीर राखता ||
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राखता थीर मन वचन काया, सीतादिक-परिसो सहइ, मांत ऊपसर्ग सो खमता, कर्म ईधण एम दहइ । गुण सतावीस एह सुधा, मुनी अस्यु आराधीइ अस्या गुरुना चर्ण सेवी कवी कहइ नीर्मल थईई ॥६४॥
दूहा० ॥ नीर्मल आतम जेहनो, नीर्मल जस आचार । मुनी एहो(ह)वो आराधीइ, तो लहीइ भवपार ॥६५॥ धर्म कह्यो जे केवली, ते मोरइ मनि सति । दयामुल आग्यना भली, सहु सेवो एक चति ॥६६॥
ढाल १७ (१६) चोपई० ॥ कुदेव कुगुर कुधर्म वीचार, ए त्रणे तु जाण्य असार । . हरि हर विप्रा मीथ्या धर्म, ए तु छंडे समझी मर्म ॥६७|| जे देखीनि सूरो भडइ, कायरतणा त्याहा प्रांण ज पडइ । ते वाहालु वलि जेहनि होय, सोय देव म म मांनो कोय ॥६८॥ ऊमया वाहननु भष्य जेह, ऊत्तम लोके छंड्यु तेह । ते भोजन भखवा नि करइ, सो सेव्यु तुझ स्यु ऊधरइ ॥६९॥ जे जई बइठु ऊचइ शरइ, एकइ जाति आठइ मरइ । तेहनी ईछ्या करतो देव, स्यु कीजइ जगी तेहनी सेव ॥७०॥ कांमी नर जस जोतो फरइ, मुनीवर तेहनि नवी आदरइ । असी वस्त साथि जस रंग, ते देवानो म करो संग ॥७१।। जेणइ आविं नर रातो थाय, स्युकीत कयुं ते सघलुं जाय । सोय वस्त दीसइ जे कनि, ते देवा स्यु तारइ तनि ॥७२।। मूगट जयम्हा राखइ गंग, छानो तेहस्यु करतो संग । ईस देवर्नु अस्यु सरूप, देखत कोय म पडस्यु कुप ॥७३।।
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दूहा० ॥ कुप्य म पडस्यु को वली, देव अवरनिं नाम्य । अरीहा एक विनां वली, कोय न आवइ कांमि ॥७४|| नमो ते श्रीभगवंतनि, आलि अर्थ म खोय । अंतर अरीहा ईसमां, सोय पटंतर जोय ॥७५॥
कवीत ॥ किहा परबत किहा टीबडीब किहा जिनना दास किहा अंबो कीहा आक, चंदन क्यांहा वन घास । किहा कायर किहा सुर, समुद्र किहा बीजां षांब किहा षासर किहा चीर, पेखि किहा अवनी आभ । किहा ससीहर नि सीपनु, दाता क्यरपी अंतरो, किहा रावण किहा रांम, 'कवि ऋषभ' कहइ द्रीष्टांतरो ॥७६।।
- दूहा ॥ एणइ द्रीष्टांति परिहरो, अनि देव असार । कांम क्यरोध मोहिं नड्या, तेहमां कस्यु सकार ॥७७॥ ईस्वरवादी बोलीओ, वचन सूणी ततखेव । करता हरता ईस एक, अवर न दूजो देव ॥७८॥
ढाल १८(१७) चोपई० ॥ देव अवर नही दूजो कोय, भ्रह्मा वीस्णु नि ईस्वर सोय । ए त्रणेनी वोहो सीरि आण्य, जग नीपायु एणइ [तु जा] ण ॥७९॥ त्रणि त्रीभोव[न] भ्रह्मा घडइ, अवर देव को तिहा नवि अडइ । नारि पुर्ष पसु नारकी, ए ऊपनी ते भ्रह्मा थकी ८०॥ एहनि पालइ ते हरी देव, ए ईस्वरनी एहेवी टेव । जगसंघार्ण एहनुं नाम, ईस देव- ए छइ काम ॥८१॥
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ए त्रणे जे देवा कह्या, त्रइमुरतिपणि एक ज लह्या । एहनु अकल सरूप ज कयुं, सूर नर दांनवि ते नवी लघु ॥८२॥
ख्यन तारइ बुडाडइ वली, दईत सकल जेणइ नाख्या दली । भगततणी बहु करतो सार, ते देवानो न लहुं पार ॥८३॥ ते शंकर मोटो देवता, सूर सघला तेहनिं सेवता । अस्य देव कहीइ अतबंग, प्रगट पुजावर जगम्हा लंग ॥८४॥
दूहा० ॥
ईस्वर ल्यंग पूजावतो, नही को तेहनि तोल्य ।
ईस्वर व...... म [वादी यम ?] कहइ, जईन वीचारी बोल्य ॥८५॥
जईन कहइ तु शईव सुणि, करता ह[रता ]..... ।
(भ्र) ह्या स्यु सरजाडसर, स्यु संघारइ भ्रम ॥ ८६ ॥ ढाल १९ (१८ ) चोपई ॥
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भ्रह्मा कहइ, बोल्या भ्रह्मा तारो क्याहां रहइ । वीस्णु जग पालइ छइ जोय, का होय ॥८७॥
महेश जो संघारइ छइ वली, ते ईस्वर क्यांहा ग ल । वारइ..... इ स को गया, हरी हर भ्रह्मा थीर नवी रह्या ॥ ८८ ॥
*****
.....
जो ईस्वर जग देतो सीख, तो क्यम मागी घरि घरि भीख । ज्ञानव इं लघु, स्त्री आगली जव नाचणि रघु ॥ ८९ ॥
ते ईस्वर स्यु करसइ सुखी, करमिं दूखी । पूर्व पूण्य जेहवु पणि हसइ, सुख दूख तेहेवु तेहनि थसइ ॥९०॥
तू ताहारा घरनी जो वात, विप्र सुदामो सोय अनाथ । ऊशभ कर्म जो तेहनिं हवुं, तो काई क्रीष्णई दीधुं नवु ॥ ९१ ॥
तो तु जांणे कर्म ज सार, म करीश बीजो कशो वीचार । करमिं वीस्णुं दस अवतार, करमिं भ्रह्मा ते कुंभार ॥९२॥
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कवीत० ॥ करमि रावण राज, राहो धड सबि गमायु, करमिं नल हरीचंद, चंद कलंकह पायु । पांडुसुत वन पेख्य, रांम धणि हुओ वीयुग मुज मंगायु भीख, भोज भोगवइ भोग ॥ अइअहीला ईस नाच्यु, भ्रह्मा ध्यानि चुकयु । ऋषभ कहइ ग-रंक, करमि कोय न मूंकओ ॥९३।।
दहा० ॥ करम को नवि मुकीओ, रंग अनि वली राय । जईन धर्ममां जेहवा, ते पणि सही कहइवाय ॥१४॥
ढाल २० । (१९) ॥ देसी० पाडव पाच प्रगट रहवा० ॥ राग विराडी ॥ करमि को नवी मुकीओ, पेखो ऋषभ जिणंदो रे । वरस दीवस अन नवी लघु, ते पइहइलो अ मूणंदो रे ॥९५॥
करम को नवी मुकीउं । आंचली० ॥ करमि युगल ते नारकी, मल्ली हुओ स्त्रीवेदो रे । श्रेणीक न→ सधावीओ, कलावती करछेदो रे ॥९६॥ करमि० ॥ मुनीवर मासखमण धणी, करमिं हुओ भुजंगो रे । करमवसिं वली छेदीआ, अछंकारी अंगो रे ॥९७॥ क० ॥ मृगावती गुर्ड पंखीओ, हरी गयो आकास्यु रे । चंदनबाल सांथि धरी, करमि परघर दास्यु रे ॥९८॥ क०॥ चक्री सूभम ते संचर्यु, सतम नरगमां जायो रे । ब्रह्मदत नयण ते नीगम्यां, करमि अंध सु थायो रे ॥९९॥ क०॥ विक्रम तव दूख पांमीओं, हंसि गलु जव हारो रे । कर्म वसिं वली द्रुपदी, पेखो पच भरतारो रे ॥१००॥ करभि० ॥
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कबीरदतिं रे भगनि वरी, कीधो मायस्यू भोगो रे । कर्म वसि वली जो हवो, दशरथ राम - वीयोगो रे ॥१॥ क० ॥
करमिं सुखदुख भोगवइ, नर नारी सूर सोयो रे । कर्म वीनां रे दूजो वली, जग्यह न दीसइ कोयो रे ||२|| क० ॥
सोय कर्म जेणइ खेपव्या, ते जगी मोटो देवो रे । स्त्रीसंयोगी अ जेहवा, स्यु कीजइ तस सेवो रे ॥३॥ क० ॥
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दूहा० ॥ देव अस्यु पणी परिहरो, गुरु मुंको गुंणहीण । त्रवधि ए पणि छंडीइ, जिम म - व रसिर वीण (?) ॥४॥
सईव शन्यासी बंभणा, भट पंडीतनी जोड्य । स्त्री धनथी नही वेगला, ए जगि मोटी खोड्य ॥५॥
ऊग्या विन अन वावरइ, असत होइ तव खाय । पांचइ अंद्री मोक्यलां दिन आरंभि जाय || ६ ||
लोहशलानिं वलगतां, नवि तरीइ नीरधार । जस करी लांगां तुबडुं, ते पाम्या भवपार ॥७॥
मीथ्या धर्म न किजीइ, मिथ्यामति म म राख्य । मीथ्याधर्म करतडां, जीव भमइ भव लाख्य ॥८॥ ढाल २१ ( २० ) । चोपई ॥
कुडो धर्म म कर कोय, कुडो कीधि स्यु फल हुय । पांच मीथ्यात परहर्यु सही, समकीत सुधुं रहइ यु ग्रही ||९||
अभीग्रहीता पहइलु मीथ्यात, अनभीग्रहीता जग वीख्यात । अभीनवेस त्रीजुं पणि जांण्य, संसईक चोथुं मनि तु मणि ॥१०॥
अणाभोग कहिइ पांचमुं, मीथ्या ाली जिनवर नमुं । भवअर्ण म्हां जिन नवी भमुं, सीवमंदिरम्हां रंगिं रमु ॥ ११ ॥
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च्यार वली टालुं मीथ्यात, तेहनो तुझ भाषु अवदात । ते तुं श्रवणे सूणजे वात, जिम नाहासइ पूर्वनां पांत ॥१२॥ लोकीक गुरु निं लोकीक देव, मांनी निं नव्य कीजइ सेव । श्रीदेव गुरु लोकोतर कहीइ, मांनी ईछी(?) तीहा नवि जईइ ॥१३।। ए च्यारे मीथ्यात ज होय, मीथ्याधर्म म करयु कोय । मीथ्याधर्म करंतां वली, पूण्य सकल जाइ परजली ॥१४॥ गलीइं धोयु जिम कागडो, किम ऊजल होसइ बापडो । तिम जिउं मीथ्या करतो धर्म, कहइ किम धोसइ आठइ कर्म ॥१५॥ मीथ्याधर्म करइ जे जाण्य, ते नर भमसइ च्यारे खांण्य । मीथ्याधर्म तु स्याहानि करइ, जईन धर्म विन को नवि तरइ ॥१६॥
तरइ नही नर जाणजे, करतो मीथ्याधर्म । तीहा आगार ज मोकला, सूणजे तेहनो मर्म ॥१७॥
ढाल २२ (२१) चोपई ॥ छइ छीडीनी जइणा कहुं, रायाभीओगेणुं पणि लहु । गु(ग)णाभिओगेणुं आगार, बलाभीओगेणु ते सार ॥१८॥ देवीआभीओगेणुं जेह, गुरुनीगिहेणुं कहीइ तेह । वतीकंता छठी ते सार, च्यार वली कहीइ आगार ॥१९॥ अनथणाभोगेणुं मांन्य, सहइसागारेणुं सूणि कान्य । मोहोतरागारेणुं दाखीइ, वतीआगारेणुं भाखीइ ॥२०॥ ए च्यारइ भाख्या आगार, शाहास्त्रमाहिं छइ घणो विचार । समझइ ते नर पंडीत कह्यु, नवि समझइ ते मुरिख लघु ॥२१॥
कवीत ॥ प्रथम मुरिख मंडी दोय वची मथो घलइ, मुरिख सोय परमाण, पंथि एकलो चलइ ।
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मुरिख मांने सोय वण हवकार्यु बोलइ मूरिखमांहिं मुढ एब आपणी खोलइ ॥ मूरिखमंडण मांनीइ उंघइ कुपि-कंठि ऊभो रही । कवी ऋषभ एणि परि ऊचरइ अकल इतानी गई ॥२२॥
दहा० ॥ अकल भली जगि तेहनी, करता पूण्य वीचार । नित्यकर्णी नीशचइ करइ, ऊतमनो आचार ॥२३॥
ढाल २३ (२२) चोपई ॥ प्रहि ऊठी पडीकमणुं करइ, अरीहंतनांम रीदइम्हा धरइ । छइ आवशग नीत्य सही साचवइ, प्रेम करी जिनशासन स्तवइ ॥२४॥ सामाईक निं जे वांदणुं, देई पातिग धोईइ आपणु । काओस्छर्ग चोवीसहथो जेह, पडीकमणुं पछखांणइ तेह ॥२५॥ ए षट् आवशग केरां नाम, मंन स्युधि कीजइ अभीरांम । तो घट आतम नीरमल थाय, पूर्व पाप ते सघलां जाय ॥२६।। दिन परति सही दो पचखांण, नोकारसी जावोजीव प्रमाण । संझ्यासमइ करवो चोवीहार, नीशाशमइ नवी लेवो आहार ॥२७॥ रात्रीभोजन किहा नवि कह्यु, वेद-पुराणिं किहां नवी लऔं । आगम गीता जोयु जई, नीशभोजन तिहा वायु सही ॥२८॥ माहारकंड रष्य मुख्यथी सुण्डे, रांतिं जल पीवं अवगुण्यु । रातिआ युध किहां नवी होय, नीशाशमइ नवि नाहइ कोय ॥२९॥ देवपूजा राति पणि नही, दान पूण्य पणि वायु तही । सूरय साख्य विनां नही पूण्य, मन व्यहुणी जिम क्यरीआ सुन्य ॥३०॥ नीशाशमइ जिम ए नवी भजो, तिम भोजन जांणीनिं तजो । ऊग्यामाहां भोजन एक वार, ग्रीहीधर्मनो ए आचार ॥३१॥ .
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राजवईद मुख्य एहेवु कहइ, नीशभोजनथी बहु दूख लहइ । ऊदरिंकीडी जो पणि जाय, आ भव परभव मूर्यख थाय ||३२||
ऊदरिं जुअतणो संयोग, तोह जलंधर वाधइ रोग । करोलिआथी वली कोढी थाय, वईदकशाहास िए कहइवाय ॥३३॥ माखी विमन करावइ नेठि, परवेदन ऊपजावइ पेटि ।
माटि तु आप विचार्य, सात ठामि जल पीवु वार्य ||३४|| नर्णइ कोठइ नीर न पीइ, सिर नाही मुख्य जल नवि दीइ । भोजन अंतिं नीर नीवार्य, नीशाशमइ जल पीवुं वार्य ॥३५॥
भोग भजी जल पीवुं नही, ऊभा रही नवी बोल्यु कही । अर्णभोमि जई जल पीइं, अंगि रोग घणा ते लीइ ||३६||
राति जल पीधि बइ दोष, एक रोगी निं पातीग पोष । अनेक दोष दीसइ वली यांहि, पडइ पतंगी दीवामांहि ॥३७॥
अनेक जीवनी हंशा थाय, नीशभोजन पातिग कहइवाय । जंत न दीसइ द्रीष्टिं कोय, जीव भखंतां पातिग होय ॥ ३८ ॥ ते माटइ करवो चोवीहार, अगड आखडी ते जगी सार । अवरती ना रहीइ कदा, जिनवर भगति करीजइ सदा ॥ ३९ ॥ श्रीजिनप्रतिमा आगलि रही, दिन पर्ति नीत्य जोहारो सही । चईतवंदण ते हरखिं करो, प्रमाद पहइलो ती परीहरो ॥४०॥
साध चारत्रीआ वांदो सदा, वांद्या व्यणइ नवि रहीइ कदा | गुण सताविस जेहनिं पाश, ते मुनीवर वंदो ओहोला ॥ ४१ ॥
नित सुणी गुरुनुं वाख्यांन, भोजनवेलां दीज दांन । पूण्यतणि नित्य कर्णी करो, दूर्गति पडता जीव ऊधरो ॥४२॥
नवपद आदि देई सझाय, पूण्य करंतां सुखीओ थाय । श्रीदेवगुरुना जे गुण गाय, ते नर वइहइलो मुगति जाय ||४३||
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सतर भेद पूजा कीजीइ, जनमतणो लाहो लीजीइ । सनाथ स्वामी आगलि करो, क्रपणपणुं ते सही परीहरो ॥४४॥
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नागकेत जिम पूजा करी, केवल - कमला स्त्री तेणइ वरी । भवसमुद्री जीव ऊद्धरी, ते नर वसीओ जिहां सिद्धपुरी ॥ ४५ ॥
घ्यर्त द्धुप आखे ते आण्य, केसर चंदन अगर सुजांण्य । वालाकुची वस्त्र नीवेद, जिनवर आगलि भावभेद ||४६ ||
न्यान लखावो न्यांनी कहइ, न्यान थकी जिनशासन रहइ | न्यान थकी बुझइ नरनार्य, न्यांन वडु एणइ संसार्य ॥४७॥
पूसतग दीपक सरीखां दोय, एह थकी अजुआलुं होय । सकल वस्त देखाडी दीइ, विष छंडी नर अमृत पीइ ॥ ४८ ॥
ते माटि ए पुस्तग सार, पंचम आरइ ए आधार । भणइ गुणइ लखावइ जेह, अनंतसुख नर पामि तेह ||४९ ॥
जीव बंधनथी मुकावीइ, तो शंकटम्हा नवि आवीइ । भुख्यांनिं भोजन दीजीइ, अनुकंपा सहु परि कीजइ ॥५०॥
सकल जीव परि हीत चीतवो, दूर्गति पडता नर बुझवो । काम क्रोध मोहो माया तजो, मुको मांन जिनशासन भजो ॥५१॥
साति षेत्र पोषीजइ सही, जिनमंदीर जिनप्रतिमा कही । पूसतग न्यांन लखावो जांण, अरहंत देवनी मांनो आंण ॥५२॥
साध साधवी श्रावक जेह, श्रावि भगति करीजइ तेह | सातइ क्षेत्र ए सोहामणां, अहीं खरच्या ते द्धन आपणां ॥५३॥
संचि ते नर दूखीओ थाय, खरच्यु ते धन केडिं जाय । क्यरपीनिं मन्य ए न सोहाय, वचन रूपीआ वाजइ घाय ॥ ५४ ॥
भूमि रह्यां द्धन वणसी जाय, परघरि मुक्या परनां थाय । हरइ चोर निं राजा लीइ, वशवांनर परजाली दीइ ॥५५॥
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धन हारइ नर बहु जुवटइ, पूण्य विनां व्यापारिं घटइ । जलि बुडइ कुवस्यने जाय, पूण्यकाजि विमासण थाय ॥५६।।
दूहा० ॥ क्यरपी तो द्धन संचीइ, जो कलि मर्ण न होय । ल्यख्यमी बांधी पोटले, सर्दी न पोहोता कोय ॥५७॥ क्यरपी कहइ कवी संभलो, तो दीधि स्यु थाय । दाता आपइ अतीघj, ते धन केम्व न जाय ॥५८॥ दान सुपत जेणइ दीओ, कीओ सु परउपगार । ते साथिं धन पोटलां, साथि गया नीरधार ॥५९।। ल्यख्यमी मंदिरमाहां छतां, मागण गया नीरास । तेहनी जनुनी भारि मुई, ऊदरी वा दस मास ॥६०॥
गाहा० ॥ दानेन फलंत कलपदुमा, दांनेन फलंत सोभागं । दानेन फरंत किर्तिकाम्यनी, दांनेन होअंत नीरमला दीहा ॥६१।।
__ढाल २४ । (२३) ॥ देसी० आवि आवि ऋषभनो पूत्र तो० ॥ राग-ध्यन्यासी ॥ दांनि नवनीध्य पांमीइ ए, राजरीध्य सुखभोग, ए दांन वखाणीइ ए । दांनि रूप सोहांमणु ए, दांनि सकल संयोग, ए दान वखाणीइ ए ॥६२।।
आंचली० ॥ दांनि महइला अतिभलि ए, दांनि बंधर जोड्य, ए० । दांनि ऊतम कुल भलु ए, कुटंबतणी कई कोड्य ॥६३॥ ए दान० ॥ दांनि भोजन अतिभलु ए, सालि दालि घ्रत घोल, ए० । वस्त्र विविध्य वली भातनां ए, मनवांछीत तंबोल ॥६४॥ ए दान० ॥ दांनि रंजइ देवता ए दानि सुरतरु बार्य, ए० । दानि अति पूजा पांमिइ ए, दांन वडु संसार्य ॥६५॥ ए दान० ॥
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दांनिं हिंवर हाथीआ ए, सेवइ सुभटनी कोड्य ए० । ओटइ अलग कई करइ ए, ऊभा बइ करजोय ||६६|| ए दान० ॥
दांनी वखाणुं शंगमो ए, खीर खांड घ्रत जोय ए० । सालिभद्रपणि ऊपनो ए, नरभवि सूरसूख होय ||६७|| ए दान० ॥
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वनमां मुनी प्रतलाभीओ ए, सो दांनी नहइसार, ए० । ते नर संपति पामीओ ए, तीथंकर अवतार || ६८ || ए दांन० ॥
अभइदांन सुपात्रथी ए, नीस [च] इ मोक्ष वहंत, ए० । अच्युत अनुकंपा कीर्तथी ए, जिन कहइ भोग लहंत ॥६९॥ ए दान० ॥ अनंत तीर्थंकर जे हवा ए, तेणइ मुख्य भाष्यु दांन ए० । जेणइ धरमिं दांन वारीउं ए, तिहा नही तेज नई वान ॥ ७० ॥ ए दान० ॥
दूहा० ॥
दांन सील तप भावना, भेद भला वली च्यार । समकीत स्यु आराधीइ, तो लहीइ भवपार ॥ ७१ ॥
ढाल २५ (२४) चोपई० ॥
जिम समता विन तप ते छाहार, तीम समकीत विण धर्म असार । घ्यरत - व्यहुणो लाडुं जस्यु, वेणि व्यनां शणगार ज कस्यु ||७२||
काजल - व्यहुणी आंख्यु कसी, तुब-व्यहुणी वेणा जसी । पूरषातम (तन) व्यण पूरष ज जस्यु, स्यमकीत - व्यहुणो धर्म ज अस्यु ॥७३॥ जनधर्मनिं समकीत साथि, पोत भलइ जिम नांना भाति । रूप भलु निं वचन वीसाल, गलइ गांन निं हाथे ताल ॥७४॥
कनककलस नि अमृत भर्यु, आगइ शंष अनि पाखर्यु । दूध कचोलइ साकर पडी, समकीत सुधइ जे आषडी ॥७५॥
ए समकितनुं एहेवुं जोर, जेहथी नावइ मीथ्या चोर । ष्यायक शमकीतनो जे धणी, तेणइ दूरगति नारी अवगणी ॥ ७६ ॥
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ष्यायक समकीत पांमइ तेह, सात बोल षइ घालइ जेह । क्रोध मांन माया नि लोभ, पहइलुं एहनो किजइ खोभ ॥७७॥
अनंतांनबंधीआ ए च्यार, त्रणि बोलनो कहु वीचार | समकीतमोहनी पहइली कहुं, मीथ्यातमोहनी बीजी लहु ॥७८॥ मीष्ट (श्र) मोहनी जे नर तजइ, ष्यायक समकीत सो पणि भजइ । सुत्र सीधांत तणी ए वात, साचा बोल कहु ए सात ॥७९॥ वली समकीतनी सुणजे वात, मीथ्याधर्म न कीजइ भ्रात । अतीदोहोलि आव्युं छइ एह, सुणजे बोल कहु छु तेह ||८०|| ढाल २६ । ( २५ ) ॥
देसी० सासो कीधो सांमलीआ० ॥ राग- गोडी ॥
एम काया वली कहइ कंतनि, जीव कहु तुझ वात । समकीत दूलहु तु अती पांम्युं, सुणि तेहनो अवदात ॥८१॥
काल अनंतो गयु नीगोदिं, नीसरवा नही लाग । अकामनीर्जरांइं तुझ काढ्युं, करमिं दीधो भाग ॥८२॥
बादर नीगोदमांहि तु आव्यु, कंदमुलम्हा वास । छेदन भेदन तिहा दूख पाम्यु, कहइ कोहोनी तीहा आस ||८३||
परतेग वनसपतीम्हा आव्यु, तीहा पणि अंद्री एक । पणि दूख भोगवतां तु पांम्यु, अंद्री दोय वसेक ॥८४॥
अंद्री चोरंद्री मांह, तिं खपीआ बहु कर्म । पंच्यं तु थयु सुम्हां मानव व्यन नही धर्म ॥८५॥
दूहा० ॥ मानव भव तु पामीओ, तेहमां घणो वीचार | अर्य देस, कुल,गुरु व्यनां, कहइ किस पांमीश पार ॥८६॥
अंद्री पांच व्यनां वली, किम साधइ जिन धर्म । सधइणां व्यन नवी तरइ, सुणयु तेहनो मर्म ॥८७॥
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ढाल २७ (२६) देसी० चंदांण्यनी० ॥ भव मानव लहिं स्यू करीइ, देस अनार्य जो अवतरीइ । आर्य देस लहिं म म हरखो, नीचकुंल इस्युभ ते परीखो ॥८८॥ ऊतमकुलनो पाम्यो योगो, दूलहो अंद्री धन संयोगो । अंद्री भोग लहई स्यु हरीखो, गुरु न मल्यु जो गऊतम सरीखो ॥८९|| कुगुरु मल्यु तस कुगतिं पाड्यु, भवअर्णम्हां सोय भमाड्यु । भमतां भमतां करमिं काढ्यु, जिविं सुगरू सही भेटाड्यु ॥९०॥ सुगर वयण सुणवा नवी आवइ, आवइ तो कांई चीत न भावइ । भावइ तो तुझ समकीत थावइ, वहइलु मुगतिं ते नर जावइ ॥११॥ एम समकीत पाम्यु अती दोहोल्युं, जेणइ आविं अती थाइ सोहोल्यु । सो समकीत कां हारो भाई, सुगरु सीख दीइ हीतदाई ॥९२।। नवनीधि चऊदरयण हइ हाथी, मणि मुगताफल महइला माति । सूर पदवी लहइ तां नही वारो, समकीत दूलहु सही नीरधारो ||९३।। तेणइ कार्ण्य राखो मन ठाम्यु, म चलु देव अवरनि ताम्यु । जिन विन को नवी आवइ काम्यु, समकीतथी रहीइ सीवगांम्यु ॥९४।।
दूहा० ॥ सीवमंदिरम्हां सो वशा, जस समकीत थीर होय । समकीत वीण नरको वली, मोक्ष न पोहोतो कोय ॥९५।।
___ढाल २८ (२७) चोपई० ॥ पाच अतीचार समकीततणा, तेना दोष बोल्या छइ घंणा । सुत्र सीधांतिं ते टालीइ, जिनआज्ञा सुधी पालीइ ॥९॥ शंका वीरवचन-संधेह, नीसंकपणुं नवी आंण्डे देह । पहइलो अतीचार कहीइ एह, मीछादूकड दीजइ तेह ॥९७|| अनंतबल कहीइ अरीहंत, सकल गुणे भजतो भगवंत । वली अतिसहि कहीइ चोतीस, वांणी गुंण भाख्या पातीस ॥९८॥
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ज्ञान अनंत तणो जिन धणी, समोवसरणि ठुकराई घणी । चामर छत्र सीघासण सोहि, जस रिधि पार न पांमइ कोय ॥९९।। ते जिनवर मुख्य वांणी कही, शास्वती जिनप्रतिमा सही । सर्ग-नर्ग निं मोक्ष ते छती, अस्यु वचन भाषइ माहामती ॥३००॥ एह वचन जेणइं नवी सदा, मुढमती तेणइ कांई नवि लद्यु । नीसचइ समकीत तेहD गयुं, मीछादुकड दइ तो रह्यं ॥१॥ जिनथी जे ऊफराटा थयां, सो नर केता नरगिं गया । कुमततणइ जे रोगि ग्रह्या, पाप पूर्मी ते नर वह्यां ॥२॥ जांणीनई ऊथापइ जेह, अनंत दूख नर पांमइ तेह । भोगवतां नवि आवइ छेह, सुख किम पांमइ तेहनी देह ॥३॥ एक दरसणम्हां पाड्यु भेद, तेणइ ऊथाप्या जिनना वेद । विरवचन हईइ नवि धर्यु, समकीत बाली ल्याहालो कर्यु ॥४॥ जिनवयणांनि करइ असार, आप वचन थापइ नीरधार । मति मती दीसइ ए आचार, कहो पथी (छी?) किम पांमइ पार ।।५।। एक जिनप्रतिमा साथि द्वेष, मुनीवरना ऊथाप्या वेष । योग ऊपधांन नषेधइ माल, पडइ नीगोदि अनंतो काल ॥६॥ राजप्रष्णी ते न जुइ सुत्र, तो ताहारु किम रहइ घरसुत्र । सुरीआभ देवि पूजा करी, कोण कार्ण कहइ ति परहरी ॥७॥ द्रुपदीनो वली जो अदीकार, छठि अंगि सोय वीचार । नमोथणुं जिनभुवनि कह्यु, कुमत रोगीइ नवी सदयं ॥८॥ सुत्र सीधांत पेखो भगवती, जंघा-विद्या चार्ण यती । नंदिस्वर मेर परबति जाय, जिनप्रतिमाना वंदइ पाय ॥९॥ वंदी पाय नि पाछा फरइ, अही जिनप्रतिमा वंदन करइ । ए अष्यर मांनि ते सुखी, नवी मांनी ते थासइ दूखी ॥१०॥
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जिनप्रतिमा जिनसी कही, सुत्र ऊवाई नर्षो सही । अंबडनो वली जो अधीकार, अनि देव गुरु नही नीरधार ॥११॥ पंचम अंगि ए अधीकार, वणि सर्ण माहिल्यु एक सार ||
अरीहंत चईत साधनुं सर्ण, करिं न लहइ चमरेदो मर्ण ॥१२॥ तव तस मतनो बोल्यु मर्म, दया विनां नवी दीसइ धर्म । जिन पूजंतां हंशा होय, पापि मोक्ष न पोहोता कोय ॥१३॥ सुविहित कहि मति ताहारी गई, नदी ऊतरवि जिनवरि कही । कुंण काणि कहइ ति सदही, बोली दया ताहारी किम रही ॥१४॥ मोहोपोत पडीलेहइ जेह, जीव असंख्या हणतो तेह । तोहइ भलो जिन भाषइ तास, वण पडिलेहेणि दूरगति वास ॥१५॥ एक घरि बइठो वंदन करइ, एक गुरुनि साहामो संचरइ । अदिक लाभ तु तेहनि कहइ, दया धर्म ताहारो किम रहइ ॥१६॥ युगल पूर्षनुं सर्ख मन, एक उंहुनु एक ताढु अन । मुनीवरनि वइहइरावइ दोय, कहइ फल अदीकुं कहिनि होय ॥१७॥ जो फल होयि सीतल धणी, तो पूजा सही मिं अवगुणी । उष्ण आहार दीधई फल होय, तो प्रतिमा मांनो सहु कोय ॥१८॥ ऊहुंना आहारतणो अवदात, नर शंगमनि सूणजे वात । चीत वीत नि म्यलीउं पात्र, सालिभद्र सकोमल गात्र ॥१९॥ कोएक जंत जलमांहि पड्यु, माहापूर्षनी द्रीष्टि चढ्यु । कइ काढइ के मरवा दीइ, वेगो बोली विमासी हईइ ॥२०॥ जलि बुडंतो काढइ जेह, जिव अशंख्या हणतो तेह । तोहइ ते पणिं कुर्णावंत, अस्यु वचन भाषइ भगवंत ॥२१॥ अणगल पांणी जे नर पीइ, कुगतिपंथ ते नीसइ लीइ । गलतां गलनु भीजइ जसि, जिव असंख्या वणसइ तसिं ॥२२॥
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जीवदया कहइ किम पालीइ, अदिक आग्यना नर न्याहालिइ । जिनवचने तो पुजा थाय, मांनी आग्यना तेह दयाय ॥२३॥ तव तस मतनो बोल्यु खेव, एह अचेतन दीसइ देव । ए मुझनि स्यु करसि सूखी, देव खरो जे चेतनमुखी ॥२४॥ एने कनहइ(कहइ) चालइ सीधांति. कुमतिं तुझ कीधी छड् भ्रांति । समझीनिं करजे एकाति, अचेतन बइसइ ऊंची पांति ॥२५॥ कंदमुल करि मुद्रा झालि, वस्त वोहोरेवा चहुटि चालि । बेहु पदार्थ तेहनि आलि, नाग नगोदर मागे झालि ॥२६॥ ए मुद्राना महीमा थकी, मांग्यु आपइ थईइ सुखी । कंदमुलथी लहीइ गालि, कडको मारइ तेह कपालि ॥२७॥ दसविकालिकमांहां जे कां, मुर्यख सोय वचन नवि लऔं । चीत्रपूतली भीति जेह, माहामुनी नवि नरखइ तेह ॥२८॥ तेणइ नरखि जो होइ पाप, तो प्रतिमा पेखि पूण्य व्याप । ए द्रीष्टांत हईइ धारजे, जिन पूजि आतम तारजे ॥२९॥ थोडामांहि समझे घj, वारवार तुझ स्यु अवगणुं । दयामुल आज्ञाई धर्म, जिनशासनमां एह ज मर्म ॥३०॥
दूहा० ॥ मर्म न स[म]झइ बापडा, करता मिथ्यावाद । कुमतविर्षि जे धारीआ, स्यु कीजइ तस साद ॥३१॥ एक जिनप्रतिमा छंडता, एक मुकइ मुनीराय । एक नर वास ऊथापता, समोवसर्ण न सोहाय ॥३२॥ गुरु विन ज्ञान न ऊपजइ, भाव विन भगति न होय । नीर विनां किम नीपजइ, रीदइ वीचारी जोय ॥३३॥
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ढाल २९ । ( २८ ) ॥
देसी०
गुरुविरही मन लागीओ, ते किम पांमइ पार रे । थीवर यतीयन कलपनो, कीधो एक आचार रे ||३४|| गुरु विरही मन लागीओ । आचली० ॥
I
राग - साग ॥
अवगुण आप न आखता, देखइ मुन्यना दोष रे । कुमति पड्या नर बापडा, करता पातिग पोष रे ||३५|| गुरु० ॥
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पंचनीग्रंथिं एम कह्यु, श्रीभगवती निं ठांणांग रे । संयम षटथानिक थउं, समझो सहु मनि रंग रे ||३६|| गुरु० ॥
अनंतगुणे जे आगला, अनंतगुणे जे हीण रे ।
जिन कहइ बेहु संयमी, मुढ करइ मति खीण रे ||३७|| गुरु० ||
तव तस मतनो बोलीओ, आगइ मुनीवर सार रे
ते सरीखा हवडां नही, नही ऊतकष्टो आचार रे ||३८|| गुर० ॥
प्रथवी पांणि अग्यनम्हां, तेज घट्यु एणइ काल्य रे । तोहइ काज तेहथी सरइ, गंहुं ठामि न आवइ सालि रे ||३९|| गुरु०॥
दूपसो आचार्य लगि, शासन होसइ सार रे ।
प्रवचन विन ते नवी रहइ, तेहनो मुनी आधार रे ||४०|| गुरु ||
ढाल ३० । (२९ ) ॥
देसी० ध्यन ध्यन सेत्रुज गीरवरु० ॥
श्री अनुयुगदुआरम्हां, भाषी छइ मोंहोंपोत रे ।
कुण काणि तिं परहरी, होसइ किम अद्दु (छ्यु त रे ॥४१॥
श्री अनुयुगदूआरम्हां० । आंचली० ॥
चोथ पजुसण तई तजूउं, पांचमस्यूं बहु प्रेम रे । पडीकमणे छठ आवता, कहइ किंम होसइ खेम रे || ४२ || श्री अनूऊ० ॥
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अनुसंधान-१९
चऊदश पाखी परहरी, पून्यमस्यु बहु रंग रे ।। कुमति पड्या नर केटला, नवि पेखइ श्रीसुगडांग रे ॥४३|| श्रीअनु०॥ चऊदश पाखी चीतवो, पेखो पाखीसुत्र रे ।। कलपसुत्रम्हां एहनो, आप्यु छइ तुझ ऊत्र रे ॥४४॥ श्रीअ०॥ अदिकमास नवी मांनीइ, मल महीनो तस नाम रे । बंबपत्रीष्ठा मुनीतणां, दिन दूजइ होइ काम रे ॥४५॥ श्री०॥ वलतो वादी बोलीओ, एणइ मास अछइ पूण्य पाप रे । सकल काज नर कोजीइ, करो मुरिख कां उथाप रे ॥४६॥ श्री०। सुविहीत कहइ तुं साभले, म करीश आप संताप रे । नीतकर्णी तो कीजीइ, दांन सील तप आप रे ॥४७॥ श्री अनु० ॥ पूर्ष नपुसक तेहथी, चालइ घरनुं सुत्र रे । सकल काज नर ते करइ, कहइ किम होसइ पूत्र रे ॥४८॥ श्री०॥ श्रावण चोमासु तु करइ, आलुइ चोमास रे । एक मास तुझ किहा गयु, बोले जो मति खास रे ॥४९॥ श्री०॥ [चोथि पजुसण तिं तज्यु, पांचम्यस्यु बहु प्रेम रे । पडीकमणइ छठि आवतां, कहइ किम होसइ खेम रे ॥ श्री०॥] पंचकल्याणिक वीरना, म धरो मनि संधेह रे । मुढ मतिं षट थापता, कुपि पडइ नर तेह रे ॥५०॥ श्री०॥ सुधु शमकीत राखीइ, जिनवचनां परिमांण रे ।। श्रेणिकराय संभारीइ, सिर वही जिनवर आणि रे ॥५१॥ श्री०॥
दहा० ॥ शंकाशल नवि राखीइ, राखि बहु दूख होय । आकंखा मनि आंणसइ, मुढमति-गि-य(?) ॥५२॥
१. आ कडी कर्ताए ज बे वार लखी छे. तेथी अहीं यथावत् राखी छे.
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ढाल ३१ । ( ३० )
॥
देसी० काज सीधां सकल हवइ सार ॥ राग - शामेरी ॥ आकंखा जे मनी आणइ अनि दरसण सोय वखाणइ । जिनवचनां नि नवि जांणइ, विषधर मंदि[र] म्हां आणइ ॥५३॥
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भ्रह्मा विस्ण महेश वीशाल, खेतल गोगो निं आसपाल । पात्रदेव्या निं गोत्रदीवी, फल एक न आपि सेवी ॥५४॥
रोग कष्ट थकी म म कंपो, उमया मुख्य ईस म जंपो । नवी मांनो निं नवी पूजो, जो जिनवचनां नि बुझो ॥५५॥ बहुध, सांख्य, अनिं संन्यासी, जोगी यंगम निं मठवासी । जे शईव त्रडंड वेस, अंद्रजालीआ निं दरवेस ॥५६॥
एहनुं कष्ट घणेरुं जांणि, मनमाहि सधइणा आंणी । वली त्याहां तुझ मति पस्ताणी, दीजइ मीछादूकड जांणी ॥५७॥ एहेनुं शाहास्त्र सुणीअ वखांण्यु, सुधु मन साथि जा । कीधु मीथ्यातीनु कर्ण, तेणइ दूर्गति नारी परणी ॥५८॥
तेइ सुधगति नारी ठेली, जेणइ जईन तणी मति मेहेली । स्युभ क्यरणि ते तस खेली, करमिं मत्य कीधी मइली ॥५९॥
घरबारि कुआनिं नीरिं, सायर जल नदीअनिं तीरिं । द्रहइ वाव्य सरोवर कंठि, पूण्य हेति सीस म छ ( छं ?) टि ॥६०॥
एम भव्य भव्य भमतां भंगि, आकंखा आणी अंगि । दिओ मीछादूकड रंगिं, देव गुरु जिन प्रतिमा संग ॥ ६१ ॥
ढाल ३२ (३१) चोपई ॥ परजीओ राग ॥ वतीगंछा ते त्रीजो सही, धर्मतणां फल होइ के नही । एहेवी मत्य जस आवी सही, स्युभकर्णी तस चाली वही ॥६२॥
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त्रीभोवननायक वीस्वप्रकार, मोक्षमारगनो जे दातार । अस्या गुण जांणी भगवंत, जेणइ नवि पूया ए अरहंत ||६३ || इहलोक परलोक भणी, कां तु ध्याइ त्रीभोवनधंणी । कष्टं को नर पाम्यु खोभ, जिनवरनि देखाडइ लोभ ॥६४॥
याग भोगमांनि निं जाय, जिनवरनिं जई लागइ पाय । वतीगंछा तु पणि जांण्य, अंगि अतिचार नर म म आण्य ॥६५॥ ढाल ३३ । ( ३२ ) ॥
देसी० से सुत त्रीशलादेवी सतीनो ॥
वस्त्र मलण मल मुनीवर देखी, जेणइ मुक्यु जिनधर्म ऊवेखी तेणइ कार्ण्य तेणइ दूरगति लेखी, ते नर मुढमतीअ वसेषी ||६६ ||
एणइ जगी शंघ चतुरविधी मोटो, जाणे कनकतणो वली लोटो | नंद्या तास करइ ते खोटो, लोधी (धो) पापतणो शरि सोटो ॥६७॥
साधतणी जेणइ नंद्या कीधी, सुधगति छंडी दूरगति लोधी । विषह कोचोली वेगिं पीधी, मुगतीपोलि तेणइ भोगल दीधी ||६८ ||
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साधर्मीको अवगुण लीधो, मीछादूकड ते नवि दीधो । तो तुझ काज एकु नवि सीधो, मुगति कोट नवि जाइ लीधो ॥६९॥
नंद्या म करो को वली कहइनी, नंद्या कीजइ आतम - देहेनी । असीअ प्रगति होसइ जगि जेहेनी, गति ऊची होइ पणी तेहेनी ॥७०॥
कर्म दूगंछा म करो कोई, हरिकेसी रषि तु पणि जोई । भव ऊत्तमनो ते पणि खोई, कुल चांडाल तणइ मुनी सोई ॥७१॥
कर्म दूगंछ कर्या व्यन सारो, राय पूण्याढ्यचरित्र संभारो । आतमसीख देई एम वारो, त्रवधि नंद्या सोय नीवारो ॥७२॥
एम भव भमता पातिग अंगिं, मीछादूकड छु जिनसंगिं । पाप पखालु आतमरंगिं, जिम जगि थायु सीध अलंगि ॥७३॥
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ढाल ३४ । (३३)॥
देसी० देखो सुहणां पूण्य वीचारी ।श्रीराग । मीथ्यास्तुति म म करेअ लगारो, जे जगि धर्म असारो । कुडो श्रेअ प्रसंसइ जे नर, ते किम पामइ पारो, पंडीत करोअ वीचारो ॥७४॥
मीथ्यास्तुति म म करोअ लगारो |आचली० ॥ वीषधर कोय वखाणी वदने, आप उंगलि घालइ । सो मुर्यख ष्यण्यमांहिं भाई, जममंदिर जई माहालइ, बहु भव पातिग चालइ
॥७५॥ मीथ्या० ॥ कनक कंडीइ जिम के(को) वीछी, ग्रही नीजमंदीर आणइ । सोय सरीखो ते नर पभणो, जे मीथ्यात वखांणइ, ते नर कांई नवी जांणइ
॥७६|| मीथ्या० ॥ स्तुति कीजइ तो जईन धर्मनी, जिम आतमदूख जाइ । खिणम्हां अष्टकर्म खइ करतो, सो नर सूखीओ थाई, सकल लोकगुण गाइ
॥७७॥ मीथ्या० ॥ चऊद-राजमांहई भवि भमतां, पातिग लागु जेहो । मिथ्याधर्म प्रसंस्यु जेमई, मिछादूकड तेहो, जिम होइ नीर्मल देहो ॥७८॥
मीथ्या० ॥ ढाल ३५ (३४) चोपई ॥ मीथ्यातीस्यु परीचइ जेह, जो जांणो तो टालु तेह । मेश ओरडी माहिं पइसतां, किम ऊजल रहीइ बइसतां ॥७९।। तिम मीथ्यानो करतां शंग, किम रहइ आतम ऊजलरंग । आतम-जल बइ सरीखां होय, नीचसंगतिं वणसइ दोय ॥८०॥ वली द्रीष्टांत कहु ते सुणो, नीचशंग तुम्यु सही अवगुणो । आगइ नर नारी सूर जेह, संगतिथी दूख पांम्या तेह ॥८१॥ वांसिं संगति गांठा तणी, तो फाडी कीधो रे वणी । नदीशंग तरुअर जे रह्या, सोय समुलां केतां गयां ॥८२।।
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हंस कागनि संगिं गयो, मर्ण लडं निं गंजण थयु । शंखि संगति जोगी तणी, घरि घरि भीख मगावी घणी ॥८३।। अशतिशंग करो कुतार, तेहना प्रांण गआ नीर्धार । 'मुज' सरीखो राजा जेह, दासीथी दूख पांम्यु तेह ॥८४॥ वलि संगतिनो जोय विचार, ए तुंबडिइं तुबां च्यार । एक जई मुनीवरनि कर्य चड्यु, पात्र नाम जगि तेह- पा(प)ड्यु ॥८५॥ बीजु तुब कहीजइ जेह, नदी संगि रघु वली तेह । तुबाजाली जगम्हां सार, जग ऊतारइ पेलो पार ॥८६॥ त्रीजा तुबतणुं फल जेह, कलावंत कर्य चढीउं तेह । वेणो-जंत्र कर्यु तव सार, सुर सूणतां रंजइ कीर्तार ॥८७|| चोथी जे हुती तुबडी, सोय घांइंजानि करि चडी । ते कापी कीधी रुबडी, रगत पीइ कुसंगति पडी ॥८८॥ श्रेणीकरायनो हाथी जेह, अती दूरदात कहीजइ तेह । जो मुनीवरनि संगिं मल्यु, तो तस मांन-कषाइ गल्यु ॥८९|| सांति दांत हुओ सुकमाल, जेहवो वछ सकोमल बाल । गढ मंदिर नवि भेलइ गांम, न करइ राय तणुं ते काम ॥९०॥ राय-मंत्रीइं कर्यु वीचार, बंध्यु जिहा पापी, बार । 'मारि मारि' मुष्य एहेवू सुणइ, रीव करंतां पसुआं हणइ ॥११॥ रगत मंश देखी गजराय, दृष्ट हईउं तव गंहिंवर थाय । पंडीत रीदइ वीचारी जोय, नीच शंग म म करयु कोय ॥९२॥ पूफशंग सुतर तांतणइ, राजा कंठि ठव्यु आपणइ । त्रांबइ संगति सोनातणी, क़रतां कीरति वाधी घणी ॥९३॥ खालनीर गंगाम्हां गयां, ते जल गंगासरीखां थयां । चंदन जमला जे विष रह्या, ते सघला पणि सुकडी लह्यां ॥१४॥
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सापिं समर्यु ईस्वर देव, तो कंठि घाल्या ततखेव । राय वभीषण संगति राम, लंकापति दीधुं तस नाम ॥१५॥ ए संगतिना सुणि द्रीष्टांत, मीथ्याशंग तंजो एकात । कही भवि भमतां परीचो जेह, मीछादूकड दीजइ तेह ॥९६॥
दहा० ॥ एम अतीचार टालीइ, समकीत राखे सार । सूधो श्रावक ते कहुं, जे पालइ व्रत बार ॥९७॥
ढाल ३६ । (३५) ॥
देसी० प्रणमी तुम सीमंधरुजी० ।। पहइलुं व्रत इम पालीइजी, त्रसनो न कीजइ रे घात । आरंभिं जइणा कही जी, एम बोल्या यगनाथ ॥ सुणो नर, धर्म दयाइं रे होय, दया विना नर को वलीजी । मोक्ष न पोहोतो कोय, सुणो नर, धर्म दयाई रे होय ॥आंचली० ॥९८॥ कर्म वालादीक कीडलाजी, काया जीव अनेक । अनुकंपाइं काढताजी, दोष न लागइ रेख ॥९९॥ सुणो नर०॥ मुढपणुं ते परीहरो जी, राखो जीव एकाति । मानवपणुं छइ दोहेलुंजी, लहीइ दस द्रीष्टाति ॥४००|| सुणो न०॥ चक्री भोजन ते भखीजी, लखी लइ घरिघरि आहार । फरी चकवइ-अन किम लहइजी, तिम मानव अवतार ॥११॥ सुणो न० ॥ मेरसमा ढगला करीजी, अन अन माहिं रिभेलिं । वधा विणी कीम दीइजी, तिम मानवभव मेलि ॥२॥ सु० ॥ देवि पासा सोगठांजी, नरनि दीधां दोय । ते साथिं जो जीपीइ जी, तो मानवभव होय ॥३॥ सु० ॥ अठोतर सो थाभला जी, थांभइ थांभइ रे जाण्य । त्यांहां ते तेती पुतलिजी, सुदर रूप वखाण्य ॥४॥ सु०॥
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वार अठोतर सो रमइजी, जीपइ पूतली एक । अठोतरसो वारनो जी, आंक कहु तुझ छेक ॥५॥ सु०॥ बार लाख नि ऊपरिंजी, ओगणसठि हजार । सात सह्यां निं जांणजे जी, ऊपरि अदीका बार ॥६|| सु०॥ अनुवर जीपइ जुवटइजी, राज लीइ नीरधार । नवि जिपइ, जीपइ सहीजी, किहां मानव अवतार ॥७॥ सु० ॥ रयण घणा छइ सेठिनि जी, वेच्यां जुजूइ देश । ते जो मेलइ एगठां जी, तो मानवभव लहइश ॥८॥ सु० ॥ सुपन एक नर दोयनि जी, वदने चंद पईठ । एक रोटो एक राजीओ जी, एम जगी अंतर दीठ ॥९॥ सुणो०॥ रोटावालु चीतवइ जी, चंद लहु मुखमांहिं । नावइ, पणि आवइ सही जी, नरभव छइ कहइ क्याहि ॥१०॥ सुणो न०॥ स्वयंभुरमण जल पूरविं जी, धोंसर मुकइ रे जाय । पछिम कीली प्रठवइ जी, किम संयुगी थाय ॥११॥ सुणो०॥ पवन परेर्यां दोए जाणां जी, धोंसर कीली रे एक ।। पणि नरगति छइ वेगली जी, पांमइ पूण्य वसेक ॥१२॥ सुणो० ॥ कुपि रहइ एक काचबो जी, सात पडो रे सेवाल । कुरमिं दीठो चंदलो जी, फरी जोतां विशराल ॥१३॥ सु०।। थांभा ऊपरी आंणीइ जी, च्यंतो चक्र वशेक ।। अवलुं सवलं ते फरइ जी, अछइ पूतलि एक ॥१४॥ सु०॥ जलकुंडी जोवा लुलइ जी, शर सांधइ नर जांण । वांम आंख्य जई पूतली जी,तीहा जई वागइ बांण ॥१५॥ सु०॥ अवनी ऊपरी नर घणा जी, कोएक पांमइ रे पार । राधावेध ते साधता जी, दूलहो नर अवतार ॥१६॥ सु०॥
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रयण घणा घ ( घं) टिं दली जी, पंच वर्णनां रे पेख्य । मेरशखरि ढगलो करइ जी, ऊडइ वायु वसेष्य ||१७|| सु०॥ दश द्रष्टातिं दोहेलो जी, मांनवनो भवं जांण्य । जीवदया ते कीजीइ जी, बोल्यु वेद पूराण्य ॥१८॥ सु० ॥
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दूहा० ॥ धर्म दया विन तु तजे, ऊठि नागरवेलि ।
भामरइ जिम चंपक तयु, पीछ तज्यां जिम ढेलि ॥१९॥ ढाल ३७ (३६) चोपई ॥
तजे नगर जिहा वइरी घणां, तजे वाद जिहा नही आपणा । तजे म्होल जे अतिजाजर, तजइ नेह विनां दीकिरा ||२०|| तजिइ रूठो राजा वली, तजिइ परगती अती आकली । तजिइ पापी केरो शंग, तजिइ जाति कुजाति तुरंग ॥२१॥ तजीइ बाओल केरी छांहिं, तजीइ वासो विषधर यांहि । तजीइ परघर केरी ताति, तजीइ भोजन भखतुं राति ||२२|| तजीइ कायर ख्यत्री जाम, न करइ ठाकुर केरुं कांम । तजिइ मंकड साथि आल, तजीइ परनिं देवी गाल ||२३||
तजीइ मोटा सांथिं जुझ, तजीइ मुरिख साथि गुंझ । तजिइ वणज मधु जे मीण, तजीइ धर्म दया जे हीण ||२४||
तजीइ चोमासइ· चालवुं, तजीइ राअंगणि माहालवुं । तजीइ साधसंघात द्वेष, तजीइ संगति नीच वसेष ||२५||
रणि- अंगणिना तजीइ ठांम, तजीइ नीर विनां आराम | तजीइ सात वसन संसारि, दूत मंश निं मदिरा वारि ||२६|| तजीइ वेशा केरुं बार, तजीइ आहेडो नीरधार । तजिइ चोरी केरो रंग, तजीइ परदारानो शंग ॥२७॥
तजिइ भोजन जिहां नही मान, तजिइ विण संयुग पांन । तजिइ कंठ विहुणुं गांन, तजीइ पाप कर्मनुं ध्यान ॥ २८ ॥
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तजीइ पातिग पूण्यनिं ठांमि, तजीइ आलस धर्मह कांमि । तजीइ स्तुति मुखी पोतातणी, तजीइ नर लंपट अवगुणी ॥ २९ ॥ तजीइ कगरू केरा पाय, तजीइ घरि मारकणी गाय । तजीइ विर्ष थयु जे खीण, तजीइ धर्म दया जे हीण ||३०||
॥
धर्म दयाइं जांणजे, जिम रंग साचो चोल ।
वली द्रीष्टांत आगलि अछइ, हित युगति कलोल ॥३१॥ ढाल ३८ । ( ३७ ) ॥
देसी० छांनो छपीनिं कंता किहा रघु रे० ॥ रागधर्म दयाइं जांणजे रे, ते नीश [च] इ नीरधार रे । जीव जतन करी राखीइ रे, तो लहीइ भवपार रे ॥
पहइलुंनिं व्रत एम पालिइ रे, जिव सकलनी सार रे । दया समो धर्म को नही रे, हंशा धर्म असार रे ||३३|| धर्म० ॥
- रामग्यरी ॥
धर्म दयाइं जांणजे रे || आंचली० ॥ ३२ ॥
हिंवरथी वछ ऊपजइ रे, ससलाथी सीही होई रे ।
जलधर विन अन नीपजइ रे, तो धर्म दया विन होय रे ||३४|| धर्म०॥ कुपरखबोलि जो थीर रहइ रे, सुपर खलोपइ लीह रे ।
या विना धर्म तो कहु रे, घास भखइ जो सीह रे ||३५|| धर्म० ॥
दूहा० ॥ धर्म दयाइं जांणजे, जिन आग्यना परमांण ।
पातिग करतां पूण्य कलइ, जोय विमासी जांण ||३६||
ढाल ३९ । ( ३८ ) ॥
देसी० एकदीन राजसुभा ठीओ० ॥ राग
वण गुणति विद्या गलइ, दूरि गयां जिम नेह ।
सील गलइ स्त्रीसंगथी रे, तपईं गलइ जिम देहो रे ||३७||
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गोडी ॥
दया चीति राखीइ । जिम परनिं ऊपगारो रे, मधुरं भाखीइ || आंचली० ॥
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दांन वलंबिं ते गलइ रे, गलइ सहइ काज प्रमादि । धर्म दया विना ते गलइ रे, गलइ मुखि लज विवाधु रे ॥३८॥
दया चीत० ॥ तुंर्णी यौवन ते गलइ रे, व्रीध्यस्यु क्रीड करंत । यौवन आप नर तव गलइ रे, ऊडु ज्ञान कथंतो रे ॥३९॥ दया० ॥ गुण गलीआ पर अवगुणि रे, अग्यन थकी जिम लाख । धर्म दया विन एम गलइ रे, ए जिनस्याशन भाषो रे ॥४०॥ दया० ॥
दुहा० ॥ श्रीजिनदेवि भाखीउ, दया विना नही धर्म । हंशा धर्म न कही मलइ, जिम मेहर नि भ्रह्म ॥४१॥ भोजननो अरथी वली, न करइ उद्यम शर्म । ए अणमलतुं जांणजे, न मलइ हंशाधर्म ॥४२॥
ढाल ४० (३९) चोपई ॥ यम मेगल निं न मलइ मसो, न मलइ मृगपति नि यम ससो । न मलइ कीडी परबत काय, न मलइ रंक अनि वली राय ॥४३।। न मलइ नीर्धन नि ध्यनवंत, न मलइ नीरगुंण निं गुणवंत । न मलइ असती निं यम सती, न मलइ मुरिख निं माहामती ॥४४|| न मलइ गंगा नि यम नाडि, न मलइ गढ ग्यरुओ पलवाडि । न मलइ पीतल निं जिम हेम, न मलइ दूसण नि जिम प्रेम ॥४५॥ न मलइ खजुओ नि जिम सूर, न मलइ वाहो सायरपूर । करूरद्रीष्ट निं न मलइ माय (मया), न मलइ पापकर्म नि दया ॥४६।।
दहा० ॥ पाप कर्म बइ एगठां, एकइ ठामि न हंत । कइ सइंथो कइ टालि जो, पणि बइ नवि सोभंत ॥४७॥
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दीपक जिम वलि तेल विन, शेन विनां जिम राय । धर्म दया विन ते तस्यु, खीर विनां जिम गाय ॥ ४८ ॥
ढाल ४१ (४० ) ॥
देसी० मुनीवर मारगि चालता० ॥
शनेह विनां स्यु रूसणुं, गढ विहुंणी पोलु । प्रेम विनां जिम प्रीतडि, मन मइल अंघोल्यु ॥४९॥
धर्म दया विन ते तस्यु, जस्यु लुखुं अनो । तप जप संयमस्यु धरइ, जो मइलुं मंनो ॥
बालिक विन जिम पालणुं, काल विहुणो मेहो । संपति विण जिम पांहणो, गइ यौवन नेहो ॥ ५०॥ धर्म० ॥
धर्म दया विन ते तस्यु || आंचली० ॥
जोग विनां जोगी जस्यु, मन विहुणुं ध्यांनो ।
गुरु विण गछ नवी स्युभीइ, वर विहुणि जांनो || ५१|| धर्म० ॥
दाता विन जिम जाचिका, प्रांणि विण देहो ।
धर्म दया विन ते तस्यु, भाषइ सुगुरू एहो ॥५२॥ धर्म० ॥
दूहा० ॥
सुगुरू पयंपइ सुगुण सुणि, समझे शाहास्त्र विचार | पर प्रांणी तो ऊगरइ, लहीइ स्युध आचार ॥५३॥
ढाल ४२ ( ४१ ) ॥
देसी० जोरइ जन गति स्यंभुनी ॥ राग - मल्हार ॥ देसी बीजी : कहइणी करणी । तुझ विणि साचो० ॥
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ऊतम कुलनो ए आचार, षट वेद चंदरुआ बंधइ जी । जिवजतन जगि एणि परि करसइ, ते स्युभ मारग संधइ जी ॥५४॥
ऊतम कुलनो ए आचार | आंचली० ॥
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पिहइलो चंदरुओ जल परि पेखो, बीजो खंडण ठांमिं जी । जिवदया विन जगि बहु बुडा, घर धंधानिं कांमि जी ॥५५॥ ऊतम कु० ॥ त्रीजो चंदरुओ पीसणठांमिं, रंधणि चोथो जांणो जी । जिव मरंतां पातिग बोहोलुं, ए नीसइ मनि आंणोजी ॥५६॥ ऊतम०॥ भोजनभोमिं कहुं पांचमो, छठो छ (छा ? ) शनिं संगिजी । सतम वली संझेर्णठांमि, अठम सेया रंगिजी ॥५७॥ ऊ० ॥ नोमो वली देहेरासरठांमिं, पडीकमणइ पणि पेखोजी । जो जिनवचनां सुधां पालु, तो सीवमंदिर देखोजी ॥५८॥ ऊ० ||
एकंद्री अणसोझि दलतां, ऊतम नही आचारजी ।
जीव जंत्रमाहिं पणि पीलिं, पातीगनो नही पारजी ॥५९॥ ऊ०॥
खंडण रंधण ईधण पांणी, अणसोझि अती पापजी ।
सारवणि जीव नीत्य सारवतां, कहइ किम छोडीश आपजी ||६० ॥ ऊ०||
ऊठतां बइसंतां भाई, हीडंतां बोलंतां जी ।
जीवजतन करयु जगि लोगा, जांगतां सोवंता जी ||६१|| ऊ०॥
दूहा० ॥
सोवंतां वली जागतां, जिन कहइ जंत ऊगारि ।
अणगल निर म वावरो, लाधो भव म म हारि ॥६२॥
ढाल ४३ । ( ४२ ) ॥
देसी० पांडव पाचइ प्रगट थया० ॥
अणगल नीर न पीजीइ, अंणगलि झीलवु वार्य रे । अणगलि वस्त्र पखालतां पाप घणुं ज संसार्य रे ॥६३॥
अणगल नीर न पीजीइ । आचली० ॥
श्रीमानसीत मांहइ कछु,
गलणातणोअ वीचार रे ।
ते च्यंतो मनि आपणइ, जिम पांमो भवपार रे ||६४|| अ०||
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पोहोलपणइ वीस आंगलां, लंबपणइ वली त्रीस रे । ते गलगुं रे बेवड करी, जल गलीइ नसदीस रे ॥६५॥ अणगल० ॥ गलतां झालक परीहरो, टुंपो तो नवि दीजइ रे । जे जलनो जीव ऊपनो, तेहनई त्याहिं मुकीजइ रे ॥६६॥ अ०॥ वीछलतां रे गलगुं वली, आलस म करि लगार रे । जल विन जीव जीवइ नही, हईडइ करोअ वीचार रे ॥ ६७॥ अ०॥ संखारो म म सुकवो, जो तुम हईअडइ सांन रे । जीव सकलनि रे जीवाडीइ, म करो मनि अभीमांन रे ॥६८। अ०॥ खारु नीर न भेलीइ, मीठा जल तणइ साथ्य रे । संखारो नवि दीजीइ, नीचा जण तणइ हाथ्य रे ॥६९॥ अण०।। समोअण ते नवी मुकीइ, ऊनि जल वली जाण्य रे । जलना जीव वीणासतां, पूण्य तणि होयि हांण्य रे ॥७०॥ अण०॥ कीडी कुजर कंथुओ, सुरपति सरखो जोय रे ।। जीव नि युन्य विणासता, पातिग अतिघणुं होय रे ॥७१।। अण० ॥
दहा० ॥ पातिग बोहोलुं त(ते)हनिं, करतां प्रांणीघात ।। पर हंसा नि दूहवता, भवि भवि होय अनाथ ॥७२॥
ढाल ४४ । (४३)॥ देसी० सुणि हवं एक ल्यष्यमी पूरु० ॥ आपसमा सवि जीवडा, हईइ च्यंत अपार रे । जे नरा जीवनिं मारसइ, फरइ ते गति च्यार रे ॥७३॥ वयण सुणो जगि सहु नरा, दया धर्म ते सार रे । तप जप ध्यान तो छइ भलुं, दया विन अते छाहार रे ॥
वयण सुशो जगी सहु नरा ॥आंचली०॥
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जे जगी तरस निं थावरा, जीव सकल ऊगार्य रे । जंतु हीडइ जगी जीववा, तेहनिं तुं म म मार्य रे ॥७४॥
कर्मवीपाकमाहिं कह्युं, करइ जीवसंघार रे ।
ते नरा पापमांहा बुडसइ, नवी पामसर पार रे ||७५ । वयण० ||
सीह सीआल निं सुकरां, अजा जे मृगबाल रे । हिंवर हरण निं हाथीआ, देता वाघला फाल रे ॥७६॥
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अजगीर संवर रोझडां, वछ चीखल गायं रे । चीतरा चोर निं मंकडा, दीधा नाग नई घाय रे ॥७७॥ वयण० ॥
वयण सुणो० ॥
पंखीआ पासम्हां पाडीआ, मछ कछनी जात्य रे । जे नरा मंशना लोलपी, फरइ नरग ते सात्य रे ॥७८॥ ०॥
पंखीआ गुरड निं हंसला, लावां तीतर मोर रे । समलीअ सारीस जीवनि, हणि कर्म कठोर रे || ७९ ॥ वयण० ||
दूहा० ॥
करतो पातीग वात ।
पापि पंडी ज भारतो, आप- सवारथ कारणि, पर प्रांणीनो घात ॥८१॥
काग निं अंबनी - कोकिला, चडी चास न मार्य रे । चक्रवा चातुक जीवनि, हणी पंडि म भार्य रे ||८०|| वयण० ||
कीधां कर्म पराचीआं, नर दीधला घायरे, थाय रे, पापकर्म तेणइ एगठां ए ॥ ८२ ॥
ढाल ४५ । (४४) ॥
देसी ० एम व्यपरीत परूपतां० ॥ राग - असाओरी सीधुओ ॥
धन कारणि नर वेधीआ, दीइ कातडी कंठि रे, ऊलंठि रे, पापकर्म एहेवां कीआं ए ॥ ८३ ॥
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अनुसंधान-१९ एक नर क्रोधी अतीघj, नर जलमांहई बोलइ रे, रोलइ रे,
तेणइ आप जीवनिं भव घणा ए ॥८४॥ एक नर अग्यन लग(गा)डता, नर पसुअनइं बालइ रे, टालइ रे,
स्युभस्याता तेणइ वेगली ए ॥८५॥ एक नर नरनिं साढसइ, वली चुटता दीसइ रे, पीसइ रे,
दंत घj ऊपरि रह्या ए ॥८६॥ जिन कहइ ते किम छुटसइ, गति च्यारेमा भमता रे, गमता रे, काल अनंतो अती दूष्यि ए ॥८७॥
दूहा० ॥ अतीदूखीआ दूरगती भमइ, साते नरगे वास । जीव हणइ नर जे वली, सुख किम होइ तास ॥८८||
ढाल ४६। (४५)॥
देसी० प्रणमी तुम सीमंधरुजी ॥ जीवतणो वध जे करइ जी, ते नवी जांणइ रे धर्म । पांचइ अंद्री पोषवा जी, करतो घोर कुकर्म ॥८९॥ सुप्रांणी, रीदि वीचारी रे जोय; जिनवचने आलुयजे जी । हंशा-धर्म न होय, सुप्रांणी, रीदइ वीचारी रे जोय ॥आंचली०।। रसनानि रश वाहीओ जी, कर्ता आमिष आहार । वीषमइ पंथिं चालतां जी, एकलडो नीरधार ॥९०॥ सुप्रांणी० ॥ जेणी वांटिं नही वांणीआ जी, नगर नीरूपम हाट । सांथि नही को सारथी जी, कहइ कुंण कहइसइ वाट ॥९१॥ सुप्रांणी० ॥ हंशा करतां सोहेली जी, मुयख सांभली वात । ऊतर देता दोहेलु जी, म करीश प्रांणीघात ॥९२॥ सुप्रांणी० ॥ जलचर थलचर पंखीआ जी, तेहनी करतो रे घात । ते पालव जव झालसइ जी, तव होसइ संताप ॥९३॥ सुणो०(सुप्रांणी)।
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जीव हणंतां जिन कहइ जी, नीसचई नरगि रे जाय ।। भुख्यां आमिष देहनु जी, तरस्या तर पाय ||९४|| सुप्रांणी०॥ कष्ट रोग नि कुबडो जी, अतिदूरगंधी रे देह । अलप आऊखइ ऊपजइ जी, हंशानां फल एह ॥९५।।सुप्रांणी०।। पंडीत होइ ते प्रीछयु जी, जीवदया जगी सार । दया विनां किम पांमीइ जी, ए संसारां पार ॥९६॥ सुप्रांणी० ॥ जीवदया एम पालीइ जी, जिम जगी मेघरथ राय । पारेवो जेणइ राखीओ जी, परभवि अरीहा थाय ||९७॥ सुप्रांणी० ॥ मंश देहर्नु कापीउं जी, मुक्यु बाजु रे माहिं ।। त्राजु तोहइ नवि नमइ जी, धीर न चुको त्याहि ॥९८॥ सुप्रांणी० ॥ एक लाख ग्यवरीतणां जी, दूध तणी खीर खाय । तोहइ काया कार्यमी जी, हंसा केड्य न जाय ॥९९॥ सुप्रांणी० ॥ तोलइ देही कार्यमी जी, म करीश प्रांणी रे घात । सुर हरख्यु तव बोलीओ जी, ध्यन ध्यन तु नरनाथ ।।५००। सुप्रांणी०॥ सुर आकासइ संचर्यु जी, हुओ ते जइजइ रे कार । जीवदया एम पालीइ जी, तो लहीइ भवपार ॥१॥ सुप्रांणी० ॥
ढाल ४७ । (४६)॥ देसी० चाली चतुर चंद्राननी० ॥ राग- मल्हार ॥ जीवदया एम पालीइ, जिम गज सुकमाल रे । पग ‘अढी दिवश तोली रघु, मेघ जीव क्रीपाल रे ॥२॥
जीवदया एम पालीइ || आंचली० ॥ किम तेणइ जंत ऊगारीओ, कीम रघु गजराज रे । तास चरीत्र सहुं सांभलु, सारो आपणुं काज रे ॥३॥
__ जीवदया एम पालीइ ॥
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नांम मेरुप्रभ तेह-, गज दंत स्यु च्यार रे । सात सह्या तस हाथ्यनी, पोतानो परीवार रे ॥४॥ जीव०॥ दावानल जव लागीओ, देखी गजह पलाय रे ।। जोयन मंडलि आवीओ, आवी पसुअ भराय रे ॥५॥ जीव० ॥ हर्ण सीआल निं सुकरां, रीछां सो नवी माय रे । एक ससलो अती आकलो, गज पगतलिं जाय रे ॥६॥ जीव० ॥ खाय खणी गज पग ठवइ, पड्यु द्रीष्ट एक जंत रे । एहनि गज कहइ किम हणु, कुर्णा होय अत्यंत रे ॥७|| जीव० ॥ अति अनुकंपा आंणतो, खरी दया जगी एह रे ।। अढीअ दीवश दूख भोगव्यु, पड्यु भोमि गज तेह रे ||८|| जीव० ॥ एम तेणइ जंत ऊगारीओ, हवु फल तस सार रे । मर्ण पामी गजराजीओ, थयु मेघकुंमार रे ॥९॥ जीव० ॥ संपइ सुख बहु पांमीओ, पोहोती मन तणी आस रे । राय श्रेणिक कुलि ऊपनो, कीधो सर्गम्हां वास रे ॥१०॥ जीव० ॥
दहा० ॥ जीवदया जगि एम करइ, ते सुखीआ बहु होय ।। पर प्राणी पीडी रल्या, तास चरीतं जोय ॥११॥
ढाल ४८ । (४७) ॥
देसी० प्रणमी तुम सीमंधरुजी० ॥ परदेहीनि पीडतां जी, आप सुखी किम थाय । जीव अकाई मारतो जी, सतम नरगिं जाय ॥१२॥ सोभागी, करजे तत्त्व वीचार । पर प्रांणिनि पीडतां जी । ऊतम नही आचार, सोभागी, करजे तत्त्ववीचार ॥आंचली०॥ पंच सह्या स्यु परवर्यु जी, ख्यत्री मोटो रे चोर ।। वनम्हां पंखी मारतो जी, करतो कर्म अघोर ॥१३॥ सोभागी क०॥
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लेअण लेइनिं मारतोजी, करतो अंद्री रे छेद । परभवि दूखीओ ते थयु जी, पाम्यु वेद कुवेद ॥१४॥ सो०॥
मृगावति जगि जे सती जी, तस कुखि अवतार । लोढो थईनई ऊपनो जी, अंद्री विन आकार ॥१५॥ सो०॥ पग विन पापि ऊपनो जी, कर विन काया रे दीठ । श्रा(श्र)वण नेत्र नही नाशका जी, ऊदर नही तस पीठ ॥१६॥ सो०॥ रोम आहार लोटी लीइ जी, अती काया दूरगंध । पूर्व कर्म ते भोगवइ जी, ऊशभ तणो जे बंध ॥१७॥ सो०॥ ते माटई सहु संभलु जी, दया विनां नही धर्म । कुर्णा मनमाहां आणीइ जी, परहरीइ कुकर्म ॥१८॥ सो०॥
दहा० ॥ कर्म कुकर्म न कीजीइ, कीधि किम सुख होय । जेणइ हंशा हरषि करी, नरगि रम्या नर सोय ॥१९॥
ढाल ४९ (४८) चोपई ॥ सहइजिं जे करता तापणुं, पूण्य परजालइ छइ आपणुं । सिरि वाहइ छइ जे कांकस्यु, पूण्यपालिथी ते नर खस्यु ॥२०॥ मांकणनि तावडी नाखसइ, ते नरनारी दूखीआ थसई । वीछी छांण लेई चांपसइ, दूख देअंतां सुख किम हसइ ॥२१॥ चांचण जुअ बगाई जेह, चाप्यां मार्यां दूहुव्यां तेह । कीडी मंकोडा ऊगार्य, ईडां फोडी पंडि म भार्य ॥२२॥ मंकोडा मारि घीमेलि, लिष कातरा नि चुडेल । दादूर ऊधेई नि मस्यो, मारीनिं कां दूरगति वस्यु ॥२३॥ माखी अई अलि नि अलसीआ, मारी कारय कीधां कस्यां । परम पूरष नि वचने रहीइ, 'मार्य' शब्द मुख्यथी नवी कहीइ ॥२४॥
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अनुसंधान-१९
63 पांच अतीचार एहना जाणि, नर ऊत्तम तुं अग्य म आंणि । वाटि वसिं रीसिं घा कर्यु, गाढइ बंधन पसुंआं धर्यु ॥२५॥ जे अतिजाझो भार ज भरइ, कर्ण कंबल जे छेद ज करइ । भात पांणीनो करइ वछेद, तेनि ऊपजइ अदीको खेद ॥२६॥
दहा० ॥ खेद न ऊपाईइ बली, मुख्य न कहीइ मार्य । पहइलुं व्रत एम पालीइ, बीजइ मृषा निवार्य ॥२७॥
ढाल ५० (४९) चोपई ॥ व्रत बीजइ मरिषा परीहरो, पंच जुठांनी अगड ज करो । कन्याली भोमाली गाय, जुठु बोलि दुर्गति जाय ॥२८॥ थांपणिमोसो कुडी साख्य, अलीअ वचन मुख्यथी म म भाष्य । कुडु बोलि सुख किम होय, ..... जइ नवि पांमइ कोय ॥२९|| जुठु बोलतां जाइ लाज, जुठु बोलतां वणसइ काज । जुठु बोलतां मुर्यख थाय, जुठु बोलतां दूरगति जाय ॥३०॥ जुठु बोलतां च्योहोगति भमइ, दूरगति नारी साथि रमइ । काल अनंतो एणी परि गमइ, पोताना प्रांणिनि दमइ ॥३१॥ मृषातणुं छइ मोटु पाप, फोकट आप करइ संताप । दांन सील तपस्यु जगी जाप, मृषा न छंडइ मुख्यथी आप ॥३२॥ मृषा थकी मुख्य थाइ रोग, दूलहो अंद्रीनो संयोग । लुलो टुंटो नि पांगलो, मृषा थकी थाइ आंधलो ॥३३॥ सतवादीनु लीजइ नाम, कालिकाचारय गुण अभीरांम । स्युध वचन भुपतिनि कहइ, जिगनतणु फल नर्ग ज कहइ ॥३४॥ सति सीता सति रांम, राय युधीष्टार] राख्यु नाम । परशान(शासन)मांहा हरीचंद का, ते तो त(ते)हनि बोलि रह्यु ॥३५॥
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डुब घरिं तेणइ आंण्यु नीर, वचन थकी नवी चुको धीर । तो तेहनी कीर्ति वीस्तरी, मुओ नही नर जीव्यो फरी ॥३६॥
शईव शाशनिं सेठि बंगाल, तेहनो पूत्र जे सेठि सगाल । तस घर्णी चंगोमती नार्य, सतवादी जगि दोय वीचार्य ॥३७॥
ते बेहुनी तुम्यु सुणज्यु वात, पूत्रतणो तेणइ कीधो घात । वचन थकी पणि ते नवी चल्या, नरनारी बइ बोलि पल्या ||३८||
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ऊतम नरनी एहेवी वाच, नो हइ जुठी होइ साच । भाति पटोलइ लुढइ लीह, वचन थकी नवि चुकइ सीह || ३९ ॥
नीसरिआ गज केरा दंत, ते किम पाछा पइसइ तंत । सीहतणी जगी एक ज फाल, पाछो वेगि वलइ ततकाल ॥४०॥
कुपरष नरनी वाचा असी, जिम पांणीमांहा लीटी घसी । अथवा काच बकेरी कोट, ष्यणम्हां केती देतो डोट ||४१ ||
ते मुरिखनुं कस्य वखांण, जेणइ नवी कीधु वचन प्रमांण । ते जनुनिइं कां जगी जण्यु, सकल लोकम्हा जे अवगुण्यु ||४२||
तेहनुं कोय म लेज्यु नांम, बोलो सतवादी गुणग्रांम | सत वचन ऊफरूं नही सार, सतवादि घरि मंगल च्यार ||४३||
सतवादीनि सहु को नमइ, सतवादीनुं बोल्यु गमइ । सतवादि दुरगति नवि भमइ, सतवादि ते सीवपुरि रमइ ॥ ४४ ॥ सतवादी जेणइ नगरिं वसइ, नगरलोक ते हरषि हसइ । तेइ नगरिं नही दूत दूकाल, वरसइ मेघ निं होय सगाल || ४५ ॥
दूहा० ॥ सुखशाता बहु ऊपजइ, जिहा सतवादि पाय ।
ध्यन जिव्यु जगी तेहनुं, कवी जेहना गुण गाय ॥ ४६ ॥
अशत्य न भाषइ जेह ।
जीव्या ते जाग जांणीइ, मृषा न मुख्यथी छंडता, स्यु जीव्या जगि तेह ||४७ ||
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अनुसंधान - १९
पांच अतीचार एहना, टालो सोय सुजांण । वचन विमासी बोलज्यू, जिम रहइ जिननी आंण ॥४८॥
ढाल ५१ (५० ) ॥
देसी० पाटकुशम जिनपूज परूपई० ॥
पंच अतिचार एहनां जांणो, सुणज्यु सहु व्रध बाल । सहइसाकारि न दीजइ, भाई, अणयुगतु वली आल, हो भवीका, मुख्यथी साचु बोलो, जो तुमनिं सीवमंदीर वाहालुं,
पर अवगुण म म खोलो, हो भवीका, मुख्यथी साचु बोलो || ४९ ||
मरम पीआरा कांय प्रकासो, नर्ग नीगोदिं पडस्यु | वचनथकी नर होस्यु दूखीआ, चोगतिम्हां रडवडस्यु हो, हो भवीका, मुख्यथी साचु बोलो ||५०||
मंत्रभेद म म करोअ सदारा, सीख देउं तुम सारी । सेठितणो अवदात ते सुणज्यु, मरणि गई तस नारि, हो भवीका... ॥५१॥
जुठा ते ऊपदेश ते न दीजइ, ए दीधा वीन सारो । ऊत्तम कुलनो नही आचारो, नरनारी अ विचारो ॥५२॥
कुडा लेख न लखीइ कहइ निं, परदूख ऊपजइ अंगि । तो आपण सुखीआ किम थईइ, किम जईइ सीध संगिं ॥ ५३ ॥ हो भ० ॥
वीस्वासी नर घात न कीजइ, एक मांनो ए वेद । खोलइ माथु मुक्यु जेणि, ते कीम कीजइ छेद ॥५४॥ हो भ० ॥
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दूर्गतिवास ते वसई, जे ब्रत बीजामां एम कह्युं,
हो भवीका मुख्य० ॥
पर धुति निं पंडी वधारइ, नवि लीजइ तस नांम ।
ते नर भवि भवि होसइ दूखीआ, दूरगति मांहा नही ठाम ॥ ५५ ॥ हो भ० ॥
दूहा० ॥
नवी बोलइ साच । मृषा म भाषो वाच ॥५६॥
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पार न भवनो पांमीइ, करतां चोरि वात । व्रत त्रीजाम्हां वारीउं, सुणि तेहनो अवदात ॥५७||
ढाल ५२ । (५१) ॥ देसी० अणसण एम रे आराधीइ० ॥ राग-शामेरी ॥ त्रीजु व्रत एम पालिइ, थुलि अदितादांन रे ।। वाटि म पाडीश पंथीआ, जो तुझ होइ सांन रे ॥५८॥
त्रीजु व्रत एम पालीइ ॥ आचली ॥ परघरि धन नवी लीजीइ, एम नीस खातर पाड्य रे । पूर पाटण नवि बालीइ, नगरि म लाविश धाडि रे ॥५९॥ त्रीजु० ॥ दूष्ट हईउं नवि कीजीइ, चोरी च्यंति ऊतार्य रे । परधन पंकसमां गणइ, ते नर मोष्य दूआर्य रे ॥६०॥ धन हरतां दूख पांमीओ, लोहखरो जगि चोर रे । सूलिरोपण ते लहइ, करतो कर्म कठोर रे ॥६१॥ मंडक चोर चोरी करइ, परधन लइ वली तेह रे । मुलदेविं तस मारीओ, अतिदूख पांमिओ एह रे ॥६२।। भोमि पड्यु नवि लीजीइ, नयणे म जोईस्य तेह रे । वणलिधिं दूख पांमीओ, मुनि मेतारज जेह रे ॥६३॥ अणदीधुं नवि लीजीइ, लीधि पातिग जाण्य रे । पर नर केरी रे पायको, ग्रहइतां पूण्यनी हाण्य रे ॥६४॥ त्रीजु० ॥ पंच सह्या पर शाशनिं, तापस जल ऊपकंठ रे । वार्य वीनां जगि ते सम्या, पण्य न हुआ ऊलंठ रे ॥६५॥ त्रीजु० ॥
दूहा० ॥ सोये ऊलंठ ज नवि हवा, समझ्या शास्त्र ज मर्म । अणदिद्ध जल नवि लीउं, राख्यो तापस धर्म ॥६६।।
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अनुसंधान - १९
तो किम आपण लिजीइ, पर केरुं वली धन । परभवि देवुं तेहनि, सुणज्यु जसरि कंन ॥६७॥ परधन लेतां सोहेलु, भोगवतां दूख होय । जो जांणो तो चेतयु, छल म म रमयु कोय ॥६८॥
परधन लेई एक नरा, करता अमृत आहार परभवि भंसा पर थई, सिर वहइसइ बहु भार ॥६९॥
सालि दालि घ्रत घोलथी, विष्य पिद्ध ते खास । पणि परधन नवि लीजीइ, दिंण तणो जगि दास ॥ ७० ॥
कवीत ॥ दिणतणो जगि दास, वास पणि दिणई मुकइ दिंणइ देह ज खोय, दिणथी भोजन चुकइ । दिइ दीन मुख होय, दिणथी दीसह दूखीओ दिणइ ऊवटवाट, दिणथी सुइ न सुखीओ ॥ दिणइ कीरति पंगलि नर्गगति नीसइ कही । नीच युनि अवतार, छूटइ पसु पीठिं वही ॥ ७१ ॥
दूहा० ॥ पीठि वहीनि छुटसइ, परवश तेहनि देह । ते भोगवतां दोहेलुं, जिहा दूखनो नही छेह ॥७२॥
ढाल ५३ । (५२ ) ॥
देसी० दइ दइ दरीसण आपणुं० ॥
पंच अतिचार एहना, जिन कहि सो पणि यलि रे । वस्त म वोहोरीश चोरनी, तुं मन त्यांहथी वाल्य रे ||७३||
चीत चोखुं नीत राखीइ राखि बहु सुख होय रे ।
मन मइलइ दूख पांमीओ, द्रमक भीखारी जोय रे ।
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चीत चोखुं नीत राखीइ ॥ आचली० ॥
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संवल कहो किम दीजीइ, चोर तणइ वलि हाथि रे । पापी पोष वधारतां, दूख लहीइ बहु भाति रे ॥७४॥ चीत चोखु० ॥ भेल संभेल न कीजइ, नवी पुराणी मांहई रे । परभवि बहु दूख पांमीइ, कोण सखाई त्याहिं रे ॥७५॥ चीत० ॥ राजविरुध न कीजीइ, कीधइ किम सुख होय रे । वीष पीधि किम जिविइ, रीदइ वीचारी जोय रे ॥७६॥ चीत० ॥ कुडां तोल न कीजीइ, ओछां अदिकां माप रे । छल छबदिं धन मेलता, लागइ पोढुंअ पाप रे ॥७७|| चीत० ॥ मातपीता नवि वंचीइ, बांधव भगनी पूत्र रे ।। गांठि जुई नवी कीजीइ, एम रहइ छइ घरसुत्र रे ॥७८॥ चीत० ॥
दूहा० ॥ सुत्र संभालि राखीइ, वचन वडानुं मांन्य ।। व्रत चोथं हवइ संभलो, जे जगी मुगट समान्य ॥७९।। मृगकुलम्हां यम केशरी, वाहन मांहि तुरंग । तिम व्रतमां ब्रह्मव्रत वधू, क्यमेह न कीजइ भंग ॥८०॥
ढाल ५४ ॥ (५३)॥ देसी० वासपूय जिन पूण्यप्रकाशो० ॥राग-असावरी ।। तीर्थमांहा यम श्रीसेव॒जो, सुरपति मांहां जिम अंद्र । मंत्रमांहि जिम श्रीनवकार, गहइगणमांहा जिम चंद्र ॥८१॥ जल सघलामां जलधर मोटो, पंखीमांहां जिम हंसो । सर्पयोन्यमां सेष ज बलीओ, कुलमांहां ऋषभावंसो ॥८२।। परबतम्हा जिम मेर वखार्पु, ठाकुरमाहा जिम रामो । हनु वानरकुलम्हां अतीबलीओ, कीधां वसमां कामो ॥८३॥ कुजरम्हां अहीरावण मोटो, गढम्हा लंका कोटो । सूररथाना अस्व जबलीआ, भमता देता डोटो ॥८४॥
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अनुसंधान-१९
रूपमुखी निम मयण वखांणुं, सायरम्हां जिम खीरो । कलपतरु तरुअरम्हां मोटो, जलम्हां गंगानीरो ॥८५॥ शर सघलाम्हां पो(पे)खो भाई, मानसरोवर मोटुं । श्रीकुंलम्हां मरुदेव्या मोटी, दूझाणांम्हा झोटु ॥८६॥ ष्यमावंतम्हां श्रीअरीहंत, तपसुरा अणगारा । भोगिमाहां चकवर अतीमोटो, जस रीध्य अंत न पारा ||८७|| वासदेव सुरा-मुख्य मंडु, परीग्रहइमाहा सुत सारो । तिम व्रत बारम्हां मुख्य मंडु, व्रत चोथु ज अपारो ॥८८॥
ढाल ५५ (५४) चोपई ॥ माहाव्रत केरो टालु दोष, परदारानो करि संतोष । पररमणी साथि जे रम्या, सुरनर केता नीचा नम्या ॥८९।। आगइ अंद्र अहीलास्यु रम्यु, अपजस तेहनो गगनि भम्यु । सहइ सभग तस पोतइ हवा, अंगई रोग तेहनि नवनवा ॥१०॥ गुरुनी मइहइला लाव्यु चंद, कलग ई मुख पांम्यु मंद । मासिं साजो एक दिन होय, विषइ थकी दूख पांम्यु सोय ॥९१॥ पापी विषइ विटंबइ घणुं, नीर उतार्यु भ्रह्मा तणुं । चोखइ च्यंति न सक्यु रही, ध्यान थकी ते चुको सही ॥९२॥ ईसिं भीली झाल्यु हाथ, तो दूख पाम्यु शंभुनाथ । बाली कामनि जोगी थयु, सकल लोकम्हां महीमा गयु ॥१३॥ रावण सरीखो राजा जेह, काम थकी दूख पांम्यु तेह । दस मस्तगनो खइ तव थयु, कनकतणो गढ लंकां गयु ॥९४॥ कईचक जो सीलिं नवी रह्या, हण्या ज्युध ते दुर्गति गया । मणिरथ राजा ते अवगुण्यु, स्त्रीकारणि तेणइ बंधव हण्यु ॥९५॥ मोटो राय अवंतीधणी, कामि ते कीधो रे वणी । नगरी कोट पडाव्यु अस्यु, वण षाधइ तस पाणी रसो ॥९६।।
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वीषइ घणी ब्रह्मदतनिं हती, मर्तीवेल्यां मुख्य कुरमती । एम स्त्रीलंपट सबलो थयुं, तो ते सतम नरगिं गयु ॥ ९७ ॥
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विटल पूर्ष दनि रमवा गया, नारी देखी वीवल थया । तेइ बांध्यु अरजनमालिका, जिष्ट मुष्ट बहु दिधा धका ||१८|| तेइ त्याहां कीधो लज्यालोप, अर्जनमाली आव्यु कोप । तेणइ दिधी तीहा जष्यनिं गालि, फटि जीव्यु जगी ताहारुं बालि ॥९९॥
जखीराज कोपि धमधम्यु, षट पूरष्यई महीमा नीगम्यु | मोगर एक दीओ तस हाथि उठी अर्जन वेगि नीपाति ॥ ६००॥
छुटी अर्जन अलगो थाय, छइ पूर्ष शरि दीधा घाय । जो नारीनिं शंगिं रम्या, हण्या ज्योध ते दूरगति भम्या | १|| हवइ मुनीवरनो कहु अवदात, पूडरीक नृप केरो भ्रात । भोगतणी ईछयाई थयु, कुडरिक सातमिदं गयु ॥२॥
मुनीवर मोटो आद्रकुमार, कांमिं चार्त्र कीधु छाहार । बार वरस घरवासि रघु, जो मुकी तो सुखीओ थयु || ३ ||
रषि आषाडो मुनिवरपती, कांमिं चारित्र चुको जती । वेशास्यु तेणइ कीधो नेह, छेहे मुक्यु सुख पाम्यु तेह ||४||
अर्णक ऋषि विषयाई नड्यु, सील गयु संयमथी पडयु । फरी कद्रूप साथि ते वढ्यु, मुगति गयु पणि पूस्तगि चढ्यु ॥५॥
नंदषेण वेशाघरि रह्यु, दस बुझवइ पणि संयम गयु । सीलवरत तेगइ आदर्यु, तो तस मुनीवर नांम ज धर्युं ॥६॥ चोमासीतप केरो धणी, पणि सहुई नाख्यु अवगुंणी । सील खंडवा केडि थयु, कोशामंदिर चाली गयु ॥७॥
रत्नकाय भमाड्यु जेह, भमी भमीनिं आव्यु तेह प्रतिबोध्यु निं मुनिवर गयु, सील ग्रह्यु तो ध्यन ध्यन थयु ॥८॥
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अनुसंधान - १९
रहइनेमि मन-वचनिं पड्युं, राजुल देखी ते हडबड्यु । माहाभट मदनिं कीधो रंक, सही शरि पांम्यु सोय कलंक ॥९॥
लषणा नांमि जे माहासती, मन मइलइ चुकी स्युभगति । मंनह वचन काया थीर नही, ते नर सुखीआ थाइ कही ॥ १०॥
कुलवालुंओ मुनीवर जेह, माहातपीओ पणि कहीइ तेह । सीलखंडणा तेणइ करी, खिणम्हां दूरगति नारी वरी ॥११॥
एहेवो कांमतणो अवदात, सुणज्यु सहु शभा नरनाथ । तो अबलास्यु कस्यु सनेह, जाति जे देखाडइ छेह ॥१२॥
भोज मुज परदेसी जेह, सबल वटंब्या नारिं तेह | जमदगधनं नारिं नड्यु, राय भरथरी ते रडवड्यु ॥१३॥
ब्रह्मराय घरी चुलणी जेह, पोतइ पूत्र मरावइ तेह | गउतम ऋषिनी अहीला नार्य, अंद्र भोगवइ भुवन मझार्य ॥ १४॥
ए नारीनो जोय वीचार, जोता कांई नवी दिसइ सार । समझ्या ते नर मुकी गया, नवि समझ्या ते खुची रह्या ॥१५॥ अकल गई नरनी वली एम, जिहाथी प्रगट्या त्याहा बहु प्रेम । ऊतपति जोनी तुं आपणि, समझी मुके मती पाप्यणी ||१६||
मातपीतानिं युगिं वली, श्रुणी स्युक गयां बइ मली । जग सघलु जई तिहा उपनो, नांहानो मोटो एम नीपनो ॥१७॥
तो ते सांथिं स्यु वलि रंग, म करो नारी केरो संग | भोग करंता हंशा बहु, नरनारी ते सुणयु सहु || १८ ||
बेअंद्री पंचेद्री जेह, नव नव लाख कहीजइ तेह | मुनीष असंखि समुर्छम जांणि, भोग करंतां तेहनी हांणी ॥ १९ ॥
दूहा० ॥ हाणि न करता हंसनी, सीलवंतम्हां लीही ।
पणि वरला जगि ते वली, जिम पसुआंमां सीह ||२०||
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सुगर कहइ संभारीइ, सीलवंतनां नाम । ऋषभ कहइ नर ते भला, जेणइ जगी जीत्यु कांम ॥२१॥
शमशा०॥ गीरधुपूत्त कहीजइ जेह, ता वाहन भष्य कहीइ तेह । तास भष्यन नाम जे कहइ, तेहगें वाहन जे जगी लहइ ॥२२॥ तेहनिं वाहालुं स्यु वली होय, उतपति तास वीचारी जोय । ता वाहन भष्य केरो तात, तस बंधन रीपू जग वीख्यात ॥२३॥ तेहना बांध्या जे जगी लहइ, तास तणो स्वामी कुण कहइ । तेहनुं वाहन अतिबलवंत, तेणइ आंण्यु जगी जेहनो अंत ॥२४॥ तेहनि बंधी जे वश करइ, ते वहइलो मुगतिं संचरि(रइ)। जन्म मर्ण जरा नही यांहि, अनंत सुख नर पांमइ त्याहि ॥२५।।
दहा० ॥ संपइ सुख बहु पांमीइ, जो वश कीजइ काम । सीलवंत जगी जेहवा, लीजइ तेहनां नाम ॥२६॥
ढाल० ॥चोपई ॥ (५५) ॥ शीलवंतनुं लीजइ नाम, तो मनवंछीत सीझइ काम । सीलवंतना पूजो पाय, रीध्य व्रीध्य सुखशाता थाय ॥२७|| सीलतणो जगी महीमा घणो, जग सघलो थाइ आपणो । सुर नर कीनर दानव देव, सीलवंतनी सारइ सेव ॥२८॥ सीलवंत संग्रांमि चडइ, ते कोंण नर जे सांहामो लडइ । नावइ सुरो साहामो धस्यो, सीलवंतनो महीमा अस्यु ॥२९॥ सीलवंतना पगर्नु नीर, तेणइ लेई छाटो आप शरीर । सकल रोगनो खइ जिम थाय, कष्ट कोढ कली नाहाठो जाय ॥३०॥ सती सुभद्रानी सुणि वात, जेहनो जग जाणइ अवदात । कुपि चालणि तांतणि तोलि, काढी नीर ऊघाडी पोलि ॥३१॥
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सती वशला आगइ हवी, रामचंद्र मुख्य तेहनिं स्वी । सीलवती तु माहारी मात, आ ऊठाडो वेगिं भ्रात ||३२||
तव सतीइं सिर ह (हा ) थ ज धर्यु, पड्यु पुर्ष ते चेतन क । उठ्यु लक्ष्मण हरखिं हस्यु, सीलतणो जगी महीमा अस्यु ||३३||
नारद वेढी लगावइ घणी, ए परगति छइ आतमतणी । तोहइ मोष्य गयु तस गणो, जोयु महीमा सीअल ज तणो ॥ ३४॥
सीलि रही अंजनासुंदरी, तो वनदेविं रष्या करी । सीहतणु स्यंकट तस टल्यु, वन सुकु ते वेग फल्यु ||३५|| कलावतीनुं सीअल ज जोय, भुजाडंड पांमी जगी दोय । नदीपूर ते पाछु वल्यु, सीलसरोमणि पर्गट फल्यु ||३६|| रामचंद्र घरि सीता जेह, अग्यनकुंडम्हा पइठी तेह । वस्यवांनर फीटी जल थयु, जनकसुतानुं नांम ज रह्यु ॥३७॥
कमल एक प्रगट्युं कहइ कवी, ते ऊपरि बइठी साधवी । लवनिं कुश व खोलइ वली दोय, सीलवंती जगि वंदो सोय ||३८||
वंकचुल वनि मोटो चोर, व्रत चोथु तेणइ लीधु घोर । कार्ण पणइ तेणइ राख्यु सील, राजरीध्य बहु पांम्यु लील ॥ ३९॥
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कलीकालि सोनी शंग्राम, सीलि अंब फल्यु अभीरांम । वली मेहे वुठो ते अतीघणो, जोज्यु महीमा सीअल ज तणो ॥ ४०॥ ढाल ५७ । ( ५६ ) ॥
देसी० पाय प्रणमी रे, वीर जिनेस्वर राय रे० ॥ राग- मल्हार ||
सील साचु रे प्रेम करीनिं पालीइ
एइ वरति रे आतमवंश अजुआलीइ । मन दोहो दशरे जातु पार्छु वालिइ भ्रम वरतिं रे कर्म कठण ते गालिइ ॥
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त्रुटक० गालीइ कर्म जे कठण जुनां सील अंगि सो धरी मन वचन काया करो चोष्यां संसार सागर जाओ तरी । आगि जे नर नारि मुनीवर सील अंगि आदर्यु सोय नरनु नांम जपतां जाणि मन मोरूं ठर्यु ॥४१॥
त्रु०
त्रु०
सुदर्पण सेठिं रे व्रत ते चोथु शरि वह्यु पटरांणी रे प्रेम तणइ वचने कछु ।
रंभा देखी रे सेठ तणु मन थीर रह्युं नवि चुको रे जो जांण्युं जीवत गयुं ॥
जीवत जातई जे न चुको राणी बहु रोसिं चडि बहु ब पाडी अत्यहिं त्राडी सेठि बांध्य ते जडी माहाराज बोल्यु द्यु न सुली सेठिनिं सांचइं सही ए सील महीमा थकी जुओ सुली सीघासण थई ॥४२॥
श्रीअ थुलिभद्र रे मुनीवर मोटो ते यती जंबुस्वामि रे वंदे वेगिं स्युभमती । धना स (सा) लिभद्ररे जेणइ स्त्रीअ मुकी छती नरनायक रे पंच संह्यांनो जे पती ॥
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जे पती पच सह्या केरो नामिं सीवकुमार रे भावचारीत्र थकी वंदो सील रघु नीरधार रे । पंचमइ सुरलोकि पोहोतो कर्म केतु खइ कर्यु सील अंगिं धर्यु साचु नांम जगम्हां वीस्तर्युं ॥ ४३ ॥
दूहा० ॥ नांम ते जगम्हा वीसतर्या, आणि वली अनेक ।
सो मुनीवर नीत्य वंदीइ, सील न खंड्यु रेष ||४४ ||
ढाल ५७ ॥
देसी० एणी परि राय करंता रे० ॥ राग- गोडी ॥
गऊतम मेघाकुमार रे वली वछ थावछो, वहइरस्वाम्यनिं पाए नमु ए ॥ ४५ ॥ भरत बाहुबल दोय रे अभयकुमारस्यु, ढंढण मुनीवर वंदीइ ए ॥४६॥
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अनुसंधान - १९
ए ॥ ४७৷৷
शरीओ अतीसुकमाल रे वंदू अइमतो, नागदत्त सीलि र कइवनो गुणवंत रे समरू शकोशल, पूडरीकनिं पूजीइ ए ॥ ४८ ॥ प्रभवो वीस्णकुमार रे कुरगढु मुनी, करकंडु सीलिं भलो ए ॥ ४९ ॥ क्रीण अनि बलिभद्र रे वंदू हनमंत, दशानभद्र दीनकर समो ए ॥ ५०॥ ब्राहामी सूदरी सोय रे मयणासुंदरी, दवदंती सीलिं भली ए ॥ ५१ ॥ मृगावती पून्यवंत रे सुलसा साधवी, मणिरेहा मुख्य मंडीइ ए ॥ ५२ ॥ कुता द्रपदी दोय रे चंदनबाला ए, पूफचुला राजिमती ए ॥ ५३ ॥
हा० ॥
सीलवंत नर नार्यनुं नतिं लीजइ नांम ।
नवनीध्य चऊदरयण घरिं, जस जगम्हा अभीरांम ॥ ५४॥
मन विन सील ज पालीइ, तो पणि सुर अवतार । चीत चोखु नित्य राखता, ते किम न लहइ पार॥५५॥ ढाल ५८ ॥ चोपई ॥
पंच अतिचार एहना सार्य, विधवा देश कुलंगनां नांर्य । अपरग्रहीता शंगम म करो, हाश वीनोध क्रीडा परीहरो ॥५६॥
वली सदारा सोक्य ज जेह, द्रीष्टराग कर्यु वली तेह | विप्रजाश कीधो मनि धणुं, पाप आल्युओ आतमतनुं ॥५७॥
सरागवचन बोल्यु मुष्य थकी, वीकलपथी जीऊ थाइ दूखी । अनंगक्रीडा कीधी रंगि, मीछादूकड द्यु जिनसंग ॥५८॥
परविहीवा मेलि कां दीइ, विषइ वधारी स्यु फल लीइ । कांमभोग तीवर अभीलाष, सील परजाली की राख ॥ ५९॥
रूप शणगार वखाणइ वली, मन चोखुं पणि जाइ टली । जिम ली मुखस्य नवी मलइ, पणि तस वातिं डाढ्य ज गलइ ॥६०॥
आठम्य पाषी पून्यम जाण्य, ए छइ स्युभ करणीनी खांण्य । एइ दिवसिं ए राखो आप, भोग करंता पोढु पाप ॥ ६१ ॥
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सील समु नही को पचखांण, जोयु ज्युध विमासी जांण । लाछलदे सुत ते पणि ग्रह्यु, थुलिभद्रनुं नाम ज रह्यु ॥६२॥
दूहा० ॥ थुलिभद्र मुनीवर वडो, सिर वही जिनवर आंण ।। हवइ सुणयु व्रत पांचमुं, जे परिग्रहइ-परिमाण ॥६३||
__ ढाल ५९ ॥ चोपई ॥ पांचमइ वरतिं चोखुं ध्यान, सकल वस्त, कीजइ मांन । अतित्रिस्णा मनि वारो लोभ, एह थकी बहु पांम्या खोभ ॥६४॥ नवइ नंद ते क्यरपी हुआ, मुमण सेठि धन मेली मुंआ । सागर सेठि सागरमाहा गयो, जो जगी सबलो लोभी थयु ॥६५॥ धन संच्या, मोटु पाप, उपरि थाईश फणधर साप । ऊदर घसंतो हीडश आप, ऊद्यरन करतो संताप ॥६६॥ ते धन ऊपरि मुरछा कसी, खाओ खरचो मनि उहोलसी । धन यौवन यम पीपल पान, चेतो चंचल गजनो कान ॥६७|| ते माटइ मुर्छा म म मंड्या, अतित्रीस्णा आतमथी छंड्या । आगइ अनरथ हुओ घणो, ते महीमा छइ परिग्रहइ तणो ॥६८॥ भरत बाहुबल झगडो कर्यु, तो तेहनो अपजस वीस्तर्यु । कनकरथिं नीज मार्यु पूत्र, जाण्यु लेसइ मुझ घरसूत्र ॥६९।। लोभ लगिं सुर पूरी कुंमार, हण्यु पिता तेणइ नीरधार । रत्न तणो वली लीधो हार, न को बीजो कस्यु वीचार ॥७०।। श्रेणिक सरीखो राजा जेह, परिग्रहइथी दूख पाम्यु तेह । क्रोणी राजा लोभी थयु, पीता हणीनिं नरगिं गयु ॥७१।। सुभमराय चक्री आठमो, ते नर सबलो लोभी हवो । त्रीस्णानो नवि आण्यु छेह, तो दूख पाम्यु नरगिं तेह ॥७२।।
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शमशा० ॥ चोपई ॥ सुरपतिवाहन केरो स्युत्र, ताश शाम्यनी केरो पूत्र । तास पीता-मस्तगि जे रहइ, कुणथी सोय कलंक ज लहइ ॥७३।। तास रिपूनो ठांम ज कहइ, तास धरीनिं कुण जगि रहइ । तेहनो कुण झालइ जगी भार, तास रीपू ठाकर कीरतार ॥७४॥ तेहनी नारी साथि नेह, जातो दूख पांमइ नर तेह । जेणइ खाधी खरची ओहोलाश, ते नर वशीआ स्युभगति वाश ॥५॥ माहारु माहारु करता जेह, पणि धन मुकी चाल्या तेह । परिग्रहइ माटइ थीर नवी रह्या, धन पाषइ नर को नवी गया ॥७६।।
ढाल ६० ॥ देसी० नंदनकु त्रीसला हुलरावइ० ॥ राग - असाओरी ॥ माहारू माहारू म कर्य तु कंता, कंता तु गुणवंता रे नाभीराया कुलि ऋषभजिणंदा, चाल्या ते भगवंता रे ॥७७||
म्हारु म्हारु म कर्य तु कंता० । आचली ॥ भरत नवाणुं भाई साथि, वासदेव बलदेवा रे, काले सोय समेटी चाल्या, सुर करता जस सेवा रे ॥७८॥ म्हारू०॥ भरथ भभीषण हरी हनमंता, कर्ण सरीखा केता रे, पांडव पंच कोरव सो सुता, बर्द वहंता जेता रे ॥७९॥म्हारू० ॥ नलकुबर नर रा हरीचंदा, हठीआ सो पणि हाल्या रे, रावण राम सरीखा सुरा, काले सो नर चाल्या रे ॥८०॥ महा०॥ दशांनभद्र राइ वीक्रम सरीखा, सकल लोक शरि राणा रे, सगरतणा सुत साठि हजारइ, सो पणि भोमि समांणा रे ॥८१।। म्हारू० ॥
दुहा० ॥ माहारू म्हारूं म म करो, करयु गहइन वीचार । आगइ नरवर राजीआ, छंडिं पाम्यां सार ॥८२।।
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ढाल ६१ ॥ देसी० नवरंग वइरागी लाल० ॥ राग-हुसेनी ॥ ऋषभ अजीत संभव जिना, अभिनंदन जगी जेह । रीध्य रमणी सुख सो वली, नर छंडी चाल्या तेह रे ॥८३|| धन छंडइ ते जगी सार, विण मुकि न लहइ पार रे,
धन छंडि ते जगी सार० आचली० ॥ सुमतिनाथ जिन पंचमो, जस घरि रिधि अपार । पद्मप्रभ धन ते तजी, जेणइ लिद्धो संयम भार रे ॥८४॥ धन छं० ॥ सुपारस जिनेस्वर सातमो, कनक तणी घरि कोड्य चंद्रप्रभ सुवधी जिना, ऋध्य चाल्या ते जगि छोड्य रे ॥८५॥ धन० ।। सीतलजिन श्रेअंस नि, वासपूज्य जिनराय, चंपानगरीनो धणी, धन छंडी मुनीवर थाय रे ॥८६॥ धन० ॥ क्यंपलपूरनो राजीओ, विमलनाथ जिनदेव, अनंत धर्म अरीहा वली, रीध्य छंडइ सो ततखेव रे ।।८७।। धन छंडइ० ॥ सांतिनाथ जिन सोलमो, कुथनाथ अरनाथ, मलिदेव मीथलां तजी, भाई ए जगम्हां वीख्यात रे ॥८८॥ धन० ॥ मुनीसुव्रत जिन वीसमो राजग्रहीनो राय, नमीनाथ नेमीस्वरु जगि, सुर जेहना गुण गाय रे ॥८९॥ धन० ॥ पास जिनेस्वर पूजीइ, वरधमान जिन जोय, दोय वरस आग्रहइ रह्यु, नरसीह समो जगि सोय रे ॥९०॥ धन० ॥
दूहा० ॥ धन कण कंचन काम्यनी परीग्रहइ भाति अनेक । पाच अतिचार परीहरो, मुरछा म करो रेख ॥११॥
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ढाल ६२ ॥
देसी० ए तीर्थ जांणी पूर्व नवाणुं वार० ॥
एना पाच अतीचार टालो जिम धरि खेमो, धन धांन निं खेत्रु, वस्त्र रूप निं हो ( हे) मो ॥ ९२ ॥
कासुं निं त्रांबुं सपतधातनी जात्य दूपद निं चोपद नदविधि परीग्रहइ भात्य ॥ ९३॥
मुरछा मन्य अणी, परीग्रहइ व्रर्त प्रमांणो लेई नवी पढीउं, वीसरतां ज अयाणो ॥९४॥
अल्ली मेल्युं, नीम वीसार्या जेहो, पांचमई पणि वरतिं मीछादूकड तेो ॥ ९५ ॥
वरि वीषधर वदने जीभ दीइ ते सारो पणि व्रत नवि खंडइ ऊतम ए आचारो ॥ ९६ ॥
दूहा० ॥ लघु व्रत नवी खंडीइ, खंडि पातिग होय । छठु व्रत सहु संभलो, नीम म छंडो कोय ॥९७॥
ढाल ६३ ॥
देसि० कहइणी कर्ण तुझ वीण साचो० ॥ राग - ध्यन्यासी ॥
दीगवेरमण वरत वखाणुं, राखी चोखु ध्यांनजी । जलिवटि जावा केरूं भाई, सहुं करज्यो वली मानजी ॥ दीगवेरमण वरत वखाणुं, राखी चोखुं ध्यानजी० । आंचली ॥९८॥
पगवटि चांलंता तु चंते, मनमा नीम संभारेजी । ऊतर दष्यण पूर्व पछिम, ए दसि कहीइ च्यारेजी ॥ ९९ ॥ दीग० ॥
च्यार वदशनिं ऊर्ध अधोदसि, दसइ दसी मांन संभारोजी । अगड आखडी चोखां पालु, लीधो नीम महारो जी ||७०० ||
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दीग वेरमण० ॥
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पाच अतीचार एहना आख्या, तीहा म म वाहो अंगजी । आवंतां जावंता म करीश, नीम तणो वली भंग जी ॥१॥ दीग० ॥
पाठवणी आघी पाठवता, अंगि अतीचार थाइ जी । वरतभंग करइ नर जेता, ते नर नरगिं जाइजी ||२||दीग० ॥
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एक दसि सोय संखेपी सहइंजि, बीजी कांय वधारी जी । वरतखंडणा एम नवी कीजइ, सुणज्यु सहु नरनारी जी ॥३॥ दीग०
काकजंघा राजा अती बलीओ, तेणंइ ए वरत न छुड्यु जी । जो पण ते वरी वश पडीओ, दशनुं मांन न खंड्यु जी ||४|| दीग० ॥
जे नर ए व्रत चोखुं पालइ, कर्म कठण ते गालइ जी । कार्ण पण जे किमेह न चुकइ, आतम ते अजुआलइ जी ||५|| दीग० ॥
दूहा० ॥ आतम एम अजुआलीइ, कीजइ तत्त्ववीचार । सतम वरत संभारीइ, तो लहीइ भवपार || ६ ||
ढाल ६४ ॥
देसी० सुणो मेरी सजनी० ॥ राग-केदारो ॥ सतम वरत संभारो भाई रे, चउदइ नीम ज करो सखाई रे । नीत संखेपो एकचीत लाईरे, हंसानि छइ ए हीतदाई रे ॥७॥
सचीत नीवारो, द्रवि संखेपो रे, वीगइ वीचारी लिजइ रोषो (रोपो ?) रे । एहथी वाधइ वीषइअ वसेषो रे, कामिं लही दूरगति कोरे ||८|| वांहाणई केरुं मांन सु कीजइ रे, मुखि तंबोलह ववेकिं दीजइ रे । वस्त्र कुशमनी वगति करीजइ रे, वाहन सुअण वलेप गुंणीजइ रे ॥९॥
वीषइ नीवारो पंथ संभारो रे, नांहांण नवणनो बोल सुधारो रे । भात सुं पाणी वीधिरं वीचारो रे, नीम संभारी आतम तारो रे ॥१०॥
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दूहा० ॥
आतम आपसु तारजे, पंच अतीचार टालि ।
पनर करमादांन परीहरे, म पडीश पाप जंजालि ||११||
ढाल ६५ ॥
देसी० श्रीसेत्रुजो तीर्थ सार० ॥ राग
पाच अतीचार एहना टालु, अचीतठांमि मत सचीत नेहालो । अचीत वस्त सचीत प्रतबंध, दूरि करे ए जांणि अस्युध ||१२||
- देसाग ॥
उपक- दूपक तुछ ओषधी कहीइ, भक्ष त करतां सुख किम लहीइ । ओला उंबी पुहुक म खाओ, पापडी ऊंपरि प्रेम म लाओ || १३ ॥
ए नीपजतां जीव ज घात, कठण हईउं वली होइ दूरदांत । अग्यन कर्म जे घणुंअ अभ्यासइ, जीवदया तेहनी तव न्हासइ ||१४||
धांन शल्यां म म भरडो भाई, जीव हणंता दूरगती खाई । जस्युरो वाहालो पोतानो प्राणी, जीव राखो मनि तेहेवा जाणी || १५॥ वालुं असुर्युं ते नवि कीजइ, ऊदय विनां मुख्य अन न दीजइ । सुत्र सीधांति एह वीचार, पालइ ते नर पांम पार ||१६|| अभ्यष्य बावीसइ ते नवी भजीइ, अनंतकाय बत्रीसइ तजीइ । जीव राखो पोतानिं ठाम्य, जीम वसीइ सीवमंदीर गांम्य ॥१७॥
दूहा० ॥
सीधनगरी म्हां सो वसई, न करइ अभष्य सु आहार । भष्य अभष्य न ओलखइ, धीग तेहनो अवतार ॥१८॥
देसी०
अभष्य बावीसइ जे ऊतम कुल नर जे
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ढाल ६६ ॥
पारधी आनी० ॥ राग केदार गोडी ॥
कह्यां रे, ते वार्या भगवंत्य । लघु रे, तो कां चालो कुपंथ ॥१९॥
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भवीकाजन, अभिष्यतणुं बहु पाप, वीषमइ पंथइ चालवू रे, तिहा सबलो संताप, भवीकाजन, अभष्यतणुं बहु पाप ॥आचली० ।। उंबर वडलो पीपलो रे, पीपरडी फल वार्य । फलह कठुबर परीहरो रे, एम आपोयुं तार्य ॥२०॥ भवीका० ॥ च्यार वीगइ जिन जे कही रे, ते जांणोअ अभष्य । जईन धर्म जगि जांणीओरे, तो किम दीखइ मुख्य ॥२१॥ भ० ॥ मदीरा मंश मुख्य नही भलु रे, पति पूर्वयनी जाय । मध-मांखणना आहारथीरे, प्रांणी मइलो थाय ॥२२॥ भ०॥ मधनी ऊतपति जोईजई रे, तो नवी दीसइ सार । श्रवरस लेई माखी विमइ रे, तो स्यु कीजइ आहार ॥२३।। भ० ॥ गांम जलंतां जेटलु रे, लागइ पोटु पाप । मधभक्षणथी तेटलु रे, कां बोलइ छइ आप ॥२४॥ भ०।। हीम करहा विष बिंगणां रे, माटी मुख्य म देश । तुम नीशभोजन परीहरो रे, सुरघरि रंगिं रमेश ॥२५॥ भ० ॥ तुछ फलानिं नवी भषो रे, आंमण बोर अपार । जे जगी जांबु टीबरु रे, पीलु पीचु असार ।।२६।। भ० ॥ बहुबिजनी जाति जाणीइ रे, रीगण निं पंपोट । अंतरपट विन पीडलु रे, तीहा म म देयु डोट ॥२७॥ भ०॥ काय अनंती ओलखोरे, घोलवडा- साख । अणजांण्या फल परीहरो रे, चलीतरस अथाणुं पाक ॥२८॥ भ०॥
दूहा० ॥ आप अथाणुं परहरे, कंदमुल मुख्य वार्य । अनंतकायनि परीहरइ, ते नर मुष्य-दूआरि ॥२९॥
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ढाल ६७ ॥ देसी० नंदन कु त्रीसला हुलरावइ० ॥ कंदमुल मुख्य को म म देज्यु, अनंतकाय बत्रीसु रे । शाहास्त्रमाहिं तो अस्युअ का छइ, कहइतां म धरो रीसु रे ॥३०॥
कंदमुल मुष्य को म म देज्यु० ॥ आचली० ॥ थोहर गुगल गलुअ नीवारो, आदू वज्जसु कंदो रे । अमरवेलि निं नीली हलदर, लसण थकी मुख गंधो रे ॥३१॥कं० ॥ नीसइ सूर्णकंद नषेदो, थेग लोढ नही सारो रे । नीली मोथि कुंआरि म खाओ, पापतणो नही पारो रे ॥३२।। कं०॥ लुण वीर्षनी छाल्यने तजीइ, गर्णी पलव पांनोरे । कुंलां कुपल वांसह केरां, दीजइ तसइ अभइदांनो रे ॥३३॥ कं० ॥ शाकभेद पलक पणि जाणो, मुलग शणगां धांनो रे । सताओरि ढकवछल वारो, जो कांई होइ तुम सानो रे ॥३४ ॥ कं० ॥ नीलो वलीअ कचुर न खाईइ, घरसुआं नीसी षात्यो रे । आलु कुलि आंब्यली वारो, जिम बइसो सुरपांत्यु रे ॥३५॥ कं० ॥ सुरीवाहालुलि वलिअ खलइडां, गाजर वलिअ वखोड्य रे । भोमी रहइ पीडाल वसेको, ते खाता बहु खोड्य रे ॥ ३६ ॥ कं० ॥ लुंण वेलि बुराल न भखीइ, खांता कस्युअ वखांणो रे ।। वेद पूरांण सीधांतिं वायुं, को म म खायु जाणो रे ॥३७॥ कंद० ॥
. दूहा० ॥ जांण अजाणां चीतवो, जे नवी राखइ आप । खाय-अखाय न ओलखइ, लहइ पून्य नि पाप ॥३८॥ कर्म अंगाल न कीजीइ, जीहा बहु हंशा होय । नरभव दोहोलिं तिं लघु, आलि अर्थ म खोय ॥३९ ॥
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ढाल ६८ ॥ देसी० हीरविजइ गुणपेटी० ॥ राग - विराडी ॥ कर्म अंगाल न कीजइ भाई, पातिगनो नही पारो । बहु आरंभ करंतां पेखो, नर्ग लहइ नीरधारो, भवीका, अग्यनकर्म नवी कीजइ, अतीअनुकंपा रीदइअ धरीनिं, अभइदांन जगि दीजई, भवीका, अग्यन कर्म नवि कीजइ ।।आचली ॥४०॥ आगर ईटिनी हिमा नवी कीजइ, बहुरी(रां)गणीजे ल्याहाला । कर्म कुकर्म करंतां भाई, जीव होइ अतीकाला ॥४१॥ भवीका०॥ करसण वीर्ष म म छेदीश जन तुं, सीख देउ तुझ सारी । पूफ पत्र फल सोय सुडंतां, हंसा राखे वी(वा)री ॥४२ ॥ भवीका० ।। गाडी वइहइल्यु हल दंताला, नावी जे नीपजावी । सो पणि वणज तजइ नर जेता, तस मति चोखी आवी ॥४३॥भ० ।। गाडावाही म करो मानव, चोमासइ चीत वारो । थाइ प्रथवी सकल जंतमइ, हीत करी ते ऊगारो ॥४४॥ भ०॥ दयाधर्म जगि सारो, भ० ॥ आतम आपसो तारो, भ० ॥ को म म प्रांणी मारो, भ० ॥ लाधो धर्म म म हारो, भ० ।। फोडीकर्म न कीजइ भाई, कुप सरोवर वाव्यु । भोमिफोड कीओ द्रहइ कारणि, नर भव्य सो नवि फाव्यो ।। ४५ ॥भ०॥ मच्छ कच्छ मिंडक बहु बगला, एक एकनि मारइ । पापतणुं भाजन ए करतां, आप केही परी तारइ ॥४६ ॥ भ०॥
दुहा०॥ आप केही परि तारसइ, करतो भाजन पाप । वणज कुवणज न परहरइ, ते कीम छोडइ आप ॥४७॥
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ढाल ६९ ॥
देसी० भावि पटोधर विरनो० ॥ राग- गोडी ॥ पांच वणज किम कीजीइ, दंत चमर नख जोय । कस्तुरी मणी पोईशा, मोती शंख ज सोय ॥ ४८ ॥
पांच वणज किम कीजीइ । आचली० ॥
आगरि एहनिं जई करी, नवि लीजइ सही जाण्य । पाप विरध्य अती पामसइ, पूण्यतणी वली हांणि ॥ ४९ ॥ पांच० ॥
लाखवणज नवि कीजीइ, साबु सोमल खार
लुण गलि अनि आबुआ, वोहोरि पाप अपार ॥ ५० ॥ पाच० ॥
अरणेटो तुरी धावडी, मणशल निं हरीआल ।
महुडी साहाजीअ म वोहोरजे, वारु छु वध बाल || ५१ || पाच० ॥
वलि वछनाग न वोहोरीइ, जे विष केरी जाति ।
अन्न शल्यां रे वणजी करी, प्रांणी मम दूरगति घाति ॥५२॥ पाच० ॥
कंदनई मुल ते टालीइ, वणज भलो नही एह । श्रीजिनधर्म हेलावतां, अतिदूख पांमइ देह ||५३ || पाच० ॥
रसवाणज नवि कीजीइ, मध मांखण निं मीण ।
चोथु चीड ते टालीइ, जिम नवि थईइ हीण ॥ ५४ ॥ पाच० ॥
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केसवणज म म को करो, एहनुं पाप अपार ।
दूपद चोपद लेई वेचतां, ऊतम नही आचार || ५५ || पाच० ||
लोहवणज पणि वारीओ, म म वेचो हथीआर ।
पापोपगर्ण ए कह्या, म करो जीवसंघार ||५६ || पाच० ||
दूहा० ॥ पापोपगण म म करो, म करो लोहो हथीआर । घांणी जंत्र निं घंटला, करतां पाप अपार ॥ ५७ ॥
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ढाल ७० ॥
देसी ० तुगीआगीरसीखरि सोहइ० ।। राग- परजीओ ॥ जंत्रपीलण जन न कीजइ, घ्यंट घांणी जेह रे । ऊखल मुसल जेह कोहोलुं, तु म वाहीश तेह रे ॥ ५८ ॥ जंत्रपीलण जन न कीजइ ॥ आंचली० ॥
जंत्र वाहातां जीव केता, प्राणविहुणा थाय रे ।
तेणइ कारणि ए कर्म तजीइ भजो अवर उपाय रे ॥ ५९ ॥ जंत्र० ॥
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आंक पाडइ पूण्य हारइ, तजि नालछेदन करम रे । कर्ण - कंबल कांइं कापो, जो जाणो जिनधर्म रे ॥ ६० ॥ जं० ॥
बाल तुरंगम वच्छ पूर्षा, नर समारइ सोय रे ।
नीचगती ते लहइ नीसचइ, वली नपूसक होय रे ॥ ६१ ॥ जं० ॥
दव लगाडइ पसु बालइ, सो सुखी किम थाय रे ।
छेदन भेदन लहइ नर ते, भाष [इ] श्री जिनराय रे ॥ ६२ ॥ जं० ॥
कुआ वाव्यु द्रहइ म सोसो, जीव केति कोडि रे । प्रांण परनो ज्याहा हणाइ, एह मोटी खोड्य रे || ६३ || जंत्र० ॥
मछ कसाई अनि तेली, वागरी ववसाय रे ।
नीच जननी संगति करतां, हंस मइलो थाय रे ॥ ६४ ॥ जं० ॥
स्वान कुरकुट मांजारा, पोषीइ कुण कांम्य रे ।
एह पनर खरकर्म टालु, वसो सीवपूर ठाम्य रे ॥ ६५ ॥ जं० ॥ दूहा० ॥ सीवपूर ठांमि सो वसइ, जे नवी करइ कुकर्म । अष्टम वरतिं जे कछु, सुणिहो तेहनो मर्म ॥६६॥
ढाल ७१ ॥
देसी ० तो चढीओ घन मानगजे० ||
व्रत आठमु एम पालीइ ए, टाले अनर्थडंड तो । खेला नाटिक पेखणु ए, नवि जोईइ पाखंड तो ॥ ६७ ॥
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वाघछालि नवि खेलीइ ए, तु मन चारे आप तो । शेत्रुज बाजी सोगठां ए, रमतां लागइ पाप तो ॥ ६८ ॥ जु म म खेलीश जुवटइ ए, होइ तुझ धननी हांण्य तो । नल दवदंती पंडवा ए, दूतिं दूखीआं जाण्य तो ॥ ६९ ॥
राजकथा निं स्त्रीकंथा ए, देसकथा म म दाख्य तो । भगतिकथा नवि कीजीइ ए, तु मन वारी राख्य तो ।। ७० ।।
पाप - उपदेस न दीजीए ए, देतां पूण्यनी हांण्य तो । खांडां कोश कटारडां ए, दीधरं दूर्गती खाण्य तो ॥ ७१ ॥
सुडी पाली पावडो ए, रांभो हल हथीआर तो । लोढी पइंणो काकसी ए, करइ जीवसंघार तो ॥ ७२ ॥
ऊषल मुसल रर्थ कह्या ए, पीलण पीसण जेह तो । जो हीत वंछइ आतमा ए, माग्या मापीश तेह तो ॥ ७३ ॥
हीचोलइ नवि हीचीइ ए, जलि झीलि स्यु होय तो । पाप करतां प्रांणीओ ए, मोक्ष न पोहोतो कोय तो ॥ ७४ ॥
भिसा घेटा बोकडा ए, कुरकुट निं मांजार तो । मलवढता नवि जोईइ ए, ए पेखि स्यु सार तो ।। ७५ ।।
चोर सतीनि बालतां ए, जोवानी सी खांत्य तो । ऊशन कर्म तीहां बांधीइ ए, तो वार्यु भगवंत्य तो ।। ७६ ।। माटी कणह कपासीआ ए, नील फूलि जल जेह तो । काज विनां कां चांपीइ ए, हईइ वीचारो तेह तो ।। ७७ ।।
जल तक घी तेलनां ए, भाजन भावि ढंक्य तो । उघाडां नवि मुकीइ ए, जीन पडइ ज असंख्य तो ॥ ७८ ॥
सूडा सालि पोपटा ए ते पंजर म म घात्य तो । बंधन सहुनिं दोहेलु ए, किम जाइ दिनरात्य तो ॥७९॥
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माग्यु अग्यन न आपीइ ए, परजलतां बहु पाप तो । जीव वणसइ बहु भात्यना ए, जिम जिम लागइ ताप तो ॥ ८० ॥
दूहा० ॥ माग्यो अग्यन न आपीइ, अनि वली लोहो हथीआर । अनर्थडंड एम टालिइ, तो लहीइ भवपार ॥८१॥ पांच अतीचार टालीइ, कंद्रप राग कुभाष । अधीकर्णा पाप ज वलि, भोगि बहु अभीलाष ॥८२॥ ए व्रत भाष्यु आठमुं, नोमु सोय नीध्यान । सांमायक व्रत संभलो, जिम पांमो बहुमांन ॥८३।।
__ ढाल ७२ ॥ [देसी०] वंछीतपूर्ण मनोहरु० ॥ राग-शामेरी ।। व्रत सांमायक पालीइ, अनि पांच अतीचार टालीइ । गालिई कर्म कठण कई कालनां ए ॥ ८४ ॥ देह कनकनी कोडी ए, नही सांमायक जोडी ए । थोडीए पूण्यराश जगी तेहनी ए ॥ ८५ ॥ सो सांमाइक लीधू ए, मन मइलु जे पणी कीधु ए । सीधु ए काज न एकु तेहy ए ॥ ८६ ॥ सावदि वचन न न दाखीइ, शरीरादीक थीर करी राखीइ । भाखीइ पद कर पुंजी मुकीइ ए ॥ ८७ ॥ सांमाईक व्रत जे का, अनि छती वेलांइं नवी ग्रह्यु । एम कडं लेई काचु कां पारिउं ए ।।८८।। एक वीसारइ पारवं, ते नरनिं अती वारवु । संभारदुं पांच अतीचार परीहरो ए ॥ ८९ ॥
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दूहा० ॥ पांच अतीचार परीहरो, सांमायक सही राख्य । थीर मन वचन काया करी, सावदी वचन म भाख्य ॥१०॥ च्यार सांमायक चीतवो, समकीत श्रुत वली जेह । देसवरती त्रीजु कहुं, सर्ववरती जगी जेह ॥९१॥ सांमायक व्रत पालतां, बहुं जन पाम्या मांन । परत्यग पेखो केशरी, लघु जेणइ केवलन्यान ॥९२।। सागरदत संभारीइ, कामदेव गुणवंत । सेठि सुदरसण वंदीइ, जेणइ राख्यु थीर च्यंत ॥१३॥ चंद्रवतंसुक राजीओ, सांमायक व्रत धार । चीत्र पोहोर थीर थई रह्यु, करि काओसग नीरधार ॥९४|| सांमायक स्युध पालता, सही लीजइ तस नाम । व्रत दसमुं हवइ संभलु, जिम सीझइ सही काम ॥९५॥
ढाल ७३ ॥ चोपई ॥ देसावगाशग दसमु व्रत, जे पालइ तस देह पव्यत्र । लेई वरत नि नवि खंडीइ, पाच अतीचार तिहा छंडीइ ॥९६ ॥ ऊतम कुलनो ए आचार, नीमी भोमिका नर नीरधार । तिहाथी वस्त अणावइ नही, आंहांथी नवि मोकलीइ तही ॥९७ ॥ रूप देखाडी पोतातणुं साद करइ अती त्राडइ घणुं । नाखइ काकरो थाइ छतो, कां तु कुपि पडइ देखतो ॥९८ ॥
- दूहा० ॥ ऊंडइ कुपि ते पडइ, जे करता व्रतभंग । भवि भवि दूखीआ ते भमइ, दूलहो स्युधगुरु-संग ॥९९॥ ए व्रत दसमु दाखीउं, का ते शाहास्त्रवीचार । हवइ व्रत सुणि अग्यारमुं, जिम पांमइ भवपार ॥८००।।
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ढाल ७४ ॥ चोपई ॥ अग्यारमु व्रत तुं आराधि, सुधो मारग तुं पणि साधि । ओहोरतो पोसो कीजीइ, मुगतितणां फल तो लीजीइ ॥१॥ पोसो पूण्यतणो भंडार, परभवि जातां ए आद्धार । मनस्युधिं आराधइ जेह, अनंत सुख नर पांमइ तेह ॥२॥ पांच अतीचार एहना टालि, संथारानि भोमि संभालि । ठंडिल पडलेही वावरो, भवीजन लोको विधि आदरो ॥३॥ प्रठवीइ ज्यांहां जइ मातरू, पहइलु द्रीष्टिं जोईइ खरू | 'अणजांणो जसगो' कही, प्रठवीइ जइणाई सही ॥४॥ वार त्रणि कहीइ वोशरे, नीसही आवसही मनि धरे । कालवेलां वांदीजइ देव, पोसानि एम कीजइ सेव ॥५॥ प्रथवी पांणी तेऊ वाय, वनसपति छठी त्रसकाय । संघट एहनो नवि कीजीइ, पोसानुं फल एम लीजीइ ॥६॥ दिवसिं न्यंद्रा कीधी घणी, संथारापोरश नवि भणी । अवधइ संथार्यु वलि जेह, मीछादूकड दिजइ तेह ॥७॥ पोषध वली असुर्यु करइ, पारी वहइलु घरि संचरइ । भोजननी वलि च्यंत्या करइ, कहइ तुझ काज केही परि सरइ ॥८॥ परबतिथिं पोसो नवि कीओ, मीछादूकड तेहनो दीओ । अंगि अतिचार कां तुम्य [दिओ] पोतानो समझावो हिओ ॥९॥
दुहा० ॥ आप हईउं समझाविइ, कीजइ तत्त्ववीचार । पोषध पूण्य किआ व्यनां, कहइ किम पांमीश पार ॥१०॥ ए व्रत सुणि अग्यारमुं, वरत सकलमांहां सार । वली व्रत बोलुं बारमुं, ऊत्तमनो आचार ॥११॥
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ढाल ७५ ॥
देसी० वीजय करी धरि आवीआ० ॥ राग-केदारो ॥
बारमु व्रत एम पालीइ, दीजइ मुनीवर दांन । दान देई रे भोजन करइ, तस घरि नवई नवई नीध्यान ॥१२॥
अति[थि] संविभाग व्रत कीजीइ, दीजीइ जे मुनी हाथि । ते पणि आपण लीजीइ, पूण्य होइ बहु भाति ॥ १३ ॥
साध भलो अनिं साधवी, श्रावक श्राव्यका सोय । शंघ सकलनिं रे पोखतां, पदवि तीथंकर होय || १४ ||
पाच अतीचार जे कह्या, ते टालु नरनार्य । आहार असुझतो आपतां, दोष कछु रे वीचार्य ॥१५॥
अणदेवा बुध्य कारणं, आहार असुझतो कीध । भवि भवि दूखीओ ते भमइ, कर नवि ऊचो की ||१६||
आहार हुतो रे असुझतो, ते म म सुझतो सार्य । अंगि अतिचार आवसइ, पंडीत सोच वीचार्य ॥१७॥
वस्त हती रे पोतातणी, ते किम पारकी कीध । पारकी फेडी आपणी, भाषी मुनीवर दीध ॥१८॥
ढाल ७६ ॥
देसी० वीवाहलानी ॥ बीजो ऊधार जाणीइ० ए ढाल || वइहइरवा वेलां रे जव थई, तव जई खुणइ अपसइ । सलज वहु जिम वणिगनी, ते किम बाहइरि बइसइ ॥ १९ ॥
असुर करी आव्यु तेडवा, जव गयु आहारनो कालु । जे नर चरीत्र अस्यां करइ, तेहनिं पाप वीसालु ||२०||
साधर्मीक वली आपणो, सीदातो पण्य जांणी । सारसंभाल जो नवि करी, तो तुझ सुमत्य लुटाणी ||२१||
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दीनऊधार ते नवि कीओ, सी ल्यष्यमी तुझ बार्यु ।
अतिऊडु धन घालतां, जाईश नर्ग मझार्य ॥२२॥ तन धन यौवन कार्यमुं, संचिं स्यु सूख होयु । दीधा दिन नवी पांमीइ, रीदअ वीचारीअ जोयु ॥२३।।
ढाल ७७ ॥ चोपई० ॥ पूण्य विनां नवि पांमइ कोय नर दीधांना फल तु जोय । एक नर बइसइ जो पालखी, एक ऊपाडी थाइ दूखी ॥ २४ ॥ एक नर हाथी हिंवर हार्य, एकनि नही एक छालुं बार्य । एक नरनि मंदीर मालीआं, एक झुपडीइं सो जालीआ ॥२५॥ एक नर नारी दीसइ घणी, एक नर नार्य विनां रेवणी । एक नर भोजन अमृत आहार, एक नर घइश तणो ज वीचार ॥२६|| एकनि पलंग पछेडी पाट, एकनिं न मलि त्रुटी खाट । एक नर पहइरइ सालु वली, एक नरनिं न मलइ कांबली ॥२७॥ एक नारी गलि मोतीहार, एकनि चीड नही नीरधार । दीधानां फल जोयु वली, सालिभद्र घरि संपद भली ॥२८॥ एक राजा एक मुली वहइ, दत्त वहुणा एम दूख सहइ । पगि दाझइ नि माथइ बलइ, रातिदिवश परमंदीर रलइ ॥२९॥
दहा० ॥ पुण्य विना परघरि रलइ, दत्त विनां दूख जोय । एम जांणी पूण्य आदरो, जिम घरि लछी होय ॥३०॥ संपइ सुख बहु पांमीइ, जो दीजइ नीत्य दांन । मुख्यथी मीठु बोलीइ, धरीइ जिनवर ध्यान ॥३१॥ ध्यान धरी भगवंतनुं, जीव सकल ऊगार्य । पोषध पूण्य प्रभावना, व्रत बारइ चीत धार्य ॥३२॥
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बार वरत श्रावकतणां, मिं गायां मति सार । कवीको दोष म देखज्यु, हु छु मुढ गुमार ॥३३॥ आगइना कवी आगलिं हुं नर सही अग्यनान । सायर आगलि व्यंदूओ, स्यु करसइ अभीमान ॥३४॥ मात तात जिम आगलिं, बोलइ बालिक कोय । तेहमां साचु स्यु हसइ, पणि सांखेवु सोय ॥ ३५ ॥ भणतां गुणतां वाचतां, कवी जोयु वली दोष । नीरमल च्यंतिं चरचज्यो, दोष म देज्यु फोक ॥ ३६ ॥
ढाल ७८ ॥ चोपई ॥ फोकट दोष म देज्यु कोय, नरनारी ते सुणयु सोय । कुड कलंकतणुं फल जोय, वसुमती ते वेशा होय ॥३७॥ शाहास्त्रइं पूर्ष कह्या छइ दोय, ऋषभ कहइ ते सुणज्यु सोय । एक हंस बीजो जल-जलु, जिम मशरु जोडिं कांबलो ॥३८॥ हंस सरीखा जे नर होय, तेहना पग पूजो सहु कोय । ध्यन जनुनीइं ते जगी जण्यु, कवीजन लोके लेखइ गण्यु ॥३९॥ हंस दूध जलमाहाथी पीइ, नीर व्यदूओ मुख्य नवी दीइ । तिम सुपरष गुण काढी वहइ, पर अवगुण ते मुख्य नवि कहइ ॥४०॥ जलु सरीखा जे नर होय, तेहगें नाम म लेस्यु कोय । सकललोकम्हां ते अवगण्यु, ऋषभ कहइ नर ते कां यण्यु ॥४१॥ जलुतणी छइ परगती असी, वंटु रगत पीइ ओहोलसी । सखरू लोही मुख्य नवी दीइ, तिम माठो नर गुण नवी लीइ ॥४२॥ जलुसरीखा जगम्हा जेह, अती अधमाधम कहीइ तेह । पर अवगुण मुख्य बोलइ सदा, गुण नवी भाषइ ते मुख्य कदा ॥४३।।
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दुहा०॥ गुण ग्यरुआ गुणवंतना, जे नवि बोलइ रंगि । परभवि दूखीआ ते थसइ, सरजइ दूबल अंग्य ॥४४॥ गुण गाइ गुणवंतना, ते सुखीआ संसार्य । परभवि सूरसूख भोगवइ, जिहा बहु अपछर नार्य ॥४५॥ जो हीत वंछइ आतमा, तो परनंद्या टालि । मुख्यथी मीठु बोलीइ, भटक न दीजइ गालि ॥४६।। सुगरूवचन संभारयु, करज्यु परउपगार । जईनधर्म आराधज्यु, व्रत वहइ ज्यु सिरि बार ॥४७॥
ढाल ७९ ॥ देसी० मेगल मातो रे वनमाहि वसइ० ॥ राग-मेवाडो ॥ बार वरतनि रे जे नर सि [र वहइ] [तस] घरि जइजइ रे कार । मनह मनोर्थ ते वली तस फलइ, मंदिर मंगल च्यार ॥४८॥
[बार वरतनि] रे जे नर सिर वहइ । आचली० ॥ भणतां गुणतां रे संपइ सुख मलइ, पोहोचइ [मनि त]णी आस । हिंवर हाथी रे पायक पालखी, लहीइ ऊच आवास । ४९ ॥
बार वरतनिं०॥ सुंदर घर्णी रे दीसइ सोभती, बहइनी बांधव जोड्य । बालिक दीसइ रे रमता बारणइ, कुटंबतणी कई कोड्य ॥५०॥ बा० ॥ ग्यवरी मइहइषी रे दीसइ दूझतां, सुरतरु फलीओ रे बार्य । सकल पदारथ मुझ घरि मि लह्या, थिर थई लछी रे नार्य ॥५१।। बा० ॥ मनह मनोर्थ माहारइ जे हतो, ते फलिओ सही आज । श्रीजिनधर्मनिं पास पसाओलइ, मुझ सीधां सही काज ॥५२॥ बा० ॥
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दहा० ॥ काज सकल सीधां सही, करतां वरत-वीचार । श्रीगुरुनांम पसाओलइ, मुझ फलीओ सहइकार ॥५३॥
ढाल ८० ॥ देसी० कहइणी कर्णी०॥ राग-ध्यन्यासी ॥ मूझ अंगणि सहइकार ज फलीओ, श्रीगुरुनांम पसाइजी । जे रषि मुनीवरमां अतीमोटो, वीजइसेनसुरिरायजी ॥५४॥ मुझ अंगणि सहिकार ज फलीओ, श्रीगुरुचर्ण पसाइजी |आचली० ॥ जेणइ अकबरनृपतणी शभामां, जीत्यु वाद वीचारीजी । शईव शन्यासी पंडीत पोढा, सोय गया त्याहा हारीजी ॥५५॥ मूझ. ॥ जइजइकार हुओ जिनशाशन, सुरीनाम सवाई जी । शाही अकबर मुष्य ए थाप्यु, तो जगमाहि वडाई जी ॥५६॥मूझ०।। तास पटि ऊग्यु एक दीनकर, सीलवंतम्हां सुरोजी । वीजयदेवसुरी नाम कहावइ, गुण छत्रेसे पुरो जी ॥५७॥ मूझ० ॥ तपातणो जेणइ गछ अजुआलु, लुघवइम्हां सोभागी जी । जस सिरि गुम् एहेवो जइवंतो, पूण्यराश तस जागी जी ॥ ५८ ॥ मूझ० ॥
ढाल ८१ ॥ देसी० हीच्य रे हीच्य रे हईइ हीडोलडो० ॥ राग-ध्यन्यासी० ॥ पूण्य प्रगट भयु पूण्य प्रगट भयु तो मन्य मुझ मत्य एह आवी । रास रंगिं कर्यु सकल भव हुँ तर्यु पूण्यनी कोठडी मूझह फावी ॥५९॥ पूण्य प्रगट भयु २ ॥ आंचली० ॥ सोल संवच्छरि जाणि वर्ष छासठि, कातीअवदि दिपकदाढो । रास तव नीपनो आगमि ऊपनो, सोय सुणतां तुम पूण्य गाढो ॥६०॥
पूण्य० ॥
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दीप जबुअ माहा खेत्र भरति भलु, दे [स गुजरा]तिम्हा सोय गास्यु । राय वीसल दडो च्यतुर जे चावडो, नगर विसल [तिणइ वेगि] वास्यु
॥६॥ पूण्य० ॥ सोय नगरिं वसइ प्रागवंसि वडो, मइहइराजनो सूत ते [सीह] सरीखो। तेह त्रंबावतिनगरवाशिं रह्यु, नाम तस संघवी सांगण पेखो ॥६२॥
पूण्य० ॥ एहनिं नंदनि ऋषभदासि कव्यु, नगर त्रंबावतीमाहिं गायु । पूण्य पूर्ण भयु काज सषरो थयु, सकल पदार्थ सार पायु ॥६३।।
__ पूण्य प्रगट भयु० २ ॥
अतीश्रीवरतवीचाररास संपूर्ण ॥ संवत १६७९ वर्ष चईत्र वदि १३ गुरुवारे लषीतं ॥ संघवी ऋषभदास सांगण० ॥ गाथा० ॥ ८६२ (३) ॥
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कडी
क्रमांक
३
३
६
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१२
१३
१४
१५
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२१
२२
2 2 2 2 2 2
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२४
२४
२५
२५
व्रतविचास्यस
शब्द
चरण
क्रमांक
३
४
४
३
३
२
साद्ध
विसायांहा
सार्द
मुर्यख
मुख्य
यम
सहइकारो
लंक
पनडु
बइहइरखा
जासु
उंगल
गुजा
शमइ
दाम्यनी
कीर्नी
अधुर डाडिम - कुलि
हीडोलड्यो
नगोदर
वाशग
राखडी
पीटली
शब्दकोश
अर्थ
साधु विश्वा-वसा
शारदा
मूर्ख - मूरख
मुखे मुखमां
जिम
सहकारी- आंबो
वळांक-मरोड
पान - पांदडुं बेहेरखा - बेरखा-बाजुबंध
जासुल - जासुद
अंगुलि
गुंजा - चणोठी
सम
दामिनी - विजली
कीरनी - पोपटनी
अधर
दाडम - कली
हींडोलो
कंठाभरण - कंठो
वासुकीनाग
मस्तकनुं आभूषण कर्णाभरण - कुंडल
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Www moc
स्युक भखी ताय अंद्री आलुअणी
वीनो
४०
oc moc c
४१
or
ococc
mr
शुक भक्ष्य • त्याग इंद्रिय आलोयणा-प्रायश्चित्त विनय वैयावच्चा० पातक एकचित्त योगे सौम्यप्रकृति क्रूरदृष्टिए दाक्षिण्य मध्यस्थवृत्ति लब्धलक्ष्य धरजो अतिशय अरिहा-तीर्थकर मयगल-हाथी उपभोग अविरतिने पोहेचइ-पहोंचे सहजना पर्षदा योजनगामिनी ईति-उपद्रव इंद्रध्वज
m
वयावछा० पात्यग एकच्यंत युगि सोमप्रगति करूरद्रीष्ट दारव्यण मध्यशरवर्ती लभधिलखी धर्यो अतीसहइ अरीआ मेगल अवभोगाइ अवर्तीनिं पोहइचइ सहइजना परखधा जोयणगाम्यणी
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३
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१
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३
अंद्रधज
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६४
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६५
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४
४
४
अस्योख
अधोमुख्य
विर्ष
कुअलु
रती
च्यंति
अंद्र
व्यनां
थीवर
भ्रमव्रत
क्यरीआ
त्रविधि
पइहइराव्य
सधहता
नखेपा
मईथन
लोढी
नषेधो
सुमति रखि
गुपति
इहइस्यु
स्युभंकर्णिना
बुद्ध
कोहोनुं
शाहास्वनो
प्रशन - रीदइ
लहइशइ
अशोक (वृक्ष)
अधोमुख
वृक्ष
कुमलो - कोमल
ऋतु
चित्ते
इंद्र
विना
स्थविर
ब्रह्मव्रत
किरिया - क्रिया
त्रिविधे ( मन-वचन-कायथी)
पेहेराव - (पहेरामणी कर)
सद्दहता - श्रद्धा करतां
निक्षेपा
मैथुन
लघुशंका
निषेधो
समिति- रक्षा
गुप्ति
रेहेस्यु-रहीशुं
शुभकरणीनां
बुद्धिए
कोईनुं - कोनुं
शास्त्रनो
प्रसन्नहृदय
लहेशे
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२
धन
سه
م
११७
. अशुचि
१२०
ه
ه
مر
به
१२४ १२५ १२५ १२६ १२६ १२७ १२७
مه
سه
مر
به
कामदेव
१२८
مه
रषि
२ ३
१२८ १३१ १३७ १४१ १४२
ध्यन पगारा
प्राकार-किल्ला अस्युच वइहइलो
वहेलो-वहेलो परीसइ
परीषह परीसा
परीषह परीसइ परीषह वडे चात्र
चारित्र रख्यजी
ऋषिजी ख्यध्या
क्षुधा माधवसूत त्रीषा
तृषा
ऋषि-मुनि पूत्र-चलाची चिलातीपुत्र अंग्यन वीनां अग्नि विना जाच्यनानो याचनानो ऊशभ
अशुभ योगो
तृण सइहइसइ सेहेसे-सहन करशे दइहसइ देहसे-दहशे-बाळशे अग्यनांन
अज्ञान कोटल लाखिं लाख कौटिल्ये सष्य
शिष्य शरि अग्यन शिरे अग्नि रषि श्रीशकोसी ऋषि श्रीसुकोशल त्यणि
तणी
له
مر
له
१४४
به
युगो
१४५
یه
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مر
१४५
ہ
१४९
مر
१५०
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م
१५४
१५५
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१५६
१५६
له
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अनुसंधान - १९
१६०
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१७७
१७७
१८०
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१८४
१८४
१८६
१८६
३
α
घर्णी
मन्य
श्रीषा
दांन अदिता
कर्णसीत्यरी
चर्णसीत्यरी
आग्यना
भष्य
शरइ
स्क्रीत
कुप्य
आलि
टीबडीब
आक
षांब
षासर
सीप
क्यरपी
क्रोध
सकार
पुर्ष
जगसंघा
ख्यन
अतबंग
लंग
ईव
सरजाडसइ
घरणी - घरवाली (शियालण)
मनमां
मृषा-असत्य
अदत्तादान- चोरी
करणसित्तरी
चरण सित्तरी
आज्ञा
भक्ष्य
शिरे
सुकृत
कुपि - कूवामां
जूठा
टबकुं- टपकुं
आकडो अर्क
खाबोचिया
खासडुं
छीप
कृपण
क्रोध
श्रीकार - भलीवार
पुरुष
जग-संहारण
क्षण
अडबंग
लिंग
शैव
सर्जन करशे
101
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ه
१९३३
ه
ه
م
१९३५ १९५
سه
و
१९५४ १९६३
سه
مر
مر
२०१ २०२४
مه
२०६
به
له
م
سه
संघारइ भ्रम धणि मुज अइअहीला अन पइहइलो नर्ग्य गुर्ड कबीरदति जग्यह असत मोक्यलां लोहशला भवअर्णम्हां पांत नव्य खाण्य स्यांहानि वतीकंता वतीआ० वची मथो हवकार्यु इतानी गई नित्यकर्णी रीदइम्हा आवशग चोवीसहथो
संहारे ब्रह्म प्रिया (सीता) मुंजराजा अहल्या अन्न पेहेलो नरके गरुड कुबेरदत्ते यज्ञ अस्त मोकलां-स्वच्छंद लोहशिला भवअरण्यमां पातक-पाप नवि खाण- (४ गतिमां) शाने . वृत्तिकांतार सव्वसमाहिवत्तिया० वच्चे माथु होंकार्यु एटलानी गति-गत नित्यकरणी हृदयमां आवश्यक चउवीसत्थव (लोगस्स)
२११ २१२४ २१३ २१६२ २१६ २१९
ه
ه
ه
३ ३
..
ه
م
२२२ २२२ २२२६
سه
३
م سه به
२२४२ २२४३ २२५
سه س
३
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अनुसंधान - १९
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२७२
२७३
२७४
२७६
२७७
१
४
४
४
३
३
२
WAC
४
माहारकंड रष्य
ग्रीही०
वईदकशाहासत्रिं
विमन
नर्णइ
अर्णभोमि
अवरती
ओहोलाश
घ्यर्त
पूसतग
श्रावि
क्यरपीनं मन्य
वशवांनर
ल्यष्यमी
सुपत
हिंवर
ओटइ
ओलग
प्रतलाभीओ
नहइसार
कीर्ती
छाहार
घ्यरत - व्यहुणो
वेणा
गलइ
ष्यायक
षइ
मार्कंड ऋषि
गृही - गृहस्थ०
वैदकशास्त्रमां
वमन
नर
अरण्यभूमिए
अविरति
उल्लास
घृत- घी
पुस्तक
श्राविका
कृपणने मन
वैश्वानर- अग्नि
लक्ष्मी
सुपात्र
हयवर घोडा
ओटे-ओटले
ओलख
प्रतिलाभ्यो- दान आप्युं (मुनिने)
नयसार
कीर्ति (दान) थी
राख
घृत-विनानो
वीणा
गले
क्षायिक
क्षय
103
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२८७
سه
सधइणां व्यन
مه
इस्युभ
२९३
२
महइला कार्य
مر
सीवगांम्यु
ه
२९८८ २९९
सद्दहणा विण अशुभ महिला कारणे शिव-गामे (मोक्षे) ठकुराई-ऐश्वर्य विपरीत-अलगां पापपुर (नगर)मां अंगारा (?) रायपसेणीसूत्र
२
مر
४
ठुकराई अफराटा पापपूर्मा ल्याहालो राजप्रष्णी
ة
مر
३०२ ३०४ ३०७ ३०७ ३०९ ३१० ३११२
ه
कार्ण
कारण
ه
ه
ه
३१२
ه
س
३१३ ३१५
مر
३१७
یه
उंहुनुं
३१७
له
चार्ण
चारण अष्यर
अक्षर (शास्त्रवचन) नर्षो
निरखो चमरेदो मर्ण चमरेन्द्र मरण हंशा
हिंसा मोहोपोत मुखवस्त्रिका
उनु-गरम तार्दू अन टाढुं-ठंडं अन्न (रसोई) वइहइरावइ व्होरावे कुर्णावंत करुणावंत मुद्रा
नाणुं-सिक्को वस्त वोहोरेवा वस्तु लेवा कडको कडछो, लाकडु के तेवी
कोई चीज के थपाट (?) यतीयन कलपनो (स्थविर)यतिजन कल्पनो मुन्यना मुनिना
३१७
سه
سه
३२१ ३२६
م
३२७
له
३२७
مه
سه
३३८ ३३५
له
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अनुसंधान - १९
३३८
३४०
३४५
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३५६
३५६
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३८७
३८८
३८८
३९२
. ३९४
३९६
३९८
३
३
४
उतकष्टो
दूपसो
बंबपत्रिष्ठा
संधेह
शंकाशल
बहुध
यंगम
डंड
अंद्रजालीआ
कर्ण
भव्य भव्य
वतीगंछा
वीस्वप्रकार
नंद्या
कोचोली
प्रगती
ष्यण्य०
कंडीइ
वणी
बाजाली
वेणोजंत्र
घांइंजा
रुबडी
गंहिंवर
चंदनजमलां
परीचो
यगनाथ
उत्कृष्ट
दुप्पसहसूरि
बिंबप्रतिष्ठा
संदेह
शंकाशल्य
बौद्ध
जंगम (परिव्राजक)
त्रिदंडी
इंद्रजालीआ
करणी
भवे भवे
विचिकित्सा
विश्वोपकारक
निंदा
कटोरी - प्याली
प्रकृति-स्वभाव
क्षण०
करंडिये
वळी (?)
तुंबडुं नदी तरवानुं
वीणायंत्र
हजाम
हजामनुं कोई उपकरण
गजवर
परिचय
जगनाथ
105
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March-2002
امر
३९९ ४०२
४०७
مر
४११
به
४११
س
प्रठवइ
संयुगी
ه
م
प्रेयाँ महेल
४११४ ४१२१ ४२० ४२० ४२२१ ४२२३ ४२३१
३ ३
مر
س
occc Cocococococc c ococ
مر
४२३
سه
४२३ ४२४ ४२५
३ २ २
कर्म वालादीक कृमि, वाळो आदि व्रधा
वृद्धा (स्त्री) अनुवर जोडीदारासोबती (?) धोंसर धूंसलं
नाखे
संयोगी परेयाँ म्होल अतिजाजर अतिजर्जरित बाओल
बावल ताति
तप्ति-बलतरा (पंचात) ख्यत्री
क्षत्रिय मंकड
मांकडु-वानर आल
अटकचाळो गुंझ
गुह्य-गुप्त वात राअंगणि राजाना आंगणे आराम
बगीचो दूत
द्यूत वेशा
वेश्या आहेडो
आखेट-शिकार संयुगिं (मसालो)मेळवेल कगरु
कुगुरु वछ
वछेरो/वाछरडो
सिंहण कुपर खबोलि सुपर खलोपइ विवाद्यु
विवादो
ه
४२६
ه
४२६
ه
م
२ २
مر
४२७ ४२७ ४२८ ४३०१ ४३४ ४३४ ४३५ ४३५ ४३८
مر
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د
مر
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२ ४
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अनुसंधान-१९
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१
له
४३९ ४३९ ४४१४ ४४३
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مر
४४५
مر
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२
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४४६
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२
४४८ ४४९ ४४९
पोलु
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م
४५०
سه
४५४
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तुर्णी
तरुणी व्रीध्यस्यु वृद्ध साथे मेहर मसो
मच्छर गंगा नि यम नाडि ईडा ने पिंगला नाडि ग्यरुओ
गिरुओ पलवाडि वाहो
वाह-अश्व (?) टालि
टाल (माथानी) शेन
सेना
पोल-प्रवेशद्वार अनो
अन्न पाहणो
महेमान षट वेद
छ चार दश संझेर्णठामि वलोणांना स्थाने (?) सारवणि
सावरणी (?) श्रीमानसीत श्री महानिशीथ (सूत्र) झालक
झापटवानी क्रिया टुंपो
(भीनु)गलगुं दबाववानी क्रिया संखारो
गलणामां जमा थयेल क्षार समोअण
ठंडं पाणी युन्य .
योनिओ परहंसा
पर-जीव तरस
त्रस संवर
साबर पराची
पुरार्जित-पूर्वे अर्जेला कातडी
कातर/करवत
४५७
سه
४६०
سه
४६८
مر
مر
२
४६६ ४६६ ४६८१ ४७०
مي
مير
४७१
سه
४७२
س
४७४ .
مر
४७७
مر
مر
४८२ ४८३
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५७०
१
४
४
३
३
३
३
३
साढसइ
रीदि
ग्यवरी
ध्यन ध्यन
सह्या
कुर्णा
अकाई
अण
लोढो
सहइजिं
कांकयु
तावडी
अग्य
जिगन
घर्णी
पटोल
लुढइ
बरी
सहइसाकारि
पीआरा
मोष्य
पायको
उपकंठ
वार्य
'कंन
भंसा खर
विष्य
साणसा थकी
हृदयमां
गाय
धन्य धन्य
सो
करुणा
खोटी रीते/खोटुं करीने
लेणुं (?)
गोलो (मांसनो लोचो)
सहेजे
वाल ओलवानुं साधन
तडकामां
अज्ञ (?) आगळ (?)
यज्ञ
गृहिणी
पटोले
ढळे / पडे
बकरी
सहसात्कारे
पराया
मोक्ष
March-2002
-धन (?)
(जलाशयना) कांठे
वारि - पाणी
कान
पाडा गधेडा
विष - झेर
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अनुसंधान-१९
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»
दिण ऊवटवाट
देवं-देणुं रझळपाट (?)
»
مر
संवल
भातुं
س
س
छबदि सेष सूररथाना
س
खीरो
ه
झोटु
ه
مر
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مر
शेषनाग सूर्यरथना क्षीरसागर जुवान भेंश महिला-पत्नी कलंक स्वच्छंद-विट विह्वल काजे जमदग्नि(ऋषि)ने योगे शोणित शुक्र (वीर्य) मनुष्य
م
५७०४ ५७१४ ५७४ ५७७ ५८२ ५८४ ५८५ ५८६ ५९१ ५९१
५९८ · ५९८
६०८ ६१३ ६१७ ६१७ ६१९ ६२० ६३२ ६३४ ६३४ ६३७ ६४१ ६४७ ६५२ ६५७
م
س
م
له
سه سه مر
मइहइला कलग विटल वीवल काय जमदगधनि युगि श्रुणी स्युक मुनीष वरला वशला वेढी परगति वस्यवानर दोहो दश शरीओ मणिरेहा द्रीष्टराग
مر
س
س
विशल्या वढवाड-लडवाड प्रकृति-टेव वैश्वानर दश दिशाए श्रीयक मदनरेखा दृष्टिराग
م
م
ع
ل
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६५ ६५
३ ९१ ९३
विप्रजाश विहीवा । तीवर उहोलसी
विपर्यास विधवा तीव्र उल्लसी कोणिक सूत्र (?)
له له
कोणी
६६७ ६७१ ६७३ ६७३
م
स्युत्र शाम्यनी
له
६७९
बर्द
»
له
६८२ ६९३
له
टेक । ख्याति गहन द्विपद-बेपगां ढीलुं (?) जलमार्ग विदिशा
६९५
مر
مر
६७८ ७०० ७०४
م
दिशानुं
ه
७०८
مر
७०९
مر
द्रव्य (खाद्य पदार्थ) वाहन व्यक्त
७०९
ه
७०९
ه
गहइन दूपद अल्लीदु जलिवटि वदश दशर्नु द्रवि वांहाणइ वगति सुअण वलेप नाहाण अचीत सचीत प्रतबध उपक-दूपक अग्यनकर्म शल्यां असुर्यु
७०९
م
७१०
له
७१२
له
७१२
سه
शय्या . विलेपन स्नान अचित्त-निर्जीव सचित-सजीव प्रतिबद्ध (युक्त) अपक्व-दुष्पक्व अग्निकर्म सडेलां मोडं-सूर्यास्तसमये
७१२
سه
ر
७१३ ७१४ ७१५ ७१६
مر
مر
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८०४
४
३
१
४
अभ्यष्य
अभिष्य
आपोपुं
पति
पूर्वय चलीतरस
खाय अखाय
वइहइल्यु
गाडावाही
भोमिफोड
आगरि
हेलावतां
पापोपगर्ण
वागरी
वाघछालि
152
जु
भगतिकथा
पईणो
मलवढता
अधीकर्णां
सावदि
परत्यग
ओहोरतो
प्रठवीइ
मातरु
जइणा
अभक्ष्य
अभक्ष्य
आपेआप
पत-वट
पूर्वज
विकृतरसवालुं
खाज अखाज
वहेल - वेलडुं
गाडुं वहेवानुं
धरती फोडवी
खाण
हीणो देखाडतां
पापोपकरण
जाल वेचना/ वाघरी
व्याघ्रचर्मे
जो
भोजनकथा
परोणो
रथ
लडाई करतां अधिकरण (पापसाधन)
सावद्य सपाप
प्रत्यक्ष
अहोरात्र
परठववुं - नाखवुं
लघुशंका (पेशाब)
यतना
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८०५
اس
८०६
مر
संघट न्यंद्रा अवधइ संथार्यु
८०६
س
८०६
س
واها
مر
असुर्यु
८१८
له
असुझतो बुध्य
स्पर्श निद्रा अविधिथी सूतुं मोडो अशुद्ध-दोषित बुद्धि शुद्ध-निर्दोष लज्जाशील बारणे/घरे बोकडो (?)
م
८१६
مه
सुझतो
८
سه
८२२
२
सलज बार्यु छालु
८२५
به
चीड
२ २ ३
दत्तवहुणा व्यंदुओ
سه
८२८ ८२९ ८३८ ८३८ ८४१ ८४२ ८५१ ८६०
जलु यण्यु
مه
दानविहोणा बिंदु जलो जण्यु-पेदा कर्यु चोक्खुं महिषी-भेंस दीवाली-दहाडो
سه
१ २
सखरु मइहइषी दिपकदाढो
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श्रीहीरसागर कृत स्तवन चोविशी ।
-सं. मुनिजिनसेनविजयजी लींबडी ज्ञान भंडारनी ९ पानांनी आ प्रत चोवीश जिनेश्वर भगवंतनां स्तवनोनी छे. आ चोवीशी अप्रगट होवानुं जणायुं छे, आना कर्ता-रचयिता तरीके "श्री जिनचंद्र सूरीश्वर तणो हीरसागर गुण गायोजी" ए पंक्तिमां खरतरगच्छीय श्री जिनचंद्र सूरिजीना शिष्य हीरसागरजी छे तेवो स्पष्ट निर्देश छे. रचना संवत के लेखन संवत जणावी नथी परंतु प्रति उपरथी आनो लेखनकाल सत्तरमा सैकानो पूर्वार्ध गणी शकाय. स्तवनोमां शब्दो-उपमाओ व. खूबज आनंददायी छे.
लींबडीना भंडारमाथी ज आ स्तवनोनी बीजी पण एक प्रति प्राप्त थई छे. ते प्रमाणमां वधु अर्वाचीन छे. तेमां मळता पाठांतरो अहीं पादटीपमां नोंध्या छे.
श्री शारदायै नमः ।
श्री ऋषभजिन स्तवन अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी ए देशी ॥ ऋषभजिणेसर साहिब सांभलो, सेवकनी अरदासोजी ।। मनडुं मोडुं रे प्रभु चरणांबुजे, प्रभु पूरो मननी आसोजी ॥१॥ ऋ. । हुं सहती रे घणां दिवसनी, सफल थई मुझ आजोजी । मन-तन विकस्यां रे मालती फुल ज्युं, प्रभु सेवे अविचल राजोजी ॥२॥ ऋ.॥ मन प्रभु चरणे रे विलगुं माहरूं, जिम सुत मातने पासोजी । तिम प्रभु ध्याने रे सुख पामुं सदा, प्रगटे घणुं सुख वासोजी ॥३॥ ऋ. || सेठेजा केरारे प्रभुजी राजीया, उद्धर्या केई अनाथो जी । सरणागत जाणी स्वामी उद्धरो, किम छोडं अविहड साथोजी ॥४॥ ऋ.॥ सात राज जइरे अलगा तुमे वस्या, पण भगते चित्त हजूरो जी । करुणारस अमृत पीऊं सदा, जिम पामुं 'सुख भरपूरो जी ॥५॥ऋ.॥ जे जेमने रे जे जेहने मन वसे, ते तेहने मन पासोजी । मुझ मन प्रभुजी रे तुमे वसी रह्यां, आपो अविचल गुण वासोजी ॥६॥ ऋ.॥
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ए सेवकनी रे वीनती मानज्यो, दिन दिन लागुं रे पायोजी । श्रीजिनचंद्र सूरीश्वर तणो, हीरसागर गुण गायोजी ॥७॥ऋ.॥
इति श्री ऋषभदेव स्तवनं ॥ १. सुख पामु २. ते तेहने पासोजी । (मन शब्द नथी)
श्री अजितजिनस्तवन
नीदरडी वेरण० ए देशी ॥ सुगुण सने ही साहिबा अवधारो हो मुझ अरदास । चरण सेवक हुँ ताहरो महिर करी हो पूरो दासनी आस | सु० ॥१॥ मन मधु चरणे मोही रह्यो रस स्वादे हो रह्यो लपटाय । परिमल महेंके ए घणुं बीजा कुसुम हो नवि आवे दाय ॥ सु० ॥२॥ कर जाणे प्रभुजीने पूजीए रसना जाणे हो गुण गाऊं सदीव । नयण ते दरिसण नित चाहे नित ध्याये हो रत्नत्रय जीव ॥ सु० ॥३॥ उत्तम संगति अति भली जे भांजे हो अंतरनी पीड । अजित 'संगति मुझ मन वसी दूर करो हो भयभयनी भीड ॥ सु० ॥४॥ विनता नयरी जितशत्रु तणो विजयाराणी हो केरो नंद । श्रीजिनचंद्रसूरि तणो हीर प्रणमें हो सुख परमाणंद । सु० ॥५।।
इति अजित जिन स्तवनं ॥ १. संगत ।
श्री संभव जिन स्तवन । ईडर आंबा आंबीली रे । ए देशी ॥
संभव साहिब तुं धणी रे तारणतरण तुं देव । हरीहर देव अच्छे घणां रे अवर न चाहं सेव ॥१॥ जिणेसर ! तुं मुझ प्राण आधार, करो सेवकनी सार । ए आंकणी ।
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अनुसंधान-१९ सोहे सोवन 'सिंघासणे रे सोवनवरणी काय । तुरंगीसुत सेवा करे रे लंछण मिसि जिन पाय |जि०॥२॥
धन धन राजा जितारिने रे धनधन सेना माय । सावत्थी नयरीनो धणी रे, सूरि जन गुण गाय |जि० ॥३॥
बार उघाडें मुगतिना रे संभव सुख दातार । सार करो प्रभु माहरी रे वडभागी किरतार |जि०॥४॥
श्रीजिनचंद्र पूजो सदा रे जीम भवजलधि तराय । हीरसागर निझर करो रे दिन दिन अधिक पसाय ॥जि०॥५॥
__इति संभवनाथ गीतं ॥ १. सिंहासणे.
श्री अभिनंदन जिन स्तवन ।
सजणदलनी ए देशी ॥
श्रीअभिनंदन प्रभु माहरा सुखदाई महाराज जिनजी । नयण सलूणे लोयणे जोउं गरीब निवाज जिनजी ॥१॥अभि० ॥
लख चौरासी हुँ भम्यो घरघरमें मुझ वास जि० । चौद राजना चोकमां नाटिक कीधा खास जि० ॥२॥ अभि०॥
नाम कर्मना जोरथी नवनव बणाव्या वेस जि० । मगन थई तिणमें रह्यो किम संसार तरेस जि० ॥३॥ अभि० ॥
प्रगट्या पुण्य पूरव तणां मिलीया अभिनंदन नाथ जि० । हवे प्रभु महेर करो घणी सेवकने तारो ग्रही हाथ जि० ॥४॥अभि०॥
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March-2002
श्रीजिनचंद्र सेवक ताहरो हुं तो सेवा करूं करजोडि जि० । हीरसागर वंछीत इदीइं पुंहचे मननी कोडि जि० ॥५॥ अभि०॥
इति श्री अभिनंदन स्तवनं ॥
श्री सुमतिनाथ जिन स्तवनं ।
घरि आवो० ॥
सुमति जिणेसर सेवीइं ए तो सुमति तणो दातार । जस घटे सुमति वसे सदा तेह उतरे भवजल पार ||सु०॥१॥
सुमति सुमत गुणे भर्या ए विरत वधू भरतार । सुमत ने विरत ए बे मिली करे भविजननइं उपगार ।।सु०॥२॥
मेघ महीपति कुलतिलो धन धन मंगला मात । असरण ने सरण सहाय छौ प्रभु ! तुमे छो जगतना र तात ॥सु०॥३॥
नयण कमल दल पांखडी मुख सोहे पुनिम चंद । प्रभु, वदन निरखंतां सुमति प्रग? सुख कंद ॥सु०॥४॥
श्रीजिनचंद्र रिदय निहालिई सेवक जन तुम्हारो दास । हीरसागर प्रभु सुख घणां प्रभु ! आपो निकटें वास ।।सु०॥५॥
इति श्री सुमतिनाथ स्तवनं ॥ १. जगना तात, २. मुख, ३. तुमनो.
श्री पद्मप्रभजिनस्तवन
माहरु मन० ए देशी ॥ श्रीपद्मप्रभुजीनी करूं सेवना रे मन वचन' कायने जोग । प्रभु दीठे प्रभुता सांभरे रे हुइ निमित्तनो भोग ।।श्री०॥१॥
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अनुसंधान-१९
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जन्म मरण भय सोग दूरे गयो रे नाठा करम कठोर । परधन हरवा हरखें आवीया रे जिम नाठे दिनकर चोर ॥श्री०॥२।।
मोहमेवासी केडे चाले नहीं रे स्युं करीइं जगनाथ ! । राग द्वेष मद मच्छर घणुं रे आवीने द्ये छे बाथ ।श्री०॥३।।
नेक निझर साहमुं जोई करी रे गिरुआं ने गुणवंत । उपसम ध्यान तीर-तरकस ग्रहीरे अरि दूरि कर्या भगवंत ॥श्री०॥४॥
श्रीजिनचंद्र महिर करो घणी रे सेवक जन गुणगाय । हीरसागर प्रभु मंगल मालिक(का)रे अनुपम लच्छि सुहाय ॥श्री०॥५॥
इति श्री पद्मप्रभ जिन स्तवनं ॥ १. वच, २. नाठा. ३. माला रे.
श्रीसुपार्श्वनाथस्तवन
मागे महिनां दां० ए देशी ॥ श्री सुपास जिणेसरदेव करुणा कीजे रे । कांई महिर धरीने स्वामि सवि सुख दीजे रे ॥१॥ कांई मुझ मन मोडं आज प्रभु तुम चरणे रे । कांई अवर न आवे दाय न सूर्यु करणे रे ॥२॥ तुं छे त्रिभुवन नाथ साहिब साच रे । कांई सुरमणि छोडी हाथं कुण ले काच रे ॥३॥ सांभली मुझ अरदास अरज सुणीइं रे । कांई दुःख सह्या अनंत ते सवि भणीइं रे ॥४॥ लाख चौरासी मांहि नाटक' करीया रे । कांई नवनवा जे जे रूप अंगे धरीया रे ॥५॥
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बीजा दुःख अनंत न जाइ कह्या रे । इग बी ती चोरिंद्रि माहे दुःख सह्यां रे ॥६॥ तुमस्युं लागी प्रीति माहरी घणी रे । काई पतिव्रता नारी जिम समरे धणी रे ॥७॥ जेहने जेहस्युं प्रीति ते किम छोडे रे । काइ सरपाले जिम न्याय विछडे मोडे रे ॥८॥ खोटि नहि खजाने ताहरे पासे रे । आपतां गुणज एक श्युं ओछु थासे रे ॥९॥ माहरा मननी वात तुमे सवि जाणों रे । कांई अरज करावो एह हठ किम ताणों रे ॥१०॥ श्रीजिनचन्द्र भगवान सांभलो देवा रे । काई हीर करे अहनिशि तुम पय सेवा रे ॥११॥
इति सुपास जिन स्तवनं ॥
१. नाटिक
श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तवन बलद भला छे ए देशी ॥
चालो सखी पूजवा रे हीयडे हरख न माय रे सोभागी रे ।। आठमा चन्द्रप्रभु ध्याइई रे जेहनी दीपे चन्द्र सम काय सोभागी रे
'चन्द्रप्रभु मुझ मन वस्यां रे ॥१॥
रोहिणीपति समरे सदा रे मधुकर समने जाय रे सो० । गज समरे रेवा नदी रे वच्छ समरे जिम गाय रे सो० ॥२॥ चं० ॥
रामचंद्र जिम सीता मने रे गौरीने महादेव सो० । कमला मन गोविंद वस्या रे तिम मोरे मन वसी सेव सो० ॥३॥ चं० ॥
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अनुसंधान-१९ तारक बिरुद ताहरु रे सफल करो जिनराय सो० । सेवकने जो तारस्यो रे तो जगमा शोभा थाय सो० ॥८॥ चं० ॥
जिनचन्द्र वा हि वसलवयं राग सोमाग सो० ॥ ५ ॥ चं०
श्रीजिनचन्द्र 'सागरु रे भवभव तुजस्युं राग सो० । हीरसागर प्रभु बाहे ग्रही रे सुजस वधारो सोभाग सो० ॥ ५ ॥ चं० ॥ १. चन्द्र प्रभु मन वस्यारे २. श्री जिनचन्द्र गुण सागरु रे ३. वधारो भाग
श्रीसुविधिनाथस्तवन झूमखडानी देशी ॥
श्री सुविधि जिन 'पूजीई रे पूजतां सुख थाय सोभागी साहिबा । द्रव्य भाव जे साचवे रे तेहने मुगति उपाय सो० ॥१॥
प्रबल पुण्य पसायथी रे पाम्या सुविधि जिणंद सो० । अनंत खजानो प्रभु पासोरे सेवे सुरनर इंद सो० ॥२॥
मोट जाणी सेवीई रे सुखना कारण ठाम सो०। वांछीत रतन आपो सदा रे बलि जाउं ताहरे नाम सो० ॥३॥
उपसमरस वरसो सदा रे समकित केरी टीप सो० । रत्नत्रयी मोती नीपजे रे मुझ मन केरी छीप सो० ॥४॥
ते जिनचंद्र प्रभु दीजइं रे सेवकने सुख थाय सो० । हीरसागर प्रभु जगधणी रे करो घणो पसाय सो० ॥५॥
इति श्री सुविधिनाथस्तवनं ॥
१. श्री सुविधि जिन सुविधि पूजीई रे. २. पासे रे.
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श्रीशीतलनाथस्तवन
म्हेंतो निजरा रहिस्यांजी ॥ ए देशी ॥
म्हें तो दिलमां धरस्यांजी म्हारा रे साहिबने म्हें तो दिलमां धरस्यांजी । दिलमां धरस्यां अनुभव करस्यां रहस्यां स्वामी हजूर । शिवसुख पामी आनंदरामी लहस्यां सुख भरपूर म्हें० ॥ १॥
वीतरागता मुखने मटके नयणनें लटकें अटक्यु छे मुझ मन्न । मन वच काया दिल थामां धरतां उल्लस्यां छे मुझ तन्न, म्हें० ॥२॥
जोगमुद्रानो लटको चटको केवल ज्ञान स्वरूप । जग उपगारी छौ हितकारी जिनजी छौ अनुप, म्हें० ||३||
गिरुआ सागर गुण विरागर आगर हीरा जाण । आतम ध्यानें प्रभु गुण ज्ञानें होये सकल सुख जाण, म्हें० ॥४॥
आणंदरूपी सहज सरूपी चिदानंद भगवान । अहनिश ध्याउं आनंद पाउं दिनदिन चढतें वान, म्हें० ॥५॥
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मूरति मनोहारी लागे प्यारी, दीठे उपजे सुख । मैत्री उपजावी रत्नत्रयी भावी, दूरि कर्यां सवि दुःख, म्हें० ||६||
शीतल जिन दीठें शीतल थाइं आतम धर्म प्रकास । श्रीजिनचंद्रसूरिंदनो सेवक हीर करे अरदास, म्हें० ॥७॥
इति श्री शीतलनाथ स्तवनं ॥
१. शीतल दीठे
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अनुसंधान-१९
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श्रीश्रेयांसजिनस्तवन बीदलीनी ए देशी ॥
श्री श्रेयांस जिन सुगुण सोभागी, ए तो जोतां भावठि भागी रे । सुणि प्रभु अंतरजामी, तुम्हें लीधो शिवपुरीनो राज, 'तुमे सार्यां पोतानां
काज रे ॥ सु० ॥१॥
उपगारी जे कहवाइ 'ते तो सहुने सरिखां थाइ रे सु० । एकने घणु एकने ओछु ते प्रीती जणाइ छोच्छी रे सु० ॥२॥
बिरुद तुम्हारो गरीबनिवाज सेवकनी वधारो लाज रे सु० । तुम्हे महिमासागर ईश तुम्हें दूर करी सवि रीस रे सु० ॥३॥
ओछा रे केरो नेह जेहवो खारीनो दीसे त्रेह रे सु० । 'चंद चकोरनी प्रीति सुहावे तिम प्रभुजीश्युं गुण गोठ भावेरे सु० ॥८॥
श्रीजिनचंद्र करुणानिधि हवे प्रगटी रिद्धि ने सिद्धि हो सु० । हीरसागर प्रभु गुण गाया मनह मनोरथ पाया हो सु० ॥५॥
इति श्री श्रेयांसनाथ गीतं ॥ १. 'तुमे' नथी २. 'तेतो' नथी ३. चंद्र
श्रीवासुपूज्यजिनस्तवन थारा मोहलां उपर मेह ए देशी ॥
'वसुपूज्यसुत द्यो सेवा प्रभु तुम पयतणी हो लाल प्र० । अवर सेवा नावई दाय के चित्त चाहुं तुम भणी हो लाल चि० ॥
भव अनंत मझार साहिब मुझ मिल्या हो लाल सा० । भवभवना संताप दुःख ते सवि टल्या हो लाल दु० ॥१॥
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अनादि निगोद मझार स्वामी हुं वस्यो हो लाल स्वा० । मोह मदिरानी छाक थकी विषये धस्यो हो लाल वि० ॥
पुद्गलतणो स्वभाव ते रमण मुझ मन गमे हो लाल र० । जिहां तिहां इंद्रि स्वाद ते रिदय चित्त तिहां रमे हो लाल रि० ॥२॥
एहवं मुझ स्वभाव ते साहिब मांहरो हो लाल सा० । हिवइ मुझ मलीयो निर्यामक साथ ज ताहरो हो लाल सा० ॥
अनंतचतुष्टय श्रेणि प्रभुजीना गुण घणां हो लाल प्र० । श्रीजिनचंद्र हीर नमें पय तुम तणां हो लाल न० ॥३॥
इति श्री वासुपूज्यजिन स्तवनम् । १. वसुपूज
(श्रीविमलनाथस्तवन)
श्री रामपुरा बाझारमा ए देशी ॥ विमल जिणेसर ध्याईइं हीयडे हरख भराय मेरे लाल । श्यामा राणीइं जनमीओ इन्द्राणी मिलि गुण गाय मेरे लाल ॥ वि० १॥
विमल जनम करवा भणी सेवो विमल जिणंद मे० । मुख सोहे पूनिम चांदलो हरे संकट रयणि दिणंद मे० ॥ वि० २ ॥
विमलज्ञान ते जाणीइ जे सेवे एक चित्त मे० । विमल करें भवि जीवनें जे भगति युगति करे नित्त मे० ॥ वि० ३॥
निमित विमलें अनुभव 'सधिइं विमलपदे होइ ध्येय मे० । सुख अनंतु प्रगटे तिहां प्रगटे सर्वज्ञ ज्ञेय मे० ॥ वि. ॥४॥
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अनुसंधान - १९
ध्यातां (ता) ध्यान ने ध्येय एकें करी भाव हुई परमाण मे० । जिनचन्द्र पद आपीई हीरसागर सुख खाण मे० ॥ वि. ५ ॥
इति विमलनाथ स्तवनं ।
१. सधे
श्री अनंतनाथस्तवन
हूं तो वारि ढोलणि । ए देशी ॥
श्री अनंत जिन तारयो हो राज अनंत चतुष्टय गेह वारि म्हारा साहिबा । चौतीश अतिशये राजतो हो राज वाणी वरसे सुधारस मेह वा० ॥१॥
भविजन - मोर क्रीडा करे हो राज वरसें भगतिने मनखेत वा० । समकित अंकूरा उगीया हो राज श्रद्धा प्रतीत समेत वा० ॥२॥
व्रत फूल प्रगट्या सदा हो राज फल्या शिवफल सुख वा० । आतम रिद्धि प्रगट करी हो राज भांगी अनादिनी भूख वा० ||३||
प्रभुनिमित्त लही करी हो राज जे करसे उपादान सुद्ध वा० । प्रभुसेवा मुझने गमे हो राज जेहवा साकर दुद्ध वा० ||४||
अनंतजिन मुझ आपीइ हो राज जिनचंद्र सुख नितमेव वा० । हीरसागर तुम पयतणी हो राज करे अहोनिशि तुम सेव वा० ॥८॥
इति श्री अनंतजिन स्तवनं ॥
.
श्रीधर्मनाथस्तवन
चतुर सनेही मोहना ए देशी ॥
श्री धरमनाथ स्वामी सुणो तु मे धर्म प्रगट कर्यो स्वामी रे । आतम धरमनो अरथी धुं शुं कहिवुं शिवगामी रे ॥ धर्म० ॥१॥
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काल अनंते ओलख्यो धर्मनाथ जगनाथो रे ।
तुम छोडी बीजा किम नमुं कुण ले बाउल बाथो रे || धर्म० ॥२॥
दातार जाणी करी आव्यो तुम चरणे सांई रे । आपवुं होय ते आपीईं विमासी रह्या कांई रे || धर्म० ||३||
जो पोतानो त्रेवडो रस्युं जिनजी विचारो रे । एकपखिणी प्रीतडी छै प्रभु निरधारो रे ॥ धर्म० ॥४॥
शिवसुख जिनचंद्र आपीइं उपशम रसना कंद रे । हीरसागर प्रभु सुख घणां दीठे परमाणंद रे ॥ धर्म० ॥५॥ इति श्री धर्मनाथ स्तवनं ॥
१. ‘तुमे' नथी.
श्रीशांतिजिनस्तवन
जीहोनी ए देशी ।
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जीहो शांति जिणेसर प्रणमई लाला शांति जिणंद सुहाय जीहो । विश्वसेन नरपति चंदलो लाला अचिरानंद लागु पाय जीहो ॥१॥ जिणेसर सांभलि मुझ अरदास | आंकणी ।
जीहो चक्री पंचमो जाणीइं लाला सोलमा एह जिणंद जीहो । धरम चक्री तुमे वडा लाला जीहो दीपे जेम दिणंद जि० ॥२॥
जीहो अभयदान देइ करी लाला बांध्युं श्री जिननाम जोहो । जीहो सकल जीव ने निरभय कर्यां लाला पाम्या पंचम गति ठाम जि० ॥३॥
जो प्रभु ताहरी भगति सदा लाला महिर करो महाराज जीहो । जीहो सहिजे सेवक सुख करो लाला आपो अविचल राज जि० ||४||
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अनुसंधान - १९
जो मांगुं हुं प्रभु एटलुं लाला शाश्वत पद मुझ ठाम । जीहो जिनचंद्र प्रभु जाणज्यो लाला हीर जपै तुझ नाम जि० ॥५॥
इति श्री शांतिनाथ स्तवनं ॥
श्रीकुंथुजिनस्तवन कपूर होवें अति उजलुं रे ए देशी ॥
गुण गिरुआ प्रभु जगधणी रे अंतरजामी ईश रे ।
कुंथु भवोदधि तारवा रे कां न करो बगसीसरे स्वामी सेवकनें तार ॥१॥
कोड पेर करतां छतां रे वीनती विविध बणाय ।
जस कीरति जपतां सदा रे नावें तुमचे दाय रे स्वा० ॥२॥
जो जाणो तो जाणज्यो रे अंतरगतिनी पीड ।
धीर विना कुण हरी शके रे भवभय केरी भीड रे स्वा० ॥३॥
तुझ विना कोय न तारसें रे जाणो छो प्रभु निरधार । तो इणि हवें अवसर मल्यां रे श्युं करो देव विचार रे स्वा० ॥४॥
न होवे को विधि अम थकी रे पण तुझ नामे निस्तार । पथ्थर लोहनावें पड्या रे पामे सायर पार रे स्वा० ॥५॥
जल चढते पोयण वधे रे एह यथारथ न्याय । भगत सधे तुम हित वध्या रे साचे मन जिनराय स्वा० ॥६॥
श्रीजिनचंद्र साहिब तणो रे पार न पावे कोय । हीरसागर समोवड हुवे रे जो उज्जवल मन होय ||७||
इति श्रीकुंथुनाथ स्तवनम् ॥
१. तुं २. ही ३. विण
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श्रीअरनाथस्तवन अरज सुणो सूडार रा० ए देशी ॥
अरज अरज सुणो अरनाथजी होजी गुणधणी गिरुआ जगनाथ । अहनिशि अहनिशि उभा उलगें होजी करुणाकर स्वामी अनाथ अर० ॥ १॥
एक एक तारी छै प्रभु उपरे होजी जिम मोरा मन मेह । चातुक चातुक पीयु पीयु करे होजी तिम समरुं मन गेह | अर० ॥२॥
प्रभुजी प्रभुजी तुमे तो जइ दूरि वस्या होजी शी पेर करीइ स्वाम । ध्यान ध्यान आकर्षणे प्रभुजी आणीया होजी मुझ मंदिर ठाम अर० || ३ ||
वासो वासो वस्या मुझ मन्त्रमां होजी स्वामी जिनिं रहवा जोग । रत्न रत्नत्रयीना सुख दीजीइ होजी मिलीया अविहड भोग अर०||४||
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श्रीजिन श्रीजिनचंद्र लहिर करो जगधणी होजी जीनजी करो रे पसाय । हीर हीरसागर जिनगुण स्तवे होजी नमे लळीलळी पाय अर० ॥५॥ इति श्री अरनाथ स्तवनम् ॥
१. मुझ मन मंदिर
श्रीमल्लिनाथस्तवन हमीरानी देशी ॥
साहिब सेवा साधतां जो नसरे कोई काम सनेही । अंतरजामी अहनिशे कुण जपशें तुम नाम सनेही ॥१॥
मल्लि जिणेसर सेवीई, ए आंकणी ।
निसवारथ कोई केहने चरणे न नामे सीस स० । सेवक तोहिज सेवसें जो पहुंचे मननी जगीस स० ||२|| मल्लि० ॥
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अनुसंधान - १९
बेली न होवे दुःखमां जो न करे सहाय स० । इच्छित सुख आपे नहिं स्यांनो साहिब थाय स० ||३|| मल्लि० ॥
अवगुण गुण करी लेखवें विरचे न पडिया वंक स० । साचा साहिब ते सहि तजीयें तेहनो अंक स० ||४|| मल्लि० ||
श्रीजिनचंद्र बहु गुणनीलो मल्लिनाथ अरिहंत स० । हीरसागर बिरुद निवाजीयें वात सकलनो तंत स० ॥५॥ मल्लि० ॥ इति श्री मल्लिनाथ स्तवनम् ॥
श्री मुनिसुव्रतजिनस्तवन आवो रे स्वामीजी ए देशी ॥
श्रीमुनिसुव्रत स्वामीजी मया करो जगधणी रे ।
ओलगाडी मानो दासनी कांई निजर करो मो भणी रे | श्री० ॥१॥
हुं छं किंकर स्वामी तुमारो दासने दीजे दिलासो रे । सेवक नयण निहालीइ हुं खिण न तनुं तुम पासो रे ॥ श्री० ॥२॥
रांक हाथे जे रतन आव्युं किम मेलुं महाराजो रे । कामकुंभ चिंतामणी सुरतरु फलियो मुझ घर आजो रे | श्री० ॥३॥
अव उपरि जिम दया कीधी भरुअच्च नयर मझार रे । अनुचरनें निज लहरें करी ऊतारो भवपार रे । श्री० ||४||
आज महोदय माहरो मुझ मलीया त्रिभुवनस्वामी रे । श्रीजिनचन्द्र सुख सागरु हीर नमें शीर नामी रे | श्री० ॥५॥
इति श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवनम् ॥
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श्रीनमिजिनस्तवन श्री ऋषभानन गुणनीलो ।
श्रीनभिप्रभुजीने सेवतां होये सुखनो पूरण गेहरे जिणंद । चरणकमलनी सेवनां करतां वधइं गुणनेह रे जि० ॥ श्री० ||१||
वप्राराणीनो नंदलो जेहने सेवइ चोसठि इंद्र रे । जि० ॥ त्रिगडे बेठां सोहि प्रतिबुझवई सुरनरवृंद रे || जि० ॥ श्री० ॥२॥
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तुमे सारथी शिवपुरतणां समकित परम आधार रे जि० । ते समकित मुझ दीजई आतम हित सुखकार रे जि० ॥ श्री० ॥३॥
त्रिण तत्त्व मुझ दीजीइं करो करुणा हिवई सुखदाय रे जि० । दायक नायक उपमा तुमारी तुम भगते सुख थाय रे जि० ॥ श्री० ॥४॥
१. 'तुमारी' नथी.
श्रीजिनचंद्र मया करो दोलति दाई सुखकंद रे जि० । हीरसागर सुख संपदा ए तो प्रणमें परमाणंद रे जि० | श्री० ॥५॥
इति श्री नमिनाथ स्तवनम् ॥
श्रीनेमिनाथस्तवन
नरपती रे सीख दीओ अमने हवै ए देशी ॥
श्री नेमजी रथ फेरी पाछा किम वल्यारे साहिबा, नाणी प्रीत लगार । वयण मानो सयण वारु । नेमजी गोखे बेठी पीयुने वीनवे रे सा० किम छोडो राजुल नार ।
व० | श्री० ||१||
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अनुसंधान-१९ पशुआं पोकार सुणी करी रे सा० जाओ छो निरधार व० । तुम्हनई तो एहवू नवि घटे रे सा० करी करी पीओ मुझ सार व० ॥
श्री० ॥२॥
न मिल्यानो धोखो नहि रे सा० मिलीनइं जाओ छोडी व० । पहिला तो एहq जाण्युं हतुं रे सा० पुंहचसे मनना कोडी व० ॥श्री० ॥३॥
नवभव केरी प्रीतडी रे सा० छटकीनिं द्यो छो छेह व० ।। कीडी उपर कटकी कांई करी रे सा० तुमने अवर मिली' कुण तेह व०
||श्री०॥४॥
भोजन पीरसी थाल ताणी लीइं रे सा० सींचीने कुण खींचे मूल व० । पुरुष हीयानां कठोरडा रे सा० 'ए ऊखाणो साचो थयो मूल व०
॥श्री०॥५॥
पहिलई तो नेह दिखाडिने रे सा० हवइ वाल्हा छोडो छो गेह व० । करुणासागर किरपा करो रे सा० पुंहती गढ गिरनार ससनेह व०
॥श्री० ६ ॥
संजम लइ पीयु पहिली गई रे सा० शिवपुर उत्तम 'ठान व० । श्रीजिनचंद्रसूरितणो रे सा० हीर करे गुणगान व० ।श्री०॥७॥
इति श्री नेमिनाथजिन स्तवनं ॥ १. मली २. 'ए' नथी ३. ठाम ४. गुणग्राम
श्रीपार्श्वनाथस्तवन सांभळज्यो. हवें कर्मविपाक ए देशी ॥
श्रीपासजिणेसर प्रभुने पूजीई रे आणी हरख अपार । पूजतां ए जिनपूजन कह्या रे 'आणे भवनें पार ॥श्री०॥१॥
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द्रव्य भाव मली एकतानस्युं रे आराहे पूजन ठाम । अहनिशि प्रभुनी प्रभुता लीनो रहे रे सुरनरमें चढती मांम ॥श्री०॥२॥
कमठासुर हठ दुरई कर्यों रे करुणा कीधी खास । प्रदीप सम केवल झलहलई रे को अनाण तिमिर नास ॥श्री०॥३॥
त्रिगडें बेठा श्री जिन उपदिशे रे लोकलोक स्वरूप । 'लोकमार्गनि अवलोकतां रे अरूपी अक्षय रूप ॥श्री०॥४॥
महानंद मोहलमा राजता रे सुख अनंतनो वास । ते जिनचन्द्र प्रभु हृदयइं धरे रे प्रगटई हीर जसवास ||श्री०॥५॥
इति श्री पार्श्व जिन स्तवनम् ॥ १. आणंद २. तत्त्व मार्गनि
श्रीमहावीरस्वामिस्तवन प्रथम गोवालिया त० ए देशी ॥
त्रिभुवन केरो साहिबा जी वीरजी परम दयाल । शासन शोभा वधारतो .जी करी करुणा मयाल रे जिनजी रे ॥१॥
दासनी करो रे सार जि० ॥
सिद्धारथकुल-नभोमणि जी त्रिशला मात मल्हार । क्षत्रीयकुंडे जनमीया जी चौद स्वप्न लही सार रे जि० ॥२॥
संवच्छरी दान देई करी जी राज-रमणीनें छोड । संजमनारी परणीया जी पुंहतां मननां कोड रे जि० ॥३॥
घोर परिसहां जीतीया जी तोड्या कर्मना मोड । घातिकर्म दूरि कर्यां जी पोहता पामी सुर नमें कोड रे जि० ॥४॥
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अनुसंधान-१९ समवसरणमें राजता जी देतां भवि उपदेश । . रत्नत्रयी वरसें सदा जी अनुपम सुंदर वेसरे जि० ॥५॥
समकित दान आपीयां जी दलीद्र नसाड्यां दूर । ते दान लेई सुखी' थयां जी आनंद उपजई पूर रे जि० ॥६॥
श्रीजिनचंद्र प्रभु माहरो जी जीनजी परम आधार । श्रीहीरसागर प्रभु गुणनिलाजी। वो मय(मं)गलमालरे जीनजी, अने वरत्यो जयजयकार रे जीनजी ॥७॥
इतिश्री महावीर जिन स्तवनम् ॥ इति श्री चौवीशी स्तवन सम्पूर्ण : ॥ श्रीरस्तु । कल्याणमस्तु ।
श्रीकारी हुई ॥ शुभ छई ॥
१. सुखी या
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श्री गौतमस्वामीनुं स्तवन
- सं. मुनि जिनसेनविजयजी
लींबडी ज्ञानभंडारनी हस्तप्रतमांथी आ स्तवन मळ्युं छे, तेनी लिपि तथा प्रतनी परिस्थिति जोतां आशरे सत्तरमा सैकामां लखायेल हशे तेवू अनुमान बांधी शकाय.
पू. सिंहसूरिजीना शिष्य श्रीवीर नामना कोई साधु भगवंते आ स्तवननी रचना करी हशे तेवू छेल्ली कडीमांना उल्लेखथी कल्पी शकाय.
(राग : प्रभाती) पहेलो गणधर वीरनो रे जिनशासननो शणगार, गौतमगोत्रतणो धणी रे गुणमणी रयण भंडार, जय करजो हो गौतमस्वाम, ए तो नवनिधि होय जस नाम, ए तो पूरे वांछीत काम, एतो सुररमणी केरो धाम जय.....० १ ज्येष्ठा नक्षत्रे जनमीयो रे गोबरगाम मझार, वसुभूति सुत पृथ्वीतणो रे मानव मोहनगार जय.....० २. अष्टापद लब्धि चड्यो रे वांद्या जिन चोवीश, जगचिंतामणी तिहा कही रे स्तवीया ए जगदीश जय.....० ३ पनरशें त्रण आगले रे खीर खांड घृत पूर, अमृत जास अंगूठडे रे, ऊग्यो केवल-सूर जय..... ४ । पचास वरस गृह वासमारे छद्मस्थे रह्या त्रीस, बार वरस लगें केवली रे प्रभु आउं बाणुं जगीस जय..... ५ दीवाली दिन उपनोरे प्रात समे केवलनाण, अक्षीणलब्धि तणो धणी रे नामे सफल विहाण जय.....० ६. गोयम गणहर सारिखा रे श्री विजयसिंहसूरीश, ए गुरु चरण पसाउले रे वीर नमो निशदिश जय....०७.
इति :
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श्री गौतम - सुधर्म गणधर भास
लींबडी ज्ञानभंडारनी हस्तप्रत नं. ३२३ नी एक पानानी प्रत उपरथी आ बन्ने भास लख्या छे.
सं. मुनि जिनसेनविजयजी
रचयितानुं नाम देखातुं नथी पण रचना घणीज भाववाही छे. प्रतनी परिस्थिति मुजब आशरे सत्तरमा सैकानी गणी शकाय आ पानामां लखनारे पहेलां श्री सुधर्म गणधरनो भास अने पछीथी श्री गौतमगणधरनो भास आ रीते लख्या छे माटे क्रम ते मुजब राख्यो छे.
आ छे लालनी देशी ॥
ज्ञानादिक गुणखाणि राजगृही उद्यान गणधरलाल सोहमस्वामी समोसर्याजी ॥१॥
कंचन गौर शरीर वाणी गंगानीर ग०
त्रिहुं पंथे पसरै सदाजी ॥२॥
अंग ११ उपांगह १२ बार दसविध रुचिनो धार ग० दुगविध शिक्षा उपदिशैजी ॥३॥
तेर क्रिया १३ व्रत बार १२ गिहि पडिमा अगियार ११ ग० श्रावकगुण २१ भेद सिद्धना १५जी ॥४॥
वैयावच १० कल्प १० धरै दसविध १० छ अकल्प ६ ग० वंदनदोष ३२ विगथा ४ तजै जी ॥५॥
कुंकुम रोल कचोल गुंहली रंगमरोल ग०
अक्षत श्री फल उपरैजी ॥६॥
मगधाधिपनी नारि सोल सजी सिणगार ग० लळिलळि करती लुंछणाजी ॥७॥
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जोती गुरुमुखचंद पामती परमाणंद ग०
चतुर चिकोरी गोरडीजी ॥८॥ सुरवधु नरवधु कोडि मिली मिली सरखी जोडि ग०
गावै जिनशासन धणीजी ॥९॥ इति सुधर्मगणधर भास ॥
राजगृही रलियामणी जिहां गुणशिलचैत्य सुठाम साजन मोरी हे
आवो सवाई गुरु भेटवा कांई मेटवा कर्म कठोर सा० मुनिगण तारामां चंदज्यु आव्या गणि गौतमस्वामि सा० ॥१॥ पांचै इंद्रिय वसि करै वलि पालै पंच आचार सा० सुमति गुपति धोरी परि वहै पंच महाव्रत भार सा० ॥२॥ नववाडि ब्रह्म धरै सदा वलि परिहरै च्यार कषाय सा० लबधि अठावीसनो धणि जयो आठ प्रभावकराय सा० ॥३॥ पहिरणि पीत पटोलडी उपरि नवरंगो घाट सा० कुंकुमघोलसुं साथिओ करि अक्षत पूरि सुघाट सा० ॥४॥ ललिललि कीजै लुंछणा लेई रजत कनकनां फूल सा० करो जिनसासन परभावना वजडावो मंगलतूर सा० ॥५॥
इति गौतम गणधर भास ॥
संपर्कसूत्र : c/o. नलिन के. शाह हेमंत इलेक्ट्रीक्स गांधी रोड, अमदावाद-३८०००१
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ट्रॅक नोंध भगवान महावीरना आहार संबंधी भ्रमणा
भगवान महावीरे पण मांसाहार करेलो, तेवी एक भ्रमणा पुनर्जीवित थई छे. वैद्यकीय पारिभाषिक शब्दोना तथा तेना अर्थना अज्ञानने कारणे केटलाक विद्वानो आवी भ्रमणा सेवे छे तथा फेलावे छे. भगवतीसूत्र नामे प्रसिद्ध जैन आगममां एक पाठ एवो आवे छे के जेमां 'कवोयसरीर' - कपोतशरीर, 'मज्जारकड'-मार्जारकृत अने 'कुक्कुडमंस' - कुक्कुटमांस - आ त्रण शब्दो जोवा मळे छे. आ त्रणे शब्दो देखीती रीते जुदा जुदा प्राणीओना (कबूतर, बिलाडी अने कूकडो) वाचक छे ज. परंतु भारतीय शास्त्रोनी अर्थघटनने लगती प्रणालिकाथी जेओ वाकेफ हशे तेमने, शब्दार्थनो निर्णय करी आपनारां विविध परिबळोनी जाणकारी हशे ज. तेमां 'अर्थः प्रकरणं लिङ्ग कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्याऽनवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः" आ पद्यमां वर्णित 'प्रकरण' नी पण समजण होय ज. तेने मतलब ए छे के शब्द कया प्रकरणमां एटले के संदर्भमां - अधिकारमा प्रयोजायो छे ते जोईने ज तेनो अर्थ नक्की थई शके. दा.त. रसोई बनावतां बनावतां रसोई करनार 'सैन्धवमानय' एम सूचवे, त्यारे त्यां 'अश्व' लावीने ऊभो न कराय, परंतु सिंधालूण ज लाववा- होय; अने रणभेरी वागी ऊठे त्यारे शूरो योद्धो 'सैन्धवमानय' नी बूम पाडे, त्यारे त्यां मीठं न लवाय, घोडो ज लाववानो होय. आ उदाहरणनी जेम ज, प्रस्तुत प्रकरणमां पण, भगवान पोताना व्याधिनी चिकित्सा माटे कपोतशरीर वगेरे लाववा-न लाववानी वात करे छे, त्यारे आ संदर्भमां चालु शब्दकोशना दर्शावेल अर्थ प्रमाणे न चाले, परंतु आयुर्वेदशास्त्र अने वनौषधिकोशना अर्थो पकडवा जोईए. ते कोश-प्रमाणे उपर्युक्त त्रणे शब्दो जुदीजुदी वनस्पतिना वाचक छ :
कपोतशरीर : काकजंघा (एक प्रकारचें शाक). मार्जार : चित्रक कुक्कुट : शितिवार (शाकनो एक प्रकार).
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स्वाभाविक रीते ज समजी शकाय तेम छे के गोशाल मंखलिपुत्ते करेला तेजोलेश्याना प्रहारने लीधे व्याधिग्रस्त थयेला भगवाने, पोताना व्याधिनुं निवारण करवा माटे रेवती श्राविका पासेथी, काकजंघा, शाक न लाववानुं अने चित्रकथी भावित शितिवार-शाक व्होरी लाववानुं सिंह-मुनिने सूचन कर्यु हतुं.
आम, साव सीधी वात होवा छतां, परिभाषा अने संदर्भना अजाण एवा कोई कोई विद्वान मांसाहारसूचक अर्थोने वळगी रहीने भारे गरबड सरजे छे. ताजेतरनो एक दाखलो जोईए :
बेल्जियमना विद्वान प्रा. जोसेफ देल्यु (Jozef Deleu) ए आ सूत्रनो अनुवाद आ प्रमाणे कर्यो छे.
He (mahavira) orders Siha to go the woman Revati at Mendhiyagama and ask for to send the Cock killed by the cat to Mahavira instead of two Pigeons she was Preparing for him. After having eaten the Cock Mahavira immediately regains health his. (Viyahapannatti p. 219).
आ अनुवाद केटलो भूलभरेलो छे ते तपासवा जेवू छे.
मूल सूत्रमा “मज्जारकडए कुक्कुडमंसए" छे, तेनो अनुवाद, “The Cock killed by the cat" करी दीधो छे ! कडए नो अर्थ killed केवी रोते थाय ? तेटलो विचार को होत तो आवी गरबड न थई होत.
ए ज रीते निघंटुशास्त्रनो विचार को होत तो कपोतनो अर्थ Pigeons अने कुक्कुटनो अर्थ Cock करवा टाळी शकायुं होत.
-शी.
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उपयोगी माहिती (१) जैन काष्ठपट-चित्र ले. स्व. वासुदेव स्मात
(ई.२००१) सं. जगदीप स्मार्त्त
आ. श्री ओंकारसूरि आराधना भवन-ग्रंथावली, सूरतना आश्रये, आ कलात्मक कलाविषयक ग्रंथ आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीनी प्रेरणा अने मार्गदर्शन प्रमाणे प्रकाशित थयो छे. ग्रंथनी गुजराती अने अंग्रेजी एम बे आवृत्तिओ करवामां आवी छे. अनेक रंगीन चित्रो (Photo Plates) थी समृद्ध आ ग्रंथ, दक्षिण गुजरातनां जैन मंदिरोगत काष्ठचित्रकलानां ऐतिहासिक तेमज कलशैलीगत पासांनुं अधिकृत अध्ययन आपे छे. (२) मुक्तकरत्नकोश डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
(ई. २००१) प्र. गुजरात साहित्य अकादमी, गांधीनगर
सद्गत भायाणीजीए संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश साहित्यना पोताना विशाल अवगाहनमाथी अढळक पद्योनां मुक्तक-अनुवाद करेला, अने तेवां मुक्तकोना सातेक संग्रहो तेमणे आपेला. ते तमाम-सातेय संग्रहोना संचयरूप आ ग्रंथ अकादमीए हवे सुलभ करी आप्यो छे.
खुलासो : अनुसन्धान १३मां प्रकाशित 'यतिशिक्षापञ्चाशिका' पूर्वे अन्यत्र प्रकाशित होवानुं ध्यानमां आव्युं छे. तेमज अंक १७ मां मुद्रित 'गायत्रीमंत्र-वृत्ति' पण पूर्वे अन्यत्र प्रकाशित थयेल छे. (सं.).
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विहंगावलोकन
मुनि भुवनचन्द्र
३०० लगभग पानां, सुंदर मुखपृष्ठ, उच्च स्तरीय संशोधनलेखो, भायाणी साहेब विषयक अंजलिलेखो वगेरे द्वारा 'अनुसंधान'नो 'श्री हरिवल्लभ भायाणी स्मृति विशेषांक' एक ग्रंथ जेवो तथा भायाणी साहेबना नाम-कामना प्रतीक जेवो बन्यो छे. देश-परदेशना मोटा गजाना विद्वानोए आमां लख्युं छे. अंक प्रगट थवामां विलंब भले थयो पण श्रीशीलचन्द्रसूरिए लीधेलो परिश्रम देखाइ आवे छे.
'गुणवान ज गुणवानने ओळखी-समजी शके'- ए उक्तिनी सत्यता श्रीजयंत कोठारी जेवा समर्थ विद्वानोना भावसभर अंजलिलेखो वांचतां प्रत्यक्ष थाय छे. भायाणी साहेब माटे एमणे योजेखें उपमान 'वडलो' केटलुं सचोट छे ! श्री हसु याज्ञिकनो लेख भायाणीजीना सालस-उदार व्यक्तित्वनी छबी उपसावे छे, तो श्री कुमारपाळ देसाईनो लेख भायाणीजीना वैदुष्य तथा वाग्व्यापारनो आलेख आंके छे. "अनेक दुर्घटनाओमांथी सर्जायेली घटना एटले हरिवल्लभ भायाणी' शीर्षक लेखना लेखक, नाम छपायुं नथी. भायाणीजीनां मूळ कई धरतीमां हतां, एमनो पिंड कया द्रव्यनो बनेलो हतो ए तो आ लेख वांचीए तो ज समजाय. महान उपलब्धिओ सस्ती नथी मळती. आ सनातन सत्य भायाणीजीना जीवननी घटनाओमांथी तरी आवे छे.
. भायाणी साहेबनी जन्म अने अवसाननी तारीखो अंकमां क्यांय नथी. तेमनी छबी साथे ए मूकवा जेवी हती.
प्रो. जे. सी. राइटनो गांधारी प्राकृत विषयक लेख एक नवी, रोमांचक वात लइने आवे छे. छेक ईसुनी पहेली सदीथी आरंभीने लखायेली त्रिपिटकनी हस्तप्रतो अफघानिस्तानमांथी मळी आवी छे अने लंडन, वोशिंग्टननी संशोधन-संस्थाओमां तेमनो अभ्यास थई रह्यो छे. आ प्रतो भोजपत्र पर, खरोष्ठी लिपिमां लखायेली छे. आ हस्तप्रतोनी भाषा पालिथी जरा जुदी प्राकृत छे. विद्वानोए एना माटे 'गांधारी प्राकृत' एवु नाम योज्युं छे. आ
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हस्तप्रतोना संशोधन माटे थई रहेला प्रयासो अने संशोधक विद्वानोनी सज्जता वगेरे जोईने आनंद थाय.
प्रो. के. आर. चन्द्रानुं अर्धमागधीनं संशोधन ए जैन आगमोना अभ्यासक्षेत्रे महत्त्वनुं कार्य गणाय. आ अंकमां आ विषय पर तेमनो एक लेख छे. विद्वानोना प्रयासो थकी आवी मूल्यवान माहितीओ प्रकाशमां आवती रहे छे, परंतु आपणा विद्वान मुनिओ तेनाथी अजाण ज रही जाय छे. संशोधक मानस केळवायुं नथी ए एक खेदजनक वास्तविकता छे. प्राकृतना अभ्यासीओए चंद्राजीना 'प्राकृत भाषाओंका तुलनात्मक व्याकरण'नो पण अभ्यास करवो जोइए.
'अजय', 'अजेय' अने 'अजय्य'- आ शब्दोनी चर्चा करतो एम. ए. मेहेन्दलेनो लेख संस्कृत भाषानी खूबीओ समजावी जाय छे. 'अजेय' नो अर्थ छे - 'जेने जीतवुं योग्य न गणाय एवो.' 'अजय्य' नो अर्थ छे - 'जे जीती शकाय तेवो नथी.' 'अजय' नो अर्थ छे 'जे जीती शके तेवो नथी. '
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वी. एम. कुलकर्णीना लेखमां श्री हरिवल्लभ भायाणीनी भाषाकीय सूझ अने प्राचीन साहित्यनी समजनां रसप्रद उदाहरणो वांचवा मळे छे. लहियाओना हाथे भ्रष्ट अने भ्रांतिजनक बनी गयेला शब्दोने स्थाने सुसंगत बने एवो पाठ भायाणीजी कल्पी शकता हता. पाठने पाछळथी मळेली प्रतोना पाठ द्वारा पुष्टि मळे एवं बनतुं.
श्रीथोमस ओबर्लीनो लेख पण श्रीभायाणी साहेबना उदार अने साहित्यसेवाने समर्पित व्यक्तित्वने अंजलि आपे छे. आ लेखमांना बे-चार शब्दो विशे
कट्टलिया : गुजरातीमां 'कातळी'. कच्छीमां आ शब्द 'गतरी' एवा रूपमा आजे प्रचलित छे. अर्थ छे : शेरडी के वांस जेवी वनस्पतिना सांठानो बे गांठो वच्चेनो भाग.
साधुओना समुदाय माटे वपराता 'गच्छ' शब्दनो मूळ अर्थ 'वृक्ष' छेते आ लेखमां ज वांच्यं.
दुल्ललिय : गुजरातीमां 'दुलो' (दुलो राजा) अने कच्छीमां 'धुल्लो'
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• मळे छे तेनुं मूळ आ शब्दमां ज हशे 'धुल्लो' एटले (कच्छीमां) उदार, सुखी अने चिंता वगरनो माणस.
धिक्का : गुजरातीमां आनुं 'ढींक', 'ढींको' अने 'धक्को' थयुं छे. कच्छीमां 'धिक'- 'हाथथी मारेलो धक्को' एवा ज अर्थमां हजी पण वपराय छे. कच्छीमां प्राकृत (मोटा भागे महाराष्ट्री प्राकृत) अने देश्य शब्दो प्राचीन अर्थ अने उच्चारमां हजी पण सारा प्रमाणमां सचवाई रह्या छे एवं लागे.
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श्रीजयंतभाई कोठारीए मध्यकालीन जैन कृतिओनां संपादन- प्रकाशनमां विशेष लक्ष्य आप्युं हतुं. ए कृतिओने धार्मिक गणीने 'साहित्य' नहीं मानवाना वलण सामे पण कलम चलावी हती. प्रस्तुत अंकमा एमना द्वारा संपादित 'सीमंधर जिन चंद्राउला'ना कृतिपरिचयमां साहित्यिक दृष्टिए रसदर्शन करावतां वर्णन / कल्पनाओनी संगतिना प्रश्ने तेमणे जे कह्युं छे ते अहीं फरीथी ऊतारवानी इच्छा थाय छे : '....मध्यकालीन काव्यो कोई एक चोक्कस मनोभूमिका के कोई चुस्त विचारभूमिका लईने लखाता नहोतां. एमां... विविध मनोभावो के तर्को तरंगोना तणखा ऊडाडवामां आवता हता... आजना गझल जेवा काव्य प्रकारमा एक केन्द्र होवानीये अनिवार्यता लेखाती नथी, तो आ मध्यकालीन काव्यरचनाशैलीनो ये आपणे केम स्वीकार न करी शकीए ?"
दूरिथी पानि प्रीति ज राखी, अंबर - मृगमद नेहई साखी.
१७मी कडीना आ शब्दोनो भाव अस्पष्ट रहे छे एम तेमणे नोंध्युं छे. ए जमानामां पानबीडामां अंबर - कस्तूरी नाखता हशे अंबर दरियामां पेदा थाय छे, कस्तूरी मृगनाभिमां अने पान तेमनाथी दूर क्यांक उत्पन्न थाय छे. दूर होवा छतां अंबर - कस्तूरीने पान उपर प्रीति छे तेथी आवीने पानमां एकरस थई जाय छे, ए साचा प्रेमनुं लक्षण छे - एवो भाव आ पंक्तिनो होइ शके.
कडी १३मां 'त्यां सुख' छपायुं छे. 'त्यां'नी जग्याए 'तां' जोइए. पाछळ शब्दार्थमां 'तां' लीधो छे.
'ठठि कवी' मां छापभूल जणाय छे. 'कंठि ठवी' तो नहि होय ?
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141 'गौतमस्वामीनी सज्झायमां 'मोटी मामे' एम छे त्यां 'माम'नो अर्थ मोटाई, वडाई थाय छे.
सिद्धशिलाविषयक श्रीढांकीनो लेख रचनाकालना क्रमे जैन साहित्यमांथी 'सिद्धशिला'ना उल्लेखो शोधवाना प्रयासरूप छे. तत्त्वनिर्णयमां जे ते ग्रंथना रचनासमयने पण दृष्टिमां राखवानी आधुनिक संशोधकोनी पद्धति घणी वार जटिल प्रश्नना उकेलमां सहायक थती होय छे.
'सीमंधर स्वामी लेखपत्र'ना पाठमां वाचननी भूलो रही गई छे. कडी १. ना छेडे 'संदेसई व्यवहार वाहला' आ ठेकाणे बे-त्रण भूलो जणाय छे. १. 'संदेसई' जोईए, (कदाच मुद्रणदोष पण होय). २- 'व्यवहार' शब्द प्रासनी रीते बेसतो नथी. जयवंतसूरि प्रास वगर कविता रचे नहि. उपली पंक्तिमा 'मेलावउ' छे एने अनुरूप शब्द अहीं होवो जोईए ३.कडीना अंते 'रे' सर्वत्र जोवा मळे छे ते अहीं नथी.
कडी ७नी अंतिम पंक्तिओमां खासी गरबड छे. ढाल २ नी देशीमां 'राग: केदारु-गुडी' एम लखावू जोइतुं हतुं. बीजी ढालनी आंकणी आ प्रमाणे जणाय छे.
वाहालाजी, हिअडइ धरजो नेह, तुम मिलवारे अलजउ देह, रखे पडती रे नेहडइ रेह, वा०
कडी १९मां 'पूड' बे वार छे, पण एक वार जोईए. ढाल ३मां द्रपदनी पंक्तिओने कडी तरीके क्रमांक आप्यो छे. वस्तुतः आंकणी मोटी छे तेथी कडी समजी लेवाई छे. कडी १८मां 'आवडुं' छे. ते 'आवटुं' होय एवी शंका थाय. 'आवटुं'- पीडा भोगवं, तरफडं एवो अर्थ छे. शब्दार्थमां
विहाइ : 'शोभे' खोटुं छे. 'वीती जाय', पूरुं थाय.' वेधक : 'प्रियजन' नहि पण 'प्रेमी', रसिक जन. वेधीउ : 'वींध्यु' नहिं पण 'आकर्षायेलु' (प्रेमथी). 'सिद्धाचलतीर्थ चैत्यपरिपाटी', एक रसप्रद, ऐतिहासिक मूल्य धरावती,
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दस्तावेजी छतां भावुक रचना छे. आ शोध बदल श्रीशीलचन्द्रसूरिजीने अभिनंदन घटे छे. लेखक मालजी नागजी कच्छी पालीताणामां ज वसी गया हशे ने तेथी ज 'कच्छी' तरीके प्रसिद्ध थया हशे. वळी लखाणनी गुजराती भाषा पण लांबा महावरानी चाडी खाय छे.
लेखमां जाणवा जेवू घणुं छे. पेरा १३मां आवेलुं मुनि कल्याण विमलजी- नाम ऐतिहासिक छे अने तेने एक अन्य आधार पण मळे छे. पार्श्वचन्द्रगच्छना क्रियोद्धारक संवेगरंग-रंगितात्मा श्रीकुशलचन्द्रजी गणिना जीवनमां आ श्रीकल्याणविमलजीए अगत्यनो भाग भजव्यो हतो. कच्छना कोडाय गामथी पांच युवान मुमुक्षुओ पालीताणा पहोंचेला. नागोरी तपागच्छ (पार्श्वचन्द्रगच्छ)ना श्री पूज्य गच्छाधिपति श्री हर्षचन्द्रसूरिनी पासे एमने दीक्षा लेवी हती. एमने त्यां श्रीकल्याणविमलजी मळी गया. एमणे कडं के माबापनी रजा वगर हर्षचन्द्रसूरि तमने दीक्षा आपशे नहि. परंतु पांचे जणनी वैराग्यदशा जोईने एमणे ज मार्ग बताव्यो : स्वयं मुनिवेश पहेरी तळेटीए बेसो, आथी तमारो मामलो संघ पासे जशे, ने संघ वचमां पडशे तो हर्षचन्द्रसूरि तमने स्वीकारशे. पांचे मुमुक्षुओए ए प्रमाणे कर्यु अने तेमनी भावना साकार थई. एमांना एक श्रीकुशलचन्द्रजी गणिवर हता. आ प्रसंग सं. १९०७नो छे, मालजी नागजीनो लेख सं. १९०८ नो छे. (संचवायेली नोंधोना आधारे श्री कुशलचंद्रजी गणिवरनुं जीवनचरित्र आ पंक्तिओ लखनारे लख्युं छे : 'मंडलाचार्य श्री कुशलचंद्रजी गणिवर.' प्रका. श्री कच्छप्रदेश पार्श्वचन्द्रगच्छ जैन संघ, बीदडा, १९९१.)
__ मालजी नागजी कच्छीए मुनि श्रीकल्याणविमलजीना परोपकार, आराधना अने 'शीतलता' पमाडवाना गुणनो उल्लेख कर्यो छे तेने पण उपर्युक्त प्रसंगथी पुष्टि मळे छे.
पेरा ३०मां 'गुणज'नो उल्लेख छे. आ एक हथियारवें कच्छी नाम छे. अणीदार खीला अने सांकळ साथेनुं जाडं लाकडु रहेतुं, जेने गोळ गोळ घुमावीने फेंकवामां आवतुं.
महान शास्त्रकारोमां श्री हरिभद्रसूरिनुं नाम अनेक रीते विशिष्ट छे. अध्यात्मक्षेत्रे प्रवर्तती विविध परिभाषाओ तथा पद्धतिओनी आंतरिक एकसूत्रता
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अनुसंधान-१९ अने विशेषताओने पोताना अनेक ग्रंथोमां अद्भुत रीते एमणे समजावी. श्री नगीन जी. शाहनो आ अंकमांनो लेख श्रीहरिभद्रसूरिना ज्ञान अने विचारनी सीमाओ केटली विस्तरेली हती तेनुं दर्शन करावी जाय छे. जैन, बौद्ध अने योगदर्शननो तेमनो अभ्यास केटलो ऊंडो हशे ?- के जेना परिणामे तेओ आ बधा मार्गानुं संतुलित संश्लेषण करी शक्या. श्रीनगीनभाई- पण अवगाहन विस्तीर्ण छे, तेथी ज श्री हरिभद्रसूरिनी ज्ञानाराधनानी विशेषता जोई शके छे. तुलनात्मक अध्ययननी आधुनिक पद्धतिना क्या क्या लाभ छे तेना निदर्शन तरीके मूकी शकाय एवी सामग्री आ लेखमां छे.
'अनुसंधान' १५मां प्रगट थयेल 'सारस्वतोल्लास' काव्यना कर्ता कोण ? ए प्रश्ननो जवाब श्रीजयंतभाई कोठारी तरफथी आ अंकमां मळे छे. पत्रचर्चामां योग्य चर्चा-विचारणा साथे आना कर्ता, नाम 'रत्नमंडन' होवार्नु तेमणे शोधी आप्युं छे. श्रीकोठारी साहेबनी संशोधक प्रज्ञा हवे आपणी वच्चे नथी रही !
आ अंक मुद्रणदोषोथी बहुधा मुक्त रही शक्यो छे. आ संपादकश्रीनी सफळता छे. महत्त्वनी एक बे अशुद्धिओ नोंधवी रही
पृ. २८-२९ पर ajaya अने ajeya मां स्पेलिंगनी भूल जणाय छे, जे अर्थमां बाधक बने एवी छे. पृ. ५७ पर सातमी पंक्तिमां tying the not' छे त्यां knot जोइए. पृ. १९५ अभयदेवसूरिना उद्धरणमां 'देवशा प्ररूपणा' छे त्यां 'देशना प्ररूपणा' जोईए.
एक सूचन करवानी इच्छा छे : 'अनुसंधान'नां पृष्ठो पर वर्ष/मास/ अंक जणावती पंक्ति होवी जरूरी छे.
जैन देरासर नानी खाखर (कच्छ)
३७०४३५
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सांकळियु : "अनुसंधान” - १३ थी १८ अंकोर्नु
तैयार करनार : साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
साध्वी चारुशीलाश्री "अनुसंधान" नी प्रकाशन-तवारीख : अंक - १३-१४-१५, १९९९; १६-१७, २०००; १८-२००१.
संपादक
पत्र
कृति
कर्ता
अनु सं.
जयंत कोठारी
१८
२३७-२४६
१८
२६६-२६९
★ अंजलि लेखो - अगणित पंखीओना आश्रयरूप
एक वडलो - अनन्य रसज्ञता-विद्वत्ताना स्वामी
हरिवल्लभ भायाणीनुं अवसान - अनेक दुर्घटनाओमांथी सर्जायेली
घटना एटले हरिवल्लभ भायाणी - एमां बे वात छे - जयंत कोठारीना बे पत्रो - श्री जयंत कोठारीनी पण चिरविदाय
प्रे. उत्पल भायाणी
१८
२४७-२६२
हसु याज्ञिक
१८
२०८-२२३ २७२-२७३ २७१ ।
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शीलचन्द्रविजय
१८
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1
डॉ. हरिवल्लभ भायाणीनां प्रकाशित मुख्य पुस्तको
नखशिख विद्यापुरुष श्री भायाणी साहेबनी चिरविदाय विद्यानो भोजभर्यो व्यासंग विरल विद्यापुरुष श्री हरिवल्लभ भायाणी वीसमी सदीना हेमचंद्राचार्य
★ अथ व्यंग्यहीयाली
★ अश्वधाटीकाव्य
अष्टप्रातिहार्यवर्णनः अपभ्रंश
भाषामय आठ पद्य
आ
★ आचार्य हरिभद्र अने तेमनो
'योगदृष्टिसमुच्चय' ग्रंथ आदरणीय संपादको, 'अनुसंधान' 'अज्ञातकर्तृक बे दृष्टान्तशतक'
जगन्नाथ पंडित
संकलित
मुनि भुवनचन्द्र शीलचन्द्रविजय जयंत कोठारी
कुमारपाळ देसाइ सुरेश दलाल
श्री भंवरलाल नाहटा
नीलांजना सु. शाह
प्रद्युम्नसूरि
नगीन जी. शाह
मुनि भुवनचन्द्र
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१८
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२७५
२०६-२०७
२०७
२२९-२३६
२२४-२२८
२६३-२६५
२२४-२२६
५८-७१
३८-४१
१८८-१९३
१०७
अनुसंधान - १९
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T
'याग'
'सूक्तावली षड्दर्शनपरिक्रमः
एक विज्ञप्तिपत्र
उ
उत्तर गुजरातनी बोलीमां वपराता केटलाक शब्दो
आथर
ओडवो
छारुं
टोयली
पराठ
वक्तीतीती
मुनिविनयवर्धनः
मुनि भुवनचन्द्र
मुनि भुवनचन्द्र
मुनि भुवनचन्द्र
मुनिरत्नकीर्तविजय
डो. रमेश आ. ओझा
१५
१५
१५
१४
१४
x x x x x x
१४
१४
१४
१०९
१०९
१०७
३१-३७
१२०
१२१
१२१
१२२ •
१२२
१२३
146
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--------------------------------------------------------------------------
________________
क
कमलपञ्चशतिका स्तोत्र सटिप्पण.
★ करहेटकपार्श्वनाथस्तोत्रम्
★ कल्पसूत्रमें भद्रबाहु प्रयुक्त
'याग' शब्द
कविविल्हरचित भीमछंद
अणहिलपुर
कामरूपपञ्चाशिका
केलांक संशोधनो / प्रकाशनो
विषे.
केटलाक अल्पज्ञात के अज्ञात मूलना गुजराती शब्द प्रयोगो नी चर्चा खमण, खमणुं, छीणवुं
पं. हर्षकुलगणि.
सोमतिलकसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि.
१४
विजयमुनिचन्द्रसूरि विजयशीलचन्द्रसूरि १४
भंवरलाल नाहटा
१५
हरिवल्लभ भायाणी
१४
विजय शीलचन्द्रसूरि १३
१६
३२-५१
४२-४४
१०६-११२
४८-४९
१-१२
२२७-२२९
१३ ५३
अनुसंधान - १९
147
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--------------------------------------------------------------------------
________________
घायां-पडघायां
५३-५४ ५४
148
जड
१३
५५
-५६
विजयशीलचन्द्रसूरि
- जूठु-एटुजूढुं
झाड, झाडवू, झुडवू - पडछो. ★ केटलांक भाषागीतो
विनयचंद - श्री अजारा पार्श्वनाथ गीत "
ऊनामंडन श्री नेमीनाथ गीत
गच्छनायक श्री विजयसेनसूरिंगीत - गच्छपति श्रीविजयदेवसूरिंगीत - गिरिनारमंडन श्री नेमनाथ गीत - मंगलपुरमंडन श्री नवपल्लव
पार्श्वनाथ गीत * केटलीक रसप्रद माहिती - अवधू आनंदघननी आध्यात्मिक शब्दचेतना : संगोष्ठी
: : : : : :
संकलित
१८
१८
२७८-२८१ २७६-२७७ २०३-२१६
March-2002
* कौशिक : एक अप्रसिद्ध वैयाकरण
नीलांजना सु. शाह
१७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१७३-१८९
शुभ तिलकोपाध्याय मुनिरत्नकीर्तिविजय
हरिवल्लभ भायाणी
१७ १४
अनुसंधान-१९
१२४-१२६
हरिवल्लभ भायाणी
ã ão
१२६
★ गायत्रीमंत्र-वृत्ति : ★ गुजरातीमां महाप्राण व्यंजननो
अल्पप्राण थवो - शब्दचर्चा - अकड - अकबंध - अघरणी - अघरं - छाल - छीलटुं - छोल, - Hindi मोटा - Hindi छोटा - G. गोटा, H पोट (1) मोट (f.)
G एंट
ã ã
१२७ १२८ १२७
१२९ १२९
no no no no no ã ã
१३० १३५ १३५-१३६ १३६-१३७ १३७
149
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--------------------------------------------------------------------------
________________
* श्री गौतमस्वामीनी सज्झाय
लखमीविजयजी मुनि धर्मकीतिविजयजी
१८
१०३
150
* चंदप्पहचरियंनी रूपकथा | ★ चतुर्विंशतिजिननमस्कारकाव्यो
सलोनी जोषी विजयशीलचन्द्रसूरि
१४ १३
७०-९१ १९-२५
अज्ञातकर्तृक
नगीन जी. शाह
१७
२००-२०२
* जैन परंपरामा परिचारणा
भेदविचार-एक तुलनात्मक नोंध * जैन सन्ध्याविधि
मुनि जिनसेनविजय
१७
१६६-१६७
विजयशीलचन्द्रसूरि
१८
★ ढूंक नोंध - एक अप्रकट मूर्तिलेख
पांच पंक्तिनो कलश बीरबलनां रींगणां भोप्पय-भोप्प-भोपो-भोवो
१९९ ९८ ९६
११७
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भुवो
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________________
मस्तक लेख
श्री यशोविजयवाचकना पगलां वाचक उमास्वातिनां बे पद्य
★ श्राद्धदिनकृत्यसूत्र
★ श्री हीरविजयसूरिजीना समाधि स्थल विषे
ड
डॉ. मधुसूदन ढांकीने
श्री हेमचन्द्राचार्य चन्द्रक-प्रदानना समारोहनो तथा "आर्य भद्रबाहु और उनका साहित्य" विषयक संगोष्ठीनो संक्षिप्त हेवाल
थ
थोडांक हमणांनां प्रकाशनो एक अभिवादन - ओच्छव
एक गोष्ठ
हरिवल्लभ भायाणी कान्तिभाई शाह
१५
१८
१८
१४
१८
१४
१५
१५
९७
१९८
१९४
११८ - ११९
१९५-१९८
११३-११४
११०-११२
१११
अनुसंधान - १९
151
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१५
152
- तरंगवती - मेरुतुङ्गबालावबोध व्याकरणम् - युग प्रधान आचार्य श्री जिनदत्त
सूरिका जैनधर्म एवं साहित्यमें
योगदान - विश्वसाहित्यमा वार्ता : ट्रंकी वार्ता
प्रीतम सिंघवी नारायण कंसारा डॉ. स्मितप्रज्ञाश्री
१५ १५
११२ ११० १११
हसु याज्ञिक
१५
११०
* देशीनाममाला उद्धारः
श्री विमलसूरि
साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
१६
३२-२१६
★ निशालगरj * न्यायसिद्धान्तमंजरी
-टिप्पनक
सुरमुनि वाचक श्रीसिद्धि चन्द्र गणि
मुनि धर्मकीर्तिविजय मुनि कल्याणकीर्ति विजय
१५ १४
६८-७१ ५०-६९
जितेन्द्र शाह
१७
२३३-२६४
★ (स्व.) पंडित प्रवर
दलसुखभाई मालवणियानी साहित्योपासना
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________________
१७
मधुसूदन ढांकी मुनि भुवनचंद्र मुनि भुवनचंद्र मुनि भुवनचंद्र मुनि भुवनचंद्र जयंत कोठारी
अनुसंधान-१९
१६
★ पत्र चर्चा
विहंगावलोकन
विहंगावलोकन - विहंगावलोकन - 'सारस्वतोल्लास' एक दृष्टिपात - सारस्वतोल्लास काव्यना कर्ता ★ प्रकाशन-वर्तमान ★ (श्री) पार्श्वनाथ गीत * प्राकृत मुक्तक कविताना
एक अमूल्य ग्रंथंनी
उपलब्धि : तारागण ★ पिस्तालीस आगम-पूजा
२१७-२१८ २३६-२३९ २०२-२०५ १६८-१७२ २४०-२४४ २००-२०१ ११५-११६ १०२ ।। ५०-५२
मुनि जिनसेनविजय महावादीन्द्र बप्पभट्टीसूरि हरिवल्लभ भायाणी
१८ १३
श्री उत्तमविजयजी विजयशीलचन्द्रसूरि
१५
७६-८६
ब
★ बार भावना सज्झाय
जयवंतसूरि . जयंत कोठारी वादिवेताल आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरि श्री शान्तिसूरि
१७ १५
१४२-१५९ ९४-९५
* बृहत् शान्तिस्तोत्र
153
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________________
★ बे दृष्टान्तशतको
भ
श्री भंवरलाल नाहटा (कलकत्ता) का पत्र
भारतीय तत्त्वविद्याना अजोड विद्वानने स्मरणांजलि
★ भुवनसुंदरीकथायां वर्णितानि सामुद्रिक शास्त्रकथित लक्षणानि
म
★ मध्यकालीन गुजराती साहित्यना इतिहासलेखननुं
स्वरूप
माहिती विभाग
जैनविद्या नेमिचन्द्र विशेषांक
जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहासनुं
नवसंस्करण
अज्ञातकर्तृक
आचार्य विजयसिंहसूरि
धर्मकीर्तिविजय
विजयशीलचन्द्रसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि
बलवंत जानी
हरिवल्लभ भायाणी जयंत कोठारी
१४
१४
१७
१६
१८
१६
१६
११-२६
४५-४७
२२६-२३२
२८-३१
९१ - १०१
२३१
२३४
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________________
हरिवल्लभ भायाणी जयंत कोठारी
१६. १६
२३१-२३३ २३५
अनुसंधान-१९
हरिवल्लभ भायाणी
१६
२३०
- पाणिनिकृत अष्टाध्यायी - 'प्राचीन मध्यकालीन साहित्य
संग्रह' मुनिश्री जंबूविजयजीए जेसलमीरना जैन भंडारोमांनी ताडपत्रीय अने कागळनी हस्तप्रतोनी नकल कराववानी हाथ धरेली योजना ★ मुनिवर सुरवेलि
१५
मुनि कल्याणकीर्ति विजय
५२-६५
महोपाध्याय श्रीसकलचंद्रजी गणि
* मैं कभी भूलूँगा नहीं
राजाराम जैन
१७
२२२-२२५
श्रीपृथ्वीचन्द्रसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि
१३
१३-१८
* यतिशिक्षापञ्चाशिका
ल ★ ललित विस्तर
मूलपाठ-अनुवाद
डॉ. प्रीतम सिंघवी
१६
२१७-२२३
155
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--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य हरिभद्रसूरि जितेन्द्र शाह
१७
१९०-१९९
★ लोकतत्त्व निर्णयः एक समीक्षात्मक अध्ययन
व . - ★ (श्री) वासुपूज्यस्वामी
-प्रतिष्ठाविधिसूचक
प्रेमविजयजी
साध्वी दीप्तिप्रज्ञाश्री
१३
२६-४९
स्तवन
★ (श्री) विजयप्रभसूरि
श्री प्रेमविजयजी
विजयशीलचन्द्रसूरि
१५
८७-८९
बारमास
श्रीधनहर्षशिष्य
विजयशीलचन्द्रसूरि
१६
१-२७
अज्ञातकर्तृक
मुनिरत्नकीर्तिविजय
* विज्ञप्तिकालेखः
स ★ संस्कृत अपभ्रंश भाषामयं
स्तोत्रषट्कम् - श्री आदिनाथ स्तोत्रम् - श्रीनन्दीश्वरादि स्तुतयः
श्रीनेमिनाथ स्तोत्रम् - श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम्
१५ १५ १५ १५
२८ २७ २९ ३०
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________________
श्री महावीर स्तोत्रम्
श्री शान्तिनाथ स्तोत्रम् समवसरण स्तोत्र
'समारोह समाचार'
'सारस्वतोल्लासकाव्य'
विशे
सिद्धशिला
श्री सिद्धाचलतीर्थ चैत्यपरिपाटी
★ सिंहावलोकनो - १
सीमंधरजिन चंद्राउला
स्तवन
★ (श्री) सीमंधरस्वामी लेख/
पत्र
सुक्तावली
अज्ञातकर्तृक
अज्ञातकर्तृक
जयवंतसूरि
आ. अरविंदसूरि
मधुसूदन ढांकी
शा मालजी नागजी विजयशीलचन्द्रसूरि
कच्छी
जयवंतसूरि
विजयशीलचन्द्रसूरि
मधुसूदन ढांकी
जयंत कोठारी
प्रद्युम्नसूरि
नीलाञ्जना शाह
१५
१५
१४
१७
१५
१८
१८
१७
१८
१८
१४
३१
२८
२७-३०
२१९-२२१
१-२६
१०४ - १०८
११७-१८७
१६०-१६५
७२-९०
१०९-११६
९२- १०५
अनुसंधान - १९
157
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--------------------------------------------------------------------------
________________
★ स्थूलिभद्र-बारमासा
पं. तत्त्वविजयगणि विजयशीलचन्द्रसूरि
१५
७२-७४
158
हरिवल्लभ भायाणी
१००
१००
१००
१००
१००
★ शब्दचर्चा - डंगा-लाठी - ढकोसलां-आभास-कपटव्यवहार - ढग-ढगलो - ढगरो-कूलो - ढगो-आखलो - ढब्बु(ढबु) - ढांक - ढाढी 'ए नामनी धंधादारी ज्ञाति - ढींढुं 'शरीरनो कूलावाळो भाग - ढीको ढीको - ढीम, ढीमचुं, ढीमj
ढीम ढीमुं ढींचj - ढेको-कूलो
: : : : : : : : : :
१०१
१
___१०१
१५ १५ १५
१०२ १०२ १०२
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१०२-१०३
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________________
-
**
ढेकाढळिया, ढळिया- ढाळ
ढेबरुं
ढेसडी - विष्ठानो ढगलो
ढोल
ढोसो
G एंट
G. गोटये, H. पोट (f) मोट (f.) Hindi छोटा
Hindi मोटा
मोट मोटरी bundle
H. मोटा fat,
G. मोटुं big
I think मुट्ट शारदागीत श्रद्धांजलि
खेदकारक निधनः पं. श्री अमृतलाल भोजक
वा. यशोविजय
विजयशीलचन्द्रसूरि
१५
१५
१५
१५
१५
१५
१५
१५
१५
१६
१०३
१०३
१०३
१०४
१०६
१०६
१०५
१०४
६६-६७
२४७
अनुसंधान - १९
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________________
दुःखद निधनः पं. दलसुख मालवणिया
प
★ षड्दर्शन परिक्रमः
गूर्जर अवचूरि सह
ह हरीआली
अज्ञातकर्तृक
पं. तत्त्वविजयगणि
हरिवल्लभ भायाणी
१६
मुनिकल्याणकीर्तिविजय १४
विजयशीलचन्द्रसूरि १५
२४४-२४५
१-१०
७५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
A
ajaya-ajeya- and ajayya.
Alliteration of the word initial consonant
in modern Gujarati Compounds.
An Early Example of a late Middle Indo-Aryan Post Position ?
с ★Comparative study
of the language of the Acārānga and the Isibhasiyaim both edited by Prof. Schubring.
M. A. Mehendale.
H. C. Bhayani
Paul Dundas.
K. R. Chandra
18
17
18
17
27-30
32-42
41-45
47-51
अनुसंधान - १९
161
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--------------------------------------------------------------------------
________________
162
Vijay Pandya
18
*
46-54
Hanumannatakam : Date and place of its origin. Historio-Cultural Data as Available from Samaraicca kaha.
*
Rashesh Jamindar
17
52-65
*
J. C. Sikdar Mohanlal Mehta
17 17
122-141 94-100
Jaina Biology jaina Concept of Memory
Ashok Aklujakar
17
1-31.
* Love or leave ? Bhartr
Hari's (?) Dilemma
M
A.K.Warder
18
16-17
* Merutunga and Vikrama.
o * On Restoring Corrupt
Prakrit Verses.
V. M. Kulkarni
18
31-36
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________________
M.A.Mehendale
17
49-93
अनुसंधान-१९
K.R.Chandra
18
23-26
Vijay Pandya
17
110-121
* On Sthātúś Carātham in the Rgveda. 1.70-7
R * Retention of Medial
Consonants in the Grammer of Ardhamāghandhi by Hermann Jacobi
S * Śankarācārya and
the Taittiriyopanisad (with reference to his
bhāsyas.) * Some addenda et
Corrigenda to the "Glossary of selected words of Ernst leumann's
Die Āvaśyaka Erzälungen : * Some Aspects of
the Kaumudimitrāņanda
Thomas Oberlies
18
37-40
V.M.Kulkarni
17
75-88
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--------------------------------------------------------------------------
________________
Vijay Pandya
18
46-54
nuomonnatakam.
H.C.Bhayani
17
43-46
164
H.C.Bhayani
13
57-59
* Some folk etymologies
in the Anuyogadvāra Sūtra. * Sporadic Notes on
Some Terms from the Nrttaratnāvali Śrimad Rājacandra on the Necessity of a Direct Living Sad-guru.
N.M.Kansara
17
66-74
*
J. C. Wright
18
1-15
*
Suzuko Ohira
17
101-109
The Gandhari Prakrit version of the Rhinoceros Sūtra. The Jaina Universe in a Profile of Cosmic Man. The two rare icons of Parshwa Yaksha. Two Peculiar Usages of the particle Kira/kiri in Apabhramsa.
*
Dr. Balaji Ganorkar. 18
55-57
*
Herman Tieken
18
18-22
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________________